कुँवर नटुआ दयाल, खण्ड-14 / रंजन

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भरोड़ा से दुलरा दयाल क्या गया मानो अंचल के प्राण ही चले गये। प्रकृति ने भी शोक-संतप्त हो अपनी हरीतिमा त्याग दी। पंछियों ने चहचहाना छोड़ दिया। महल सूनी, चौपाल सूना, अंचल का प्रत्येक आँगन सूना हो गया। श्री की अनुपस्थिति में समूचा अंचल ही श्रीविहीन हो गया।

दुलरा दयाल का समाचार मंगलगुरु को अपने प्रशिक्षित कागों एवं गुप्तचरों के माध्यम से प्राप्त होता रहता। परन्तु, राजा और रानी के अतिरिक्त कोई नहीं जान पाया, कुँवर कहाँ हैं और क्या कर रहे हैं?

सेनापति की आँखों से नींद रूठ गयी थी। सोते-जागते उसके अंतस् को बहुरा की स्मृति ही डँसती रहती। गुप्तचरों के माध्यम से बहुरा की स्थिति का सबको ज्ञान था। इस स्वर्णिम अवसर को चूकना तो मूर्खता ही थी, परन्तु राह की अड़चन थे राजरत्न मंगलगुरु। नित्य की भांति विवाद इसी विषय पर पुनः प्रारंभ हो गया।

सेनापति ने कहा-'अपनी नीति पर पुनर्विचार कर लें तो अच्छा हो राजरत्न! राजा जी को आप सम्मति दें तो वे अवश्य स्वीकारेंगे।'

'मैंने पूर्व में ही कहा था।' राजरत्न मंगल ने कहा-' निहत्थों पर आक्रमण ...

हमारी नीति नहीं है। '

'और उस दुष्टा ने जो किया राजरत्न!' कुटिलतापूर्वक मुस्कुराते हुए सेनापति ने कहा-'आपकी दृष्टि में वह उचित था...क्यों? ...' , उसकी वाणी क्रुद्ध हो गयी। क्रोध में ही उसने पुनः कहा-'शस्त्रों सहित ही मेरे सम्पूर्ण शरीर को अचेत कर उस दुष्टा ने क्रूरतापूर्वक जो कृत्य किया...'

हँस पड़े राजरत्न।

असमय की इस अप्रत्याशित हँसी ने सेनापति की वेदना और बढ़ा दी। उस दुष्टा के वध हेतु मैं व्यग्र हूँ और राजरत्न हँस रहे हैं। सेनापति के मुख से कटु वचन निकलता कि इसके पूर्व ही राजरत्न ने हँसते हुए ही कहा-'जिसे आप दुष्टा कह रहे हैं...सेनापति... उसने तो आपका एक नेत्र ही निकाल कर आपको मुक्त कर दिया। तनिक विचार कीजिए...क्या नहीं कर सकती थी वह?'

'आपका आशय है कि।'

'हाँ वीरवर!' हस्तक्षेप राजरत्न ने किया-' कुछ भी कर सकती थी वह

...आपका वध भी...परन्तु उसने ऐसा कुछ नहीं किया। '

'तो आपका तात्पर्य यह है कि उसने जो भी किया, वह साधारण कृत्य था ...क्यों? ...' उसकी वाणी में क्रोधयुक्त व्यंग उभरा ' और आपकी इच्छा है कि उसके इस अतिसाधारण अपराध को हमें भूल जाना चाहिए? ...आप चाहते हैं, हमारी

पुत्रवधू को उसने बलात् अपने पास रोक लिया...इसे भी हम क्षमा कर दें! हमारे दुलरा दयाल को पत्नी-विहीन किया यह भी हम भूल जाएँ! महाराज को समस्त परिजनों सहित विवश हो पलायन करना पड़ा, इसकी पीड़ा भी हम भूल जाएँ और नपुंसकों की भांति पुरूषार्थहीन हो इन सबको अपनी नियति मान मौन हो जाएँ

...यही परामर्श है आपका और यही नीति है आपकी क्यों... राजरत्न? '

'आपकी उग्र भावनाओं का मैं तिरस्कार नहीं करता, वीरवर।' राजरत्न ने शांत स्वर में कहा-'हमारे प्रिय युवराज और आपके साथ जो हुआ, उसे हम कदापि भूल नहीं सकते...और हम सबको आपकी वीरता का भी भलीभाँति बोध है। फिर भी कृपया शांतचित्त होकर मेरी बात सुनें! हम सब अपने-अपने अपमानों का बोझ उठाए अपना एक-एक पल काट रहे हैं, परन्तु मुझपर भरोसा करें तो मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ। बहुरा का पराभव होना निश्चित है। हम अपनी पुत्रवधू को ससम्मान विदा करा कर लाएँगे। उस विकट तांत्रिक बहुरा का मस्तक लज्जा के बोझ से झुकेगा और संभव है...संभव है, आपकी खोई दृष्टि भी पुनः आपको प्राप्त हो जाए...!'

'क्या कहते हैं राजरत्न!' चौंककर सेनापति ने कहा-'राजवैद्य ने तो निरीक्षण करने के पश्चात् ऐसी कोई आशा नहीं जताई...और आप कहते हैं... मेरी खोई हुई आँख मुझे पुनः उपलब्ध हो सकती है?'

'अवश्य हो सकती है सेनापति...! तनिक धीरज धरें।'

सेनापति की समझ से बाहर की बात थी यह। भला आँखें भी क्या दाँतों की भांति पुनः उगती हैं? असंभव! सांत्वनावश कही गयी बातें हैं ये। ऐसा संभव नहीं। एक ही नेत्र के सहारे रहना अब उसकी नियति बन चुकी है। चित्त में उदासी भर सेनापति शांत हो गये।

और बखरी में!

विरहिणी अमृता फिर से मूक हो गयी थी।

विरहाग्नि में उसकी हँसी और मुस्कुराहट विलीन हो गयी। पथराई आँखों से वह अपने कक्ष की दीवार पर प्रत्येक सूर्यास्त एक काली लकीर खींच देती। पिया-मिलन की आस में लकीरों की संख्या बढ़ते-बढ़ते अब तक दो सौ को पार कर चुकी थी।

बरखा की बूंदें उसे बाण-सी चुभतीं और चंद्रमा की ज्योत्सना चुभन को द्विगुणित करती रहती। उपवन के पुष्प मन को नहीं भाते। पक्षियों का कलरव शोर प्रतीत होता। न भूख लगती न प्यास।

उसे न अपनी सुध थी, न जग की परन्तु, विरहिणी अमृता की चिन्ता छोड़ पोपली काकी और माया दीदी बहुरा की परिचर्चा में निमग्न थीं।

माया दीदी और पोपली काकी ने अति विकट संयुक्त-तांत्रिक-अनुष्ठान प्रारंभ किया था। भैरव के समक्ष बहुरा का निस्पंद शरीर पड़ा रहता और पोपली काकी अपने अनुष्ठान करती रहती।

माया दीदी भैरवी-चक्र के घनघोर नृत्य में निमग्न बेसुध हो जाती।

परिणामस्वरूप, बहुरा की चेतना अत्यंत धीरे-धीरे लौट रही थी। प्रथम माह के अनुष्ठान में उसके नेत्र खुले, परन्तु तन में स्पंदन नहीं आया।

द्वितीय मास के समापन में उसके नेत्रों में स्पंदन आया तो दोनों को और भी दुःख हुआ। बहुरा के स्पंदित नेत्र सदा सजल रहते। उसकी आँखों के कोर से अश्रु प्रवाहित होता रहता।

माया से बहुरा का यह रूप देखा नहीं जाता। पोपली काकी तो दृढ़ रहतीं, परन्तु माया टूट कर बिखर जाती।

ऐसे ही क्षण उसने पोपली काकी से नैराश्य भरे स्वर में कहा-' हमारी पुत्री का

प्रारब्ध क्या है काकी? ...इसके निस्पंद तन के अर्द्ध चेतन नेत्र क्या यों ही विवश बहते रहेंगे? '

सांत्वना के हाथ माया के कंधे पर रखकर पोपली काकी ने कहा-

' निराश मत हो माया...! हमारा निरंतर प्रयास व्यर्थ नहीं हो सकता। तुमने देखा न...हमारे अनुष्ठान ने इसकी आँखों में चेतना का प्रसार प्रारंभ कर दिया। तनिक चैतन्य होने दे इसे। मैं तत्काल इसे पुर्नंसंकल्पित कराऊंगी। जिस

अमोघ मारण-पात्र का इसने सहसा ही संधान कर दिया था, उसे पुनर्प्रक्षेपित करना होगा इसे। यही विकल्प शेष है, पुत्री। कुँवर को काल-पात्र ने क्षमा कर दिया... क्यों किया यह तो रहस्य के आवरण में है, परन्तु इसे पुनर्प्रक्षेपण की दिशा बदलनी होगी। किसी अन्य पर उसके प्रहार-प्रक्षेपण के उपरांत ही मेरी पुत्री पूर्ण चैतन्य होगी, अन्यथा नहीं...विश्वास रख। धीरज रख...शनैः शनैः इसका शेष तन भी चेतन हो जाएगा। धीरज रख पुत्री... धीरज रख। '

'और विकल्प भी क्या बचा है काकी!' माया ने अत्यंत कठिनाई से कहा-

'धीरज ही तो रख रही हूँ...इतने दिवसों से।'

पोपली काकी को विश्वास था। बहुरा चैतन्य होगी और अवश्य होगी परन्तु, माया वास्तव में, आशा त्याग चुकी थी। बहुरा चैतन्य हो गयी तो यह चमत्कार ही होगा। फिर वह सोचती, क्या पूर्व में चमत्कार कभी हुए नहीं? अवश्य हुए हैं...तो अब क्या हुआ? ...चमत्कार तो हो ही सकता है।

नृत्योत्सव के समापन के उपरांत देवी भुवनमोहिनी जब अपने शयनकक्ष में आयीं, उस क्षण रात्रि का तृतीय प्रहर व्यतीत हो रहा था।

निद्रा का पूर्ण त्याग तो वर्षों पूर्व ही हो चुका था। शय्या पर सोतीं तो भी अवस्था पूर्ण चैतन्य ही रहती थी।

आज उनकी चेतना में दो छवियां छायी थीं-एक कुँवर दयाल और दूसरा युवराज चंद्रचूड़।

चन्द्रचूड़ का अपूर्व समर्पण-भाव उनकी चेतना को प्रभावित कर रहा था। प्रेम में प्राणों का निर्विकार विसर्जन और जीवन का ऐसा सहज अर्पण देवी के अंतस् को मथ रहा था।

प्रेमावेश में जब चंद्रचूड़ ने उसके कक्ष में बलात् प्रवेश किया था, तब देवी ने उसकी उद्दंडता को उसका अक्षम्य अपराध माना था। परन्तु बाद के घटनाक्रमों ने उसके चरित्र को जिसप्रकार उजागर किया, वह वास्तव में अद्भुत था। फिर युवराज के प्रति माताश्री का अनन्य स्नेह भी उसके अंतस् को प्रायः विचलित करता रहता।

प्रायः वे चन्द्रचूड़ के प्रसंग पर उसे समझाने का असफल प्रयत्न करती रहतीं। माताश्री को कदाचित् टंका कापालिक प्रकरण के पश्चात् ही मेरी

साधना की क्षणिक अनुभूति हुई, अन्यथा अब तक तो उनकी दृष्टि में मैं

अबोध-सामान्य युवती ही थी। अतएव, मेरी वैवाहिक चिन्ता में व्याकुल रहना, उनके लिए स्वभाविक ही था।

ऐसे ही विचारों में मग्न उसने स्नान किया।

नवीन श्वेत परिधान धारण किये, तदुपरांत सद्यः प्रस्फुटित सुगंधित पुष्पों से अलंकृत होने लगी। पुष्पों के सुवास ने उसके मन और तन को सुवासित कर दिया। उसकी इच्छा हुई-इन पलों को वह स्त्री-सुलभ कोमल स्पंदनों से भर दे। तत्काल ही इस व्यर्थ इच्छा पर वह स्वयं पर हँस पड़ी, परन्तु अगले ही क्षण उसकी पलकें लज्जा-भार से झुक गयीं।

चकित हो गयी थी वह अपनी मूर्खताओं पर।

अनायास यह क्या घटित होने लगा उसके अंदर।

वह तो मन और इच्छा के पार जा चुकी है। निर्विकार हो चुकी है वह। जगत के समस्त व्यापार और क्रियाकलापों के प्रति उसकी चेतना पूर्ण तटस्थ हो चुकी है। सुख और दुख दोनों से पार जा चुकी चेतना में यह कौन-सा चोर-द्वार है?

