कुँवर नटुआ दयाल, खण्ड-16 / रंजन

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काकी की धारणा सत्य सिद्ध हुई.

सूर्योदय के साथ-साथ बहुरा का तन चैतन्य हो गया। परन्तु दीर्घ-अन्तराल के उपरांत भी जब उसने उठ कर स्वयं बैठना चाहा तो असफल हो गयी।

माया ने सहारा देकर उसे सम्हाल कर बिठा दिया। काकी और अमृता भी इस घड़ी वहीं उपस्थित थीं। बहुरा ने अपनी पुत्री को जी-भर कर निहारा। अपनी सम्पूर्ण शक्ति व्यय कर उसने अपनी बाहें उठायीं और रोती अमृता, उसकी बाहों में समा गयी।

इस दृश्य ने काकी के साथ-साथ माया को भी द्रवित कर दिया। दोनों के नयन-कोर सजल हो गये।

काकी के संकेत पर माया ने बहुरा को शक्तिवर्द्धक शीतल-सुगंधित पेय का पान कराया। इतने दिनों के उपरांत बहुरा ने अपना दीर्घ-उपवास भंग कर महाकाल को प्रणाम किया।

व्यतीत होते प्रत्येक दिवस के साथ उसकी खोई शक्ति वापस आती गयी और आज तो उसने पथ्य भी ग्रहण कर लिया। इस मध्य उसकी स्मृति में पुत्री के विवाह की एक-एक घटना का स्मरण होता रहा और वह व्यथित होती रही।

'बालपन से ही तुम्हारे निर्देशानुसार मैंने साधना-तपस्या की काकी,' पोपली काकी से उदास बहुरा ने कहा, 'अपना यौवन, अपना सम्पूर्ण जीवन होम किया मैंने। फिर भूल कहाँ हो गयी?'

'भूल कैसी पुत्री!' स्नेहसिक्त वाणी में पोपली काकी ने कहा, 'किस भूल की बात कर रही है पगली? व्यर्थ स्वयं को क्लेश पहुँचा रही है तू...! तूने कोई भूल नहीं की पुत्री...! सारा खेल तो प्रारब्ध का है। हम सोचते कुछ हैं, प्रयत्न कुछ और करते हैं, तथा चाहते कुछ और हैं...परन्तु होता वही है जो हमारा प्रारब्ध है, जो हमारी नियति है। नियति पर किसी का कोई वस नहीं चलता पुत्री! तू व्यर्थ अधीर न हो।'

'कैसे धीर धरूँ काकी!' उच्छ्वास लिया बहुरा ने, 'कैसे धीर धरूँ? मैंने तो अपना जीवन जैसे भी हो व्यतीत कर लिया, परन्तु मेरी अबोध पुत्री का जीवन कैसे व्यतीत होगा...उसने तो अपना जीवन ही उस छलना को समर्पित कर दिया, जिसके छल से अभी भी अनभिज्ञ है वह।'

'छले तो हम सभी गये हैं पुत्री!' सहमति में कहा काकी ने, 'हम सभी छले गये। माया की सहृदयता ने हमें भ्रमित किया। हम पहचान न पाये अपने जामाता को। हमने सोचा था।'

'हमने नहीं' , तड़प कर हस्तक्षेप किया बहुरा ने, 'तुमने सोचा था यह सब। मैं तो स्वप्न में भी इस सम्बंध को स्वीकार नहीं करती। परन्तु तुम्हारे ही आदेश ने मुझे विवश कर दिया था, अन्यथा।'

'सत्य कहती है पुत्री।' काकी ने क्षीण स्वर में कहा, 'भूल मेरी ही है। मैं ही माया की बातों में आ गयी थी।'

के ' माया दीदी तो निश्छल हैं काकी...! निर्मल हैं वह। छल-रहित हृदय है उनका। उन्हें दोष क्यों दें हम? ... परन्तु अब हमारा कर्तव्य क्या है वह कहो। अपनी सर्वथा-निर्दोष और अबोध पुत्री के जीवन को पुनः कैसे सँवारूँ मैं और अपनी

प्रतिशोध की अग्नि कैसे शांत करूँ... यह बताओ. जीवन-भर की साधना-सिद्धि से अर्जित मेरी शक्तियाँ निरर्थक हो गयीं। एक तुच्छ मनुष्य पर मेरा महान मारण-पात्र निष्फल हो गया...इस रहस्य ने आज तक मुझे व्यथित रखा है। क्या यही देखने के लिए मैंने इतनी उग्र साधनायें की थीं? क्यों मेरी सिद्धियां मुझी से विमुख हो गयीं?

'व्यर्थ क्षुब्ध क्यों हो रही है तू पुत्री? शक्ति तो निरपेक्ष है। क्यों असफल हो गयी, यह सोच कर मैं भी तभी से चकित हूँ। परन्तु इस एक असफलता को यूँ हृदय से लगाए मत रख पुत्री। आत्मविश्वास खोने मत दे। प्रथम तो स्वस्थ हो जा पुत्री...! पूर्ण स्वस्थ हो अमृता की भी थाह ले और दयाल को दिल से निकाल दे। हम उसके लिए अन्य वर ढूँढ़ लेंगी और रही तेरे प्रतिशोध की बात, तो तू चिन्ता न कर। भरोड़ा अंचल को ही नष्ट कर देंगी हम।'

कुछ नहीं कहा बहुरा ने। वह मौन रही तो काकी ने पुनः कहा, 'भरोड़ा के तट से कमला-बलान की धारा दूर हो चुकी है...ज्ञात है तुझे? उनके जीवन से जल ही दूर हो गया तो भला जीवन कब तक रहेगा?'

विहँस कर कहा बहुरा ने, 'मारण-पात्र की प्रतिक्रिया थी यह। सोच ले काकी... कितना विकट-पात्र था वह?'

'आश्चर्यचकित तो मैं भी हुई थी पुत्री!'

'सोचो फिर... इस महान विध्वंसक ने उस दुष्ट को त्रण दे दिया। निष्फल हो गया उसपर।'

'बहुरा की बात पर फिर से मौन हो गयी काकी।'

'माता बंगेश्वरी की कृपा से हमारे समस्त कार्य सम्पन्न हो गये उत्कल नरेश!' राजमाता राज राजेश्वरी ने अपने समधी जी से हर्षित स्वर में कहा, 'अब हमें अपने प्रिय कुँवर के प्रति अपना उत्तरदायित्व पूर्ण करना है।'

'यही समयोचित भी है राजमाता! उत्कल-नरेश ने अनुमोदन में कहा,' हमारे लिए तो कुँवरश्री ने जो कार्य किया है, उसका प्रतिदान मैं अपनी समस्त सम्पदा देकर भी नहीं कर सकता। मेरी इच्छा है हम सभी कुँवरश्री के अंचल में उपस्थित होकर बलपूर्वक उनका प्रयोजन पूर्ण करें...आप क्या कहती हैं? '

'यही उचित है उत्कल-नरेश!' राजमाता ने कहा, 'इसीलिए मैंने निश्चय किया है कि मैं अपने सेनापति बज्रबाहु के नेतृत्व में, एक सहस्र कुशल योद्धाओं की सेना, शीध्रताशीध्र कुँवर के अंचल में भेज दूँ। हमारी सेना, सर्वप्रथम भरोड़ा पहुँच कर, सम्पूर्ण अंचल को अपनी सुरक्षा-कवच में निर्भय कर दे...साथ ही हमारे लिए शिविरादि का निर्माण कार्य भी पूर्ण कर ले। ...इस विषय पर आपका क्या परामर्श है... वह कहें महाराज!'

'अत्यंत उत्तम विचार!' उत्कल-नरेश ने कहा, 'आपने अपने कर्तव्य की कार्य-योजना तो निर्धारित कर ली राजमाता...! अब मुझे भी आज्ञा दें!'

समधी की बात पर मुस्करा पड़ी राजमाता।

मुस्कराते हुए ही उन्होंने कहा, 'आपकी क्या इच्छा है उत्कल-नरेश...क्या करना चाहते हैं आप?'

'मैं आज ही अपने राज्य के लिए प्रस्थान करना चाहता हूँ राजमाता!' उत्कल नरेश ने कहा, 'मुझे आज्ञा दें तो...अपने राज्य में उपस्थित होकर मैं तत्काल भरोड़ा यात्र हेतु समुचित प्रबंध करना चाहता हूँ!'

'प्रबंध क्या करेंगे आप!' उत्सुक राजमाता ने कहा, 'आप हमारे साथ अपनी यात्र करें उत्कल नरेश!'

'नहीं राजमाता...! अतिथि बन कर नहीं जाऊँगा मैं...यूँ भी कुँवरश्री का भरोड़ा एक अत्यंत लघु अंचल है। आपके एक सहस्र सैनिकों की उपस्थिति ही कदाचित् उनके लिए भार न बन जाये।'

मुस्कुरायी राजमाता, 'आपका कथन सर्वथा उचित है महाराज...!' मुस्करा कर कहा उन्होंने, 'परन्तु मेरी सेना उनपर बोझ नहीं बनेगी। इस विषय पर मैंने अपनी योजना निर्धारित कर ली है।'

दीर्घ-विमर्श के उपरांत अंततः निर्णय हो गया कि उत्कल नरेश पार्थसारथी अपने राज्य पहुँच कर ही तद्नुसार अपनी सेना के साथ यात्र की व्यवस्था करेंगे। इस निर्णय के साथ ही तत्काल उनकी विदाई की व्यवस्था प्रारंभ हो गयी। उत्कल नरेश की विदाई का अर्थ था, भुवनमोहिनी की भी विदाई-परन्तु चंद्रचूड़ के निश्चय ने सबको विस्मित कर दिया।

उत्कल नरेश ने अपने प्रिय पुत्र को जब विदाई की सूचना देकर अपनी इच्छा बताई तो उसने अपने पिता को विस्मित करते हुए कहा, 'क्षमा करें पिताश्री! परन्तु आपके पुत्रवधू की विदाई अभी नहीं होगी। आपके साथ मैं भी अपने राज्य की यात्र करूँगा तथा अविलम्ब भरोड़ा प्रस्थान की वृहत् व्यवस्था करूँगा।'

'क्यों पुत्र?' विस्मित स्वर में उन्होंने कहा, ' विवाहोपरान्त वधू की विदाई तो स्वभाविक ही है। हमारी प्रजा भी तुम दोनों के स्वागत हेतु अधीर है। अपनी

पुत्रवधू को छोड़कर यदि हम चले गये तो जग क्या कहेगा? '

'पूरे जगत की चिन्ता के पूर्व अपने प्रिय कुँवरश्री की चिन्ता आवश्यक है पिताश्री। उनके प्रति अपने उत्तरदायित्व की मैं कदापि अवहेलना नहीं कर सकता। उनके ही कारण मेरे दिवास्वप्न, यथार्थ में परिणत हो सके हैं। ...सर्वप्रथम मैं उनके प्रति अपने कर्त्तव्यों को ही पूर्ण करूँगा।'

'अवश्य पूर्ण करो अपने कर्त्तव्य...! मेरी और सबकी यही इच्छा और कामना है...परन्तु तुमने हमारी पुत्रवधू की विदाई से क्यों इंकार किया पुत्र...! इस प्रकार हमारी जग-हँसाई का निर्णय क्यों लिया तुमने? हम अपनी वधू को विदा कर, अपने साथ लेकर जायेंगे तथा तत्काल ही कुँवरश्री के अंचल की यात्र हेतु प्रस्थान कर देंगे।'

'नहीं पिताश्री...मुझसे यह सम्भव नहीं।' दृढ़ स्वर में कहा चन्द्रचूड़ ने।

'क्यों पुत्र?'

