कुँवर नटुआ दयाल, खण्ड-12 / रंजन

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भाद्रपद मास की प्रथम रात्रि।

कमला बलान की शांत जलधारा में विजयमल्ल की विशाल नौका तैरती चली जा रही थी। उसकी नौका में आज अतिविशिष्ट सवारी, कुँवर दयाल सिंह विचारों के प्रवाह में उलझा बैठा था।

नौका में कुल तीन ही प्राणी थे। कुँवर दयाल सिंह, उनका नौकर झिलमा खबास और नाविक विजयमल्ल।

लम्बा-चौड़ा और बलिष्ठ विजयमल्ल का रंग काला, परन्तु हृदय उजला था। लंगोट का धनी विजयमल्ल इतनी उम्र बीत जाने पर भी अविवाहित था। कुश्ती के प्रेमी विजयमल्ल को भरोड़ा के राजपुरुष वाक्-आनंद के लिए 'काला पहाड' ़ कहते थे। सेनापति के अतिरिक्त उसकी विशाल कद-काठी के समक्ष भरोड़ा के निवासी बौने प्रतीत होते थे।

परन्तु, नौका परिचालन से अच्छी आय होने के बाद भी वह प्रायः भूखा ही रहता। विजयमल्ल के जीवन में दो ही दुःख थे। प्रथम तो यही था कि उसकी क्षुधा कभी शांत ही नहीं होती थी। यज्ञ-प्रयोजन एवं विवाहोत्सव के अवसर पर ही उसकी भूख मिटती। ऐसे अवसरों पर प्रथम निमंत्रण भी उसे ही मिलता। विजयमल्ल ने संतुष्ट होकर भरपेट भोजन ग्रहण कर लिया तो भरोड़ा के निवासी यज्ञ को पूर्ण मान प्रसन्न हो जाते थे। उसका दूसरा दुःख था-मल्ल युद्ध के लिये जोड़ीदार का न मिलना।

मर्यादा का उल्लंघन कर सेनापति से तो वह आग्रह कर नहीं सकता था और अंचल में उसके समान दूसरा कोई था नहीं।

इतनी विशाल नौका को अपने बाहुबल से चप्पुओं के सहारे अकेले ही उसने मध्य धारा में पहुँचाया। धारा के साथ बहती नौका को अब चप्पुओं की आवश्यकता नहीं थी, इसीलिए अब वह आनंदमग्न बैठा चौमासा गाने लगा। कुँवर दयाल सिंह स्वयं उसकी नौका में बैठे हैं, यह सोच कर ही विजयमल्ल का मन मुदित था। कुँवर का नौकर झिलमा खबास तो उसकी आँखों का तारा ही बन चुका था। नौका में कुँवर के पधारने के पूर्व ही झिलमा ने उसकी ऐसी पेट-पूजा की थी कि वह गद्गद् हो गया। भोजन के पश्चात् झिलमा ने जब विजयमल्ल को टाँसे हुए गर्म घी से भरा सेर भर से बड़ा लोटा पीने को दिया तो उसकी आत्मा ही मानो तृप्त हो गयी।

'तू अब कभी मेरी आँखों से दूर न होना झिलमा!' प्रसन्न होकर उसने झिलमा से कहा-'तुझे अपने साथ ही रखूँगा मैं। कुँवर जी को पहुँचाकर मेरे साथ ही रहना।'

शरीर से दुबला, परन्तु काठी से बलिष्ठ झिलमा खबास अँचल के निवासियों के मध्य बड़ा लोकप्रिय था। उसकी उदण्डता ही ऐसी होती कि चौपाल को नित्य नयी-नयी गप्पों का मसाला मिल जाता।

अब बटेसरा की ही बात करें तो भरोड़ा में उससे बढ़कर दुष्ट और कौन है भला? अपने व्यसन से विवश बटेसरा आधी रात में ही सोकर उठ जाता था। प्रातः जब लोग उठकर द्वार खोलते, तो किसी के द्वार पर सिंदूर, किसी के द्वार पर टूटी चूड़ियाँ बिखरी मिलतीं। बहुत दिनों तक जब जानकारी न हुई तो इसी झिलमा ने छिपकर रतजगा किया और तब बटेसरा का भंडा फूटा।

अब क्या झिलमा किसी से कम था? श्मशान से बटोरकर नर-मुण्डों के साथ हड्डियों का ढेर बटेसर के आँगन में रख आया। परिणाम में जाड़ा देकर ऐसा ज्वर चढ़ा बटेसरा को कि पूछिये मत! सारी उदण्डता ही भूल गया वह।

तो ऐसा था झिलमा। उत्पात तो अनगिनत करता, परन्तु किसी को कष्ट नहीं पहुँचाता, किसी का हृदय नहीं दुखाता। स्थिति यह थी कि जिस दिन झिलमा चुपचाप शांत पड़ा रहता, भरोड़ा के निवासियों का उस दिन मन ही नहीं लगता।

आज भरोड़ा को सूनाकर वही झिलमा खबास अपने प्रिय कुँवर का नौकर बन सुदूर यात्र पर निकल पड़ा था। कुँवर का वह हृदय से आदर करता था। क्यों न करता? उसके कुँवर थे ही ऐसे। परन्तु उनके कुँवर को बहुरा डायन की जबसे नजर लग गयी, तभी से उनकी श्रीविहीन मुखाकृति देख झिलमा खबास उदास हो जाता।

कई बार वह अपने कुँवर से पूछ आया था, परन्तु उन्होंने शय्या पर जाने से मना कर दिया। झिलमा की इच्छा हो रही थी, नाव की सुखद शय्या पर उसके मालिक लेट जाएँ तो वह पूरी श्रद्धा से उनकी चरण-सेवा करे।

उदास झिलमा मँुह लटकाकर जा बैठा विजयमल्ल के पास। अपनी तरंग में चौमासा गाता विजयमल्ल ने उसकी उतरी आकृति देख अपने गायन को बंद कर पूछा 'क्या हुआ रे झिलमा... यों मुँह काहे लटका है तेरा...हुआ क्या?'

'होगा क्या काका! मालिक को देखता हूँ तो कलेजा फटने लगता है...कहा मालिक सो जाइये तो मैं चरण-सेवा का सुख प्राप्त कर लूँ...परन्तु उनकी आँखों में तो लगता है काका...नींद ही नहीं है।'

'ठीक कहता है बेटा! हमरे कुँवर जी के लिए निंदिया रानी बैरन हो गयी हें। जी तो करता है बखरी जाकर उस डायन का टेंटुआ ही दबा दूँ।'

'मैंने तो सुना है वह जीवित शव बन गयी है, काका!'

'कमला मैया चाहेंगी तो वह शव ही बनी रह जाएगी...वैसे बेटा! अपने कुँवर जी का मनोरथ सिद्ध हो गया तो समझो बेड़ा पार...भरोड़ा का सकल मनोरथ पूरा हो जाएगा।'

'कमला मैया तो सहाय होंगी ही। देवी-देवता भले लोगों का ही तो मनोरथ पूर्ण करती हैं...क्यों काका?'

'हाँ बेटा! कहता तो तू ठीक ही है। ...तू कहे तो मैं भी एक बार कुँवर जी से अरदास कर आऊँ...बोल! चलता है झिलमा?'

'चलो न काका!'

दोनों ने कर जोड़ कर अरदास किया तो कुँवर को उठना ही पड़ा। परन्तु, निद्रा कहाँ? प्रसन्न झिलमा चरण दबाता रहा और कुँवर की बंद पलकों के अंदर विचारों का भंवर चलता रहा। चेतना के स्मृति-द्वार पर मंगल गुरु की आकृति उभरी थी। 'इस रहस्य को भलीभाँति जान लो पुत्र,' गुरु ने कहा-'योगिनी कामा ही एकमात्र ऐसी नर्तकी है, जिसे' षट्चक्र'नृत्य के गुप्त रहस्यों का ज्ञान है। उसने यदि तुम्हें शिष्य रूप में ग्रहण कर लिया तो समझो विजयश्री ने तुम्हारा वरण कर लिया। कार्त्तिक अमावस्या की अर्द्ध रात्रि में इस योगिनी का षट्चक्र नृत्य, कामाख्या मंदिर के प्रांगण में होता है, पुत्र। परन्तु, स्मरण रखना योगिनी के नृत्य के समय मृदंग-वादक के अतिरिक्त अन्य कोई पुरुष नहीं रहता। अनायास उस समय तुम वहाँ उपस्थित मत हो जाना। जाओ पुत्र! माता तुम्हारा कल्याण करेंगी।'

इस अनिश्चित यात्र के लिए मंगलगुरु ने राजा-रानी का अनुमोदन कैसे प्राप्त किया, यह मंगलगुरु का हृदय ही जानता था। उनकी आँखों का तारा कभी उनकी दृष्टि से दूर न हुआ था। अब उसे ही इतने सुदूर और भयंकर प्रदेश में सर्वथा अकेला और निःसहाय भेजने की अनुमति देते माता-पिता का कलेजा बाहर आ रहा था।

'हमने सुना है राजरत्न, यह कामरूप अंचल का अति भयंकर कामाख्या सिद्ध पीठ है। अंचल के निवासी भी एक से बढ़कर एक सिद्ध हैं।'-राजा ने आशंकित हो कर कहा।

'हाँ, राजरत्न!' रानी ने भी अपनी आशंका व्यक्त की-'मेरे मायके से कई लोग एक बार भ्रमण करने गये थे, परन्तु लौटकर आया मात्र एक व्यक्ति। उसी से ज्ञात हुआ, शेष सभी को वहाँ के सिद्धों ने भेड़ बनाकर अपनी सेवा में रख लिया था।'

'आप दोनों की सूचनाएँ सत्य हैं, परन्तु मुझ पर विश्वास करें! हमारे कुँवर कोई ऐसी मिठाई नहीं, जिसे वहाँ के सिद्ध देखते ही अपना ग्रास बना लें। आपके युवराज को इतनी तंत्र-विद्या तो मैं दे ही चुका हूँ।'

परन्तु, राजरत्न के आश्वासनों से न राजा आश्वस्त थे, न रानी और गुरु मंगल यात्र में विलम्ब होता देख चिन्तित हो रहे थे।

कमला-बलान, कौशिकी एवं गंगा की धाराओं को पारकर युवराज को ब्रह्मपुत्र की धारा में पहुँचना था। सावधानीपूर्वक गुप्त योजना बनाकर मंगल ने विजयमल्ल की नौका का चुनाव किया था और चतुर झिलमा खबास को कुँवर का अनुचर बना कर दो घड़ी पूर्व ही नौका पर भेज दिया था। परन्तु, इतना समझाने के पश्चात् भी यात्र के समय राजा और रानी दोनों अड़ गये थे।

हारकर मंगल गुरु ने कहा-'आप दोनों का यदि यही अंतिम निर्णय है तो कुँवर की यात्र स्थगित कर दें, महाराज! परन्तु, पुत्र-मोह में आकर आप दोनों सबके अमंगल को ही आमंत्रित करेंगे यह जान लें।'

इस बार रानी जी ने अपने शस्त्र डाल दिये-'कोई विकल्प नहीं है तो मैं अपने पुत्र को रोककर उसका अमंगल नहीं करूँगी, परन्तु उसे इस प्रकार निःसहाय अकेले नहीं जाने दूंगी। मेरे पुत्र के साथ उसके रक्षक भी जाएँगे राजरत्न!'

'फिर ढाक के वही तीन पात' , मंगल गुरु ने शांत स्वर में कहा-'कुँवर की यह गुप्त यात्र है रानी जी... अत्यंत गुप्त। रक्षकों की सेना कुँवर के अभियान को आरंभ में ही असफल कर देगी। ...मेरी बात मानें तथा मेरी योजना पर विश्वास करें रानी जी...तथा अब और विलम्ब न करें...अपने पुत्र को आशीष दें...!'

मोहग्रस्त राजा-रानी ने विवश होकर अपने नैनों की ज्योति, अपने हृदय के टुकड़े का, विदा के पूर्व बारम्बार आलिंगन किया। मंगल तिलक लगाकर उसकी बलैइयाँ लीं, मस्तक सूंघा, भारी हृदय और सजल आँखों से अंततः पुत्र को विदा किया।

अनेक निर्जन स्थलों, पहाड़ों, वनों और अंचलों को पार करती विजयमल्ल की विशाल नौका जब ब्रह्मपुत्र की तेज धारा में पहुँची तो वह अति सावधान हो गया। पूरी शक्ति से चप्पू चलाने के बाद भी नौका अनियंत्रित हो जाती थी। सूर्यास्त तक धारा के विपरीत नौका-संचालन के श्रम से चूर विजयमल्ल की क्षुधा तीव्र हो गयी। नौका-संचालन की व्यस्तता में आज वह अपराद्द का भोजन भी न कर सका था। दैव-योग से अब उसे नदी की धारा के साथ-साथ ही चलना था। उसने चप्पू चलाना बंदकर नौका को धारा के सहारे छोड़ा और झिलमा को पुकार लगाई.

'हाँ काका!' उपस्थित होकर झिलमा ने आश्चर्य व्यक्त किया। 'अरे काका, यह क्या! तुमने चप्पू छोड़ क्यों दिया...थक गये थे तो मुझे कहते...मैं सम्हाल लेता।'

'चिड़िया के मांस से मेरा चप्पू चलता तो अवश्य तुमसे कह देता'-हँसते हुए विजयमल्ल ने कहा, 'वैसे तेरे काका में इतनी क्षमता है बेटा-कि मैं दिन-रात चप्पू चलाकर भी थक नहीं सकता, परन्तु क्या करूँ? इस निगोड़े पेट से हार जाता हूँ। अब इस जलन से मुझे शीघ्र्र मुक्ति दिला। जा बेटा... दौड़कर जो भी है...शीघ्र्र ला!'

'तुम्हारे लिए तो मैंने मध्याद्द पूर्व से ही रोटियां सेंककर रखी थीं। तुमने ग्रहण नहीं किया तो मैं वहीं बैठा-बैठा रात्रि हेतु और रोटियां बनाता रहा।'

'अरे फिर तो ढेर सारी रोटियां बन गयी होंगी, बेटा!'

