कुँवर नटुआ दयाल, खण्ड-15 / रंजन

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सेनापति की महत्त्वाकांक्षा धूमिल हो गयी।

प्रजा में दावानल की भांति, चन्द्रचूड़ की बलि दिये जाने का समाचार फैला। अमात्य की सम्पूर्ण आशंकायें निर्मूल हो गयीं। दुख की इस घड़ी में समस्त प्रजा एकजुट होकर राजा के समर्थन में खड़ी हो गयी थी।

प्रजा के उग्र समर्थन-प्रदर्शन ने सेनापति की आकांक्षा को धूल-धूसरित कर दिया। संकट की इस घड़ी में सेना भी उग्ररूप घारण कर, शंखाग्राम पर आक्रमण हेतु व्याकुल हो गयी।

अनायास ही सारी स्थितियाँ राजा के पक्ष में हो गयी थीं और आश्चर्य इस बात का था कि अपने प्रिय पुत्र की बलि के समाचार ने राजा पर विपरीत प्रतिक्रिया की। सुन कर वे न अचेत हुए और न अपने प्राणों का त्याग ही किया। इसके विपरीत उनमें आश्चर्यजनक दृढ़ता भर आयी थी।

उनके जबड़े कस गये, क्रोधावेग में हाथों की अंगुलियाँ तन गयीं और परिणामस्वरूप शंखाग्राम पर आक्रमण के लिए विराट् तैयारियाँ प्रारंभ हो गयीं। राज्य के समस्त लोहारों की भट्ठियों में नये तीक्ष्ण अस्त्र-शस्त्रों का निर्माण प्रारंभ हो गया।

इस मध्य राजा ने शंखाग्राम विषयक समस्त जानकारियाँ एकत्रित कर ली। इसी संदर्भ में जब उन्हें टंका कापालिक के विषय में जानकारी मिली तो तत्काल अपने अमात्य तथा सेनापति के साथ वे उग्रचंडा के समीप जा उपस्थित हुए.

श्मशान में धुनी रमाये उग्रचण्डा ने राजा को देखते ही अपनी त्यौरियाँ चढ़ा लीं।

उग्रचण्डा की भंगिमा को देख अमात्य के साथ-साथ सेनापति भी भयाक्रांत हो गये, परन्तु राजा ने अति-शांत वाणी में उग्रचण्डा से कहा, 'इस राज्य की सर्वोच्च तांत्रिक साधिका हो तुम उग्रचण्डा! इस घड़ी सम्पूर्ण राज्य पर संकट छाया है। संकट की इस घड़ी में तुम उत्कल राज्य के साथ हो अथवा हमारे संकट से विलग हो तुम? सर्वप्रथम तो यही कहो!'

राजा के कथन ने उसकी उग्रता अनायास ही समाप्त कर दी।

'मुझसे क्या चाहते हैं राजन्?' शांत-स्वर में ही कहा उसने।

'शंखाग्राम की स्वामिनी भुवनमोहिनी ने मेरे प्रिय पुत्र और इस राज्य के युवराज चन्द्रचूड़ की, बलि दे दी है!' दृढ़ स्वर में कहा राजा ने, ' उसके इस

जधन्य अपराध का दण्ड देना होगा उसे। '

'आप दण्डित करेंगे उसे राजन?'

' अवश्य...अपनी इन्हीं भुजाओं से दण्डित करूँगा मैं उस पापिनी को। राज्य की सेना सुसज्जित हो रही है उग्रचण्डा, परन्तु इस घड़ी तुम्हारे पास प्रयोजन विशेष से उपस्थित हुआ हूँ मैं।

'समझ रही हूँ मैं राजन!' उग्रचण्डा ने कहा, 'आपका आगमन निरुद्देश्य हो नहीं सकता। आश्वस्त रहें राजन, संकट की इस बेला में उग्रचण्डा राज्य के साथ है। मुझसे आप जो चाहेंगे, तत्काल करूँगी मैं परन्तु एक प्रश्न है आपसे।'

'क्या प्रश्न है तुम्हारा?'

