कीर्तन / से.रा. यात्री

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उसके लिए पांच रुपये का हारमोनियम खरीद दिया गया। उस परिवार में यह एक अप्रत्‍याशित घटना थी। उस परिवार में केवल उसका बड़ा भाई पच्‍चीस रुपया माहवार कमाता था और ये थोड़े-से रुपये परिवार के करीब ग्‍यारह सदस्‍यों पर तकसीम होते थे। हालांकि वह मन्‍दी का जमाना था, लेकिन संसार का शायद सबसे बड़ा अर्थशास्‍त्री भी परिवार चलाने के लिए पच्‍चीस रुपये में सुन्‍तलित बजट बनाने का दुस्‍साहस नहीं कर सकता था। भारतीय परिवार में केवन खाना खाने वाले ही नहीं होते, तपेदिक के मरीज भी पाये जाते हैं।

पता नहीं वह कौन-सा संस्‍कार था जिसके तहत उसे आर्टिस्‍ट बनाने की कोशिश की जा रही थी। खैर, एक छोटा-सा हारमोनियम जिसे आम भाषा में 'हरमुनिया' कहा जाता था, उसे गांव के एक हरिजन दर्जी से खरी‍दकर दे दिया गया। राग और लय-तान की किसी को समझ नहीं थी। वह बाजा चीं-चीं करता था और उसके स्‍वरों में कोई अनुगूंज पैदा नहीं होती थी। जिस सप्‍तक भी पर उंगली रखी जाती थी, वह केवल एक करख्‍त आवाज निकालकर चुप हो जाती थी। धौंकनी की स्थिति और भी दिलचस्‍प थी यानी धौंकनी देना अच्‍छा-खासा व्‍यायाम सरीखा था। धौंकनी में एक छोटा-सा छेद था जिससे हवा रिसकर धौंकनी देते समय कलाई के बाल सहलाने का काम करती थी।

पूरे गांव में संगीत की विधिवत शिक्षा देने वाला कोई जानकार नहीं था। बारहमासा, आल्हा और रामायण गाने वाले संगीतज्ञ ‍शिक्षा के बगैर ही अन्‍दाजे से ढोलकी, मजीरे और हारमोनियम का प्रयोग करते थे। संगीत का व्‍यापार गांव में बहुत सहज ढंग से चल रहा था। यह बिलकुल उसी तरह हो रहा था जैसे सांस लेने की फिलासफी जाने बिना लोग सत्तर-बहत्तर वर्ष तक आसानी से सांस लेते हुए जीवित रह लेते हैं।

उसे नगर के हाई स्‍कूल में संगीत की शिक्षा देने वाले एक शिक्षक के हवाले कर दिया गया। वह गांव से सुबह ही संगीत की शिक्षा प्राप्‍त करने के लिए चल देता था। शि‍क्षक की उम्र कम थी और वह एक लम्‍बे-चौड़े गौरीशंकर मन्दिर (यह राधाकृष्‍ण की विराट् मूर्तियों वाला मन्दिर था) के ऊपरी खण्‍ड में रहते थे। कुंवारे होने की वजह से शिक्षक महोदय को अपना भोजन स्‍वयं बनाना पड़ता था। अपनी रोटी सेंकते समय वह उसे संगीत की शिक्षा देते थे। उन्‍होंने महीनों तक उसे 'सा-रे-गा-मा-पा' पर अटकाये रखा। इतने मन्‍दबुद्धि विद्यार्थी को केवल इसलिए बरदाश्‍त कर लिया गया था कि अध्‍यापक अपनी रोटी सेंकते हुए शिक्षा देता था।

एक ही दिन में उसे दो स्‍तर पर संगीत का अभ्‍यास करना पड़ता था। गांव से पैदल पहुंचकर एक तरफ वह उस बाजे पर अभ्‍यास करता था जिसके सप्‍तक छूते ही गहरी अनुगूंज पैदा करते थे और दूसरी ओर उसका 'हरमुनिया' जिसका प्रत्‍येक स्‍वर शोर बनकर रह जाता था या फिजा में उसी तरह गर्क हो जाता था जैसे रेगिस्‍तान में हल्‍की बारिश की बूंदें। श्रम के अनुसार उपलब्धि के रूप में जब आदमी को कुछ अधिक नहीं मिल पाता तो एक अजीब-सी निराशा होती है और उसके साथ यही हो रहा था। नंगे पांव तपिश में कस्‍बे तक जाकर सप्‍तकों की 'चीं-पीं' के अतिरिक्‍त जब उसे कुछ नहीं मिला तो वह कई-कई दिन का नागा करने लगा। संगीत-शिक्षक को पढ़ाई के एवज में कुछ प्राप्ति नहीं होती थी, इसलिए उसने भी उसकी अनुपस्थिति पर कोई खास टीका-टिप्‍पणी नहीं की।

