कुँवर नटुआ दयाल, खण्ड-11 / रंजन

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कालचक्र की गति इतनी तीव्र हो गयी कि किसी को सोचने-समझने और चिंतन का अवकाश ही न मिला। भरोड़ा की हवेली में बरतुहार बनकर स्वयं माया दीदी पधारी थीं। माया दीदी की प्रतिष्ठा-ख्याति तो सम्पूर्ण अंगदेश में व्याप्त थी ही, परन्तु भरोड़ा में उनका जैसा अपूर्व सत्कार हुआ, उससे स्वयं माया भी अभिभूत हो गयीं।

सम्पूर्ण भरोड़ा और बखरी के समस्त अंचल में बंदनवार सजाये गये। मार्गों के स्वच्छ कर उनको जल से सींचा गया। राजप्रासाद को फूलों से सजाया जाने लगा। दोनों अंचल में उत्साह का ऐसा संचार हुआ कि निवासियों तक ने विवाहोत्सव में धारण करने हेतु नवीन वस्त्र बनवाये। दोनों अंचल राग-रंग और संगीत में डूब-से गये।

भरोड़ा में सबसे अधिक व्यस्त था गुरु मंगल और बखरी में माया दीदी। वरयात्रियों के स्वागत-सत्कार एवं विश्राम हेतु भैरवी-मण्डप के प्रशस्त और विस्तृत मैदान में सैकड़ों तम्बू एवं सुसज्जित शिविर गाड़े गए. वैवाहिक कार्यक्रमों के लिए भैरवी-मण्डप के मध्य फूलों का विवाह-मंडप बना। यहीं भैरव के समक्ष पाणिग्रहण की रीति पूरी होनी थी। विगत कई दिनों से माया दीदी समस्त व्यवस्था में लगी थीं। नाथनगर के प्रसिद्ध हलवाइयों ने अपने-अपने तम्बुओं में डेरा डाल दिया था। भाँति-भाँति के मिष्ठान्न बन रहे थे। चाशनी के लिए कई बैलगाड़ियों में गन्ने और भूरा लाये जा रहे थे। अंचल से बड़े-बड़े पात्रों में भरकर गाय और भेंस का दूध लाया जा रहा था। कहीं उत्तम श्रेणी के धान की कुटाई हो रही थी तो कहीं कतार में बैठे श्रमिक जाँतों में गेहूँ आदि पीस रहे थे। हलवाइयों का एक झुंड कहीं घी टांस रहा था तो कहीं मक्खन बिलो रहा था। खाद्यान्नों की सुगंध वातावरण में चतुर्दिक फैल रही थी।

बखरी के घाट पर भी हलचल थी। शिविर-निर्माण की सामग्रियों से भरी नौकाओं का निरंतर आगमन हो रहा था। ज्यादातर नौकाएँ चम्पा की थीं। चम्पा के कारीगर सुसज्जित शिविर-निर्माण के कार्य में विख्यात थे।

तिनकौड़ी-माय के आंगन में बैठी स्त्रिायां कानाफूसी कर रही थीं।

लाल किनारी वाली साड़ी में लिपटी महिला ने तिनकौड़ी की माता से कहा-

'कहती तो ठीक ही हो, चाची...परन्तु बहुरा स्वयं जब उन्मादित हो गयी है तो कोई क्या करे?'

'वाह री लाड़ो!' चमककर कहा तिनकौड़ी माय ने, 'खूब कही तुमने...सारे अंचल की बेटियाँ विधवा होकर बैठी हें और हत्यारिन बहुरा खुद चली पुत्री ब्याहने और कहती हो...'

'शी ऽ-ऽ ऽ...शी ऽ-ऽ ऽ...,' होठों पर उंगुली रखकर उस स्त्री ने कहा

'धीरे बोल चाची...धीरे...किसी ने सुन लिया तो...'।

'अरी जा...सुन लेने दे, जिसे सुनना है...अब सहा नहीं जाता मुझसे, क्या होगा...अधिक से अधिक प्राण ही तो हर लेगी हत्यारिन...तो हर ले मेरे प्राण।' वृद्धा तिनकौड़ी की माता ने व्यथित होकर कहा-'अब प्राण-मोह से मैं चुप नहीं रहने वाली।'

'तो क्या कर लोगी तुम?' किनारे बैठी तीसरी स्त्री ने असहाय स्वर में कहा-'बहुरा की पुत्री की शादी रोक लोगी तुम? ...कहो तिनकौड़ी माई...क्या कर सकती हो तुम...और क्या कर सकती हैं हम?'

इस बार तिनकौड़ी की माँ ने कुछ न कहा। मौन हो गयी वह। कुछ क्षणों तक पूरा आँगन श्मशान-सा शांत रहा तभी बाहर से किसी के आने की आहट आयी।

आगन्तुक था सौदागर जय सिंह। सबकी दृष्टि उसी पर उठी। तिनकौड़ी चाची ने कहा-'आओ जय...! क्या संवाद लाये हो?'

जय ने कुछ नहीं कहा। उदास आकृति लिए शिथिल-सा वहीं बैठ गया।

जय के मौन पर चाची ने पुनः पूछा-' मौन क्यों हो...? तुम तो चम्पा गये थे

...क्या हुआ वहाँ? '

'कहीं भी विद्रोह नहीं है, चाची' ! जय ने मौन तोड़ा-'मुझे तो आश्चर्य ही हुआ जब मैंने सम्पूर्ण चम्पा में सबको उत्साहित देखा। कहीं कोई विरोध का स्वर नहीं। मैंने मौन ही रहकर लोगों की बातें सुनीं। यह तो अच्छा ही हुआ मैंने अपनी बात किसी से कही नहीं, अन्यथा...'

'अन्यथा क्या जय?'-चाची ने उत्सुकता से पूछा।

'क्या कहूँ चाची...सम्पूर्ण अंगप्रदेश में अमृता के संग नटुआ दयाल के विवाह को लेकर अपूर्व उत्साह छाया है। समस्त जन हर्षित हैं...किसी को भी घरम-करम के नष्ट-भ्रष्ट हो जाने की न चिंता है न आशंका। मूढ़ जनता हर्ष उल्लास में डूबी है।'

'यही तो चिन्ता की बात है, जय!' गंभीर परन्तु मध्यम स्वर में तिनकौड़ी की माँ ने कहा-'अपने बखरी में भी कहीं कोई विरोध का स्वर नहीं गूंजा। सब उत्साह में आकंठ डूबे हैं...हमारे भविष्य की चिन्ता किसी को नहीं।'

'ऐसी बात नहीं है चाची' , जय ने प्रतिरोध में कहा-' गनौरी के आंगन से होकर आया हूँ मैं। वहाँ इसी बात की चर्चा हो रही है। संभव है और भी कई स्थान पर विद्रोह की आग जल रही हो...परन्तु भयवश कोई खुलकर समक्ष आ नहीं रहा। समान विचार वालों को संगठित करना होगा, चाची। हमें शक्तिभर इस पाणिग्रहण का विरोध करना ही होगा। '

जय की बातों से आंगन में बेचैनी बढ़ गयी। लाल पाड़ की साड़ी वाली स्त्री अचानक उठ कर खड़ी हो गयी।

'मुझे तो क्षमा ही करो चाची...अब चलूंगी।'

'मैं भी चली चाची।'

और फिर देखते ही देखते आंगन खाली हो गया। रह गये मात्र दो...तिनकौड़ी की माता और जय!

चौपाल में कई व्यक्ति बैठे वार्तालाप में मगन थे तभी गोलटा को आते देख शिबन ने कहा-'आओ गोलटा भैया! बड़े दिनों बाद देखा है तुम्हें...आओ विराजो!'

'हाँ रे गोलटा!' बिरजू काका ने कहा-'कहाँ रहता है बेटा...आजकल दिखता नहीं?'

थका-थका-सा वह युवक चौपाल के पास आकर शांत-चित्त बैठ गया तो बिरजू काका ने फिर टोका-'बात क्या है बेटा? ...पत्नी से लड़कर आया है क्या? मुख उतरा-उतरा क्यों है?'

'लड़ने के लिए पत्नी तो चाहिए काका...ससुरी रहती कहाँ है? ...भर-दिन तो चौधराइन की ड्योढ़ी में ही हास-परिहास करती रहती है।'

गोलटा की बात पर चौपाल में हँसी के ठहाके लगे। सबको हँसी आ गयी।

शिबन ने हँसते हुए कहा-' ठीक ही कहते हो गोलटा भैया...परन्तु यह समस्या तो आज सबके अंगना में है...मेरी घरवाली भी वहीं पड़ी रहती है।

'अरे तो इसमें क्रोधित होने वाली बात क्या है'-काका ने कहा-'पूरे अंचल की स्त्रिायां चौधराइन की ड्योढ़ी में एकत्र होकर गाती-बजाती हैं...बखरी की पुत्री की शादी है...यह तो स्वाभाविक ही है। तुम लोग व्यर्थ की बातें क्यों करते हो?'

'कहते तो ठीक ही हो काका'-गोलटा ने कहा-'पड़ी रहे वहीं परन्तु रोटी तो आकर बना दिया करे...यहाँ तो आंगन का चूल्हा ही बंद पड़ा है...खाऊँ क्या?'

गोलटा की बात पर पुनः हँसी गूँजने लगी। सब ठठाकर हँस पड़े।

हाय! विधना ने यह क्या किया?

राज भरोड़ा में क्या सुन्दरियां नहीं थीं? यहाँ की नवयौवनाएँ क्या बखरी सलोना से कम हैं? हाय री सखी...इस निष्ठुर निरमोहिया ने यह क्या किया?

भरोड़ा की युवतियाँ जब और जहाँ आपस में मिल बैठतीं...बस यही चर्चा शुरू हो जाती।

'सुनती हूँ' बखरी की अमृता से सुन्दर कोई है ही नहीं। '

'हाँ री, मैंने भी सुना है...वह तो साक्षात् अप्सरा है।'

'अरी चल हट...अपने नटुआ दयाल क्या किसी से कम हैं। जिस पर चितवन उठी...वही घायल।'

'सत्य कहती हो सखी...परन्तु हमें देखता ही कहाँ है वह!'

'अरी उसने यदि तुझे देख लिया होता तो भाग ही न फूट जाते अमृता के?'

सुनने वाली तो लजा गयी और कहने वाली हँस पड़ी।

' अच्छा अब हास-परिहास छोड़...सुना है कल उबटन लगाने की

'बीध' है। सारे लोग अपने दयाल को उबटन लगाएँगे। कमला मैया सहाय हों तो मैं भी उसके अंग-प्रत्यंग में उबटन लगाऊंगी। '-कहते ही उसके नेत्र स्वप्निल-से हो गये।

सांवली थी तो क्या, कजरी से ज़्यादा सलोनी भरोड़ा के अंचल में दूसरी कौन थी? जब से उसने सुना था कि उसके कुँवर जी का ब्याह बखरी की अमृता से निश्चित हो गया, तभी से वह बावरी हो गयी थी। डाह से चित्त भर गया उसका। परन्तु हाय भरने के अतिरिक्त, भला और क्या कर सकती थी वह।

आज जब उसे ज्ञात हुआ कि उसके कुँवर के अंगों पर उबटन लगेगी तो वह मचल गयी। वह भी अपने सांवरे को उबटन लगाएगी।

सोचते ही उसकी आँखों में कल्पना के चित्र साकार हो गये। अपनी बंद पलकों में उसने देखा।

काठ की पीढ़ी पर पीली धोती में नटुआ दयाल बैठा मुस्कुरा रहा है और लजाती-सकुचाती कजरी उसके वक्ष तथा बाँहों में उबटन लगा रही है।

कजरी के अंग-प्रत्यंग में मधुर सिहरन भर गयी। स्वप्न-बोझ से दबी पलकों को उसने खोला और सखियों से विदा हो घर की ओर बढ़ गयी।

कजरी की उम्र की सबसे लम्बी रात थी यह, जो करवटें बदलते किसी प्रकार अंततः बीती। प्रातः नित्यकर्म को छोड़ दौड़ती-फुदकती जा पहुँची उपवन में और आँचल भर गुलाब के फूल तोड़ लायी। घर पहुँचकर पूरे मनोयोग से उसने एक-एक पत्ती को फूलों से अलग किया और पत्तियों के ढेर को जलपात्र में डाल नित्य-क्रिया में लगी।

शौचादि से निवृत्त हो कजरी ने स्नान किया। रीठेे के जल से केशराशि को धोया और जलपान से निवृत्त हो बैठ गयी हल्दी पीसने।

गुलाब की पत्तियों से भरे जलपात्र से अंजुरी में जल निकालती थी और पत्थर की सिलबट्टी पर रखी हल्दी की डलियों को भिंगोकर मुस्कुराती हुई उसे पीसती जाती।

नटुआ दयाल को उबटन तो जाने वह कब लगाएगी? परन्तु कल से अब तक उसने न जाने कितनी बार अपनी कल्पना में...

राज भरोड़ा में आज अत्यधिक व्यस्तता थी। शिविर बनाने में प्रवीण कारीगर तथा कुशल रसोइये प्रातः से ही हवेली के समक्ष एकत्र हो रहे थे।

सैकड़ों बैलगाड़ियों पर शिविर-निर्माण की सामग्री तथा विभिन्न खाद्य पदार्थ की बोरियां लादी जा रही थीं।

अंदर हवेली में राजा, रानी, सेनापति, राजवैद्य तथा मंगल गुरु सहित अन्य परिजन अपने-अपने आसनों पर आसीन चर्चा में निमग्न थे। गुप्तचर प्रधान घुटरा मल्ल ने भरोड़ा से बखरी तक के मार्ग का न केवल मार्ग-चित्र ही बनाया था, अपितु प्रत्येक पांच कोस पर बारात के विश्राम हेतु स्थलों को भी चिद्दित कर दिया था।

मार्ग का मानचित्र राजा को सौंप कर उसने विनीत भाव से कहा-'जैसा कि आदरणीय राजरत्न ने मुझे आदेश दिया था, मैंने तदनुसार ही विश्राम-स्थलों का चयन किया है, राजा जी. इन स्थलों पर न तो फसल-लगे खेत हैं और न कोई अंचल। जंगली जानवरों से भी निरापद हैं तथा इन स्थलों में कहीं प्रचुर मात्र में स्वच्छ जल से भरे जलाशय हैं, कहीं सौंदर्यपूर्ण जलप्रपात हैं और कहीं नदी।'

'अति सुन्दर!' राजा ने हर्षित होकर सेनापति से कहा-'सेनापति! अब आप शीघ्रतापूर्वक अपने रक्षकों, कारीगरों एवं श्रमिकों सहित प्रस्थान करें और जैसा कि मैंने पूर्व में कहा था, इस बात का विशेष ध्यान रहे कि विश्राम-स्थलों के निर्माण में स्थानीय अंचलाधिकारियों को विश्वास में लेकर उनका स्नेह-सहयोग प्राप्त करें तथा मेरे पुत्र के विवाहोत्सव का उन्हें सादर न्यौता दें।'

'ऐसा ही होगा, राजन्' ! सेनापति ने अपने आसन से उठकर विनीत भाव से कहा, 'अब मुझे आज्ञा दें महाराज!'

'आज्ञा है! कमला मैया तुम्हारी सहायता करेंगी...जाओ.'

राजा सहित उपस्थित व्यक्तियों का अभिवादन कर सेनापति ने प्रस्थान किया।

आज राजरत्न मंगल बड़े प्रसन्न थे। सेनापति के दूतों ने आकर शुभ समाचार सुनाया था। भरोड़ा से पाँचवें कोस की दूरी पर बारात के लिए प्रथम विश्राम-स्थल का निर्माण-कार्य सम्पन्न हो चुका था। समीप के अंचल निवासियों ने तन-मन से सहयोग दिया तथा अंचलाधिकारी ने सपरिवार विवाह समारोह में सम्मिलित होना भी स्वीकार किया।

जैसा मंगल गुरु चाहते थे, वैसा ही मंडलाकार विश्राम-स्थल बनाया गया था। स्थल के चारों ओर वृत्ताकार एक हाथ गहरा, एक हाथ चौड़ा गड्ढा खोद दिया गया था, ताकि सर्पादि-जीव अंदर प्रविष्ट न हों। सैनिकों को भी स्थल की रक्षा में मंडलाकार ही तैनात किया गया था। वन से सूखी लकड़ियाँ प्रचुर मात्र में एकत्र कर रसोइयों को उपलब्ध करा दी गयी थीं। ताजा-हरी सब्जियाँ एवं

दूध की आपूर्ति का भार अंचलाधिकारी ने स्वयं अनुरोध कर अपने ऊपर लिया था। सेनापति की दुविधा यह थी कि उन्होंने प्रतिदान में धन लेने से अस्वीकार कर दिया था। सेनापति मंगल गुरु का इस विषय में निर्देश चाहते थे, ऐसी अवस्था में क्या किया जाए.

मंगल गुरु ने दूत से कहा-' सर्वप्रथम सेनापति को मेरा प्रणाम कहना। कहना कमला मैया के आशीर्वाद से उन्होंने प्रथम पड़ाव की उचित व्यवस्था कर दी है। अंचलाधिकारी और अंचल के समस्त निवासियों का राज भरोड़ा की ओर से कृतज्ञता ज्ञापित कर हमारे वीर सेनापति से निवेदन करना कि वे

अंचलाधिकारी का स्नेहसिक्त प्रस्ताव प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार लें, अन्यथा उनकी संवेदना आहत हो जायगी। उनसे कहना-उनके स्नेह-सहयोग का प्रतिदान धन देकर संभव नहीं है। उचित समय पर हम उनकी भावनाओं का प्रतिदान उन्हें अवश्य देंगे। ...'

दूत को ससम्मान विदा कर उन्होंने अपने सर्वज्ञ काक का मंत्रों से आह्नान किया। तत्क्षण कांव-कांव की ध्वनि गूंजी और सर्वज्ञ काक जग्गा अपने पंख फड़फड़ाता मंगल के कंधों पर आकर बैठ गया।

संयोग से उसी समय रानी गजमोती के साथ नटुआ दयाल भी राजरत्न के दर्शन हेतु आ उपस्थित हुआ।

आते ही उसने नतजानु हो मंगल को प्रणाम किया और रानी गजमोती ने मुस्करा कर अपने कर जोड़े।

मंगल ने मुस्कराते हुए आदरपूर्ण नेत्रों से रानी का अभिवादन स्वीकारा और नटुआ दयाल को उठाकर कहा-'कल्याण हो वत्स! अकस्मात् माता के साथ उपस्थित होने का प्रयोजन कहो!'

कर जोड़े ही नटुआ ने कहा-'माता ने आपके दर्शन कर आशीर्वाद लेने का आदेश दिया है, गुरूदेव!'

'हाँ राजरत्न!' रानी ने मुस्कराकर कहा-'भरोड़ा की स्त्रिायों एवं युवतियों ने आपके शिष्य को उबटन लगाया है। किसी ने स्नेह से, किसी ने प्रेम से इसके अंग स्पर्श किये, परन्तु कई नवयौवनाएँ उन्मादित थीं। उन्हें न रोकती तो...तो।'

'तो...? तो क्या होता, रानी जी?' कहकर मंगल गुरु हँस पड़े। फिर कहा-'मैं आपकी भावना-व्यथा समझ गया हूँ, रानी जी. परन्तु, आप चिन्ता न करें। मैं तत्काल अपने शिष्य की नजर उतार देता हूँ...परन्तु प्रथम आप आसन ग्रहण कीजिए.'

रानी गजमोती के आसन ग्रहण करते ही मंगल के कंधे पर बैठा जग्गा काक बोल पड़ा-'अंचल की लड़कियाँ अपने कुँवर पर आसक्त हैं। रानी जी ने व्यवधान उपस्थित न किया होता तो वे उन्मादिनी युवतियां यों सहजता से कुँवर जी को कदापि न छोड़तीं...! कांव...कांव...! परन्तु यह तो उनका प्रमाद था गुरुदेव...! निर्मल हृदय का प्रेम-प्रमाद! अपने कुँवर हैं ही ऐसे सुन्दर-सजीले कि जो देखे, देखता ही रह जाए...तो ऐसे में उनका क्या दोष...वे सब की सब निर्दोष हैं गुरुदेव और निर्दोष दृष्टि से अनिष्ट नहीं लगता। इसीलिए व्यर्थ कुदृष्टि मत उतारिए. ...परन्तु...परन्तु।'

'फिर परन्तु क्या?' अधीर होकर पूछा मंगल ने। '

'अपने कुँवर जी के प्राणों पर संकट है गुरुदेव...! प्राणांतक संकट! विवाह के तत्काल उपरांत इनपर बहुरा का मारण प्रयोग होगा।'

'क्या कहते हो जग्गा!' विस्मित मंगल ने कहा-' बहुरा की स्वीकृति से ही तो अमृता-संग परिणय निश्चित हुआ है। स्वयं माया जी ने इस पवित्र

गठबंधन का सूत्रपात किया है...फिर भला। '

'हाँ गुरूदेव! सत्य कह रहे हैं आप। वर्तमान में स्वयं बहुरा अपनी पुत्री के परिणय हेतु उत्साहित है, परन्तु परिस्थति विपरीत होते क्या देर लगती है।'

'तो क्या करना उचित होगा जग्गा?'

'आप तो स्वयं ज्ञानी और समर्थ हैं गुरूदेव...! सावधान रहें...वैवाहिक कार्यक्रमों में ऐसा कुछ घटित न हो, जिससे बहुरा रूष्ट हो जाए; क्योंकि रुष्ट होकर ही वह प्रतिकूल होगी।'

कहकर कुछ क्षण जग्गा ने कांव-कांव किया और पुनः कहा, 'अपने कुँवर जी को विधिपूर्वक मंत्र-कवच धारण करा दें गुरुदेव...! शेष कमला मैया रक्षा करेंगी।'

कहते ही जग्गा ने पंख फड़फड़ाये और मंगल गुरु के कंधे से कांव-कांव करता उड़कर कक्ष से बाहर चला गया।

नटुआ दयाल तो निर्निमेष मंगल गुरु को देख रहा था। परन्तु, रानी गजमोती ने विचलित हो चिन्तित खड़े राजरत्न से कहा-'अब क्या होगा गुरूदेव! यह तो अनर्थ हो जायेगा।'

राजरत्न चिन्ताग्रस्त विचारमग्न खड़े थे। उन्होंने तत्काल कुछ न कहा तो रानी गजमोती विक्षिप्त हो कह बैठी-'इस विवाह को स्थगित कर दूंगी मैं...भला जानते-समझते अपने पुत्र को काल के गाल में क्यों भेजूंगी? नहीं...नहीं...मैं अपने दुलारे को कदापि जाने न दूंगी।'

'शांत हो जाएँ रानी जी...!' मंगल गुरु ने अभय वाणी में कहा-'आप कदापि चिन्ता न करें। मैंने निश्चय कर लिया है...मुझे क्या करना है...आप पूर्ण आश्वस्त हो निश्चिंत हो जाएँ...आपका पुत्र बहुरा के मारण-तंत्र प्रहार से पूर्ण सुरक्षित रहेगा। यह वचन है मेरा...मुझ पर विश्वास करें। आपके पुत्र को पूर्ण सुरक्षा में लेकर मैं आऊंगा।'

'परन्तु कैसे? ...उस दुर्धर्ष बहुरा की शक्तिशाली सिद्धियों से मेरे पुत्र की कैसे रक्षा करेंगे आप? मैंने तो सुना है महाश्मशान में शव-साधना करने के पश्चात वह पूर्व से भी।'

मध्य में ही टोक दिया मंगल गुरु ने, 'व्यर्थ भयभीत न हों रानी जी. एक तो बहुरा वर्तमान परिस्थिति में ऐसा कुछ करेगी, यह संभव नहीं लगता...फिर जग्गा ने भी कहा कि उसे विवाहोत्सव में रूष्ट नहीं करना है। हम भला ऐसे मांगलिक अवसर पर उसके प्रतिकूल कार्य क्यों करेंगे? फिर भी दैव योग से ऐसा कुछ हमारे अनचाहे हो भी गया तो ऐसी स्थिति में हमारा शिष्य सुरक्षित रहेगा विश्वास रखें।'

'यही तो उत्सुकता है' , रानी ने असंतुष्ट होकर कहा-'कैसे रक्षा करेंगे आप मेरे पुत्र का।'

'यह गुप्त रहस्य है रानी जी... परन्तु जग्गा ने अनायास ही प्रतिकार-प्रक्रिया का संकेत मुझे दे दिया...अन्यथा मैं इसे विस्मृत कर बैठा था। ...यह अत्यंत गुप्त, परन्तु अमोघ प्रक्रिया है...कृपया और कुछ न पूछें, अन्यथा यह विद्या अप्रभावी हो जाएगी और मैं अपने प्राणों से प्रिय शिष्य की रक्षा में असफसल हो जाऊंगा।'

'अब आप शांत हो जाएँ माता!' अंततः नटुआ ने अपनी माँ से कहा-'गुरूदेव जब ऐसा कह रहे हैं तो तर्क करना व्यर्थ है।'

'आप शांत-चित्त हो अपने कक्ष में पधारें रानी जी' , राजरत्न ने कहा,

'मैं अविलम्ब अपने पुत्रवत् शिष्य के रक्षार्थ कर्म विधान कर निश्चित होना चाहता हूँ। आप विश्वास करें, आज अपने जीवन में मैं प्रथम बार ऐसा कार्य सम्पादित करूंगा, जिसके प्रभाव से आपके पुत्र के शरीर पर न विष का प्रभाव होगा न मंत्र का। आप पूर्णतः निश्चिंत हो प्रसन्नतापूर्वक प्रस्थान करें। ...एक अनुरोध और रानी जी, कृपया इस प्रसंग का किसी से चर्चा न करें...हमारे माननीय राजा जी से भी नहीं। मैं अपने प्रिय शिष्य के हितार्थ ही यह निवेदन कर रहा हूँ। कृपया मुझे वचन दीजिए, रानी जी.'