'भुवनमोहिनी का अपराध क्या है राजन?' गंभीर स्वर में कहा उग्रचण्डा ने,

'उसने किया क्या है? युवराज की बलि तो टंका कापालिक ने दी है।'

'परन्तु बलि हेतु युवराज को प्रदान किसने किया? ...भुवनमोहिनी ने। उसने पूर्व में युवराज के लिए मृत्यु-दण्ड की घोषणा की और बलि हेतु कापालिक को सौंप दिया। तुम्हारे समीप मेरी उपस्थिति का प्रयोजन भी यही है उग्रचण्डा। उस कापालिक के बला-बल की सम्पूर्ण जानकारी दो मुझे, क्योंकि तंत्र का प्रतिकार शस्त्र से संभव नहीं। तुमने कई ब्रह्मपिशाचों को वशीभूत किया है... क्या उस कापालिक का पराभव नहीं कर सकती तुम? ...शेष कार्य तो हमारी सेना संपादित कर ही देेगी। उस पापिन को जीवित अवस्था में ही बंदी बनाकर लाऊँगा मैं। राज्य की प्रजा के समक्ष प्राण-दण्ड दूँगा उसे। तुम कहो उग्रचण्डा...इस स्थिति में क्या कहती हो तुम?'

परिस्थिति के विपरीत उग्रचण्डा ने भीषण अट्टाहास किया।

उसकी असामयिक हँसी ने राजा को अत्यंत विस्मित किया।

'तुम्हारी इस अकारण हँसी का क्या रहस्य है उग्रचण्डा?'

'बड़े भोले हैं आप राजन!' हँसी रोक कर उग्रचण्डा ने कहा, 'टंका कापालिक को दण्डित करने का दिवास्वप्न देख रहे हैं आप। आपको ज्ञात नहीं टंका क्या है और उसकी सामर्थ्य क्या है? ...उसने यदि अपनी भृकुटि भी टेढ़ी कर दी तो आपका सम्पूर्ण राज्य पल में विनष्ट हो जाएगा। चौंसठ तामसी विद्याओं की योगिनियां उसके वश में हैं राजन। अच्छा ही हुआ कि आप मेरे समीप आ गए अन्यथा अपनी अज्ञानता के वश में यदि आपने उससे संघर्ष प्रारंभ कर दिया होता, तो स्वयं भैरव भी आपसे मुख मोड़ लेते, फिर मुझ जैसी तुच्छ साधिका का तो प्रश्न ही नहीं है। मैं तो तिनका भी नहीं हूँ उनके समक्ष। इस विचार को तत्काल त्याग दें राजन! ...इसी में आपका और इस राज्य का हित है।'

उग्रचण्डा की बात ने राजा को चिन्तित कर दिया।

उन्होंने सोचा शंखाग्राम के युद्ध में यदि इस विकट कापालिक ने भुवनमोहिनी का साथ दे दिया तो क्या होगा?

'किस चिन्तन में डूब गये राजन?' कोमल स्वर में उग्रचण्डा ने कहा, 'कापालिक टंका पर आपका क्रोध यूँ भी व्यर्थ है राजन! उसे प्रत्येक वर्ष शंखाग्राम की ओर से एक मनुष्य का दान दिया जाता है, जिसकी बलि देकर वह महाकाल को प्रसन्न करता है। अतः युवराज की बलि में उसका दोष ही क्या है? उसे अपनी क्रोधित-चेतना से निकाल दें राजन। रही बात भुवनमोहिनी की ...तो मुझे आज्ञा दें आप...मेरे ब्रह्मपिशाच उसे दण्डित करने में सर्वथा सक्षम हैं राजन।'

'नहीं उग्रचण्डा यह संभव नहीं' , उत्तेजित स्वर में कहा राजा ने, 'अपनी इन्हीं भुजाओं से उसे दण्डित कर, अपने प्रतिशोध की पूर्ति करूँगा मैं। उसकी सहज मृत्यु से मेरे अंतस् की ज्वाला कदापि शांत नहीं होगी।'

'आपकी भावनाओं की प्रशंसा करती है उग्रचंडा। इस वृद्धावस्था में भी आपका पुरूषार्थ वास्तव में प्रशंसनीय है राजन। ... तो कहिए उग्रचण्डा आपकी क्या सहायता कर सकती है?'