विचलित हो उसने नेत्र बंद कर लिए.

ध्यान में उतर गयी वह।

शंखाग्राम के राजप्रासाद में कुँवर दयाल का यह प्रथम प्रभात था।

बालारुण उदित हो रहा था और प्रसन्न कुँवर अपनी साधना सम्पूर्ण कर पीताम्बर धारण कर रहा था। इसी क्षण द्वार पर भुवनमोहिनी का पदार्पण हुआ। श्वेत-धवल रेशमी परिधान से सुशोभित एवं पुष्पों से अलंकृत उसका अलौकिक दिव्य विग्रह प्रभामय हो रहा था। द्वार पर रुककर वह मंद-मंद मुस्कुराई.

उसकी उपस्थिति से अनभिज्ञ कुँवर के पार्श्व में कुछ क्षणों तक रुक कर भुवनमोहिनी ने कहा-'शुभ प्रभात प्रिय!'

कक्ष में तारसप्तक की भाँति उसके मधुर-स्वर कंपित हुए तो कुँवर ने पलटकर देखा। उसकी दृष्टि गुरु को अनायास देख हतप्रभ हुई और चरण-वंदना हेतु वह तत्काल बढ़ा।

वंदना हेतु कुँवर की झुकी बाँहों को स्नेहपूर्वक पकड़कर उठाते हुए देवी ने कहा-'इस अनावश्यक औपचारिकता की आवश्यकता नहीं है, प्रिय! तुम मेरे मित्र हो...तथा सहस्त्रदल-नृत्य की तुम्हारी समस्त साधना मेरे साथ मित्रवत् ही सम्पन्न होगी!'

'शिष्य को अतिरिक्त मान प्रदान कर रही हैं देवी!'

'और तुम अतिरिक्त विनम्रता का प्रदर्शन कर रहे हो प्रिय! मैं देवी कामायोगिनी नहीं...भुवनमोहिनी हूँ तथा तुम्हारी भांति मुझमें अलौकिक चेतना भी नहीं है, प्रिय! मैं तो अत्यंत साधारण एक सामान्य नारी हूँ। साधना के फलस्वरूप मेरी चेतना का विस्तार मात्र हुआ है। इस चेतना-विस्तार के फलस्वरूप अनेक अतीन्द्रिय शक्तियां भी मुझमें समाहित हुई हैं, परन्तु मानवीय संवेदनाओं से मैं विलग नहीं हूँ। मेरे अंतस् में भी एक अनुरागी हृदय है, जिसमें समस्त मानवीय भावनाएँ निहित हैं।'

'नहीं देवी...आप अवश्य मेरी परीक्षा ले रही हैं!'

'व्यर्थ तर्क का औचित्य नहीं है, प्रिय! तुम्हारे प्रति मेरे अंतस् में जो अनुराग उत्पन्न हो चुका, वह अत्यंत स्वाभाविक है। परन्तु, इसे मेरी वासना मत समझना प्रिय...! यह प्रेम है! शिव-संग शक्ति का जब तुम्हारे अतंस् में सायुज्य होगा तो तुम स्वयं मेरी भावना को भलीभाँति जान लोगे। इस क्षण विवाद उत्पन्न न कर मेरी बात सुनो... तुमसे बातें करने ही आयी हूँ मैं।'

'क्षमा करें देवी...अपने अज्ञानी शिष्य को क्षमा करें! आपके गूढ़-तत्त्व की बातें समझने में मैं सर्वथा असमर्थ हूँ... परन्तु मेरे अंतस् में आपके प्रति जो श्रद्धा-भाव है, वह अपरिवर्तनीय है देवी! आप मुझे मित्र कहें, शिष्य कहें, वत्स कहें अथवा पुत्रवत् ज्ञान की शिक्षा दें-स्वीकार है मुझे!' कहकर कुँवर पुनः करबद्ध हो गया।

'निश्छल...अति निर्मल हो तुम प्रिय...! सर्वथा निर्दोष!' मुस्कराकर उसने पुनः कहा-'परन्तु यह तो कहो... तुमने अब तक क्या-क्या साधना की है और सहस्त्रदल कमल-नृत्य के प्रति तुम्हारी अभिरुचि का प्रयोजन क्या है?'

पूरी कथा सुनानी पड़ी कुँवर को।

यह जानकर कि कुँवर ने संगीत-नृत्य और तंत्र की ही प्रारंभिक साधना की है, देवी प्रसन्न हो गयीं। परन्तु कुँवर के पत्नी-वियोग की कथा पर उन्होंने कोई संवेदना व्यक्त न की। कंुवर जान गया जगत के मानवीय क्रिया-कलाप, योग-वियोग और दुख-सुख के प्रति इनकी चेतना तटस्थ हो चुकी है।

परन्तु, इन्होंने अपने हृदय की संवेदनाओं का इतना वृहत् विवरण क्यों दिया?

इस अनुराग-विराग का क्या रहस्य था?

कहीं देवी का अभिनय तो नहीं?

परन्तु इन उच्चतर चेतना के तत्वों का उसे ज्ञान ही क्या है? यही सोचकर अंदर उठ खड़ी हुई शंकाओं को उसने स्थगित कर दिया।

'किस चिन्ता में निमग्न हो गये प्रिय?' कुँवर के मौन पर भुवनमोहिनी मुस्कुरायी।

अपनी अतीन्द्रिय चेतना से उसने कदाचित कुँवर के अंतर्द्वन्द्व को जान लिया था 'साधना से ही द्वंद्व-मुक्ति प्राप्त होगी प्रिय...! चिन्ता न करो!'

कुछ क्षणों के उपरांत देवी ने पुनः कहा-'देवी कामायोगिनी ने तुम्हें ज्ञान के बोझ से बोझिल कर दिया है, प्रिय! सर्वप्रथम तुम्हें इस बोझ से, इस भार से अपनी चेतना को मुक्त करना होगा, तत्पश्चात् उच्चतर साधना का प्रारंभ करना।'

देवी भुवनमोहिनी का व्यक्तित्व और भी रहस्यमय हो गया।

देवी का आशय क्या है? उलझकर उसने पूछा-'ज्ञान भी बोझिल होता है देवि?'

हँस पड़ी भुवनमोहिनी, 'नहीं प्रिय... ज्ञान स्वयं में बोझिल नहीं होता! परन्तु सूचनाओं से भरी चेतना में यही ज्ञान बोझिल हो जाता है। देवी कामायोगिनी के सान्निध्य में तुमने उनके षट्चक्र-नृत्य की साधना सम्पूर्ण की। जग में कितने तंत्र-उपतंत्र हैं, उसकी सूचनाएँ एकत्रित की, साथ ही पारद-विद्या के अंग-प्रत्यंगों की विधिवत् शिक्षा भी ग्रहण की।'

'आपका यह आशय तो नहीं देवी...कि उन्होंने जो ज्ञान दिया वह निरर्थक था।'

'नहीं प्रिय! इतने उतावले न हो...तुम्हारे प्रारंभिक तीन चक्रों का जागरण उनके सान्निध्य के कारण ही संभव हुआ...परन्तु तुम्हारी आसक्ति ने उन्हें विवश कर दिया। युगों-युगों से अर्जित अपनी समस्त विद्या उन्होंने तुम पर न्यौछावर करके तुम्हारी चेतना को बोझिल कर दिया, जिस कारण तुम्हारा परिचय पूर्ण सत्य से न हो पाया।'

'क्षमा करें देवी...! मैं मूढ़, आपकी बातें अभी भी नहीं समझ पा रहा हूँ। तंत्रशास्त्र का तो उन्होंने मुझे बाहरी ज्ञान ही कराया। उन्होंने कहा था चेतना के पूर्ण जागरण के साथ ही इनका समस्त ज्ञान मुझे स्वयं उपलब्ध हो जाएगा। रस-रसायन के गूढ़ रहस्यों से परिपूर्ण पारद-विद्या के दस-अंगों का ज्ञान देकर तो उन्होंने मुझ पर अतिरिक्त स्नेहिल कृपा ही की देवी...!'-अपनी बात कहकर उत्सुक कुँवर देवी को देखने लगा।

कुछ क्षणों तक देवी भुवनमोहिनी मौन मुस्कराती रहीं। तत्पश्चात् उन्होंने कहा-'पारद-विद्या काल-क्रम में क्यों समाप्त हो गयी...इसका कारण जानते हो प्रिय?'

'नहीं देवी...नहीं जानता।'

'मैं बताती हूँ, सुनो...परन्तु अपने वचनों का प्रारंभ करूँगी चक्रों से। तुम अपनी चेतना को ज्ञान-मुक्त कर रिक्त कर दो...भरी हुई स्लेट पर मैं कुछ भी अंकित नहीं करूँगी।'

'जैसी आज्ञा देवी...! मैं अपनी चेतना को अबोध मान आपकी वाणी पर केन्द्रित कर देता हूँ...उपदेश दें देवी!'