राजरत्न की वाणी में निहित आश्यर्चजनक गंभीरता तथा उसके अंतर में व्याप्त उनके दृढ़ आत्मविश्वास से प्रभावित रानी गजमोती अपने मौन नेत्रों से राजरत्न को आश्वासन देकर चली गयीं।

रानी के जाते ही मंगल गुरु ने कक्ष के कपाट को अंदर से बंद किया और नटुआ दयाल से सम्बोधित हुए-'वत्स! भय का अवसर उपस्थित होने पर जिस अमोघ कवच को धारण किया जाता है। मैं आज उसी का तुम्हें उपदेश दूंगा। तुम हाथ-पैर धोकर आचमन कर हाथ में कुश की पवित्री धारण कर उत्तराभिमुख आसन ग्रहण करो!'

गुरु के आदेशानुसार नटुआ दयाल ने ऐसा ही किया।

'वत्स अब मैं जब तक अनुष्ठान पूर्ण न कर लूँ तब तक कुछ न बोलने का निश्चय कर शांत बैठे रहना। तुम्हें मेरे मंत्रों का मौन पुनरोच्चार करते हुए निर्देशों का मौन पालन करते रहना है।'

नटुआ दयाल की मूक सहमति प्राप्त करने के उपरांत मंगल ने मंत्रोच्चार करके उसके पैरों को स्पर्श किया फिर विभिन्न मंत्रों के साथ एक-एक कर क्रमशः घुटनों, जाँघों, पेट, हृदय, वक्षस्थल, मुख और मस्तक में न्यास किया। तदन्तर दायीं तर्जनी से बायीं तर्जनी तक दोनों हाथ की आठों अंगुलियों और दोनों अंगूठों की दो-दो गाँठों में न्यास किया। तत्पश्चात् पुनः हृदय में, ब्रह्मरन्ध्र में, भौंहों के मध्य, चोटी में, दोनों नेत्रों में तथा शरीर की समस्त गाँठों में मंत्र कवच का न्यास किया।

'वत्स! अब नेत्र बंद कर समग्र ऐश्वर्य, धर्म, यश, धन, ज्ञान और वैराग्य से परिपूर्ण इष्टदेवी कमला मइया का ध्यान करो तथा स्वयं का भी तद्रूप ही चिन्तन करो!'

नटुआ दयाल गुरु वचन मानकर तत्काल नेत्र बंद कर ध्यान में उतर गया।

राजरत्न ने भी नेत्र बंद कर ध्यान लगा लिया।

आधी घड़ी के पश्चात् उसने नेत्र खोले। नटुआ दयाल तब भी

ध्यान मग्न ही था।

'नेत्र खोलो, वत्स!' ...

नटुआ ने निर्देशित मंत्रोच्चार करते हुए अपने नेत्र खोल दिये।

मंत्रोच्चार करते समय मंगल गुरु की मुखाकृति पर आश्चर्यजनक तेज छाया और नेपथ्य में प्रभामण्डल उपस्थित हो गया। मंत्रों द्वारा उसने अनेक देवी, देवताओं, दिशा-प्रदिशा, दिगदिगंत, नाग, किन्नर, गंधर्व, काल, कापालिक, भैरव; प्रत्येक दिशाओं आदि की स्तुति कर-दिशा-विदिशा में, नीचे-ऊपर, बाहर-भीतर-सब ओर से कुँवर के रक्षा की कामना की।

नटुआ दयाल को दिव्य अनुभूति होने लगी। उसका अंतस प्रफुल्लता से भर गया। अपने अंग-प्रत्यंग में विचित्र शौर्य और शक्ति का अनुभव होने लगा। उसका हृदय प्रसन्नता और उत्साह से भर गया।

' माता कमला को स्मरण कर उठो, वत्स! अब तुम्हारा अंग-प्रत्यंग अमोध कवच से सर्वथा सुरक्षित हो चुका है। किसी भी भयाक्रांत को तुम्हारा स्पर्श मात्र ही भयमुक्त करने में समर्थ है पुत्र। जाओ वत्स, ! सर्वप्रथम रानी माँ के चरण स्पर्श कर उन्हें निर्भय करो। शुक्ल पक्ष के समापन तक तुम सर्वथा सुरक्षित हो। '

आह्लादित नटुआ दयाल ने नतजानु हो गुरु के चरणों की वंदना की। तत्पश्चात् दोनों कर जोड़ कर गुरु से विदा ले चला गया।

शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को नटुआ दयाल की बारात ने प्रस्थान किया। जिस अंचल से बारात गुजरती वहाँ के नर-नारी, बाल-वृंद, दूल्हे को देखने दौड़ पड़ते। पालकी में बैठे नटुआ दयाल की सुन्दर देह-यष्टि, मुख का अपूर्व सौंदर्य, रेशमी

परिधान, अलंकार और मुकुट देख लोग विस्मय-विमुग्ध हो रहे थे।

बारात के आगे, मध्य तथा पार्श्व में नृत्य करती गणिकाओं तथा विभिन्न वाद्य यंत्रों को बजाते, वादकों के संगीत का आकर्षण त्याग सभी लोग पालकी में विराजे दूल्हे-राजा के सौन्दर्य को मन्त्रामुग्ध हो निहारते नहीं थक रहे थे।

विभिन्न ग्राम-अंचलों एवं वन प्रांतरों को पार करते, स्थान-स्थान पर सेनापति द्वारा निर्मित विश्राम-स्थलों पर रुकते, खाते-पीते, मनोरंजन करते तीसरे दिन नटुआ दयाल की बारात बखरी अंचल की सीमा पर जा पहुँची।

बखरी सलोना से दो कोस की दूरी पर नटुआ दयाल की बारात का प्रथम अगवानी-द्वार बनाया गया था। बाँस, कदम्ब तथा मौलश्री के उन्नीस हाथ उँचे तीन स्तम्भों पर महाकाल की ध्वजा फहरा रही थी।

बारात को बखरी के निकट आयी जानकर सम्पूर्ण अंचल में चहल-पहल तेज हो गयी। बखरी निवासी अपना-अपना बनाव-शृंगार करके कौैतूहलपूर्वक दूल्हे की छवि निहारने तैयार होने लगे।

आम तथा अशोक के पत्तों से ऊँचे तोरण द्वार बनाए गये थे। इसी तोरण द्वार पर माया दीदी ने अपने अनुचरों सहित बारात की अगवानी की।

नटुआ दयाल की बारात ने ज्योंही अंचल में प्रवेश किया, त्योंही नर, नारी तथा बाल-वृंद, बारात की शोभा देखने और दूल्हे राजा की छवि निहराने टूट पड़े।

अगवानी में गयी माया तो बारात के संग थी ही; बखरी के स्वागत द्वार पर पोपली काकी एवं कन्या पक्ष के अन्य लोगों के साथ स्वयं बहुरा भी स्वागत में उपस्थित थी।

बहुरा ने हर्षित हृदय से बारात की अगवानी कर राजा, रानी, राजरत्न, सेनापति, राजवैद्य एवं नटुआ दयाल सहित समूचे बारातियों का यथोचित अभिनंदन-सत्कार किया। तदनंतर सारे बाराती भैरव-मण्डप के विस्तृत भूमंडल में निर्मित जनवासे में पधारे। समस्त बारातियों के लिए यथायोग्य बने अलग-अलग जनवासों में सब को ठहराया गया तथा सुगंधित पेय पदार्थों द्वारा तत्काल सभी का सत्कार किया जाने लगा।

राजा-रानी के लिए निर्मित विशेष शिविर में उनके साथ बहुरा, पोपली काकी एवं माया दीदी उपस्थित थीं।

कुशल-क्षेम के उपरांत बहुरा ने हर्षित स्वर में कहा-'आपके आगमन से आज हमारा अंचल धन्य हो गया, राजन...!' कहकर बहुरा ने नमस्कार किया। पुनः विनीत भाव से उसने कहा-'मेरी एक ही अरदास है राजा जी, आप तो जानते ही हैं, मैं परित्यक्ता हूँ और पति की परित्यक्ता सर्वथा अनाथ होती है। फिर भी मैंने अपने सामर्थ्य के अनुसार आपकी सेवा में समुचित व्यवस्था की है। ...मैंने इसके पूर्व कभी किसी का विवाह नहीं किया। मुझे न वैवाहिक विधि-विधान का ज्ञान है और न अतिथि-सत्कार की औपचारिकता का अनुभव, इसीलिए आपसे इस भाग्यहीना की करबद्ध प्रार्थना है...कहीं भी, कभी भी, किसी प्रकार की त्रुटि हो जाए तो मुझे अबला समझ कर क्षमा कर देंगे।'

बहुरा के प्रति पूर्वछवि-धारणा के सर्वथा विपरीत, उसकी सौम्य विनीत वाणी सुनकर राजा को हर्षमिश्रित आश्चर्य हुआ। वे विचार ही कर रहे थे कि प्रत्युत्तर में क्या कहें कि रानी गजमोती ने हर्षातिरेक में बहुरा को गले लगाकर कहा-' बहन! इतनी विनम्रता मत दिखाओ कि हम लज्जित हो जाएँ ...वस्तुतः तुमने तो हमारी समस्त धारणाओं को ध्वस्त कर हमें स्वयं ग्लानि से भर दिया है। मैं जिस बहुरा को जानती थी, वह तुम तो कदापि नहीं हो...और बहन, तुमने स्वयं को भाग्यहीना तथा अबला क्यों कहा? तुममें जो शक्ति-सामर्थ्य है, वह सम्पूर्ण अंगदेश में अतुलनीय है...वास्तविकता यही है कि तुम जैसी अभिमान शून्य विदूषी शक्तिस्वरूपा से सम्बंध जोड़ मैं अभिभूत हो रही हूँ। '

'रानी जी, सत्य कह रही हैं!' राजा ने कहा-' आज मुझे भी आपका

सम्बंधी बनने का अभिमान है, समधिन जी! हमारा अनुरोध है कि आप हमारे सत्कार की औपचारिकता छोड़ अन्य मांगलिक व्यवस्थाओं पर ध्यान दें तथा निःसंकोच आदेश दें...हमें क्या सहयोग करना है। '

बहुरा रानी गजमोती के साथ वाले आसन पर बैठ चुकी थी। शिविर के वातावरण में प्रसन्नता एवं सद्भावना की तरंगें भरी थीं।

राजा की बात पर पोपली काकी ने हँसकर कहा-'आपके विषय में तो मैं जानती ही थी, परन्तु आपकी सौंदर्यमयी सहृदय तथा निर्मल-चित्त महारानी जी इतनी विदूषी और स्नेहमयी हैं, नहीं जानती थी। वास्तव में बखरी की भूमि का सौभाग्य ही उदित हुआ है, जो आप हमारे सम्बंधी बनने पधारे हैं।'

रानी गजमोती को प्रशंसात्मक नेत्रों से निहारती पोपली काकी ने पुनः राजा से कहा-'लम्बी वर-यात्र ने आपको क्लांत कर दिया होगा राजा जी. अब आप सुखपूर्वक विश्राम करें तथा हमें आज्ञा दें तो तनिक जमाई राजा के दर्शन कर लें।'

'हाँ राजा जी! अपने जमाई को देखने का लोभ मुझे भी है'-बहुीर ने हँस कर कहा-'मेरी अबोध पुत्री जिसे देखते ही मंत्रबिद्ध-सी मोहित हो गयी, उस मनमोहन जामाता का मैं भी तत्काल दर्शन करना चाहती हूँ।'

ऐसे ही हास-परिहास के मध्य राजा-रानी से विदा हो पोपली काकी और माया दीदी के साथ बहुरा ने अपने जामाता राजा नटुआ दयाल के जनवासा में पदार्पण किया। कुँवर दयाल सिंह के समीप ही आसन पर आसीन राजरत्न मंगल गुरु ने उठकर तीनों का सादर अभिवादन किया।

राजा-रानी के जनवासा में मौन रही माया दीदी ने सबका परस्पर परिचय कराया।

कुँवर दयाल ज्यों ही चरण स्पर्श हेतु उठे, बहुरा ने तत्काल उसे थाम कर उसका मस्तक सूंघा। दयाल सिंह के स्पर्श ने बहुरा को विस्मित कर दिया। उसे विचित्र-सी सुखद अनुभूति हुई. दयाल के स्पर्श मात्र ने उसकी चेतना में अतिरिक्त उत्साह का संचार कर दिया था। प्रशंसात्मक दृष्टि से उसे निहारती बहुरा के अंतस् ने पुत्री अमृता के चयन तथा सौभाग्य की मन-ही-मन में प्रशंसा की।

'विराजो पुत्र...! तुम्हें देखकर मैं अपनी प्रिय पुत्री के प्रति पूर्ण आश्वस्त हो गयी हूँ। इस जग में तुमसे बढ़कर अमृता के उपयुक्त दूसरा कोई वर नहीं हो सकता। बड़ी बड़भागी है वह, जिसे तुम-सा सुन्दर-सजीला, तेजस्वी, गुणवान और बलवान वर प्राप्त हुआ। बड़भागी है वह...! बड़ी बड़भागी!'

कहते-कहते उसके नेत्र सजल हो गये। तब पोपली काकी ने स्नेहपूर्वक बहुरा को आसन पर बैठाकर उससे कहा-'अपने कुँवर की बल-बुद्धि एवं कौशल के नेपथ्य में गुरूवर मंगल की शिक्षा एवं प्रेरणा का ही योगदान है। सच कहूँ, पुत्री तो सम्पूर्ण अंग देश में गुरुवर मंगल के सदृश और कोई नहीं। नृत्य संगीत तथा वादन की त्रिवेणी के अतिरिक्त मंगलगुरु महाज्ञानी, महान्साधक एवं तंत्रविद्या के महान् सिद्ध हैं। पक्षियों को अभिमंत्रित कर उसे ज्ञान-विज्ञान से भर देने की अद्भुत क्षमता इनके अतिरिक्त किसी में नहीं।'

पोपली काकी के कथन से प्रभावित बहुरा के दोनों हाथ श्रद्धा में अनायास ही मंगल गुरु के अभिवादन में जुड़ गये।

मुस्कराते हुए मंगल ने विनम्रतापूर्वक कहा-'मुझ अकिंचन को अंग की अप्रितम महान साधिका ने कदाचित्।'

'नहीं...नहीं...गुरुवर! पोपली काकी ने बीच में ही प्रतिवाद किया-' मैंने आपके सम्मान में एक भी अतिरिक्त शब्द नहीं कहा है। मेरी दृष्टि में आप इस धरा की अमूल्य घरोहर हैं तथा हमारे अंतस् में आपका जो सम्मान है, वह सर्वथा उचित है। आज आपके पदार्पण से बखरी का अंचल धन्य-धन्य हो गया...साथ ही आपसे

सम्बंध जोड़कर हम भी धन्य हो गये हैं। '

'यह आपकी महानता ही है'। मंगल ने कहा-'वस्तुतः बड़ों का यह बड़प्पन ही है, जो स्वयं को साधारण कह दूसरों को असाधारण सम्बोधित करते हैं अन्यथा आपसे महान तंत्र-साधिका कौन है अंग में? मैं स्वयं आपके प्रति माता का भाव रखकर स्वयं को आपका पुत्रवत् मानता हूँ।'

अपनी बात कह कर-कर जोड़े मंगलगुरु अतिविनम्रता से आसन छोड़ खड़े हो गए.

'कदाचित् हमें अब प्रस्थान करना चाहिए.' माया दीदी ने आसन त्याग कर हँसते हुए कहा-'अन्यथा सभी एक दूसरे की प्रशंसा में विश्राम से वंचित हो जायेंगे।'

'ठीक कह रही हैं, माया।' बहुरा ने आसन त्याग कर कहा-'विश्राम करके आप सर्व प्रथम यात्र की थकान मिटाएँ, तत्पश्चात आपके अलौकिक जग्गा काग को भी देखूँगी। चिरकाल से अभिलाषा है मेरी। आपके काग मानव की वाणी में बात करते हैं। इस आश्चर्य को मैं भी देखना चाहती हूँ।'

'अवश्य देखें चौधराइन?' मंगल ने प्रसन्न वाणी में कहा-'आपके समक्ष इनका प्रदर्शन कर मुझे भी प्रसन्नता ही होगी।'

'धन्यवाद गुरुवर!' अभिवादन कर बहुरा ने कहा-'अब आज्ञा दें।'

इस आनंद और उमंग के वातावरण में सबसे बुरी स्थिति में फँसा था सौदागर जय सिंह। उसकी मानसिक स्थिति से अनभिज्ञ माया ने जय सिंह को जनवासा की मुख्य पाकशाला का प्रधान बनाया था।

बेचारा जय!

न इधर का रहा, न उधर का। फँस गया जंजाल में। शत्रुओं के लिए सुस्वादु भोजन का प्रबंधक बनना पड़ा था उसे। उसकी इच्छा हो रही थी कि दूल्हे राजा सहित सबके पकवानों में तीक्ष्ण विष भर दे, परन्तु विवश था वह।

माया विशेष व्यस्त थी। सत्कार में किसी प्रकार की त्रुटि न हो, इसपर वह विशेष सचेत थी। त्रुटिहीन व्यवस्था के उपरांत भी बारातियों को कब-किस बात का कष्ट पहुँच जाए कोई ठीक नहीं! बारात में सम्मिलित प्रत्येक बाराती छोटी-छोटी बातों में खोट निकालने के अभ्यस्त होते हैं। माया इस बात को भलीभाँति जानती थी कि बारात में सम्मिलित लोगों का आत्मसम्मान-बोध अनायास इतना अस्वभाविक हो जाता है कि सर्वथा त्रुटिहीन सत्कार में भी उन्हें अनेक त्रुटियां दिखने लगती हैं। इसीलिए माया अति सचेत थी। ताकि किसी बाराती की छोटी-सी भावना भी आहत न हो।

स्वागत-सत्कार की समस्त व्यवस्था में माया की संलग्नता के कारण निश्चिंत पोपली काकी एवं बहुरा प्रसन्नतापूर्वक जनवासा के विभिन्न शिविरों में भ्रमण कर सबसे परिचय करती कुशल-क्षेम पूछ रही थीं।

बारात आगमन का प्रथम दिवस! सानंद विश्राम एवं निरंतर सुस्वादु पकवानों के आतिथ्य के पश्चात् संध्या वेला के नृत्य-संगीत के कार्यक्रम में समस्त बाराती उपस्थित हुए.

चम्पा की प्रख्यात गणिकाएँ इस आयोजन हेतु सज-सँवर कर मंच पर आयीं। माया, बहुरा, मंगलगुरु तथा दयाल सिंह जैसे प्रख्यात नृत्य-विशारदों की उपस्थिति में नृत्य करना उनके जीवन का सबसे बड़ा सौभाग्य था। जिन नृत्य-शिरोमणियों के दर्शन ही दुर्लभ हों, उनके समक्ष आज वे स्वयं नृत्य करेंगी, यह सोचकर ही सभी रोमांचित थे।

बारातियों के यथास्थान आसन ग्रहण करने के पश्चात् कन्या पक्ष के लोगों ने भी अपना-अपना स्थान ग्रहण किया। कुँवर दयाल सिंह के नेत्रों में व्यग्रता भरने लगी। उसकी प्रियतमा उनमें नहीं थी। तभी वातावरण में हलचल हुई. दयाल सिंह ने देखा शुक्ल-पक्ष का चन्द्रमा उदित हुआ। उसकी प्रियतमा सोलहो-शृंगार कर माया के संग पधारी।

दोनों की दृष्टि एक क्षण के लिए मिली। तत्काल लज्जा से बोझिल अमृता की पलकें झुक गयीं। लाज से दोहरी होती अमृता कन्यापक्ष में पहुँच अपने आसन पर जा विराजी.

गणिकाओं ने उत्साह में पायल बांधे तथा वादकों ने अपने-अपने वाद्य-यंत्र सम्हाले। नृत्य प्रारंभ हुआ। परन्तु जहाँ सारे बाराती अमृता को देख रहे थे, वहीं सराती कुँवर दयाल सिंह को। नृत्यांगना पर किसी की दृष्टि थी ही नहीं। दयाल सिंह के सौंदर्य को मंत्रमुग्ध हो कन्यापक्ष के लोग देख रहे थे तो अमृता पर बारातियों की प्रशंसात्मक दृष्टि गड़ी थी। अमृता और दयाल सिंह भी चोरी-चोरी एक-दूसरे को निहारते जब नैन मिला बैठते तो मुस्कुराते हुए लजा जाते।

अमृता संग दयाल का ब्याह प्रातः दीपा लग्न में होना था। आधी-रात तक नृत्य का कार्यक्रम चलता रहा था। सूर्योदय के समय अर्धनिद्रा में ही दयाल सिंह को शय्या-त्याग करना पड़ा था। ऐसे में ही दूल्हे के अनुरूप वस्त्रभूषण से सज-धज कर उसे तैयार होना पड़ा।

बहुरा, पोपली काकी, माया तथा सखियों के संग सूर्योदय के पूर्व ही अमृता भैरव-मण्डप में उपस्थित हो महाकाल की स्तुति हेतु प्रस्तुत थी।

अपने शिविर में राजवैद्य तथा पंडित जी के साथ सेनापति भीममल्ल तैयार होकर वार्तालाप में मग्न थे। सेनापति ने पूरे उत्साह के साथ सोने की मूठ वाली तलवार म्यान में रखकर अपनी कमर के साथ बांध रखी थी।

चारों ओर हर्ष और उमंग की लहरें व्याप्त थीं। परन्तु सौदागर जय सिंह निराशा के गर्त में डूबा निश्चेष्ट बैठा था। जनबासा के शिविरों में जाग हो चुकी थी। अतिथि नित्य-कर्म के पश्चात् स्नान कर वस्त्रभूषण से सज्जित हो रहे थे। अविलंब जलपानादि भेजना था। अतः, मुख्य पाकशाला के व्यग्र सेवकों की मंडली शीघ्रतापूर्वक जय सिंह की आज्ञा लेने उपस्थित हुई तो जय की तंद्रा टूटी.

