किसी का फ्लैशबैक तो किसी का फ्लैश-फॉरवर्ड / जयप्रकाश चौकसे

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किसी का फ्लैशबैक तो किसी का फ्लैश-फॉरवर्ड

प्रकाशन तिथि : 26 जुलाई 2012

सिनेमा की विधा में ‘फ्लैशबैक’ का अर्थ है विगत की घटना प्रस्तुत करना और ‘फ्लैश-फॉरवर्ड’ का अर्थ है आने वाले समय में पात्र के भय या सपनों की झलक दिखाना। अनेक बार ‘फ्लैश-फॉरवर्ड’ से दर्शक को झटका लगता है, परंतु ‘फ्लैश’ के समाप्त होते ही वह जान जाता है कि यह घटित नहीं हुआ है। टेलीविजन के दर्शक तो पहले शॉट में ही भांप लेते हैं कि यह ‘फ्लैश-फॉरवर्ड’ है। सीरियल संसार में साफगोई रखें या पात्र पहले वह बोल दे जो कहने आया है, तो कोई भी कथा रबर की तरह नहीं खींची जा सकती। वैसे उसके मुनाफे का अर्थशास्त्र उसकी रबर होने की क्षमता पर ही निर्भर करता है।

बहरहाल, राजेश खन्ना की विदाई उनके ‘आराधना’ वाले दिनों की तरह ही भव्य रही और मीडिया ने उन्हें यथेष्ट आदर दिया। यह भी सच है कि शवयात्रा में शामिल अनेक आम और खास लोगों के मन में टेलीविजन पर ‘दिख जाने’ का मोह था। आज के दौर में ‘होने’ से अधिक आवश्यक ‘दिख’ जाना है, जैसे सदियों से बाबू लोग हाजिरी रजिस्टर में दस्तखत करने के बाद कोई काम नहीं करते। अनेक उम्रदराज अवाम को राजेश खन्ना के मरने का दु:ख था और भारत में मृत्यु पर दु:ख जाहिर करने की पावन परंपरा भी रही है। अमिताभ बच्चन जानते हैं कि राजेश खन्ना ने उन्हें कभी पसंद नहीं किया तथा अपने पतन के लिए जवाबदार भी माना, जो कि सत्य नहीं है। अत: ‘भलमनसाहत’ का तकाजा था कि वे ‘दिखें’ और बखूबी दिखे भी।

यह संभव है कि राजेश खन्ना की विदाई में शामिल अनेक उम्रदराज लोग इसे अपना ‘फ्लैश-फॉरवर्ड’ मान रहे हैं। आज के दौर में किसी भी लोकप्रिय व्यक्ति को शांत और गोपनीय ‘विदाई’ नहीं मिल सकती। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की ‘अजगरी भूख’ किसी को भी गरिमामय ढंग से विदा नहीं होने देगी। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के गुर्गे और खबरी सफेद-शफ्फाख पोशाक धुलाकर तैयार करते हैं, लोकप्रिय व्यक्ति की शवयात्रा में नजदीकी व्यक्ति होकर शामिल होने के लिए। आजकल लघुतम कैमरा शर्ट की बटन के साथ भी ‘चस्पां’ किया जा सकता है और ‘आंखों देखा हाल’ सुनाया जा सकता है। आजकल संजय बनकर ‘कुरुक्षेत्र’ का विवरण धृतराष्ट्र को कोई भी सुना सकता है। ‘संजयत्व’ बाजार में दो कौड़ी में उपलब्ध है।

यह भी संभव है कि कुछ योजनाबद्ध ढंग से काम करने के अभ्यस्त लोकप्रिय उम्रदराज लोग राजेश खन्ना की विदाई का फुटेज घर पर बार-बार देख रहे हों, ताकि उसमें सुधार के आदेश अपने निकटतम को दे सकें। जिस दौर का मंत्र विज्ञापन की पंक्तिहो कि ‘उसकी कमीज मेरी कमीज से सफेद कैसे?’, उस दौर में यह भी मुमकिन है कि प्रतिद्वंद्वी रहे व्यक्ति की शवयात्रा मेरी शवयात्रा से अधिक भव्य नहीं होना चाहिए। यह भी अवचेतन में कौंध सकता है कि कितना धन देने पर ‘राष्ट्रीय शोक’ घोषित कराया जा सकता है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के भांडों से अतिरेक का वादा लिया जा सकता है।

विगत सदी में अमेरिका में पीटी बार्नम नामक शोमैन हुआ था, जिसने सारी उम्र मीडिया का लाभ लेकर लोगों को मूर्ख बनाया। वह अजूबे रचने में महारत रखता था। उसने ब्रिटेन में मरे जंबो हाथी के शव को खुली ट्रेन में रखकर अमेरिका की यात्रा कराई थी। पीटी बार्नम ने ही सर्कस के लिए लोहे, सीमेंट का स्थायी ‘टॉप’ भी रचा था। ९क् वर्ष की आयु पार करने के बाद बार्नम ने प्रिंट मीडिया से निवेदन किया कि एक तय तारीख को उसे मरा मानकर उसे श्रद्धांजलि दी जाए और सारे अखबार पढ़कर ही वह शांति से यथार्थ जीवन में मर सकेगा। उसकी यह प्रार्थना स्वीकार कर ली गई थी।

महान लेखक अर्नेस्ट हेमिंग्वे की ‘मृत्यु’ के समाचार दो बार प्रकाशित हुए, परंतु वे उन दुर्घटनाओं में बच गए थे। अनेक वर्ष पश्चात अपने शरीर की शिथिलता से तंग आकर उन्होंने आत्महत्या कर ली, परंतु मीडिया के लोगों को यकीन नहीं हुआ अैर उनकी श्रद्धांजलि शवयात्रा के बाद प्रकाशित हुई।

दरअसल उम्रदराज व्यक्तिप्राय: अपनी मृत्यु और उस पर दी जाने वाली प्रतिक्रिया के विषय में सोचते हैं। इस बात पर बार-बार विचार करना, समय-पूर्व ही मरने की तरह है। प्राय: श्रद्धांजलियां अच्छा गल्प होती हैं, जैसे इतिहास भी अफसाना ही होता है। हर लोकप्रिय सितारे के जीवन में कहीं कोई एक अनीता होती है, जो बाद में विवाद खड़ा कर सकती है।

(नोट : कुछ माह पूर्व छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद पर आधारित ‘आलाप’ नामक फिल्म मुझे दिखाई गई थी और कुछ दृश्यों की रीशूटिंग करने के सुझाव के साथ मैंने ‘जिस देश में गंगा बहती है’ और ‘रंग दे बसंती’ के उदाहरण दिए थे, लेकिन इस फिल्म को उपरोक्तफिल्मों की श्रेणी में नहीं रखा था, परंतु निर्माता इस आशय की मिथ्या बात अपने प्रचार में कर रहा है।)