कील -काँटे / अशोक भाटिया

Gadya Kosh से
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बेटी जवान हो चुकी थी। जवान तो क्या, कोई गुलाब के फूल-सी थोड़ा खिली हुई थी! कंकाल थी एकदम।

और पिता! पिता नहीं, बाप दीनानाथ हाल ही में चपरासगिरी से रिटायर हुआ था। कोई राहत, कोई ख़ुशी नहीं रिटायर होने की। लाला की फैक्ट्री से रिटायर हुआ। अंटी में इतना कहाँ, जो बेटी को ठीक से ब्याह सके। उसकी फटी बनियान से झाँक रही ठठरी उसका और घर का इतिहास बयाँ कर रही थी।

माँ कभी घरों में चौका-बासन किया करती थी। अब वह बस देखने में ही अच्छी है, वैसे बिस्तर पर लगी है। दीनानाथ की अंटी तो उसके इलाज में अंट गई है। दीनानाथ का एक छोटा भाई है। लेकिन वह छोटे को थुड़मुड़िया जानकार इधर भूले से भी मुंह नहीं करता, मदद की तो बात ही अलग है।

खैर, दीनानाथ की अकेली संतान यानी बेटी का रिश्ता तो हो गया। लड़का सरकारी बाबू है, वो भी पक्का। हालांकि बिचौलिये ने बिना किसी मांग की बात कहकर रिश्ता तो पक्का करा दिया। पर एक तो लड़के वाले, ऊपर से गाँव-गोहर में रहने वाले, तिस पर आज के वक्त में पक्की नौकरी। डर तो लगता ही है, कहीं मुंह न खोल बैठें। हालांकि माँ ने तभी कह दिया था कि बेटी को खाली हाथ थोड़ी न भेजेंगे। इसी बात पर लड़के वालों का ध्यान है कि क्या देंगे। कुछ गहने-जेवर, बेशक चांदी के हों, देने ही होते हैं। बेटी के कान-हाथ कोई भी खाली नहीं भेजता। और फिर आलमारी और बेड तो होते ही हैं। एकाध ट्रंक-अटैची का भी रिवाज़ है। फिर नए बन रहे रिश्तेदारों के कपड़े वगैरा तो होते ही हैं ...

नहीं बन रहा। कोई हिसाब नहीं बन रहा। ये सब तो मेहमानों की खातिर में ही ख़त्म हो जाएगा। बेटी देख रही है, मां ने गाढ़े वक्त के लिए बचा रखी छोटी-सी पूँजी देते हुए कहा है–इससे कुछ कपडे-लत्ते बन जायेंगे। चांदी का सेट मेरे पास है, मैंने अब क्या करना है उसे। 'कहकर माँ के भीतर से एक टीस उठी है। बेटी का पारा आज बार-बार चढ़ रहा है। क्यों दें हम लड़के वालों को ये सब! क्या वह मेरे मां-बाप को कुछ दे रहे हैं?' रिवाज़ नहीं जानती न, भोली है।

इस बीच बिचौलिया आया है। बता गया है, वे कहते हैं कि आजकल फ्रिज और एलईडी देना तो आम बात है। इससे दोनों घरों की नाक रह जाएगी।

बाप बीड़ी-पे-बीड़ी सुलगा रहा है। सुलग रहा है। बताओ, इनकी नाक भी फ्रिज-टीवी पर टिकी है! कहाँ से लाऊंगा? कौन देगा? क्या रेहन रखूँगा? संकरी गली का यह डेढ़ कमरे का खंडहर!

दो दिन बाद बिचौलिया फिर आ धमका। इस बार साहूकार के कारिंदे की तरह कह गया–लड़के की जिद है, बाइक जरूर लेनी है। किश्तों पर मिल जाती है। बिटिया भी तो घूमेगी न उसपे!

बाइक यानी साठ-पैंसठ हज़ार! बाप माथा पकड़कर बैठ गया। छाती में जकड़न बढ़ने लगी। माँ की वत्सल आँखें बेबस हो बहने लगीं। घर में सिर्फ सन्नाटा था, जो सांय-सांय कर रहा था। बोलने को कुछ बचा नहीं था। एक कोने में बेटी की बदरंग होती इच्छाएँ दुबकी हुईं अपने से ही सवाल कर रही थीं।

सिर्फ डेढ़ महीना रह गया था। वक्त मानो उन तीनों की गर्दन पर सवार हो गया था। दसेक दिन बाद बिचौलिए ने फोन पर पूछ लिया–सब इंतजाम हो गया है न! '

सुनकर बाप फटने को तैयार था–'हाँ, कर दिया है सब। उनके कफन का भी इंतजाम कर दिया है।' लेकिन जज़्ब करके बेटी की कही दोहर्फी बात कह दी–'उन्हें कह दो, अपना इंतज़ाम कहीं और कर लें।'

हालांकि बाप घर से निकल जाने को था; माँ बेटी के ब्याह खातिर आँचल ढलकाने को भी तैयार थी। लेकिन अब!

तीनों को समय कांटे-सा चुभ रहा था ...