हड़बड़ाहट में वह शीघ्र जलपान ले जाने की आज्ञा देकर अन्य व्यवस्था में लग गया। आज उसकी अमृता पराई होने जा रही है। लग्न-मण्डप सज चुका। शीघ्र ही दयाल सिंह अमृता का पाणिग्रहण कर उसे साथ ले जाएगा। इतना विवश कभी नहीं था वह। उसकी समस्त अभिलाषा-आकांक्षा उसके समक्ष ही समाप्त होने जा रही थी और वह कुछ नहीं कर पा रहा था।

ऐसे ही अवसाद में घिरा जयसिंह राजा-रानी के शिविर की ओर धीमे-धीमे पग बढ़ाता बढ़ा। माया दीदी ने उसे विशेष सावधान कर कहा था-प्रातः होते ही वह राजा जी की सेवा में उपस्थित हो जाए.

राजा जी के विशाल शिविर में राजपरिवार के साथ सभी लोग उपस्थित थे। राज पंडित, वैद्यराज तथा मंगलगुरु समवेत् स्वरों में वैवाहिक-सूत्र-बंधनरूप-मंगलाचरण सम्पन्न करा रहे थे।

तभी द्वारपाल ने आकर निवेदन किया-पाकशाला के मुख्य प्रबंधक जय सिंह उपस्थित होने की आज्ञा चाहते हैं, महाराज!

'आज्ञा है!' राजा जी ने कहा-'उन्हें सादर साथ लेकर ओ.'द्वारपाल के साथ जय सिंह ने प्रवेश कर राजा जी को झुक कर अभिवादन करते हुए कहा-'महाराज! मैं बखरी सलोना का सौदागर जय सिंह आपकी सेवा में माया दीदी की आज्ञा से उपस्थित हुआ हूँ। उनका निर्देश है कि वैवाहिक कार्यक्रम सम्पन्न होने तक मैं आप की सेवा में ही रहूँ।'

राजा ने हँसते हुए प्रसन्न वाणी में कहा-'मुझे ज्ञात हुआ है कि यहाँ के मुख्य पाकशाला के प्रधान प्रबंधक आप ही हैं?'

'जी महाराज! इसी दास ने यह कर्त्तव्य निभाया है। कहीं कुछ त्रुटि हुई है अथवा भोजन सुस्वादु नहीं था।'

राजा जी हँस पड़े फिर कहा-' कदापि नहीं जय सिंह। आपकी पाकशाला के व्यंजन अद्भुत हैं। हम सभी अतिप्रसन्न एवं संतुष्ट हैं। यह जानकर कि आपके ही निर्देशन में इतने सुस्वादु व्यंजन बने हैं। हम सभी आपके अत्यंत आभारी भी हैं। हम आपसे अनुरोध करेंगे कि हमारे भरोड़ा में विवाहोपरांत आयोजित भोज का

प्रबंध-निर्देश आप ही करें। आप सहमति दें तो हम माया जी से आप को माँग लेंगे। '

'आप तो दास को शर्मिन्दा कर रहे हैं, महाराज। आपका इतना कह देना ही बड़ी बात है। मैं महाराज का आभारी हूँ कि आपने तुच्छ सेवक को इतना मान दिया। ... भरोड़ा जाकर आपकी सेवा करके दास का और भी मान बढ़ेगा परन्तु एक निवेदन है महाराज...अभय मिले तो अरज करूँ?'

'निर्भय हो कहो जय!' राजा ने मुस्कराते हुए कहा-'निःसंकोच कहो। तुम इस समय अपने परिजनों के मध्य हो। क्या कहना है...कहो।'

'महाराज!' संकोच के साथ भय का अभिनय करते हुए उसने कहा-'आपकी यह वैदिक प्रक्रिया चौधराइन के अंचल में...अमंगल का कारण हो सकती है। आप तो जानते ही हैं महाराज... मेरी स्वामिनी वेदों की कट्टर विरोधी हैं।'

'क्या कहता है मूढ़' ! सेनापति ने अतिक्रमण कर गरजते हुए व्यवधान किया। उसकी मुष्टिका तलवार की मूठ पर पूरी शक्ति के साथ जकड़ गयी। क्रोधित स्वर में उसने कहा-'इस धृष्टता की पुनरावृत्ति न करना अन्यथा कठोर दंड के भागी बनोगे।'

'शांत! सेनापति शांत...!' राजा ने हाथ उठाकर शाँत स्वर में कहा-' इसे अभयदान प्राप्त हो चुका है...और इसने जो कहा है वह कदाचित् यथोचित ही है। चौधराइन वेदों की विरोधी हें, यह हम सभी को पूर्व से ही ज्ञात है...फिर भी

विधि के विधान के समक्ष हम विवश हैं। ऐसी स्थिति में यही उचित है कि हम इस अंचल की परम्पराओं का सम्मान करते हुए अपने पुत्र का विवाह निर्विध्न सम्पन्न करें...इसीलिए आप कृपापूर्वक शांत हो जाएँ। '

जय की मंशा विफल हो गयी। वैदिक मंगलाचरण के कारण उसकी त्वरित दृष्टि बुद्धि में जो ज्ञान संचरित हुआ था, व्यर्थ हो गया। फिर भी उसने आशा का त्याग न कर अत्यंत विनीत भाव प्रदर्शित कर कहा-'सेनापति जी ने उचित ही कहा है महाराज। मैं उनकी भावनाओं का आदर करते हुए उनका समर्थन करता हूँ। वास्तव में मैं स्वयं वेदों का अनुयायी हूँ, परन्तु इस अंचल में रहना है तो चौधराइन से वैर लेकर कैसे रह सकता हूँ? वाणिज्य-व्यापार की विवशता है इसीलिए प्रतिकूल स्थिति में भी किसी प्रकार मन मार कर इनके अनुकूल रहता हूँ...परन्तु महाराज! जबसे अपने कुँवर जी से हमारी अमृता का विवाह निश्चित हुआ है, मेरे साथ यहाँ के सभी वेदाचारी अत्यंत प्रसन्न हैं, महाराज! अंचल में आशा जगी है कि इस विवाह के उपरांत हमें क्रूर चौधराइन के वेद-विरुद्ध आचरणों से मुक्ति मिलेगी।'

'बस, जय! अपनी वाणी को विराम दो!' राजा ने अप्रसन्न होकर कहा-'हमारी समधिन के प्रति अशोभनीय सम्बोधन का प्रयोग न करो। मैं तुम्हारी भावनाओं से अवगत हो चुका हूँ...परन्तु चौधराइन से भेंट के पश्चात् मैंने उनके अंतस् की पवित्रता को पहचाना है। तुम व्यर्थ की उत्तेजना उत्पन्न करने का निरर्थक प्रयत्न त्याग दो...हमें अब विवाह-मण्डप के लिए प्रस्थान करना है...व्यवस्था करो!'

मंगलाचरण पूर्ण हो चुका था। राजा जी की बातों से जय पर जो तुषारापात हुआ, उसकी पूर्त्ति सेनापति की रुष्ट आकृति ने कर दी। जय की धूर्त्त दृष्टि ने सेनापति के मनोभावों को भलीभाँति पहचान लिया था। थोड़े से प्रयत्न से ही वह दुर्बल बुद्धि वाले शक्तिशाली सेनापति को ढाल बनाकर अपना मनोरथ सिद्ध कर लेगा। यह सोचकर संतुष्टि से वह मुस्कुराया तथा झुककर सविनय अभिवादन करते हुए उसने राजा जी से कहा-'जो आज्ञा महाराज!'

दूल्हे के अनुरूप समस्त वेष-भूषा एवं अलंकारों से अलंकृत हो दयाल सिंह अपने माता-पिता, सेनापति तथा अन्य परिजनों के साथ गुरुवर मंगल, राजगुरु एवं वैद्यराज को आगे करके भैरवी मण्डप में पधारे।

इनके स्वागत में पोपली काकी, माया एवं बहुरा विनयावनत हो आगे आयीं। तभी मंगल गुरु ने समीप जाकर बहुरा से कहा-'चौधराइन! हमारे राजा जी अपने पुत्र दयाल सिंह का वैवाहिक सूत्र-बन्धनरूप मंगलाचरण सम्पन्न करके पधारे हैं। अब आप वैवाहिक कार्यक्रम प्रारंभ करें!'

सबके स्थान-ग्रहण कर लेने के पश्चात् दुल्हन की माता बहुरा ने पोपली काकी तथा माया दीदी को आगे करके भैरव-मण्डप के मध्य भाग में तांत्रिक-विधिपूर्वक वेदी बनायी और गन्ध तथा फूलों द्वारा उसे चतुर्दिक् सुन्दर-रूप में सजाया। साथ ही बहुत-सी सुवर्ण-पालिकाएँ, यव के अंकुरों से युक्त चित्रित कलश, अंकुर जमाए हुए सकोरे, धूपयुक्त धूप-पात्र तथा धोये हुए अक्षत आदि समस्त सामग्रियों को यथास्थान रख दिया।

तत्पश्चात् महान साधिका पोपली ने बराबर-बराबर कुशों को वेदी के चारों ओर बिछा कर महाकाल का मंत्रोच्चारण करते हुए विधिपूर्वक अग्नि-स्थापन किया और अपनी तांत्रिक विधि के अनुसार मंत्रपाठ कर प्रज्वलित अग्नि में भैरव-स्तुति की।

तदन्तर बहुरा ने आभूषणों से विभूषित अपनी पुत्री अमृता को अग्नि के समक्ष दयाल सिंह के सामने बैठा कर कहा-'पुत्र! तुम्हारा कल्याण हो! यह मेरी सुकुमार परम सुन्दरी पुत्री अमृता, तुम्हारी सहधर्मिणी के रूप में उपस्थित है। इसे स्वीकार करो और इसका हाथ अपने हाथ में लो! यह छाया की भांति सदा तुम्हारे पीछे चलने वाली होगी।' यह कहकर भैरव-मंत्र से पवित्र हुआ संकल्प-जल उसने छोड़ दिया।

भैरव-मण्डप में उपस्थित दोनों पक्षों के लोग खड़े हो गये। वर-पक्ष ने स्वस्ति-वचन का घोष किया तथा कन्यापक्ष के लोगों ने आशीर्वचन दिये।

स्त्रिायाँ मधुर स्वर में मंगल गीत गाने लगीं। विभिन्न वाद्य यंत्र बजने लगे। इस प्रकार, मंत्र और संकल्प के जल के साथ अपनी पुत्री अमृता का दान करके हर्षमग्न बहुरा ने पोपली काकी से कहा-'अब आप हमारे कुल की रीति के अनुसार विवाह की सम्पूर्ण क्रिया कराइये।'

हर्षित पोपली काकी ने वेदी के समक्ष वर-वधू के समक्ष वीरासन में बैठकर मंत्रोच्चार प्रारंभ किया। तदुपरांत कन्या की माता एवं वर के पिता की सम्मति से दयाल सिंह ने अपनी पत्नी अमृता के साथ अग्नि, वेदी, राजा-रानी, बहुरा एवं गुरु मंगल आदि की परिक्रमा की और तांत्रिक विधि के अनुसार वैवाहिक कार्य पूर्ण किया।

अंततः, दयाल सिंह और अमृता पति-पत्नी बन गए.

सौदागर जय सिंह के हाथों के तोते उड़ गये। परन्तु, हताशा में भी उसने हार न मानी। समस्त वैवाहिक कार्यक्रमों के मध्य वह निरंतर सेनापति के समीप ही मंडराता रहा। इस अंतराल में सेनापति का वह अंतरंग बन चुका था।

वैदिक रीति के विपरीत तांत्रिक-पद्धति से वैवाहिक क्रिया सम्पन्न होते देख सेनापति अत्यंत दुखी था। विवाह सम्पन्न हो जाने के पश्चात् जब बहुरा के साथ वर-वधू ने महाकाल की प्रतिमा को नतजानु होकर प्रणाम किया तब सेनापति की मांसल भुजाओं की मछलियां तड़फड़ा उठीं। हाथों की पकड़ तलवार की मूठ पर कस गयी। क्रोधावेश में व्याकुल सेनापति कदाचित् बहुरा पर प्रहार ही कर बैठता कि तभी मंगलगुरु उसे बलपूर्वक पकड़कर भैरव-मण्डप से बाहर ले आये। 'जग्गा-काग' की चेतावनी मंगल की चेतना में कौंधी।

'आपको अपनी उग्रभावनाओं पर नियंत्रण रखना होगा सेनापति, अन्यथा ...अन्यथा।'

'अन्यथा क्या होगा राजरत्न?' सेनापति गुर्राये-क्या होगा अन्यथा? ...आपने देखा नहीं किस प्रकार इस चौधराइन ने हमारी मान-मर्यादा, हमारे धर्म को अपमानित किया? वेद-विरुद्ध वैवाहिक-प्रक्रिया ही क्या कम थी... जो चौधराइन ने हमारे धैर्य की परीक्षा हेतु...हमारे समक्ष ही कुँवर को भैरव के समक्ष नतजानु करा दिया...आप ज्ञानी-गुरु हैं...प्रतिकूल अवस्था में भी धैर्य-धारण कर सकते हैं, परन्तु अपनी अस्मिता को यों विनष्ट होता मैं नहीं देख सकता। क्रोधावेश से मेरी भुजाएँ फड़क उठी हैं। '

क्रोध से थरथराते सेनापति ने खड्ग की मूठ पकड़कर आगे कहा-'मेरी तलवार इस दुष्टा के रूधिर की प्यासी हो उठी है गुरूवर...! आप कृपया व्यवधान उपस्थित न करें। हमारी कुलवधू को परिजनों सहित साथ लेकर तत्काल प्रस्थान करें...मैं इस मूढ़ स्त्री को उसकी करनी का फल चखाकर राजा जी की सेवा में उपस्थित हो जाऊँगा।'

मंगल गुरु विस्मित होकर सेनापति को देखने लगे। अनायास यह क्या हो गया? क्या 'जग्गा' काग की भविष्यवाणी सेनापति ही पूर्ण करेंगे?

रंग में पूर्णतः भंग हो गया। भैरवी-मण्डप में उपस्थित समस्त जन की दृष्टि सेनापति पर केन्द्रित हो गयी। फिर भी वस्तुस्थिति की गंभीरता का भान किसी को न होता, यदि सौदागर जय सिंह इस अमूल्य सुयोग से चूक जाता। उसने बहुरा के समक्ष नमक-मिर्च लगा कर नाटकीय विनम्रता के साथ सेनापति के विरुद्ध विष-वमन कर दिया। देखते ही देखते भैरव-मण्डप का मांगलिक वातावरण विषाक्त हो गया। अनिष्ट की आशंका में वर-पक्ष चिंतित और कन्या-पक्ष व्यथित हो गये।

क्या होगा अब?

बहुरा किसी भी क्षण काल-भैरवी का प्रचण्ड स्वरूप धारण कर सकती है।

...फिर तो महाविनाश! वर-पक्ष में कितनों को मृत्यु-भय ने आ धेरा...भयाक्रांत बारातियों ने तत्काल पलायन प्रारंभ कर दिया।

वास्तव में स्थिति से अवगत होते ही बहुरा मानसिक नियंत्रण खोने लगी थी और संभव था वह काल का रूप धर अनर्थ कर बैठती। परन्तु उसने स्वयं को आश्चर्यजनक रूप से नियंत्रित कर लिया। दयाल सिंह और अमृता को भैरव के समक्ष छोड़ तीव्र गति से वह राजा जी के पास आयी। राजा जी के समक्ष उपस्थित होकर उसने पुनः स्वयं को नियंत्रित कर शांत भाव से कहा-'जो कुछ मैं देख और जान रही हूँ...वह अति दुर्भाग्यपूर्ण है राजन्! मात्र एक व्यक्ति ने हमारे मांगलिक उत्सव को विषाक्त करने की धृष्टता की है। मुझे विश्वास है ...सेनापति के कलुषित विचारों से आपमें से किसी की भी सहमति नहीं है...परन्तु फिर भी सत्य यही है कि स्थिति नियंत्रण से बाहर हो गयी है। अब यदि मैं हस्तक्षेप करती हूँ तो निश्चय ही आपके बलशाली सुयोग्य सेनापति अपने प्राणों से हाथ धो बैठेंगे। इसीलिये आपको ही इसका प्रतिकार करना उचित है, महाराज!'

इस अप्रत्याशित परिस्थिति ने राजा को दिगभ्रमित कर मौन कर दिया था। परिस्थिति की गंभीरता को भलीभाँति जानकर रानी गजमोती ने बहुरा से कोमल स्वर में कहा-'बहन! तुम्हारे अपूर्व धैर्य एवं सुनीति ने मुझे वास्तव में मुग्ध कर दिया है। तुम्हारे स्थान पर मैं स्वयं भी होती तो कदाचित् अधीर हो किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो जाती। तुम धन्य हो बहन! तुमने जो कहा, वह सर्वथा समयानुकूल ही है। परन्तु इस विषम परिस्थिति में उचित यही है कि तुम हमारी पुत्रवधू के साथ शीघ्र यहाँ से प्रस्थान करो...! सेनापति को शांत करके उन्हें अविलम्ब अपने अंचल में लौटने का आदेश राजा जी दे देंगे!'

रानी गजमोती के प्रस्ताव की प्रतिक्रिया मात्र इतनी हुई कि बहुरा का आंतरिक क्रोध थोड़ा और कम हो गया। परन्तु उसके अंदर की क्रोधाग्नि का शमन नहीं हो सका।

रानी गजमोती के प्रति आदर प्रदर्शित करते हुए बहुरा ने कहा-' मेरे मौन प्रस्थान का अर्थ है पलायन और इस प्रकार विवाह-मण्डप से पलायन को लोग मेरी भीरूता ही कहेंगे...क्षमा करें समधिन! मैं अभी इतनी दुर्बल नहीं। अब तो एक ही विकल्प शेष है...सेनापति अपने दुष्टतापूर्ण धृष्ट आचरण के लिए मुझसे तत्काल क्षमा याचना

करें...! उसने ऐसा किया तो कदाचित् मैं उसे क्षमा कर दूँ! '

रानी गजमोती ने उत्सुक दृष्टि से राजा जी को देखा। परिस्थिति के विपरीत हो जाने की इस विषम स्थिति में वह उनकी आकृति पर उभरे मनोभावों को जानना चाहती थी।

परन्तु, राजा जी के भाव-शून्य मुखमण्डल को देख वह चकित थी।

राजा वास्तव में अपने सेनापति के क्रोध के औचित्य को समझ चुके थे। अपने एकमात्र पुत्र की वेद-विरुद्ध विवाह-प्रक्रिया की मौन स्वीकृति पर वे स्वयं लज्जित थे। उनके सेनापति के क्रोध का कारण उनकी दृष्टि में सेनापति की निःस्वार्थ स्वामीभक्ति एवं वेदों के प्रति आंतरिक आस्था ही था। ऐसे में अपने सेनापति को बलात् वापस भेजना क्या उचित होगा? राजा इस दुविधा में फँसे मौन ही खड़े रहे।

उधर सेनापति के साथ वाक्-द्वंद्व में गुरु मंगल उलझे थे, इधर बहुरा राजा-रानी के संग अप्रिय संवाद में संलग्न थी। ऐसी स्थिति में माया ने तत्काल प्रतिक्रिया की। वर-वधू तथा कन्या-पक्ष के समस्त जनों को साथ ले वह विवाह-स्थल से त्वरित प्रस्थान कर गयी।

कन्या-पक्ष को यों शीघ्रता से पलायन करते देख आशंकित वर पक्ष के बचे लोग भी भागने लगे। देखते-ही-देखते सम्पूर्ण मंडप-स्थल प्रायः जनशून्य हो गया।

अब तक पोपली काकी ने अपना कर्त्तव्य निर्धारित कर लिया था। तत्परता पूर्वक आकर उसने अपनी पूरी शक्ति से बहुरा की बाँह थामकर कहा-'ज्ञानी जन विपत्ति में भी न धैर्य खोते हैं, न विवेक। हमारा विरोध न अपने जामाता से है न उनके अभिभावकों से और न सेनापति को छोड़ अन्य बारातियों से। महाकाल की अनुकम्पा से वैवाहिक कार्यक्रम भी मंगलमय सम्पन्न हो चुका है। अपने अमानुषिक दैहिक-बल के अहंकार से मोहित इस दुष्ट ने हमारे ही अंचल में हमें धृष्टतापूर्वक चुनौती देने का दुःसाहस कर हमारे गौरव को ललकारा है। हम सर्वथा समर्थ होते हुए भी परिस्थितिवश सम्प्रति मौन हैं। परन्तु इसका कदापि यह अर्थ नहीं कि हम इस दुष्ट को यों ही क्षमा कर देंगे। तुमने जिस अपूर्व धैर्य का परिचय दिया, वह वास्तव में वंदनीय है पुत्री...! क्षणिक धैर्य और धारण करो...! वही होगा, जिससे तुम्हें प्रसन्नता मिले...परन्तु अब और इस स्थल पर रुकना निरर्थक ही है। तुम्हारी पुत्री एवं जामाता, माया के साथ जा चुके हैं। कन्या पक्ष के हमारे परिजनों ने भी इस स्थान का परित्याग कर दिया है। ...तुम तत्काल मेरे साथ चलो...और रानी जी, आप सभी अपने शिविर में जाने की कृपा करें...हमें आपसे कोई विद्वेष नहीं। परन्तु काल ने आपके सेनापति की बुद्धि ही हर ली है...अन्यथा।'

अपनी बात अधूरी छोड़ अनिर्णय की स्थिति में फँसी बहुरा को बलपूर्वक ले जाकर पोपली काकी ने अपनी पालकी में बिठा लिया।

'आपने बलात् मुझे रोके रखा राजरत्न...!' निराश वाणी में सेनापति ने कहा-

'आपके ही कारण इस दुष्टा ने निर्विध्न पलायन कर लिया...देखिए सम्पूर्ण मण्डप रिक्त हो चुका है। हमारे राजा जी, रानी एवं वैद्यराज आतुर हो हमें निहार रहे हैं...अब विलंब न कर हमें राजा जी के पास चलना चाहिए.'

मंगल गुरु की सहमति पाकर दोनों भैरव-मण्डप में उपस्थित राजा के समीप जा पहुँचे।

निःश्वास छोड़ते हुए मंगल ने कहा-' कमला मैया की अनुकम्पा से महान् संकट टल गया राजा जी...अन्यथा हमारे सेनापति क्रोधावेश में भरकर समधिन जी का

वध ही करने पर उद्यत हो चुके थे...कृपा करके इन्हें शांत करने का प्रयत्न करें। ये अभी तक उद्विग्न हैं। '

'आश्चर्य है मुझे!' सेनापति ने खेदपूर्वक कहा-'राजा जी! आप तो औपचारिकता के बंधन में कदाचित मौन हैं और हमारे परमज्ञानी मंगल गुरु अपने प्रिय शिष्य के मोह में भ्रमित हो उचित-अनुचित का विचार त्याग चुके हैं। हमारे वैद्यराज भी शांतचित्त खड़े हैं, परन्तु मेरी आत्मा मुझे धिक्कार रही है...मैं क्यों पुरुषार्थ छोड़ कापुरुष की तरह सब देखता रहा...धिक्कार है मुझे, मेरे बाहुबल को...धिक्कार है...!'

