कीरत तीरथ / प्रभुदयाल श्रीवास्तव

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धरमपुरा रियासत के एक गाँव में कीरत तीरथ नाम के दो सगे भाई रहते थे। किसी गंभीर बीमारी के चलते उनके पिता मल्थूराम का स्वर्गवास पांच साल पूर्व ही हो चुका था। माँ ने बच्चों को पाल पोसकर बड़ा किया था और दोनों का विवाह भी बड़ी धूम धाम से कर दिया था। मल्थूराम मृत्यु के समय सौ बीघा ज़मीन और दो पक्के दो मंजिला मकान छोड़कर गया था इस कारण परिवार मॆं धन की कोई कमी नहीं थी। एक बगीचा भी मल्थूराम ने बरसों पहले ले लिया था जिसमें एक छोटी-सी झोपड़ी बनी हुई थी जिसमें बगीचे का बागवान रहा करता था। चूंकि खेती और बगीचे से इतनी आय हो जाती थी कि सभी ख़र्च काटने के बाद बहुत-सा पैसा बच जाता था जिसे मल्थू की पत्नी धार्मिक कार्यों में व्यय करती रहती थी। सारे गाँव में परिवार का दबदबा था। उनकी गिनती धनीमानी परिवारों में दूसरे नंबर पर थी। पहला नम्बर मालगुज़ार का था, जहाँ के मुख्त्यार लाला पीतांबर लाल की सूझ बूझ से माल गुज़ार दिन दूनी रात चौगनी तरक्क़ी कर रहा था।

मल्थू का बड़ा पुत्र कीरत व्यवहारिक मिलनसार और भौतिक सुखों की कामना रखने वाला एक आम सांसारिक आदमी था। इसके विपरीत तीरथ सीधा सादा, सदा दूसरों की सेवा करनेवाला प्रभावी व्यक्तित्व का धनी था। वह दया धर्म और करुणा कि साक्षात मूर्ति था। अचानक एक दिन माँ बीमार पड़ गई। बेटों ने भरपूर इलाज़ करवाया परंतु बीमारी ठीक होने का नाम ही नहीं ले रही थी। आखिरकार वह एक दिन परलोक सिधार गई। माँ की मृत्यु के बाद बेटों को उनके द्वारा लिखी गई एक वसीयत मिली जो एक वकील के पास सुरक्षित थी। मां ने बड़े पुत्र कीरत के नाम संपूर्ण सौ बीघा ज़मीन दोनों पक्के मकान और बगीचा सभी कुछ कर दिया था। दूसरे बेटे तीरथ के नाम मात्र बगीचे में बनी झोपड़ी और पिताजी की किताबों से भरी अलमारी थी। विचित्र बँटवारा था। एक को राजा और दूसरे को रंक बनाने की सारी तैयारी कर दी गई थी। खैर बटँवारा हो गया। बड़े भाई कीरत ने बेशर्मी की सारी हदें पार करते हुये सारी संपत्ति पर अधिकार कर तीरथ को बगीचे में बने झोपड़े में भेज दिया था। माँ का फ़ैसला सर आंखों रख तीरथ झोपड़े में रहने लगा। वह मज़दूरी करने लगा और अपने परिवार का पेट पालने लगा। वह दिन भर कड़ा परिश्रम करता। शाम को मज़दूरी के पैसे मिलते तब कहीं जाकर घर का चूल्हा जलता। उसकी पत्नी और बच्चे माँ को कोसते रहते। पत्नि सोचती माँ के साथ उसने कभी कोई ग़लत सलूक तो किया नहीं कि इतनी बड़ी सजा दे गईं। तीरथ इसे ईश्वर की मर्जी मानता और खुश रहता। कहता कि ईश्वर जो भी करता है अच्छा ही करता है।