'तुम्हारी इसी निर्दोषिता पर मैं मुग्ध हूँ' ! पूर्ण मनोयोग से सुनना। सर्वप्रथम चक्रों का परिचय प्राप्त करो प्रिय! जीव के शरीर में चक्रों का कार्य शरीर में अपने अधीन क्षेत्र विशेष को संचालित करते रहना है। पशुओं के शरीर का भी संचालन चक्रों के माध्यम से होता है तथा मनुष्यों का भी। परन्तु, पशु की चेतना एक स्तरीय होती है और मानव का द्विस्तरीय। क्रोधित पशु नहीं जानता-कि वह क्रोध में है। परन्तु, मनुष्य की चेतना जब क्रोधित होती है, चिन्तित होती है अथवा कामुक होती है तो उसकी चेतना के द्वितीय स्तर को इसका ज्ञान रहता है कि वह क्रोध में है, चिन्ता में है अथवा कामावेश में है।

पशु के संचालक-चक्र उसके पैरों में होते हैं। इन चक्रों में प्रमुख संचालक चक्रों की संख्या भी सात होती हैं और मनुष्य के भी प्रमुख चक्र सात ही हैं।

इन चक्रों का विशेष परिचय फिर दूंगी। अब पारद-विद्या की संक्षिप्त चर्चा कर देती हूँ। यह तो तुम्हें ज्ञात ही है कि जो प्रतिपल विनष्ट हो रहा है, वही शरीर है। शरीर के कोष मृत होते रहते हैं तथा नवीन कोषों का जन्म होता रहता है और जीवन-चक्र चलता रहता है। परन्तु, युवा-काल के समापन के पश्चात्, नवीन जीवन-कोशिकाओें के उत्पन्न्न होने की दर घटती जाती है तथा मृत कोशिकाओं की संख्या बढ़ती जाती है। इसप्रकार, जीवन प्रति-पल विनष्ट होता जाता है। जीवन-कोष के निर्माण हेतु उत्तरदायी रसायन का उत्पादन जिस बिन्दु से सम्पन्न होता है, उसे तंत्र में अमृत कहा गया है, प्रिय! इसी बिन्दु को उत्प्रेरित कर योगी-गण अमृत-पान करते रहते हैं। मुझे विश्वास है, देवी कामायोगिनी ने जिह्ना को उलटकर नासिका-रंध्रों से इस अमृत-पान की प्रक्रिया का ज्ञान तुम्हें अवश्य कराया होगा।

'हाँ देवी...!' कुँवर ने कहा-'इस प्रक्रिया की साधना मैं नित्य करता हूँ।'

'पता था मुझे...!' भुवनमोहिनी मुस्कुराई. ' पारद-विद्याओं का मूल यही है प्रिय। कपाल-रंध्र से प्रवाहित होने वाला यही रसायन पारद-विद्याओं का मूल है। पारद-विद्याओं के ज्ञाता, जीवन के इसी अमूल्य उपादान को प्रकृति से प्राप्त कर मानव-तन का कायाकल्प करने में समर्थ होते हैं...परन्तु यह अप्राकृतिक प्रक्रिया है प्रिय तथा प्राकृतिक जीवन-चक्र का अतिक्रमण उचित नहीं। मनुष्य की कुण्डलिनी शक्ति के सम्पूर्ण जागरण के पश्चात् जब शिव संग शक्ति का सायुज्य होता है तो साधक के कपाल-रंध्र स्वयमेव अमृत-वर्षा करने लगते हैं।

कहकर भुवनमोहिनी हँस पड़ी।

उत्सुक कुँवर देवी की इस अकारण हँसी पर उन्हें अपलक देखने लगा। तभी हँसते हुए ही भुवनमोहिनी ने पुनः कहा-'मुझे हँसी क्यों आयी...यही चिन्ता कर रहे हो न प्रिय? ...मैंने कहा न, कुण्डलिनी के जागरण का परिणाम होता है अंतर्जगत में अमृत-वर्षा! मैं इसीलिए हँस पड़ी...क्योंकि तब साधक को इसकी न आवश्यकता होती है, न कोई इच्छा ही शेष रहती है।'

कहकर भुवनमोहिनी पुनः हँसने लगी।

द्वार पर दासी के आगमन ने भुवनमोहिनी की हँसी पर विराम लगा दिया। दासी सुरभि उपस्थित हो विनयावनत खड़ी थी।

'कहो सुरभि!' भुवनमोहिनी ने मृदुल-मुस्कान के साथ कहा-'माताश्री का संदेश लेकर आयी हो?'

'हाँ देवी!' उसने सादर कहा-'आपके कक्ष से होकर आयी हूँ। राजमाता भोजन-कक्ष में अल्पाहार हेतु प्रतीक्षा कर रही हैं।'

'उत्तम!' कहकर देवी कुँवर की ओर उन्मुख हुईं, 'चलो प्रिय, माताश्री हमारी प्रतीक्षा कर रही हें।'

भोजन-कक्ष में पहुँचकर भुवनमोहिनी थोड़ी असहज हो गयी।

प्रसन्न-मुद्रा में युवराज चन्द्रचूड़ वहाँ उपस्थित था। भुवनमोहिनी को देखते ही युवराज उनकी अभ्यर्थना में उठकर खड़ा हो गया।

'आओ कुँवर!' राजमाता ने कुँवर दयाल से मुग्ध भाव में कहा-'स्वागत है तुम्हारा।'

कुँवर दोनों को प्रणाम कर अपने आसन पर विराजा।

भुवनमोहिनी भी मुस्कुराती बैठ गयीं।

तत्काल सेविकाओं ने सुगंधित पेय सहित प्रातःकालीन अल्पाहार परोसना प्रारंभ कर दिया।

'मुझ पर अभी तक आप खिन्न हैं देवी'-अपने अभिवादन पर, भुवनमोहिनी की उदासीनता देख चन्द्रचूड़ ने धीरे से कहा।

'क्यों युवराज?' भुवनमोहिनी ने सहजतापूर्वक कह दिया-'किस कारण आपने ऐसा समझा?'

'आपने मेरे अभिवादन को नहीं स्वीकारा देवी.'

'अनौपचारिकताओं की इतनी आवश्यकता नहीं है युवराज। आपके साथ आज भोजन-कक्ष में मैं सम्मिलित हूँ...तो इसका अर्थ ही यह है कि आपके साथ अब मैं सहज हूँ। आप भी सहज हो जाएँ तो उत्तम हो।'

'भोजन ग्रहण करो पुत्र!' राजमाता ने हस्तक्षेप करते हुए कहा-'इसके उपरांत वार्तालाप प्रारंभ करना।'

राजमाता ने पुनः कुँवर दयाल से मुस्करा कर कहा-'तुम भी आतिथ्य स्वीकार करो कुँवर...भोजन प्रारंभ करो!'

'यह तो अनुचित है माते' ! कुँवर ने हँसते हुए कहा-'मैं भी तो आपका पुत्रवत् ही हूँ...फिर मेरे लिए अन्य सम्बोधन क्यों?'

राजमाता हँस पड़ी-'उत्तम! तुम्हें अब कुँवर नहीं कहूँगी...भोजन ग्रहण करो पुत्र!'

राजमाता की बात पर सभी हँस पड़े। इसके पश्चात् सब ने मौन होकर प्रभातकालीन जलपान प्रारंभ कर दिया।

राजप्रासाद का स्वादिष्ट जलपान ग्रहण करने के पश्चात् सर्वप्रथम राजमाता ने ही मौन-भंग कर कुँवर से कहा-' तुम्हारे अंचल में सब कुशल-मंगल तो है न

पुत्र? ... तुम्हारे सौभाग्यशाली माता-पिता तथा अन्य परिजन स्वस्थ एवं प्रसन्न तो हैं...तथा अंचल की प्रजा भी सुखी-सम्पन्न है न पुत्र? '

'कमला मैया की कृपा से सभी सुखपूर्वक हैं माता...!'

कुँवर के कहते ही भुवनमोहिनी ने तत्परता से कह दिया-'सिवा आपके कुँवर पुत्र के.'

राजमाता चौंकी-'क्या तात्पर्य है तुम्हारा?'

और कुँवर की सारी कहानी खुल गयी!

भुवनमोहिनी ने कुँवर की आद्योपांत कथा सुना दी।

वियोगिनी अमृता के प्रसंग ने राजमाता सहित युवराज चन्द्रचूड़ को व्यथित कर दिया। उनके नयन सजल हो गए. आमोद-प्रमोद के वातावरण में करुणा का सोता फूट पड़ा।

देवी भुवनमोहिनी की सुहासिनी मुखाकृति ने संवेदनाविहीन हो अपने अंतस से आत्मालाप किया-'मेरी अबोध-माता अभी तक लौकिक-भावनाओं की आसक्ति के भंवर में फँसी हैं। ज्ञान के अभाव में सम्पूर्ण जीवन मूर्च्छा में व्यतीत हो जाता है और अज्ञानी मानव क्षुद्र संवेदना में ही फँसा रहता है।'

पुत्री के मुखमण्डल पर मंद हास के आभास से चकित राजमाता ने कहा-'तुम तो सिद्ध साध्वी हो पुत्री, परन्तु फिर भी चकित हूँ मैं...मेरे प्रिय पुत्र की वेदना ने तुम्हें किंचित भी व्यथित न किया...आश्चर्य है मुझे!'

'आपकी संवेदनहीन पुत्री समस्त मानवीय भावनाओं से विरक्त हैं, माते!' युवराज चंद्रचूड़ ने उच्छ्वास लेते हुए कहा-'उच्च स्तर की साधिका हैं ये।'

'मेरे प्रिय शिष्य को करुणा नहीं, ज्ञान की आवश्यकता है!' भुवनमोहिनी ने दृढ़ स्वर में कहा-'इसका दिव्य-जीवन इन सांसारिक लालसाओं के निमित्त नहीं है।'

'मैं आपसे सहमत नहीं देवी!' तीव्र चन्द्रचूड़ ने प्रतिवाद किया-' संन्यास-

साधना ने आपके जीवन को रसविहीन कर दिया है, देवी! उग्र साधना के परिणाम ने आपके अंतस्, आपके प्राण और आपके सम्पूर्ण चेतन-रस को हिम के सदृश घनीभूत कर दिया है...परन्तु यह जग जीवन्त है देवी. प्रकृति आपकी तरह स्पंदनविहीन नहीं। पीड़ा होती है तो आह निकलती है। हमारी वेदना, जल बनकर हमारे नेत्रों में उभरती है। प्रसन्नता में हम हँसते और दुख में रोते हैं। आप कहती हैं यह अज्ञानता है, परन्तु हमारी पूँजी, हमारे धन-वैभव और सम्पदा-सब कुछ हमारी भावनाएँ, हमारी संवेदनाएँ ही हैं देवी, जिनसे आप बलात् मुक्त होना चाहती हैं। कुँवर दयाल की पीड़ा का आभास आपको नहीं, परन्तु मुझे है...आपकी स्नेहमयी माता जी को है। अन्यथा न लें तो मैं कहूँगा...आप तो निर्मोही हैं देवी! आपके लिए मैंने अपना सर्वस्व त्यागकर प्रेम किया और प्रेम की पीड़ा को समझता हूँ मैं। प्रिय कुँवर की वेदना ने संतप्त किया है मुझे। मुझे तो मेरे प्रेम के प्रतिदान में, आप जैसे निर्मोही की वितृष्णा ही मिली, परन्तु इन्होंने तो पाकर भी खो दिया है उसे। इनकी पीड़ा का आभास भला आपको कैसे होगा? '

विरागिनी की मुखाकृति पर कोमल भावनाएँ उभरने के पूर्व ही विलीन हो गयीं। भावनाओं को कठोरतापूर्वक अतिक्रमित करते हुए भुवनमोहिनी ने अपने ओष्ठ को अधर पर दबा मुख पर उभरने वाले प्रेम-भाव को रोक स्वयं को बलात् भावशून्य कर लिया। परन्तु अंतस् में उठ रहे चेतना के प्रवाह को वह रोक न पायी।

राजमाता का हृदय प्रफुल्लित हो गया।

उसमें नवीन आशाओं की कोंपलें निकल आयीं। प्रथम बार ही उन्हें युवराज की मेधा और उसके अंतर्व्यक्तित्व का परिचय प्राप्त हुआ था। गद्गद् हो गयीं वह।

कुँवर के नेत्रों में भी युवराज के प्रति स्नेह और प्रशंसा के भाव उभर आए.

