कीमत / प्रतिभा सक्सेना

Gadya Kosh से
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रोने की धीमी-धीमी आवाज़ अब भी उसे सुनाई दे रही है।

'क्या सोच रही हो, डार्लिंग? ऐसी सोई-सोई निगाहें जैसे तुम किसी दूसरी दुनिया में होओ। ’

उसका मुँह अपनी ओग घुमाकर आदमी ने उसे और निकट खींच लिया। तंबाकू और शराब की भभक से मोतिया को उबकाई आने लगी।

रात काफ़ी बात चुकी थी। एक बजा होगा उसने सोचा, इन आदमियों को नींद नहीं आती? फिर स्वयं को समझाया उसने -पैसा दिया है। उसकी कीमत तो वसूल करेगा ही। उसके दबाव से छुटकारा पाने के लिये उसने पूछा, 'पानी लेंगे। ?’

'पानी?’ कीचड़ से भरी आँखें मिचमिचा कर भरभराती आवाज़ में वह बोला, ’हम पानी नहीं पीते डार्लिंग, हमारी प्यास तो उससे बुझती है... , ’ उसने बोतल की ओर इशारा किया।

... 'और तुम्हारे शबाब से... 'अच्छा चलो एक पेग और पिला दो। ’

वह कपड़े सम्हाल कर उठी।

और शराब। और नशा, और वहशीपन! होश में रहते हुये भी कौन सी कसर छोड़ देते हैं जो शराब पी-पी कर और दरिन्दे बन जाते हैं।

गिलास पकड़ाते-पकड़ाते उसे लगा बच्चे के रोने की आवाज़ और धीमी हो गई है।

कहाँ तक रोयेगा! थक गया होगा, रोते-रोते गला सूख रहा होगा। पाँच महीने का कमज़ोर सा बीमार बच्चा, नौ बजे से अकेला पड़ा है। मन रो उठा मोतिया का।

रोने की आवाज़ बार-बार रुक जाती थी, फिर धीमे-धीमे सुनाई देने लगती थी। यह आदमी क्या बहरा है? इसे कुछ सुनाई नहीं देता! पर इसका ध्यान जायेगा ही क्यों? बच्चा दूसरे कमरे में है, दरवाज़ा बंद है। रोने की आवाज़ भी इतनी धीमी कि पूरा ध्यान दिये बिना पता ही न चले।

इसके बच्चे होंगे या? ... होंगे घर पर बीवी बच्चे, यहाँ हम जैसी...

वह धीमी आवाज़ मोतिया का कलेजा चीरे डाल रही थी।

बच्चा तो मेरा है। मुझे तो सुनाई देगा ही। और कौन सुनेगा? जैसे ही आवाज़ रुकती है उसका सारा ध्यान उधर ही केन्द्रित हो जाता है। उसे लगा मेरे मन का भ्रम तो नहीं है, बच्चा रो रहा हो और मुझे लग रहा हो चुप हो गया? थक कर सो गया... नही। सोयेगा कैसे? भूखा जो है। आठ बजे दूध पिलाया था। जब से बीमार पड़ा है ठीक से पीता ही कहाँ है! जरा-सा पिया और मुँह झटक लिया। और अब तो रात का डेढ बजने आया। भीगा होगा, हो सकता है गंदा भी पड़ा हो। गला सूख गया होगा! कोई कम रोया है!

ठंड में पड़ा होगा भीगा-भागा। कहाँ तक रोयेगा? आज वैसे भी गले से आवाज़ नहीं निकल रही है।

उसकी आँखों में आँसू आ गये।

'ये भरी-भरी आँखें! क्या खूबसूरती है! बस आँखों में ही सम्हाले रखना, ढुलक न जायें कहीं। वाह, क्या अदा है, मेरा जान! इसी पर तो मरते हैं हम। ’

उसने अपनी ओर फिर खींच लिया। मोतिया ने मुख घुमा कर आँसू पोंछ लिये।

'रोओ, मत। आई हेट टियर्ज। तुम्हारी वजह से मैंने पच्चास रुपये ज़्यादा दिये हैं। बिल्कुल नई-नई आई हो न अभी। हाँ लगती भी हो एकदम नई। नहीं तो सौ रुपये कुछ कम नहीं थे... और मेरी जान, हमारे साथ हो, मौज करो। ये रोना क्यों आ रहा है?’

'आपका प्यार देख कर घरावालों की बेइन्साफ़ी याद आ गई साहब!’