' कुँवरश्री ने मुझसे पूर्व ही पाणिग्रहण किया है। प्रथम विदाई उनकी भार्या की ही होगी...यही मेरा निश्चय है पिताश्री...! मुझे विश्वास है, आपकी

पुत्रवधू को भी मेरे इस विचार से प्रसन्नता ही होगी। '

उत्कल नरेश ने अपने प्रिय पुत्र को स्नेह से निहारा। अपने पुत्र पर इस घड़ी उन्हें अत्यंत गर्व का भान होने लगा। भावावेश में आगे बढ़कर उन्होंने उसे अपने अंक में भर लिया।

सेनापति का नाम आते ही एक ऐसे बलशाली भीमकाय व्यक्ति का चित्र मानस में उभर आता है, जिसकी आकृति से क्रूरता नहीं तो कठोरता अवश्य झलकती हो। जिसकी मूछें, गालों पर पहुँच कर ताव खा रही हों। आँखों में चतुराई एवं वीरता की चमक भरी हो और जिसकी लम्बी बलिष्ठ भुजायें, आक्रमण हेतु सदा तत्पर रहती हों।

परन्तु शंखाग्राम के तरुण सेनापति वज्रबाहु के व्यक्तित्व में ऐसी कोई बात नहीं थी, जो उपर्युक्त विवरणों में किसी से भी मेल खाती हो।

वह तो मात्र बाईस वर्षों का, सदा मुस्कराते रहने वाला ऐसा युवक था, जिसकी निर्दोष आँखों में बाल-सुलभ कोमलता भरी रहती थी।

उसके घने-लम्बे और काले-चमकते केश स्कंध तक फैले थे। पतली-नुकीली भवों के नीचे, दो बड़ी-बड़ी चुम्बकीय काली आँखें बरबस ही दृष्टि को अपनी ओर आकर्षित कर लेती थीं। पतली-लम्बी और ऊँची नाक के नीचे गुलाबी अधर और होठों के ऊपर नई-नई निकली रेशमी मूछें।

परन्तु वज्रबाहु का गोरा सुगठित तन, दृष्टि में जितना सुकोमल दिखता था, वह अंदर से उतना ही शक्तिशाली था और उसकी बाल-सुलभ आँखें जितनी कोमल दिखती थीं, उसके अंदर उतना ही आत्मविश्वास एवं दृढ़ता भरी थी।

अस्त्र-शस्त्र के संचालन में अतिनिपुण वज्रबाहु तलवार का भी अत्यंत

धनी था। तलवार संचालन में उसकी चपलता सर्वत्र विख्यात थी।

'आज्ञा राजमाता!' कक्ष में उपस्थित होकर वज्रबाहु ने राजमाता राज राजेश्वरी का अभिवादन करने के उपरांत कहा।

'वज्रबाहु!' राजमाता राज राजेश्वरी ने स्निग्ध नेत्रों से सेनापति को देखते हुए शांत स्वर में कहा, 'माता बंगेश्वरी की अनुकम्पा एवं भरोड़ा के कुँवर दयाल सिंह की प्रेरणा से हमारे समस्त माँगलिक कार्य कुशलतापूर्वक सम्पन्न हो गये। अब शंखाग्राम का दायित्व है कि हम अपने प्रिय कुँवर के साथ जा कर उसका प्रयोजन पूर्ण करें।'

'कैसा प्रयोजन माते?' उलझन भरे नेत्रों से राजमाता राजराजेश्वरी पर दृष्टि डाल कर कहा वज्रबाहु ने।

'कदाचित् तुम नहीं जानते पुत्र। शंखाग्राम को उपकृत करने वाले हमारे प्रिय पुत्र कुँवर की त्रसदी यह है वज्रबाहु कि उसने अपनी प्रिय जीवनसंगिनी...अपनी प्राण-प्रिया भार्या को विवशता में स्वयं से विलग किया है। मेरी पुत्रवधू अमृता, प्रतिपल मेरे पुत्र का, व्याकुल हो, राह निहार रही है।'

'मैं समझा नहीं माते!' वज्रबाहु ने कहा, 'कुँवरश्री की विवशता क्या है?'

'विवशता है... मेरे पुत्रवधू की माता बहुरा। बखरी-अंचल की स्वामिनी बहुरा, जो महाकाल की विकट-उपासिका है पुत्र! उसने महाश्मशान-साधना के फलस्वरूप कई सिद्धियाँ प्राप्त कर ली हैं और परिस्थितिवश भ्रमित हो वह स्वयं अपने जामाता की शत्रु हो गयी हैं। इसी बहुरा के कारण विवश अमृता, पति-वियोग में, प्रतिपल हमारे कुँवर की राह देख रही है।'

वज्रबाहु के लिए यह सर्वथा नवीन रहस्योद्घाटन था। विस्मित नेत्रों से उसने राजमाता राज राजेश्वरी को देखते हुए आश्चर्य व्यक्त किया, 'हमारे देवतुल्य कुँवरश्री के अंतस् में इतनी पीड़ा भरी है...हमें इसका किंचित भी आभास नहीं था माते। मुझे आज्ञा दें...! उनके लिए तो मैं अपने प्राणोत्सर्ग के लिए भी तैयार हूँ...! आज्ञा दें माते... क्या करना है मुझे।'

वज्रबाहु की भावना सुन हँस पड़ी राजमाता।

हँसते हुए ही उन्होंने कहा, 'तुम्हारे प्राणोत्सर्ग की आवश्यकता नहीं है पुत्र! मेरी बातें ध्यानपूर्वक सुनो।'

गंभीर हो गयीं राजमाता, ' भरोड़ा कोई राज्य नहीं...अंचल है वह। सीमित

साधन-सम्पन्न इस लघु अंचल में उपस्थित होकर हम उन पर बोझ नहीं बनना चाहते, जबकि हमारी उत्कट इच्छा है कि हम अपनी सम्पूर्ण शक्ति सहित भरोड़ा की यात्र करें। '

'तो क्या निर्णय लिया है आपने माते...! आदेश दें मुझे।'

'तुम्हें हमारे पूर्व ही वहाँ जाकर समस्त व्यवस्था करनी होगी। भरोड़ा अंचल के समीप विस्तृत भूमि का चयन कर, हमारे लिए शिविरों तथा सैनिकों के लिए छावनियों का निर्माण करना होगा। अपने राज्य में उपलब्ध संसाधनों के अतिरिक्त, अन्य आवश्यकताओं की आपूर्ति, निकटवर्ती राज्यों से करो। ...इस कार्य हेतु तुम्हें धन का कोई अभाव नहीं होगा पुत्र।'

'समझ गया माते।' प्रसन्न मुद्रा में कहा वज्रबाहु ने, 'मैं इसी घड़ी से समस्त व्यवस्था शुरू कर देता हूँ। आप निश्ंिचत हो जायें माते! समस्त कार्य आपके आज्ञानुसार आज ही प्रारंभ करूँगा। कुँवरश्री के अंचल में उपस्थित होकर मैं, सर्वप्रथम वहाँ के राजाजी को समस्त सूचना दूंगा-तत्पश्चात् उनके परामर्श से भूमि का चयन करूंगा।'

'नहीं पुत्र...सर्वप्रथम उन्हें मेरा अभिवादन देना। कुँवर के मंगल-समाचार से उन्हें अवगत करा कर, उनका एवं उनकी प्रजा का कुशल-क्षेम पूछना, तत्पश्चात् ही उनकी सहमति से विस्तृत भूमि का चयन करना पुत्र!'

'ऐसा ही होगा राजमाता...! अब पुत्र को आज्ञा दें...! मैं तत्काल व्यवस्था प्रारंभ करता हूँ।'

'तुम्हारा कल्याण हो...! जाओ पुत्र!'

कमला मैया क्या विमुख हुई कि भरोड़ा अंचल से उसके प्राण ही विमुख हो गए. अंचल के जीवन यापन का स्रोत ही चला गया। इसी जल-धारा से वाणिज्य-व्यापार का संचालन होता था। खेतों में फसलें लहलहाती थीं। अंचल में मत्स्य का विशाल व्यापार-तंत्र विकसित था। अनायास ही सब समाप्त हो गया।

और ऐसी ही विपत्ति की बेला में गुप्तचर घुटरामल्ल ने बहुरा के चैतन्य होने का समाचार देकर राजा विश्वम्भरमल्ल को और भी व्यथित कर दिया।

'अब क्या होगा राजरत्न?' राजा ने चिन्ता व्यक्त की, 'हमारे सौभाग्य ने तो पूर्व से ही हमसे मुख मोड़ लिया है, हमारे निवासी निराशा में हताश हो चुके हैं, जीवनयापन की वैकल्पिक व्यवस्था में चिन्तित हैं हम सब और उसपर यह समाचार! क्या करेंगे हम?'

'कमला मैया सहाय रहेंगी तो सब कुशल ही होगा राजा जी' , राजरत्न ने सांत्वना दिया, 'मैया रूठी हैं तो सकारण ही रूठी होंगी...मनाना होगा उन्हें।'

'परन्तु इस विकटा बहुरा का क्या होगा राजरत्न? मैया तो रूठी हैं किन्तु यह तो क्रोधित है हम पर। श्रांत थी तो हम निर्भय थे। परन्तु अब करेंगे क्या हम?'

'होगा वही राजा जी, जो मैया चाहेंगी। आप शांत रहें। चिन्ता करने से चिन्ता का निवारण होता तो पूरा जग ही चिन्तित हो जाता राजा जी.'

'तो क्या नियति पर छोड़ दें अपनी समस्या अथवा इसके निवारण की चिन्ता करें हम?'