प्रारब्ध ही विपरीत है, अन्यथा चन्द्रचूड़ से उपयुक्त जीवन-साथी और कौन हो सकता था देवी के लिए. परन्तु वह तो शिष्य है देवी का। इस नितांत व्यक्तिगत विषय पर विचार व्यक्त करने का उसे अधिकार ही नहीं, अतएव वह मौन ही रहा।

मौन को चंद्रचूड़ ने ही भंग करते हुए पुनः कहा-'मैंने अपने मन-प्राण और जीवन आपको अर्पित कर दिये हैं देवी! आप इसे स्वीकारें अथवा ठुकराएँ, इसकी चिन्ता नहीं मुझे। मेरे हृदय की प्रत्येक धड़कन आपकी है, अंतस् का स्पंदन आपका है और अब तो आपके प्रति मेरे प्रेमभाव ने प्रेमोन्माद का रूप ग्रहण कर लिया है देवी...! जीवन-पर्यन्त इसमें आपकी ही कामना और भी घनीभूत होती रहेगी।'

'यह उन्माद है तुम्हारा!' भुवनमोहिनी ने शांत किन्तु विचलित वाणी में कहा-'और तुम्हारे उन्माद से मेरा क्या सम्बंध?'

'मेरा यह उन्माद तो आपके ही लिए है देवी!'

'परन्तु है तो यह तुम्हारा ही। ...बाल-हृदय चन्द्रमा के लिए उन्मादित हो जाए तो उसकी माता उसे बहला-फुसला देती हैं। बहलाती भी इसीलिए है, क्योंकि शिशु अबोध होता है...परन्तु तुम तो अबोध नहीं चन्द्रचूड़!'

चन्द्रचूड़ ने कुछ नहीं कहा, किन्तु राजमाता व्यथित हो गयीं और वातावरण बोझिल हो गया।

अंततः इस असहनीय मौन को राजमाता के कथन ने ही भंग किया। चन्द्रचूड़ को इंगित कर अपनी पुत्री से उन्होंने कहा-'दो पदार्थ आपस में संयुक्त न हों तो इस धरा का अस्तित्व बिखर जाए, दो शरीर न मिलें तो जीवन बिखर जाए तथा दो मन आपस में न मिलें तो समस्त सौन्दर्य ही व्यर्थ हो जाए. इसी प्रकार, पुत्री! यदि दो आत्माएँ न मिलें तो परमात्मा के अस्तित्व में होने का कोई विकल्प ही न रहे। परन्तु ये बातें तुमसे क्यों कह रही हूँ मैं? ...तुम तो स्वयं परम ज्ञानी-विदुषी हो। जो कहना है...अपने पुत्र से कहूँगी मैं...सुनो पुत्र!'

राजमाता ने चन्द्रचूड़ से दृढ़ स्वर में कहा-' जब किसी को प्राप्त करने के लिए मन पर धुन सवार रहती है और इस बिन्दु पर उसकी पूर्ण एकाग्रता हो जाती है, तब अंतस् की गहराई में निहित शक्तियाँ प्रकट होती हैं। ... और निश्चित जानो, मैं उस क्षण की तब तक प्रतीक्षा करती रहूँगी पुत्र, जब तक तुम्हारे अंतस् की वे शक्तियां प्रकट न हो जाएँ।

राजमाता की उक्ति ने भुवनमोहिनी की चेतना झंकृत कर दी।

ऐसा प्रतीत हुआ मानो चन्द्रचूड़ के प्रेमालाप में उसकी केन्द्रीय भावनाओं का समस्त हिम पिघल कर रह जाएगा।

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उदितनारायण ने क्षितिज को रक्तवर्णी कर दिया था।

नीड़ छोड़ चुके पंछियों के कलरव, मंद-शीतल बयार के साथ घुलकर वातावरण को और भी मनोरम बना रहे थे।

ऐसे में उत्कल के आनंदमग्न सेनापति हतोत्साहित हो चुके अमात्य के साथ महाश्मशान से लौटे। अपने भवन में सेनापति ने प्रातःकालीन अल्पाहार हेतु अमात्य को सादर रोका था। चिन्तित अमात्य की वाणी अवरुद्ध थी। इस विषम परिस्थिति ने उन्हें हतप्रभ कर दिया था।

'आप कुछ भी ग्रहण नहीं कर रहे अमात्य,' सेनापति ने कहा।

'क्या करूँ वीरवर!' भरे कण्ठ से उन्होंने कहा-'हमारे युवराज की बलि दी जा रही है और मैं मधुर मिष्टान्नों के भोग हेतु तत्पर हूँ। धिक्कार है मेरी रसना को... धिक्कार है!'

'यह क्षण यों अधीर होने का नहीं'-धूर्त्तता भरे नेत्रों से सेनापति ने कहा-'आप उत्कल राज्य के वरिष्ठ हितैषी हैं अमात्य! इस विकट परिस्थिति में हम सभी को आपके मार्गनिर्देशन की आवश्यकता है। आप तो परमज्ञानी हैं...चिन्तित चित्त से चेतना को अवरुद्ध न कर सर्वप्रथम चिन्ता का त्याग करें अमात्य तथा आदेश दें, हमें क्या करना उचित है? ... उग्रचण्डा ने जिसप्रकार उस कापालिक टंका की शक्तियों का वृहत बखान किया है, उसके अनुसार तो यह कापालिक अजेय है अमात्य। हमारी सेना से तो इस विकट सिद्ध का प्रतिकार संभव नहीं। अब आप ही वैकल्पिक मार्ग बताएँ तो मैं तत्काल तद्नुसार उद्योग करूँ। ... परन्तु सर्वप्रथम तो आप अपने अनुजवत् सेनापति का ग्रास ग्रहण करें अमात्य!'

'नहीं सेनापति' , उद्विग्न अमात्य ने कहा-'गले से उतरेगा नहीं। दुष्ट टंका ने विगत रात्रि ही भुवनमोहिनी से नर-बलि हेतु हमारे युवराज को प्राप्त कर लिया होगा। परन्तु अभी बलि में विलंब है। हमें अविलंब महाराज की सेवा में उपस्थित हो उन्हें समस्त सूचना देनी होगी। विलंब का अब कोई प्रयोजन नहीं...आप मेरे साथ शीघ्र चलें।'

'जैसी आज्ञा अमात्य।' कहकर सेनापति उठ कर खड़ा हो गया।

नित्य क्रिया सम्पन्न कर राजा अल्पाहार ग्रहण कर चुके थे।

सेनापति के साथ अमात्य को उपस्थित देख उनकी उत्सुकता तीव्र हो गयी। अवश्य चंद्रचूड़ की ही सूचना लेकर आए हैं ये। इनकी कर्तव्यनिष्ठा पर प्रसन्न होकर राजा ने दोनों का सत्कार किया।

'कहिए अमात्य!' राजा ने कहा-' कदाचित् चंद्रचूड़ का ही समाचार लेकर

पधारे हैं आप दोनों। कहिए कहाँ है मेरा प्रिय पुत्र? '

'शंखाग्राम में महाराज!' अमात्य ने अत्यंत कष्ट से कहा-'हमारे प्रिय युवराज शंखाग्राम में हैं।'

'आश्चर्य! इतने सुदूर के अंचल में...'-विस्मित राजा ने कहा, 'किस कारण अमात्य? ... किस प्रयोजन हेतु मेरे प्रिय चंद्रचूड़ ने इस सुदूर प्रांत की गुप्त यात्र की? ...आश्चर्य है मुझे!'

'प्रेम के कारण महाराज!' अमात्य ने व्यथित स्वर में कहा-'शंखाग्राम की स्वामिनी अपूर्व-सुन्दरी भुवनमोहिनी के अलौकिक-सौन्दर्य ने उन्हें वशीभूत कर लिया है महाराज!'

'अच्छा!' प्रमुदित स्वर उभरा महाराज का-'तो हमारा प्रिय पुत्र युवा हो गया है अब।' कहते ही वे हँस पड़े।

उन्होंने पुनः कहा-'इसमें मेरे साथ-साथ आप भी दोषी हैं, अमात्य। पिता की दृष्टि में पुत्र हमेशा बालक ही रहता है, परन्तु आप तो हमसे भी वृद्ध हैं। आपको उचित था कि युवराज तरूण हो गये तो इसकी सूचना आप मुझे भी देते।'

कहकर उन्होंने हास किया-'तो कहिए क्या संदेश भेजा है उस नटखट ने? हमें अपने विवाहोत्सव में बुलाया है या नहीं?'

कुछ क्षण रुककर उन्होंने पुनः सेनापति से कहा-'सेनापति! शंखाग्राम की यात्र का शीघ्र प्रबंध करो। प्रजा में मिष्टान्न वितरित करो। समस्त राज्य में घी के दीप जलाओ. हम अपने पुत्र के पास शीघ्र जाने को आतुर हैं...तत्काल व्यवस्था करो।'

'मूर्ख राजा!' सेनापति ने आत्मालाप किया-जान तो ले, किस विकट स्थिति में है तेरा पुत्र। बलि पड़ने वाली है उसकी। कापालिक टंका के अस्त्र तेरे पुत्र का शिरोच्छेद करने वाले हैं मूढ़! '

अमात्य इस स्थिति हेतु तैयार नहीं थे। अब क्या कहें? कैसे कहें...सोच नहीं पाये। जड़वत् मौन हो गए वह।

'क्या बात है अमात्य?-आपका मुख यों म्लान क्यों है?'

अमात्य ने फिर भी मौन भंग न किया तो आतुर राजा ने पुनः पूछा-'अभागी भुवनमोहिनी ने मेरे सुदर्शन पुत्र को अस्वीकार तो नहीं कर दिया अमात्य? ...आप मौन क्यों है? मेरा पुत्र सकुशल तो है न?'

'अभी तक तो सब कुशल है महाराज!' अमात्य ने कहा-'परन्तु आपकी आशंका सत्य है। भुवनमोहिनी साध्वी साधिका हैं। अपने शहस्त्रदल-कमल-नृत्य की साधना में निमग्न होकर उन्होंने, समस्त लोक-व्यवहारों का त्याग कर दिया है महाराज। प्रणय-निवेदन के प्रतिदान में हमारे युवराज का न केवल उसने तिरस्कार किया, वरन उसने चन्द्रचूड़ के कृत्य को अक्षम्य अपराध भी घोषित कर दिया है, राजन।'

'क्या कहा?' क्रोधित स्वर में कहा राजा ने-'हमारे पुत्र के लिए दण्ड की घोषणा की है उसने? ...उत्कल देश के युवराज को...?'

इस विपरीत परिस्थिति में भी ठठाकर हँस पड़े महाराज।

राजा को इसप्रकार हँसते हुए न सेनापति ने कभी देखा था, न अमात्य ने। कुछ क्षण तो ऐसा लगा जैसे वे विक्षिप्त हो गये हों, परन्तु जब उनका अट्टहास थमा तो अत्यंत क्रोधित स्वर में उन्होंने कहा-'शंखाग्राम की स्वामिनी सिद्ध हों अथवा योगिनी। ...क्या उसे ज्ञात नहीं, उत्कल राज्य क्या है? इस राज्य की सामर्थ्य-शक्ति का कदाचित् आभास नहीं उस योगिनी को। ... किंचित भी आभास होता तो हमारे युवराज को दण्डित करने की कल्पना भी नहीं करती वह। कदाचित् सौन्दर्य-गर्व के मद में उसने ऐसा दुःसाहस कर डाला। ...सेनापति!' चीखे महाराज।

'आज्ञा महाराज!'

'अपनी सेना को अस्त्र-शस्त्रों से शीघ्र सुसज्जित करो! इस दुष्टा को मैं स्वयं बंदी बनाकर दण्डित करूँगा...! जाओ...! शीघ्रातिशीघ्र सेना को मेरा आदेश दो!'

किंकर्तव्यविमूढ़ सेनापति ने अमात्य को देखा।

अमात्य के नेत्रों में भी उलझन भरी थी।

राजा के आदेश पर वे क्या कहें...उनकी समझ में न आया। सेनापति को नेत्रों द्वारा निकल जाने का संकेत कर उन्होंने कहा-'राजाज्ञा का तत्काल पालन करें सेनापति...!' कहकर वेे सेनापति की बाँह पकड़कर कक्ष से बाहर ले आए.

