कीमती कपडॆ / गोवर्धन यादव
दो मित्र थे, रामदयाल और दीनदयाल, रामदयाल काफ़ी गरीब था, जबकि दीनदयाल करोडपति, दो असमान ध्रुव पर खडे रहकर भी, उनकी आपस में ख़ूब निभती थी,
एक दिन दीनदयाल ने अपने मित्र रामदयाल से कहा:-मित्र, जब भी तुम भाषण देने मंच पर जाते हो, वही पुराने फ़टे-पूराने कपडॆ पहन कर जाते हो, मुझे अच्छा नहीं लगता, मेरे पास एक से बढकर एक ड्रेसेस है, तुम पहनकर जाया करो, अपने मित्र की बात सुनकर रामदयाल ने उसका दिल रखने के लिए हामी भर दी, अब वह, जब भी, जहाँ भी जाता अपने मित्र के कपडॆ पहनकर जाने लगा,
किसी एक प्रतिष्ठित मंच पर रामदयाल अपना व्याख्यान दे रहा था और सामने की कुर्सी पर उसका मित्र बैठा उसे सुन रहा था, श्रोतागण उसकी बात पर जब तब दाद देते और तालियाँ भी बजाया करते थे, यह-यह सब देखकर दीनदयाल को काफ़ी प्रसन्न्ता हो रही थी, उसने अपने ठीक बगल में बैठे व्यक्ति से कहा:-मित्र, मंच पर जो व्यक्ति भाषण दे रहा है, वह उसका घनिष्ट मित्र है और उसने जो कपडॆ पहन रखे हैं, वह मेरे है, उसकी बात सुनने के बाद भी उसने अपनी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी, उसने अब दूसरी तरफ़ बैठे व्यक्ति से वही बात दुहरायी, लेकिन इसने भी कोई जबाब नहीं दिया, जबाब न पाकर उसका मन बैठने लगा था,
अपना भाषण समाप्त करने के बाद अब उसका मित्र प्रसन्न्ता से लकदक उसकी ओर बढ़ा चला आ रहा था, लोग अपनी-अपनी सीट से खडे होकर उसका अभिवादन करने लगे थे, दीनदयाल के मन में अब भी वही खिचडी पक रही थी, उसने अधीर होकर अपने मन की बातें औरो को भी बतलाना शुरु कर दिया, बातें करते समय उसे इस बात का तनिक भी आभास नहीं हो पाया कि उसका मित्र काफ़ी करीब आ चुका है और उसने उसकी सारी बाते सुन लिया है, बात सुन चुकने के बाद भी उसने अपनी ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं दी और आकर अपने मित्र के पास आकर खडा हो गया, अपने मित्र को पास पाकर दीन्दयाल ने उसे गले से लगाते हुए ढेरों सारी बधाइयाँ दी,
अगले किसी कार्यक्रम में रामदयाल पहले की तरह अपना व्याख्यान देने में तल्लीन था, कुछ देर तक बोलने के बाद उसने मंच पर से उपस्थित श्रोताओं से कहा":-मित्रों, मेरा भाषण अभी समाप्त नहीं हुआ है, बस दो मिनट बाद मैं अपनी बात जारी रखुंगा, कृपया थोडा-सा इन्तजार कीजिये," इतना कहकर वह परदे के पीछे गया, वहाँ जाकर उसने अपने धनी मित्र के दिए कपडॊं को उतारकर अपनी पुरानी पोषाख पहनी और मंच पर आकर उसी धाराप्रवाह में अपना भाषण देना शुरु कर दिया, इस बार उसके चेहरे पर छा रहा तेज देखाने लायक था, वह पूरे जोश और उत्साह के साथ अपनी वाणी को मुखर कर पा रहा था,
सामने की सीट पर बैठा उसका मित्र यह सब देख रहा था, जैसे ही भाषण समाप्त हुआ, वह पूर्व की तरह मुस्कुराता हुआ अपने मित्र की तरफ़ बढ़ा चला आ रहा था, बीच में ही लोगों ने उसे घेर लिया था और उसे ढेरों सारी शुभकामनाऎँ तथा बधाइयाँ देने लगे थे, वह बडी ही विनम्रता से सबकी बधाइयाँ स्वीकारता अपने मित्र के पास आ खडा हुआ, दीनदयाल को अब समझ में आया कि कीमती कपडॆ पहनना और बात है, और बुद्धिमान होना और बात है।