पहली बार मौन त्यागकर राजा ने कहा-'शांत सेनापति...! शांत! आपकी भावनाओं का मैं निरादर नहीं करना चाहता और न ही आपके हृदय को आहत करना चाहता हूँ। परन्तु प्रतिकार का यह उचित अवसर नहीं है, सेनापति!'

सेनापति के प्रत्युत्तर के पूर्व ही मंगलगुरु ने साश्चर्य पूछा-' तो क्या आप उचित अवसर की प्रतीक्षा कर रहे हैं, महाराज? ...क्या आप वर-वधू को संरक्षण में लेकर चौधराइन के अंचल में उसी से वैर पालना चाहते हैं? '

इस बार वार्तालाप के मध्य राजवैद्य ने हस्तक्षेप करके मंगल से कहा-'राजा जी की ऐसी कोई धारणा नहीं है मंगलगुरु...परन्तु...!'

'परन्तु क्या वैद्यराज?' मंगल ने अधीरता से कहा, ' हमारे कुटुम्बी एक हो चुके हैं। वेद-विरोधी बहुरा अब हमारी सम्मानित समधिन हैं। साम्प्रदायिक विषमता को पूर्व में ही स्वीकार कर हमने अपने पुत्र का बहुरा-सुता के साथ पाणिग्रहण कराया है...और आपने स्वयं देखा, जब हमने अपने पुत्र का वैदिक रीति से वैवाहिक सूत्रबंधन के लिए मंगलाचरण की प्रक्रिया पूर्ण की तो बहुरा ने कोई विरोध न किया। हमने मण्डप में उपस्थित हो जब उसे विधिवत् इस मंगलाचरण की सूचना दी, तब भी उसकी भावनाएँ दूषित नहीं हुईं...उसने हमारे वैदिक रीति-रिवाज की अवहेलना न की। यों भी वैद्यराज! हमारे अंगप्रदेश में प्रत्येक अंचल विशेष के रीति-रिवाज एक दूसरे से भिन्न हैं और स्वीकृत मान्यता भी यही है कि कन्या-पक्ष वाले अपने कुलानुसार कार्य करते हैं तथा वर-पक्ष अपने कुलानुसार। इसमें कभी न कोई मतभेद होता है, न विभेद...फिर हम क्यों उद्विग्न हो गये। हमारी बहुरा महाकाल की उपासिका हैं और हम माता कमला के. हमारी उपासना में जब वे बाधक नहीं तो उनके मार्ग में हम क्यों बाधा उत्पन्न करें...? '

राजा की भ्रांति दूर हुई...अनायास उन्होंने आदेशात्मक स्वर में कहा-'ठीक है राजरत्न! आपके अकाट्य तर्क का पूर्ण समर्थन करते हुए मैं घोषणा करता हूँ कि महाकाल के इस प्रांगण में...इसी विवाह-मण्डप में मैं अपनी पुत्रवधू एवं समस्त परिजनों के साथ माता कमला का पूजन विधिपूर्वक कर अपने संताप से मुक्त होऊँगा...आशा है, हमारे उद्विग्न सेनापति को भी इस पूजन से शांति प्राप्त होगी!'

राजा की अप्रत्याशित घोषणा ने मंगल गुरु को विस्मित कर दिया। काल की गति किसी बुद्धि-कौशल से टाली नहीं जा सकती, इस बात को स्वीकार कर वे चिन्तित हो गए.

मंगल की मुखाकृति पर छायी चिन्ता का आनंद लेते हुए सेनापति ने कहा-

' आप हमारी मान्य समधिन जी को उनके परिजन समेत सादर बुलाइये, राजरत्न

...राजाज्ञा से अब हम अविलंब माता कमला की पूजा करेंगे। '

कालनिर्णय के समक्ष मंगलगुरु नतमस्तक हो मौन हो गये!

मंगल गुरु के मौन पर सेनापति के अधरों पर विद्रूप मुस्कान तैरी। इस गंभीर वातावरण में एकमात्र जयसिंह अतिप्रसन्न था। उसकी डूबी हुई नैय्या पुनः किनारे लग सकती थी। इस समय उसका एक ही कर्त्तव्य था, सुलग चुकी चिनगारी को थोड़ी-सी हवा देकर प्रज्वलित कर देना।

अभागे का भाग्योदय ही हुआ जैसे! उसे कुछ प्रयत्न न करना पड़ा। सेनापति ने उसे संकेत देकर पास बुलाया। विशालकाय सेनापति ने जय के कंधे पर अपनी सशक्त भुजा रख आदेश दिया-'यह तुम्हारी परीक्षा की घड़ी है जय! अविलंब अपनी चौधराइन को सूचित करो। हम यहाँ इसी स्थल पर अपनी कुलदेवी कमला मैया का विधिपूर्वक पूजन कर रहे हैं। हमारे कुँवर को तत्काल सपत्नीक साथ लेकर वे आएँ तथा हमारे पूजन में सम्मिलित हों। ...जाओ जय... शीघ्र जाओ...!'

प्रसन्नता के आवेग से पुलकित जय ने दोनों कर जोड़ते हुए सेनापति से कहा-'आपके पुरूषार्थ की चर्चा अंग के समस्त अंचलों में होती है। आपके अतुलनीय बल और शौर्य के समक्ष हमारी चौधराइन की तुच्छ सिद्धियां वैसे ही छिन्न-भिन्न हो जाएँगी जैसे वन में वनराज के दहाड़ पर गीदड़ों के झुंड।'

'तुममें यही एक दोष है'-सेनापति ने रूष्ट होकर कहा-'चापलूसी के अतिरेक में मर्यादा का उल्लंघन कर बैठते हो। जाओ...उन्हें सादर आमंत्रित कर शीघ्र लौटो।'

खिसियानी हँसी हँसते हुये जय ने मस्तक झुकाकर कहा-'जो आज्ञा सेनापति जी...मैं तत्काल प्रस्थान करता हूँ!'

तीव्र गति से जयसिंह मण्डप के बाहर खड़ी अपनी घोड़ी पर कूद कर बैठा और घोड़ी को एड़ी लगाकर सरपट दौड़ाता दृष्टि से ओझल हो गया।

'यह उचित नहीं हुआ, राजा जी.' मंगल ने अप्रसन्न वाणी में कहा।

'हाँ महाराज!' राजवैद्य ने पहली बार कहा-'चौधराइन के अंचल का यह शक्तिमंडप है। अपनी कुलदेवी की पूजा-आराधना इस स्थल पर अनुचित है। हमें अपनी समधिन की भावनाओं का ध्यान रखते हुए अपना पूजन अपने शिविर में करना चाहिए.'

'कदाचित् आप ठीक कह रहे हैं, वैद्यराज!' राजा ने सहमति में कहा-' हमारा उद्देश्य अपनी समधिन को क्लेश पहुँचाना कदापि नहीं है। हमें तो पुत्र के विवाहोत्सव के समापन पर अपनी कुल देवी की प्रसन्नता एवं अपनी संतुष्टि हेतु माता की पूजा-आराधना करनी है। चलिए, वैद्यराज हम अपने शिविर में ही माँ की आराधना करेंगे।

कहकर राजा ने सेनापति से कहा-'आप शीघ्र अपने दूतों द्वारा ड्योढ़ी में पुनः आमंत्रण भेजिए. सौदागर जयसिंह का चरित्र संदिग्ध है, सेनापति।'

'जी महाराज!' अप्रसन्नतापूर्वक कह कर वह विचार-मग्न हो गया।

राजा जी के शिविर में कमला मैया की पूजन व्यवस्था प्रारंभ ही हुई थी कि गुप्तचरों के प्रधान घुटरामल्ल ने आकर अनिष्ट की सूचना दी। गुप्तचर की सूचना ने मानो भूचाल ही उपस्थित कर दिया। तत्काल जनवासा-त्याग के अतिरिक्त कोई अन्य विकल्प न पाकर राजा जी ने मंगलगुरु तथा राजवैद्य से मंत्रणा की।

'इस विकट स्थिति में क्या हमें पीठ दिखाकर भागना शोभा देगा?' राजा ने कहा।

'यही उचित है, राजा जी!' राजवैद्य ने गंभीर होकर कहा-' हम अपने साथ, अपनी निर्दोष प्रजा को संकट में नहीं डाल सकते।

सौदागर जयसिंह के प्रति आपकी आशंका निर्मूल नहीं थी, महाराज! अवश्य उसने अपने किसी अज्ञात प्रयोजनवश बहुरा को हमारे विरुद्ध भड़काया है। आपने तो सेनापति से अपने दूत भेजने को भी कहा था। कदाचित् वे भेज न सके और इसका लाभ उठाकर जयसिंह ने बहुरा के समक्ष अनर्गल प्रलाप कर दिया। '

मंगल गुरु ने भी मौन भंग कर कहा-'वैद्यराज की सलाह उचित ही है राजा जी. बहुरा कितनी विकट सिद्ध योगिनी है, यह हम सभी भली-भांति जानते हैं, उस पर से इस समय उसने अपना भयंकरतम स्वरूप धारण कर लिया है। इस प्रज्वलित ज्वाला को न मैं अपने मंत्रबल से शीतल कर सकता हूँ, न हमारे बलशाली सेनापति। इसीलिए यथोचित यही है कि हम तत्काल इस स्थल का परित्याग कर दें।'

चिन्तामग्न रानी ने मंगल गुरु से प्रश्न किया-'आपके और वैद्यराज के समयानुकूल परामर्श मान भी लें तो यह बताइए मंगल गुरु, हमारे प्रिय पुत्र का क्या होगा?'

'कमला मैया चाहेंगी तो हमारे प्रिय युवराज का बाल भी बाँका न होगा।' मंगल गुरु ने दृढ़ स्वर में कहा-'विशेषकर शुक्ल पक्ष के समापन तक जगत की कोई शक्ति अपके प्रिय पुत्र का बाल भी बांका नहीं कर सकती, फिर बहुरा की तो बात ही क्या है? ...'

रानी से अपनी बात कहकर मंगल ने पुनः राजा से कहा-'सबको तत्काल कूच की आज्ञा दें महाराज...हमें विमर्श में अब और एक भी पल व्यर्थ करना उचित नहीं।'

'परन्तु, क्या भ्रमित बहुरा का भ्रमनिवारण आवश्यक नहीं, मंगलगुरू?'

'नहीं महाराज! स्थिति की गंभीरता का कदाचित् आपको आभास नहीं। काल ही उसके भ्रम का भविष्य में निवारण करेगा, इस पल तो हमें इस स्थल का तत्काल परित्याग कर देना चाहिए. 'राजाज्ञा मिलते ही अविलंब भरोड़ा प्रस्थान करने के लिए सबने अपने-अपने शिविरों को रिक्त कर दिया।

समस्त बाराती अपने-अपने वाहन पर भरोड़ा की ओर तीव्रता से प्रस्थान करने लगे। सेनापति को निर्देश दिया गया कि वे समस्त रक्षकों सहित बारात की रक्षा में सबसे पीछे अति सावधान होकर चलें।

सेनापति न राजनीति से भिज्ञ था, न कूटनीति से। उसे एक ही चिन्ता खाये जा रही थी कि वह पीठ दिखाकर भागने पर विवश है। अन्तरात्मा के

धिक्कार ने उसे विकट निर्णय लेने पर विवश कर दिया। कापालिक शक्तियों के अभिमान में चूर बहुरा का मानमर्दन किये बिना वह कदापि नहीं जाएगा।

सेना के विशिष्ट लड़ाकों को साथ रख उसने शेष सशस्त्र सेना को पलायन करते बारात की अंतिम पंक्ति के पीछे सावधान कर भेज दिया।

'मेरे वीर रण-बाँकुरो' ! सेनापति ने उच्चस्वर में कहा-'आज इस क्षण हमें अपनी मर्यादा की रक्षा अपने अपूर्व शौर्य से करनी है। स्मरण करो अपने शौर्य को और बल को पहचानो। एक कुटिल कापालिनी ने तुम्हारे सम्मानित राजा-रानी को पलायन पर विवश कर दिया। जिन्हें अपनी अद्भुत सिद्धियों पर गर्व था और जिनकी यश-पताका सम्पूर्ण अंग में फहराती थी, वे ज्ञानियों में श्रेष्ठ, सिद्धों में सर्वश्रेष्ठ परम आदरणीय गुरुदेव मंगल भी भीरुओं की भांति दुम दबाकर भाग गए. हमारे भरोड़ा की प्रतिष्ठा धूल-धूसरित हो गयी। परिस्थिति बड़ी विकट हो चुकी है वीरो...! अब भरोड़ा की लाज हम ही बचा सकते हैं। इस क्रूर डायन का वध करके हम अपने प्रिय कुँवर को उनकी नवविवाहिता के साथ ससम्मान अपने अंचल को कूच करेंगे। बोलो तुम तैयार हो?'

'हम तैयार हैं सेनापति...! तैयार हैं।' सैनिकों का उत्साहित समवेत स्वर गूँजा-'अपने राजा के खोये सम्मान की रक्षा हम अपने प्राणों की आहुति देकर भी करेंगे... परन्तु बहुरा के मंत्रों का प्रतिकार कैसे करेंगे सेनापति?'

सेनापति का अट्टहास गूँजा। हँसते हुए ही उसने कहा-'तंत्र-मंत्र और यंत्र शक्तिविहीनों के अस्त्र-शस्त्र हैं। तुमने शक्तिशाली को कभी तांत्रिक-मांत्रिक बनते देखा है? उनकी शक्ति उनके कुटिल मंत्रों के माध्यम से प्रकट होती है। प्रहार करने हेतु उन्हें अनेक घृणित प्रक्रिया पूरी करनी आवश्यक है और वीरों की शक्ति उसकी शक्तिशाली भुजाओं में निवास करती है। यों भी मंत्र-प्रहार की प्रतिक्रिया हमेशा निर्बल और भीरुओं पर ही सफल होती है। वीरों के समक्ष इनका क्या प्रयोजन? हमारी प्यासी तलवार के समक्ष उस दुष्टा के समस्त मंत्र-तंत्र किस प्रकार निष्फल हो जाएँगे...आज तुम देखना। मेरी शक्तिशाली भुजाओं में फँसकर जब वह अपने प्राणों की भिक्षा मांगेगी तो तुम जान जाओगे, रणबांकुरों के सामने पड़ जाने से इन दुष्टों की क्या परिणति होती है। यदि छल-बल से बहुरा मेरे हाथ लगने के पूर्व ही अपनी काली शक्तियों के आवाहन का प्रयत्न करेगी तो तुम देखना, किस प्रकार मेरी प्यासी तलवार उसके उष्ण शोणित से तत्काल अपनी प्यास बुझाती है।'

सैनिकों ने समवेत स्वरों में हर्षनाद कर उस स्थल को गूँजा दिया। वे हवा में हाथ उठा-उठा कर सेनापति की जय-जयकार करने लगे।

' शांत वीरो...शांत! यों तुमुल नाद में समय नष्ट न कर, तुम सभी युद्धोचित कवच और शिरस्त्रण धारण करो तथा अपने अस्त्र-शस्त्रों की विधिपूर्वक पूजाकर शीघ्र सुसज्जित हो तैयार हो जाओ...मैं भी अग्नि में तपाये अपने अभेद्य कवचों एवं अस्त्र-शस्त्रों से शीघ्र सुसज्जित होता हूँ। '

'ऐसा ही होगा सेनापति!'

कहकर कोलाहल करते सैनिकों ने अपने शस्त्रगार-शिविर में उत्साहपूर्वक प्रवेश किया।

अपनी ड्योढ़ी में पुत्री-दामाद सहित सब के व्यवस्थित हो जाने के पश्चात् बहुरा ने पोपली काकी के सम्मुख पहुँचकर प्रश्न किया-'कहो काकी, अब मुझे क्या करना उचित है?'

'सानंद विराजो पुत्री! मैंने सब निश्चय कर लिया है...तुमने अपनी प्रत्युत्पन्नमति से प्रथम विजय पा ली है। हमारी पुत्री और दामाद-दोनों हमारे पास हैं... अब हम जो चाहें सहज ही कर सकते हैं। तुम्हें मात्र इतनी सावधानी रखनी है कि हमारा दामाद हमारी इच्छा के विरूद्ध ड्योढ़ी न लांघ सके. उसकी समस्त सुख-सुविधा की सम्पूर्ण व्यवस्था कर चतुर द्वारपालों को ऐसे निर्देश दो कि कुँवर स्वयं को कारागृह में न समझें, परन्तु किसी भी स्थिति में बाहर भी न जा सकें। ऐसी अचूक व्यवस्था करने के पश्चात् ही हम उद्दण्ड सेनापति को उसकी करनी का फल चखाएँगे।'

पोपली काकी के विचारों से हतप्रभ बहुरा ने व्यग्र होकर कहा-'नहीं काकी! मैं तुम्हारे विचारों से सहमत नहीं हूँ। अपनी पुत्री और दामाद के जीवन को मैं सुख और आनंद से भर देना चाहती हूँ। उनके वैवाहिक जीवन के आनंद को अपने साम्प्रदायिक-मतभेद के कारण उत्पन्न इस अवांछित परिस्थिति में होम नहीं करूँगी। आप स्वयं साक्षी हैं, मेरी माता ने मुझे पितृविहीना किया। मेरे पति ने मेरा त्याग किया। मैं नहीं चाहती मेरी पुत्री भी उसी वियोग में जीवन काटे, जो मैंने काटा है। उसे अभिशप्त जीवन का शाप मत दो, काकी!'

'मूढ़ हो तुम पुत्री!' पोपली काकी की गंभीर वाणी गूँजी-'मैंने यह कब कहा कि हम अपने दामाद अथवा उसके माता-पिता का अहित करेंगे? मैं तो बस इतना चाहती हूँ कि जब तक परिस्थिति सामान्य होकर हमारे अनुकूल न हो तब तक...मात्र तब तक हमारे कुँवर हमारे अधिकार में...हमारे संरक्षण में...हमारे पास उपस्थित रहें।'

'तब ठीक है, काकी! द्वारपालों की कोई आवश्यकता नहीं। तुम्हारे दामाद स्वच्छंदतापूर्वक रहेंगे...परन्तु आश्वस्त रहो, यह ड्योढ़ी फिर भी उनके लिये अलंध्य कारागार बन जाएगी। मैं अपनी शक्ति से सम्पूर्ण ड्योढ़ी की परिधि को तत्काल मंत्र-बद्ध कर देती हूँ...आज तुम अपनी शिष्या की वह अद्भुत क्रिया देखोगी, जिस पर तुम्हें गर्व हो।'

कहकर बहुरा आसन त्याग वीरासन में बैठ गयी। उसकी आँखें बंद हो गयीं।

अधर पर मंत्रों की बुदबुदाहट उभरने लगी। तत्काल वायुमण्डल में एक विचित्र-सी गंध भरने लगी। यह सुगंध थी, -न दुर्गन्ध। भीनी-भीनी-सी ठंठक-युक्त इस गंध में एक मादकता-सी थी। पोपली काकी मुग्ध हो बहुरा को निहारती रही और बहुरा मगन हो मंत्रोच्चार करती रही।

थोड़ी ही देर में बहुरा की आँखें खुलीं। उसकी प्रसन्न मुखमुद्रा पर संतुष्टि की मुस्कान थिरक रही थी।

'लो काकी, तुम्हारा कार्य सम्पन्न हो गया। हमारे दामाद को कदापि भान न होगा कि वह मेरे अभेद्य मंत्र-दुर्ग का बंदी बन गया है। साथ ही मैंने अपनी पुत्री को भी अपने दामाद संग मंत्र-बंधन में जकड़ दिया है। प्रेमावेश में आकर यदि उसने अपने पति के साथ पलायन का प्रयत्न किया तो वह भी सफल नहीं होगी। निश्चिंत हो जाओ अब काकी तथा मुझे आदेश दो इस उद्दण्ड मूर्ख सेनापति को क्या दण्ड दूं? ...उसे अपने अमानुषिक बल का अहंकार सबसे ज़्यादा है...कहो तो उसका बल हर लूँ अथवा सदा के लिए उसे स्तम्भित कर दूँ। ऐसी अवस्था में वह जीवित तो रहेगा, परन्तु स्पंदित-हृदय एवं तन में रूधिर-परिचालन के अतिरिक्त वह मात्र श्वास लेगा। शेष स्पंदनहीन शरीर में वह जीवित शव का जीवन जीएगा। अन्यथा उसके बड़े अपराध का यदि छोटा दण्ड निर्धारित करो तो उसकी वह दाहिनी आँख ही छीन लूँ, जिसकी भृकुटि तानकर उसने सक्रोध हमें देखा था।'

बहुरा की बात पर पोपली काकी हँस पड़ी। उसकी हँसी ने तनावपूर्ण वातावरण को अचानक बदल दिया।

काकी की हँसी ने बहुरा के अधरों पर भी मुस्कान बिखेर दी।

काकी ने हँसते हुए ही कहा-'छोड़ दे पुत्री... उस मूढ़ को क्षमा कर दे। देख पुत्री! शक्तिहीन ही सर्वदा शक्ति-प्रदर्शन के अभिलाषी होते हैं और मेरी पुत्री शक्तिहीना नहीं है। तू तो सर्वश्रेष्ठ शक्ति उपासिका है। तू चाहे तो क्षण में सारा अंचल जन-विहीन हो जाए, तो फिर तुम्हारे समक्ष एक अकेला क्षुद्र प्राणी का भला क्या अस्तित्व है? उस मूर्ख को क्षमा कर दे, पुत्री और इस विषाक्त स्थिति को अपने निश्छल सौहार्द से भर दे...चल! चिन्तित राजा-रानी के शिविर में उपस्थित होकर, हम उन्हें निर्भय कर, अपने सम्बंधों में आयी अवांछित कटुता समाप्त कर दें। चल पुत्री...चल...!'

आंधी-तूफान की गति से घोड़ी को दौड़ाता सौदागर जयसिंह वीरा की ड्योढ़ी की दिशा में भाग रहा था। परन्तु, उसके विचार उसकी घोड़ी की गति से भी तीव्र गति में भाग रहे थे। उसकी निराशा समाप्त हो गयी थी। पसीने से तर उसकी हृदय की धड़कनें बढ़ गयी थी। बहुरा से अविलंब मिलना आवश्यक था। बाजी अब पलटने ही वाली थीं। जय के होठों पर मुस्कुराहट तैरी। अब निश्चय ही दयाल सिंह का काँटा सदा-सर्वदा के लिए समाप्त हो जाएगा।

बस्ती में पहुँचते ही लोगों ने आश्चर्य से उसे देखा।

'अरे यह अपने सौदागर जयसिंह को क्या हुआ?'

'हाँ, देखो तो कैसा बदहवास भागा आ रहा है।'

'अवश्य कोई अनहोनी घटित हुई है।'

जयसिंह की घोड़ी ज्योंही उनके निकट आयी, लोगों ने चिल्लाकर उसे बलात् रोक लिया।

'बात क्या है जय भैय्या? यों भागे कहाँ जा रहे हो?' एक नवयुवक ने हाँफते हुए पूछा।

'पूछो मत! मुझे शीघ्र चौधराइन के पास जाना है, मुझे मत रोको।'

'अरे बात क्या है...वह तो कहो?'

अवसर का लाभ उठाते हुए उसने कहा-'सर्वनाश उपस्थित हो गया है...हमारे कुँवर दयाल सिंह के बाराती भैरव-मण्डप की मर्यादा का हनन करने को आतुर हैं और तुम सब यहाँ विवाहोत्सव का आनंद मनाने में मगन हो...जाओ ...स्वयं जाकर देखो वे हमारे महाकाल की प्रतिमा को ध्वस्त कर अपनी कमला मैय्या को प्रतिष्ठित कर रहे हैं...मैं यही कहने ड्योढ़ी जा रहा हूँ...अब मुझे और न रोको...जाने दो मुझे।'

'अरे, रुको तनिक जय!'