'आपनी वास्तविक वस्तुस्थिति से राजा जी को आपने अवगत क्यों नहीं कराया अमात्य?' सेनापति ने रूष्ट भाव से कहा-'अब क्या करूँ मैं?'

'शांत हो जाएँ सेनापति। आपने देखा नहीं राजा जी की क्या दशा थी? ऐसे में क्या कहता मैं? कैसे कहता कि दुर्द्धर्ष कापालिक के चंगुल में फँसे हैं हमारे युवराज। युवराज को उस विकट कापालिक ने बलि हेतु प्राप्त कर लिया है...यह कहते मेरी जिह्ना कटकर गिर न जाती? ...कहिए सेनापति...! कहिए...कैसे कहता मैं? ...और कह देता तो परिणाम क्या होता...नहीं जानते आप? कल ही तो आपने देखा... किस प्रकार हृदयाघात ने उनकी चेतना हर ली थी। देखा था न आपने? ... फिर कहिए कैसे कहता मैं?'

अमात्य की मूर्खता पर सेनापति अंदर ही अंदर अत्यंत उद्वेलित हुआ। परन्तु कुशलतापूर्वक अपने अंतस के आवेग को रोकते हुए उसने कहा-'तो अब क्या करें हम? ...सशस्त्र सेना को सज्जित होने का आदेश दें अमात्य?'

'यही तो विचार करना है...क्या करें हम? जनता को ज्ञात होगा तो विद्रोह हो जाएगा। चन्द्रचूड़ सबका अत्यंत प्रिय है। अपने युवराज के रक्षार्थ सारी प्रजा निहत्थी ही शंखाग्राम की ओर दौड़ पड़ेगी...और असंभव नहीं कि प्रथम प्रहार हमारे राजभवन पर भी हो जाए.'

अमात्य के विचार ने सेनापति को विस्मित कर दिया।

उसने आश्चर्य से पूछा-' राजभवन पर! ...हमारी जनता हमारे ही राजभवन पर आक्रमण क्यों करेगी अमात्य?

'क्योंकि हम अकर्मण्य हो मौन हैं'-उत्तेजित अमात्य ने कहा-' जनता का

क्रोध राजा पर उतरेगा; क्योंकि युवराज की बलि पर गौरवशाली उत्कल देश का राजा पुरुषार्थहीन होकर शांत बैठा है। '

अमात्य के विचारों के रहस्य ने सेनापित को मुदित कर दिया।

इस दृष्टिकोण से तो उसने सोचा ही नहीं था।

अमात्य सत्य कह रहे हैं।

यही अवसर है...जिसे चूकना नहीं है। सेनापति की अंतरात्मा प्रसन्न हो गयी। उसने सोचा युवराज के बलि का ढिंढोरा पिटवा दिया जाए. ऐसे वीर्यहीन राजा को उत्कल राज्य की गद्दी से पदच्युत कर शक्तिशाली सेनापति को राजा बनाया जाए...बनाया जाए.

तत्काल आए इस विचार ने उसकी समस्त चेतना को मुदित कर दिया। प्रसन्नता की रेखाएँ अनचाहे ही उसकी मुखाकृति पर छा गयी।

सेनापति के मुखमण्डल पर अनायास भाव-परिवर्तन ने अमात्य को अचंभित कर दिया। क्या अनर्थ सोच रहा है यह?

'सेनापति!'

ध्यानाकर्षण हेतु अमात्य ने कहा भी, परन्तु स्वप्निल नेत्रों वाले सेनापति का

ध्यान कहीं और था।

स्वप्न में खोया यों ही खड़ा रहा वह।

भुवनमोहिनी की मनोदशा विचित्र हो गयी।

उसके अंतस के सुकोमल भाव अनायास ही जाग्रत हो गये थे। जिस कारण संभवतः प्रथम बार, उसके हृदय में द्वंद्व उभर आया था।

मनोभावों में उत्पन्न द्वंद्व को कुशलतापूर्वक दबाये वह कुँवर दयाल सिंह के साथ वार्तालाप में निमग्न थी।

कुँवर की जिज्ञासा थी-'यह तंत्र क्या है?'

देवी ने जब कह दिया-तंत्र सातवाँ दर्शन है तो कुँवर और भी जिज्ञासु हो गया। ... और इसप्रकार साधिका भुवनमोहिनी के अंतर्ज्ञान की पंखुड़ियाँ उसके समक्ष खुलती चली गयीं।

देवी ने चिन्तन करते हुए कहा-'हमारे पुरातन ऋषियों-मनीषियों के मौलिक आध्यात्मिक, तात्त्विक, नैतिक, सामाजिक एवं व्यावहारिक विचारों के संग्रह का नाम' वेद' है। वेद वस्तुतः विभिन्न संतों-मनीषियों द्वारा अनेक पीढ़ियों की दीर्घ

अवधि में संचित, विचारों, विश्लेषणों, चिन्तनों के संग्रह हैं। ये प्रबुद्ध लोग चाहते तो अपने विचारों तथा दर्शनों को अति सहजता से सुसंगठित धर्मों के रूप में विकसित कर सकते थे।

तन्त्रा एक धर्म हो सकता था, सांख्य एक दूसरा धर्म हो सकता था। न्याय और वैशेषिक अलग-अलग धर्मों के रूप में स्थापित किये जा सकते थे। परन्तु उन्होंने इसकी आवश्यकता नहीं समझी।

इस विचार-संग्रह को 'सनातन' नाम से सम्बोधित किया जाने लगा, जिसका तात्पर्य होता है-शाश्वत, नित्य-निरंतर, अनादि-अनन्त, अपरिवर्तनीय या अक्षर-अविनाशी। सनातन की अवधारणा के अंतर्गत ये विभिन्न दार्शनिक

धाराएँ व्यावहारिक निर्देश और मार्गदर्शन, यम एवं नियम के अभ्यास, जीवन-पद्धतियाँ तथा ध्यान आदि आ आते हैं, जिनका अन्तिम लक्ष्य है ईश्वर से साक्षात्कार अथवा ईश्वर में विलीन हो जाना। '

'तो हमारा धर्म कौन-सा है, देवी?' कुँवर ने मुग्ध हो जिज्ञासा की।

' हमारा कोई एक सुसंगठित धार्मिक संरचना नहीं है, प्रिय। यहाँ विभिन्न मत, पंथ, सम्प्रदाय और परंपराएँ हैं जिन्होंने अपनी अलग-अलग पूजा एवं उपासना पद्धति विकसित की है। इन पद्धतियों को विभिन्न वादों के नाम से सम्बोधित किया गया है; जैसे-वैष्णववाद, शाक्तवाद, शैववाद आदि। ये समग्र सनातनी संरचना के अंतर्गत धर्म बन गए हैं। परन्तु छः मुख्य विचार-पद्धतियां, जिनसे सनातन संरचना का निर्माण होता है, किसी धर्म का अंग नहीं हैं।

ये छः विचार पद्धतियाँ हैं: वेदांत, सांख्य, न्याय, वैशेषिक, उत्तर मीमांसा और पूर्व मीमांसा। तदुपरांत तन्त्रा का स्थान आता है, जिसके विभिन्न रूप और व्याख्याएँ हैं। इसलिए मैंने इसे सातवाँ दर्शन कहा प्रिय! '

भवुनमोहिनी के प्रियवचनों से आनंदित होकर कुँवर ने कहा-' इन अत्यंत जटिल जिज्ञासाओं का जिस सहजतापूर्वक आपने निदान किया, वह वास्तव में अद्भुत है। आपका आशय जो मैंने समझा, सनातन एक मानवीय संस्कृति है। यह हमारे क्रियाकलाप, कर्म, जीवन-पद्धति, चिन्तन एवं ईश्वर की अवधारणा से सम्बंधित

आध्यात्मिक अन्वेषण से सम्बद्ध है। '

'अति कुशाग्र हो प्रिय!' प्रसन्नता प्रकट करते हुए भुवनमोहिनी ने कहा।

'धृष्टता न समझें तो मैं कुछ निवेदन करना चाहता हूँ देवी!' विनीत भाव में कुँवर ने कहा।

'तुमसे धृष्टता संभव ही नहीं है प्रिय...! निःसंकोच कहो...क्या कहना चाहते हो?'

'देवी मैं अल्पज्ञ हूँ...मेरी चेतना भी अभी अविकसित ही है, किन्तु जब चिन्तन करता हूँ तो मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि इस सृष्टि में मनुष्य के अवतरण का अवश्य ही निश्चित प्रयोजन है।'

हँस पड़ी भुवनमोहिनी।

हँसते हुए ही उसने पूछा-'तनिक बताओ तो प्रिय...इस गूढ़-विषय पर तुम्हारे चिन्तन का परिणाम क्या है...तुम्हारी दृष्टि में, वे कौन से प्रयोजन हैं?'

'पूर्ण अनुभव की प्राप्ति देवी!'

'और पूर्ण अनुभव क्या है प्रिय?' विनोदी स्वर में भुवनमोहिनी ने पूछा।

'प्रथम अनुभव लौकिक है देवी, द्वितीय अलौकिक। भौतिक, भावनात्मक एवं नैतिक हमारे लौकिक अनुभवों की शृंखला है तथा आध्यात्मिक अनुभव अलौकिक श्रेणी के अंर्तगत है। मनुष्य का जीवन-लक्ष्य यही है कि वह इनकी पूर्ण अनुभूति प्राप्त करे।'

'सत्य कहा तुमने प्रिय!' पुनः हास बिखर कर उसकी मुखाकृति पर आया। 'किन्तु तुमने इसे धृष्टता क्यों कहा प्रिय...यह तो शाश्वत ही है?'

'आप इसे शाश्वत कहती हैं तो द्वंद्व क्यों है आपके अंतस् में?'

'द्वंद्व कैसा?' विस्मित हो उसने पूछा।

'क्षमा करें देवी...! आज प्रातःकाल राजमाता की बातों ने आपके हृदय में द्वंद्व उत्पन्न कर दिया था।'

भुवनमोहिनी मुस्कराई, परन्तु मौन रही।

कुँवर ने पुनः कहा-' जीवन की भौतिक आवश्यकताओं का अर्थ है -धन। भावनात्मक आवश्यकता का सम्बंध प्रेम से और नैतिकता का सम्बंध

धर्म से है देवी! ये शाश्वत हैं तो फिर द्वंद्व कैसा? '

'बड़े चतुर हो तुम प्रिय!' उसके अधरों पर मंद हास उभर आया। कुछ क्षण उपरान्त उसने पुनः कहा-'तो तुम्हारी इच्छा क्या है...विवाह कर लूँ उस युवराज से?'

'मेरी इच्छा का कोई अर्थ नहीं'-शांत भाव में कहा कुँवर ने-'आपकी इच्छा सर्वोपरि है अन्यथा न लें तो शिष्य को आप अपनी इच्छा से अवगत कराएँ देवी.'

'अत्यंत वाक्पटु हो तुम प्रिय!' मुस्करा कर भुवनमोहिनी ने कहा-'तुम्हारे इस अतिरिक्त गुण का भान नहीं था मुझे,' कहते ही हँस पड़ी वह।

हँसी थमी तो देवी ने पुनः कहा-'अपनी साधना का प्रारंभ कब करोगे प्रिय?'

'मैं तो प्रतिपल तत्पर हूँ देवी!'