'हाँ काका! इतनी रोटियां बन गयीं कि तुम दो दिनों तक ग्रहण करते रहो, फिर भी समाप्त न हो।'

'मूर्खतापूर्ण बातें न कर। मैं सारी रोटियाँ खा जाऊँगा...शीघ्र ला...अब विलम्ब न कर।'

'आज तुम प्रसन्न हो जाओगे, काका। पता है, मड़ुआ की रोटियों पर घी टाँस कर लगाया है मैंने...और भोजनोपरांत तुम्हारे गले को तर करने के लिए ढाई सेर घी अलग से गर्म करके रख दिया है।'

विजयमल्ल की लार-ग्रंथियां झिलमा की बातों से लबलबाने लगीं। होठ चाटता विजय चिल्लाया-'अरे मूर्ख! ग्रहण भी कराएगा या बातों से ही तरसाएगा? जा भागकर ला।'

हँसता हुआ झिलमा भागा और झट भोजन से भरा विशाल परात लेकर लौटा। घी से चुपड़ी हुई मड़ुआ की रोटियों की सोंधी-सोंधी सुगंध और घी की टाँस विजयमल्ल की नासिका में भर गयी। जिसप्रकार भूखा वनराज अपने शिकार पर झपटता है, वैसे ही विजयमल्ल झिलमा की रोटियों पर झपटा।

विजयमल्ल की क्षुधाग्नि में नित्य रोटियां झोंकने के अभ्यस्त झिलमा को उस समय आश्चर्य हुआ, जब वास्तव में रात्रिकालीन भोजन के लिए बनी सभी रोटियों का भी भोग लगाकर विजयमल्ल शांत हुआ।

'पेट भरा काका या मड़ुआ की बोरी लाकर खोलूं?'

झुंझलाकर झिलमा ने पूछा तो खींसें निपोड़ते विजयमल्ल ने कहा-'अरे क्रोध क्यों करता है? तू तो मेरा अन्नपूर्णा बेटा है, झिलमा...! जा, जाकर घी ले आ...तूने कहा था न...ढाई सेर घी टाँसकर रखा है। जा ले आ बेटा! पेट तो भर गया, परन्तु गला सूख रहा है... शीघ्र ले आ...तबतक मैं ब्रह्मपुत्र के जल से अपने गले को तर करता हूँ।'

झिलमा को लगा सर पीट ले अपना, परन्तु पीटने का अवकाश कहाँ? घी लाने दौड़ना पड़ा उसे।

सूर्योदय के समय कामरूप के घाट पर नदी-यात्र का समापन हो गया। नौका पर ही खड़े होकर कुँवर ने दोनों हाथ जोड़ नेत्र बंद कर लिये-'हे कमला मैया!' कुँवर ने प्रसन्न होकर कहा-'जिसप्रकार तुमने निर्विध्न इस विकट-यात्र को पूरा किया, वैसे ही माता, मेरे संकल्प को पूर्ण करना।'

मन ही मन कमला मैया को प्रणाम कर उसने माता की स्तुति की, फिर नेत्रों को खोल कामरूप की भूमि को प्रणाम किया।

'अब विदा की घड़ी आ गयी, मित्रो! मेरा उपहार स्वीकार करो और शीघ्र भरोड़ा पहुँचकर मेरे सकुशल यात्र-समापन की सूचना देकर गुरुवर मंगल को चिन्तामुक्त करो।'

यह कहकर कुँवर ने दो स्वर्ण-मुद्राएँ दोनों की ओर बढ़ायीं। कुँवर की दायीं हथेली पर रखी स्वर्ण-मुद्राएँ सूर्य की परावर्तित किरणों से चमकने लगीं। परन्तु विजयमल्ल और झिलमा की ओर प्रसन्न कुँवर ने जब दृष्टि उठायी तो उनके नेत्रों में स्वर्ण-मुद्रा की चमक के स्थान पर घोर उदासी देख चौंक पड़े।

'क्या हुआ मित्र? उपहार में कोई खोट है अथवा यह पर्याप्त नहीं?'

दोनों की आँखें सजल हुईं और फिर बांध टूट गया जैसे। दोनों रोते हुए कुँवर के आगे नतजानु हो गये।

'मस्तक उठाकर विजयमल्ल ने कहा-' हमसे अपराध हुआ हो अथवा सेवा में हमसे त्रुटि हो गयी हो तो अपना दास समझ हम पर कृपा करें स्वामी...! हमें क्षमा कर दें! परन्तु, यों हमें त्यागकर लौटने का आदेश न दें, स्वामी! '

'हाँ मालिक! इस झिलमा को भी अपनी सेवा से दूर न करें प्रभु! आपको अकेला छोड़कर हम कहीं नहीं जाएँगे?'

यह नवीन समस्या उपस्थित हो गयी थी।

मंगलगुरु ने दोनों को स्पष्ट निर्देश दिया था कि कामरूप के घाट पर कुँवर को सकुशल उतार शीघ्र लौटकर उन्हें सूचित किया जाए. परन्तु, दोनों ने गुरु निर्देश की अवहेलना कर व्यर्थ हठ ठान लिया था।

'उठो...तुम दोनों उठकर खड़े हो जाओ...और ध्यान से मेरी बात सुनो।'

आदेश का तत्काल पालन हुआ।

कर जोड़े दोनों खड़े हो गये तो कुँवर ने समझाते हुए कोमल वाणी में कहा-

'तुमलोगों का कर्त्तव्य सफलतापूर्वक सम्पन्न हो गया। तुम्हारे सेवा-कर्तव्य का यह मूल्य नहीं, उपहार है मेरा। इसे स्वीकार करो और मेरी बात सुनो। लो...!'

कुँवर केे हाथ से दोनों ने दृष्टि फेर ली तो कुँवर ने कठोरता से कहा-'मेरे आदेश की अवज्ञा करोगे?'

'नहीं स्वामी! यह पाप हमसे कदापि संभव नहीं। हम इसे स्वीकार कर अपनी माई के पूजा-स्थल पर रख देंगे स्वामी, परन्तु दास की एक ही विनती है, हमारा त्याग न करें। यहीं से यात्रियों की, व्यापारियों की नौकाएँ जाती रहती हैं। गुरुदेव तक संदेश अवश्य पहुँचेगा स्वामी! हमें साथ ही रहने दें!'

'यह संभव नहीं है, मित्र!'

'हम आप पर भार नहीं बनेंगे, स्वामी। अपनी नौका यहीं चलाकर दोनों बाप-बेटा इस पापी पेट का निर्वाह कर लेंगे।'

'बाप-बेटा?' विस्मित हो पूछा कुँवर ने।

'हाँ स्वामी। यह झिलमा खबास मेरा पुत्र बन चुका है। इसे अब झिलमा मल्ल कहिये स्वामी।'

इस विषम परिस्थिति में भी कुँवर हँस पड़े। हँसते हुए ही कुँवर ने विजयमल्ल की कठोर हथेली को अपनी नरम हथेली से थामकर कोमल स्वर में कहा-'ज्ञात तो था ही, परन्तु आज मैंने प्रत्यक्ष देख लिया मित्र। तुम यथार्थ में हमारे अंचल के अमूल्य-रत्न हो। तुम्हारे कठोर तन के अंदर फूल से भी कोमल और ओस की बूंदों से भी पवित्र हृदय छिपा है। आओ मित्र! तुम्हें गले लगाकर मैं भी पवित्र हो जाऊं।'

कहते ही कुँवर दयाल का सुकोमल तन काली चट्टान सदृश भीमकाय शरीर से लिपट गया।

'इतना मान?' विजय ने रोते हुए कहा 'रुलाने का ही सोच लिया है स्वामी तो लीजिये आपका दास भी रो ही देता है।'

'देखो मित्र!' अलग होकर कुँवर ने कहा 'मेरी यात्र गुप्त है। भेद खुल जाने पर मेरी सफलता संदिग्ध हो जाएगी और तुम दोनों कदाचित् मेरे प्रयोजन में बाधा उत्पन्न नहीं करना चाहोगे। तुमसे कर जोड़ कर विनती करता हूँ मित्र! मुझे विदा करो।'

अब न कुछ कहने को शेष रहा, न करने को। अश्रुपूरित नेत्रों से विजयमल्ल और झिलमा खबास उर्फ झिलमामल्ल ने कर जोड़ कर कुँवर को विदाई दे दी।

परिधान के परिवर्तन से क्या अंदर का स्वरूप छिप सकता है?

तभी तो साधारण यात्री के परिधान में भी कुँवर को देखकर पंडा शोभितसारंग की आँखों में चमक आ गयी।

अतिथि सामान्य नहीं, विशेष है। कुँवर के लिए अपना सबसे सुसज्जित कक्ष प्रस्तुत कर वह सादर खड़ा हो गया।

नाटे कद का शोभित सारंग सांवले रंग-रूप का, स्थूल शरीर वाला वृद्ध पंडा था। उसका उदर कसकर बांधे गये श्वेत-झक्क् धोती के बंधनों से संघर्ष करता गुब्बारे की भांति आगे की ओर निकलने को व्यग्र था। उसकी मोटी भौंहों के नीचे छोटी-छोटी दोनों आँखें बड़ी चमकीली थीं। तन पर रेशमी परिधान और भाल पर त्रिपुण्ड।

कुँवर ने मुस्कराते हुए जब उसकी लपलपाती हथेली पर एक स्वर्ण-मुद्रा रख दी तो उसके मोटे होंठ प्रसन्नता से खिल गए और आँखों की चमक और भी बढ़ गयी।

'मैंने तो आपको देखते ही पहचान लिया था, यजमान!' मुस्कराते हुए पण्डा ने कहा-'आप अन्य यात्रियों की तरह कृपण नहीं...दाता हैं हमारे। आप जैसे दया-धर्म के दानी-पालक का ही आसरा है, अन्यथा इस कलयुग में तो जीना ही दूभर हो गया है, श्रीमान्। ...यात्री आते हैं, सुखपूर्वक कई मास निवास करते हैं, परन्तु, जाते समय उनका बटुआ ही खाली हो जाता है...तो मुझे क्या देंगे? कइयों को तो लौटने का मार्ग-व्यय तक देना पड़ जाता है, दानी...परन्तु आपके आगमन ने इस धर्मशाला को आज धन्य कर दिया। शुभ आगमन कहाँ से हुआ है भगवन?'

योगी, भोगी और रोगी अपने नेत्रों से ही पहचाने जाते हैं।

कुँवर ने इस बातूनी पंडे की चमकती चतुर-आँखों में लालच की स्पष्ट झलक देखकर, एक अतिरिक्त स्वर्णमुद्रा बढ़ाते हुए कहा-'रमता योगी और बहता पानी का न कोई देश होता है, न स्थान। आप तो स्वयं ज्ञानी हैं, महाराज! क्या और अतिरिक्त निवेदन की आवश्यकता शेष है, श्रीमान?'

'नहीं कृपानिधान!' दोनों कर जोड़कर पंडा शोभित सारंग ने विनयावनत् मुद्रा में खड़े होकर कहा, 'बस इतनी कृपा और करें पालनहार कि भोजन-आतिथ्य स्वीकार कर मुझे कृतार्थ करें, प्रभो!'

शोभित सारंग की रसोई को कृतार्थ कर कामरूप-कामाख्या मंदिर के प्रांगण में उपस्थित हो, आदि शक्ति को नमन कर कुँवर उसी प्रांगण में सुखपूर्वक बैठ गया।

वास्तव में, यह शक्ति-पीठ पूर्णरूपेण जाग्रत था। उसके परिसर में अपूर्व शांति का प्रत्यक्ष आभास हुआ कुँवर को। उसकी इच्छा हुई, वह वहीं पद्मासन में बैठ ध्यानस्थ हो जाए. अभूतपूर्व आनंद का क्षेत्र था यह। माँ की ऊर्जा समस्त प्रांगण में विसर्जित हो रही थी। आसन में बैठते ही ध्यान में उसका सहज प्रवेश हो गया।

उसके नेत्र खुले तो अपराद्द के सूर्य देवता अपने तीक्ष्ण ताप की वर्षा कर रहे थे। झुलसाने वाली तप्त हवाओं के मध्य प्रसन्नचित्त कुँवर मंदिर की सीढ़ियों से उतरने लगा। सफल ध्यान के समापन से उसका हृदय तप्त वातावरण में भी अति शीतल था।

कुँवर ने देखा-सीढ़ियों के नीचे भूमि पर लोगों की भीड़ एकत्र है। सीढ़ियों की ऊँचाई के कारण उसने भीड़ से घिरी एक अति कुरूप, रोग से जर्जर थरथराती बुढ़िया को देखा। वह हाथ जोड़कर कदाचित् कुछ प्रार्थना कर रही थी।

शीघ्रतापूर्वक सीढ़ियां उतर वह बुढ़िया के समीप जा पहुँचा। कुँवर ने देखा बुढ़िया के अंग-प्रत्यंग में कुष्ठ फूट पड़ा था। उसका रोम-रोम दुर्गन्ध-युक्त पीब से भरा था। बुढ़िया पर दयार्द्र हो कुँवर ने लोगों से कहा-'इस अति बीमार, दुर्बल वृद्धा की सहायता में आप समर्थ नहीं, तो कृपया इसे यों प्रताड़ित न करें। आपसे मैं प्रार्थना करता हूँ, कृपया शांत हो जाएँ!'

'क्यों भाइयो! लगता है धर्मराज के अवतार पधारे हैं हमारे अंचल में।'

'अरे नहीं, यह इस बुढ़िया का कोई सगे-वाला ही है, अन्यथा ऐसी घृणित बुढ़िया के लिए इतना उतावला न होता।'

जितने लोग, उतनी बातें। कोई व्यंग्योक्ति का प्रहार करता तो कोई आश्चर्य व्यक्त करता!

'बोल माँ-मैं तुम्हारी क्या सेवा करूँ?'

कुँवर के इस प्रकार कहने पर वह अत्यंत घृणित बुढ़िया हँस पड़ी। हँसते हुए ही उसने कहा-'जिसपर दृष्टि पड़ते ही सारे जन घृणा से मुँह फेर लेते हैं, तुमने उससे इस प्रकार कह भर दिया, यही बहुत है, पुत्र! जा अपनी राह पकड़। मेरी सहायता महामाया के अतिरिक्त और कोई नहीं कर सकता।'

'नहीं माँ! मैं तुम्हें यों अकेली और विकल नहीं छोड़ सकता। तू कहे तो मैं तुम्हारी सेवा-सुश्रूषा करूँ अथवा तेरी अन्य कोई इच्छा हो तो उसे पूर्ण करूँ?'

'मेरी इच्छा पूर्ण करेगा तू?'

'आज्ञा दे माँ!'

'तो ठीक है...देखती हूँ मैं भी। फलित कुष्ठ की पीड़ा सूर्य के इस असह्य तपन ने और भी बढ़ा दी है, पुत्र! क्या मुझे ब्रह्मपुत्र के शीतल जल में स्नान करा सकता है तू?'