सेनापति वज्रबाहु ने तत्काल सम्पूर्ण कार्य-योजना का प्रारूप तैयार कर, उसे क्रियान्वित करना प्रारंभ कर दिया। अपनी वीर सेना के दस कुशल योद्धाओं को उसने 'शतपति' बना कर, प्रत्येक को शत-योद्धाओं का प्रधान संचालक नियुक्त कर दिया।

इस प्रकार एक सहस्र सेना का गठन कर उसने प्रत्येक शतपतियों से कहा, 'तुममें से प्रत्येक के अधीन सौ वीर योद्धाओं की सेना संचालित होगी। अपने शतवीरों के लिए आवश्यक समस्त सामग्री, अस्त्र, शस्त्र, खाद्यान्न, मदिरा, औषधि एवं अन्यान्य वस्तुओं की विस्तृत सूची बनाओ. सैनिक छावनियों की आवश्यक संख्या, छावनी निर्माण में कुशल शिल्पियों, पाकशाला हेतु आवश्यक व्यक्तियों एवं घायल योद्धाओं के उपचार में निपुण चिकित्सकों की सूची भी बनाओ तथा जलमार्ग द्वारा इनकी सुरक्षित यात्र हेतु तुम्हें कितनी नौकाओं की आवश्यकता है...यह भी बताओ.'

अपने दसों शतपतियों को इस प्रकार आदेश देकर उसने शंखाग्राम के गुप्तचर प्रधान को आज्ञा दी कि वह अपने गुप्तचरों को अंग-देश के विभिन्न अंचलों में भेज कर सम्पूर्ण स्थिति का आकलन करे तथा तद्नुसार समस्त सूचनायें प्रेषित करता रहे।

इस प्रकार, सैनिक अभियान की कार्ययोजना का समस्त भार शतपतियों में विकेंद्रित कर उसने राजमाता राजराजेश्वरी एवं अन्य अति-विशिष्ट राजकीय अतिथियों की भरोड़ा यात्र एवं उनके सुखद राजसी-निवास की विस्तृत योजना का प्रारूप

निर्धारित कर लिया।

तदुपरांत वज्रबाहु ने शतपतियों द्वारा निर्मित आवश्यक सूची का गंभीर

अध्ययन कर, उसमें कई आवश्यक संशोधन किए.

वज्रबाहु के भवन में रात्रि के दो प्रहर तक विचार-विमर्श एवं मंत्रणा होती रही तथा सूर्योदय के साथ ही स्वीकृत कार्य, योजनानुसार तीव्रता से क्रियान्वित होना प्रारंभ हो गया।

शतपतियों ने अपने सैन्य-समूह को सज्जित होने का आदेश देकर, अन्य सभी व्यवस्थाओं को सम्पादित करना आरंभ कर दिया।

गंगा के मुहाने के उत्तर पाँच कोस की दूरी पर सामग्रीवाहक एवं सैनिक परिवहन हेतु विशाल नौकायें सुसज्जित होने लगीं।

सेना के लोहार नये-नये अस्त्र, शस्त्र एवं विभिन्न आयुधों के निर्माण कार्य में तत्काल लग गए. योद्धाओं के शिरस्त्रणों एवं कवचों को चमकाया जाने लगा। सेना के प्रधान वैद्यराज के निर्देशन में चिकित्सकों के समूह ने जड़ी-बूटियों और रस-रसायनों के साथ अन्य औषधियों की व्यवस्था प्रारंभ कर दी। इसी प्रकार खाद्य सामग्रियों के साथ-साथ प्रचुर मात्र में मदिरा एकत्रित की जाने लगी।

शिविरों और छावनियों की सामग्री का निर्माण भी युद्ध-स्तर पर तत्काल प्रारंभ हो गया।

इस अभियान की सूचना शंखाग्राम में चर्तुदिक् फैली।

फलस्वरूप सम्पूर्ण शंखाग्राम में हलचल बढ़ गयी।

शंखाग्राम के नर-नारी तथा बाल-वृद्ध गंगा के दोनों किनारों पर एकत्रित हो गये थे। सेनापति चंद्रचूड़ के नेतृत्व में शंखाग्राम की सेना अपनी अभियान यात्र प्रारंभ कर रही थी। विभिन्न आकार-प्रकार एवं सज्जा की नौकायें गंगा की मध्य-

धारा में लंगर डाले खड़ी थीं तथा अनेक छोटी नौकायें एवं डोंगियां उनके चतुर्दिक् लहरों पर तैर रही थीं।

किनारे खड़े दर्शकों में कोई नौकाओं की गणना में व्यस्त था और कोई विशालकाय नौकाओं के पालों की संख्या को देख विस्मित हो रहा था। छोटी नौकायें एवं डोंगियों में कोई पाल नहीं था, जबकि आकार में बड़ी होती जाती नौकाओं में पालों की संख्या भी उसी अनुपात में बढ़ती गयी थी।

सबसे बड़ी सामग्रीवाहक नौका में, विभिन्न आकार के पाल बंधे थे। प्रथम पाल की लम्बाई सबसे बड़ी थी तथा अंतिम पाल सबसे छोटी. नौका के विशाल आकार ने सबको आश्चर्य-चकित किया था। कोई कहता, दो सौ हाथ लम्बी है यह-कोई इससे कम कहता। इस प्रकार विभिन्न अनुमान लगाए जा रहे थे।

तभी इस विशालकाय नौका ने लंगर खींची।

शेष नौकाओं के भी लंगर उठाये जाने लगे तथा सभी नौकाओं ने पूर्व

निर्धारित क्रम में, एक दूसरे से निश्चित दूरी बनाकर, व्यूह-रचना प्रारंभ कर दी।

उत्सुक दर्शक विस्मित हो इस अद्भुत दृश्य को देखने लगे। दो घड़ी व्यतीत होते-होते नौकाओं के समूह ने मकर-व्यूह की अद्भुत रचना कर ली।

प्रस्थान हेतु विभिन्न वाद्यों का वृंद-वादन प्रारंभ हुआ। ढोल-नगाड़े भी साथ-साथ बजने लगे। दर्शकों की भीड़ में उत्साह का अतिरिक्त संचार होने लगा तथा तुमुल-

ध्वनि के मध्य मकर-व्यूह के आकार में सज्जित नौकाओं ने गंगा की लहरों पर अपनी अभियान-यात्र का आरंभ कर दिया।

संध्या का सूर्य रक्तवर्णी किरणें बिखेर रहा था।

गंगा की लहरों पर स्वर्णिम लालिमा छिटक रही थीं। परन्तु दर्शकों की भीड़ अभी भी दूर होती जाती नौकाओं को अपलक निहार रही थी।

समारोह पूर्वक, उत्कल नरेश पार्थसारथी एवं उनके पुत्र चंद्रचूड़ अपने परिजनों एवं राज्याधिकारियों के साथ विदा हो चुके थे तथा वज्रबाहु के नेतृत्व में शंखाग्राम की सेना ने भी अपनी भरोड़ा यात्र प्रारंभ कर दी थी। परन्तु सर्वाधिक आश्चर्य की बात यह थी कि इन समस्त हलचलों का केन्द्र, कुँवर दयाल सिंह पूर्णतः शांत एवं र्निविकार था। वह साक्षी बन कर समस्त घटनाओं का द्रष्टा मात्र बना रहा।

अपने अंचल को जब उसने छोड़ा था, तब वह अकेला ही था, परन्तु आज उसके स्नेही-परिजनों की परिधि विस्तृत हो चुकी थी। इस विशाल परिवार के केन्द्र में उसकी मूक-चेतना, विधाता के विधान को शांत-चित्त देख रहा था।

देवी भुवनमोहिनी, राजमाता राजराजेश्वरी, दुर्द्धर्ष कापालिक टंका, माधव आढ़तिया, अमला भाभी...युवराज चंद्रचूड़, उत्कल-नरेश पार्थसारथी के साथ-साथ अन्य सभी, उसके मानस-पटल पर कौंधने लगे।

अपने अंचल और अपनी भार्या के भी स्मरण उसकी चेतना में प्रविष्ट हुए. अमृता की माता, पोपली काकी एवं स्नेहमयी माया की छवियाँ भी उभरीं।

उसकी दीर्घ यात्र का प्रयोजन पूर्णतः सिद्ध हो चुका था अतः उसे अपने अंचल की वापसी यात्र प्रारंभ करनी ही थी।

देवी कामायोगिनी ने वचन लिया था उससे। वापसी यात्र में उन्हें साथ रखना है। उसके अधर पर क्षणिक मुस्कान आकर लुप्त हो गयी और वह

ध्यानस्थ हो गया। कुँवर की मानसिक तरंगें, देवी कामायोगिनी की अंतश्चेतना में तत्काल सम्प्रेषित होने लगीं।

कुँवर के नेत्र-पलक खुले।

उसके निर्विकार नेत्र शांत थे।

भरोड़ा यात्र हेतु उसका संदेश देवी कामायोगिनी ने प्राप्त कर लिया था।

विशाल मकर-व्यूह में सज्जित इतनी नौकाओं को गंगा में देख राह के प्रत्येक ग्राम अंचल, प्रदेश एवं राज्यों में उत्सुकता बढ़ गयी। शंखाग्राम के इस अभियान की राह में पड़ने वाले राजे-रजवाड़ों की सभाओं में, चर्चा का यह मुख्य विषय बन गया। किसी को ज्ञात नहीं था शंखाग्राम के इस सैन्य-अभियान का प्रयोजन क्या है? गंगा के दोनों किनारों पर स्थानीय निवासियों की भीड़ जुटने लगी। दूर-दूर के अंचलों पर इस अभियान की सूचना दावानल की भाँति फैली।

देवी कामायोगिनी अपनी नृत्यशाला में थीं, जब उन्होंने अपने अंतस् में कुँवर दयाल का संदेश ग्रहण किया। तत्काल उनकी चेतना शंखाग्राम की यात्र हेतु तत्पर हो गयी।

गंगा की लहरों पर शंखाग्राम के सैनिक अभियान का समाचार, चम्पा सहित बखरी-सलोना तथा भरोड़ा तक आ पहुँचा।

भरोड़ा-राज में कमला मैया का भव्य अनुष्ठान चल रहा था और बखरी सलोना में बहुरा तीव्र गति से स्वस्थ हो रही थी।

गंगा में सैनिकों की उपस्थिति ने सबों की उत्सुकता बढ़ा दी थी।

नौकाओं पर लहराते शंखाग्राम की स्वर्णिम ध्वजाओं के कारण यह तो ज्ञात ही था कि सेना किस राज्य की है; परन्तु इस अभियान का प्रयोजन तथा गन्तव्य का ज्ञान किसी को नहीं था और यही चिन्ता का कारण था।

इन दिनों बहुरा और पोपली काकी प्रायः इसी विषय पर चर्चा करती रहती थीं कि तभी अति आश्चर्यजनक समाचार आया।

सेना की नौकाएँ गंगा की मुख्य धारा को छोड़, कमला-बलान की धारा में प्रविष्ट हो गयी हैं। उसने अपना विस्तृत मकर-व्यूह भंग कर दिया है तथा आपस में अपेक्षित दूरी रखते हुए, समस्त नौकायें पंक्तिबद्ध हो गयी हैं।

गंगा की भाँति कमला-बलान इतनी विस्तृत थी भी नहीं, जिसमें मकरव्यूह जैसे विस्तार में इतनी नौकाएँ समा सकें; अतएव सेना को व्यूह भंग करना पड़ा। बहुरा इसे समझती थी, परन्तु कमला-बलान की धारा में सैनिक नौकाओं के प्रवेश ने उसे अत्यधिक चौकन्ना कर दिया था। कहीं इन सैनिकों का गन्तव्य भरोड़ा तो नहीं! चिन्ता की बात थी यह और इसी कारण वह व्याकुल हो गयी।

अगले दिवस उसकी आशंका सत्य हो गयी।

शंखाग्राम की सेना भरोड़ा की भूमि पर पहुँच चुकी थी।

हतप्रभ हो गयी बहुरा।

'यह क्या हुआ काकी!' आश्चर्यचकित बहुरा ने कहा, 'भरोड़ा में शंखाग्राम की सेना क्यों आयी है?'