'शंखाग्राम के प्रासाद में आज तुम्हारा प्रथम दिवस है प्रिय! आज का दिवस विश्राम में व्यतीत करो...और कल प्रातः से ही अपनी साधना का प्रारंभ करो।'

'जैसी आज्ञा देवी!'

'एक आज्ञा और है मेरी!' उसने विनोदी स्वर में कहा।

'वह क्या देवी?'

'अपने लक्ष्य के अतिरिक्त शेष कोई अन्य चिंतन, कार्य अथवा साधना से स्वयं को सर्वथा मुक्त रखना।'

'ऐसा ही होगा देवी!' मस्तक झुकाकर कहा कुँवर ने।

कुँवर की भंगिमा पर देवी पुनः हँस पड़ी।

कुँवर की आकृति पर लज्जा का भाव उभर आया।

लजा गया वह और कुँवर को लक्ष्यकर भुवनमोहिनी खुलकर हँस पड़ी। मोतियों-सी उसकी दंतपंक्ति झिलमिलायी और उनके मधुर स्वरकंपन ने कक्ष में संगीत भर दिया।

अगले दिवस प्रातःकाल ही सहस्त्रदल-कमल-चक्र-नृत्य की साधना प्रारंभ हो गयी। भुवनमोहिनी ने संगीत के सात स्वरों से चक्रों के सम्बन्ध का रहस्योद्घाटन कर दिया था। किसप्रकार एक-एक स्वर को चक्रों के साथ आरोहित किया जाता है तथा पुनः उसके अवरोहन की प्रक्रिया देवी ने बता दी।

भुवनमोहिनी ने कहा-'संगीत के सात स्वर मूलाधार से सहस्त्रर तक चक्रों की तरंगों से सम्बंधित हैं और यही संगीत-हमारे नृत्य के साथ चक्रों के जागरण का आधार है।'

तत्पश्चात् उन्होंने कुँवर से प्रत्येक स्वर का गायन कराया।

कुँवर ने अपने सधे हुए कण्ठ से देवी को प्रसन्न कर दिया।

'प्रत्येक स्वर शुद्ध है तुम्हारा'-प्रसन्न होकर कहा देवी ने-'अब इन स्वरों का सस्वर आरोहण-अवरोहण करो प्रिय!'

तन्मय होकर गायन प्रारंभ कर दिया कुँवर ने और देवी भुवनमोहिनी

तन्मय होकर सुनती रहीं।

कुँवर के गायन के पश्चात् देवी ने कहा-'इन स्वरों के साथ क्रमशः सजगता का भी आरोहण करते जाना प्रिय। यह आरोहण सुषुम्णा में मूलाधार से प्रारंभ करना और अपनी सजगता को एक के बाद दूसरे चक्रों पर ले जाना। साथ-साथ यह भी अनुभव करते जाना प्रिय कि तुम्हारा प्रत्येक स्वर सम्बंधित चक्रों के क्षेत्र में तरंगित हो रहा है। स्वर-चेतना सहस्त्रर पर जा पहुँचे तो पुनः मूलाधार तक अवरोहन प्रारंभ कर देना प्रिय...समझ गए?'

'हाँ देवी.'

'तो नृत्य प्रारंभ करो...देखो मुझे।'

कहकर भुवनमोहिनी ने सहस्त्रदल-चक्र-नृत्य का प्रदर्शन प्रारंभ कर दिया। कुँवर ने पूर्ण एकाग्र होकर ध्यान से देवी के नर्तन को देखा, तदुपरांत उसका अनुकरण करते हुए सम्पूर्ण नृत्य की पुनरावृत्ति कर दी।

'सर्वथा निर्दोष! ... देवी ने संतुष्ट होकर कहा-' नृत्य-महोत्सव में ही मुझे तुम्हारी क्षमता का ज्ञान हो गया था प्रिय। अतएव मैंने सम्पूर्ण नृत्य का प्रदर्शन एक ही साथ पूर्ण कर दिया। मैं जानती थी...तुम एक ही बार देखकर इसकी सम्पूर्ण आवृत्ति दुहरा देने में सक्षम हो...और तुमने वही किया। इस सहस्त्रदल-कमल-चक्र-नृत्य की निरंतर साधना करो। तुम्हारी साधना में मैं मात्र द्रष्टा बनी रहूँगी और साधना-क्रम के अनंतर तुम्हारी अंतश्चेतना यदि कुछ देखती अथवा श्रवण करती है तो मुझे बताते रहना प्रिय! '

'जैसी आज्ञा देवी!' विनीत कुँवर ने कहा।

'एक और आवश्यक निर्देश देती हूँ'-भुवनमोहिनी ने वाणी में स्नेह भरकर कहा-' प्रातः दो-प्रहर तथा मध्य रात्रि के दो-प्रहर तुम्हें पूर्ण अनुशासित होकर नित्य-

साधना करनी है तथा निद्रा में मात्र एक-प्रहर व्यतीत करना है। शेष तीन प्रहर अपनी

सजगता को श्वास-प्रश्वास के आवागमन पर केन्द्रित रखना प्रिय, चाहे नित्य-क्रम में रहो अथवा भोजनादि में...वार्तालाप-आदि में भी व्यस्त रहो परन्तु प्रत्येक-पल अपनी चेतना के अतिरिक्त-स्तर पर तुम्हारी सजगता, श्वास-प्रश्वास के आवागमन पर ही एकाग्र रहनी चाहिए! '

'ऐसा ही होगा देवी!'

'मैंने अपनी बात समाप्त नहीं की है। प्रिय...! तनिक धैर्य धरो! मैं तुम्हें एक मंत्र देती हूँ। उसे धारण करो। श्वास के प्रत्येक आरोहण-अवरोहण के साथ-साथ अपने अंतर्मन में इसका जप करते रहना है तुम्हें। ...'

कुछ क्षण रुककर उन्होंने कहा-'मंत्र है' सो-हंग। 'श्वास पर अपनी सजगता बनाये हुए प्रत्येक आरोहण पर' सो', तथा अवरोहण पर' हंग'स्वर का जाप करना। नित्य इस मंत्र के निरंतर-जाप करते रहने से-' अजपा'सिद्ध हो जाता है प्रिय और सिद्ध हो जाने के उपरांत स्वमेव ही तुम्हारे अंदर' अजपा'होता रहेगा। जाग्रत में भी और निद्रा में भी।'

कुँवर ने मंत्र को मन में उच्चारित कर अपनी स्मृति में संजो लिया।

'अब साधना पुनः आरंभ करो प्रिय!'

गुरु के आदेश पर तत्काल उसने सहस्त्रदल-चक्र-नृत्य की साधना आरंभ कर दी। मुग्ध भुवनमोहिनी देखती रही और कुँवरदयाल नृत्य करता रहा।

कुँवर ने अपने सहस्त्रदल-चक्र-नृत्य की साधना, सूर्योदय के साथ नित्य ही दो-प्रहर तथा अर्द्धरात्रि में दो-प्रहर प्रारंभ कर दी थी। देवी भुवनमोहिनी चारों-प्रहर शिष्य के साथ रहती।

कुँवर की सजगता अब बिना प्रयास के ही प्रत्येक चक्र पर एकाग्र रहने लगी थी और गुरु की आज्ञा से, सरगम के आरोहण-अवरोहण की गति भी उसने क्रमशः तीव्र से तीव्रतर कर दी।

इस अवस्था में देवी ने नवीन निर्देश दिए: 'अब प्रत्येक चक्र का नाम अपने अंतस् में सस्वर उच्चरित करो प्रिय! चक्रों के नाम स्वयं में मंत्र ही हैं। इनके निर्दोष-उच्चारण से प्रत्येक चक्र, सुषुम्ना-मार्ग तथा तुम्हारा सम्पूर्ण शरीर तरंगित होने लगेगा।'

गुरु के निर्देश पर, नृत्य-साधना की प्रक्रिया अब बदल गयी थी।

साधना के पूर्व एवं पश्चात, निरंतर अजपा का अभ्यास तथा प्रातः एवं रात्रि घोर नृत्य साधना।

कुँवर का अब यही नित्य-क्रम था।

निशा-काल में कुँवर तन्मय हो नृत्य कर रहा था और गुरु भुवनमोहिनी वज्रासन में बैठी नृत्य-निमग्न शिष्य को स्नेहभाव से निहार रही थी। देवी की चेतना द्विस्तरीय हो गयी। चेतना का प्रथम तल नृत्य करते शिष्य पर केन्द्रित था और द्वितीय तल पर युवराज चन्द्रचूड़ की आकृति उभर रही थी, जो अपने विशाल राज्य की शक्ति और संपदा से विरक्त हो, राजमाता का अतिथि बन कर, उसकी स्वीकारोक्ति की प्रतीक्षा कर रहा था।

इसी क्षण कुँवर की नृत्य-साधना की अंतिम आवृत्ति समाप्त हुई. उसकी रक्तवर्णी आँखों में मद भरा था।

भुवनमोहिनी ने उसके नेत्रों को उत्साहित हो देखा, 'अपनी अल्पकालीन साधना में ही तुमने अत्यंत प्रगति प्राप्त कर ली है प्रिय!' प्रसन्न स्वर में उसने कहा, 'तुम्हारे नेत्र बता रहे हैं...आज तुमने कुछ विशेष अनुभूति प्राप्त की है।'

' हाँ देवी! प्रारंभ में तो चिनगारी-सी सनसनाती हुई एक ध्वनि सुनी मैंने। तदुपरांत दूर से आते मुरली के मधुर स्वर ने मुझे विभोर कर दिया। इसी क्षण एक बड़े घण्टे का स्वर उभरा तदुपरांत शंख की ध्वनि होने लगी। कई वाद्य यंत्रों की

ध्वनियाँ सुनी मैंने। कभी तानपुरा, कभी वीणा, कभी झांझ-मजीरा और कभी करताल की ध्वनि। '

उत्सुक भुवनमोहिनी के नेत्रों की ज्योति बढ़ गयी। कुँवर कह रहा था, 'तभी मृदंग के साथ-साथ भीषण मेघ-गर्जना हुई और मूसलाधार वृष्टि होने लगी देवी!'

आतुर भुवनमोहिनी ने अपना वज्रासन त्याग तत्काल शिष्य को अपने अंक में लेकर उसका मस्तक संूघा।

उसके कण्ठ से गद्गद् ध्वनि निकली, 'अप्राप्य को तुमने प्राप्त कर लिया प्रिय...!' क्षणोपरांत शिष्य को निहारते हुए उसने पुनः पूछा-'अपने मानस-पटल पर कुछ देखा नहीं पुत्र?'