खुश होकर वह और उत्तेजित हो उठा, मोटी-मोटी उँगलियों का दबाव असहनीय हो उठा। पर सवा सौ रुपये बहुत होते हैं।

पच्चीस तो होटलवाला रखेगा। बच्चे की दवा, उसका अपना पेट, जिसे भरे बिना बच्चा भूखा रहेगा। और खोली का तीन महीने का किराया, जिसे वसूलने मालिक का आदमी हर चौथे-पाँचवें दिन आ बैठता है। उसकी आँखें और बातें डर पैदा करती हैं। एक महीने का किराया तो दे ही देगी। फिर एक महीने तो पीछा छोड़ेगा। और कहीं खोली भी कहाँ मिलेगी रहने के लिये?

भाई को लिखा था ले जाय आकर। पर ढाई महीना हो गया इन्तज़ार करते-करते, चिट्ठी तक नहीं आई। पता नहीं वहीं है या कहीं और चला गया। ससुराल में बूढ़ी सास के अलावा जेठ हैं पर उनने कभी मतलब नहीं रखा। यहीं रहना है मोतिया को तो। कोई काम ढूँढ लेगी। शुरू-शुरू में चार छः दिन पास-पड़ोसियों ने पूछा। पर वे भी कितना करते? सबके अपने-अपने रोने। खोली के बाहर नये-नये चेहरे दिखाई देने लगे हैं। उसे देख कर मुस्कराते हैं, गाते हैं। किससे कहे मोतिया? बच्चे को ले कर चुपचाप पड़ी रहती है।

'हमें खुशी चाहिये, पैसे दिये हैं मुँह लटकाने के लिये नहीं। ’

वह मुस्करा दी।

शराब का भभका जैसे सिर में चढा जा रहा है। वह मुँह घुमाती है पर मोटा-सा हाथ उसका मुँह अपनी ओर घुमा लेता है।

साँस लेना मुश्किल हो रहा है। दम घुटा जा रहा है वह अपना सिर एक ओर करने की कोशिश करती है।

'दूर-दूर क्यों भागती हो मेरी जान, बस यों लेटी रहो।

होठों पर थूक लगा है, गाल चिपचिपा रहे हैं। बाँह उठा कर वह पोंछ लेती है। ठीक से साँस भी नहीं लेने देता।

लगता है सो गया है। उसने अलग होने की चेष्टा की तो और जकड़ लिया।

रोने की धीमी आवाज़ रुक-रुक कर आ रही है।

क्या बात है डार्लिंग?’

'कुछ नहीं’

'फिर इतनी ठंडी क्यों हो? एक पेग ले लो सब दुरुस्त हो जायेगा। मौज करो मेरे खर्चे पर। ’

वह उसके मुँह से लगाना चाहता है। मोतिया ने मुँह फेर लिया, ’हम नहीं पीते साहब। कभी नहीं पी। आदत ही नहीं है’

मोतिया का पेट भूख के मारे ऐंठ रहा है।

'तुम्हारा आदमी तो पीता होगा?

“उसकी बात मत करिये, साहब। ’

उसकी बात! वह होता तो यह नौबत क्यों आती। कैसे चाव से लाया था इस शहर में। ढाई साल ही तो हुये थे ब्याह को। क्या मालूम था दंगे में गोली उसी को लगेगी! उसे तो पता भी नहीं था कपड़े लेकर कहाँ-कहाँ फेरी लगाने जाता है। मंदिर और मस्जिद के बीच की जगह थी। एक दम झगड़े की आवाज़ें आने लगीं। भगदड़ मच गई, फटाफट दूकाने बंद होने लगीं। ईंट-पत्थर, छुरेबाज़ी, मार-काट और फिर गोलयाँ चलने लगीं। एक गोली आकर सिंभू -मोतिया के घरवाले, को लगी। पड़ोस के बिन्देसरी ने बताया था -सिंभू उस मोहल्ले में अक्सर फेरी लगाने जाता है। दो दिन तो कुछ पता नहीं चला। और पता चला तो रोती-कलपती मोतिया तीन महीने के बच्चे को लेकर पहुँची। हाथ आई चिरी-कटी लाश, जो पहचानी भी नहीं जा रही थी।

पर रोने पीटने से तो आदमी जिन्दा नहीं होता।

'साहब, हमें तो आपके लिये लग रहा है। घर पर किसी ने खाली पेट पीने को मना नहीं किया? बस, बस। अब खाली पेट नहीं। कुछ खाने को मँगाओ खाओ, तब... '

'तुम भी खाओगी’ वह खुश होकर बोला।

खाली पेट तो बस रोना आयेगा, फिर बच्चे का पेट भी तो भरना है।

'हाँ हाँ, आपका साथ फिर कौन देगा?