खुल कर हँस पड़ी काकी।

हँसते हुए ही उसने बहुरा के प्रश्न पर प्रतिप्रश्न किया, 'दूसरों की भूमि पर कोई सेना क्यों आती है पुत्री...?' कह कर पुनः हँस पड़ी वह।

'तो क्या भरोड़ा पर आक्रमण है यह...!' बहुरा ने मुदित होकर कहा, 'तुम्हारा अर्थ यह है कि शंखाग्राम की सेना ने।'

'इतनी उत्कंठित न हो पुत्री!' आनंदित स्वर में काकी ने कहा, 'तनिक प्रतीक्षा कर...स्थितियाँ स्वयं स्पष्ट हो जायेंगी। भरोड़ा यूँ भी संकट में है। कमला की धारा ने अंचल को छोड़ कर, तुम्हारे शत्रु को पूर्व से ही पस्त कर दिया है...और अब इस सेना का आगमन।'

कह कर पुनः हँस पड़ी वह।

'परन्तु काकी!' बहुीर ने शंका की, 'भरोड़ा पर आक्रमण तो हमारे हित में भी नहीं है। यह तो चुनौती है अंग-देश पर। हम यूँ मौन रहे तो सम्पूर्ण अंगभूमि पर क्रमशः शंखाग्राम का प्रभुत्व हो जायेगा काकी...क्या कहती हो तुम?'

बहुरा की बातों पर गंभीर हो गयी काकी।

उन्हें बहुरा का कथन सत्य प्रतीत होने लगा। उन्होंने इस कोण से विचार ही नहीं किया था। यह तो वास्तव में गंभीर स्थिति थी।

'तुम्हारा दृष्टिकोण उचित है पुत्री!' काकी ने बहुरा को प्रशंसा भरी दृष्टि से देखते हुए कहा, 'भरोड़ा का संकट वास्तव में हमारा अपना संकट है। अंग के किसी भी भू-भाग पर आक्रमण, वस्तुतः हम पर ही किया गया आक्रमण है पुत्री!'

'तो इस स्थिति में हमें क्या करना है काकी...' अति दृढ़ स्वर में बहुरा ने पुनः कहा, 'तुम कहो तो अपनी मंत्र-शक्ति से भष्म कर दूँ इन आतताइयों को।'

'नहीं पुत्री...! इतनी शीघ्रता न कर...सेना का प्रयोजन अभी स्थापित नहीं हुआ। यूँ भी संकट जब अंग की भूमि पर उपस्थित है, तो हमें अपने मुख्यालय चम्पा से निर्देश प्राप्त करना उचित होगा पुत्री!'

'ठीक कहती हो काकी!' निर्णायक स्वर में बहुरा ने कहा, 'मैं स्वयं चम्पा जाऊँगी।'

'अभी नहीं पुत्री...! इतनी शीघ्रता नहीं...हमें ज्ञात करने दे, तद्नुसार निर्णय लेना।'

और यह चर्चा यहीं समाप्त हो गयी।

कमला नदी की मध्य धारा में सेनापति वज्रबाहु की नौकाओं ने लंगर डाल दिया। अपने दस शतपतियों सहित एक छोटी नौका पर सवार सेनापति पश्चिम तट पर उतरा। वनों से आच्छादित नदी के दोनों तट जनशून्य थे। वज्रबाहु की निरीक्षकीय दृष्टि, तट पर घूमी। तट पर घना वन व्याप्त था। वृक्षों की घनेरी छाया ने सूर्य की किरणों को भी अपने ऊपर ही रोक रखा था।

तभी एक ओर वृक्षों की झुरमुटों के मध्य क्षणिक हलचल उत्पन्न हुई और कई व्यक्ति बाहर निकल आये।

शतपतियों की पकड़, कमर से बंधी तलवारों की मूठ पर मजबूत हो गयी परन्तु वज्रबाहु ने उन्हें शांत रहने का संकेत दे दिया।

घने-वन से बाहर आये व्यक्ति, शंखाग्राम के गुप्तचर थे। पास आते ही सबने झुक कर वज्रबाहु का अभिवादन किया।

गुप्तचरों से मंत्रणा के पश्चात् संतुष्ट सेनापति ने दसों शतपतियों को आवश्यक निर्देश दिये। तत्काल ही छोटी नौकाओं एवं डोंगियों में भर-भर कर सैनिक तट पर उतरने लगे।

गुप्तचरों के अनुसार, कमला की धारा एवं भरोड़ा की मुख्य भूमि के मध्य अवस्थित यह अत्यंत घना-वन, पाँच कोस चौड़ा था। वन के समापन के पश्चात् कमला नदी का वह सूखा तट था जहाँ से कमला का जल, पूर्व में प्रवाहित होता था।

हिंसक पशुओं से भरे इस वन को पार कर ही भरोड़ा में प्रवेश संभव था। सूर्योदय के पश्चात् दो घड़ी व्यतीत हो चुकी थी। वन में अविलम्ब प्रवेश करना आवश्यक था, अन्यथा मध्य-मार्ग में ही सूर्यास्त की आशंका थी।

अपने शतपतियों को आवश्यक निर्देश देकर सेनापति वज्रबाहु, इक्कीस सशस्त्र योद्धाओं एवं गुप्तचरों सहित, घने-वन में प्रविष्ट हो गया।

सेनापति की अनुपस्थिति में सेना के समस्त उत्तरदायित्व शतपतियों पर आ गये थे। सूर्यास्त के पूर्व समस्त सामग्रियों को तट पर उतारना एवं उन्हें सुरक्षित करना आवश्यक था।

मालवाहक नौकाओं से छावनी निर्माण की सामग्रियाँ तट पर उतारी जाने लगीं। जनशून्य इस भूमि पर सैनिक हलचलों ने वन के पक्षियों को चौंका दिया। पक्षियों के समूह शोर करते हुए आकाश में उड़ने लगे। वन्य जीवों में भी इस कारण अचानक हलचल मच गयी। भूमि पर रेंगने वाले सर्पादि भी व्याकुल हो कर भागने लगे और इन सबके मध्य एक सहस्र सैनिक और इतनी ही संख्या में अन्य व्यक्ति साज-सामानों के साथ तट पर उतरते रहे।

सूर्यास्त के पश्चात् वन्य जीवों से सुरक्षा हेतु, स्थान-स्थान पर सूखी लकड़ियों के ढेरी लगा कर अग्नि प्रज्वलित कर दी गयी थी। तब तक कई छावनियां निर्मित कर दी गयीं।

सूर्यास्त के पूर्व ही नौकाओं की सुरक्षा में नियुक्त सैनिकों तथा नाविकों के अतिरिक्त समस्त सेना, सामग्री तथा अन्य व्यक्ति तट पर अवस्थित हो गये।

शतपतियों ने सावधानीपूर्वक सुरक्षा-घेरा बनाकर सशस्त्र सैनिकों को सुरक्षा में नियुक्त कर दिया। तदुपरांत पाकशात्रियों के प्रधान को रात्रिकालीन भोजन व्यवस्था की आज्ञा दे दी गयी।

पाँच कोस के घने वन को तीव्र गति से पार करते हुए सेनापति वज्रबाहु जब सूख चुकी कमला नदी के तट पर पहुँचा तो सूर्य देवता अस्ताचल की ओर गतिमान थे। सूख चुकी नदी में छोटी-बड़ी विभिन्न आकार की नौकायें जहाँ-तहाँ बिखरी पड़ी थीं।

सूर्य का लाल पिंड क्षितिज पर जा पहुँचा था। श्रम से श्रांत योद्धाओं तथा गुप्तचरों को कुछ क्षण विश्राम देकर सेनापति वज्रबाहु ने तीव्रता से सूखी नदी को पैदल चलकर पार किया।

भरोड़ा की भूमि पर पदार्पण करते ही वज्रबाहु को अंचल के निवासियों ने उत्सुकता से घेर लिया। वायु-वेग से सम्पूर्ण अंचल में समाचार फैल गया और महल की दिशा में बढ़ रहे वज्रबाहु एवं अन्य योद्धाओं के साथ चलने वाले, उत्सुक भरोड़ा निवासियों की संख्या भी बढ़ती गयी।

परिणामतः वज्रबाहु के आगमन की सूचना राजा जी तक तत्काल पहुँची। वज्रबाहु अपने साथियों सहित जब राजा जी के राजप्रासाद के समीप पहुँचा तो द्वार को घेरे भरोड़ा-राज के सेनापति भीममल्ल सशस्त्र उपस्थित थे।

सेनापति भीममल्ल के साथ उसके कई योद्धा हाथों में चमकती तलवारें उठाये आक्रमक मुद्रा में खड़े थे।

वज्रबाहु अपने साथ के योद्धाओं एवं गुप्तचरों को वहीं रुके रहने का संकेत देकर, स्वयं आगे बढ़ा।

भीममल्ल की उत्सुकता और भी बढ़ गयी।

प्रसन्न मुद्रा में अपनी ओर आते इस अति-सुदर्शन योद्धा को देख, वह विस्मित था।

'मैं, वज्रबाहु, शंखाग्राम का सेनापति हूँ श्रीमान!' भीममल्ल का सादर अभिवादन करने के उपरांत मुस्कराते हुए उसने कहा-'अपनी राजमाता राज राजेश्वरी की आज्ञा से आपके राजा जी के लिए शुभ संदेश लाया हूँ।'

भीममल्ल के संकेत पर तत्काल उसके योद्धाओं के खड्ग झुक गए और भीममल्ल के मुखमंडल पर प्रबल जिज्ञासा के भाव उभर आये।

उन्होंने अपनी बाहें फैला कर कहा, 'शंखाग्राम के सेनापति का भरोड़ा में हार्दिक स्वागत है। मैं भीममल्ल, भरोड़ा का सेनापति, आपका स्वागत करता हूँ।' कह कर उसने वज्रबाहु को आलिंगन-बद्ध कर लिया।

शंकित वातावरण उत्साह में परिणत हो चुका था।

सेनापति भीममल्ल के योद्धाओं ने अपने सेनापति के आदेश पर उनके साथ आए वज्रबाहु के सैनिकों एवं गुप्तचरों का स्वागत किया तथा उनके आतिथ्य की व्यवस्था में लग गये।

वज्रबाहु के साथ भीममल्ल ने जब राजा के सभाकक्ष में प्रवेश किया तो विचारमग्न राजा विश्वम्भरमल्ल के साथ वैद्यराज रसराज एवं राजरत्न मंगल गुरु उनकी प्रतीक्षा में उत्सुकतापूर्वक विराजे हुए थे।

वज्रबाहु ने उपस्थित होते ही कमर तक झुक कर राजा का अभिवादन कर कहा, 'महाराज! मैं शंखाग्राम का सेनापति वज्रबाहु अपनी राजमाता का संदेश लेकर आपकी सेवा में उपस्थित हुआ हूँ।'

'आसन ग्रहण करें सेनापति!' राजा ने इस अपूर्व कांतिमय योद्धा को निहारते हुए प्रसन्न वाणी में कहा, 'हम अपने अंचल में आपका स्वागत करते हैं। हमारे प्रिय युवराज कुँवरदयाल आपके ही राज्य में हैं सेनापति! हमें यह भी भली-भाँति ज्ञात है कि आपकी राजमाता का असीम स्नेह, मेरे प्रिय पुत्र को प्राप्त है, अतएव इस घड़ी आपके आगमन ने हमारी उत्कंठा और भी तीव्र कर दी है। परन्तु इसके पूर्व कि मैं आपकी श्रद्धेय राजमाता का संदेश सुनंू, मुझे शंखाग्राम की कुशलता जानने की व्याकुलता हो रही है। आपके गौरवशाली समृद्ध राज्य में सब कुशल तो है...सब स्वस्थ एवं प्रसन्न तो हैं सेनापति?'