गौरीशंकर मन्दिर के ठीक सामने रूई धुनने वाले एक धुनिये की कोठरी थी। अक्‍टूबर-नवम्‍बर से लेकर फरवरी तक वह रजाइयां-गद्दे भरकर अपनी रोजी कमाता था और होली खत्‍म होते ही कस्‍बे की हाट-पैंठ में गले में रस्सी के सहारे हारमोनियम लटकाकर मजमा इकट्ठा करने लगता था। उसने संगीत-शिक्षा के दौरान मन्दिर में जाते हुए इस आदमी को बहुत बार देखा था। धुनिये की कमर बेतरह झुकी हुई थी और वह नाक पर कपड़ा लपेटकर रूई धुनता था। उसने एक दिन बाजार में मजमा लगाये उस धुनिये को देखा। वह जोर से धौंकनी देकर अपना हारमोनियम बजा रहा था। उसकी झुकी हुई कमर कमान जैसी दिखाई देती थी। उसकी बगल में खड़ा ढोलकिया आधी आंखें बन्‍द करके हारमोनियम पर बजने वाली धुन के सहारे ढोलक पर थाप दे रहा था। ढमाढम बजती ढोलक और तेजी से उभरते हारमोनियम के स्‍वर सुनकर वह एकाएक ठह‍र गया। जब बहुत भीड़ बढ़ गयी तो धुनिये ने एक चौबोला गाया और भीड़ को सम्‍बोधित करके बगल में लटके झोले से छहपेजी किताबें निकालकर दो-दो पैसे में बेचनी शुरू कर दीं। वह अपनी किताब से पढ़कर ही अपनी राग-रागिनियां गाता था। भीड़ में बहुत लोग ऐसे थे जिन्‍होंने अपनी जेबें टटोलकर दो पैसे निकाले और वह रागपुस्तिका खरीद ली।

इससे पहले भी वह कई मजमेबाजों को देख चुका था जो लोगों को मीठी-मीठी बातों से भरमाते थे और मन्‍त्रमुग्‍ध भीड़ के बीच उदारतापूर्वक दवाओं की पुडिया तकसीम कर देते थे। ये गंवई-गांव के लोग कुछ सोचे-समझे बिना पुडिया हाथ में पकड़ लेते और बाद में मजमेबाज बेशर्मी से हंस-हंसाकर उन लोगों से पैसे उगाहता था। उसकी हरकतें इतनी ऐंठ-भरी होती थीं कि तमाशबीन सीधे-साधे दर्शकों को महज पुडिया हाथ में पकड़ लेने की वजह से पैसे देने पड़ते थे। वह भी एक बार ऐसे झमेले में फंसकर बगलें झांक चुका था, क्‍योंकि उसकी जेब में पुडिया के बदले पैसे चुकाने के लिए नहीं थे। और दिलचस्‍प बात यह थी कि वह कतई नहीं जानता था कि इस पुडिया का क्‍या उपयोग है। मजमेबाज अकसर मर्द और मर्दानगी को लेकर लेक्‍चर देता था जिसके विषय में उसकी कल्‍पना अभी तक बहुत साफ नहीं थी।

कौतूहलवश, उसने दो पैसे देकर बहुत शर्माते हुए एक संगीत-पुस्तिका खरीद ली और भीड़ से फौरन बाहर हो गया। किताब उसने अपनी कमीज के नीचे पाजामे के नेफे से सटाकर छिपा ली और सीधे घर की राह ली। वीरान रास्‍ते में जाकर वह एक पुलिया पर बैठ गया और उसने किताब निकालकर पढ़ने की कोशिश की। किताब में छपी पंक्तियों को वह कई बार पढ़ गया, पर उसकी कुछ समझ में नहीं आया। प्रत्‍येक गाने के साथ आधे सफे के बाद एक अनगढ़-सा चार्ट बना हुआ था जिसमें 'सा-गा-पा-मा, वगैरह के साथ प्रत्‍येक पंक्ति विभाजित थी। सप्‍तकों पर स्‍वरलिपि को इस ढंग से बिठाया गया था कि अभ्‍यास करने पर गाने की पंक्ति अपने-आप बजने लगे। इसी तरह की बेहूदा छपाई में प्रकाशित और भी कुछ किताबें उसने अपने घर में देखी थीं जिनमें अन्‍दर इन्‍द्रजाल के करिश्‍मे और प्रयोग-विधियां अंकित रहती थीं और अन्तिम पृष्‍ठ और पिछले कवर पर देशी दवाओं के 'अचूक' नुस्‍खे लिखे रहते थे।