'तुम अपनी सााधना-बल से शंखाग्राम की स्थिति, उसकी सेना तथा अन्य बला-बल की सूचना मुझे उपलब्ध करा सको तो उत्तम...क्योंकि शीघ्र ही मैं सेना सहित इस समर में उतर जाऊँगा। मुझे अपने जीवन का भी कोई मोह नहीं उग्रचण्डा...इस युद्ध में यदि विकट कापालिक टंका ने भी भुवनमोहिनी की सहायता की...फिर भी। ... उस स्थिति में भी प्राणपण से युद्ध करते हुए अपनी बलि दे दूँगा मैं उग्रचण्डा!'

उग्रचण्डा ने प्रशंसात्मक दृष्टि से राजा को निहारते हुए कहा, 'युवराज रहे नहीं...और आप स्वयं को होम करने की इच्छा रखते हैं...ऐसी स्थिति में इस विशाल राज्य का क्या होगा राजन?'

राजा ने तत्काल कहा, 'राज्यभार सेनापति को सौंप जाऊँगा, उग्रचण्डा!'

सेनापति की सिराओं में विद्युत् कौंध गई.

अपने अंतस् से उसने अपने प्रारब्ध को प्रणाम किया।

धन्य हो प्रभु...! अद्भुत लीला है तेरी...तुम्हारी जय हो!

मूढ़ राजा तो स्वयं अपनी आत्महत्या पर उतारू है। रणभूमि में किसी

विधि जीवित न रहे यह, इसकी व्यवस्था अब करनी होगी मुझे।

राजा की उक्ति पर अमात्य भी चौंक पड़े, किन्तु उन्होंने कुछ कहा नहीं।

परन्तु उग्रचण्डा मौन न रह सकी, 'आपकी दृढ़ इच्छा-शक्ति और पुरूषार्थ को नमन करती है उग्रचण्डा। इस महान् राज्य का सौभाग्य है, जिसे आप-सा राजा प्राप्त है। ...परन्तु इस नराधम को राज्य सौंपना अनुचित है राजन। राज्यभार हेतु आपके चुनाव का मैं कदापि समर्थन नहीं करूँगी।'

अपमान एवं आवेश से सेनापति के कान रक्तवर्णी हो गये, परन्तु विवश था वह। मौन रहने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं था उसके पास।

उग्रचण्डा की बात पर राजा के प्रत्युत्तर के पूर्व ही उग्रचण्डा ने पुनः कहा, 'मैं अपने ब्रह्मपिशाच का आवाहन करती हूँ राजन। शंखाग्राम का भ्रमण कर वह हमें समस्त सूचना दे देगा... राज्य की चर्चा फिर हो जायेगी।'

कहते ही उग्रचण्डा ने अपने नेत्र बंद कर लिए. तत्काल वातावरण परिवर्त्तित हुआ और शून्य में चुटियाधारी, मुण्डित-मस्तक वाला ब्रह्मपिशाच केशवानंद क्रमशः प्रकट होने लगा।

'केशवानंद!' उसके प्रकट होते ही उग्रचण्डा ने कहा।

'आज्ञा माई!'

'शंखाग्राम की नर-बलि में उपस्थित थे तुम...क्या घटित हुआ वहाँ... बताओ मुझे।'

हँसने लगा केशवानंद।

उसकी हँसी क्रमशः और भी तीव्र होती गयी।

हँसते-हँसते लोट-पोट हो गया वह।

'केशवानंद!' तीव्र क्रोधित स्वर गूँजा उग्रचण्डा का।

'हाँ माई!' हँसते-हँसते ही किसी प्रकार कहा उसने।

' हँसी रोको अपनी...मुझे अशिष्टता पसंद नहीं। क्या पूछा है मैंने? ...