'हाँ महाराज! शंखाग्राम में चारों ओर आनंद ही आनंद है। हमारी स्नेहमयी राजमाता राजराजेश्वरी भी पूर्ण स्वस्थ एवं प्रसन्न हैं। उन्होंने भी अपने संदेश के पूर्व भरोड़ा की कुशलता जाननी चाही है। आपके अंचल में सब कुशल तो है न महाराज!'

वज्रबाहु के प्रश्न ने राजा को उद्विग्न कर दिया।

क्या कहें वह कि कमला मैया ने रूठ कर अंचल का त्याग कर दिया है। या यह कहें कि अंचल के निवासी गंभीर संकटों का सामना कर रहे हैं।

क्या कहें?

राजा को यूँ मौन देख, राजरत्न उनकी व्यथा समझ गए. दूत बन कर उपस्थित हुए अतिथि से अपना दुख प्रकट करना यूँ भी अनुचित एवं व्यर्थ है। यह सोच कर राजरत्न ने कहा, 'इस अंचल में सब कुशल है सेनापति। हम व्यग्र होकर अपने कुँवर की प्रतीक्षा कर रहे हैं। हमें ज्ञात हुआ है कि उन्होंने आपके राज्य में अपनी शिक्षा एवं साधना पूर्ण कर ली है। क्या आपको ज्ञात है, हमारे प्रिय कुँवर कब लौटेंगे?'

'कदाचित् आप हमारे परम आदरणीय कुँवरश्री के गुरुदेव, राजरत्न मंगलगुरु हैं!' वज्रबाहु ने श्रद्धावनत होकर पूछा।

'आपने ठीक पहचाना सेनापति!' वज्रबाहु के प्रश्न का उत्तर राजा ने दिया 'यही हैं हमारे प्रिय पुत्र के गुरु तथा इनकी ही प्रेरणा से युवराज कामरूप कामाख्या की यात्र करते हुए आपके राज्य में उपस्थित हुए.'

तत्काल वज्रबाहु ने अपना आसन त्यागा और राजरत्न के चरणों को स्पर्श करके उनकी चरणों में ही बैठ गया।

हतप्रभ राजरत्न ने बलपूर्वक वज्रबाहु को उठा कर कहा, 'आपका स्थान इन तुच्छ चरणों में नहीं है सेनापति...! मुझे इसप्रकार लज्जित न कर कृपया आसन पर विराजें।'

'घृष्टता हेतु क्षमा करें तो निवेदन करूँगा... आज वज्रबाहु आपके चरण-स्पर्श करके धन्य हो गया गुरुदेव...! धन्य हो गया मैं।'

'कृपा करके आसन ग्रहण करें सेनापति!' राजा ने भी मुस्करा कर कहा, 'अपने राजरत्न पर हमें भी गर्व है, परन्तु आपका आसन-ग्रहण आवश्यक है सेनापति! कृपया आसन ग्रहण कर राजमाता के संदेश से हमें अवगत करायें।'

'महाराज!' विनयावनत होकर वज्रबाहु ने कहा, 'हमारी राजमाता राजराजेश्वरी एवं राजरानी भुवनमोहिनी, आपके युवराज एवं हमारे राज्य के उद्धारक कुँवरश्री के साथ स्वयं इस अंचल की यात्र के लिए संकल्पित हैं। उनकी राजकीय यात्र के पूर्व मैं शंखाग्राम की ओर से, इस अंचल की सुरक्षा एवं उनके राज्योचित प्रबंध-व्यवस्था हेतु उपस्थित हुआ हूँ। मेरे साथ शंखाग्राम की एक सहस्र प्रशिक्षित सेना तथा इतनी ही संख्या में अन्य श्रमिक, सेवक तथा अन्यान्य व्यक्ति आए हैं। आपके अंचल की सीमा के बाहर, वन-प्रदेश के उपरांत जो कमला नदी प्रवाहित हो रही है, उसकी ही धारा में हमारी नौकाओं ने अपने लंगर डाले हैं। हमारी राजमाता का अनुरोध है कि आपकी आज्ञा से अंचल की सुरक्षा व्यवस्था सम्हालने के उपरांत, मैं यहाँ के किसी निर्जन भू-भाग पर उनके स्वागत की समस्त व्यवस्था करूँ।'

राजा ने आश्चर्यचकित हो सारी बातें सुनीं। अनायास घटित इस स्थिति से चकित उनकी आकृति पर सुखद विस्मय उभर आया।

वज्रबाहु ने पुनः कहा-'राजमाता ने प्रचुर खाद्य एवं अन्य आवश्यक सामग्रियों के साथ ही व्यय हेतु पर्याप्त स्वर्ण-मुद्रायें भी दी हैं। हमें आप कृपाकर अपनी किसी भी भूमि पर, सेना के लिए छावनी एवं राजपरिवार हेतु शिविर-निर्माण की आज्ञा दे दें महाराज!'

राजा विश्वम्भरमल्ल हतप्रभ हो वज्रबाहु को अपलक देखने लगे। भरोड़ा के भाग्य में ऐसा भी दिवस आ सकता है, यह कल्पनातीत था।

वज्रबाहु के आतिथ्य का भार भरोड़ा के सेनापति भीममल्ल ने लिया था। फलस्वरूप, भीममल्ल के आवास में ही वज्रबाहु की प्रथम रात्रि व्यतीत हुई.

रात्रिकालीन भोजन के अंर्तगत भीममल्ल ने अपने अंचल की दुर्दशा की कथा विस्तारपूर्वक सुनाई.

'जब से कमला मैया ने हमारे अंचल को त्यागा है तभी से हम पर घोर विपता आन पड़ी है सेनापति!' भीममल्ल कह रहे थे, 'आपने देखा ही होगा... सूखी नदी में सारी नौकायें किस प्रकार बिखरी पड़ी हैं। जब तक कमला मैया की कलकल धारा इसमें प्रवाहित होती रही, हमारी व्यापारिक नौकाओं का निरंतर आवागमन होता रहा। इस अंचल का समस्त व्यापार इसी जलमार्ग के माध्यम से था सेनापति...अब सब विनष्ट हो गया है।'

'आपने वैकल्पिक व्यवस्था क्यों नहीं की?' वज्रबाहु ने आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा।

'रूठी माता को मनाने हेतु राजा जी ने कमला मैया का पूजन-अनुष्ठान किया। अंचल के समस्त निवासियों ने व्रत रखकर माता से प्रार्थना की है...आशा है कमला मैया हमारे अंचल पर पुनः कृपालु हो जायें, अन्यथा हमारे दुर्भाग्य का कोई अंत नहीं है सेनापति!'

भीममल्ल की बातों ने वज्रबाहु को गंभीर कर दिया। कुछ क्षणों के उपरांत उसने कहा-'पूर्णरूपेण भाग्य पर निर्भरता तो उचित नहीं है भ्राताश्री...! मेरे विचार से अपने पुरुषार्थ के द्वारा दुर्भाग्य को भी सौभाग्य में परिणत किया जा सकता है। यूँ निराश होकर भाग्य के भरोसे सब कुछ छोड़ देना उचित नहीं।'

'आप ही परामर्श दें...! हमें क्या करना चाहिए?'

'हमारी विशाल नौकायें जिस जल-मार्ग से आयी हैं उसकी गहराई तथा चौड़ाई, आपकी सूख चुकी नदी से भी अधिक है भ्राताश्री।'

'सत्य है सेनापति' ! भीममल्ल ने कहा, ' जिस जलमार्ग से आपकी नौकायें आयी हैं वह अति प्राचीन जंगली नदी थी। घने-वन के मध्य प्रवाहित इस

जलधारा में जबसे माता कमला की धारा जा मिली है, तभी से इसका स्वरूप परिवर्तित हो गया...परन्तु हमारे अंचल तथा इस जलधारा के मध्य पाँच कोस की चौड़ाई में जो अत्यंत घना-वन है उसे पार करना संभव नहीं। '

'परन्तु हमने तो पार किया उसे' , वज्रबाहु ने कहा, 'अनेक हिंसक पशुओं से भरे इस वन्य-प्रांत को हमने सफलतापूर्वक पार किया भ्राताश्री...तथा हम और आप चाहें, तो इस वन को निरापद कर, जलधारा तक हम ऐसे मार्ग का भी निर्माण कर सकते हैं, जिससे अंचल के निवासी व्यापारिक लाभ उठा सकें।'

'यह असंभव है सेनापति! आपने इस अभेद्य वन को सकुशल भेदा, यही आश्चर्यजनक है...! परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि सम्पूर्ण वन के मध्य हम पूर्ण निरापद मार्ग बना दें...क्षमा करें सेनापति! ऐसा दिवास्वप्न देखना भी संभव नहीं।'

भीममल्ल की बातों पर वज्रबाहु ने तत्काल कुछ नहीं कहा तो भीममल्ल ने आसन त्यागते हुए पुनः कहा-'अब आप विश्राम करें! प्रातः पुनः उपस्थित हो जाऊँगा मैं!'