एक वृद्ध ने आगे आकर कहा-'तुम्हारे रहस्यभरे संवाद हमारी समझ के परे हैं। इधर दूल्हा-राजा बहुरा की ड्योढ़ी में नववधू संग आनंदमग्न हैं और तुम कहते हो, बाराती हमारी भैरव-प्रतिमा को ध्वस्त कर रहे हैं, यह परस्पर विरोधी सूचना है जय...!' उस वृद्ध ने उपस्थित लोगों से पूछा-'क्यों भाई, तुम्हारी समझ में ऐसा संभव है? ...हमारी बहुरा क्या इतनी अबोध है अथवा क्या उसे महाकाल की प्रतिष्ठा की भी कोई चिन्ता नहीं?'

'ठीक कहते हो काका...परन्तु।'

जयसिंह क्रोधित हो गया। चीखते हुए उसने कहा-' अरे मूर्खो...चौधराइन को क्या पता, उसकी पीठ पीछे बरातियों ने सर्वनाश उपस्थित कर दिया है। उन्हें यही बताने तो जा रहा हूँ...व्यर्थ तुमलोगों ने मेरा समय नष्ट किया...मुझे जाने दो और तुम्हें मेरी बातों पर विश्वास नहीं तो स्वयं जाकर देखो...कहकर उसने घोड़ी को सरपट दौड़ा दिया। घृणा की चिनगारी तो सुलग ही चुकी थी। लोगों में कानाफूसी शुरू हो गयी।

घोड़ी की पीठ पर बैठा जय कल्पना-लोक में खो गया। उसने देखा ड्योढ़ी के द्वार पर क्रोधित बहुरा अपनी संगी-सहयोगिनियों के साथ अपनी भीषण तांत्रिक क्रिया में व्यस्त है। पास पहुँचते ही बहुरा की दृष्टि जय पर पड़ती है और छोड़ी की पीठ से कूदकर वह बहुरा के समक्ष खड़े होकर वर पक्ष की करनी बताता है। जय की बातें सुनकर बहुरा प्रचण्ड रूप धारण करती है। कुँवर दयाल सिंह पीड़ा से बेचैन हो छटपटाता हुआ आता है और चीत्कार करता वहीं भूमि पर रक्त-वमन करता गिर पड़ता है। बहुरा उसे देख अट्टहास करती है और कुँवर दयाल चीत्कार कर अपने प्राण छोड़ बैठता है।

कुपित बहुरा फिर भी शांत नहीं होती। दयाल सिंह के मृतक शरीर पर घृणा से पद-प्रहार करती भयंकर अट्टहास करती रहती है।

जाने कब तक वह अपनी जागी आँखों से सपने देखता रहता, परन्तु बहुरा की ड्योढ़ी पर पहुँचने के कारण उसका दिवास्वप्न समाप्त हो गया।

हाँफते हुए वह घोड़ी से उतरा। भूमि पर खड़ा हुआ। ड्योढ़ी का द्वार सूना था। धड़कते कदमों से वह सीढ़ियां चढ़ा और प्रधान कक्ष के द्वार पर उपस्थित हो ठिठक गया। अंदर बहुरा और पोपली काकी मुदित हो हँस रही थीं। पोपली काकी ने प्रफुल्लित वाणी में बहुरा से जो कहा-उसे सुनकर उसे अपने कानों पर विश्वास ही न हुआ। जय का मस्तक चरखी की भांति घूमा। उसे ऐसा प्रतीत हुआ कि चेतना-शून्य होकर वह वहीं गिर पड़ेगा। उसने अपने दोनों हाथों से अपना मस्तक पकड़ लिया।

'अरे जय सिंह!' पोपली काकी ने उसे देखते ही साश्चर्य कहा-' इसे क्या हुआ ...देखो पुत्री! '

'अंदर आओ जय!' बहुरा की गंभीर वाणी गूँजी-'अचानक आगमन का प्रयोजन व्यक्त करो।'

स्वयं को किसीप्रकार सम्हालता जय द्वार पार कर अंदर पहुँचा-'अनर्थ हो गया माता...अनर्थ हो गया! महाकाल का घोर अपमान माता... विघर्मियों ने महाकाल का घोर अपमान कर दिया।'

'यह क्या प्रलाप कर रहा है, मूर्ख?' पोपली काकी ने गर्जना की-'किस मतिभ्रष्ट ने यह दुःसाहस किया...शीघ्र बता!'

अभिनय-प्रवीण जय ने आँखों में पीड़ा भरकर रोते हुए कहा-' विधर्मी हमारे भैरवी-मण्डप के अंदर भैरव के समक्ष ही कमला-पूजन कर रहे हैं काकी। भैरव का घोर अपमान...मेरे पास शस्त्र होता तो वहीं प्राणत्याग देता, परन्तु जीते-जी अपने महाकाल का अपमान न होने देता...पर मैं निर्बल, विवश था काकी। प्रतिरोध न कर पाया, इसीलिए दौड़ता-भागता आपकी शरण में आया हूँ। आप सर्व शक्तिमान हैं

...समर्थ हैं। दया-भाव का त्यागकर हमारे अपमान का प्रतिकार करें अन्यथा अपनी ही ग्लानि मेें मैं अपने प्राण-त्याग दूंगा। हमारे अपने अंचल में उपस्थित होकर कोई प्राणी हमारे महाकाल का अपमान करे तो जीवित रहकर इस अपयश को भोगते रहने से श्रेष्ठ है प्राण त्याग देना। '

पोपली काकी और बहुरा हतप्रभ-सी हो गयीं। यह अप्रत्याशित क्या हो गया। दोनों क्रोधावेग से आवेशित कुछ कहना ही चाहती थीं कि जय ने पूरे आवेग में बहुरा से कहा-'इतना ही नहीं, माते...उन्होंने विद्रूप मुस्कान के साथ मुझसे कहा है कि जाकर कह दे अपनी बहुरा डायन से...आज कमला मैया के पूजन के पश्चात् तुम्हारे महाकाल की प्रतिमा ध्वस्त कर अपनी माता को स्थापित करूँगा। घृणित श्मशान की तुच्छ सिद्धियों के व्यर्थ अभिमान में आकर उसने हमारे वेदों का अपमान किया है। आज उसी की भूमि पर उसका मान-मर्दन करूँगा। जा...कह दे जाकर।'

'बस जय...बस...अब और एक अतिरिक्त शब्द नहीं। हुंकारती पोपली काकी ने कहा तुम्हारी सूचना सत्य है तो उन्हें मृत्युदंड मिलेगा, जिन्होंने यह कुकृत्य किया है, अन्यथा अपने प्राणों का मोह तू छोड़ दे। मिथ्याभाषण किया हो तो निश्चित जान तू जीवित नहीं रहेगा। ...पुत्री चल मेरे साथ...एक क्षण भी और विलंब न कर।'

क्रोध में फनफनाती पोपली काकी बहुरा को संग ले तत्काल कक्ष से बाहर आ गयी।

क्रोध में विक्षिप्त बहुरा पोपली काकी को साथ ले ड्योढ़ी के उपासना-कक्ष में आयी। इसी कक्ष में उसकी माता ने अंतिम साँस ली थी। महाकाल की विकट प्रतिमा के सन्निकट बहुरा ने अपने गुंथे केशों को झटककर खोला। उसके लम्बे केश नितम्ब तक खुलकर बिखर गये।

होठों से मंत्रोच्चार करते हुए बहुरा ने एक-एक कर अपने समस्त आभूषणों का त्याग किया। महाकाल के चरणों में रखा बंदर की खोपड़ियों की विकट माला धारण कर बहुरा ने अंगूठे में तेज चाकू से चीरा लगाया। ताजा उष्ण रूधिर बलबलाकर बाहर आया। बहुरा ने प्रथम काकी के मस्तक पर रूधिर का तिलक कर, अपने मस्तक पर तिलक किया। तत्पश्चात् उंगलियों की हड्डियों की मालाओं को कंगन की भांति अपनी दोनों कलाइयों में धारण करके, विकट अट्टहास करते हुए पोपली काकी को चलने का संकेत कर आगे बढ़ गयी।

पुत्री के विवाहोत्सव में सजी-धजी, शृंगारित बहुरा का सौंदर्य-स्वरूप, अनायास भयंकर कापालिका के रूप में परिणत हो चुका था। आमोद-प्रमोद और प्रेम-सौहार्द से भरा उसका अंतस्, कुछ ही क्षणों में क्रोध-घृणा और प्रतिहिंसा से भर कर छलकने लगा।

'काकी तुम देखना, हमारे परिजनों का रूप धर कर जिन आतताइयों ने हमारे भैरव की प्रतिमा ध्वस्त करने की सोची है...तुम्हारी पुत्री आज उनको कैसे दण्डित करती है।'

'नहीं पुत्री...कुछ नहीं करोगी तुम...आज जो करना होगा...मैं करूँगी, तुम साक्षी रहना...मैं उनके रूधिर को अंजली में भर-भर कर महाकाल का अभिषेक करूँगी।'

'कदापि नहीं...तुम्हारे प्रतिकार से मेरी ज्वाला शीतल नहीं होगी। मुझे स्वयं उन्हें दण्ड देना होगा।'

तब तक दोनों मुख्य प्रवेश-द्वार के समीप आ पहुँची थीं। ड्योढ़ी के बाहर विस्तृत प्रांगण में बखरी के क्रुद्ध नर-नारी बहुरा की प्रतीक्षा में खड़े कोलाहल कर रहे थे।

काकी संग बहुरा ने अपने जन समुदाय के मध्य जाकर कहा-'कदाचित् तुम लोग जान ही चुके हो...विधर्मी आतताइयों ने हमारे सम्बंधी का बहुरूप बनाकर हमें छला है...हमारे प्रेम-सत्कार के प्रतिकार में उन्होंने हमसे विश्वासघात की कुचेष्टा की है।'

'हम उन्हें नहीं छोड़ेंगे चौधराइन!' भीड़ में उपस्थित एक युवक ने चीखकर कहा-'हम उनका वध करके अपने अपमान का बदला लेंगे!'

'हाँ, हम उन सबका वध कर देंगे!'

'वध करेंगे!'

'वध करेंगे!'

समवेत स्वरों में शोर उठा। पोपली काकी अपनी दोनों भुजाएँ ऊपर उठाकर आक्रमण की आज्ञा देते हुए चीखी-'आक्रमण करो...तुम्हें आज्ञा है!'

'शांत...शांत हो जाओ' बहुरा ने चीखते हुए कहा-'ठहर जाओ...! तुम्हें व्यर्थ अपनी ऊर्जा नष्ट करने की आवश्यकता नहीं...तुम्हारी स्वामिनी इतनी निर्बल-असमर्थ नहीं है कि तुम्हें मृत्यु-मुख, में जाने की आज्ञा दे!'

'मृत्यु तो उनकी निश्चित है चौधराइन, एक बलिष्ठ युवक ने सामने आकर उत्तेजित स्वर में कहा।'

'नहीं! अपूर्व बलशाली सेनापति के साथ सशस्त्र सुसज्जित सेना है। साथ ही तंत्र के सिद्ध, सुप्रसिद्ध गुरु मंगल का रक्षाकवच उनके साथ है। ...सावधान! उत्तेजना में आकर तुम्हें आत्मदाह नहीं करने दूंगी। मैं अकेली उनका समूल विनाश करने में पूर्ण सक्षम हूँ और फिर मेरे साथ अंगदेश की अप्रतिम सिद्ध-साधिका, तुम्हारी परम आदरणीया काकी हैें। ये अकेली ही खेल ही खेल में, सेना सहित सबको क्रूर दण्ड देने में सक्षम हैं...मेरी चेतावनी की अवज्ञा न कर तुम सभी मूक साक्षी रहना और हमारी शक्ति का प्रदर्शन देखना।'

तभी भीड़ से निकल तिनकौड़ी माँ ने तब तक घोड़ियों पर बैठ चुकी बहुरा एवं पोपली के सामने आकर व्यंगपूर्वक कहा-'सो तो हम ही देख लेंगे चौधराइन ...परन्तु मुख्य संपोले को तो तुमने अपनी ड्योढ़ी की कोमल शय्या में छुपा रखा है...उसका क्या करोगी?'

'हाँ...हाँ...ये ठीक कह रही है'-उन्मत्त भीड़ में पुनः शोर हुआ-'उसे बाहर कर दण्डित करो चौधराइन...दण्डित करो।'

' तुमने हमारी पुत्रियों को विधवा किया है अब स्वयं तुम्हारी बारी है चौधराइन। '

'हाँ चौधराइन! अपने दामाद का पहले वध करो, फिर चलो हमारे साथ... आज तुम्हारी शक्ति भी देखेंगे।'

'हाँ चौधराइन...यही करो...यही करो...' समूह की इच्छा, वर्षों से सुलगते उनके अंदर की सुप्त ज्वाला, उग्ररूपेण जाग्रत हो गयी।

एक अनचाही नवीन परिस्थिति अनायास उपस्थित हो गयी, जिसकी कल्पना न पोपली काकी ने की थी न स्वयं बहुरा ने।

'आज अचानक यह दुःसाहस'-चीखी बहुरा-'कदाचित तुम्हारे काल ने स्वयं तुममें प्रविष्ट हो तुम्हें उकसाया है...सावधान! इस क्षण मैं प्रतिशोध की ज्वाला में स्वयं पर नियंत्रण पाने में असमर्थ हूँ...यदि तुम्हारी मति इसी भांति पुनः मारी गयी तो मुझे दोष न देना... मैं सर्वप्रथम महाकाल के अपमानकारियों का पूर्ण मर्दन करने जा रही हूँ। मूर्खतावश तुममें से किसी ने भी हमारी अनुपस्थिति का लाभ उठाकर ड्योढ़ी में बलात् प्रवेश का प्रयत्न किया तो मंत्र-ताप उस अतिक्रमणकारी को निश्चय ही भस्म कर देगा...मेरी चेतावनी न भूलना। ...चलो काकी...!' कहते ही उसने अपनी प्रिय घोड़ी की वल्गा खींची।

जनसमूह का झुंड काई की भांति फटा और दोनों घोड़ियाँ सरपट आगे निकल गयीं।

विक्षिप्त माया ने वर-वधू के कक्ष में अचानक प्रवेश कर दोनों को विस्मित कर दिया।

'विस्मित होने का अवकाश नहीं, पुत्र...! शीघ्र बाहर आओ...! इस स्थल पर तुम अब सुरक्षित नहीं हो!' कहकर माया दीदी ने कुँवर की बाँह पकड़ उसे उठाया, परन्तु अमृता ने यों अनायास अपने प्रियतम को उठते देख उसकी दूसरी बाँह थाम कर उसे रोक लिया।

'नहीं पुत्री...अधीर न हो। तुम्हारे पति का मंगल इसी में है कि बिना एक क्षण नष्ट किये अविलंब इस अंचल को त्याग दे...परिस्थिति अनुकूल होते ही तुम्हें तुम्हारे पति का संयोग पुनः प्राप्त हो जाएगा, यह वचन है माया का...मुझ पर विश्वास करो, पुत्री!'

'पुनः संयोग का अर्थ है तत्काल पति-वियोग! ...नहीं दीदी, अब ये प्राण इनमें जा बसे हैं। पति-वियोग में मेरे प्राण एक क्षण भी नहीं रुकेंगे...विश्वास करो दीदी...परन्तु प्रथम यह तो कहो...हुआ क्या है? ऐसी कौन-सी विपत्ति आ गयी है, जो तुम इतनी व्याकुल हो गयी... ऐसा क्या हुआ, जिससे अनायास मेरे प्रियतम को अंचल त्यागने पर विवश कर रही हो?'

'इन बातों का अवकाश नहीं है, पुत्री...! और पति के साथ यदि तुमने भी यहाँ से पलायन किया तो तुम्हारी क्रुद्ध माता और भी कुपित हो अनियंत्रित हो जाएगी। अतः, इस क्षण अपने पति को अविलंब विदा करो। इसे सुरक्षित कर तुम्हें सविस्तार सब बता दूंगी...इस क्षण व्यर्थ वार्तालाप में पड़कर अपने प्रिय पति के प्राणों पर संकट उपस्थित न करो!'

'मेरी क्रुद्ध माता और कुपित हो जाएँगी!' अमृता ने आशंकित हो कहा 'तुम्हारा अभिप्राय है कि मेरे पति को मेरी माता से ही प्राणों का भय है?'

'चकित न हो पुत्री...यही सत्य है, वर-पक्ष ने हमें अपमानित करने के उद्देश्य से भैरव-मण्डप के प्रांगण में महाकाल की प्रतिमा के समक्ष ही कमला मैया का पूजन प्रारंभ कर दिया है। क्रोध की अग्नि में प्रज्वलित तुम्हारी माता ने विकट स्वरूप धारण किया है। अब और विशेष कहना व्यर्थ है...तुम सहज अनुमान कर सकती हो...विपरीत परिस्थिति में महाविनाश के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं। परिस्थिति का ज्ञान होते ही मैं तुम्हारे पास दौड़ी आयी। वस्तुतः मुझे सर्वप्रथम इस अनिष्ट को रोकना उचित था, परन्तु मेरी अंतरात्मा ने मुझे तुम्हारे पास आने को विवश कर दिया।'

अमृता की चेतना में सम्पूर्ण स्थिति स्पष्ट हो गयी। माँ के रौद्र-रूप धारण कर लेने के भयंकर परिणाम से वह भलीभाँति भिज्ञ थी। उसने तत्काल निर्णय ले लिया उसे क्या करना है।

दृढ़ स्वर में उसने माया से कहा-'ठीक है दीदी! मेरे प्राणेश्वर तत्काल इस स्थान का त्याग करेंगे, परन्तु अकेले नहीं...मैं भी इनके संग चलूंगी...परिणाम जो भी हो...हम दोनों उसे साथ ही भोगेंगे। चलिए स्वामी...आपकी दासी आपके साथ चलेगी।'

कहकर उसने पति संग शय्या-त्याग दिया। माया एक क्षण के लिए किंकर्त्तव्यविमूढ़ हुई, परन्तु तुरंत अपने विचारों को झटक, दोनों के साथ कक्ष से बाहर आ गयी।

परन्तु कक्ष के बाहर आते ही माया ठिठककर रुक गयी। एक विचित्र-सी ठंढी, परन्तु हल्की गंध कक्ष के बाहर हवेली के वातावरण में भरी थी। प्रवेश करते हुए कदाचित चिन्तित माया ने ध्यान न दिया था, परन्तु अब गंध की अनुभूति ने उसे चौंका दिया।

'क्या हुआ दीदी, उत्सुक अमृता ने कहा-' तुम यों क्यों ठमक गयीं? '

'तनिक ध्यान दो पुत्री, वातावरण में एक विचित्र-सी गंध भरी है।'

माया के कथन पर दोनों ने लम्बी साँस लेकर सहमति में मस्तक हिलाया।

'यह तांत्रिक गंध है, पुत्री...कदाचित् तुम्हारी माता ने तुम दोनों को बंदी बना दिया है। यदि मेरा विचार सत्य है तो तुम्हारा बलात् पलायन अब संभव नहीं। इस जग में ऐसा कोई नहीं, जो इस भैरवी-बंधन को काट सके.'

'संभव है, तुम्हारा अनुमान सत्य न हो...हम यों निराश होकर प्रयत्न क्यों त्यागें?'

अमृता की बात पर सहमत होकर दयाल सिंह ने भी वही कहा-'हाँ दीदी, हमें प्रयत्न तो अवश्य करना होगा।'

'चलो फिर,' माया दीदी ने क्षीण स्वर में कहा-'देखती हूँ...भैरव की क्या इच्छा है!'

दोनों के साथ माया ने ड्योढ़ी के गुप्त निकास-द्वार की ओर पग बढ़ाये तथा तीनों निर्विध्न द्वार पर पहुँच भी गये।

'तुम्हारी आशंका निर्मूल हो गयी दीदी...!' अमृता ने उत्साहित होकर कहा-'लो हम मुक्ति-द्वार पर आ गये।'

इस विकट परिस्थिति में भी माया के मुख पर हँसी दौड़ गयी। विहँसकर उसने कहा-'बड़ी भोली हो पुत्री...मेरी आशंका कदापि निर्मूल नहीं है। यह मुक्ति-द्वार नहीं कारा द्वार है, पुत्री। भैरव करें, तुम दोनों निर्विध्न इस द्वार के बाहर निकल जाओ. बाहर मैंने द्रुतगामी घोड़ियों की व्यवस्था कर दी है। मेरे विश्वस्त अनुचर द्वार के बाहर दयाल सिंह की प्रतीक्षा में हैं। वे अंचल की सीमा तक सुरक्षा हेतु साथ रहेंगे।'

अमृता के पूर्व माया दीदी से दयाल सिंह ने कहा-' आप चिन्तित न हों दीदी

...माता की कृपा से कोई तांत्रिक बंधन आपके पुत्र को बंदी बनाने में समर्थ नहीं है...अब हमें आज्ञा दें। '

विस्मित होकर माया ने कहा-' निरर्थक उत्साहित होने का प्रयोजन नहीं है पुत्र

...परन्तु प्रयत्न अवश्य करो। द्वार के बाहर पग रखते ही यदि तन में असाध्य ज्वाला की अनुभूति करो तो तत्काल अंदर छलांग लगा देना। मेरी चेतावनी की अवहेलना हुई तो मंत्रज्वाला तुम्हें भस्म कर देगी...स्मरण रखना पुत्र! '

'ऐसी आशंका है तो मैं अपने प्राणेश्वर के प्राणों को संकट में नहीं डालूंगी'-दृढ़ स्वर में अमृता ने कहा-'पहले मैं जाऊँगी।'

'नहीं प्रिय...' दयाल ने अमृता का हाथ थामकर कहा-'हम साथ चलेंगे। मृत्यु का आलिंगन करना ही हमारी नियति है तो उसे साथ ही करेंगे।'

'मैं सहमत हूँ स्वामी...! चलिये।' कह कर अमृता ने अपने प्रियतम के साथ पग बढ़ा दिये।

'महाकाल तुम दोनों की रक्षा करें।' कहकर तीव्र-स्पंदित हृदय से माया ने द्वार की ओर पग बढ़ाते दोनों को देखा।

द्वार के बाहर प्रथम पग रखते ही अमृता का तन-बदन असहनीय ताप से दग्ध होने लगा। तत्काल दयाल ने उसे द्वार के अंदर धकेल दिया। दोनों अब द्वार के अंदर थे। अमृता अब संयत थी। क्षणभर पूर्व जिस ज्वाला ने उसे तप्त किया था, अब उसकी स्मृति ही शेष थी। पुनः अंदर प्रवेश करते ही उसका सम्पूर्ण शरीर शीतल हो चुका था।

अमृता को आलिंगन में शक्तिपूर्वक समेट माया ने विस्मित हो दयाल से कहा-'क्यों पुत्र! तुमने पीड़ा की कोई अनुभूति नहीं की?'