'अवश्य माँ...! यह कौन-सी बड़ी बात है...चल मेरे साथ। मैं अभी तेरी इच्छा पूरी करता हूँ।'

'यही तो कष्ट है पुत्र...! मैं स्वयं चल भी नहीं सकती। मुझे गोद में उठाकर चल सकता है तो कह?'

प्रत्युत्तर न देकर कुँवर ने बुढ़िया को अपनी गोद में झट उठा लिया।

राहजनों के आश्चर्य की सीमा न रही। कुँवर अपनी गोद में बुढ़िया को उठाये तीव्र गति से ब्रह्मपुत्र की दिशा में जा रहा था और उत्सुक भीड़ उसके पीछे-पीछे चल रही थी। ब्रह्मपुत्र के पास पहुँचते-पहुँचते भीड़ की संख्या और भी बढ़ गयी।

लोगों में तरह-तरह की कानाफूसी चल रही थी, परन्तु अधिकांश लोगों की दृष्टि में कुँवर के प्रति श्रद्धा और आदर के भाव उत्पन्न हो चुके थे।

बुढ़िया को गोद में लिये कुँवर ब्रह्मपुत्र की शीतल जलधारा में उतर गया तो उसकी प्रशंसा करती भीड़ भी छँटने लगी।

'तुम्हारा कल्याण हो पुत्र!' जलधारा के मध्य बुढ़िया ने कहा-'मैं जान गयी हूँ, तुम इस उग्र जलधारा को पार करने में भी समर्थ हो। मुझे उस पार ले चलो पुत्र!'

'जो आज्ञा माँ! कहकर देखते-ही-देखते बुढ़िया को पकड़े कुँवर ब्रह्मपुत्र की विशाल छाती पारकर दूसरे तट पर जा पहुँचा।'

पार पहुँचकर बुढ़िया प्रसन्न हो गयी।

'तू मुझपर प्रसन्न है तो अपनी सेवा का अवसर देकर मुझे संतुष्ट कर।' कुँवर ने बुढ़िया को निर्जन तट पर बैठाकर कहा।

'तू क्या वास्तव में मुझे रोग-मुक्त करने की अभिलाषा रखता है?'

'हाँ माँ।'

'तो सुन! रहस्य खोलती हूँ। मैं एक शापित-बुढ़िया हूँ। सिद्ध के शाप ने मुझे कुष्ठ रोग से ग्रस्त कर दिया है।'

'ऐसा है तो शाप-मुक्ति की भी प्रक्रिया अवश्य होगी, माँ!'

'अवश्य है! परन्तु उसे सुनते ही तू तत्काल भाग खड़ा होगा।'

बुढ़िया की चेतावनी पर कुँवर हँस पड़ा-'तू बता तो सही।'

'हठ करता है तो सुन। सिद्ध ने कहा है-कोई अन्य, तेरा रोग स्वीकार ले तो तू तत्काल शापमुक्त हो जाएगी। अब तू ही बता, कौन लेगा मेरा यह कुष्ठ? क्या तू ले सकता है?'

बुढ़िया की बात समाप्त होने के पूर्व ही कुँवर ने खड़े होकर अपने नेत्र बंद कर लिये तथा दोनों कर जोड़कर उच्च स्वर में कहा-'मैं सूर्य-देव के साक्ष्य में अपने गुरु और माता-पिता की सौगंध लेकर तुम्हारे शाप को इसी क्षण धारण करता हूँ।'

यह कहकर उसने प्रसन्नतापूर्वक अपने नेत्र खोले तो उसके नेत्र खुले ही रह गये। कुष्ठ-पीड़ित घृणित बुढ़िया के स्थान पर अत्यंत तेजस्वी देवी खड़ी मुस्कुरा रही थी।

कुँवर ने तत्काल अपने शरीर को देखा। शरीर को पूर्ववत् देख हतप्रभ हो गया।

'यह क्या लीला है माँ? कौन हो तुम?'

उस अनिंद्य सुंदरी के रक्ताभ अधरों पर स्निग्ध मुस्कान बिखरी। मृदुल वाणी में उसने कहा-'मैं कौन हूँ, यह जानने की तुम्हें आवश्यकता नहीं है पुत्र! परन्तु मैंने तुम्हें अवश्य जान लिया है। इस अंचल में आने का तुम्हारा प्रयोजन भी मुझसे छिपा नहीं है। कहो तो तत्काल तुम्हारे चक्रों का जागरण क्षणांश में मैं कर दूं...परन्तु, गुरु-आज्ञा मानकर षट्चक्र-नृत्य के माध्यम से ही यह महान कार्य तुम्हारे लिए उचित है; क्योंकि ज्ञान हो अथवा पुण्य... स्वयं द्वारा उपार्जित ही श्रेयस्कर होता है पुत्र! अब तुम सुखपूर्वक जाओ...मेरा आशीर्वाद सदा तुम्हारे साथ है। प्रतिपल तुम्हारी रक्षा अब मेरा कर्तव्य है पुत्र!'

'मुझ पर प्रसन्न हो तो माते! इतनी अनुकम्पा और करो। मुझे विस्मित कर अपना परिचय न छिपाओ.'

'मुझे माता कहा है तुमने और मैंने तुम्हें पुत्र स्वीकार लिया, क्या इतना परिचय पर्याप्त नहीं है पुत्र?'

'पर्याप्त है माता!'

'तो अब जाओ पुत्र...! ब्रह्मपुत्र की धारा को सूर्यास्त के पूर्व पार करो!'

कहकर उस दिव्य स्त्री ने आशीर्वाद की मुद्रा में अपनी दाहिनी हथेली ऊपर उठा दी।

कुँवर का यश अग्नि की भाँति समूचे अंचल में व्याप्त हो गया।

राह चलते लोग उसे अत्यंत श्रद्धा से निहार प्रणाम करते। पंडा शोभित सारंग पूर्व में धन के लालच में चाटुकारिता करता था, परन्तु अब उसकी भी दृष्टि परिवर्तित हो गयी थी।

कामाख्या-मंदिर में देवी आराधना के पश्चात् वह नित्य ध्यानस्थ हो पद्मासन में मग्न रहने लगा। कामाख्या-मंदिर के पुजारियों का भी वह स्नेह-पात्र बन चुका था।

अंततः कार्त्तिक अमावस्या का दिवस आया। इस रात्रि की प्रतीक्षा में उसने एक-एक दिवस व्यग्रतापूर्वक व्यतीत किया था। प्रातःकाल ही नित्य कर्म से निवृत्त हो उसने ब्रह्मपुत्र की निर्मल धारा में स्नान किया। कामाख्या-मंदिर में पूजा-अर्चना कर कुँवर ने नवीन पीताम्बर धारण किया तथा ऊपर से लाल रेशमी दुपट्टा बाँधकर वहीं संकल्प लिया कि अर्द्धरात्रि तक वह वहीं पद्मासन में ध्यानस्थ रहेगा।

अर्द्ध रात्रि के पूर्व कामाख्या मंदिर के प्रांगण में अपूर्व सुन्दरी कामायोगिनी की घुंघरूयुक्त पदचाप की झन झनन नन ध्वनि वातावरण को मोहित करती गूंजी. कमर लचकाती कामायोगिनी के संग उसका प्रिय मृदंग-वादक हरिहर मृदंग थामे कामायोगिनी के पीछे भूमि पर दृष्टि डाले अपने पग बढ़ा रहा था।

मृदंग-वादन में अद्वितीय हरिहर कामायोगिनी की अपूर्व सुन्दरता पर समर्पित था, परन्तु भूलकर भी कभी अपनी दृष्टि उस अपूर्व सुन्दरी के मुख पर नहीं डालता। कामायोगिनी पर जिस किसी की भी कामुक दृष्टि पड़ती, तत्काल उसका विनाश निश्चित था। प्रागज्योतिषपुर के समस्त अंचलों में इस रहस्य को सभी जानते थे, इसीलिये कामाख्या-मंदिर के खुले प्रांगण में जब वह सुन्दरी, कार्तिक अमावस्या की अर्द्ध रात्रि में उन्मुक्त नृत्य करती तो सम्पूर्ण प्रांगण जनशून्य रहता।

हरिहर की स्थिति बड़ी विचित्र थी। अपूर्व सुन्दरी अक्षत-यौवना कामायोगिनी के रूप का चुम्बकीय आकर्षण ही इतना तीव्र था कि दृष्टि उठी नहीं कि जा चिपकी... और बेचारा हरिहर! मृदंग-वादन में उसकी अद्वितीय निपुणता ही उसके दुर्भाग्य का कारण बनी। प्रत्येक कार्त्तिक अमावस्या को रात्रिपर्यन्त उसे ही कामायोगिनी के नृत्य पर मृदंग बजाना पड़ता। ऐसी अवस्था में वादक की दृष्टि तो नर्तकी पर गड़ी ही रहेगी...और जगत में ऐसा कौन प्राणी है, जो इस योगिनी को देख मुग्ध न हो जाए?

बेचारा हरिहर! अंतस् में रोता-कलपता योगिनी के पग-ताल पर ताल मिलाता पग पर ही दृष्टि गिराये मृदंग बजाता रहता।

ऐसा ही निरीह प्राणी था सुन्दरी कमायोगिनी का अद्भुत मृदंग-वादक, जो नर्तकी के घुंघरू-युक्त पग निहारता, सकुचाता-डरता हुआ-सा, छोटे-छोटे पग उठाता, पीछे-पीछे चला आ रहा था।

इसी क्षण मदमाती कामायोगिनी के घुंघरू-युक्त मदमस्त पग अनायास रुक गए. मद-भरी उसकी आँखें उस तेजस्वी युवक की मुखाकृति पर जा ठहरीं, जो उस निस्तब्ध प्रांगण में पद्मासन लगाये बैठा था।

कामायोगिनी के अंतस में प्रथम बार काम का प्रहार हुआ। यह तो साक्षात् कामदेव ही है! पुरुष-सौंदर्य की पराकाष्ठा! उसने आज तक किसी पुरूष में ऐसा सौंदर्य नहीं देखा था।

रूपगर्विता कामायोगिनी तत्काल उसपर आसक्त हो गयी।

'हरिहर! तनिक देखो तो, कौन है यह युवक? जीवात्मा में यह अद्भुत सौन्दर्य और तेज तो कदापि संभव नहीं...फिर कौन है यह? इसका प्रभामण्डल प्रमाण है कि यह प्रेतात्मा भी नहीं, तो फिर यह अवश्य कोई देवात्मा ही है हरिहर!'

हरिहर ने दृष्टि झुकाये कहा-'मैं अज्ञानी क्या जानंू? आप ही पूछ लें।'

कामायोगिनी कुछ सोचकर मंद-मंद मुस्कुरायी। उसने सोचा यह जो कोई भी है, कामाख्या माता की प्रेरणा से ही इस घड़ी यहाँ उपस्थित है।

कामायोगिनी ने माता को प्रणाम कर कहा-' हरिहर! इसी स्थल पर नृत्य करूंगी मैं...मृदंग सम्हाल कर तुम यहीं बैठो। आज देखना मेरा अपूर्व नृत्य... परन्तु सावधान! मेरे द्रुत पग पर तुम्हारे मृदंग का ताल भंग न हो...सचेत रहना।

कहते ही कामायोगिनी ने षट्चक्र-नृत्य का आरंभ ही इतने द्रुत ताल पर किया कि हरिहर की आत्मा काँप गयी। यह तो षट्चक्र के समापन का दु्रत ताल है। यह क्या किया कामायोगिनी ने? नृत्य की प्रारंभिक गति यह है तो मध्य क्या होगी...और समापन की गति तो वह सोच ही न पाया।

माता की प्रेरणा से इसी घड़ी कुँवर के नेत्र खुले। हरिहर के मृदंग की ताल और कामायोगिनी का अद्भुत षट्चक्र-नृत्य। नर्तकी को उसने शीश नवाकर शिष्यवत् प्रणाम किया और हरिहर के ताल के साथ मगन हो अपनी हथेलियों से ताल मिलाने लगा।

कुँवर को यों ताल मिलाते देख कामायोगिनी के हर्ष का कोई पारावार न रहा। नृत्य के चक्रों की गति और भी द्रुत हो गयी। काँप गया हरिहर। उसके ताल टूटे अथवा हाथ रुके... तो सर्वनाश निश्चित है। अब वह करे क्या? इस द्रुत गति से मृदंग-वादन क्या संभव है...यदि संभव हो भी तो कितनी घड़ी? ...अभी तो अर्द्धरात्रि शेष है... और क्या पता...यह अमानवीय सामर्थ्य की धनी नर्तकी ने गति और तीव्र कर दी तो? -'रक्षा करना माँ...!' कहकर प्राणपण से हरिहर मृदंग-वादन में तल्लीन हो गया।

रात्रि का प्रथम प्रहर बीत चुका था, परन्तु पंडा की आँखों की नींद उड़ी हुई थी। उसका अतिथि अनुपस्थित था। उसे शंका हो रही थी। वह अवश्य इस घड़ी कामाख्या-देवी के मंदिर में ही होगा। जबसे उसने इस अपूर्व तेजस्वी युवक को देखा था, तभी से उसके व्यक्तित्व के रहस्य में वह डूबा हुआ था। यह कोई साधारण प्राणी नहीं, ऐसा आभास तो उसे प्रारंभ से ही था। परन्तु जब से कुष्ठग्रस्त उस बुढ़िया को उसने अपनी गोद में ले जाकर ब्रह्मपुत्र में स्नान कराया था, तभी से उसे विश्वास हो गया था-कि उसके अतिथि जैसे दीखते हैं, वैसे वे हैं नहीं।

आज कार्त्तिक की अमावस्या है। आज ही अर्द्धरात्रि में अनिद्य सुन्दरी कामायोगिनी कामाख्या माता के प्रांगण में नृत्य करेगी।

अनायास वह आशंकित हुआ।

अतिथि की दृष्टि यदि कामायोगिनी पर पड़ गयी तो क्या होगा? देवी रक्षा करें उनकी!