भरोड़ा के सेनापति भीममल्ल की आँखों में नींद नहीं थी। शय्या पर पड़े-पड़े, उसकी चेतना, शंखाग्राम के सेनापति वज्रबाहु की बातों पर ही केन्द्रित थी। वज्रबाहु की उक्ति कि पुरुषार्थ के द्वारा दुर्भाग्य को भी सौभाग्य में परिणत किया जा सकता है-पर बारंबार वह विचार करता रहा।

वज्रबाहु के दृढ़ विश्वास तथा आत्मबल ने उसे उद्वेलित कर दिया था। रात्रिपर्यंत इसी विषय पर वह चिंतन करता रहा और जब प्रातः शय्या का त्याग किया तो उसके मानस-पटल पर दृढ़ इच्छा-शक्ति जागृत हो चुकी थी।

परिणामतः दैनिक क्रिया के उपरांत जब तक वज्रबाहु जलपानादि से निवृत्त हुआ-भरोड़ा की सेना, वन-मार्ग के निर्माण हेतु आवश्यक उपकरणों के साथ प्रस्थान हेतु उद्यत थी।

घने-वन के मध्य पचास हस्त की चौड़ाई में वृक्षों-झाड़ियों एवं अन्य वनस्पतियों की कटाई प्रारंभ हो गयी। इस समाचार ने भरोड़ा निवासियों में भी उत्साह का ऐसा संचार किया कि वे स्वयं मार्ग-निर्माण में सहयोग हेतु आने लगे।

हाथों में कुदाल, टोकरियाँ और रस्सियाँ आदि उठाये भरोड़ा के नर-नारी, कमला मैया की जयकार करते हुए उत्साह में भर कर आ रहे थे। आगे-आगे नायक बना 'काला पहाड़,' अति विशाल आरा उठाये चला आ रहा था और उसके पीछे था झिलमा खबास!

घने वन के वृक्षों पर, अपने तीक्ष्ण खड्ग के निशान अंकित करते हुए वज्रबाहु के साथ-साथ भीममल्ल तीव्रगति से आगे बढ़ गये। वज्रबाहु के साथ आये योद्धा-गण एवं गुप्तचरों की टोली भरोड़ा के सैनिकों के साथ ही रुक गये थे।

वज्रबाहु के निर्देशानुसार, नब्बे अंश के कोण पर, मार्ग के दोनों ओर रस्सियाँ बांधी गयी थीं ताकि मार्ग का निर्माण सीधी दिशा में हो।

परन्तु वन-प्रांत को पार करना इस बार कल की भाँति निरापद न रहा।

वज्रबाहु तथा भीममल्ल को कई बार हिंसक जन्तुओं का सामना करते हुए आगे बढ़ना पड़ा। अतएव नदी के किनारे पहुँचते-पहुँचते सूर्यास्त हो गया।

वज्रबाहु के शतपतियों ने समस्त व्यवस्था पूर्ण कर दी थी। नौकाओं की सामग्रियाँ तट पर उतारी जा चुकी थीं तथा घाट का अत्यंत श्रमसाध्य निर्माण-कार्य भी इसी एक दिवस में पूर्ण हो चुका था। स्थान-स्थान पर एकत्रित लकड़ियों के अलाव जल रहे थे तथा मशालें भी प्रज्वलित की जा चुकी थीं।

भीममल्ल की रात्रि अत्यंत सुखपूर्वक व्यतीत हुई. इस मध्य शंखाग्राम के दसों शतपतियों के साथ-साथ सेना के योद्धाओं से उसका परिचय घनिष्ठ हो गया था।

प्रातः काल सूर्याेदय के साथ ही वज्रबाहु के नेतृत्व में दो सहस्र लोगों ने वन के मध्य, मार्ग का निर्माण प्रारंभ कर दिया। सूर्यास्तपर्यन्त निर्माण कार्य अबाधित होता रहा। वन के जीव-जन्तु भयाक्रांत हो भागने लगे और इस प्रकार प्रथम कोस की दूरी तक पचास हस्त चौड़ी भूमि, वनस्पतियों एवं वृक्षों से रिक्त हो गयी।

सभी लोग जब तक नदी किनारे लौट कर आये, तब तक प्रायः सब के सब, निरंतर श्रम से पूर्णरूपेण श्रांत हो चुके थे। अलाव के साथ ही मशालें प्रज्वलित हो गयीं। सुस्वादु भोजन के साथ शंखाग्राम की मदिरा परोसी जाने लगी...और इस प्रकार शंखाग्राम के सैनिकों के साथ, भरोड़ा के सेनापति ने अपनी द्वितीय सौहार्दपूर्ण रात्रि सुखपूर्वक व्यतीत की।

इसी प्रकार द्वितीय दिवस भी एक कोस की मार्ग-भूमि पेड़-पौधों से रिक्त कर दी गयी।

और पथ निर्माण का यह तृतीय दिवस था। तृतीय कोस तक मार्ग की भूमि वनस्पति विहीन हो चुकी थी। सूर्यास्त होने को था कि इसी घड़ी, भरोड़ा के सैनिकों के साथ नागरिकों का कार्यरत समूह शंखाग्राम के सैनिकों से आ मिला।

उत्साह के अतिरेक में लोग नृत्य करने लगे। पचास हस्त की चौड़ाई में, सम्पूर्ण पाँच कोस की भूमि, वृक्षों-लताओं से पूर्णतः रिक्त हो चुकी थी। परन्तु मुख्य कार्य अभी भी शेष था। मार्ग की ऊँची-नीची भूमि एवं खाइयों को समतल करना आवश्यक था।

चौथे दिवस मार्ग के समतलीकरण का कार्य प्रारंभ हुआ। पाँच सहस्र लोगों के साथ-साथ भरोड़ा में उपलब्ध घोड़े, हाथी एवं सहस्त्रों बैलगाड़ियाँ भी इस कार्य में उत्साहपूर्वक लग गए.

सभी पाँच सहस्र लोगों के वन-भोजन की व्यवस्था, वज्रबाहु के दस शतपतियों ने कुशलतापूर्वक सम्भाल ली थी। दस दिवसों तक निंरतर वन-भोज का आयोजन चलता रहा। इस अंतराल में पूर्ण समतल-चिकना और सीधा, प्रशस्त मार्ग निर्मित हो चुका था।

भरोड़ा को पुनः अपनी जल-धारा प्राप्त हो गयी।

भीममल्ल ने भी स्वीकार कर लिया कि पुरुषार्थ के द्वारा दुर्भाग्य को भी सौभाग्य में परिणत किया जा सकता है।

शंखाग्राम की सेना ने, घने वन के मध्य विस्तृत मार्ग के निर्माण में सहयोग कर भरोड़ा के निवासियों की सबसे विकट समस्या का सहज समाधान कर दिया था।

इतने सैनिकों की हलचलों से व्याकुल हिंसक जीव जन्तुओं ने वन का त्याग कर, नदी के पूर्वी तट पर स्थित वन में शरण ले ली थी।

हिंसक जानवरों से पूर्णतः निरापद हो चुके वन के मध्य निर्मित इतने प्रशस्त मार्ग के कारण, भरोड़ा का वाणिज्य-व्यापार पुनः प्रारंभ हो गया। व्यापारिक नौकाओं के सुलभ आवागमन के कारण भरोड़ा पर अनायास उत्पन्न संकट भी समाप्त होने लगा।

'आपकी दूरदर्शिता एवं अद्भुत आत्मविश्वास का परिणाम है यह मार्ग' , भीममल्ल ने वज्रबाहु की प्रशंसा करते हुए कहा, 'मैं तो स्वप्न में भी कभी इतने दुरूह कार्य की कल्पना नहीं कर सकता था मित्रवर! वास्तव में इस विकट वन-प्रांत में इतने प्रशस्त मार्ग के निर्माण की कल्पना, आप जैसे दृढ़ विश्वासी व्यक्ति ही कर सकते थे। आपने हमारे अंचल की प्राण-रक्षा की है। नहीं जानता आपके इस उपकार का प्रतिदान हम कैसे करेंगे।'

'अत्यंत सहज है वीरवर!' हँसते हुए कहा वज्रबाहु ने, 'मैं अवस्था में आपके अनुज समान हूँ। मुझे' आप'के स्थान पर' तुम'सम्बोधित करके, आप सहज ही मुझे उपकृत कर सकते हैं।'

अत्यंत सहजतापूर्वक कहे गए वज्रबाहु की इस बात ने पाषाण सदृश भीममल्ल की आँख को अनायास सजल कर दिया। उसकी वाणी अवरुद्ध हो गयी।

यूँ ही वार्तालाप के क्रम मेें दोनों चलते-चलते उस स्थान पर आ पहुँचे, जहाँ राजपरिवार के लिए भव्य शिविरों के निर्माण हेतु भूमि तैयार की जा रही थी।

शंखाग्राम के सेनापति वज्रबाहु के सद्व्यवहार एवं अद्भुत पुरूषार्थ से प्रभावित भीममल्ल, उसके वास्तु-शिल्प के कौशल को देख और भी मुग्ध हो गया।

शिविर निर्माण के वास्तु-शिल्प की विस्तृत योजना वज्रबाहु ने स्वयं बनायी थी। ताम्र-पत्र पर रेखांकित उसके रेखाचित्र के अनुसार ही शिल्पियों एवं श्रमिकों ने शिविरों का निर्माण प्रारंभ किया था।

सूखी नदी के पश्चिम, पाँच सहस्र हस्त लम्बी और इतनी ही चौड़ी भूमि की मापी करके वज्रबाहु के सैनिकों ने उसके चारों ओर एक हाथ चौड़ी तथा एक हाथ गहरी मिट्टी काट दी। इस प्रकार सर्पादि के प्रवेश से भूमि को सुरक्षित कर उसे समतल कर दिया गया था।

तत्पश्चात् पाँच सहस्र लम्बी और इतनी ही चौड़ी इस भूमि के चारों किनारों पर चार खुट्टे गाड़े गये। उत्तर-पूर्व कोने वाले खुट्टे से पश्चिम दक्षिण कोने के खुट्टे तक नारियल की रस्सी भूमि के समतल बाँधी गयी और इसी प्रकार उत्तर पश्चिम कोने के खुट्टे से दूसरी रस्सी बांध कर पूरब दक्षिण कोण पर स्थित खुट्टे से

बांध दी गयी।

दोनों रस्सियों ने जिस विन्दु पर एक दूसरे को काटा, उस स्थल पर वज्रबाहु ने पाँचवाँ बल्ला गाड़ दिया। इस पाँचवें बल्ले में एक सहस्र हाथ लम्बी रस्सी बांध कर उसने विस्तृत वृत्ताकार भूमि का अंकन कर लिया।

इस वृत के उपरांत चंद्रचूड़ ने वृत के मध्य उत्तर दक्षिण एक रेखा खींची। तदुपरांत पश्चिम दिशा वाली अर्द्धवृत के पार्श्व में शत-हस्ता सात वृत अंकित कर दिए. इन्हीं सात वृतों में सात वृत्ताकार राजसी शिविरों का निर्माण होना था।

भीममल्ल ने वज्रबाहु द्वारा निर्मित रेखांकन को अपने हाथों में लेकर देखा। उसकी प्रशंसा भरी दृष्टि वज्रबाहु पर उठी। ताम्रपत्र में उसकी समस्त योजना का सुंदर चित्र अंकित था। पाँच सहस्र हस्त लम्बी चौड़ी भूमि की परिधि मंण अनेक सैनिक छावनियाँ एवं आवागमन के अनेक मार्ग आरेखित थे। भूमि के पूर्वी भाग में एक-एक कर सात मंगल द्वार बने थे तथा मध्य वृत्त में देवी की चौमुखी प्रतिमा बनी थी।

'आप तो अत्यंत कुशल चितेरे भी हैं सेनापति!' अभिभूत भीममल्ल ने कहा, 'और आपकी कल्पना भी अद्भुत हैं। वास्तू-शिल्प का ऐसा प्रयोग मैंने पूर्व में कभी नहीं देखा।'

'आपने मुझे फिर' आप'सम्बोधित किया भ्राताश्री!' रूठने का अभिनय करते हुए कहा वज्रबाहु ने और भीममल्ल हँस पड़े।

'भूल हुई वज्रबाहु!' हँसते हुए भीममल्ल ने कहा, -'क्षमा करो मुझे...परन्तु वृत्ताकार आंगन के मध्य अंकित ये चौमुखी देवी कौन हैं? ... किसकी प्रतिमां बनेगी यहाँ?'