वह बताओ मुझे। '

'क्या बताऊँ माई...नर-बलि तो हुआ ही नहीं।' कह कर पुनः हँसने लगा वह।

'क्या कहा?' उतावले स्वर में कहा राजा ने।

केशवानंद की सूचना पर राजा सहित उग्रचण्डा भी चौंकी।

'आप शांत रहें राजन। केशवानंद को मुझसे बातें करने दें। ब्रह्मपिशाच से संवाद करना आपके लिए शुभ नहीं...अहित ही होगा इससे। हाँ तो केशवानंद क्या-क्या घटित हुआ शंखाग्राम में? ... सम्पूर्ण कथा कहो मुझे।'

अति उत्सुक राजा, सेनापति और अमात्य सहित उग्रचण्डा ने पूरी कथा सुखद-आश्चर्य से सुनी। पुत्र के जीवित होने की सूचना पाकर राजा के हर्ष का कोई पारावार ही न रहा। उसके दोनों कर कुँवर दयाल के प्रति कृतज्ञता में ऊपर उठ गये।

परन्तु अभी तो कई अद्भुत सूचनायें शेष थीं।

केशवानंद ने जब बताया कि कुँवर दयाल सिंह इस राज्य के राजा से मिलने नौका में सवार हो चुके हैं तथा उनके साथ टंका कापालिक भी उनका दास बन कर स्वयं आ रहा है तो सभी स्तब्ध हो गये।

'उनका प्रयोजन क्या है केशवानंद? ... इस राज्य में क्यों आ रहे हैं वे? उग्रचण्डा ने प्रश्न किया तो केशवानंद पुनः मुस्कुराया।'

'शंखाग्राम की राजमाता ने भेजा है कुँवर को' , केशवानंद ने कहा, 'राजा से कहिए माई...उनके स्वागत की तैयारी करें।'

'टुकड़ों में क्यों कह रहा है केशवानंद'-झल्लाई उग्रचण्डा-'पूरी बात बता मुझे।'

'भुवनमोहिनी के लिए युवराज का हाथ माँगने आ रहे हैं वे।'

'बधाई हो राजन!' प्रफुल्लित उग्रचण्डा ने कहा, ' घी के दीपक जलाइये... राज्य में उत्सव मनाइये राजन! आपके राज्य का सौभाग्य उदित होने वाला है। न केवल आपका प्रिय पुत्र जीवित है अपितु स्वयं भुवनमोहिनी उन्हें वरने जा रही है...

बधाई हो राजन, बधाई हो! '

राजा प्रसन्नता के अतिरेक में हतप्रभ थे!

अमात्य भी उत्साह में लबालब हो गये परन्तु सेनापति पूर्ण हताश हो गया।

उग्रचण्डा ने पुनः कहा, ' कुँवर के दर्शनों के लिए मैं भी अति उत्सुक हँू राजन। टंका जैसे अपूर्व कापालिक ने जिसे अपना स्वामी मान लिया वह अवश्य ही अलौकिक पुरुष हैं। इनके स्वागत में मैं भी स्वयं उपस्थित रहूँगी राजन!

उत्कल राज्य में पुनः नाटकीय परिवर्तन हो गया।

हर्ष में भर कर राजा ने राज्य भर में उत्सव मनाने का आदेश दिया, साथ ही अतिथि के स्वागत की भव्य व्यवस्था शुरू कर दी।

उत्कल राज ने कुँवर दयाल के स्वागत की अभूतपूर्व व्यवस्था की थी।

राजप्रासाद को तो सजा-सवाँर कर पुष्पों से आच्छादित किया ही गया था; घाट पर भी चतुर्दिक वंदनवार एवं अनेक तोरण-द्वारों के निर्माण कराये गये।

शंखाग्राम की सुसज्जित नौकाओं के मस्तूल दूर से ही दिखने लगे थे। उन मस्तूलों पर शंखाग्राम के सुनहरे ध्वज लहरा रहे थे।