तत्काल शय्या त्याग वह उठ खड़ा हुआ। चंदन की लकड़ी वाली पिटारी खोलकर उसने दोनों स्वर्ण-मुद्राएँ निकालीं। जलते दीपक के पास आकर दोनों स्वर्णमुद्राओं को देखा...फिर मुदित हो देर तक उसे निहारता ही रहा।

'हे देवी! रक्षा करना...! ये सुरक्षित रहें तो जाते-घड़ी कदाचित् और दया कर जाएँ।' कहकर उसने देवी को प्रणाम किया। स्वर्णमुद्राएँ उसी पिटारी में पुनः रख शय्या पर लौटा।

परन्तु बारंबार नेत्र बंद करने के पश्चात् भी निद्रा न आयी। उसकी अंतरात्मा कहती थी कि वह अतिथि के रक्षार्थ तत्काल उठकर कामाख्या-मंदिर जा पहुँचे, परन्तु भयभीत मस्तिष्क उसे रोक देता।

अंत में, उसने अंगुलियों को ज्ञानमुद्रा की आकृति देकर नेत्र बंद कर लिये। अनिद्रा की स्थिति में पंडा के पास यही विकल्प था।

मृदंग पर थाप देती हरिहर की अंगुलियों के पोर-पोर फट गये। मृदंग के दोनों कोरों से बहता रक्त भूमि पर पसरने लगा, उसकी चेतना डूबने लगी और हरिहर की स्थिति से अनभिज्ञ कामायोगिनी नृत्य में उन्मत्त हो चक्रों को और भी द्रुत करती जा रही थी।

कुँवर की चिंतित दृष्टि हरिहर की रक्तिम अंगुलियों पर जा ठहरी। तभी उसने देखा मृदंगवादक चेतनाशून्य होता जा रहा है।

और मृदंग मौन हो गया।

परंतु, अंतिम चक्र तो शेष था!

अधूरे नृत्य का अर्थ था-नृत्य की असफलता। काँप गयी कामा। क्या होगा अब? परंतु उसी क्षण मृदंग पुनः बजने लगा। कुँवर की अंगुलियों ने हरिहर के मृदंग को तत्काल सम्हाल लिया था।

मदमस्त हो पुनः नाचना प्रारंभ किया उसने।

उसकी गति द्विगुणित हो गयी। कुँवर के ताल भी द्विगुणित हो गये। कामायोगिनी के चक्र और तीव्र होते गये। कुँवर की अंगुलियाँ और द्रुत होती गयीं।

कार्तिक अमावस्या की निस्तब्ध रात्रि ढलती जा रही थी और कामायोगिनी उन्मादिनी हो नृत्य की गति तीव्र से तीव्रतर करती जा रही थी।

कामायोगिनी के सुलझे केश बिखर गये थे। केश के शृंगार में टँके आभूषण भूमि पर खुल कर बिखर रहे थे। श्वेद-बूंदों के कारण उसकी मुखाकृति चमक रही थी। वस्त्र अस्त-व्यस्त होने लगे। श्लथ-श्रांत होती नर्तकी किसी भी क्षण भूमि पर धराशायी होने ही वाली थी। परंतु कुँवर आनंदविभोर हो मृदंग बजाता जा रहा था और तभी थककर चूर कामायोगिनी के एकाएक भूमि पर गिरते ही कुँवर ने जो अंतिम थाप मारी तो मृदंग की चमड़ी ही फट गयी।

भूमि पर लेटी कामायोगिनी का उन्नत वक्ष श्वास के आरोह-अवरोह में बारंबार ऊपर-नीचे हो रहा था। कुशलतापूर्वक गुंथे केश खुलकर बिखर गये थे। शिष्य-भाव से भरा कुँवर दयाल सिंह अपनी गुरु के निमित्त प्रणम्यमुद्रा में विनीत भाव से बैठा था।

दो घड़ी व्यतीत होने के उपरांत श्रम से विश्रांत कामायोगिनी स्थिर हो उठी। विनयावनत मुद्रा में दृष्टि झुकाये कुँवर शांतचित्त बैठा था। मृदंगवादक हरिहर का अचेत शरीर भूमि पर पड़ा था। उसकी विक्षत अंगुलियों से तब भी रक्त प्रवाहित हो रहा था और फटा हुआ मृदंग दूसरी ओर भूमि पर उपेक्षित लुढ़का था।

कामायोगिनी खड़ी होकर कुँवर के सौंदर्य को नेत्रों से निर्निमेष निहार कामाख्या देवी के पास जा पहुँची। देवी को नतमस्तक हो प्रणाम कर उसने प्रार्थना की।

'हे देवी...आदि-शक्ति! इस जगत में तुम्हारी ही प्रेरणा से सृष्टि होती है। तू ही अपनी कृपा से जीवों का पालन करती है और तू ही इच्छानुसार सृष्टि को विनष्ट कर, पुनः उसकी रचना से आनंदित होती है। प्रेतात्मा, जीवात्मा और देवात्मा-सब तुम्हारे ही अंश हैं, माते! यह समस्त लीला तुम्हारी ही है। मैं अज्ञानी, तुम्हारी क्रीतदासी, तुम्हारी ही प्रसन्नता हेतु तुम्हारी विद्या-तुम्हें अर्पित करती आ रही हूँ। यदि तू मुझ पर प्रसन्न है माते, तो आज मेरी अभिलाषा पूर्ण कर देवि! मैं इस अनजाने युवक का वरण करना चाहती हूँ, देवि! अपना प्रेम, सौंदर्य और युगों से सम्हालकर रखा अपना अक्षत यौवन इस युवक पर न्योछावर कर मैं स्वयं को तृप्त करूँगी...युगों-युगों की मेरी प्यास बुझा दे माँ...बुझा दे...!'

प्रार्थना के उपरांत कामायोगिनी ने नतजानु होकर माँ से आशीर्वाद की आकांक्षा की। तदुपरांत उठकर धीरे-धीरे पग उठाती अपने ' प्रिय के समीप आयी।

कुँवर पूर्ववत् विनीत बैठा था। गुरु को समीप खड़ी देख आदरपूर्वक वह उठा और पुनः दोनों कर जोड़ दिये।

'मुझ जैसी अक्षतयौवना के इतने समीप खड़े तुम जैसे पूर्ण युवक से मैं इसप्रकार विनय की अपेक्षा नहीं करती।' कामासक्त कामायोगिनी ने नेत्रों से मद छलकाते हुए कहा-'तुम्हारी मूंछें भी ठीक से अभी तक निकली नहीं हैं, फिर भी तुम्हारे सुगठित शरीर-सौष्ठव और सम्मोहित कर लेने वाले तुम्हारे तेजस्वी पुरुषोचित सौंदर्य पर मैं मुग्ध हूँ, युवक! वय में मैं तुमसे युगों बड़ी हूँ...परंतु दृष्टि उठाकर मेरा निरीक्षण करो...! मैं आज भी षोडषवर्षीय यौवना के सदृश हूँ, प्रिय! ... और युग-युगांतर तक माता की कृपा से ऐसी ही रहूँगी...एक बार मुझे दृष्टि भर कर निहारो, प्रियतम! जगत की समस्त सुख-संपदा तुम्हारे पग चूमेंगे और मैं तुम्हारी समर्पिता बनकर तुम्हें निहाल कर दूंगी। मैं कामायोगिनी, आज तुम पर आसक्त होकर तुम्हारी याचिका बनी तुम्हारे समक्ष उपस्थित हूँ। युगों-युगों की काम-प्यासी अपनी दासी की काम पिपासा आज शांत कर दो प्रियतम! शांत कर दो।'

'हे माते! फिर से कैसी परीक्षा ले रही हो तुम?'-कुँवर ने नेत्र बंद कर प्रार्थना की।

'किस विचार में मग्न हो गए प्रिय? देखो...माता कामाख्या हमें ही निहार रही हें। इनकी आज्ञा लेकर ही तुम्हारे समक्ष याचना करने आयी हूँ मैं।'

'देवी!' आंखें खोलकर कुँवर ने कहा-'मेरे दुर्भाग्य ने आपको भ्रांत कर दिया है। मैं तो आपके द्वार पर शिष्य बनकर आया हूँ, यदि मुझ पर प्रसन्न हों तो कृपा करो मुझ पर। मैं तुम्हारा पुत्रवत्-शिष्य बनकर विशेष अभिलाषा लिये सुदूर अंचल से आया हूँ! मुझ पर कृपा करो और शिष्य को दीक्षित कर कृतार्थ करो।'

कामायोगिनी की चेतना पर तुषारापात हो गया।

विस्मित दृष्टि से युवक को निहारती उसने विनोदपूर्ण स्वर में कहा-'मुझ जैसी अक्षतयौवना का शिष्य बनकर क्या करोगे योगी?'

'षट्चक्र-नृत्य की शिक्षा!'

'अच्छा! क्या करोगे इसे जानकर?'

'सुप्त चक्रों के जागरण हेतु, देवी!'

कुँवर की अभिलाषा सुनते ही खिलखिलाकर हँस पड़ी वह। हँसते हुए ही उसने कहा-'इन चक्रों के जागरण का परिणाम भी जानते हो, योगी?'

'ज्ञात है माता!'

'मिथ्याभाषण मत करो! जिसे स्वयं जाना जाए, वही ज्ञात होता है। सत्य वही है, जो स्वयं जाना जाए. शक्ति-जागरण का प्रथम परिणाम है अपनी निजता का साक्षात्कार और इस साक्षात्कार का परिणाम है-शून्य में प्रवेश। तुम्हारी अपनी सत्ता, निजता और चेतना, उस शून्य के सायुज्य में विलीन हो जाएगी प्रिय! ...क्या तुम स्वयं को खो देना चाहते हो? तुम्हारा मनोरथ अवांछित है। माता आदि शक्ति ने सृष्टि की रचना इसलिए नहीं की कि सृष्टि के प्राणी प्रलय के पूर्व ही अपने अंश से बलात् मुक्त हो जाएँ और तुम तो अभी पूरी तरह युवा भी नहीं हुए. जीवन के रस का आस्वादन भी कदाचित् तुम्हें प्राप्त नहीं हुआ। जीवन-रस के विन्यास से तृप्त हो लो, फिर संन्यास लेना। आओ! मेरी कोमल बाँहों की परिधि में सिमट मुझे अपनी सशक्त भुजाओं में जकड़ लो प्रिय!'

'यों मेरी अग्नि-परीक्षा मत लें, देवी. मैं अपनी गुरु-आज्ञा के अधीन, अपने परिजनों के कल्याणार्थ आपके पास उपस्थित हुआ हूँं। मैं विवाहित हूँ, देवी! तथा एकपत्नीव्रत से भी बँधा हूँ। मेरी नवविवाहिता की अश्रुपूर्ण आँखें मेरी प्रतीक्षा में मेरा पथ निहार रही हैं। मुझ पर दया करो देवी! कृपया शिष्य रूप में मुझे स्वीकारो!'

काम के आवेग से तप्त कामायोगिनी सहसा क्रोधित हो गयी। जिसके सौंदर्य की दीप्ति में पुरुष पतंगे की भाँति भस्म होने को लालायित रहते हैं, इस क्षण वही सौंदर्य-दीप्ति इस मूर्ख की हठ की आंधी में बुझती जा रही है। कामायोगिनी का सौंदर्याभिमान चूर-चूर होकर बिखरने लगा।

क्या करे वह? इस मूर्ख को दंडित करे अथवा पुरस्कृत!

परंतु यह मूढ़ है कौन?

उसी क्षण कामायोगिनी स्वयं को शांतकर भूमि पर पद्मासन में बैठ गयी। उसकी अंगुलियों ने ज्ञान-मुद्रा धारण कर ली और तत्काल नेत्र बंदकर वह ध्यानस्थ हो गयीें।

मृदंग-वादक की चेतना शनैः-शनैः लौट रही थी। कष्ट से कराहते हुए उसने आँखें खोलीं। कुछ क्षणों में वह पूर्ण चैतन्य हुआ। कुँवर उसके समक्ष बैठा था।

'अब कैसे हो, मित्र?' मुस्कुराकर कुँवर ने पूछा।

उत्तर न देकर हरिहर कराहता हुआ उठकर बैठा। उसकी दृष्टि चतुर्दिक घूमी। कामायोगिनी ध्यानस्थ थीं। तभी टूटे मृदंग को देख विस्मय से उसकी आँखें विस्फारित हो गयीं।

हरिहर के मनोभावों का ज्ञान होते ही कुँवर हँस पड़ा। उसने कहा-'तुम्हारा अपराधी मैं हूँ, मित्र! इसे मैंने ही फोड़ा है, परंतु विवशता ही समझो इसे...नृत्य की गति ही इतनी द्रुत होती गयी कि तुम्हारे दुर्बल मृदंग-चर्म ने संगत से ही मना कर दिया।'

'आश्चर्य! घोर आश्चर्य! ...'

तदनन्तर उसने भरपूर दृष्टि से कँुवर को निहारते कहा-'आप तो वही हैं, जो इस प्रांगण में ध्यानस्थ थे!'

'सत्य है मित्र...! ध्यान की अवधि थोड़ी लम्बी हो गई, परंतु उचित अवसर पर ही माता ने मेरे नेत्र खोल दिये। मैंने आपका अद्भुत मृदंग-वादन सुना और माता का षट्चक्र-नृत्य भी देखा।'

'अवस्था से तो आप अभी बालक ही हैं, परंतु मैंने संसार देखा है। आपकी आँखें बताती हैं कि आप या तो महायोगी हैं अथवा सिद्ध...! अन्यथा देवी के षट्चक्र-नृत्य की संगत...विशेषकर आज के इनके उन्मादित द्रुत नृत्य में, साक्षात् गंधर्वराज के अतिरिक्त और भला कौन कर सकता था?'

कुँवर की मुखाकृति पर मुस्कान थिरकती रही। कुछ क्षण सम्मोहित दृष्टि से निहारते रहने के उपरांत हरिहर ने कहा-'देवी ने भी आपको देखते ही जो कहा था उस पर मुझे अब तक विश्वास नहीं हो रहा, प्रभो! ... परंतु, आप हैं कौन महाराज?'

'मैं बताती हूँ, हरिहर!' कामायोगिनी के शांत-मृदुल स्वर ने दोनों को विस्मित किया।

कामायोगिनी की दृष्टि खुली थी। अधरों पर स्निग्ध मुस्कान पसरी थी। नेत्रों से मादकता के स्थान पर वात्सल्य छलक रहा था। अनुराग भरे नेत्रों से वह कुँवर को निहार रही थी।

कार्तिक अमावस्या की संपूर्ण रात्रि पंडा ने उनींदी आँखों में काट दी थी। सूर्योदय के पूर्व नींद भरी आँखों के साथ उसने शय्या त्यागा।

पंडा के नेत्र आँसुओं से भर गए. दाता नहीं लौटे। अवश्य ही कामायोगिनी के बंधन में पड़ गये। मूर्खता उसी की थी, उसने सोचा। बिचारे को क्या पता-कार्तिक अमावस्या की रात कामाख्या-मंदिर में क्या होता है। बैठ गये होंगे ध्यान में। हा देवी! अनर्थ हुआ मेरे साथ। ऐसा दयालु-दाता फिर कब आएगा, देवी?