'मैंने तो पूर्व में ही निवेदन किया था दीदी, माता की अनुकम्पा तथा गुरु की कृपा से मैं इस घड़ी अबध्य हूँ।' अमृता के प्राण भी इसी कारण बचे, क्योंकि इसने मेरी बाँह पकड़ रखी थी, अन्यथा इसकी मृत्यु निश्चित थी।

'आश्चर्य! घोर आश्चर्य! ...परन्तु आश्चर्य व्यक्त करने का अवकाश नहीं है पुत्र...तुम शीघ्रातिशीघ्र मुक्त हो अपने अंचल में पहुँचो। दैवयोग से यह अच्छा ही हुआ कि मेरी पुत्री तुम्हारे साथ जा नहीं पा रही है। तुम शीघ्र जाओ और शेष काल भैरव की इच्छा पर छोड़ो...वे अवश्य तुम दोनों का कल्याण करेंगे।'

अब तक अमृता ने अपने स्वामी-हित के कारण निर्णय ले लिया था। उसने कहा-'आप शीघ्र जाइये स्वामी...अन्यथा मेरी समर्थ माता कुपित होकर आपके गुरु द्वारा प्रदत्त आपके सुरक्षा-कवच को भेद डालेगी और यदि आप न रहे तो विश्वास करें आपकी अमृता भी नहीं रहेगी। जाइये स्वामी...आप जाइये।' कहते-कहते उसने रुदन प्रारंभ कर दिया।

'मेरी पुत्री ठीक ही कह रही है-पुत्र...! तुम अविलंब जाओ,' माया ने स्नेहशिक्त वाणी में आदेश दिया-'तुम्हारी सुरक्षा मेरी पुत्री के लिए सर्वाधिक आवश्यक है...जाओ! गुरु परामर्श से मेरी वीरा से भी ज़्यादा सामर्थ्यवान बनो और अपनी प्राणप्रिया को बलपूर्वक ले जाओ! जाओ पुत्र! मैं तुम्हें आशीर्वाद देती हूँ...अपने समस्त सत्कर्म, समस्त पुण्य भी तुम्हें अर्पित करती हूँ...अब विलंब न कर यथाशीघ्र जाओ. तुम्हें विदा कर मैं तत्काल तुम्हारे परिजनों के रक्षार्थ जाना चाहती हूँ, जाओ पुत्र...जाओ...!'

दयाल सिंह ने अश्रुपूर्ण नेत्रों से अपनी प्राणप्रिया को देखा। भावावेश में उसने अनायास ही उसे अपने अंक-पाश में जकड़ लिया। दोनों प्रकृति और पुरूष से एक हो गए. अपनी प्राणप्रिया से अलग होने की उसमें शक्ति नहीं थी, क्षणिक अंतराल में ही उसे इसका बोध हो गया था। फिर, कायरों की भांति अपनी पत्नी, माता-पिता एवं गुरु को संकट में छोड़ अपने प्राण-मोह में वह भाग जाए, यह भी उसे स्वीकार न था।

क्या करे वह? अपनी धड़कनों को पूरी शक्ति से स्वयं में समेटे वह इसी चिंतन में निमग्न था।

तभी माया दीदी ने उसे पुनः सचेत किया, 'मोहावेश में सर्वनाश को आमंत्रित मत करो, पुत्र...! ये क्षण शोकाकुल होकर विनष्ट करने के उपयुक्त नहीं हैं...शीघ्रता करो।'

अपनी प्राणप्यारी से अलग होकर उसने सजल नेत्रों से कातर स्वर में कहा-'मुझे मेरी आत्मा से अलग न करो दीदी...और फिर तनिक सोचो, अपने माता-पिता और गुरूवर सहित अन्य परिजनों को संकट में छोड़ मैं अपने प्राण बचाने कायर की भाँति भाग जाऊँ तो मेरी अन्तरात्मा क्या कभी मुझे क्षमा करेगी?'

'भावुकता में पड़ व्यर्थ तर्क का अवकाश नहीं है, पुत्र!' माया ने धीर-गंभीर वाणी में कहा-' तुम्हारे परिजनों की चिन्ता मुझे भी है, परन्तु इस समय मेरे लिए सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण तुम हो पुत्र...मेरी बात मानो...माया तुम्हारी शुभेच्छु है। तुम बचोगे तो हमारा संसार बचेगा...अन्यथा हमारा जग सूना हो जाएगा। मेरा परामर्श मानो...अब और विलंब न करो। '

'हाँ स्वामी! आप अब मेरी चिन्ता छोड़ पलायन करें। मैं अपनी अंतिम साँस तक आपकी राह देखूँगी...अब विलम्ब न करें स्वामी।'

'ठीक है प्रिय! तुम्हारी भी यही इच्छा है तो ऐसा ही सही। मैं तुमसे अलग होने की विरह-वेदना भोग लूंगा, परन्तु अपने माता-पिता और गुरु की सौगंध लेकर प्रतिज्ञा करता हूँ कि शक्ति संचित कर एक क्षण भी न रुकूंगा...जब तक मैं लौटूंगा, तब तक माया दीदी तुम्हारी रक्षा करेंगी।'

इतना कहकर दयाल ने सजल नेत्रों से माया को देखा-'करेंगी न रक्षा मेरी अमृता की? ... वचन दीजिए मुझे दीदी...वचन दीजिए.'

'वचन देती हूँ पुत्र...प्राण रहते तुम्हारी प्राणप्रिया को सुरक्षित रखूंगी...अब जाओ पुत्र...शीघ्र जाओ!'

क्षण भर दयाल ने माया को देखा-तदुपरांत अपनी पत्नी को व्यग्र होकर तृष्ण भाव से निहारा और पलटकर पग बढ़ाएँ।

'एक क्षण रुको, पुत्र!' ठिठककर रूके दयाल के समीप जाकर माया ने उसका मस्तक सूंघा और कहा-'अब जाओ पुत्र! भैरव तुम्हारी रक्षा करेंगे।'

माया द्वारा नियुक्त कई कापालिक शीघ्रगामी घोड़ियों के साथ व्यग्रतापूर्वक कुँवर दयाल सिंह की प्रतीक्षा कर रहे थे।

'आपका स्वागत है कुँवर,' दयाल को देखते ही उनमें सबसे वृद्ध एक कापालिक ने आगे आकर कहा-'आप इस घोड़ी पर विराजें...माया दीदी की आज्ञा से हम उनके अनुचर आपको शीघ्रातिशीघ्र अंचल की सीमा के बाहर सुरक्षित पहुुँचा देंगे।'

दयाल सिंह की चेतना अभी भी उसके बढ़ते पग रोकने को उद्यत थी। भीरूओं की भांति कायरता का प्रदर्शन कर वह भला सबको छोड़कर कैसे जा सकता है। संकट में पड़े अपने परिजनों के पास ही जाएगा वह।

इसी निश्चय के साथ उसने घोड़ी पर उछलकर बैठते हुए कहा-'मुझे सर्वप्रथम अपने परिजनों के समक्ष ले चलो। उनके प्राण संकट में छोड़ मैं कायरों की भांति पलायन नहीं कर सकता। इससे उत्तम मृत्यु के आलिंगन को ही मैं श्रेयस्कर मानता हूँ।'

'धन्य हैं कुँवर!' उस कापालिक ने प्रशंसा करते हुए कहा-'हमारी अमृता का भाग्य अति प्रबल था, जो उसे आप-सा वर प्राप्त हुआ। आप अपने परिजनों की चिन्ता छोड़ दें। राजा-रानी सहित समस्त बारातियों ने अपने शिविरों का त्याग कर दिया है। यदि हम शीघ्रता करेंगे तो अंचल की सीमा के पूर्व ही उनसे जा मिलेंगे...अब आप और बिलम्ब न करें कुँवर...!'

अविश्वासपूर्ण दृष्टि से कापालिक को देखते हुए कंुवर ने कहा-'सत्य कह रहे हो?'

'माया दीदी की सौगंध, मेरी सूचना सत्य है!'

'चलो फिर...मैं अतिशीघ्र उनसे मिलना चाहता हूँ।' ड्योढ़ी को एक बार पुनः सजल नेत्रों से निहार उसने अपनी प्रियतमा को मन ही मन विदा कहा और कापालिकों के साथ भारी हृदय से घोड़ी को द्रुत गति से आगे बढ़ा दिया।

सरपट दौड़ती घोड़ी की पीठ पर बैठी क्रोधित बहुरा ने दूर से ही देखा। भैरव-मण्डप के चारों ओर अंचल के निवासियों की हलचल मची है। वातावरण में धूल उड़ रही है और मण्डप कोलाहल से गूँज रहा है।

'अवश्य ही कुछ अशुभ घटित हो रहा है' , काकी ने अपनी घोड़ी की गति और बढ़ाते हुए कहा-'शीघ्र चलो पुत्री!'

आँखों से अंगारे बरसाती बहुरा कुछ ही क्षणों में काकी के साथ भैरव-मण्डप के समीप आ पहुँची। पहुँचते ही वह कूदकर भूमि पर उतरी और तत्काल मण्डप में जा पहुँची। उसके आते ही जनसमूह की हलचल शांत हो गयी। वीरा ने विस्फारित नेत्रों से देखा काल-भैरव की प्रतिमा अक्षुण्ण खड़ी मुस्करा रही है। समस्त मंडप यथावत् है। विवाह-मण्डप भी वैसे का वैसा ही है, जैसा वह उसे छोड़ गयी थी। कहीं भी, कुछ भी परिवर्तित नहीं।

'यहाँ तो सब यथावत् है, काकी!' बहुरा ने आश्वस्त होते हुए कहा।

पोपली काकी ने भी साश्चर्य चतुर्दिक देखकर कहा-'सत्य कहती हो पुत्री...इस दुष्ट सौदागर ने व्यर्थ उत्तेजित कर कदाचित् हमें मूर्ख बनाया...कहाँ है वह उद्दण्ड? उसे शीघ्र उपस्थित करो!' कहकर काकी ने उपस्थित समूह से कहा -'तुम सब यहाँ क्या कर रहे हो?'

'काकी! हमें जयसिंह ने सूचना दी थी कि हमारे काल-भैरव को ध्वस्त कर बारातियों ने अपनी कुलदेवी की स्थापना कर दी है।' एक व्यक्ति ने डरते हुए कहा।

'प्रयोजन क्या था जय का?' बहुरा बुदबुदायी और तत्काल उसने काल-भैरव को प्रणाम कर सक्रोध मंत्रोच्चारण शुरु कर दिया।

जय की समस्त अभिलाषा पूर्ण हुई. ड्योढ़ी के बाहर तिनकौड़ी माँ ने प्राण-मोह छोड़, दयाल सिंह के वध हेतु बहुरा को जब ललकारा था, उसका हृदय बल्लियों उछला। चलो यह अंतिम कील भी अंततः ठुक ही गयी। परन्तु चेतावनी देकर जब बहुरा चली गयी तो उसे उत्सुकता हुई. क्या वह स्वयं ड्योढ़ी में पदार्पण करे? अभी-अभी तो वह अंदर प्रविष्ट होकर निर्विध्न बाहर आया था। क्या उसने झूठ कहा। कदाचित् उसने अपनी पुत्री के मोह में असत्य कहा हो...हो सकता है, परन्तु फिर भी वह अपने प्राणों को संकट में नहीं डालेगा। आग तो लग ही चुकी है। वह मूर्ख सेनापति अपने हठ के कारण वही करेगा, जो उसने कहा है।

सेनापति के साथ-साथ राजा और रानी का श्राद्ध तो निश्चित हो ही गया, बचा कुँवर! इसी का कल्याण होना शेष है। उसपर निगरानी रखनी होगी। कहीं भाग गया तो...? इस आशंका ने उसे अत्यंत विचलित कर दिया। कुँवर के स्थान पर स्वयं उसे ड्योढ़ी से भागना होता तो वह क्या करता? इस चिन्तन ने ही कदाचित् उसे ड्योढ़ी के पार्श्व में उपस्थित होने की प्रेरणा दी।

बहुरा और पोपली काकी जा चुकी थी, परन्तु आक्रोशित जनसमुदाय अब भी वहाँ तिनकौड़ी माँ की सहमति से इकत्र था। चुपके से जय ने अपनी घोड़ी की लगाम पकड़ी और उसे साथ लिये ड्योढ़ी के पार्श्व की ओर बढ़ गया।

इधर उपस्थित जनसमुदाय का आक्रोश और भी बढ़ने लगा, परन्तु किसी ने ड्योढ़ी में प्रवेश का भयवश प्रयत्न न किया।

दूर से ही देखकर जय के पग ठिठक गये। पार्श्व-द्वार के बाहर कई कापालिक अश्वों की लगाम थामे खड़े थे। तो क्या यह बहुरा की अतिरिक्त व्यवस्था थी? वह वहीं रुका उत्सुकतावश निगरानी करने लगा। फिर तो उसकी दृष्टि ने जो देखा उसे देखकर उसके आश्चर्य की कोई सीमा ही न रही। उसकी आँखों के समक्ष ही अनहोनी घटित हुई. निर्विध्न कुँवर बाहर आये कापालिकों ने उनका स्वागत किया और फिर यह जा... कि वह जा। पंछी उड़ गया।

उसे अपने नेत्रों पर विश्वास ही न हुआ। अवाक् हो उसका शरीर सुन्न हो गया। थोड़ी देर बाद ही जब उसे चेत हुआ, तत्काल अपना कर्तव्य निर्धारित कर शीघ्रता से वह घोड़ी पर पुनः सवार हो गया। छाया की भाँति वह इनके पीछे जाएगा। छिपने के इनके गुप्त स्थल को देख कर चौधराइन को सूचित करेगा। कल्पना में पुनः खो गया वह।

कुँवर के गुप्त स्थल की जानकारी पाकर बहुरा प्रसन्नता के अतिरेक में कहती है-बोलो जय! तुम्हें क्या पुरस्कार दूँ? आज तू जो चाहे, माँग ले। मैं तुम पर अतिप्रसन्न हूँ, जो चाहे बहुरा देगी तुझे...मांग जय...मांग...निःसंकोच मांग!

दिवास्वप्न अचानक भंग हुआ। यह क्या? कोई अनजानी शक्ति बलात् उसे आकर्षित कर तीव्रता से अपनी ओर खींच रही है। यह आकर्षण इतना तीव्र था, जिसकी परिधि में उसकी घोड़ी भी आ गई. घोड़ी के चारों पैर उल्टी दिशा में भागे। जय गिरते-गिरते बचा। उसने प्राणपण से घोड़ी की गर्दन को पूरी शक्ति से जकड़ लिया। जय को पीठ पर लादे उस घोड़ी ने सरपट दौड़ना शुरू कर दिया।

बहुरा के नेत्र खुले। मंत्रोच्चार समाप्त हुआ। पोपली काकी ने स्नेहसिक्त वाणी में पूछा-'तुमने क्या जय को मंत्रबिद्ध कर आकर्षित कर डाला पुत्री?'

'हाँ काकी...अब वह दुष्ट बलात् खिंचा चला आएगा। तुम्हारे समक्ष ही उसे मृत्युदण्ड दूंगी!'-भावशून्य स्वर में बहुरा ने कहा।

'यह उचित ही होगा...हमें भ्रमित कर वह इसी दण्ड का भागी बन गया है। परन्तु, बारातियों के शिविर मुझे जनशून्य क्यों लग रहे हैं। पता करो...कारण क्या है?'

काकी के कथन पर एक युवक ने निकट आकर कहा-'राजा सहित समस्त बारातियों ने पलायन कर दिया है, काकी ...वो देखिए सुदूर पूर्व में आच्छादित धूल के बादल उनके ही पलायन के हैं!'

काकी और बहुरा ने देखा वास्तव में पूर्व दिशा में धूल के बादल छाये थे।

'वास्तव में अनर्थ यही घटित हुआ पुत्री!' पोपली काकी ने कहा-'कदाचित् हमारे भय से भ्रमित हमारे सम्बंधियों ने तत्काल इस स्थल का परित्याग कर दिया है। सौदागर जय सिंह को प्राण-दण्ड देकर तुम्हारी सर्वप्रथम प्राथमिकता यही है कि तुम अपनी पुत्री एवं जामाता सहित स्वयं भरोड़ा में उपस्थित होकर अपनी समधिन तथा समधी जी से क्षमा मांगो।'

'तुम ठीक कहती हो काकी...यही उचित होगा...उस दुष्ट को तुम्हारे समक्ष दण्डित कर यही करूँगी।'

तभी पश्चिम दिशा से आते जय पर काकी की दृष्टि पड़ी-'लो पुत्री, तुम्हारा अपराधी स्वयं काल का ग्रास बनने आ पहुँचा...! अविलंब मारण मंत्रों का प्रहार करो इस दुष्ट पर...अविलंब!'

विचित्र थी बहुरा! इस विषम परिस्थिति में भी उसके अधरों पर मुस्कान थिरकी। विषाक्त मुस्कान! उसके होंठ थरथराये। आँखों में क्रोधाग्नि भभकी। खुली आँखों का रंग अनायास रक्ताभ हो गया।

ऐसी ही स्थिति में उसने मारण-मंत्रों का होठों में संधान कर उसे प्रक्षेपित कर दिया।

उपस्थित समुदाय ने आश्चर्य से देखा-भैरव-मण्डप के निकट आते-आते जय ने भीषण आर्तनाद किया। तड़पकर उसका शरीर घोड़ी की पीठ से भूमि पर गिरकर छटपटाने लगा।

बहुरा ने प्राणांतक पीड़ा से पीड़ित जय को इसप्रकार क्रंदन करते देख भीषण अट्टहास किया।

अब तक सौदागर जय सिंह को स्थिति का ज्ञान हो गया था। विवश हो उसने सोचा अब इस 'क्षणे रूष्टा-क्षणे तुष्टा' को वह कैसे बता सकेगा कि उसके पास बहुरा के लिए क्या सूचना है। इस अभागी ने तो उसे इतना भी अवसर नहीं दिया कि वह उसे इतनी महत्त्वपूर्ण सूचना दे सके. हा विधाता...तूने यह क्या किया।

बलि के पशु की भांति छटपटाकर उसने प्राण-प्रण से अंतिम चीत्कार किया और शीघ्र शांत हो गया। उसके प्राण-पखेरू उड़ गये। जय की मृत्यु ने बहुरा को संतुष्ट कर दिया, परन्तु विजयी अट्टहास से भरा उसका मुखमंडल तभी सहसा मौन हो गया। विस्मित दृष्टि से उसने देखा-वीरान जनवासा के एक शिविर से युद्ध हेतु उन्मत्त सेनापति शिरस्त्रण एवं कवच पहने अस्त्र एवं शस्त्रों से सुसज्जित हो अनायास प्रकट हुआ। उसके पार्श्व में उँचे कद वाले बलिष्ठ सैनिक, सेनापति की ही भांति अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित, युद्धोन्मत्त हो बाहर आ रहे थे।

इस अप्रत्याशित दृश्य ने उपस्थित समुदाय को विचलित कर दिया। पोपली काकी ने भी उत्सुक हो इन्हें देखा। परन्तु, तब तक सामान्य हो चुकी बहुरा अब हँस पड़ी।

'काकी तनिक देखो तो जरा'-हँसती बहुरा ने कहा-'यह मूढ़ अपनी आहुति देने किस प्रकार अकड़ा आ रहा है। तुम कहती हो भरोड़ा जाकर मैं राजा से क्षमा माँगूं...अब कहो, क्या कहती हो।'

'इसे आने दे पुत्री...परन्तु सावधान हो जा! अतुलित बलशाली यह मूर्ख क्या कर बैठे, कोई नहीं जानता।'

'चिन्ता न करो काकी! परन्तु इसे अब दण्डित करना ही होगा, अन्यथा बातों से यह कदापि नहीं मानने वाला।'

'ठीक है पुत्री...आने दे इसे।'

मतवाले सैनिकों के साथ गर्वीली चाल चलता सेनापति हुंकार भरता आया। बहुरा के निकट पहुँचकर उसने चीखकर कहा-'सावधान बहुरा! ... राजाज्ञा की अवहेलना कर मैं तुम्हारी ही प्रतीक्षा में रुका था। आज मेरी प्यासी तलवार तुम्हारे ऊष्ण-रक्त से अपनी प्यास बुझाकर ही म्यान में वापस जाएगी।' कहते ही उसने अपनी तलवार को म्यान से निकालकर हवा में लहराया।

उसकी गर्वोक्ति पर बहुरा ठठाकर हँस पड़ी। हँसती हुई उसने कहा-'दण्ड के पूर्व मुझे मेरा अपराध नहीं बताओगे, सेनापति?'

'दुष्ट डायन!' सेनापति ने गरजकर कहा-'अपराध पूछती है तो सुन... तुमने हमारे युवराज का विवाह हमारे समक्ष ही वेदों के विरुद्ध अपनी घृणित तांत्रिक पद्धति से किया। हमारे संयम की उपेक्षा कर तुमने अपने भैरव के समक्ष मेरे युवराज को नतजानु करने का घृणित कृत्य किया। गुरु मंगल ने मुझे बलात्-विवश न किया होता तो मेरी तलवार तुझे तुम्हारे अक्षम्य अपराध का तभी दण्ड दे देती।'

'तुम्हारी उद्दंडता को मैंने भी देखा था, सेनापति! काकी ने मुझे रोका न होता तो तुम इस प्रकार घृष्टता करने हेतु कदाचित् जीवित न होते। अरे मूर्ख! क्या तुझे लोकाचार का तनिक भी ज्ञान नहीं है? तुझे यह भी ज्ञात नहीं कि विवाह में कन्या-पक्ष की ही रीत निभायी जाती है...सो मैंने वही किया, जो हमारी अपनी रीत है। तुमने अपने अमानुषिक बल के घमंड में आकर स्वयं मर्यादा का उल्लंघन किया और अब मुझी को सीख दे रहा है।'

'क्रूर डायन!' सेनापति ने हुंकार भरकर कहा-'अपनी श्मशान-सिद्धियों के गर्व में उन्मत्त हो तुमने जितने क्रूर कर्म किये हैं, आज मैं उनका समूल नाश कर दूँगा। विवाह-मण्डप में तुमने जो अपराध किया, उसे तो राजा जी ने उदात्त भाव से कदाचित् क्षमा कर दिया है, परन्तु अंततः तुम्हारे ही कारण उन्हें परिजनों सहित पीठ दिखाकर भागना पड़ा। इस घोर अपमान का बदला लेकर मैं तुम्हारी पुत्री सहित अपने युवराज को ले जाऊँगा। तुझे अपनी सिद्धियों पर जितना गर्व है, उसका प्रयोग कर ले। मेरी शक्तिशाली तलवार तेरे तुच्छ मंत्र-बल का प्रतिकार कर आज तुम्हारे गर्व का हरण करेगी, यह निश्चित है।'

सेनापति ऊँचे भैरव-मण्डप में खड़ी बहुरा के सामने जा पहुँचा। सैनिकों में भी तत्काल हलचल मची। वे भैरव-मण्डप की सीढ़ियों पर शीघ्रतापूर्वक चढ़ने लगे।

सेनापति ने बहुरा के समक्ष पहुँचकर कहा-'अपने भैरव को अंतिम प्रणाम कर ले चाण्डालिन...! आज वह स्वयं भी तेरी रक्षा में आ जाए तो भी तेरे प्राण नहीं बचेंगे!'

अपनी दाहिनी भृकुटी को टेढ़ी कर उसने आँख तरेरी और क्रोधित हो अपनी तलवार को प्रहार हेतु उठाया। बहुरा भयंकर रूप से हँस पड़ी। अविश्वास पूर्ण नेत्रों से सबने देखा। प्रहार हेतु उद्यत सेनापति उसी मुद्रा में जड़वत् हो गया। तलवार सहित उसकी बलशाली भुजा हवा में उठी की उठी ही रह गयी। उसके क्रोधित नेत्र तथा उठी हुई दाहिनी भृकुटी भी पूर्ववत् टेढ़ी ही रह गई.

बहुरा की हँसी विकट अट्टहास में परिणत हो गयी। भैरव-मण्डप की सीढ़ियों पर भयभीत सैनिक जहाँ थे वहीं थम-से गये।

'काकी!' बहुरा ने अट्टहास रोककर कहा-'बताओ, क्या करूँ इस मूर्ख का?'

'प्राणदण्ड के अतिरिक्त इसे और क्या उपहार देना चाहती हो पुत्री?'-कह कर पोपली काकी मुस्करायी।

'प्राणदण्ड प्राप्त कर यह तो मुक्त हो जायेगा, परन्तु इसकी मृत्यु-पीड़ा से हमारे राजा जी व्यथित हो जाएँगे!'