राज्य की जनता इनके दर्शन हेतु आतुर थी।

उग्रचण्डा की सेवा में कापालिक चन्द्रा विनीत भाव में खड़ा था।

सभासदों एवं अमात्य के साथ स्वयं राजा अतिथि के सत्कार के लिए व्यग्र थे, तथा सशस्त्र सेना की चुनी हुई टुकड़ी के साथ, सजे-धजे विवश सेनापति घाट पर अधीरता पूर्वक विचरण कर रहे थे।

निवासियों की भीड़ बढ़ती ही जा रही थी।

छोटे बच्चों को गोद में उठाए माताएँ एवं बड़े बच्चों की अंगुलियाँ पकड़े उनके पिता। वृद्ध-युवक-युवतियों की भीड़ प्रत्येक क्षण घाट पर बढ़ती ही जा रही थी। लगा जैसे नगर के सभी निवासी इस स्थल पर एकत्रित हो रहे हों। चारो ओर लोगों के मुंड ही मुंड दिख रहे थे।

घाट को विशेष ढंग से सज्जित किया गया था।

नौकाओं के लिए बड़ी-बड़ी काष्ट की बल्लियों से कई निर्माण किये गये थे। इन बल्लियों पर, कुशल शिल्पियों ने नयनाभिराम चित्र उकेरे थे।

दूर से आती नौकाओं की आकृतियाँ अब क्रमशः स्पष्ट होने लगीं थीं। आमात्य के निर्देश पर वादकों के समूह ने, अतिथि के स्वागत में वृंद-वादन प्रारंभ कर दिया।

नौकायें और निकट आयीं तो स्वागत समारोह, महोत्सव में परिणत हो गया। इस अवसर पर चमत्कार प्रस्तुत किया उग्रचण्डा ने। टंका कापालिक के साथ, ज्योंही अपनी नौका से कुँवर ने बाहर पग रखे उसके ब्रह्मपिशाचों ने नभ से पुष्प-वर्षा प्रारंभ कर दी। वादकों ने उत्साह में वृंदवादन की गति बढ़ा दी। सेनापति के सैनिकों ने कतारबद्ध होकर अपने-अपने घनुष का टंकार किया और आमात्य एवं सभासदों सहित राजा ने आगे बढ़कर कुँवर का अभिनंदन किया। उग्रचण्डा ने तांत्रिक

विधि से दोनों का स्वागत किया तथा उपस्थित विशाल जन-समुदाय ने करतल ध्वनि की। अतिरिक्त उत्साहित निवासियों में से कुछ ने शंख बजाये, कुछ ने ढोल और कुछ ने मजीरा।

इस प्रकार अभूतपूर्व हार्दिक स्वागत-सत्कार के पश्चात् राजकीय वाहनों में आरूढ़ होकर अतिथि राजपथ पर आये।

आगे-आगे कतारबद्ध सशस्त्र सैनिकों के पीछे नाचते-गाते-झूमते नर्तकों-वादकों की मंडलियाँ थीं। पथ के दोनों ओर हर्षित सामान्यजन खड़े थे। घरों की खिड़कियों, छज्जों एवं छतों पर खड़ी युवतियाँ कुँवर दयाल को पलकें झपकाये बिना निहार रही थीं।

पुलकित राजा अपने वाहन पर खड़े होकर जनता का अभिवादन स्वीकार कर रहे थे। राजा के वाहन के पीछे सभासदों, अधिकारियों एवं अन्य विशिष्ट जनों के वाहन चले जा रहे थे।

सभी आनंदित थे परन्तु सेनापति अपने हाथी पर अपना मस्तक लटकाए, मुख मलीन किये, श्रांत बैठा था। न युवराज के सौभाग्य का कोई पारावार था, न उसके दुर्भाग्य का और उत्सव मनाता यह अपूर्व जनसमूह, राजभवन की ओर चला जा रहा था।

विधिपूर्वक सत्कार-ग्रहण करने के उपरांत राजा के सभाभवन में, कुँवर दयाल सिंह के साथ-साथ टंका कापालिक ने, अपने विशिष्ट आसनों को ग्रहण किया।