यों ही रोते-कलपते उसने अपना नित्यकर्म पूर्ण किया। जलपान ग्रहण कर, नये यात्री की आस में द्वार पर रखी चौकी पर आ विराजा।

सूर्योदय की पहली किरण प्रस्फुटित हुई थी। इसी क्षण उसके द्वार पर एक पालकी उतरी।

'इस धर्मशाला के पंडा आप ही हैं?' रेशमी परिधान में सज्जित एक षोडषी ने पालकी से निकल सारंग से पूछा।

शंकित पंडा की स्वीकारोक्ति पर उस युवती ने लाल मखमल की छोटी-सी थैली बढ़ाते हुए कहा-'यह आपके लिए देवी कामायोगिनी का उपहार है। इसे स्वीकार कर कृपया प्राप्ति बना दीजिए.'

'कामायोगिनी का उपहार!'-विस्मय में उसके होठों से निकला।

'आदर से बोलिए, श्रीमान्!' रूष्ट स्वर में उस स्त्री ने कहा।

'क्षमा करें, देवी ने मुझ निर्धन के लिए उपहार भेजा है! ...यह तो कदाचित् मुद्राओं की थैली है?'

'हाँ श्रीमान्...स्वर्णमुद्राओं की थैली।'

'स्वर्ण मुद्रा!' कहकर उसने चौकी पर थैली का मुख उलट दिया। ढेरों स्वर्णमुद्राएं चौकी पर बिखर गईं।

'इसे समेट लें श्रीमान्। स्वर्णमुद्राओं का इस प्रकार प्रदर्शन कदाचित् उचित नहीं।'

'सत्य वचन, माता!'

कहते ही विक्षिप्तों की भांति उसने मुद्राओं को तत्काल समेटकर थैली में डाला। थैली की रेशमी डोर को बांधकर उसने खींसें निपोड़कर कहा-'देवी की क्या आज्ञा है मेरे लिए, आदेश दें! मैं प्राणपण से तत्काल उनकी आज्ञा की पूर्त्ति करूँगा।'

'आपके लिए देवी की कोई आज्ञा नहीं है। आपने उनके सम्मानित अतिथि की जो सेवा की है, यह उसी का पुरस्कार है। आपकी धर्मशाला में उनकी एक मंजूषा है। आप कृपया ले आयें। वे अब वहीं निवास करेंगे।'

उसने सोचा-जानता ही था। वे जो दिखते थे, वे वह नहीं थे।

' किस चिंता में खो गये श्रीमान्...? विलंब हुआ तो देवी क्रुद्ध हो जाएँगी।

'क्षमा करें देवी...! मैं तुरंत आया।'

कहते-कहते पंडा शोभित सारंग मंजूषा लाने दौड़ पड़ा।

ब्राह्ममुहूर्त की बेला।

चिड़ियों का संगीत और वायु की मंद-शीतल बयार में कुँवर दयाल सिंह के साथ कामायोगिनी अपने आश्रम लौट रही थी।

कामायोगिनी की पालकी सोलह रूपवती षोड्षियों के कांधों पर हौले-हौले चली जा रही थी। सोलहों के रेशमी परिधान पीतवर्णी थे। इनके केश जूड़ों में बंधे थे और उनमें जूही के सुगंधित पुष्प गुंथे थे। पुष्टकाय सुन्दरियों की मुखाकृति पर गर्वीली मुस्कान ठहरी थी। इन्हें गर्व था कि ये कामायोगिनी को पालकी में बिठा अपने

कंधों पर लिये जा रही हें और आज तो स्वामिनी की पालकी में एक ऐसी अद्भुत सौंदर्य की मूर्ति उपस्थित है, जिसके दर्शन मात्र से इनके भाग्य ही खुल गए थे।

इसीलिये तो पालकी-वाहिनियों के पग आज धरती पर पड़ ही नहीं रहे थे। गुदगुदाते अंतस् और मुस्कराते अधरों के साथ कजरारी आँखों वाली कहारिनें पालकी उठाये इठलाती चली जा रही थीं।

मृदंगवादक हरिहर अपने घोड़े पर बैठा पालकी के पीछे-पीछे जा रहा था। निद्रा से भारी हरिहर की पलकों की भांति उसका मन भी भारी था। आज कामायोगिनी की संगत में उसके मृदंग-ताल हार गये थे। हार की अनुभूति का बोझ उठाये हरिहर गर्दन झुकाये घोड़े पर मौन बैठा था।

पालकी के अन्दर बैठी कामायोगिनी कुछ क्षणों तक कुँवर को निहार मुस्कुरायी, फिर गंभीर होकर बोलीं, -'चित्त को शांत कर मेरी बातें एकाग्र होकर सुनो वत्स! प्राणी का जीवन और उसकी चेतना शरीर में श्वास द्वारा निरंतर प्रवाहित होने वाली वायु पर ही अवलम्बित है।'

'चेतना ही तो जीवन है...इन दोनों को पृथक क्यों कर रही हैं, देवि?'

'नहीं वत्स! अचेत प्राणी क्या जीवित नहीं होता? दोनों की सत्ता पृथक् है। चेतना का प्रत्यक्ष सम्बंध चेतन मस्तिष्क से है।'

'चेतन मस्तिष्क से आपका अभिप्राय क्या है, देवि?'

'मुख्य तौर पर हमारे मस्तिष्क के तीन प्रकोष्ठ हें-चेतन, अवचेतन तथा अचेतन। मनुष्य चेतन प्रकोष्ठ के ही अत्यंत लघु अंश के द्वारा ज्ञान, अनुभव एवं विचारों का आदान-प्रदान करता है तथा जीवन के समस्त कार्यों का सम्पादन करता है। चेतन प्रकोष्ठ के इस अंश को हम चेतना का जागृत अंश कह सकते हैं। नासिका के दोनों द्वारों द्वारा प्रेषित वायु इस जागृत अंश का पोषक है। श्वास के इन द्वारों का सम्बन्ध जिन दो नाड़ी विशेष से है उन्हें हम' इड़ा 'और' पिंगला'के नाम से जानते हैं। इड़ा चेतना है और पिंगला जीवन। मस्तिष्क के जाग्रत अंश को इन दोनों नाड़ियों द्वारा पोषण प्राप्त होता है इसीलिये इस अंश में जीवन और चेतना-दोनों विद्यमान हैं। परन्तु मस्तिष्क के शेष विस्तृत भाग को मात्र पिंगला पोषित करती है। अतः, वे भाग जीवित होकर भी चेतना-विहीन हैं वत्स!'

'ऐसा क्यों है माता? यदि मस्तिष्क के अत्यंत लघु क्षेत्र की चेतना ही इतनी सक्षम है कि मनुष्य अपने जीवन के समस्त कार्य करने में सर्वथा समर्थ है, तो परमात्मा ने मस्तिष्क के इन अतिरिक्त प्रकोष्ठों की रचना किस उद्देश्य से की है?'

कामायोगिनी मुस्करायी-'मनुष्य की चेतना का आधार मनुष्य की ज्ञानेंद्रियाँ हैं। नेत्र जो देखते हैं, नासिका जो ग्रहण करती है, कर्ण जो सुनते हैं, जिह्ना जो ग्रहण करती है तथा त्वचा जो स्पर्श करती है-हमारे मस्तिष्क की चेतना उसे ही देखती-सुनती और अनुभव करती है। मनुष्य की ज्ञानेन्द्रियों द्वारा प्रेषित सूचनाएँ इतनी पर्याप्त होती हैं, जिनसे जीवन-चक्र प्रकृति के अधीन सफलतापूर्वक सम्पन्न होता रहता है। परन्तु, यह पशु-भाव है, वत्स। जो इन्द्रियातीत है, जिसे हमारी पाँचों इन्द्रियां सम्मिलित होकर भी ग्रहण नहीं कर पातीं, वह है अतीन्द्रिय ज्ञान। इन्द्रियों का ज्ञान सत्य प्रतीत होते हुए भी अर्द्ध सत्य है वत्स! और पूर्णसत्य है अतीन्द्रिय ज्ञान। मस्तिष्क के सम्पूर्ण प्रकोष्ठ में जब चेतना का जागरण होता है, तो हम पूर्ण सत्य को उपलब्ध हो जाते हैं। तुम जान चुके हो, मस्तिष्क के शेष प्रकोष्ठ जीवित होते हुए भी चेतना-विहीन इसीलिए है, क्योंकि जीवन तथा चेतना के लिए आवश्यक इड़ा और पिंगला का सम्मिलित पोषण उसे प्राप्त नहीं होता। किसी विधि विशेष से यदि इड़ा द्वारा प्रेषित पोषक तत्व का सम्प्रेषण मस्तिष्क के सुप्त प्रकोष्ठों तक संभव हो जाए तो संभवतः उनमें जीवन के साथ-साथ चेतना का भी संचार हो सकता है, परन्तु इसमें संशय है। वस्तुतः अतीन्द्रिय चेतना द्वैत नहीं, अद्वैत है वत्स! वहाँ दो विभिन्न सत्ताएं नहीं होतीं। दोनों का सायुज्य हो जाता है। जीवन और चेतना का अलग-अलग द्वैत अस्तित्व अद्वैत हो जाता है।'

'यह कैसे संभव है माता? क्या इड़ा एवं पिंगला अपने स्वतंत्र अस्तित्व को खोकर एक हो जाती हैं?'

'नहीं वत्स! दोनों के मध्य एक तीसरी नाड़ी होती है, जो अद्वैत है। इसमें जीवन एवं चेतना के सम्मिलित पोषण का सामर्थ्य है। इस नाड़ी को सुषुम्ना कहते हैं वत्स!'

'आपका तात्पर्य यह है कि चक्रों के जागरण के पूर्व मुझे सुषुम्ना का जागरण करना होगा?'

'चक्रों के लिए अब' जागरण'शब्द का उपयोग निरर्थक हो गया वत्स! तुम जान चुके हो-' जागरण'चक्रों का नहीं, उनसे सम्बंधित मस्तिष्क के प्रकोष्ठ विशेष का होता है। इसे और स्पष्ट कहो तो जागरण होता है चेतना का। चेतना ऊर्जा है और ऊर्जा ही शक्ति है। इसीलिये इसे शक्ति का जागरण भी कहते हैं। अब तुम्हारे मूल प्रश्न का समाधान करती हूँ। वह है सुषुम्ना का तुम्हारा प्रश्न। चक्र-साधना के पूर्व जितनी तैयारियां तुम्हें करनी हैं, उनमें सर्वप्रथम यही है वत्स! मैं तुम्हें सुषुम्ना-जागरण का सवोत्तम मार्ग बताऊँगी, जिसे,' प्राणायाम साधना कहा जाता है। इसके पश्चात् ही तुम्हारे षट्चक्र-नृत्य की साधना प्रारंभ होगी। '

कुँवर दयाल सिंह एकाग्र होकर इन नवीन रहस्यों से अवगत हो रहा था। कामायोगिनी कह रही थी-'तुम्हारे गुरु ने जो षट्चक्र-नृत्य की शिक्षा हेतु तुम्हें प्रेरित किया है, अब उसके रहस्यों को जान लो। हमारे शरीर में ऐसे सुषुप्त केन्द्र अवस्थित हैं, जिनका प्रत्यक्ष सम्बध मस्तिष्क के विभिन्न भागों से जुड़ा है। इनकी संख्या छह है। इन्हें ही षट् शक्ति-चक्र कहा जाता है। इन छह चक्रों ने मस्तिष्क को छह विभिन्न-जाग्रत, अर्द्ध जाग्रत एवं सुप्त प्रकोष्ठों में विभाजित कर रखा है। एक-एक चक्र के जागरण का अर्थ है मस्तिष्क के उन प्रकोष्ठों का जागरण, जिनका सम्बंध उस चक्र विशेष से है। समझ रहे हो मेरी बात?'

'हाँ देवि! आपकी बातें रहस्यमयी, परन्तु अद्भुत हैं। अब मुझे षट्चक्र-नृत्य के रहस्य का भी आभास हो गया माते! आपका षट्चक्र-नृत्य अवश्य ही षट्चक्रों के जागरण की एक विशिष्ट पद्धति है।'

' तुम्हारी मेधा विलक्षण है! तुम्हारे समान शिष्य पाकर वास्तव में मैं भी धन्य हूँ, वत्स!

'अब देवि यह भी बता दो, ये छह चक्र कहाँ-कहाँ अवस्थित हैं तथा हमारे मस्तिष्क के किन प्रकोष्ठों से इनका सम्बंध-सम्पर्क जुड़ा है? यह भी उत्सुकता है कि षट्चक्र-नृत्य किस प्रकार इन सुषुप्त चक्रों को जाग्रत करने में समर्थ होता है। साथ ही यह जानना चाहता हूँ कि इस जागरण का प्रयोजन क्या है, क्योंकि निष्प्रयोजन तो कुछ नहीं है इस जगत में?'