छह महीने की आवाजाही के बाद भी संगीत-शिक्षक उसे कुछ नहीं सिखा पाये थे। उस किताब से शुरू में उसके पल्‍ले कुछ नहीं पड़ा था, लेकिन पुस्‍तक में बने चार्ट के अनुसार सतत अभ्‍यास करने पर उसने महसूस किया कि वह कुछ सीख रहा है। वह किताब को बहुत यत्‍न से रखने लगा। किताब के बाहर चौकोर हाशिये में एक गमला बना हुआ था और नीचे की ओर लिखा थाः 'गायनाचार्य प्रो. विधाराम।'

वह पुस्‍तक की सहायता से थोड़े दिन में ही इतना सीख गया कि हारमोनियम पर स्‍वतन्‍त्र रूप से एक-दो गानों की धुनें बजाने लगा। होते-होते यह अभ्‍यास इतना बढ़ गया कि वह बिना सप्‍तकों पर दृष्टि टिकाये ही प्रो. विधाराम के ढंग पर गर्दन मटकाकर तर्ज निकालने लगा। अपनी सफलता पर वह इतना खुश कि कस्‍बे का शिक्षक उसे बहुत छोटा और अपटु दिखाई पड़ने लगा।

माह में एक बार उसके घर के बाहर चबूतरे पर कीर्तन-मण्‍डली जमती थी। गांव-भर की लालटेनें इकठ्टी की जाती थीं और पंचायतघर की बड़ी दरी सारे चबूतरे पर धूल झाड़कर‍ बिछायी जाती थी। सरेशाम रेंदक-फेंदक बच्‍चों की भीड़ चारों तरफ से उमड़कर चबूतरे पर आ जाती थी और आधी रात तक बताशों के लोभ में मंडराती रहती थी। रात को आठ-नौ बजे तक कीर्तनिये जुट जाते थे और झांझ-मजीरों, ढोलक-हारमोनियम की आवाजों को चुनौ‍ती देती हुई भक्तों की 'हारे रामा-हारे कृष्‍णा-हारे हारे, की समवेत ध्‍वनि सारे गांव में गूंज उठती थी। औरतों और लड़कियों के लिए रस्‍सी के सहारे चादरें टांगकर अलग बैठने की व्‍यवस्‍था की जाती थी। उत्‍साही कीर्तनिये कीर्तनसभा के कार्यक्रम को उत्‍साहपूर्वक खींचते हुए आधी पिछली रात तक ले जाते थे।

उसके भाई को गांव में सबसे ज्‍यादा पढ़ा-लिखा होने की वजह से 'मुंशी जी' सम्‍बोधन से सम्‍मानित किया जाता था। उनकी प्रतिष्‍ठा शायद इसलिए और भी ज्‍यादा थी कि पचासों बरसों के इतिहास में गांव में कोई इतना शरीफ अमीन नहीं आया था जो खुद नौजवान होने के बावजूद गांव की बहू-बेटियों को अपनी मां-बेटी समझता हो। और जहां तक कीर्तन का सवाल है, उसकी सूझ-बूझ सबसे पहले उसके 'मुंशी जी' भाई को ही हुई थी।

उसके लिए खरीदे हुए हारमोनियम की प्रत्‍यक्ष उपलब्धि यह थी कि कीर्तन-मण्‍डली उसे बड़े जोर-शोर से रौंदती थी। उसके यह काफी उत्तेजनापूर्ण घटना होती थी कि महज चीं-चीं करने वाला उसका हारमोनियम अपनी मुर्दनी छोड़कर कीर्तन-मण्‍डली के हाथों घण्‍टों तक तरह-तरह का शोर मचाता रहता था। पूरी शाम वह जिस बाजे से जूझता था, वह इस वक्‍त बिल्‍कुल भिन्‍न व्‍यक्तित्‍व धारण कर लेता था। इस्‍तेमाल पर उबाऊ ढंग से पेश आने वाली कुछ चीजें दूसरों के हाथों में जाकर कभी-कभी चिढ़ाने की सीमा तक संयत हो जाती हैं।

सावन की एक उमस-भरी सांझ को कीर्तन का आयोजन हुआ। उसके बड़े भाई 'मुंशी जी' ने शहर के कुछ चुने हुए कीर्तनियों को बड़े आग्रह से बुलाया था और कीर्तन-मण्‍डली का रात-भर जमने का कार्यक्रम था। कीर्तन में शिरकत करने वालों के लिए पूरियां तली गयी थीं और शहर से बर्फ की सिल्‍ली मंगायी गयी थी। दरवाजे पर बड़े-बड़े बाल्‍टे और पानी के लम्‍बे-चौड़े ड्रम रख दिये गये थे। राम और कृष्‍ण्‍ की शीशे में मढ़ी लम्‍बी-चौड़ी तस्‍वीरें भी दीवारों से टिकाकर काठ की चौकियों पर सजा दी गयी थीं। मूर्तियों के चौखटों पर फूलों की मालाएं कई भक्‍तों ने बारी-बारी से निष्‍ठापूर्वक अर्पित की थीं और धूप-दीप-नैवेद्य से चारों ओर पवित्रता की लहर दौड़ गयी थी। इस बार लालटेनों के साथ-साथ गैस का प्रबन्‍ध भी किया गया था।