कुँवर केे अद्भुत प्रभामण्डल के कारण सभाभवन की शोभा-द्विगुणित हो गयी थी। उसके दिव्य-रूप एवं कांति ने उपस्थित लोगों की उत्सुक दृष्टि को अपनी ओर आकृष्ट कर लिया था। सबकी मोहित-दृष्टि बहुधा उसी पर पड़ रही थी।

कापालिक टंका के व्यक्तित्व ने उग्रचण्डा सहित चंद्रा कापालिक को अति प्रभावित किया था। राजा ने उग्रचण्डा के लिए विशेष आसन की व्यवस्था की थी। उसके नेपथ्य में राज्य के अन्य कापालिकों के साथ, विनयावनत् मुद्रा में चन्द्रा भी शांत खड़ा था।

अन्य सभासदों, अमात्य एवं सेनापति के साथ राज्य के गणमान्य नागरिक भी आज की विशेष सभा में उपस्थित थे।

सबके आसन-ग्रहण कर लेने के पश्चात्, राजा ने खड़े होकर कहा, ' उत्कल राज्य आज धन्य हो गया! हमारे इस सभाभवन का मानो भाग्य ही उदित हुआ, जो अंग देश के महानायक, भरोड़ा के कुँवर श्री दयाल सिंह के चरण-रज इस भूमि पर पड़े। हमारे सौभाग्य से, उनके साथ-साथ शंखाग्राम के महान्-सिद्ध-कापालिक टंका की उपस्थिति ने हमारे इस सभाभवन को गौरवांन्वित किया है। इन दोनों की उपस्थिति से मैं, मेरे सभासद, अमात्य, सेनापति तथा राज्य की जनता आज अत्यंत हर्षित हैं।

इस सभाभवन में उत्कल राज्य की श्रेष्ठ तंत्र-साधिका उग्रचण्डा एवं अन्य तांत्रिक समूह भी आज के अति विशिष्ट अतिथि-द्वय के अभिनंदन हेतु उपस्थित हैं।

मैं अपने राज्य की ओर से आज, आप दोनों का हार्दिक अभिनंदन और स्वागत करता हूँ! आप दोनों ने उपस्थित होकर हमारे राज्य का जिस प्रकार मान बढ़ाया है; उसके लिए आप का आभार मानता हूँ। मेरी यह प्रार्थना है कि आपके आतिथ्य में यदि हमसे किसी प्रकार की त्रुटि हुई हो तो इसे हमारी अक्षमता और अज्ञानता मान कर हमें क्षमां करने की कृपा करें! '

अपना स्वागत-वक्तव्य समाप्त कर, राजा ने पुनः दोनों का अभिवादन किया और तत्पश्चात् अपने आसन पर विराज गये।

राजा के विराजते ही उग्रचण्डा ने तत्काल खड़े होकर कहा, 'मैं उग्रचण्डा! इस राज्य की अत्यंत क्षुद्र तंत्र-साधिका...अपने तांत्रिक-समुदाय के शिरोमणि, महान् तांत्रिक-कापालिक टंका का स्वागत करते हुए उत्कल राज्य में आपका अभिनंदन करती हूँ। इस राज्य के सौभाग्य से ही आपका इस भूमि पर पदार्पण हुआ तथा हमें आपके दुर्लभ-दर्शन का अवसर प्राप्त हुआ। वास्तव में हमारा जीवन आज धन्य हो गया।'

यह कहकर उग्रचण्डा ने टंका का अभिवादन किया और अपने आसन पर पुनः विराज गयी।

तदुपरांत टंका ने उठ कर अपने गम्भीर स्वर में कहा, ' राजन् तुम्हारा कल्याण हो! अपने स्वामी के साथ तुम्हारे राज्य में आकर टंका को अत्यंत प्रसन्नता हुई है। तुम्हारी वाणी व्यवहार एवं सत्कार से, मैं तथा मेरे स्वामी परम संतुष्ट हैं। तुमने जिस प्रकार मेरे स्वामी के सम्मान में अपनी बात कही है, वह तुम जैसे धीर-गंभीर और ज्ञानी राजा के सर्वथा अनुकूल है। वास्तव में मेरे स्वामी कुँवर दयाल का स्वरूप जितना सुंदर है इनका विग्रह उतना ही विराट् एवं अद्भुत है। इन्होंने मुझ जैसे तामसी-