कुँवर के प्रश्नों पर कामायोगिनी मुस्करायी।

'बड़े चतुर हो वत्स! एक ही प्रश्न में तुमने समस्त रहस्य पूछ लिया। संपूर्ण मस्तिष्क का जागरण, अर्थात् संपूर्ण चेतना का जाग्रत हो जाना और संपूर्ण चेतना तो एक ही है, वह है परम आत्मा। मनुष्य तो उसी परम चेतना का अंश मात्र है, जिसे हम आत्मा कहते हैं, वत्स। अब तुम्हारे प्रारंभिक प्रश्न का उत्तर देती हूँँ। इन छह चक्रों के केंद्र हैं-मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्धि एवं आज्ञा। शरीर में सबसे प्रथम और सबसे नीचे मूलाधार है तथा सबसे ऊपर मस्तक के केंद्र में आज्ञा-चक्र। स्वाधिष्ठान से सम्बंधित सुप्त मस्तिष्क के जागरण से आनंद की प्राप्ति होती है, मणिपुर से आत्मविश्वास, अनाहत से प्रेम, विशुद्धि से विवेक और ज्ञान तथा आज्ञाचक्र से अन्तःज्ञान और अतीन्द्रिय शक्ति का उदय होता है। इन केंद्रों के जागरण के ज्ञात माध्यमों की संख्या नौ है। प्रथम माध्यम है' मंत्र'। नियमित' मंत्र-जाप'बहुत ही शक्तिशाली, सरल एवं निरापद मार्ग है, परंतु इसमें समय और धैर्य की आवश्यकता होती है। दूसरा माध्यम है-' तपस्या'। परन्तु यह जागरण का ऐसा अत्यधिक शक्तिशाली मार्ग है, जिसे साधारण जीव संभाल नहीं सकता। जागरण का तीसरा माध्यम है' जड़ी-बूटी'। ऐसी औषधियाँ हैं, जिनसे मनुष्य के आंतरिक अंगों एवं स्वभाव का परिवर्तन और चक्रों का आंशिक अथवा पूर्ण जागरण भी संभव है। चौथी विधि है-' राजयोग'। परंतु इसकी गति अत्यधिक मंद होती है तथा

अधिकांश मनुष्य के लिए यह अत्यधिक कठिन विधि है, क्योंकि इसमें धैर्य, समय, अनुशासन एवं गुरु का निर्देशन आवश्यक है। पाँचवीं विधि है- 'प्राणायाम' । इस

माध्यम से चक्रों का जागरण विस्फोट की भांति होता है। यह विस्फोट इतना तीव्र होता है कि कुण्डलिनी-शक्ति अविलंब सहस्त्रर तक पहुँच जाती है। छठी विधि है- 'क्रियायोग' । मनुष्य के लिए यह सबसे सरल तथा व्यावहारिक विधि है; क्योंकि इसमें मन से संघर्ष नहीं करना पड़ता। इस विधि से जागरण में न विस्फोट होता है, न धमाका, न झटका। इसीलिए इसे सम्हालना आसान होता है। सातवीं विधि है-'तांत्रिक दीक्षा'। इस विशेष विधि में गुरु द्वारा चक्रों का जागरण तथा उसका सहस्त्रर-गमन मात्र तीन क्षणों में एक ही साथ होता है। आठवीं विधि है- 'शक्तिपात' । शिष्य पर गुरु द्वारा यह प्रयोग किया जाता है, जिसे शक्तिपात कहते हैं। परंतु, यह स्थायी न होकर प्रायः क्षणिक होता है और नौवीं विधि है- 'आत्मसमर्पण' । परंतु, इस मार्ग में कई जन्म भी लग सकते हैं। '

कुँवर दयाल सिंह ने प्रशंसा भरी दृष्टि से कामायोगिनी को निहारते हुए कहा-'चेतना-विस्तार का परिणाम क्या है, यह मैंने आज जान लिया, देवि! आपके अंदर जो अद्भुत ज्ञान का भण्डार है, वह अवश्य आपके जाग्रत चक्रों का ही परिणाम है, अन्यथा ज्ञान का इतना विस्तार मात्र अध्ययन-मनन से संभव नहीं।'

'अपनी प्रशंसा सुनने हेतु मैंने तुम्हें यह सब नहीं बताया है, वत्स! मैंने संक्षेप में उन समस्त विधियों से तुम्हें परिचित करा दिया, जिनके द्वारा चेतना का जागरण संभव है। तंत्र में एक और विधि है, जिसकी आड़ में स्वतंत्रतापूर्वक आज व्यभिचार किया जा रहा है। मैंने इस पर इसीलिए चर्चा न की, क्योंकि वह तुम्हारे जैसे एक पत्नीव्रत और संतान की इच्छा रखने वाले के लिए नहीं है।'

'आपकी बातों ने वास्तव में मुझे उलझा दिया माता! आपके अनुसार चक्रों के जागरण के यदि उपर्युक्त मार्ग ही हैं तो फिर' षट्चक्र' नृत्य क्या है?

'मैंने तुम्हें पूर्व में ही कहा था, मेरी बात पूर्ण एकाग्रतापूर्वक सुनो, तुमने ऐसा किया होता तो मेरी बात पर अवश्य ध्यान देते। मैंने इन मार्गों को ज्ञात मार्ग कहा था। षट्चक्र-नृत्य का मार्ग या तो प्रायः अज्ञात है अथवा पूर्ण गुप्त है, वत्स!'

तभी पालकी के बाहर से एक नारी-स्वर आया-'हम आश्रम द्वार पर उपस्थित हैं, देवि'।

कहारिन की मधुर वाणी ने कामायोगिनी को विस्मित कर दिया।

'इतनी शीघ्र!' कहकर कामायोगिनी मुस्कुरायी-' तुम्हारे संग वार्तालाप में इतनी खो गयी कुँवर कि दो कोस की यात्र समाप्त हो गयी और हमें यात्र के समापन का आभास ही न हुआ... हम अपने आश्रम आ पहुँचे हैं...आओ, आज का दिवस मेरे आतिथ्य में व्यतीत करो। कल सूर्योदय के साथ ही तुम्हारी शिक्षा प्रारंभ होगी।

वनस्पतियों से आच्छादित पर्वत-शृंखला की उपत्यका में खड़ा कुँवर दयाल सिंह उदित हो रहे सूर्य को नमस्कार कर रहा था। पास ही मंद-मंद मुस्कराती कामायोगिनी भी खड़ी थी। चर्तुदिक पर्वतों से घिरा आश्रम का यह क्षेत्र जनसाधारण के दृष्टि-पटल से अज्ञात था। शाल की लकड़ियों और बांस से निर्मित नयनाभिराम आश्रम के पूर्व द्वार के पास निर्मल जल का एक सुन्दर सरोवर था। हंस की कई जोड़ियाँ जल-किल्लोल में मग्न थीं। आश्रम के पश्चिम पशुशाला में गाएँ शांत बैठी जुगाली कर रही थीं। उत्तराखण्ड फूलों से भरा था। सुगन्धित फूलों के इसी उपवन के मध्य नृत्यशाला का वृत्त बना था, जहाँ नृत्य करते नटराज की भव्य प्रतिमा स्थापित थी। नृत्यशाला के चारों ओर खड़े बाँसों पर पुष्पों से आच्छादित लताएँ लिपटी थीं और दक्षिणी भू-भाग में सब्जी और जड़ी-बूटियों सहित फलों से लदे पेड़ों की घनी शृंखला थी।

सूर्य नमस्कार सम्पन्न करने के उपरांत कुँवर ने कहा-'इस धरा पर स्वर्ग कहीं है तो वह यहीं है, देवि...! चारो ओर शांति ही शांति! ... कण-कण में आनंद! और इस चित्ताकर्षक स्थल पर निर्मित आपका अनुपम कलात्मक आश्रम...अद्भुत है देवि...! अद्भुत...!' कहते-कहते कुँवर मानो कहीं खो-सा गया।

कामायोगिनी की स्निग्ध हँसी ऐसे झंकृत हुई, जैसे वीणा के तारों से झरता संगीत। शुभ्र मोतियों के सदृश उनकी दंत-पंक्ति झिलमिलाने लगी।

हँसी रुकी, तो मुस्कराती कामायोगिनी ने कहा, 'वाक्-पटुता तो व्यक्तित्व का शृंगार है वत्स! परन्तु तुम कवि भी हो...यह अभी ज्ञात हुआ।'

'नहीं देवि...! मैं कवि नहीं, परन्तु इस स्थल पर आकर शुष्क-हृदय में भी रस प्रवाहित होने लगे, तो क्या आश्चर्य! मैं सत्य कहता हूँ देवि...! मैंने प्रकृति का ऐसा सौंदर्य और मानव निर्मित ऐसे नयनाभिराम आश्रम की कभी कल्पना नहीं की थी। इस स्थल पर आकर वास्तव में मैं मंत्रमुग्ध हो गया हूँ।'

'तुम्हारा मंगल हो, वत्स!' कामायोगिनी ने कुँवर के स्कंध पर स्नेहिल हाथ रखकर कहा-'जिसका हृदय निर्मल होता है उसकी दृष्टि भी निर्दोष होती है इसीलिये अब प्रकृति पर मुग्धता छोड़ साधना-पथ पर अग्रसर होना ही तुम्हारे लिए श्रेयस्कर है।'

'मैं तो प्रस्तुत हूँ देवि!' शीश नवाते हुए अत्यंत विनय से कुँवर ने कहा।

कुँवर की मुद्रा पर कामायोगिनी फिर से उन्मुक्त हो हँस पड़ी। तदुपरांत दोनों वहीं दूब की हरी चादर पर बैठ गये।

'नासिका-छिद्रों पर उंगली रखकर तनिक निरीक्षण करो...!' कामायोगिनी ने निर्देश दिया-'इस क्षण तुम्हारा कौन-सा स्वर जाग्रत है?'

'समझा नहीं, देवि?'

'नासिका के किस द्वार से श्वास का प्रवेश हो रहा है...निरीक्षण करो!'

'मैं तो नासिका के दोनों द्वारों से श्वास ग्रहण करता हूँ देवि...! फिर निरीक्षण क्या करूँ?'

'नहीं, वत्स! ऐसा नहीं है...नासिका-द्वार का स्वर परिवर्तित होता रहता है। इसका सम्बंध चंद्रमा की कला से है, वत्स...! संभव है, इस घड़ी दोनों स्वर साथ चल रहे हों, परन्तु यह स्थिति स्थायी नहीं है।'

'नहीं, देवि! ...मेरे साथ ऐसा नहीं है। मेरे दोनों स्वर हमेशा साथ ही चलते हैं।'

कामायोगिनी विस्मित हो गयी, परन्तु कुँवर की मुखाकृति उदास हो गयी। उसने चिन्तित होकर पूछा-'मेरे इस दोष का निवारण-मार्ग तो होगा ही न देवि?'

कामायोगिनी के विस्मित नेत्रों में प्रसन्नता उभर आयी-'भूल गयी थी...तुम कौन हो'-आह्लादित हो उसने कुँवर के मस्तक को सूंघते हुए कहा-'तुम तो शक्ति माँ का उपहार हो वत्स! तुम्हारे साथ तो विलक्षण कुछ भी नहीं...सब स्वाभाविक ही है। तुम्हारी नाड़ियां तो पूर्व से ही जाग्रत हैं और आश्चर्य नहीं कि साधना के प्रथम प्रयास में ही चक्रों का भी जागरण तत्काल हो जाए. तुम्हारे गुरु ने व्यर्थ ही तुम्हें मेरे पास भेजा...' कहते हुए कामायोगिनी भावुक हो गयीं, 'कदाचित् माँ की यही इच्छा है कि वे मुझे निमित्त-मात्र बनाकर मेरा मान बढ़ायें।'

'नहीं देवि! अतिरिक्त बड़प्पन का त्यागकर, मुझे शिक्षा दें!' कहकर कुँवर नतजानु हो गुरू-चरणों में समर्पित हो गया।

कामायोगिनी की नृत्यशाला!

गोलाकार नृत्यांगन। मिट्टी की चमकीली सतह। वृत्त की परिधि में हाथ भर चौड़ी पट्टी में चित्रित अल्पना चित्त को बरबस अपनी ओर खींचती थी।

नृत्यांगन के केन्द्र में स्वयं नटराज नृत्य की मुद्रा में खड़े थे। नटराज के परिक्रमा-पथ पर प्रज्वलित मशालों की पंक्ति से नृत्यशाला का प्रांगण आलोकित था।

मंद-मंद बहती पुरबा अपने संग चमेली की सुगंध लिये नृत्यशाला में प्रविष्ट हो रही थी। बाहर स्निग्ध ज्योत्सना में उपवन की छटा बड़ी न्यारी लग रही थी।

आश्रम के उत्तरी द्वार पर आकर कामायोगिनी ने नृत्यशाला को इंगित करते हुए कहा-'यही तुम्हारी साधना-स्थली है कुँवर...आओ!'

नृत्यांगन में उपस्थित होकर दोनों ने ही नटराज की प्रार्थना की। तत्पश्चात् कामायोगिनी ने कुँवर का मस्तक सूंघकर प्रेमपूर्ण वाणी में कहा-' षटचक्र-नृत्य अतिगोपनीय आत्मिक संगीत की कला है। मन, विचार तथा अनुभवों के जीवन-संगीत को जब हम अपनी चेतना से जोड़ते हुए अन्तर्मुखी होते हैं, तब उस ध्वनि का हमें साक्षात्कार होता है। जिसे नाद, आत्म-ध्वनि, स्व-ध्वनि आदि के नाम से हम जानते हैं।

षटचक्र-नृत्य की गति से ऊर्जा का प्रवाह होता है। प्रवाहित ऊर्जा के अपने कम्पन होते हैं और अपनी ध्वनि होती है। यह ध्वनि, नर्त्तक के मन-बुद्धि-जगत् एवं भावनाओं को स्पंदित करती रहती है।

ध्वनि के जिन गुणों शक्ति तथा प्रभाव का अनुभव हम बाह्य-जगत में करते आये हैं, इस नृत्य में हम उसी ध्वनि का अनुभव अपने आन्तरिक जगत में करते हैं। नृत्य के प्रारंभिक प्रशिक्षण में स्वर-चेतना का क्रमिक विकास होने लगता है। स्वर के चार विभिन्न स्तर हैं-परा-नाद, पश्यन्ती, मध्यमा तथा बैखरी, जिनसे इस प्रक्रिया में तुम्हारा परिचय होगा। तत्पश्चात् संगीत के सप्तक का, षट्चक्रों के साथ

सम्बंधों को भी तुम स्वयं जान जाओगे।

चक्र-जागरण की जितनी प्रक्रियाएँ हैं, उनमें साधक का शरीर निस्पंद रहता है, परन्तु तंत्र के वाममार्गी, संभोग-रत हो चक्रों को जाग्रत करते हैं। इस प्रक्रिया में उनके शरीर जिसप्रकार निरंतर चलायमान रहते हैं, ठीक उसीप्रकार षट्चक्र नृत्य साधना में द्रुतगति से नृत्य करते हुए ही साधक अपने चक्रों का सफलता पूर्वक जागरण कर लेता है।

इस गुप्त विधि का ज्ञान तुम्हें दूंगी। षट्चक्र-नृत्य की भाव-भंगिमा तथा विभिन्न मुद्राओं के अभ्यास के द्वारा कल से तुम्हारी साधना प्रारंभ होगी वत्स! माता कामाख्या के समक्ष मेरे षट्चक्र-नृत्य को तुमने तो देखा ही है। मुद्रा-ज्ञान ग्रहण करने के पश्चात् इसके प्रत्येक चक्र के अभ्यास के साथ तुम्हें चक्र-जागरण-साधना करनी होगी। परन्तु, वत्स! मेरी क्षमता मात्र तीन ही चक्रों की है। प्रथम चक्र मूलाधार, जिसे षट्चक्र-नृत्य में 'धरती चक्र' कहा गया है, तथा दूसरा स्वाधिष्ठान, तत्पश्चात् मणिपुर चक्र का जागरण मैं करा दूंगी। प्रत्येक चक्र का जागरण षट्चक्र के दो-दो चक्रों के माध्यम से सम्पन्न होगा, वत्स! इसप्रकार, षट्चक्र के द्वारा साधक के तीन चक्र जाग्रत होते हैं। इसके बाद के चक्रों तक मेरी गति नहीं है। इसके लिए तुम्हें शंखाग्राम की यात्र करनी होगी। गंगा नदी जहाँ सागर से जा मिलती है, वहीं शंखाग्राम नामक प्रसिद्ध नगर है, जिसकी स्वामिनी भुवनमोहिनी है। इसी भुवनमोहिनी के पास सहस्त्रदल-चक्र नृत्य की गुप्त विद्या है। वही तुम्हारे शेष चक्रों के जागरण में सक्षम है, वत्स!