' कई प्रकाश-विम्ब आ-जा रहे थे देवी! विभिन्न ज्योति-पुंज उभर कर विलीन हो रहे थे। परन्तु इनपर चित्त केन्द्रित न होकर ध्वनियों में ही मगन था। अत्यंत

मधुर, दिव्य ध्वनि-संगीत का आज मैंने विभोर होकर श्रवण किया है देवी. '

'अद्भुत! वह क्षण बस अब आने ही वाला है प्रिय! उस अद्भुत प्रकाश पुंज का प्रत्यक्ष दर्शन होगा तुम्हें। प्रज्वलित नीलाम्बर का मानस-दर्शन करोगे तुम। घोर-साधना के उपरांत भी जिससे वंचित रही मैं...तुम्हें उसी दुर्लभ ज्योति का दर्शन होगा...इसमें अब मुझे कोई संशय नहीं। परन्तु, अब तुम्हें अत्यंत सावधान रहना होगा। अपनी इच्छा-अपने विचारों को अनुशासित करना होगा प्रिय! नकारात्मक विचारों से दूर रहना होगा तुम्हें...क्योंकि प्रकृति अब तुम्हारे अनुसरण हेतु तत्पर होने जा रही है। जैसी इच्छा करोगे और जैसे विचार तुम्हारी चेतना में आयेंगे...प्रकृति में वही घटित होने लगेगा। अतः सावधान हो जाओ प्रिय...! दुर्भाव-शून्य होकर सद्भाव धारण करना होगा।'

कहते-कहते बावली हो गयी भुवनमोहिनी।

अर्द्ध निशा काल व्यतीत हो रहा था और बहुरा की चेतना वापस हो रही थी। यद्यपि रसना से कुछ भी कह पाने में अभी भी वह समर्थ नहीं थी, परन्तु पोपली काकी इतने से ही संतुष्ट थी।

'कुछ मत कहना पुत्री!' काकी ने स्नेह-युक्त वाणी में कहा, 'तुम्हारी स्थिति का भान है मुझे। काल के गाल से वापस आयी हो...माया के अनवरत भैरव चक्रीय-नृत्य का ही यह चमत्कार है जो शनैः-शनैः तुममें चेतना का संचार प्रारंभ हुआ। मेरी बात सुन रही हो न पुत्री?'

बहुरा के नेत्र पुनः सजल हो गए.

परन्तु अपनी मुखाकृति के भावों से उसने पोपली काकी को बता दिया, उसकी चेतना शब्दों को ग्रहण कर रही है।

'मैं समझ गयी पुत्री!' काकी ने प्रसन्न होकर कहा, 'मेरी बात सुन रही हो तुम! पूर्ण-चैतन्य होकर सुनो पुत्री! हमने अपनी पूर्ण-सामर्थ्य और समस्त सिद्धियों का उपयोग कर, तुम्हें इस स्थिति में वापस लाया है। बस, इतनी ही सामर्थ्य थी हममें। इसके अतिरिक्त हम चाहें भी तो तुम्हें पूर्व-स्थिति में ला नहीं सकतीं। तुमने अपने दामाद पर जिस अमोघ मारण-पात्र का संधान किया था पुत्री, वह कदापि असफल नहीं हो सकता था। इसी कारण उसने लौट कर तुम्हें ग्रसा। अब उसके दंश से निवृत्ति का एक ही विकल्प है पुत्री...! सुन रही है न मुझे?'

अपनी मुखाकृति से बहुरा ने स्वीकार किया, सुन रही है वह।

पोपली काकी ने पुनः कहा, 'मारण-पात्र की दिशा बदलनी होगी तुम्हें। किसी अन्य पर उसका संधान कर पुत्री...! तभी तेरे प्राण मुक्त होंगे, अन्यथा यूँ ही घुटती रहेगी तू। ... मेरी बात मान और सम्पूर्ण भरोड़ा अंचल पर ही संकल्प लेकर पुर्नप्रक्षेपित करदे उसे पुत्री...! कर दे!'

कुछ क्षणों तक मौन रह कर पोपली काकी ने अपने सुझाव की प्रतिक्रिया, बहुरा की आकृति पर ढूँढ़ी और पुनः कहा, ' मुझे पता है मंत्रोच्चार नहीं कर सकती तू फिर भी अपने अंतस् में संकल्प लेकर मोड़ दे काल की दिशा...मोड़ दे पुत्री...!

तुझे अब और इस दशा में नहीं देख सकती मैं। '

इसी क्षण कक्ष में प्रविष्ट होती माया ने काकी के अंतिम वाक्य को आते-आते सुना।

'काकी!' चीखी माया, ' कैसी सलाह दे रही हो इसे...नहीं पुत्री, ऐसा अनर्थ न करना! तुम्हारे पूर्ण-निस्पंद, चेतनाहीन-तन में चेतना का पुनर्संचार ही प्रमाण है इसका कि हमारी चेष्टा असफल नहीं हुई...आंशिक ही सही परन्तु हमारी

साधना सफल हुई. तुम पूर्ण-स्वस्थ हो जाओगी पुत्री...! विश्वास करो मुझ पर... विश्वास करो और ऐसी कोई भूल न करना जिसका भविष्य में कभी प्रायश्चित् ही न कर सको तुम! '

'माया!' तीव्र स्वर गूँजा काकी का, 'यूँ प्रमाद न कर। मेरे लिए मेरी पुत्री से बढ़ कर कोई अंचल, कोई सम्पदा नहीं। इसकी माँ को वचन दिया था मैंने। इसके समस्त जीवन, इसकी रक्षा और साधना-सिद्धियों तक का उत्तरदायित्व लिया है मैंने माया। मेरी पुत्री ही मेरे जीवन का एकमात्र लक्ष्य है और भ्रमित न हो माया...! हम दोनों ने अपनी समस्त-साधना, विद्या और कौशल के प्रतिफल में मात्र इतना ही प्राप्त किया है कि हमारी पुत्री, हमारे विचारों से केवल अवगत हो रही है...बस, इसके अतिरिक्त इसमें इतनी भी सामर्थ्य नहीं कि यह स्वयं अपना एक ग्रास भी ग्रहण कर सके. परन्तु यही सौभाग्य समझ कि मेरी पुत्री जीवित है और इसकी श्वास चल रही है अन्यथा।' आगे और कुछ कह न सकी वह। उसके स्वर अवरुद्ध हो गये।

'परन्तु काकी।' प्रतिवाद किया माया ने।

'कोई किन्तु-परन्तु नहीं माया। मुझे मेरी पुत्री का पूर्ण-जीवन वापस चाहिए. इससे कम और कुछ स्वीकार नहीं मुझे और इसके द्वारा प्रक्षेपित मारण-पात्र से तू भी भिज्ञ है माया...! भली-भांति भिज्ञ है तू! अतएव व्यर्थ तर्क न कर।'

माया से कह कर पोपली काकी ने बहुरा से पुनः कहा, 'मेरे निर्देशों का पालन कर पुत्री...! मारण-पात्र की दिशा परिवर्तित कर दे! अपना पूर्ण जीवन वापस ला कर दे मुझे...!'

माया पुनः विरोध करती कि तभी बहुरा ने अपने नेत्र बंद कर लिए. संभवतः अपने अंतस् में संकल्पित हो रही थी वह।

'नहीं पुत्री!' आशंकित-आर्द्र स्वर में कहा माया ने 'मत कर ऐसा धोर-संकल्प...!'

'तू नहीं मानेगी माया...!' कहते ही काकी ने माया की बाँह पकड़ी और बलपूर्वक खींचते हुए उसे कक्ष के बाहर ले आयी।

'क्यों किया तुमने ऐसा' , माया ने कहा, 'जानती हो न काकी...यह मारण-पात्र उस सम्पूर्ण अंचल को विनष्ट कर जन-शून्य कर देगा...हाहाकार उत्पन्न हो जायेगा भरोड़ा में। इस विशाल नर-संहार का बोझ उठा पाओगी तुम काकी?'

'शाँत हो जा माया...शाँत हो जा...' काकी की खोखली-वाणी निकली, 'इस विनाश के अतिरिक्त कोई विकल्प शेष नहीं है पुत्री! मुझे मेरी पुत्री के प्राण चाहिए...बस!'

'चाहे बदले में असंख्य-प्राण चले जायें...क्यों काकी? ... यही चाहती हो न तुम?' तीव्र स्वर में कहा माया ने।

काकी ने कुछ नहीं कहा।

कोई उत्तर ही शेष नहीं था उनके पास।

मौन हो गई वह और विवश माया के नयन-नीर छलक आये।

निद्रा में निमग्न भरोड़ा के निवासी अचानक भयभीत हो कर उठ गये।

भयंकर आंधी थी यह।

हवा ने काल का स्वरूप धारण कर लिया था।

आकाश से घोर-गर्जना हो रही थी।

न बादल थे, न बरसात का मौसम।

फिर यह गर्जना कैसी?

बच्चे डर कर रोने लग गए. भरोड़ा के निवासियों की आत्मा काँप गयी। क्यों हो रहा है यह? यह काल-रात्रि तो, लगता है, लील ही जायेगी सबको, तभी शांत होगी।

हवेली में राजा भी उठ गये और रानी भी।

अमात्य, राजरत्न मंगल और सेनापति ने भी शय्या त्याग दी।

सभी आशंकित-सभी भयभीत।

आसन्न-विपदा के निवारण हेतु सभी के कर कमला मैया की स्तुति में उठ गये।

बेसुध कुँवर दयाल के नृत्य-चक्र की गति अति-तीव्र थी।

अपने मानस-पटल पर नीले ज्योति-पुंज को देखता-नृत्य में मगन था वह। सहस्त्रों सूर्य उदित हो गये थे उसके अंतस् में; जिनकी नीली-किरणों की अद्भुत आनंददायिनी प्रभा ने भर दिया था उसे। उसका सम्पूर्ण तन और मन इन रश्मियों में भींग रहा था और कुँवर नाच रहा था।

वज्रासन में बैठी भुवनमोहिनी के नेत्र शिष्य को अपलक निहार रहे थे। दिवा-रात्रि के इस तृतीय-प्रहर की निशा, नृत्य करते उसके शिष्य की प्रभा से प्रभासित होने लगा। कुँवर के तन से अद्भुत-प्रभा प्रस्फुटित हो रही थी। मुदित भुवनमोहिनी का मन-मयूर पुलकित हो नाच उठा।

अपने मानस-पटल के प्रकाश पुंज के अंदर, तभी कुँवर ने उस देवी के दर्शन किए; जिसे उसने कामरूप के ब्रह्मपुत्र में स्नान कराया था।

देवी की मुखमुद्रा शांत थी।

कुँवर का स्थूल शरीर तो नृत्य में निमग्न था परन्तु उसका सूक्ष्म-शरीर देवी की वंदना कर रहा था।

इसी क्षण रक्तवर्णी-किरणों की एक ज्वाला सुदूर से आती दिखी। क्षणमात्र में ही, शांत नीली ज्योति को उस विकराल रक्तवर्णी-ज्वाला ने स्वयं में आबद्ध कर लिया।

अमृतानंद में हलाहल का अतिक्रमण!

कुँवर ने देखा शांत-चित्त देवी की आकृति ने अपना मुख खोला और हलाहल बनी समस्त रक्तवर्णी-ज्वाला, उनके मुख में समाती चली गयी। नीलवर्णी प्रकाश-पुंज के मध्य देवी की आकृति पर मंद हास छा गया। रक्तवर्णी-ज्वाला का अस्तित्व, समूल विनष्ट हो चुका था...परन्तु देवी शनैः-शनैः दूर...और दूर होती जा रही थी।

कुँवर के सूक्ष्म शरीर ने देवी को पुकारा, परन्तु स्वर नहीं निकले।

वह पुकारना चाहता था देवी को, परन्तु स्वर स्पंदित नहीं हो पा रहा था और देवी दूर होती जा रही थी।

देवी के मुखमण्डल का हास, मधुर-मुस्कान में परिणत हो गया और शीघ्र ही उनकी आकृति नीले प्रकाश-पुंज में विलीन हो गयी।

बच गया मात्र प्रकाश...प्रकाश ही प्रकाश...उसकी चेतना क्रमशः खो गयी। स्वयं की सजगता मिट गयी। जो कुछ घड़ी पूर्व तक द्वैत था, चेतना अलग-अलग थी-वह एक हो-अद्वैत हो गया।

भुवनमोहिनी झट उठ खड़ी हुई और शीघ्रता से सम्हाला शिष्य के अचेत होते शरीर को।

मानो कुछ हुआ ही नहीं हो।

भरोड़ा के निवासियों ने आश्चर्य से देखा। वातावरण अनायास शांत और सौम्य हो गया था।

न आंधी, न झंझावात और न गड़गड़ाहट!