'लो अभी मँगाता हूँ। ’

फ़ौरन बैरे को आर्डर दिया, दो प्लेट बढिया खाना फ़ौरन ले कर आओ। ’

वाह खाना। खाती है, खिलाती भी है। वह खुश हो रहा है।

मोतिया उसके चेहरे को देखती है लाल-लाल आँखें, चारों ओर कालिख! देख कर मन खराब हो गया।

चलो थोड़ी देर और सही। अब तो पेट भरा है, कहाँ तक नहीं सोयेगा!

आज छुट्टी मिल जाय बस! बच्चे को सम्हाल लेगी। बस, कल उसकी दवा और दूध की बात है। फिर तो कहीं काम ढूँढ लेगी।

चौका-बर्तन, कुटना-पिसना सब करेगी। इस होटल में कभी नहीं आयेगी।

होटलवाला तो कबसे बुला रहा था, वही तैयार नहीं होती थी। पर भूख और बच्चे की बीमारी ने लाचार कर दिया। तब मजबूर होकर खुद आई। बच्चे को हर कीमत पर ज़िन्दा रखना है।

'चल, अकल तो आई तुझे, ’ होटलवाले ने कहा था। बच्चे को पास के स्टोर में सुलाने की व्यवस्था भी कर दी थी।

'आ जाया कर मोती। किसी को पता नहीं चलेगा। आखिर को ज़िन्दा तो रहना है। ’

अचानक मोतिया को बड़ा सन्नाटा लगने लगा। कान लगा कर सुना। नहीं आवाज़ नहीं आ रही। सो गया? थक कर चुप हो गया? शायद रोते-रोते गला बिल्कुल बैठ गया? आवाज़ बिल्कुल नहीं सुनाई दे रही।

ध्यान से सुनने की कोशिश करती है। नहीं सिसकी भी नहीं। बिल्कुल शान्ति!

थोड़ा-थोड़ा खिसक कर वह उठ कर खड़ी हो जाती है।

कहीं चेत न जाय, नही तो फिर टूट पड़ेगा। जानवर भी ऐसे नहीं होते। गिद्ध है, गिद्ध!

आदमी ने करवट बदली। मुँह खुल गया। लार बह चली। घिना कर मोतिया परे हट गई।

स्थूल शरीर विकृत चेहरा। घृणा हो आई उसे।

भरभराती आवाज़ आई -’कहाँ चलीं जान?’

बड़ा जुलम किया है साहब! अंग-अंग चटका जा रहा है। आप तो बड़े। अब क्या कहें शरम आती है... '

'हूँ', आदमी पर सुस्ती छाई है

'तुम बहुत अच्छी हो। चलो आज छुट्टी तुम्हारी। ’फिर कब?’

'अरे साहब, आप जब कहें दौड़ कर आऊँगी। ’

फिर हिम्मत कर बोली, ’तो अब आराम कीजिये। ’

'हूँ'

उसने रुपये उठाये और दरवाज़ा खोल कर भागी।

भड़ से स्टोर का दरवाज़ा खोलती हुई भीतर घुसी।

अंदर धीमी रोशनी में बिल्कुल शान्ति!

झुक कर जमीन पर बिछी चौतहा चादर टटोली। सारे कपड़े भीगे हैं। कितना ठंडा हो गया। एक तो सर्दी ऊपर से भीगे कपड़े।

उसने बच्चे को उठा कर पेट से लगा लिया।

कहीं कोई हरकत नहीं!

हिलाय-डुलाया। कुछ अंतर नहीं पड़ा। उसने झट से उसे चादर पर रखा। सिर एक ओर लुढ़क गया, हाथ-पाँव अकड़े हुये, स्पंदनहीन, निर्जीव!

ब्लाउज़ के बटन बंद नहीं, कंधे का स्ट्रैप खुलकर नीचे लटक आई ब्रॉ, फूल कर उभऱ आये नीले-नीले निशान दिख रहे हैं। ढीले से पेटीकोट में घुरसा साड़ी का एक कोना, बाकी देहरी के बाहर घिसटती पड़ी हुई।

रुपये हाथ से गिर कर बिखर गये। वह आँखें फाड़े बच्चे की लाश को घूरे जा रही है!