कुँवर के उत्सुक नेत्र कामायोगिनी पर टिकी थीं और कामायोगिनी स्नेहिल दृष्टि से कुँवर को निहार रही थीं। मधुर मुस्कान बिखेरकर उसने पुनः कहा-'अब अपने शयन-कक्ष में चलकर विश्राम करो, वत्स! रात्रि के तृतीय प्रहर में शय्या त्याग कर नित्य-क्रिया से निवृत्त हो ब्राह्म मुहूर्त के पूर्व इसी स्थल पर उपस्थित हो जाना। कल तुम्हारी साधना प्रारंभ होगी...चलो अब जाओ.' कहकर मुस्कराती कामायोगिनी उठ गयीं।

सूर्योदय के एक घड़ी पूर्व ही कामायोगिनी के संग कुँवर दयाल नटराज के समक्ष नतजानु हो उपस्थित था।

षट्चक्र-नृत्य के प्रथम चरण की शिक्षा का आज आरंभिक दिवस था। नटराज की वंदना कर दोनों पद्मासन में बैठ गए.

'वत्स!' कामायोगिनी ने मधुर स्वर में कहा-' इस शुभ घड़ी तुम्हारी शिक्षा प्रारंभ होती है। सर्वप्रथम मैं तुम्हें शरीर और मन को जोड़ने वाली मुद्राओं का ज्ञान कराऊँगी। षट्चक्र नृत्य के समय विभिन्न आननी अभिव्यिक्तियों, नेत्रों की

गतिविधियों, तथा हस्तसंकेतों के द्वारा अनेक मनोभावों या मनःस्थितियों, जैसे क्रोध, प्रेम इत्यादि की अभिव्यक्ति होती है। शरीर, मन, मनोभावों, भावनाओं और प्राण पर प्रत्येक मुद्रा का एक भिन्न प्रभाव होता है। ये मुद्राएँ सूक्ष्म, शारीरिक गतिविधियों के संयोजन हैं, जो मनःस्थिति, मनोभाव तथा बोध को रूपान्तरित करती हैं एवं चक्रों के केन्द्र के प्रति हमारी सजगता और एकाग्रता को गहरा बनाती हैं। केवल मुद्राओं के अभ्यास से साधक समस्त प्रकार की सिद्धियां प्राप्त कर सकता है। '

कुछ क्षण रुककर कामायोगिनी ने पुनः कहा-'षट्चक्र नृत्य में मुद्राओं की पाँच श्रेणियां हैं, वत्स! प्रथम श्रेणी में मस्तक की मुद्राएँ हैं। इसका सम्पादन मुखमण्डल के ऐन्द्रिय अंगों; जैसे-जिह्ना, नेत्र इत्यादि द्वारा होता है। द्वितीय श्रेणी में हस्त एवं तृतीय श्रेणी में शारीरिक मुद्राएँ आती हैं। चतुर्थ श्रेणी में बन्ध मुद्राओं और पाँचवीं में मूलाधारीय या आधार मुद्राएँ हैं। आओ, अब इन विभिन्न मुद्राओं का परिचय प्राप्त करो, वत्स!'

उपदेश देकर देवी उठकर खड़ी हो गयी। सर्वप्रथम उन्होंने मस्तक, मुखमण्डल एवं शारीरिक मुद्राओं का प्रदर्शन किया। कुँवर दयाल सिंह ने प्रत्येक मुद्रा की सफल पुनरावृत्ति करके दिखा दी तो देवी ने प्रसन्न होकर कहा-'मुझे विश्वास था, तुममें विलक्षण प्रतिभा छिपी है, वत्स! अब तुम्हें हस्त-मुद्राओं का ज्ञान प्राप्त करना है। इनकी कुल संख्या सोलह है। मैं इन्हें एक-एक कर प्रदर्शित करती हूँ इन्हें देखो!'

तत्पश्चात् उन्होंने समस्त सोलह हस्त-मुद्राओं का अभ्यास कराना प्रारंभ कर दिया। कामायोगिनी की हस्तमुद्राओं का अनुकरण करते हुए जब उसने अंतिम मुद्रा का प्रदर्शन किया कि तभी सूर्य देवता की पहली किरण पूर्वी क्षितिज पर निकली।

'उदित हो रहे सूर्य नारायण को प्रणाम करो, वत्स!'-देवी ने संतुष्ट होकर कहा-'इनसे आत्मिक प्रकाश की विनती करो!'

देवी के निर्देशानुसार कुँवर ने विधिपूर्वक सूर्य नमस्कार करके गुरु को प्रणाम किया।

मुस्कुराती कामायोगिनी ने कहा-'तुम्हारा कल्याण हो वत्स! इस उदित होते प्रकाश-पुंज की घड़ी में अब मैं तुम्हें बन्ध-मुद्राओं का प्रशिक्षण दूंगी। इसे ध्यानपूर्वक ग्रहण करो! इनमें बंध एवं मुद्राओं का संयोजन होता है वत्स! इन बंध-मुद्राओं के द्वारा समस्त तंत्र प्राणों में आवेशित हो जाते हैं, जिससे चक्रों का जागरण सहज हो जाता है।'

यह कहकर देवी कामायोगिनी ने षट्चक्र-नृत्य में प्रयुक्त बंध-मुद्राओं का प्रदर्शन प्रारंभ किया। प्रत्येक बंध-मुद्रा में किन मुद्राओं का संयोजन है, इसे विस्तार में देवी समझाती गयीं और विनयावनत होकर कुँवर ग्रहण करता गया।

अंत में, आधार-मुद्राओं का प्रशिक्षण पूर्ण कर कामायोगिनी ने कुँवर का मस्तक सूंघकर कहा-'तुमने इसी घड़ी जो ग्रहण किया है, उसे ग्रहण करने में साधकों को कई मास लग जाते हैं, वत्स! देवी माँ की तुम पर विशेष अनुकम्पा ही है, जिस कारण तुम समस्त मुद्राओं में इतना शीघ्र निष्णात हो गए. नटराज को नमस्कार कर समस्त मुद्राओं को एक बार मेरे समक्ष पुनः दुहराओ, वत्स!'

देवी के आदेश पर कुँवर ने ऐसा ही किया। उसने समस्त मुद्राओं को पूर्ण मनोयोगपूर्वक दुहरा दिया।

'आश्चर्य! ... तुमने कोई भूल न की...विस्मित हूँ, मैं वत्स!' कामायोगिनी ने प्रसन्नता व्यक्त करते हुए कहा।

' विस्मय का कारण नहीं है, देवी...! इनमें कई मुद्राएँ हमारे वैष्णवी चक्र नृत्य की हैं। इसके अतिरिक्त कुछ मुद्राओं का ज्ञान मुझे देवी माया के

सान्निध्य में भी प्राप्त हुआ था। शेष मुद्राएँ मेरे लिए नवीन थीं, देवी! '

उत्सुक कामायोगिनी ने कहा-'देवी माया! ...कहीं तुम बखरी की विख्यात नृत्यांगना देवी माया की तो बात नहीं कर रहे?'

'हां माते...!'

' वे तो भैरव-चक्रीय नृत्य की विशेषज्ञा है। मैंने उनकी चर्चा सुनी है। परन्तु, वह तो अघोरपंथीय नृत्य है वत्स! और...वैष्णवीचक्र के नर्त्तक ने अधोर पंथी नृत्य की

साधना की? ...विस्मित हूँ मैं। '

'यह लम्बी कथा है देवी, अवकाश में सुना दूंगा...इस क्षण तो मैं नृत्य के प्रथम चरण को जानने हेतु उत्सुक हूँ।'

हँस पड़ी कामायोगिनी-'तुम्हारे इस विग्रह में कितने स्वरूप छिपे हैं वत्स? ... तुम्हें देखकर तो मैंने समझा था-समस्त षड्रिपुओं से तुम्हारा कोई सम्बंध ही नहीं, परन्तु इस क्षण मुझे ऐसा भान हो रहा है कि तुम्हारे अंतस् में कई झंझावात हैं।'

कामायोगिनी के शब्दजाल में उलझ गया कुँवर। उसने पूछा-'ये षड्रिपु क्या हैं देवी? ...मैं समझा नहीं।'

हँसते हुए ही कामायोगिनी ने कहा-'जिह्ना के स्वाद छह रसों-मधुर, लवण, तिक्त, कटु, काषाय एवं अम्ल को, जिसप्रकार षड्रस कहते हैं, उसीप्रकार मनुष्य के छह मनोविकारों—काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह एवं मत्सर को षड्रिपु कहा गया है, वत्स! तुम्हारी जीवन-गाथा जानने को मैं अब अत्यंत उत्सुक हो गयी हूँँं। यों भी मुद्राओं के निरंतर अभ्यास ने तुम्हें क्लांत कर दिया है। तनिक शांत हो विराजो और मुझे अपनी कथा सुनाओ.'

कुँवर दयाल ने क्रम से अमृता संग मिलन तथा देवी माया, पोपली काकी, देवी आदि के विषय में चर्चा करते हुए अपना विवाह एवं पत्नी को छोड़ विवशतापूर्ण पलायन की घटना और मंगलगुरु के आदेश पर भरोड़ा-त्याग की पूरी कथा सुना दी।

कुँवर की जीवन-गाथा ने कामायोगिनी को द्रवित कर दिया।

'इस अल्पायु में ही इतने क्लेश!' उच्छ्वास लेती कामायोगिनी के अंतस् से स्वर फूटे। फिर उन्होंने कहा, 'तुम्हें चिन्तित होने की आवश्यकता नहीं है-मैं देवी की अभागी माता को भी जानती हूँ और पोपली को भी। देवी की भी चर्चा सुनी है। परन्तु ये सभी तमोगुणी साधिकाएँ हैं। उन्होंने और विशेषकर तुम्हारी देवी ने वैश्वानर जगत के वैताल, पिशाच, दीर्घ आयु प्राप्त प्रेत तथा हाकिनी, डाकिनी, शाकिनी आदि तमोगुणी वृत्ति की आत्माओं को सिद्ध कर लिया है। ये आत्माएँ प्रकृति के नियमों में विकृति उत्पन्न कर पृथ्वी पर उत्पात करती हैं। जहाँ-जहाँ रक्तपात और जनसंहार होता है, वहीं वे पहुँच जाती हैं। इतना ही नहीं, हाकिनी, डाकिनी, शाकिनी आदि प्रबल भयंकर शक्तियां तो किसी भी प्राणी का रूप धारणकर धरा पर विचरण कर सकती हैं और किसी भी अकालमृत्यु-प्राप्त स्त्री के शरीर में प्रवेश कर उसकी आयु भोग सकती हैं।'

'तो क्या वैश्वानर जगत में सभी तमोगुणी शक्तियाँ ही विद्यमान हैं, देवी?' कुँवर ने शांत भाव से बैठते हुए पूछा।

' नहीं वत्स, ऐसा नहीं है। वस्तुतः वैश्वानर जगत के निम्न स्तर पर ही इनका निवास है। इससे ऊपर के स्तर पर रजोगुणी प्रवृत्ति की आत्माओं का निवास है, जिन्हें हम यक्ष, गंधर्व, किन्नर आदि कहते हैं...और सबसे उच्च स्तरों पर निवास करने वाली आत्माएँ सतोगुणी प्रवृत्ति की होती हैं, जहाँ केवल भावनाओं का तरल प्रवाह है-सूक्ष्मतम विचारों की सात्त्विक अभिव्यक्ति है। तुम्हारी षट्चक्र साधना का सम्बंध इसी सतोगुणी शक्ति से है, वत्स! जहाँ निम्न कोटि की समस्त नकारात्मक शक्तियाँ नत हो जाती हैं।

आह्लादित कुँवर ने विनयावनत् हो कामायोगिनी को प्रणाम कर कहा-'मेरी एक उत्सुकता और शेष है, देवि...!'

'निःसंकोच कहो वत्स...! तुम्हारी कौन-सी उत्सुकता शेष है?'

परन्तु, संकोच से ही कुँवर ने कहा-'मेरी धृष्टता क्षमा करें देवि...परन्तु वह कौन-सी विद्या है, जिसने युगों-युगों से आपके विग्रह को षोड्षी का स्वरूप प्रदान किया है?'

कुँवर के प्रश्न पर उन्मुक्त हो हँस पड़ी कामायोगिनी। सहास उसने कहा-'रस-रसायनशास्त्र के अंतर्गत दस प्रकार की विद्याएँ हैं वत्स, जिनमें एक विद्या है-पारदविद्या। काम-कला कल्प, अक्षय-यौवन कल्प, मानस-कल्प तथा काया-कल्प-ये चार प्रकार के कल्प पारद-विद्या के मुख्य विभाग हैं। इन विद्याओं के ज्ञाताओं का विग्रह वही होता है वत्स, जो मेरा है।'

कहकर कामायोगिनी ने स्नेहिल नेत्रों से कुँवर को देखते हुए पुनः कहा-'पारद विद्याओं में तुम्हें पारंगत कर दूंगी वत्स! मृत्युपर्यन्त तुम भी ऐसे ही युवा रहोगे, विश्वास करो...,' कुछ क्षण रूककर उसने पुनः कहा-' हमने अत्यधिक विश्राम कर लिया वत्स! अब षट्चक्रीय प्रशिक्षण हेतु तत्पर हो जाओ.