'पूरबमुखी माता कमला हैं, पश्चिम में माता बंगेश्वरी, दक्षिण में माँ काली तथा उत्तर मुख पर माता लक्ष्मी स्थापित होंगी भ्राताश्री! आपके अंचल की देवी हैं माता कमला तथा शंखाग्राम की माता है बंगेश्वरी। ... कुँवरश्री की भार्या, माता काली की भक्त हैं तथा उत्कल देश के भगवान जगन्नाथ की देवी हैं माता लक्ष्मी...इस प्रकार अपनी समस्त माताओं को अपने समक्ष स्थापित करना सर्वथा उचित है भ्राताश्री!'

मुग्ध भीममल्ल वज्रबाहु को अपलक देखता रहा।

'और कितने आश्चर्य शेष हैं काकी?' बहुरा ने कहा, 'शंखाग्राम की सेना ने भरोड़ा की नियति ही परिवर्तित कर दी। हिंसक वन्य जीवों से भरे सघन और दुर्गम वन के मध्य इतने प्रशस्त मार्ग का निर्माण कर दिया उसने। वस्तुतः हो क्या रहा है वहाँ?'

पोपली काकी तो स्वयं विस्मित थी। कहती क्या वह? बहुरा ने पुनः कहा, 'जैसी सूचना है, शंखाग्राम के सेनापति ने विस्तृत भू-भाग पर सैनिक छावनियों के साथ ही राजसी साज-सज्जा युक्त कई शिविरों का निर्माण प्रारंभ कर दिया है।'

'घोर आश्चर्य की सूचनायें हैं यह!' विस्मित काकी ने कहा, 'मुझे विश्वास नहीं हो रहा है पुत्री...! सब कुछ अत्यंत रहस्यमय है। मेरी इच्छा है कि मैं स्वयं भरोड़ा की यात्र करके देखूँ।'

'ऐसी इच्छा है तो मैं भी चलूँगी, काकी।'

'तुम पुत्री! ... तुम जाओगी, भरोड़ा?'

'क्यों काकी? ...क्यों नहीं जा सकती मैं? ... मेरी भी उत्कंठा अति तीव्र हो गयी है। मैं अपनी आँखों से सब कुछ देखना चाहती हूँ।'

'तो ठीक है पुत्री...! ऐसा ही सही...परन्तु यह तो कहो, जलमार्ग से जाओगी अथवा थल मार्ग से? तदनुसार ही व्यवस्था कर देती हूँ मैं।'

काकी की बात पर खुलकर हँस पड़ी बहुरा। हँसी रुकी तो उसने कहा, 'आज ही जाऊँगी मैं। मेरी यात्र न जल से होगी और न थल से। आकाशमार्ग से जाऊँगी मैं और तुम भी मेरे साथ चलोगी...परन्तु सूर्यास्त के उपरांत। आज अमावस्या है काकी...! आज रात्रि हम स्वयं अपनी आँखों से भरोड़ा का अवलोकन करेंगी।'

कहते-कहते बहुरा के अधरों पर रहस्यभरी मुस्कान थिरकने लगी और आर्श्चचकित काकी मौन हो उसे देखती रही।

किसी को भान न हुआ। अमावस्या की काली अंधेरी रात्रि में भरोड़ा के सुदूर आकाश में पीपल का एक विशाल वृक्ष वायुयान की भाँति उपस्थित था। वृक्ष पर बहुरा के संग पोपली काकी विराजमान थीं।

शिविर निर्माण स्थल ने दोनों को प्रभावित किया। गोलार्द्ध रेखा में असंख्य मशालें प्रज्वलित थीं। इस रात्रि में भी अनवरत निर्माण-कार्य हो रहा था। प्रशस्त वृत्त के मध्य विचित्र-सी ऊँची प्रतिमा का निर्माण हो रहा था। अर्द्ध निर्मित उस प्रतिमा का दोनों ने अवलोकन किया। परन्तु उसकी आकृति स्पष्ट न हो सकी। वृत्ताकार शिविरों के द्वार पर सुन्दर तोरण-द्वार बने थे तथा मुख्य प्रवेश के मार्ग पर भी कई तोरण-द्वारों का निर्माण हो रहा था। शिविरों की बाह्य परिधि पर सेना की छावनियाँ बनी थीं। पाकशालाओं में पक रहे खाद्यान्न की सुगंध वायु में घुलकर ऊपर तक पहुँच रही थी।

एक घड़ी तक शिविर-स्थल पर दृष्टिपात करने के उपरांत पीपल के विशाल वृक्ष ने सम्पूर्ण अंचल की मंथर उड़ान भरी। तदुपरांत सूखी नदी के पार घने वनों के ऊपर आकाश में पहुँच कर बहुरा का पीपल वृक्ष वायु में स्थिर हो गया। वन के मध्य निर्मित विस्तृत मार्ग प्रज्वलित मशालों की ज्योति में चमक रहा था। दोनों ने विस्फारित नेत्रों से इस मार्ग को देखा। इस घड़ी भी सामग्रियों से लदी कई बैलगाड़ियों का वहाँ आवागमन हो रहा था।

बहुरा का पीपल वृक्ष आकाशमार्ग से उड़ता वन-प्रदेश के बाद स्थित नदी के तट पर जा पहुँचा। अनेक व्यापारिक नौकाओं पर सामग्रियाँ लादी जा रही थीं तथा

मध्य धारा में शंखाग्राम की ध्वजा-युक्त अतिविशाल नौकाएँ लंगर डाले, जल पर स्थिर खड़ी थीं। इन नौकाओं के साथ अनेक छोटी-बड़ी नौकाएँ भी पंक्तिबद्ध खड़ी थीं।

'काकी, यहाँ तो सब अद्भुत है' ! बहुरा ने कहा-'सब कुछ अत्यंत रहस्यमय भी है...क्या कहती हो काकी... विध्वंस प्रारंभ कर दूँ?'

'नहीं पुत्री...यों अनायास भूल मत करना। हमने समस्त अंचल का भली प्रकार निरीक्षण कर लिया है। इस क्षण तुझे शांत रहना होगा। इस विषय पर गंभीरतापूर्वक विचार करने की आवश्यकता है...अब लौट चल पुत्री!'

'तुम्हें क्या मेरी शक्तियों पर संशय शेष है काकी?'

'नहीं पुत्री...! वास्तविकता तो यह है कि आज मुझे गर्व है तुम पर। भला कह तो तेरे अतिरिक्त वह कौन है, जो इस प्रकार आकाश-मार्ग में स्वच्छंद विचरण कर सके पुत्री...बता दे मुझे...है कोई?'

काकी के कथन पर मौन बहुरा मुस्कराने लगी।

कामरूप-कामाख्या में इस समय ब्रह्मपुत्र के किनारे खड़े नर-नारी और बाल-वृद्ध की दृष्टि जिस विचित्र नौका पर गड़ी थी, वह वास्तव में अद्भुत थी।

श्वेत हंस की आकृति वाली इस नयनाभिराम विस्तृत नौका में सात वर्णों के विभिन्न पाल क्रमशः बंधे थे। इन सतरंगे पालों के शीर्ष पर माँ कामाख्या की रक्तवर्णी ध्वजा फहरा रही थी। प्रथम पाल का वर्ण रक्तिम लाल था तथा इसकी लम्बाई सभी पालों से अधिक थी। इससे ऊपर वाले पाल का वर्ण नारंगी था, जिसके ऊपर पीले वर्ण का तीसरा पाल, सूर्य की तीक्ष्ण ज्योति में स्वर्ण-सा दमक रहा था। चौथा पाल हरा था जिसके ऊपर नीलवर्ण का पांचवा पाल हवा में लहरा रहा था। छठा पाल आसमानी वर्ण का था, तथा सबसे छोटा बैगनी वर्ण का सातवाँ पाल, सबसे ऊपर ...सबसे ऊँचा और सबसे लघु था।

सातों पालों ने मिलकर इंद्रधनुष के वर्णों को साकार कर दिया था। ब्रह्मपुत्र की धारा में किसी ने आज तक ऐसी नौका नहीं देखी थी।

किसकी नौका है यह? एक दूसरे से लोग जिज्ञासा कर रहे थे...परन्तु उत्तर किसी के पास नहीं था।

इसी क्षण सबने देखा-सोलह षोडषियाँ राजसी साज-सज्जा से युक्त एक पालकी उठाये ब्रह्मपुत्र घाट पर आ पहुँचीं।

देवी कामायोगिनी की पालकी!