'और उन्हें व्यथित देखना तुम्हें स्वीकार नहीं'-काकी ने हँसते हुए कहा। '

'हाँ काकी! यों ही दुष्ट जय के कारण हमारे मध्य भ्रांतियों का जाल फैल चुका है...मैं इन भ्रांतियों को दूरकर सम्बंधों की कटुता समाप्त करना चाहती हूँ।'

'तो क्या इस उद्दण्ड सेनापति को यों ही मुक्त कर दोगी?'

'नहीं काकी...कदापि नहीं। मैं इसकी दाहिनी आँख अपने महाकाल को समर्पित कर इसे मुक्त कर दूँगी। यह दुष्ट, अपनी इसी क्रूर आँख को तरेरकर अपनी दाहिनी भृकुटी टेढ़ी करता है! आज इसकी यह आँख मैं निकाल लूंगी!'

कहते ही बहुरा ने अपनी दायीं हथेली उठायी। देखते ही देखते हथेली के नाखून आश्चर्यजनक रूप से तत्काल बढ़कर तीक्ष्ण हो गये।

उसके नेत्र गूलर के फूल की भांति लाल हो गये। उन नेत्रों से ज्वाला निकलने लगी। उसकी अंगुलियों के तीक्ष्ण नाखून सेनापति की दाहिनी आँख की परिधि में गड़ गये। रूधिर की धारा बह चली। समस्त जनसमूह का रक्त भय के कारण जम-सा गया। भयमिश्रित विस्फारित नेत्रों से सबने देखा-भावशून्य बहुरा ने सेनापति की आँख निकालकर अपनी हथेली पर रख ली।

मंथर गति से चलती वह भैरव-प्रतिमा के समक्ष आयी। सेनापति की आँख भैरव के चरणों पर समर्पित कर रक्त से सनी हथेली को अपने बिखरे केश में पोंछकर वह घूमी। बहुरा के नाखून पूर्ववत् हो गये थे। उसने भय से जड़ सैनिकों को देखा। उसकी गंभीर वाणी गूँजी 'तुम लोग स्वतंत्र हो। मुझे तुमसे कोई शत्रुता नहीं। तुम्हारे सेनापति घड़ी भर यों ही स्पंदनहीन रहेंगे। इन्हें सावधानीपूर्वक अपने राजा के पास पहुँचाकर उनसे निवेदन करना कि वीरा अत्यंत लज्जित है। उनसे कहना, मैं स्वयं उनकी पुत्रवधू एवं कुँवर को अपने साथ लेकर उनकी सेवा में उपस्थित हो जाऊँगी।'

अपनी बात कहकर उसने जनसमूह को सम्बोधित किया-'तुम सब प्रसन्नतापूर्वक अपने घर जाओ! अंचल में व्याप्त भ्रांतियों को समाप्त करो। मैं स्वयं भी अपने लोगों को समस्त स्थिति से अवगत कराऊँगी...अब शांतिपूर्वक तुमलोग जाओ...!'

'चलो काकी।'

पोपली काकी को संकेत कर शांत कदमों से बहुरा आगे बढ़ गयी।

बखरी की ध्वजा को पार करते ही बाराती भयमुक्त हो विश्रांत हो गये। सबने राहत की साँस ली। अब कोई भय उपस्थित न रहा, इसीलिए बारात की गति सामान्य हो गयी थी।

'कमला मैया की अनुकम्पा से अब हम सुरक्षित क्षेत्र में पहुँच चुके हैं, रानी जी.'-चिन्तित रानी से मुस्कुराते हुए राजा ने कहा।

'आश्चर्य है!' चिन्तित रानी ने कहा-'कैसे पिता हैं आप? हमारे नेत्रोें की ज्योति, हमारा प्रिय पुत्र अभी भी बखरी में अकेला-विवश, जाने किन परिस्थितियों में फँसा पड़ा है और आप अपनी सुरक्षा पर प्रसन्नता व्यक्त कर रहे हैं...आश्चर्य है मुझे...!' कहते-कहते रानी की आँखें डबडबा गयीं।

रानी के कंधों पर सांत्वनापूर्ण बाँह रख राजा जी ने मृदुल वाणी में कहा-'चिन्ता न करें रानी जी, हमारा पुत्र शीघ्र ही हमारे पास होगा। कमला मैया का वरदान है वह! मैया अवश्य उसकी रक्षा करेंगी...विश्वास करें और मैंने इसीलिये अपनी प्रसन्नता व्यक्त की थी क्योंकि प्रजा भी राजा की संतान-सी ही होती है, रानी जी. हमने अपने इतने पुत्रों को सुरक्षित कर लिया, क्या यह प्रसन्नता की बात नहीं?'

रानी ने कुछ नहीं कहा। कदाचित् आंसुओं से उनकी वाणी अवरूद्ध हो गयी थी। अपनी पलकें उठाकर उन्होंने राजा जी को देखा। तत्काल उनकी उठी पलकों के कोर से आँसू की एक बूंद नीचे ढलकी। राजा की अंगुलियों ने रानी के गाल पर पड़ी बूंद को पोंछ डाला। रानी ने अपना मस्तक राजा के वक्ष पर रख दिया। राजा की बाँहों ने रानी को स्वयं में समेटा तो उन्हें ज्ञात हुआ-रानी जी अंदर ही अंदर सुबक रही थीं।

वैद्यराज निश्चिंत होते ही उत्सुकतावश राजरत्न के समीप पहुँचे। पास आते ही उन्होंने कहा-'माँ की कृपा से हमने बहुरा के अंचल को सुरक्षित पार कर लिया, मंगलगुरु! अब एक बात बताइए, आपने कहा था शुक्लपक्ष के समापन तक हमारे कुँवर सुरक्षित रहेंगे। आपकी इस बात का रहस्य क्या है?'

वैद्यराज की बात सुनकर मंगलगुरु मुस्कराये। उन्होंने कहा-'मुझ पर विश्वास है न वैद्यराज?'

'पूर्ण विश्वास है आप पर। परन्तु यदि मेरे जानने योग्य हो तो कृपया इस रहस्य पर से आवरण हटाकर मेरी उत्सुकता के साथ चिन्ता भी दूर करने की कृपा करें।'

'यह अत्यंत गूढ़ रहस्य है वैद्यराज! मैंने कुँवर की सुरक्षा हेतु जो प्रक्रिया पूर्ण की है, रहस्य-भेद के पश्चात् उसका प्रभाव समाप्त हो जाता है। अतः, मैं विवश हूँ, परन्तु पुनः आश्वस्त कर आपको कहता हूँ-जगत की कोई भी शक्ति आपके कुँवर का अहित करने में समर्थ नहीं है। हमें अपने शौर्य-बल तथा बुद्धि से एक मात्र कार्य यही करना है कि शुक्लपक्ष के अंदर ही हम अपने कुँवर को सुरक्षित ले आएँ।'

अपने अंचल में पहुँचकर हमारा प्रथम उद्देश्य तो यही होगा मंगलगुरु, परन्तु आपके दृढ़ आश्वासन से अब मैं संतुष्ट हूँ। माँ चाहेंगी तो हम कुँवर को वापस लाने में अवश्य सफल होेंगे। '

'ऐसा ही होगा वैद्यराज! मुझे माता पर पूर्ण विश्वास है। हमारे कुँवर का जन्म जिनकी अनुकम्पा से हुआ, वह माता बड़ी दयालु हैं। अपने पुत्र को यों विपदा में छोड़ना उनकी प्रकृति नहीं है। आप कमला माता पर विश्वास कर चिन्तामुक्त हो जाएँ।'

अन्य बाराती भी इसी विषय पर चिन्ता करते हुए आगे बढ़े जा रहे थे। सूर्यदेव अस्ताचल की ओर अग्रसर थे तथा प्रथम पड़ाव अभी भी कोस भर दूर था। सूर्यास्त के पूर्व एक कोस की दूरी सम्पन्न करने की चेष्टा में वरयात्रियों ने अपनी गति द्विगुणित कर दी।

माया ड्योढ़ी के प्रवेश-द्वार से बाहर आकर सीढ़ियां उतर ही रही थी कि उसने पोपली काकी तथा बहुरा को तीव्र गति से घोड़ियों पर सवार आते देखा।

अंततः सर्वनाश घटित हो ही गया, सोचती माया सीढ़ियों पर ही रुक गयी। कुछ ही क्षणों में दोनों घोड़ियों से उतर सीढ़ियां फलांगती माया के समीप आ पहुँचीं।

'अच्छा है कि तुम यहाँ हो' ! पोपली काकी ने कहा-'तुम्हारी अनुपस्थिति में भीषण घटनाक्रम घटित हुआ है...हमारे साथ आओ माया!'

आशंकित माया पोपली काकी तथा बहुरा के संग सीढ़ियाँ चढ़ पुनः ड्योढ़ी में पहुँची। बहुरा के कक्ष में सबके आसन ग्रहण करने के उपरांत माया ने पूछा-'क्या हुआ काकी?'

पोपली काकी ने विस्तार से सारी बातें बताकर माया से पूछा-'तुम्हारी क्या सम्मति है? क्या हमारा अपनी अमृता संग कुँवर को भी साथ ले भरोड़ा प्रस्थान करना उचित है?'

माया क्या कहती? मौन माया इस चिंता में ग्रस्त हो गयी कि बहुरा को जब कुँवर के पलायन की सूचना प्राप्त होगी तो क्या होगा?

'तुम मौन क्यों हो दीदी'-बहुरा ने कहा-'अब हमें क्या करना उचित है, वह कहो।'

'तुम बड़ी भोली हो पुत्री। महाकाल ने तुम्हें जितनी संवेदना दी है, उतना ही दुख भी दिया है। बालपन में ही तुमसे माँ का आँचल छिन गया। दैवयोग से युवावस्था में पति वियोग-प्राप्त हुआ और अब जाने-अनजाने।' आगे और कुछ न कह माया मौन हो गयी।

बहुरा का हृदय नवीन आशंका से भर उठा। अवश्य कुछ अशुभ घटित हुआ है, अन्यथा उसकी माया दीदी यों व्यथित न होती।

'विधाता की क्रूर क्रीड़ा ने हमारे साथ अन्याय किया बहुरा'-अतंतः माया ने सारी बात विस्तार से कह दी।

बहुरा ने आश्चर्य से भर इतना ही कहा-'यह कदापि संभव नहीं दीदी! स्वयं भैरव भी इस मंत्र-बंधन को तोड़कर निकल जाने में समर्थ नहीं, फिर वह तो एक साधारण मानव है। आप व्यर्थ मुझे बहला रही हैं...!'

कहकर व्यग्र बहुरा इन दोनों को वहीं छोड़ दौड़ती हुई अमृता के कक्ष में जा पहुँची।

वियोगिनी अमृता के स्वरूप को देखते ही उसके हृदय से चीत्कार निकला-'दुखी मत हो पुत्री...! पुरुष की प्रकृति इस जग में यही है। समस्त पुरुष मात्र भोगी हैं और स्त्रिायां उनके लिए भोग्या के अतिरिक्त और कुछ नहीं। मेरे साथ भी यही हुआ, पुत्री और तुम्हारे साथ भी वही। मैं इस जग से पुरूष जाति को ही समाप्त कर दूंगी। सारे पुरूष एक जैसे ही हैं। तू चिन्ता न कर पुत्री...तेरी माँ अब तुझे अपनी तरह वियोगनी बन रोने नहीं देगी। वह बदला लेगी। तू रुदन न कर पुत्री! सर्वप्रथम मैं तेरे अपराधी को ही दण्डित करूंगी...अपने जामाता के ही प्राण हरूंगी...तू रूदन न कर...!'

आशंकित अमृता को वहीं छोड़ विक्षिप्त बहुरा तीव्रता से बाहर आकर साधना-कक्ष की दिशा में चल पड़ी।

उसकी चेतना में एक ही दंश था। दयाल सिंह उसकी भोली पुत्री का त्याग कर उसे विरह-अग्नि में जलती छोड़ भाग गया। बहुरा का रोम-रोम सुलग उठा। आक्रोशित बहुरा ने साधना-कक्ष की दिशा में पग बढ़ाने के साथ-साथ तीव्र आकर्षण मंत्रों का उच्चारण प्रारंभ कर दिया।

'काकी!' व्यथित माया ने स्थिति की गंभीरता का आभास होते ही कहा 'इस अनर्थ को रोको काकी!'

परिवर्तित घटनाक्रम के चिन्तन में डूबी काकी मौन थी। उसने माया के अनुरोध पर कोई उत्तर नहीं दिया। माया की व्याकुलता बढ़ती जा रही थी। उसने काकी के कंधे को झकझोर कर कहा-'चिन्तन का अवकाश नहीं है काकी। बहुरा को रोको!'

'नहीं पुत्री! प्रतिशोध की ज्वाला में तप्त पुत्री को रोकना अब न उचित है, न संभव। हमारे साथ भीषण छल हुआ है। राजा के पुत्र ने हमारी अमृता को दारुण-दुख देकर, हमसे विश्वासघात किया है। हमारी अस्मिता को उसने ललकारा है...और तुम कहती हो...उसे रोक दूँ...असम्भव...असम्भव है यह...और तुम माया...क्या हो गया है तुम्हारी सोच को? हमें समर्थन देने के स्थान पर तुम यह क्या कर रही हो? लज्जा आनी चाहिए तुम्हें। तुम्हें पता है तुम क्या चाहती हो?'

अवाक् माया, पोपली काकी की विषाक्त मुखाकृति देखती रह गयी। क्या हो गया है काकी को? तटस्थ होकर विचार करना ही नहीं चाहती। क्रोधावेश में अनर्थ करने पर उतारू हैं ये दोनों। कुँवर के प्राण हर लेने के पश्चात्, प्रायश्चित्त के लिए फिर शेष क्या बचेगा?

ऐसे ही विचारों में उद्विग्न माया विवशता में हाथ मलती रही और विकट-रूप बहुरा ने साधना-कक्ष में पहुँचते ही अमोघ मारण-पात्र का निर्माण प्रारंभ कर दिया।

काले रंग में पुता वह मिट्टी की एक हाँड़ी थी। उसके गले में लाल धागों में बंधे मानव उंगलियों की दस हड्डियां लटकी थीं। मंत्रोच्चार करती बहुरा हाँड़ी पर सिंदूर से विचित्र-सी आकृतियां बना रही थी। वहीं पास में सिंदूर-पुता मुर्गी का एक

अबोध चूजा अपनी छोटी-छोटी आँखों से हाँड़ी को निहार रहा था।

अतिशांत पोपली काकी के साथ विचलित माया ने तभी बहुरा के साधना-कक्ष में प्रवेश किया।

'अमोघ मारण-पात्र का संधान!' काकी ने स्वयं में बुदबुदाकर कहा और बहुरा के निकट वीरासन में जाकर बैठ गयीं। काकी की आकृति में कोई तनाव नहीं उभरा। शांतचित्त हो उसने कहा-'एक तुच्छ प्राणी हेतु इस विकट मारण-पात्र की क्या आवश्यकता थी पुत्री? उसे दण्डित करने हेतु संकल्पपूर्वक की गयी तुम्हारी इच्छा ही पर्याप्त थी पुत्री। तुम तो भलीभाँति इस मारण-पात्र के रहस्य से परिचित ही हो। निष्फल होने पर यह पात्र तुम्हारा ही विनाश कर देगा।'

हँसी बहुरा! विकट अट्टहास गूंजा उसका। हँसते हुए ही उसने कहा-'वीरा का यह अमोध मारण-पात्र है काकी! इसके अमोघ प्रभाव से भलीभाँति परिचित हो तुम। संकल्पपूर्वक इसे यदि किसी अंचल के नाम पर प्रक्षेपित कर दूं तो तुम जानती ही हो काकी, उसे भी यह ध्वस्त कर देगा। फिर भी तुम इसकी असफलता के प्रति आशंकित हो? जबकि इस अमोघ मारण-पात्र का संधान एक इकलौते छलिया के लिए किया जा रहा है।'

'जानती हूँ पुत्री! साथ ही मुझे इसकी सफलता पर तनिक भी संदेह नहीं है, परन्तु सूई के स्थान पर तलवार के इस प्रयोग की क्या आवश्यकता थी?'

बहुरा ने उत्तर न देकर पास ही फुदक रहे मुर्गी के चूजे को बाएँ हाथ से पकड़कर हँसते हुए कहा-'ठीक है काकी, तुम कहती हो तो सूई का ही प्रयोग करती हूँ।'

कह कर उसने दाएँ हाथ में एक महीन सूई लेकर चूजे की गर्दन में घोंप दी। सूई उसकी गर्दन के आर-पार हो गयी। सूई का अर्द्ध भाग गर्दन में तथा शेष दोनों ओर निकला रहा। चीं-चीं करते उस चूजे ने बारंबार पलकें झपकाना शुरू कर दिया। प्रसन्नचित्त उसने चूजे को हड़िया के अंदर सुरक्षित रख दिया।

माया अब तक अपने स्थान पर ही खड़ी थी। चिन्तायुक्त नेत्रों से बहुरा की प्रक्रिया का निरीक्षण करती माया ने उसको प्रसन्न देखकर कहा-'अपने निर्णय पर एक बार शांत चित्त हो पुनर्विचार कर ले पुत्री! मैं जानती हूँ, तुम्हारे साथ काकी की भी सहमति है, फिर भी मेरा अनुरोध मान इस मारण-पात्र के संधान के पूर्व एक बार पुनः विचार कर ले।'

उसकी मुखाकृति में तत्काल परिवर्तन हुआ। उसकी शिराएँ कस गईं। मुखमण्डल कठोर हो गया, परन्तु माया से उसने कुछ न कहा। वीरासन में बैठी उसने अपनी दोनों हथेलियों से मारण-पात्र को ऊपर उठाकर मंत्रोच्चार किया। देखते-ही-देखते मिट्टी की वह काली हाँड़ी उसकी हथेली से उठकर ऊपर शून्य में स्थिर हो गयी।

तभी मुरझायी-सी अमृता का क्रंदन कक्ष में गूँजा। दौड़ती अमृता माँ से लिपटकर चीत्कार करती कहने लगी 'ऐसा अनर्थ मत कर माँ...मेरे स्वामी के प्राण मत ले...मत ले माँ...मत ले!' कहते हुए उसने अपनी चेतना त्याग दी।

' इस मूर्ख को सम्हाल काकी! ... जिसे यह स्वामी समझ अपना सर्वस्व अर्पित कर चुकी उसी छलिया ने इसे छलकर इसका परित्याग कर दिया...और यह

अबोध अब भी उसे ही अपना स्वामी मान रही है। '

अमृता के अचेत शरीर को अपने अंक में सम्हालते हुए काकी ने आदेश दिया-'मारण-पात्र के प्रक्षेपण में विलम्ब न कर पुत्री, अन्यथा यह इसी स्थल पर।'

'जानती हूँ काकी...! भलीभाँति जानती हूँ...'-काकी को बीच में ही रोकती उसने पुनः मंत्रोच्चार प्रारंभ कर दिया।

शून्य में स्थिर मारण-पात्र मंथर गति से अपनी परिधि में घूमा...तत्काल उसकी गति बढ़ी। शून्य में घूमते मारण-पात्र से सों ऽ...सों ऽ...की ध्वनि-तरंगें निकलने लगीं और देखते ही देखते अत्यंत तीव्र गति से वह भैरव की परिक्रमा कर कक्ष से बाहर हो गया।

गोधूलि बेला में दयाल सिंह ने अंततः अपने परिजनों की दूर से ही धूमिल झलक देखी। बारात रुकी थी। सेवक मशालें जला रहे थे। कुछ ही क्षणों में गोधूलि का मटमैला प्रकाश समाप्त होने को था।

दयाल सिंह ने अपनी घोड़ी की चाल बढ़ा दी। दयाल के साथ अन्य कापालिकों की घोड़ियों की टाप की ध्वनि ने बारातियों का भी ध्यान आकृष्ट किया।

धूमिल प्रकाश में स्पष्ट कुछ न दिखा, परन्तु क्षणोपरांत जब वे और निकट आए तो काले वस्त्रों में उन भयंकर कापालिकों को तेजी से अपनी ओर आते देख बारात में अनायास भय की लहर दौड़ गई.

'सैनिकों को सावधान करो!'-राजा ने उच्च स्वर में आदेश दिया

'सेनापति को शीघ्र संदेश दो। किसी को भयभीत होने की आवश्यकता नहीं। इन्हें अवश्य क्रोधित बहुरा ने भेजा है। निकट आते ही हम इन्हें काल को समर्पित कर देंगे...सैनिको! सावधानीपूर्वक अपने अस्त्र-शस्त्र सम्हालकर व्यूह की रचना करो...!'

आनंदमग्न बाराती सहसा विचलित हो गये। सेनापति को सूचित करने कई सैनिक बारात के नेपथ्य में दौड़ पड़े। मशालें तीव्रता से प्रज्वलित की जाने लगीं। सैनिकों ने रक्षापंक्ति बनाकर सुरक्षित व्यूह-रचना कर ली। वे अपने अस्त्र-शस्त्रों से सन्नद्ध होकर आक्रमण की मुद्रा में सावधान खड़े हो गये।

'महाराज!' सैनिकों ने व्यूह से आबद्ध राजा को आकर कहा-'हमारे सेनापति प्रतिशोध हेतु बखरी में ही रुके हैं। बहुरा का वध करके कुँवर को सपत्नीक लाने की प्रतिज्ञा की है उन्होंने। परन्तु, चिन्ता की कोई बात नहीं...हमारी सेना तैयार है...तथा हमने अभेद्य व्यूह भी रच लिया है, महाराज! इन तुच्छ कापालिकों के मस्तक काट कर हम आपको अर्पित करेंगे...आने दीजिए इन्हें।'

शीघ्रता से कहकर वे सैनिक रक्षा-पंक्ति में जा खड़े हुए.

तभी मंगल गुरु भी अपने वाहन का त्यागकर राजा जी के पास आये।

'शांत रहे महाराज!' मंगल ने कहा-'क्रुद्ध बहुरा के कापालिक हमारा कुछ अहित न कर सकेंगे...परन्तु इनका निवारण शस्त्र-बल से उचित नहीं...आप आश्वस्त रहें। मैं इन्ही की शक्ति से इनका पराभव निश्चिय ही करूँगा। अब मुझे आज्ञा दें महाराज!'

तब तक वैद्यराज भी वहीं उपस्थित हो गये। उन्होंने कहा-'मंगलगुरू का परामर्श उचित ही है राजन्। तंत्र-बल का प्रतिकार शस्त्र-बल से करना अनुचित है। इन्हें शीघ्र आज्ञा दें!'

'आज्ञा है राजरत्न!' राजा ने चिन्तित होकर कहा-'आपकी तांत्रिक शक्तियों पर मैं पूर्ण आश्वस्त हूँ। इन कापालिकों की चिन्ता नहीं है मुझे...आप अवश्य इनके पराभव में सफल होंगे। परन्तु जैसी की सूचना है, हमारे सेनापति बहुरा के वध का प्रण कर वहीं रह गये। मुझे उनकी चिन्ता हो रही है।'

'इस समस्या पर अभी चिन्ता न कर मुझे इन कापालिकों का सामना करना है, राजा जी. सेनापति ने स्वयं को काल के ग्रास में हठपूर्वक डाला है, परन्तु उसपर फिर विचार होगा...इस क्षण मैं विदा होता हँू।'

यह कहकर वे शीघ्रतापूर्वक व्यूह-रचना के शीर्ष पर जा खड़े हुए.