'पूर्ण चेतन हो मुझे देखो'-कामायोगिनी ने उठते हुए कहा-'षट्चक्र के प्रथम चरण का अब मैं प्रदर्शन करूँगी।' कहकर कामायोगिनी ने नृत्य का प्रथम चरण प्रदर्शित किया। चक्र के समापन पर श्वास-प्रश्वास लेती कामागोगिनी का शरीर एक विशेष मुद्रा-बंध के स्वरूप में स्थित हो गया। कुछ क्षणोपरांत उसने नृत्य प्रारंभ किया। कुँवर दयाल ने पूर्ण मनोयोग से देवी के नृत्य का अवलोकन कर उसके विभिन्न शारीरिक एवं आननी अभिव्यक्तियों तथा मुद्राओं को ध्यान से अपनी चेतना में स्थापित कर लिया। नृत्य के पग-ताल एवं आवृत्ति भी उसकी स्मृति में अंकित हो गये थे।

कामायोगिनी के आदेश पर उसने उसीप्रकार नृत्य को दुहरा दिया, जिस प्रकार देवी ने प्रदर्शित किया था।

'अति उत्तम वत्स!' कामायोगिनी ने उसको उत्साहित करते हुए कहा 'इस चक्र में श्वास-प्रश्वास की ओर चेतनता विकसित करते हुए तुम्हें इसके बीज-मंत्र का उच्चारण करते रहना है। मैं बताती हूँ तुम्हें। मुझे देखो!'

तत्पश्चात् कामायोगिनी ने नृत्य के साथ मंत्रोच्चार करते हुए ध्वनि-सहित श्वास-प्रश्वास के क्रम को प्रदर्शित किया।

'मैंने जिस बीज-मंत्र का सस्वर उच्चारण किया है, उसके लय को उसी प्रकार अपने अंतस् में उच्चरित करना, जिस लय में मैंने उच्चरित किया तथा श्वास-प्रश्वास आवृत्ति भी उसी अनुरूप करना वत्स!'

' समझ गया देवि...! मैं करता हूँ।

कुँवर ने उस चक्र को फिर से संपादित किया।

'अति उत्तम! षट्चक्र के प्रथम चक्र को तुमने तत्काल ग्रहण कर लिया। इसे पुनः दुहराओ वत्स!' संतुष्ट कामायोगिनी ने प्रसन्न होकर कहा-'परन्तु इस क्रम में अपनी चेतना को जिस केन्द्र विशेष पर केन्द्रित करना है, उसे जान लो।'

कहकर उन्होंने कुँवर के पार्श्व में अंगुली रख कर केन्द्र-विशेष का स्थल बता दिया।

उत्साहित कुँवर ने पुनः सम्पूर्ण चक्र को दुहरा दिया, परन्तु मुद्रा विशेष पर कुछ क्षण स्थिर होने के उपरांत उसने पुनः नृत्य प्रारंभ कर दिया। कामायोगिनी उत्साहित होकर अपलक देखती रहीं और वह बारंबार नृत्य की पुनरावृत्ति करता रहा...करता रहा...अनायास उसके अधरों से अस्फुट शब्द निकले-' देवी! अपने अंतस् में मैं चतुष्दलीय लाल कमल पुष्प के दर्शन कर रहा हूँ...यह पुष्प अपनी एक नियत

परिधि में घूमने लग गया है देवी। '

'इसकी गति से अपनी आवृत्ति की गति एक कर दो, वत्स!' अति उत्साहित कामायोगिनी ने विमुग्ध होते हुए कहा।

कुँवर के नृत्य की आवृत्ति की गति अति तीव्र हो गयी। मूलाधार केन्द्र से आती एक गुंजन ध्वनि की उसे तीव्र अनुभूति होने लगी। लाल कमल को घूमते हुए वह निरंतर देखता रहा। इस घूमते हुए कमल के केन्द्र से आद्या-शक्ति और सहसा ऊर्जा के चक्कर काटते तीव्र चक्रवात की उसे अनुभूति होने लगी। प्रकाश के इस घूमते हुए चक्रवात की कम्पायमान ऊर्जा को उसने स्पन्दित होता अनुभव किया। तदुपरांत उसे ऐसा लगा जैसे उर्जा का यह चक्रवात ऊपर उठता जा रहा है।

'नृत्य करते रहो वत्स...! नृत्य स्थगित न करना।' कामायोगिनी का उद्वेलित स्वर गूंजा, परन्तु सुनने वाला था कौन? कुँवर तो बेसुध हो नृत्य में मगन था।

उसने स्पष्ट अनुभव किया, ऊर्जा का यह चक्रवात स्वतः संकुचित हो रहा है तथा प्रकाश एवं ऊर्जा की तरंगे सम्पूर्ण चेतना में प्रसारित हो रही हैं। प्रारंभ में संकुचन का अनुभव मूलाधार में हुआ, परन्तु तज्जनित संवेदना का प्रसार क्रमशः सम्पूर्ण शरीर में होने लगा। परमानंद की तरंगें तीव्रतर होती गयीं और तीव्र होते-होते असह्य हो गयीं। कुँवर ने अपनी चेतना खो दी। चेतनाहीन उसका शरीर प्रारंभिक झोंक में लहराया, डगमगाया।

कामायोगिनी ने आह्लादित होकर उसे थाम न लिया होता तो उसका अचेत शरीर लहराकर भूमि पर आ गिरता।

प्रथम दिवस तो साधना में रत कुँवर पूर्ण अचेत ही हो गया था।

चेतना लौटने के पश्चात् वह अर्द्धचेतन अवस्था में कई दिवस रहा। न उसे भूख लगती न निद्रा ही आती। बैठता तो बैठा ही रहता। निर्निमेष दृष्टि किसी भी स्थल विशेष पर केन्द्रित हो ठहरी रहती।

इसी प्रकार, एक पक्ष व्यतीत हो गया। इसके उपरान्त शनैः-शनैः उसकी चेतना स्वाभाविक होने लगी।

दूसरे पक्ष के प्रारंभ में कुँवर की साधना पुनः प्रारंभ हुई. ब्राह्म मुहूर्त्त से अपराह्न तक निंरतर उसकी साधना चलती। तन-मन में ऊर्जा के अतिरिक्त संचार ने उसके अंतस् को आनंद से भर दिया। परन्तु, साधना के आनंद-मद में भींग कर उसकी चेतना, साधना समापन के साथ-साथ नित्य ही अर्ध-चेतनता की परिधि में चली जाती। नेत्रों की पलकों का भार बढ़ जाता। दोनों पलकें भारयुक्त हो नेत्र पर थोड़ी झुक-सी जातीं और सूर्यास्त तक यही स्थिति बनी रहती।

साधना के द्वितीय पक्ष के समापन के साथ-साथ कुँवर की मानसिक और शारीरिक शिथिलता का समापन हो गया। चेतना की सक्रियता ने उसे नवीन अनुभूतियों से भर दिया। इसी मध्य पारद विद्या की सम्पूर्ण शाखाओं को भी उसने देवी कामायोगिनी के सान्निध्य में रहकर सहज ही जान लिया।

तृतीय पक्ष में ब्राह्मवेला के पूर्व षट्चक्र-साधना का सत्र प्रारंभ होता। अपराह्न में पारदविद्या के प्रयोग एवं प्रशिक्षण का सत्र होता था और नित्य रात्रि तंत्र के विभिन्न अंगों पर चर्चा होती।

देवी कामायोगिनी का ज्ञान विलक्षण था। तंत्र-चर्चाओं के मध्य जब उसे ज्ञात हुआ कि विभिन्न सम्प्रदायों के कुल छह-सौ सत्तर तंत्र एवम् सहस्त्रों उप-तंत्र हैं तथा इनके विभिन्न यामल, डामर, पुराण एवं संहितादि हैं; तो उसे अत्यंत विस्मय हुआ।

'इतने तंत्र?' विस्मित कुँवर ने पूछा।

'हाँ वत्स!' देवी ने कहा-'कापालिक, पाँचरात्र, भैरव, जैन और बौद्ध आदि सम्प्रदायों के पाँच सौ तंत्र एवं इनके उपतंत्र हैं। शाक्त तंत्रों की संख्या तिरसठ एवं उपतंत्र तीन सौ सताईस हैं। शैव तंत्रों की संख्या बत्तीस एवं उपतंत्र एक सौ पच्चीस हैं तथा वैष्णव तंत्र पचहत्तर हैं। इनके उप तंत्रों की संख्या छह सौ पाँच हैं, वत्स। इनके अतिरिक्त इन सबके यामल, डामर, पुराण एवं संहितादि हैं।'

'आश्चर्य है माता!' कुँवर ने कहा-'कितना ज्ञान भरा है इस जग में!'

विस्मित न हो, वत्स! 'मुस्कराई कामायोगिनी-तुम्हारी कुण्डलिनी शक्ति अपनी समग्रता में जाग्रत हो जायेगी तो तुम्हारी चेतना का प्रत्यक्ष सम्बंध, ब्रह्मांडीय चेतना के साथ संलग्न हो जाएगा। तब यह समस्त ज्ञान स्वयमेव तुम्हें प्राप्त हो जाएगा, वत्स!'

देवी कामायोगिनी के दिव्य आश्रम में कुँवर के तीन मास व्यतीत हो गये। इस अल्प अवधि में षट्चक्र-नृत्य एवं पारद विद्या में वह पारंगत हो गया। चक्रों की जागृति के साथ-साथ उसमें अनेक दिव्य विभूतियाँ भी समाहित हो गयी थीं। उसका तेजस्वी स्वरूप और भी कांतिमान् हो गया था।

विदाई की वेला में कामायोगिनी अत्यंत भावुक हो गयीं। शिष्य के मस्तक को सूंघकर उन्होंने भावुक स्वर में कहा-'तुम्हारे प्रयोजन को जान तुम्हें विवश हो विदा कर रही हूँ वत्स...! देवी भुवनमोहिनी के सान्निध्य में तुम्हारे शेष चक्रों का शीघ्र ही जागरण होगा, ऐसा विश्वास है मुझे...परन्तु, वत्स वचन दो मुझे, बखरी-अभियान के पूर्व मुझे अवश्य साथ रखोगे।'

कामायोगिनी के समक्ष शीश झुकाते हुए विनीत भाव से कुँवर ने कहा-'आपके सान्निध्य-सुख का त्याग मुझे भी व्यथित कर रहा है, देवि! इस आश्रम का प्रत्येक क्षण मेरी सम्पूर्ण चेतना में स्थिर है। इन्हें मैं कदापि भूल नहीं सकता। आपका स्नेह, आपकी शिक्षा और सबसे बढ़कर आपका सान्निध्य...इसे भूलना क्या संभव है, देवि? ...स्थूल शरीर से विलग होकर भी मेरी चेतना सदा आपके ही पास रहेगी देवि।'

तुम्हारा कल्याण हो, वत्स! 'सजल नेत्रों से देवी ने कहा-' देवी भुवनमोहिनी के पास साधना सम्पन्न होते ही अविलंब अपने अंचल की यात्र में निकल जाना वत्स! मेरी चेतना सदा तुम्हारे साथ रहेगी। तुम्हारी समस्त गतिविधियों का मुझे सदा आभास होता रहेगा। शंखाग्राम से भरोड़ा की यात्र के प्रारंभ में मेरा ध्यान अवश्य करना,

वत्स...! मैं तत्काल चल पड़ूँगी। भूलना नहीं। '

'जैसी आज्ञा, देवि!' कुँवर ने कहा-'आपका स्वरूप तो मेरी आत्मा मेें रच बस चुका है...परन्तु आपकी आज्ञा का फिर भी पालन करूँगा।'

'जाओ वत्स, तुम्हारी यात्र सकुशल सम्पन्न हो!' देवी ने पुनः कहा-'चंदन सेठ की नौका में तुम्हारी सुख-सुविधा की उत्तम व्यवस्था कर दी गयी है। वह तुम्हें ससम्मान शंखाग्राम ले जाएगा...परन्तु वत्स! इस आश्रम से विदा होकर सर्वप्रथम माता कामाख्या के मंदिर पर अपनी उपस्थिति देना। वहाँ माता का आशीर्वाद लेकर ही यात्र का प्रारंभ करना। मेरी सेविकाएँ तुम्हें माता के मंदिर तक पहुँचा कर लौट आएँगी, वत्स!'

कहकर देवी कामायोगिनी ने मणि-जड़ित एक माला कुँवर के गले में डाल दी।

' यह मणिमाला मेरा उपहार है, वत्स! इसे सदा वस्त्रों के अंदर अपने वक्ष पर

धारण किये रहना। '

'इस औपचारिकता की क्या आवश्यकता थी, देवि?'

'थी वत्स...थी...इसकी आवश्यकता थी!' देवी ने कहा, -' यह मेरी अमूल्य

निधि है, इसका कभी त्याग न करना वत्स! '

कहते ही सजल नेत्रों से कामायोगिनी ने कुँवर को अपने आलिंगन में भर लिया। अपने प्रिय शिष्य को प्रथम बार ही उसने अपने आलिंगन-पाश में सम्पूर्ण शक्ति से उसी प्रकार बाँधा था, जैसे कोई माता अपने पुत्र को गले से लगाती है।

कुँवर के नयन भी सजल हो गए और दोनों के नयन-कोरों से अश्रु प्रवाहित होने लगे।

कुँवर की पालकी उठाये कामायोगिनी की कहारिनें कामाख्या माता की मंदिर पहुँची। चंदन सेठ की घोड़ागाड़ी पूर्व से ही कुँवर की प्रतीक्षा में उपस्थित थी। माता की पूजा-अर्चना के पश्चात् कुँवर शोभित सारंग की धर्मशाला में थोड़ी देर रूका। कुँवर के अनायास दर्शन से हतप्रभ शोभित सारंग ने गद्गद् हो कुँवर का स्वागत-सत्कार किया।

ब्रह्मपुत्र के नौका-घाट पर चंदन सेठ की सुसज्जित व्यक्तिगत नौका पाल

बांधे खड़ी थी। उसकी शेष मालवाहक नौकाएँ भी वहीं लगी थीं और स्वागत में स्वयं चंदन सेठ घाट पर उपस्थित था।

कुँवर को विदा करने कामाख्या माता मंदिर के पुजारियों सहित पंडा शोभित सारंग भी साथ आया था। चंदन सेठ को भान हुआ, जैसे उसकी प्रतिष्ठा अनायास बढ़ गयी है। एक तो महान योगिनी कामा का व्यक्तिगत अतिथि कोई सहज-

साधारण मनुष्य हो ही नहीं सकता। फिर कामाख्या-मंदिर के समस्त पुजारी और कामरूप की विख्यात धर्मशाला का पंडा भी इन्हें विदा करने उपस्थित हैं तो ये अवश्य विशिष्ट हैं।

तभी उसने घोड़ागाड़ी से निकलते कुँवर को देखा। कुँवर का सौंदर्य, उसके मुख का अपरिमित तेज और व्यक्तित्व की आभा ने चंदन सेठ को चमत्कृत कर दिया। ऐसे देवतुल्य तरुण को सहयात्री पाकर वह धन्य-धन्य हो गया।