विधिवत कीर्तन आरम्‍भ हुआ सबसे पहले प्रतिष्ठित कीर्तनियों के गले में फूलमालाएं डाली गयीं। उनमें से एक ने गणेश जी की वन्‍दना की। उसके बाद 'श्री गुरू चरण सरोज रज, निज मन मुकुर सुधार' का पाठ हुआ। आज कीर्तन में एक विशेष गरिमा थीं चबूतरा और आसपास का सारा खाली स्‍थान बच्‍चों और स्‍त्री-पुरुषों से खचाखच भरा हुआ था। सारे वातावरण में भक्ति की अपूर्व लहर दौड़ गयी।

इस कीर्तन के उत्‍सव में महज उसका की हारमोनियम नहीं था बल्कि शहर की कीर्तन-मण्‍डली कई हारमोनियम-ढोलक-मजीरे और न जाने क्‍या-क्या बाजे लेकर आयी थी। उन बाजों को बजाने वाली एक पूरी पलटन थी। ऐसा आयोजन उस गांव में पहली बार हुआ था और गांव की सारी जनता गदगद हो रही थी। कभी कोई भक्‍त अकेला गाता था और कभी-कभी चार-छह लोग उसके साथ स्‍वर मिलाकर गाने लगते थे। एक पंक्ति एक आदमी शुरू करता था और दूसरे, ऐसा लगता था, उसका उत्तर देते थे। गरज यह कि कीर्तन की पद्धति अखाड़े में लड़ने वाले मल्‍लों का जोड़ प्रस्‍तुत कर रही थी।

कीर्तन मण्‍डली जब पूरे जोश-खरोश पर थी तो उसके बड़े भाई ने उत्‍साह में भरकर उसका परिचय शहर से आने वाले विशिष्‍ट भजनीकों को दिया और यह भी बतलाया कि वह एक साल से गौरीशंकर के मन्दिर में संगीतशिक्षा प्राप्‍त कर रहा है। जैसा कि साधारण कायदा है, जिस घर में मेहमान बनकर खाना खाया जाता है, वहां सौजन्‍यवश बच्‍चों का गाना वगैरह सुनकर उत्‍साहवर्धन भी करना ही पड़ता है। वही उसके साथ भी हुआ, यानी उसे भजनीकों ने उकसा दिया और एक राउण्‍ड खत्‍म होने पर घोषणा कर दी कि अब वह भजन सुनायेगा।

शुरू में कुछ झिझकते हुए उसने अपना हारमोनियम अपनी तरफ खींचा (उसे भय था कि कहीं दूसरे हारमोनियम पर गाना बजाते-बजाते वह गड़बड़ा न जाये) और संगीताचार्य की लापरवाही कायम रखते हुए सप्‍तकों पर उंगलियां नचानी शुरू कर दीं। जिस गाने को उसने हारमोनियम पर बजाया, थोड़े वक्‍त तक वह किसीकी समझ में नहीं आया। ढोलक, मजीरे और अन्‍य बाजे बजाने वाले धैर्य से प्रतीक्षा करते रहे कि वह भजन की पंक्ति पकड़ लें तो बजाना आरम्‍भ करें। गांव के सारे लोग 'मुंशी जी के भैया' का गाना सुनने के लिए बहुत उत्‍कण्ठित दिखाई पड़े। कुछ देर बाद सबकी साफ समझ में आ गया कि वह हारमोनियम पर 'सरौता कहां भूल आये, प्‍यारे ननदोइया' की गत वजा रहा है।

कीर्तन मण्‍डली पर एक क्षण के लिए पूरी तरह सन्‍नाछा छा गया। औरतों और लड़कियों के लिए वह गाना बहुत पहचाना हुआ था। झूला झूलते हुए वे सैकड़ों बार इस गाने को गाती थीं। यह न उनके लिए विशेष नया था और न किसी रूप में चौंकाने वाला था, लेकिन गांव के स्‍कूल के पाधाजी, प्रोतजी, कीर्तन मण्‍डली और उसके 'मुंशी जी' भाई साहब के लिए इतने पावन अवसर पर यह गन्‍दी गाली से कम नहीं था। उसके भाई साहब का चेहरा भरी मण्‍डली के सामने काला पड़ गया; उन्‍होंने उसे बुरी तरह डपटते हुए उसके हाथ से हारमोनियम छीन लिया।