किसे मालूम था कि यह उनका अंतिम सफर होगा ? / गिरीश तिवारी गिर्दा

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किसे मालूम था कि यह उनका अंतिम सफर होगा ?
लेखक:डॉ. गंगा बिष्ट

13 अगस्त 2010 को नैनीताल से हल्द्वानी की टैक्सी में बैठ कर अन्य सवारियों के बैठने का इन्तजार कर रही थी कि वक्त अचानक गिर्दा व हेमन्त बिष्ट गाड़ी में बैठे। गिर्दा को देख कर हमेशा की तरह मन प्रफुल्लित हो गया। सोच रही थी कि कहूँ, मैं तो कबसे आपसे मिलना चाह रही थी। पर बोल न पायी। डर लगा, गिर्दा कहेंगे- ‘बैंणी जैकें मिलण हूँ, उ त आइजाँ।’ पर चाहकर भी हम अपने जाल जंजाल से बाहर कितना समय निकाल पाते हैं ? औपचारिक नमस्ते के बाद गिर्दा ही बोले- बैंणी विद्यालय तो ठीक चल रहा है ? कितने साल बचे हैं ? अच्छा आ ! अभी चार-एक साल हैं ?……..

मैंने गिर्दा के बारे में अपने दिवंगत पति डॉ. लक्ष्मण बिष्ट व यदा-कदा डॉ. शेखर पाठक आदि से सुना था। फिर जन आंदोलनों में उनकी भूमिका देखी, उनके गीत सुने। जीआईसी नैनीताल में ‘नैनीताल समाचार की बाल निबन्ध प्रतियोगिता’ में गिर्दा के मुख से ‘कैसा हो स्कूल हमारा’ सुनना अथवा नंदा देवी महोत्सव में केबल टीवी पर घंटों उनको सुनना आत्मविभोर करने वाला अनुभव होता था।

हाँ तो गिर्दा से मिलने का मन क्यों इतना उतावला हो रहा था ? अक्सर उनकी बीमारी के बारे में चर्चा होती थी। ‘पहाड़’ के ‘रजत जयंती’ समारोह में अल्मोड़ा से लौटने पर वे अशोक होटल के पास दिखे। मैं जीप से उतरी, परन्तु वे जा चुके थे। मन मैं मलाल सा रह गया, क्योंकि समारोह के बीच-बीच में उनकी शेखर पाठक से फोन पर लगातार बात हो रही थी। अतः मेरे मन में भी उत्कट इच्छा थी मिलने की। डॉ. बिष्ट ने उत्तराखंड के लिये कई सपने देखे थे। मैं बच्चों के लिये प्रारम्भ किये गये कार्यक्रमों, हाल के वर्षों के क्रियाकलाप तथा भविष्य की रूप रेखा के बारे में उनसे चर्चा करना चाहती थी। उनका मार्गदर्शन भी लेना चाहती थी। 18 सितम्बर 2009 को उनसे डी.एस.बी. परिसर में हुई मुलाकात याद आ रही है, जब वे राजीव लोचन साह के साथ ‘नैनीताल स्वच्छता दिवस’ के कार्यक्रम में आये थे।

…..हाँ तो जिस टैक्सी में हम लोग बैठे थे, उसकी अगली सीट पर कोई टूरिस्ट हसन मियाँ भी बैठे थे। वे अपने आप से बोलते जा रहे थे कि मैंने बहुत अच्छा किया जो इस तरफ चला आया। कितना सुन्दर नजारा है ? वे यहाँ के प्राकृतिक सौन्दर्य से अभिभूत थे। कह रहे थे कि कैसी भूलभुलैया होती है पहाड़ में कि गाड़ी में बैठो तो अगले 1-2 घंटे बाद लगता है कि फिर उसी जगह वापस आ गये। कोई जगह अभी इतनी दूर लग रही थी, एक दो मोड़ पार किये पता चला कि वह तो पीछे निकल गई। अभी तक तो कहीं पानी नहीं दिख रहा था, अचानक नदी कहाँ से आ गयी ? रुई जैसे गोल-गोल बादल कितने पास आ जाते हैं!

सब लोग उनकी बातों का आनन्द ले रहे थे। हेमन्त बोले, हमें भी हल्द्वानी से आगे जाने पर भूलभूलैया ही लगता है। फिर उनके मुख से निकला भुजियाघाट। हसन मियाँ बोले, आपका नाम है यह ? नहीं इस जगह का नाम है। सभी हँस दिये। सहसा गिर्दा बोले, मियाँ आपसे मिलकर तो मजा ही आ गया। इतनी मासूमियत कैसे इस उम्र तक बरकरार रखी ? तुम तो बच्चे की सी जिज्ञासा से प्रश्न पूछते जा रहे हो। यहाँ तो लोगों को कुछ मालूम भी न हो फिर भी ऐसा दिखाते हैं जैसे कि हम सब जानते हैं। आप जैसे दस लोग भी आस-पास हो जायें तो जीने का मजा ही आ गया।

आमपड़ाव के पास टैक्सी रुकी। मेरे अलावा सभी बाहर उतरे। बाहर झाँका तो देखा कि गिर्दा बीड़ी का कश खींच रहे हैं। मुझे फिर डॉ. बिष्ट की बात याद आ गयी कि मैं इन लोगो से कहता हूँ- बीड़ी, सिगरेट, तम्बाकू, शराब सबन लै आतंक फैले राखो, एसिके बडूँछा उत्तराखंड ? हालाँकि गिर्दा में यह बात उसी तरह लागू नहीं होती थी, जैसा कि स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने एक बार विवेकानन्द से कहा था कि तुम आंतरिक रूप से इतना ऊँचा उठ गये हो कि संसार के साधारण नियम तुम्हारे शरीर पर लागू नहीं होते। परन्तु दुनियाँ तो आचरण देखकर ही शिक्षा लेती है।

काठगोदाम के पर्यटक आवासगृह के पास गिर्दा से विदा ली। वे ट्रेन से देहरादून जा रहे थे, स्वतंत्रता दिवस की पूर्वसंध्या पर आयोजित कवि सम्मेलन में भाग लेने। किसे मालूम था कि वह अन्तिम विदा होगी…..अब उनसे चर्चा का मौका ही नहीं मिलेगा….

नैतीताल समाचार से साभार