भयंकर काल-भय से त्रस्त निवासियों ने सुख की सांस ली। भरोड़ा के मंद-शीतल पवन में दिव्य-सुगंध भर चुकी थी। आर्श्यचकित भरोड़ा निवासी कमला मैया की आराधना कर पुनः शय्या पर चले गये।

परन्तु सूर्योदय के पूर्व ही राजरत्न मंगल ने जान लिया। कमला मैया भरोड़ा से दूर चली गयीं थीं...कोसों दूर।

अंचल की जीवन-धारा, अंचल से दूर हो गयी थी।

एक ही रात्रि में यह अनर्थ कैसा? क्यों रूठ गयीं माता?

सारे अंचल में शीघ्र ही हाहाकार मच गया।

और बखरी में!

सूर्योदय होते ही पोपली काकी जान गयीं। काल-पात्र की अमोध-शक्ति ने अंचल के जन-जीवन को छोड़, अंचल के जीवन-धारा पर ही प्रहार कर दिया था। कमला की धारा कोसों दूर हो गयी थी भरोड़ा से।

आश्चर्य तो हुआ किन्तु अच्छा लगा उसे।

संतुष्ट हो गयी वह।

नर-संहार घटित नहीं हुआ था और उसकी पुत्री भी मुक्त हो गयी। माया को अविलंब यह शुभ-समाचार देना होगा। अत्यंत व्यथित है वह। काल-चक्र के इस रहस्य में उलझी काकी के पग, अनायास ही माया से मिलने बढ़ गये।

माया को साथ लेकर पुत्री के पास जायेगी वह।

कुँवर दयाल सिंह पुनः चैतन्य हुआ तो उसका सम्पूर्ण व्यक्तित्व ही परिवर्तित हो चुका था। अद्वैत से पुनः द्वैत-चेतना के परिवर्तन ने एक नये कुँवर को जन्म दिया था। व्रजासन में बैठी भुवनमोहिनी की मोहक दृष्टि उस पर निरंतर गड़ी थी।

कुँवर की अनुभूतियाँ बदल गयी थीं।

चेतना के इस परिवर्तित धरातल पर न सुख की अनुभूति थी न दुख की। चारों ओर आनंद ही आनंद था। उसकी चेतना और उसकी अनुभूतियां बदल गयी थीं। चेतना-जगत की लीला का सम्पूर्ण अवसान हो गया था।

अपने अस्तित्व में ही जग के समस्त-अस्तित्व का प्रत्यक्ष भान होने लगा उसे। न कोई इच्छा शेष रही, न अनिच्छा।

द्रष्टा हो गया था वह... मात्र द्रष्टा।

स्वयं पर हँसी आयी उसे।

कैसा अज्ञानी था वह। दुख और सुख में व्यर्थ ही दुखी और सुखी होता रहा। तभी स्मृति में अमृता की आकृति उभरी। रोती-कलपती, सजल नेत्रों से विलग होती और विवसता में नीर बहाती उसकी पत्नी, तथा स्नेह-विह्नल माया दीदी।

पुनः उसकी स्मृति में उसका अंचल, उसके पिता, उसकी माता और राजरत्न मंगलगुरु की आकृतियाँ आती गयीं और वह साक्षी-भाव से मंद-मंद मुस्कराता रहा।

अज्ञानता आवरणविहीन हो चुकी थी और अंधकार का पूर्ण नाश हो चुका था। फिर भी जीवन-मंच के नाट्य ने उसे मुदित ही किया।

इस रंगमंच का वह स्वयं भी तो एक पात्र ही है और उसका अपना अभिनय अभी भी शेष है। बस इतना ही तो परिवर्तन हुआ उसमें—पूर्व में अनभिज्ञ था वह, अब भिज्ञ है।

जीवनाभिनय में अब तक संलिप्त था और अब साक्षी-भाव से स्वयं का द्रष्टा है वह।

होठों पर मधुर मुस्कान लिए उसकी पलकें खुलीं तो उसने देखा देवी उसे ही अपलक निहार रही हैं।

झट उठ कर उसने गुरु की चरण-वंदना की तो देवी को उसके व्यक्तित्व में आये स्पष्ट-परिवर्तन का आभास हुआ।

'अत्यंत प्रसन्न हो प्रिय...!' देवी ने आनंदित हो उसे कहा।

'नहीं माता! आपने मेरी ज्ञानेंद्रियां खोल दी हैं... अंतस् में अब कोई अनुभूति शेष नहीं रही। समस्त अनुभूतियों का अभाव हो गया माता, दुख का भी और सुख का भी। विराट-शून्य की स्थिति हो गयी है मेरी।'

'परन्तु तुमने मेरा सम्बोधन क्यों परिवर्तित कर दिया प्रिय?' , हँसती भुवनमोहिनी ने हास किया-मैं तो तुम्हारी माता नहीं थी...देवी कहते थे तुम। '

'शब्दों के इस व्यर्थ-खेल से क्या अंतर होता है माता! आप मेरी गुरु हैं, यही सत्य है...है न माते?'

'सत्य अब यह है प्रिय कि तुम्हारी चेतना का स्तर मेरी चेतना के पार जा पहुँचा है। आत्म-साक्षात्कार किया है तुमने, जिससे अभी तक वंचित हूँ मैं।'

'इससे क्या अंतर पड़ता है माता? ... गुरु तो फिर भी आप ही हैं और अब गुरु-दक्षिणा चुकानी है मुझे।'

कुँवर की बात पर हँस पड़ी भुवनमोहिनी। हँसते हुए ही उसने कहा, -'अच्छा! अपनी गुरु को क्या दोगे दक्षिणा में?'

'युवराज चन्द्रचूड़!'

चौंक गयी भुवनमोहिनी!

कुँवर की यह कैसी इच्छा? करना क्या चाहता है यह? परन्तु अगले ही पल उसकी आँखों में लज्जा का भाव उभर आया और होठों पर मंद मुस्कान आकर बिखर गयी।

कुँवर ने शांत स्वर में कहा, 'मैं उत्कल देश जाऊँगा माता!'

'क्यों प्रिय?'

'युवराज के पिता से आपके लिए, हाथ माँगूगा चन्द्रचूड़ का।'

देवी की धड़कनें बढ़ गयीं। श्वास-प्रश्वास की गति तीव्र हो गयी। झट उठ कर वे खड़ी हुईं और हाँफती हुई तीव्रता से कक्ष के बाहर चली गयीं।

रात्रि का अंतिम प्रहर था यह, जब हाँफती हुई भुवनमोहिनी ने अपने कक्ष में प्रवेश किया।

कोई द्वंद्व अंतस् में शेष न रहा।

कुँवर की इच्छा का अर्थ था प्रकृति की इच्छा। अब क्या करे वह? चन्द्रचूड़ की मोहक छवि ने उसकी चेतना को भर दिया।

वरमाल पहना रही है वह उसे।

आश्चर्य! ऐसी तो कोई कामना उसने व्यक्त न की... और न कभी सोचा, फिर उसके मानस-पटल पर यह दृश्य? आश्चर्यचकित हो गयी वह।

उसकी श्वास और भी फूलने लगी। आनन पर श्वेद बूंदे उभर आयीं और देवी भुवनमोहिनी के पग अनायास स्नानगृह की दिशा में उठ गये।

परन्तु सुगंधित-जल की विशाल शीतल-राशि में भी उसके तन को शांति न मिली। उसके सम्पूर्ण भींगे तन और मन में उष्णता भरने लगी।

राजमाता के आनंद की कोई सीमा नहीं थी आज।

पुत्री भुवनमोहिनी ने युवराज संग, विवाह की स्वीकृति दे निहाल कर दिया था उन्हें।

पुलकित राजमाता ने सहसा पुत्री को अपने अंक में समेट लिया।

फिर पुनः-पुनः पुत्री की बलैइयाँ लेने के उपरांत हँसती हुई राजमाता ने कहा, 'आज तुमने वास्तव में मुझे निहाल कर दिया पुत्री! परन्तु यह तो बता-अनायास तुम्हारे हृदय-परिवर्तन का कारण क्या है? ...बता मुझे।'

'कारण है कुँवर दयाल!' शांत स्वर में कहा भुवनमोहिनी ने, 'उसी मनमोहन की इच्छा है यह।'

माताश्री ने साश्चर्य देखा अपनी पुत्री को!

पुत्री के अंतस् का नवीन रहस्य था यह।

हतप्रभ हो गयी वह!

अपने ही अंश के अंतःकरण में कितने रहस्य छिपे पड़े हैं। पुत्री की

साधना-सिद्धियों के रहस्य के अनावरण से यूं ही चकित थी राजमाता और अब

...चिन्तन में उलझी राजमाता ने अंततः पूछ ही लिया, 'कुँवर से प्रेम करती हो पुत्री?'

भुवनमोहिनी मौन रहीं। कुछ नहीं कहा उसने।

'मौन तो स्वीकार का संकेत है पुत्री...! मुझे और विस्मित न कर अब। क्या है तुम्हारे हृदय में...अपनी माँ को बता दे पुत्री!'

'पता नहीं माता...! नहीं जानती मैं। कुँवर की इच्छा थी बस। विश्वास करो मुझपर। मेरी अंतरआत्मा उस निर्दोष की इच्छा का प्रतिकार नहीं कर सकी। ... बस इतनी-सी ही बात है।'

'वाह री मेरी अबोध पुत्री...! मेरे अंश से उत्पन्न हुई है और मुझे ही छल रही है तू।'

'मैं क्यों छलूँगी तुम्हें?'

'अंतर-साधना से जब ज्ञान की उत्पत्ति होती है पुत्री, तो समस्त विकार विनष्ट हो जाते हैं और चेतना जितनी निर्मल होती जाती है हृदय उतना ही सहज होता जाता है। मनुष्य जितना सहज होता है उतना ही वह अबोध भी हो जाता है पुत्री! और तू वास्तव में अबोध हो गयी है।'

'मुझे अबोध कहती हो तो तर्क का क्या प्रयोजन है माते...! क्यों करती हो मुझसे तर्क? ... तुम्हारी भी यही इच्छा और अभिलाषा थी। जब मैंने स्वीकार कर लिया तो शेष क्या बचा?'

यही वह पल था जब पीताम्बर धारण किए कुँवर दयाल के स्वर ने दोनों को विस्मित कर दिया।

'मैं आ सकता हूँ राजमाता?'

'आओ पुत्र! आओ!' राजमाता ने उत्साह में भर कर कहा, 'स्वागत है तुम्हारा... विराजो!'

कक्ष में प्रविष्ट होकर कहा कुँवर ने, 'आपकी आज्ञा हेतु उपस्थित हुआ हूँ राजमाता! मुझे अनुमति दें तो मैं उत्कल देश के लिए प्रस्थान करूँ?'

और भी विस्मित हो गयीं राजमाता।

रहस्य अभी भी कई आवरणों में लिपटा है...उन्होंने सोचा और उनकी दृष्टि अपनी पुत्री पर आकर ठहर गयी। राजमाता की आँखों में प्रश्न भरे थे।

रहस्य को अनावृत किया भुवनमोहिनी ने और गद्गद् हृदय से, कृतज्ञ राजमाता ने तत्काल उठ कर कुँवर को गले लगा लिया।