समूह में समवेत स्वर गूंजा। हाँ, यह कामायोगिनी की ही पालकी है-किसी ने कहा।

दर्शकों में विचित्र-सी उद्विग्नता फैल गयी। कामायोगिनी के विषय में विभिन्न किम्वदन्तियाँ फैली थीं। कोई कहता वह योगिनी है, कोई इन्हें कापालिनी कहता, कोई तांत्रिक। कामरूप-कामख्या के शतवर्षीय वृद्धों की मानें तो उसके पिता तथा प्रपितामह ने भी अपने बाल्यकाल में जब इन्हें देखा था, तब भी ये षोडषी ही थीं और आज भी वैसी ही हैं।

परन्तु कामायोगिनी के प्रति सबमें जितनी उत्सुकता थी, उतना ही भय भी व्याप्त था। यही कारण था कि पालकी के पहुँचते ही दर्शकों का समूह काई की भाँति फट गया।

सभी दूर हो गये।

कोई पेड़ों की झुरमुटों में जा छिपा, कोई कहीं और। इस प्रकार पालकी की

परिधि में दूर-दूर तक की भूमि देखते ही देखते जन-शून्य हो गयी।

सोलहों कहारिनों से घिरी कामायोगिनी पालकी से निकलीं।

रक्तिम लाल रेशमी परिधान पर श्वेत पुष्पों का शृंगार किये देवी के पग, ब्रह्मपुत्र की धारा की ओर मंद गति से बढ़ चले। देवी को घेरे सारी कहारिनें उनके साथ जा रही थीं। ब्रह्मपुत्र के किनारे पहुँचकर कामायोगिनी ने अँजुरी में जल भरकर अपने मस्तक से लगाया, तत्पश्चात् ब्रह्मपुत्र की वंदना कर अपनी कुशल यात्र की याचना की। तदुपरांत उन्होंने अपने अंतस् में, विधिपूर्वक मंत्रोच्चार करते हुए, अपनी नौका को अभिमंत्रित कर दिया।

नौका में पदार्पण करने के उपरांत देवी ने नौका के प्रधान कक्ष का निरीक्षण किया। ऊपरी तल पर निर्मित देवी के इस कक्ष में दो विशाल गवाक्ष थे, जिनसे ब्रह्मपुत्र की प्रातःकालीन कल-कल करती धारा के मनोरम दर्शन हो रहे थे।

कक्ष में एक ओर विश्राम हेतु सुखद शय्या थी तथा दूसरी ओर कई आसन बने थे। जुही के ताजे पुष्पों से शृंगारित कक्ष, मादक सुगंध से आच्छादित था।

नौका के निचले भाग में चालक कक्ष था, जहाँ इक्कीस षोडषियों का चालक दल देवी की आज्ञा पर प्रस्थान हेतु उद्यत था। इसी भाग में एक ओर खाद्य सामग्रियों का भंडार-कक्ष था, जिसकी सीढ़ियाँ ऊपरी तल पर निर्मित पाकशाला तक जा पहुँची थीं।

पाकशाला में पाँच युवतियाँ उपस्थित थीं। इनके अतिरिक्त देवी की सेवा में चार अन्य युवतियाँ नियुक्त की गयी थीं। इस प्रकार नौका में देवी के अतिरिक्त तीस युवतियों का दल देवी के आदेश में प्रतीक्षारत था।

कामायोगिनी ने सम्पूर्ण नौका के निरीक्षण के उपरांत संतुष्ट होकर यात्र की आज्ञा दे दी। तत्काल लंगर हटाये गए तथा स्थिर खड़ी नौका ने अपनी यात्र प्रारंभ कर दी।

शय्या पर लेटी विरहिणी अमृता की निद्रा अनायास भंग हो गयी।

बारंबार पलकों को झपकाते हुए वह निश्चय करना चाह रही थी, यह स्वप्न था अथवा यथार्थ।

अपने प्रियतम की स्मित छवि उसने स्पष्ट देखी थी। श्वेत अश्व पर आरूढ़ उसका कुँवर बादलों से निकलकर भूमि पर उतर रहा था। हर्षातिरेक से विह्वल दौड़ पड़ी थी वह। क्षितिज से सूर्य उदित होने को था। हरे तृण की चादर पर ओस की बूंदें चमक रही थीं और अश्व से उतरकर उसका कुँवर अपनी बाँहे फैलाये खड़ा मुस्करा रहा था।

कुँवर के वस्त्र श्वेत घवल थे। उसके मस्तक पर बँधा साफा भी श्वेत ही था, जिसके मध्य एक मोती जड़ा था। उस के वक्ष पर पुष्पों की माला शोभित थी।

बादलों के अनेक खंड भी कुँवर के साथ ही भूमि पर उतर आये थे और अमृता अपने प्रियतम की ओर दौड़ी चली जा रही थी...दौड़ी चली जा रही थी... और तभी स्वप्न भंग हो गया।

यथार्थ के घरातल पर आ गयी अमृता। स्वप्न था यह, जान गयी वह। उसके उद्विग्न नेत्र चतुर्दिक् घूमे। सूर्योदय हो चुका था। सुबह का स्वप्न तो सच ही होता है, मुदित अमृता के अंतस् ने कहा। तो क्या उसके स्वामी वास्तव में आ रहे हैं उसके पास...?

उसके अधरों पर मधुर मुस्कान बिखर गयी। बाँहों को उठाकर भरपूर अंगड़ाई ली उसने। इसी क्षण उसकी दृष्टि द्वार पर गयी। माया दीदी खड़ी-खड़ी मुस्करा रही थी।

दीर्घ अंतराल के उपरांत अमृता की स्मित आकृति देख माया अत्यंत प्रसन्न थी। माया से दृष्टि मिलते ही अमृता के नयनों में लज्जा उभरी और तत्काल पलकें झुक गयीं।

'वाह री मेरी लाड़ो!' हँसती हुई माया ने पास आकर कहा-'मुझसे ही लजा रही है...बात क्या है पुत्री...!' अमृता को अपने तन से लगाकर माया ने पुनः कहा-'आज तुम्हें प्रसन्न देखकर मुझे अत्यंत सुख मिला है पुत्री...! परन्तु तुम्हारी प्रसन्नता का कारण क्या है...अपनी दीदी को नहीं बताएगी?'

अमृता ने माया के कांधे पर अपना मस्तक टिकाकर हौले से कहा-'स्वप्न में वे आये थे दीदी।'

'अच्छा! ...तो मेरी पुत्री ने स्वप्न देखा है' ... हँसती हुई माया ने वात्सल्यपूर्ण वाणी में कहा-'तनिक बता तो सही, देखा क्या तुमने?'

'अश्व पर आरोहित थे वे'-स्वप्नवत् स्वर में उसने कहा-'उनका श्वेत अश्व धवल बादलों से उतरकर भूमि पर आया। उनके साथ ही बादल भी उतर आये। रेशम के श्वेत परिधान में सुसज्जित मेरे मनमीत के वक्ष पर सुगंधित पुष्पों की माला थी दीदी! और...और।' और कुछ न कहकर लाज से उसने पुनः माया के स्कंध पर मस्तक टिका दिया।

माया के अधरों पर मुस्कान फैली।

'सुबह का स्वप्न सत्य होता है' , माया ने अमृता को दुलार करते हुए कहा-'यह स्वप्न नहीं...संकेत है पुत्री...! विश्वास कर मुझ पर। दुख की बदली को चीर कर वापस आएगा वह...वापस आएगा!'

कहते हुए माया ने अमृता को अपने अंक में समेट लिया।

समस्त रहस्यों का भेदन हो गया।

बहुरा के जटिल तांत्रिक अनुष्ठान ने अंततः भेद खोल ही दिया। वह जान गयी, उसका जामाता शंखाग्राम में उपस्थित है। उसने अपनी शक्तियाँ अनंत गुणा बढ़ा ली हैं। शंखाग्राम के अतिरिक्त उत्कल राज्य को भी उसने वशीभूत कर लिया है तथा शंखाग्राम की सेना की भरोड़ा में उपस्थिति के प्रयोजन से भी भिज्ञ हो गयी वह। साथ ही उसे यह भी ज्ञात हो गया कि उत्कल-नरेश भी अपने बंधु-बांधवों के साथ भरोड़ा की यात्र प्रारंभ कर चुके हैं।

'देख लो काकी!' क्रोधित बहुरा ने अपने अनुष्ठान के समापन पर कहा-'हमारा दुष्ट जमाई भरोड़ा मेें हमारे विरुद्ध शक्ति संचित कर रहा है।'

'सत्य कहा तुमने' ! काकी ने कहा-'उसे संभवतः तुम्हारे पुनः चैतन्य होने की सूचना प्राप्त हो गयी है पुत्री!'

'कदाचित् इसी कारण उसने शंखाग्राम के अतिरिक्त उत्कल नरेश तक की सहायता-प्राप्त कर ली है, काकी...परन्तु मैं चकित हूँ, इस छलिया ने इन राज्यों को किसप्रकार प्रभावित कर लिया...विस्मित हूँ मैं!'

हँस पड़ी काकी।

हँसते हुए ही उसने कहा-'चलो...जिज्ञासा तो शांत हुई पुत्री! सम्पूर्ण स्थिति से अब हम पूर्णतया भिज्ञ हैं। दोनों राज्यों की सेना के मध्य स्वयं को सुरक्षित समझ कर ही वह भरोड़ा लौटेगा। उसे आने दो पुत्री!' कहकर वह पुनः हँस पड़ी।

बहुरा की दृष्टि हँसती हुई काकी पर गड़ी रही। काकी ने पुनः कहा-'संभव है, दोनों राज्य हम पर आक्रमण करने का दुःसाहस कर बैठें...इस विकल्प पर भी ध्यान रखना है हमें तथा तद्नुरूप अपनी नीति भी निर्धारित कर लेनी है।'

'भरोड़ा की भूमि कदाचित् रक्त-पिपासु हो गयी है काकी!' कहकर बहुरा ने अट्टहास किया-'परन्तु इस सामूहिक नरसंहार का उत्तरदायित्व हम पर नहीं ...उसी दुष्ट कुँवर पर होगा काकी।'

बहुरा के दृढ़ स्वर ने काकी को कदाचित् संतुष्ट कर दिया। मौन हो गयी वह।

विभिन्न कक्षों से सज्जित शंखाग्राम की त्रितलीय राजकीय नौका गंगा की धारा पर लंगर डाले खड़ी थी।

नीलवर्णी इस अत्यंत बड़ी नौका में समस्त आवश्यक सामग्रियों की व्यवस्था की जा रही थी। पाकशाला प्रमुख खाद्य-भंडार की सूची बना रहा था तो अन्य व्यवस्थापक नौका के सभी कक्षों का अंतिम निरीक्षण कर रहे थे। छोटी से छोटी सामग्री का भी अभाव न हो, इस पर सभी सतर्क थे और क्यों न हो...यह प्रथम अवसर था, जब राजमाता एवं राजरानी स्वयं इस नौका से इतनी लम्बी जल यात्र करने वाली थीं।

नाविकों के दल में अपूर्व उत्साह भरा था। उन्हें गर्व था कि उनकी नौका में राजमाता और राजरानी स्वयं उपस्थित होंगी। अन्य नाविकों में वस्तुतः ईर्ष्या उत्पन्न हो चुकी थी कि उन्हें यह अवसर क्यों नहीं प्राप्त हुआ।

त्रितलीय इस नौका के द्वितीय तल में कई वैभवशाली राजकीय कक्ष बने थे। तृतीय तल पर अवलोकनार्थ, आसनों की शृंखला थी-जहाँ आसीन होकर राजपरिवार लहरों का आनंद ले सकें। नाविकों, सेवकों एवं अन्य कर्मचारियों की व्यवस्था नौका के प्रथम तल पर थी। इसके अतिरिक्त प्रथम तल पर ही विभिन्न भंडार कक्ष एवं पाकशाला आदि भी निर्मित थे।

विगत एक पक्ष से इस नौका को यात्र हेतु सुसज्जित किया जा रहा था और अब नौका के प्रबंधक पूर्णरूपेण संतुष्ट थे। राजमाता के अनुकूल नौका में समस्त साज-शृंगार किया जा चुका था।