साधक को अपना स्नेह प्रदान कर मुझे धन्य-धन्य कर दिया है राजन। इस राज्य की साधिका उग्रचण्डा ने मेरे स्वरूप का जो बखान किया है, उसका आभार व्यक्त करते हुए उससे कहना चाहता हूँ कि उसे मेरे स्वामी के दिव्य-स्वरूप का तनिक भी भान नहीं, अन्यथा नभ के चन्द्रमा के समक्ष मुझ जैसे धरा की धूल की अभ्यर्थना वे नहीं करतीं। अब मैं अपने स्वामी से प्रार्थना करूँगा कि वे अपने आगमन के प्रयोजन से तुम्हें अवगत कराने की कृपा करें! '

राजा सहित सबकी दृष्टि कुँवर की ओर उठ गयी।

कुँवर ने खड़े होकर सबका अभिवादन किया। तदुपरांत कर जोड़ कर राजा से कहा, ' राजन! आप वय में मेरे पिताश्री के समान हैं। साथ ही आपके सुदर्शन पुत्र युवराज चन्द्रचूड़ के विवाह-प्रस्ताव के साथ, मैं कन्या पक्ष की ओर से, आपके समक्ष याचक बन कर इस घड़ी उपस्थित हूँ। अतएव, इन दोनों कारणों से आपका स्थान मुझसे अत्यंत ऊँचा है।

मैं आपका पुत्रवत् कुँवर दयाल, आपके श्री-चरणों में प्रणाम कर निवेदन करना चाहता हूँ कि मैं शंखाग्राम की राजमाता की ओर से, आपके राज्य में अपने प्रिय मित्र टंका के साथ उनका दूत बनकर उपस्थित हूँ।

आपको ज्ञात ही होगा कि शंखाग्राम के राजा असमय ही कालकवलित हो गए थे। राज-काज का संचालन तब से उनकी महारानी, शंखाग्राम की राजमाता कर रही हैं। उनकी अपूर्व सुन्दरी कन्या और मेरी परम आदरणीया गुरु देवी भुवनमोहिनी महान् साधिका एवं परम विदुषी नारी हैं महाराज! आपके प्रिय पुत्र एवं इस विशाल राज्य के सुदर्शन युवराज चन्द्रचूड़ के लिए मैं राजमाता की ओर से विवाह प्रस्ताव लेकर आया हूँ। हमारी प्रार्थना है कि आप हमारे इस प्रस्ताव को स्वीकृत कर हमें कृतार्थ करें महाराज! '

युवराज चन्द्रचूड़ की निश्चित मृत्यु को अवरुद्ध कर उसके प्राण-रक्षक द्वारा इस प्रकार विनयावनत सम्भाषण ने राजा के नयन सजल कर दिये। सर्वथा अहंकारशून्य और निर्दोष यह अवश्य कोई दिव्यात्मा ही है; यह सोचते ही राजा की आँखें हर्षातिरेक में भर आयीं।

प्रसन्नता से छलकते आँसुओं ने उनकी वाणी को अवरुद्ध कर दिया। इसी अवस्था में उन्होंने आगे आकर पूरी शक्ति से कुँवर को अपने अंकपाश में आबद्ध कर लिया।

दोनों राज्यों में चन्द्रचूड़ संग भुवनमोहिनी के विवाह की तैयारियाँ पूरे उत्साह के साथ प्रारंभ हो गयीं। शुभ मुहूर्त में दोनों वैवाहिक बंधन में बंधकर पति-पत्नी बन गये। राजमाता ने कन्यादान के साथ-साथ दहेज में दामाद को शंखाग्राम का भी दान कर दिया था।

इस विवाह के साथ ही कुँवर दयाल का कार्य भी समाप्त हो गया।

गुरु दक्षिणा के भार से वह मुक्त हो ही चुका था और अब उसे अपने गृह अंचल भरोड़ा की यात्र प्रारंभ करनी थी।