दयाल सिंह ने अचानक अपनी घोड़ी को रोक लिया। कापालिकों ने भी विस्मित हो अपनी घोड़ियों को रोक आश्चर्य व्यक्त करते हुए दयाल से पूछा 'यह अनायास क्या हुआ कुँवर जी? ... आप रुक क्यों गये? आपके परिजन कुटुम्बीगण तो अब हमारे दृष्टिपथ में हैं...चलिए...शीघ्र चलकर हम उन्हें हर्षित कर दें।'

'सत्य कहा आपने...परन्तु आपने कदाचित् लक्ष्य न किया, हमारी सेना भ्रमवश हमें ही अपना शत्रु समझ बैठी है। देखते नहीं, सेना व्यूह रचकर अपने शस्त्र सम्हाल कर खड़ी है।'

'ठीक ही कहा आपने कुँवर!' एक कापालिक ने कहा-'वास्तव में उन्होंने हमें शत्रु ही समझा है। परन्तु हम क्या करें, हमारे पास प्रज्वलित मशाल होती तो उसे लेकर आप अकेले प्रस्थान करते। इस अंधकार में तो वे आपको देखने में भी असमर्थ हैं। आज्ञा दें तो हम काष्ठ-अभिमंत्रित कर अग्नि प्रज्वलित करें?'

'उत्तम!' प्रसन्न होकर कहा दयाल ने-'आपलोग शीघ्र ही अग्नि प्रज्वलित करने का उद्योग करें।'

कापालिकों को अचानक यों रुकते देख व्यूह के शीर्ष पर खड़े मंगलगुरु चिन्तित हुए. क्या करने जा रहे हैं ये? तभी मंगल ने देखा कापालिकों के सम्मुख मंत्रोत्पन्न अग्नि की विशाल लपटें उठने लगीं। अग्नि के प्रकाश में उनकी आकृतियां पूर्णतः आलोकित हो गयीं। मंगलगुरु जान गये, इन्होंने अग्नि का आवाहन कर उसे प्रज्वलित किया है। परन्तु, इस मूढ़ता की क्या आवश्यता थी। अंधकार में तो ये विशेष सुरक्षित थे। प्रकाश के आलोक में तो ये मारक परिधि में आ गये। मंगल के हृदय में विचारों का द्वंद्व उठ ही रहा था कि उन्होंने देखा-कापालिकों के पार्श्व से निकल कर एक घोड़ी आगे आयी। हर्षातिरेक से मंगलगुरु चौंके-'यह तो अपना कुँवर है!'

तत्काल सैनिकों ने अपने शस्त्र झुका लिये। बारात में हर्ष की लहर दौड़ गयी। सुरक्षित कुँवर सकुशल वापस आ गये थे। राजा-रानी के हर्ष का पारावार न रहा। बारंबार पुत्र को गले लगाकर उन्होंने उसका मस्तक चूमा।

विश्राम-स्थल अब सन्निकट ही था। थोड़ी ही घड़ी में सब हर्षित हो पड़ाव-स्थल पर जा पहुँचे। समस्त घटनाक्रम की विस्तृत जानकारी पाकर राजा ने कापालिकों का सत्कार करके उनसे अनुरोध किया कि वे उनके साथ ही रात्रि विश्राम कर सूर्योदय के पश्चात् विदा हों।

समस्त जन आमोद-प्रमोद में मग्न बैठे ही थे कि अचानक एक अवांछित ध्वनि ने सबको चौंका दिया। मारण-पात्र आ चुका था! सन्-सन् की ध्वनि उत्पन्न करता मारण-पात्र कुँवर के समीप आकर परिक्रमा करने लगा।

'बहुरा का विकट मारण-पात्र'-कापालिकों के समूह में उपस्थित एक कापालिक भय से थर-थर कांपता चिल्लाया।

'कुँवर। यह बहुरा का महाविकट मारण-पात्र है...तत्काल भूमि पर मस्तक रख महाकाल से रक्षा की विनती करें। विलम्ब न करें कुँवर!'

शीघ्रतापूर्वक खड़े होकर मंगलगुरु ने चेतावनी दी-समस्त-जन भूमि पर नत मस्तक हो जाएँ और कुँवर! तुम माँ की शरण में समर्पित हो प्रार्थना करो...! निश्चय ही बहुरा का मारण-पात्र लौटकर उसे ही आहत कर देगा...शीघ्रता करो कुँवर...शीघ्रता करो! '

'क्षमा करें महाशय!' मंगलगुरु से अपरिचित उसी कापालिक ने शीघ्रतापूर्वक कहा-'आप इस अमोघ मारण-पात्र से कदाचित् भिज्ञ नहीं हैं। स्वयं महाकाल भी इसका निवारण नहीं करते, फिर भी कुँवर जी उन्हीं के शरणागत हों, यही उचित है।'-कहकर वह महाकाल को नमस्कार कर तत्काल भूमि पर दण्डवत् हो गया। उसके साथ अन्य कापालिक भी उसी प्रकार दण्डवत् हो गए.

परन्तु, कुँवर दयाल सिंह अपने गुरु की आज्ञा का अनुसरण कर, माँ को समर्पित हो कमला-स्तुति में नेत्र बंदकर वहीं नतजानु हो गया।

कुँवर की परिक्रमा करता हुआ वह मारण पात्र द्रुत गति से जब भी कुँवर के समीप पहुँचता, कुँवर के शरीर से एक दिव्य-प्रभा प्रस्फुटित होती और काल-पात्र बना वह मारण-पात्र विचलित हो दूर चला जाता। बारम्बार यही क्रम चलता रहा और अपने नेत्रों को बंद किये कुँवर दयाल सिंह कमला मैया की स्तुति करता रहा।

'घोर आश्चर्य!' एक कापालिक चकित हो बुदबुदाया। 'कदाचित् स्वयं महाकाल ही कुँवर की रक्षा कर रहे हैं।'

एकाएक मारण-पात्र की ध्वनि द्विगुणित हो गयी। द्रुत गति से वह दयाल की परिक्रमा करते हुए दयाल से दूर हुआ और तीव्रता से दयाल की ओर पुनः सनसनाता आया। सबकी साँसें रुक गयीं। धड़कनें बढ़ गयीं। विस्फारित नेत्रों से भयभीत हो सब इस लोमहर्षक दृश्य को एकटक देखने लगे।

अति तीव्र गति से उड़ता वह पात्र लपकता हुआ दयाल के निकट पुनः आया। क्षण भर को ऐसा प्रतीत हुआ मानो इस बार निश्चय ही वह दयाल पर प्रहार कर देगा, ...परन्तु इस बार भी वही हुआ। स्तुति करते दयाल के शरीर से इस बार जो प्रभा प्रस्फुटित हुई, उससे टकराकर वह मारण-पात्र अद्भुत गति से सांस-सांय की ध्वनि उत्पन्न करता उसी तीव्रता से लौट गया।

'घोर आश्चर्य...!' एक कापालिक चीखा-'असंभव ही घटित हुआ है गुरुदेव' कहकर वह कापालिक भूमि से उठा और दौड़कर मंगलगुरु के चरणों से लिपट गया।

पोपली काकी की गोद में अचेत अमृता जब-जब चैतन्य होती 'हा स्वामी' , कहकर पुनः अचेत हो जाती।

'चिन्ता न करो चाची' ! बहुरा ने कहा-'स्थिति सामान्य होने के पश्चात् यह स्वयं शांत हो जाएगी।'

उदास माया का अंतस् रो पड़ा। यह अभागी अब कभी शांत न होगी। हा विधाता, तूने यह क्या खेल खेला। मेरी निष्कलंक-निष्पाप पुत्री का सम्पूर्ण जीवन क्या पति-स्मृति में सदा जलता रहेगा?

मौन उदास माया यों निराशा में डूबी ही थी कि बहुरा की विस्मित सिसकारी ने उसे चैतन्य कर दिया। माया ने देखा बंदरों के मुण्डमाल बहुरा के वक्ष से टूट कर भूमि पर आ गिरा। उंगलियों की हड्डियों से बने बाँहों के दोनों बंध टूटकर बिखर गये।

'अनर्थ हो गया पुत्री' ! काकी चीखी, 'मारण-पात्र असफल हो गया!'

किंकर्त्तव्यविमूढ़ बहुरा की मुखाकृति पर अविश्वास उभरा 'यह असंभव है काकी...सर्वथा असंभव! मैंने अपनी सम्पूर्ण प्राण-शक्ति अपने मारण-पात्र में समाहित कर उसे संकल्पपूर्वक प्रक्षेपित किया है...क्या मेरी सिद्धियाँ निष्फल हो चुकी हैं अथवा महाकाल ने स्वयं मुझसे छल किया है?'

'आश्चर्य का अवकाश नहीं है, पुत्री' ! काकी ने कहा-'तुम्हारे अभेद्य मंत्र-पाश को जब उसने भेद दिया, मुझे तभी आश्चर्य हुआ था। इसीलिए इस मारण-पात्र का संधान करते समय मैंने तुझे संकेत भी किया था पुत्री... परन्तु अब हम पर घोर विपदा आने वाली है। इस विपत्ति में यदि कोई रक्षक है तो वह स्वयं महाकाल ही है। तू उनसे ही प्रार्थना कर पुत्री!'

अपनी बात कहकर काकी स्वयं भी महाकाल के समक्ष बैठ कर नतजानु हो गयी। माया को भी कर्तव्यबोध ने झकझोरा। तत्काल वह भैरव-चक्रीय नृत्य की भंगिमा में बहुरा के रक्षार्थ तैयार हो खड़ी हुई.

अमृता को जब चेत हुआ तो साधना-कक्ष के वातावरण ने उसे विस्मित कर दिया। उसकी माँ नतजानु हो मंत्रोच्चार कर रही थी, पोपली काकी भी मंत्रों के जाप में निमग्न थी और माया दीदी भैरव-चक्रीय नृत्य के तीव्र चक्कर काटती महाकाल को बारंबार नमस्कार कर रही थी।

इस दृश्य ने भोली अमृता का शोक अनायास ही हर लिया। माया दीदी उसकी नृत्य प्रशिक्षिका थी। भैरव-चक्रीय नृत्य का उसने पूर्ण मनोयोग से प्रशिक्षण प्राप्त किया था। वह तत्काल जान गयी, माया के इस चक्र का प्रयोजन क्या था। यह रक्षा-चक्र है। मारण-पात्र से उसके स्वामी की रक्षा की जा रही है। उसकी माता एवं काकी भी संभवतः उसी के रक्षार्थ मंत्र-जाप में निमग्न हैं। अंततः इन्होंने अपनी भूल स्वीकार कर ही ली। आनंदमग्न हो गयी अमृता!

अमृता के हृदय में आशा जगी। उसके स्वामी की अब रक्षा निश्चित है। माया दीदी, पोपली काकी तथा अपनी माँ की क्षमता से वह पूर्णरूपेण परिचित थी। इनमें से कोई एक भी किसी की रक्षा में खड़ी हो जाएँ तो उसका अहित संभव नहीं और इस घड़ी तो तीनों सम्मिलित हो उसके स्वामी के रक्षार्थ प्रयत्न में लगी हैं। परन्तु अनायास उसकी माँ का हृदय क्यों परिवर्तित हुआ? अवश्य यह चमत्कार उसकी माया दीदी का ही है, अन्यथा काकी तो माँ के समर्थन में अडिग ही थी। अमृता का अंतस् माया दीदी के प्रति आभार से भर गया।

अमृता अपने सुखद विचारों में यों ही मुग्ध हो मुस्करा रही थी कि तभी कक्ष के बाहर से आती सनसनाहट की ध्वनि पर चौंककर उसने दृष्टि उठाई. अखंडित मारण-पात्र लौट आया था। मारण-पात्र को सुरक्षित आया देख प्रसन्नता के आवेग से अमृता का मुखमण्डल खिल उठा। उसके स्वामी के प्राण बच गये। माता सहित काकी एवं दीदी अपने प्रयोजन में सफल रहीं। मारण-पात्र से उसकी कृतज्ञ दृष्टि घूमी तो उसने देखा-नृत्य बंदकर विचलित माया अविचल खड़ी हो मारण-पात्र को निर्निमेष देख रही है। पोपली काकी की चिन्तित दृष्टि भी उसी मारण-पात्र पर गड़ी है और माता व्याकुल हो कभी पात्र को, कभी महाकाल को, याचना भरी दृष्टि से निहार रही हैं। तीनों के नेत्रों ने बिन-कहे ही अमृता से सब कुछ कह दिया।

सारी स्थिति अब स्पष्ट हो गई. मारण-पात्र असफल होकर माता के लिए काल-पात्र बनकर लौटा था। स्थिति का ज्ञान होते ही उसकी आत्मा काँप गयी। उसके विस्फारित नेत्र मारण-पात्र पर गड़ गये।

शनैः शनैः वह पात्र व्याकुल बहुरा के निकट जा पहुँचा। शून्य में ऊपर उठ कर वह उससे कई हाथ ऊपर जा पहुँचा। सब स्तब्ध थे। अब क्या होगा? परन्तु बहुरा ने कदाचित् अपनी पराजय स्वीकार ली थी, क्योंकि अब उसके नेत्रों से व्याकुलता का भाव समाप्त हो गया था। उसने अपने अंत समय को हृदय से स्वीकार लिया। मृत्यु-भय से मुक्त हो उसने महाकाल के समक्ष-नतजानु हो नेत्र बंद कर लिये।

मारण-पात्र चटाक् की ध्वनि के साथ टूटा। अंदर उपस्थित मुर्गी का चूजा बहुरा के ऊपर आ गिरा। आश्चर्य! चूजा जीवित था। उसके प्राण सुरक्षित थे। उसकी भयभीत आँखों के पलक निरंतर खुलकर बंद हो रहे थे।

हर्ष के अतिरेक में काकी चीखी।

'मारण-पात्र का प्राणी जीवित है, माया...मेरी पुत्री की रक्षा हो गयी।' कहती काकी लपककर बहुरा के समीप पहुँची। माया संग अमृता ने भी बहुरा के निश्चल शरीर को छुआ। अचेत बहुरा की नाड़ियां चल रही थीं। काकी गंभीर हो गयीं।

'माँ तो अचेत हो गयीं, काकी!' आशंकित अमृता ने कहा।

'हाँ पुत्री!' 'इसके प्राण तो बच गये...परन्तु।'

'परन्तु क्या काकी?' आतुर अमृता ने पूछा।

'इसकी चेतना अब महाकाल की इच्छा पर निर्भर है। वे कृपालु हों तो तत्काल तुम्हारी माँ चैतन्य हो जाएगी, अन्यथा कई मास-कई वर्ष, यों ही चेतना-शून्य निस्पंद पड़ी रहेगी। इस मारण-पात्र ने महाकाल की प्रेरणा से इसके प्राण न हरकर इसकी चेतना हर ली है।'

काकी के रहस्योद्घाटन ने कक्ष को श्मशान-सा शांत कर दिया। अमृता और माया की फटी हुई आँखें बहुरा पर जाकर ठहर गयीं।

राजा जी की बैठक में सब के-सब उदास-उद्विग्न-से विराजे थे। माता-पिता और गुरु मंगल सहित कुँवर दयाल भी मौन था। दाहिनी आँख पर काली पट्टी लगाये बलशाली सेनापति रह-रह कर कुछ कहने को उद्यत होते, फिर आसन बदल कर शांत स्थिर हो जाते।

सेनापति की भाव-भंगिमा को लक्ष्य कर राजा ने मौन भंग करते हुए कहा 'कदाचित् आप कुछ कहना चाहते हैं, सेनापति! कुछ घड़ी से मैं देख रहा हूँ कि आप।'

'आपने ठीक ही कहा, महाराज!' आसन से उठते हुए सेनापति ने कहा 'हमने अपने दुर्भाग्य का बहुत शोक मना लिया...अब हमें यह निश्चय करना है कि हम अनन्त काल तक यों ही निराशा के गर्त्त में पड़े रहेंगे अथवा अपने पुरूषार्थ से अपनी खोई प्रतिष्ठा और अस्मिता की पुनः प्राप्ति का प्रयत्न करेंगे?'

'सत्य है सेनापति!' राजा ने सहमति में कहा-'परन्तु तामसी शक्तियों का पराभव शारीरिक बल से सम्भव नहीं, इसका अनुभव आपने स्वयं किया है सेनापति! सत्य यही है कि लोहा ही लोहे को काटता है। अतः, हम इसी दिशा में विचार करें तो उत्तम...' राजा ने सेनापति को सम्बोधित कर मंगल गुरु से पूछा 'इस विषय पर आपकी क्या सम्मति है राजरत्न?'

'दैव-योग से हमारी कृपालु माता ने हमारे कुँवर की रक्षा कर दी महाराज' ! आसन छोड़ खड़े होकर मंगल गुरु ने कहा-'हमारे सौभाग्य से बहुरा के असफल मारण-पात्र ने उसकी चेतना हर कर हमें तात्कालिक सुरक्षा भी प्रदान कर दी है ...अन्यथा पराजय की कुंठा उसे शांत न होने देती। परन्तु कुँवर के उस रक्षा-कवच की अवधि भी अब समाप्त हो गयी है, जिसने महाविकट, अमोघ मारण-पात्र से कुँवर की रक्षा की है।'

'हमारी चिन्ताओं का निवारण न कर आप तो हमारे भय को द्विगुणित कर रहे हैं, राजरत्न। तात्कालिक सुरक्षा से आपका आशय क्या है? क्या आप यह कहना चाहते हैं कि असफल मारण-पात्र का बहुरा पर परिणाम तात्कालिक है? क्या उस विकट भैरवी की चेतना पुनः लौट जाएगी?'

'हाँ महाराज, परन्तु इसकी समय-रेखा अनिश्चित है। संभव है, वह मृत्यूपर्यंत अचेत रहे। यह भी संभव है उसकी चेतना तत्काल जाग्रत हो जाए.'

'यह तो बड़ी विकट समस्या है राजरत्न! अब ऐसी परिस्थिति में विचारकर हमें ऐसी सम्मति दें, जिससे हमारा कल्याण हो।'

'जाने-अनजाने आपने स्वयं दिशा-निर्देश दे दिया है महाराज! हमें उसी मार्ग का अवलंबन लेना होगा।'

'स्पष्ट करें राजरत्न!' राजा ने कहा-'मैंने आपसे दिशा-निर्देश की सम्मति माँगी है और आप कहते हैं।'

'हाँ महाराज! लोहे से लोहे को काटने वाली बात आपने ही कही है। हमें उसी का अनुसरण करना है। अपने कुँवर को बहुरा से अनंतगुणा शक्तिशाली बनाकर उसका अहंकार भंग करना होगा। इसके अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं।'

राजा ने उत्सुकता से पूछा-'यह संभव कैसे है राजरत्न?'

' वह भी बताऊँगा राजन्, परन्तु अभी तनिक धैर्य धारण करें। हमारे कुँवर को अवसाद के बंधन से मुक्त होने दें। मैंने समस्त योजना भलीभाँति सोच ली है। आप चिन्तित न हों। अंततः सत्य की ही विजय होगी, आप आश्वस्त रहें।

राजरत्न की ' क्षमता से परिचित राजा-रानी सहित सेनापति तथा वैद्यराज के अधरों पर क्षणिक उदास मुस्कान आकर विलीन हो गयी। राजरत्न की क्षमताओं पर अविश्वास न करते हुए भी सभी चिन्तित हो मौन हो गये।

असहनीय मौन को भंग कर वैद्यराज ने खड़े होकर कहा-'हम सबको आप पर अगाध विश्वास और श्रद्धा है राजरत्न। आपके आश्वासन ने हम पर यथोचित मंगलकारी प्रभाव भी डाला है फिर भी हम अज्ञानियों को तनिक अपनी योजना का आप आभास मात्र भी प्रदान कर दें तो बड़ी कृपा होगी।'

'अपनी विनम्रता के अतिरेक से मुझ जैसे तुच्छप्राणी को लज्जित न करें वैद्यराज!' मंगल ने सम्मानपूर्वक कहा-' इस जनपद की मिट्टी आपके ज्ञान-भंडार को भलीभाँति जानती है। आप तो जानते ही हैं इस जगत में ज्ञान, उपासना एवं शक्ति के तीन ही मार्ग हैं, वे हैं-याज्ञिक, यौगिक तथा तांत्रिक। इनके अतिरिक्त शेष कोई अन्य मार्ग नहीं। आपके समक्ष इनके विश्लेषण की कोई आवश्यकता भी नहीं, तथापि उपस्थित अन्य सम्मानितों के लिए कहना चाहूँगा कि इनमें एकमात्र तांत्रिक मार्ग ही ऐसा मार्ग है, जिसके अंदर परस्पर विरोधी दो शाखाएँ विद्यमान हैं। एक है

विधायक शक्तिमार्ग जो शुद्ध आध्यात्मिक मार्ग है। तंत्र की यह दक्षिण शाखा योग की अनुपूरक है। परन्तु, तंत्र की दूसरी वाम शाखा विधायक शक्तियों के विपरीत घोर तामसी है। इस मार्ग के साधकों के वर्तमान प्रवर्तक दुर्भाग्य से उस महान गौतम बुद्ध के पथभ्रष्ट अनुयायी हैं, जिन्होंने जगत को शांति और प्रेम का संदेश दिया था। विस्तार में न जाकर मैं मुख्य बिन्दु पर आना चाहता हूँ। जिसे हम अपना शत्रु बना बैठे हैं, वह बहुरा तंत्र की तामसी शक्तियों की निःसंदेह सिद्ध तांत्रिक है। उसमें वाममार्गी विकट श्मशान-साधना से उत्पन्न घोर संघारक शक्तियां भी केन्द्रित हैं। ...'

इतना कहकर राजरत्न क्षणभर के लिए मौन हुए. राजा-रानी सहित सभी उपस्थित जन पूर्ण मनोयोग से राजरत्न को ही देख रहे थे।

राजरत्न ने पुनः कहा-'परन्तु बहुरा का एक गूढ़ रहस्य यह भी है कि उसने शक्तियों का आयात किया है। तामसी शक्तियां यों भी आयातित ही होती हैं, जबकि विधायिका शक्तियों का जागरण प्राणी के अपने कूटस्थ में प्रस्फुटित होता है। प्रत्येक प्राणी के अंदर विधायिका शक्तियों के छह केन्द्र अपने-अपने स्थान पर सुषुप्त अवस्था में तब तक निष्क्रिय पड़े रहते हैं जब तक सद्गुरु की कृपा नहीं होती।'

मंत्रमुग्ध हो सभी ध्यानमग्न हो राजरत्न की अद्भुत बातें सुन रहे थे।

मंगल गुरु कह रहे थे-' अंग की महान साधिका आदरणीय पोपली काकी को भी अपने सुप्त शक्तिचक्रों के जागरण का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ। परन्तु उनकी इच्छा थी कि बहुरा को यह सौभाग्य प्राप्त हो और उन्होंने इस दिशा में प्रयत्न भी किया था। बहुरा सफल नहीं हुई. सफल होती तो अंग का सौभाग्य उदित होता। उसकी समस्त शक्तियां लोककल्याणकारी और विधायिका शक्तियां होतीं।

वस्तुतः आंतरिक शक्तिकेन्द्रों के जागरण का अर्थ है-'अंतस् में सत्य का जागरण, सत्य से साक्षात्कार। ईश्वर के अंश का साक्षात् ईश्वर से मिलन। द्वैत भाव का अद्वैत हो जाना ही इसकी परिणति है। सत्य की प्राप्ति होते ही प्राणी का रूप परमात्मास्वरूप हो जाता है। तुच्छ तामसीशक्तियों से अनंत गुणा प्रभावशाली शक्तियाँ स्वयमेव उसमें समाहित हो जाती हैं। कदाचित् मैंने संकेत में अपना मंतव्य पूरी तरह व्यक्त कर दिया है। कुँवर के अवसाद-मुक्त होते ही मैं अपनी योजना से भी अवगत करा दूंगा।'

राजवैद्य प्रसन्नता के आवेग में राजरत्न के पास आये। उनकी दोनों बाँहें मंगल के आलिंगन हेतु उठीं और दोनों आलिंगनबद्ध हो गये।