धरमपुरा रियासत के मुख्त्यार‌ लाला पीताम्बर लाल को जब इस बात की जानकारी हुई तो उन्होंने तीरथ को बुलवाकर इस बेमेल बँटवारे की जानकारी ली। सारा मामला उन्हें रहस्यमय लगा। उनके जासूसी दिमाग़ में यह बँटवारा सधारण बँटवारा न होकर किसी विशेष बात की तरफ‌ इंगित करता नज़र आया। अब रोज़ शाम को लालाजी तीरथ के घर जाते और उसके पिताजी की अल्मारी में रखी किताबों को टटोलते। कुछ किताबें धार्मिक, कुछ साहित्यक और कुछ इतिहास से सम्बंधित थीं। रोज दो चार किताबें निकालते और पढ़कर बारीकी से विवेचना करते। उन्होंने यह तो समझ लिया था कि जो भी कुछ रहस्य बँटवारे का है इन किताबों में ही है और यहीँ से रहस्य खुलेगा। पन्ने पलटते-पलटते एक माह बीत गया कोई ख़ास बात किताबों ने नहीं उगली। परंतु उन्होंने हार नहीं मानी। तीरथ को झोपड़ा और किताबों की अलमारी देने के पीछे ज़रूर कोई विशेष प्रयोजन है, ऐसा उनका मानना था। पर क्या हो सकता है यह बात उनके दिमाग़ को परेशान कर रही थी।

एक दिन लालाजी को एक किताब हाथ लगी। उन्होंने जैसे ही प्रथम पृष्ठ खोला तो उस पर लिखीं पँक्तियों पर उनकी नज़र पड़ी। लिखा था..."झोला पड़ा केवट के पास, नीना का चेहरा तरबूज-सा है, हमारा ख़ास नाम खोवाराम लेखक एंगरी मेन्। ।" ये पँक्तियाँ उन्हें कुछ तिलस्मी लगीं। लालाजी ने निर्णय लिया कि अवश्य ही इन्हीं पंक्तियों में बँटवारे का रहस्य छुपा है। परंतु वह क्या हो सकता है बस यही शोध का विषय था। किताब लेकर वह अपने घर आ गये और एक-एक शब्द और उसके अक्षरों का सूक्ष्म निरीक्षण‌ करने लगे। तीन दिन बीत गये कोई निर्णय नहीं निकला। तीरथ से भी कोई ख़ास सहायता नहीं मिल सकी। आख़िर परिश्रम रंग ले ही आया। शब्दों के वाग्जाल से उन्होंनें जो हल निकाला वह इस प्रकार था"झोपड़ा के नीचे तहखाना खोलें।"

तीरथ के पिताजी धरमपुरा रियासत में बहुत बड़े सैन्य पद पर रहे थे और राजा के अति विश्वासपात्र होने के कारण राज्य के सभी गोपनीय तथ्यों से वाकिफ थे। लालाजी को यह बात मालूम थी उन्होंने बिना देर किये तीरथ को विश्वास में लेकर रातों रात झोपड़ी के भीतर खुदाई चालू कर दी। । चार दिन बाद ही भारी खजाना मिला। साथ में एक ताम्र पत्र भी, जिसमें लिखा था कि पड़ौसी राजा के हमले के समय राज महल से निकालकर संपत्ति को यहाँ सुरक्षित रखा गया है। आपातकाल के बाद और उचित शासक के गद्दीनसीन होने पर संपत्ति वपिस राज महल ले जाई जाये।

लालाजी की बुद्धि का सबने लोहा माना। तीरथ को राज्य से पाँच सौ बीघा ज़मीन देकर राज्य में ऊँचे पद पर सुशोभित किया गया। पड़ौसी दादाजी नॆ जब यह कहानी बच्चों को सुनाई तो बच्चे,

" झोला पड़ा केवट के पास,

नीना का चेहरा तरबूज-सा है,

हमारा ख़ास नाम खोवाराम लेखक एंगरी मेन‌" में झोपड़ा के नीचे तहखाना खोलें, की तलाश कर रहें हैं। बच्चों आप भी ढूँढें।