कुँवर नटुआ दयाल, खण्ड-17 / रंजन

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तांत्रिक चंद्रा ने अपने अनुष्ठान का समापन किया ही था कि तभी अश्वारोही सैनिकों के दल ने उसे चारों ओर से आकर घेर लिया।

'चंद्रा...!' दल के नायक का अवज्ञापूर्ण स्वर गूंजा-'सेनापति ने तुझे स्मरण किया है...तत्काल हमारे साथ चल!'

अपमानबोध से आहत चंद्रा ने संयम खो दिया। क्रोधाग्नि में उसका रोम-रोम जल उठा। स्वयं से उसने कहा-धृष्टता की यह तृतीय पुनरावृत्ति की है इस दुष्ट सेनापति ने...इस बार क्षमा का अधिकार इसने खो दिया है। इसे दण्डित करने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं।

'किस चिन्तन में खो गया तू...' उसी सैनिक ने पुनः कहा-'तूने क्या सुना नहीं? ...तुझे अविलम्ब हमारे साथ चलना है। शीघ्रता कर अन्यथा।'

'अन्यथा क्या' ? कुपित चंद्रा ने फुफकारते हुए कहा-' क्या कर लेगा तू...? मुझे बलात् ले जाएगा? क्या सोचता है तू...चंद्रा तांत्रिक को अपने शस्त्र बल के

अधीन कर सकता है तू...क्यों? '

तांत्रिक के द्वारा व्यक्त इस अप्रत्याशित प्रतिक्रिया से उस सैनिक का आत्मविश्वास डिग गया। क्या पता...सिद्ध तांत्रिक हुआ तो न जाने क्या कर बैठे...उसने तो सोचा था कोई सामान्य तांत्रिक होगा यह...! परन्तु इसकी निर्भीक वाणी से तो प्रतीत होता है, यह वास्तव में सिद्ध है। अब क्या करे वह? उसने तत्काल निर्णय लिया। शस्त्र-बल को त्याग वाक्-बल से स्थिति को संभालना होगा। परन्तु अनायास झुकना भी अनुचित है अन्यथा यह चंद्रा और चढ़ जाएगा। इस प्रकार विचार कर उसने कहा-'हम सब तो सेनापित के अधीन उनके आज्ञापालक मात्र हैं चंद्रा...! न हमारी तुमसे कोई व्यक्तिगत शत्रुता है न तुम्हारी हम से...अतएव, हम पर तुम्हारा क्रोधित होना व्यर्थ है। हमने तो अपने सेनापति की आज्ञा से तुम्हें अवगत करा दिया है... अब तुम जो संदेश दोगे, वह हम अपने सेनापति को पहुँचा देंगे। इतनी-सी ही तो बात है...अब कहो तुम्हें क्या कहना है?'

'अत्यंत चतुर है तू,' कुटिलता से मुस्कुराते हुए चंद्रा ने कहा-'भय के कारण प्रीति प्रदर्शित कर रहा है...परन्तु फिर भी जा...चंद्रा ने तुझे क्षमा किया...अब बता क्या कहा है सेनापति ने?'

'अविलम्ब तुमसे मिलने को व्याकुल हैं वे।' उसी सैनिक ने कहा।

'मुझसे मिलना था तो मेरे समक्ष आना था उसे...मुझे क्यों बुलाया है? ... मुझे तो तुम्हारे सेनापति से कोई कार्य नहीं...मैं क्यों जाऊँ उसके पास। जाओ जाकर कह दो अपने सेनापति से...चंद्रा नहीं जाएगा...जाओ जाकर कह दो उससे।'

'इसकी भलमानसाहत ने तुझे सिंह बना दिया है तांत्रिक' , दूसरे अश्वारोही सैनिक ने तीव्र गति से आगे आकर कहा-'अन्यथा भीगी बिल्ली-सा तू मस्तक झुकाए हमारे साथ चलता...तूने क्या समझा था, हम सब तेरे झाँसे में आकर लौट जायेंगे?' कह कर अश्वारोही अश्व की पीठ से उछलकर भूमि पर आ खड़ा हुआ और अद्भुत तत्परता से तत्क्षण म्यान से तलवार निकाल ली।

'सावधान सैनिक!' चंद्रा ने चीखते हुए कहा-'प्राणों का मोह-त्याग चुका है तो आगे आ, परन्तु फिर मुझे दोष न देना।'

कहकर चंद्रा ने भूमि पर अपने दाहिने पग के अंगुष्ठ से एक वृत्त खींच दी।

'शौर्य-पुत्र है तो इस अभिमंत्रित वृत्त को पार कर!' कहकर चंद्रा ने भीषण अट्टहास प्रारंभ कर दिया।

चंद्रा के अट्टहास ने सैनिकों के हृदय में भय-सा भर दिया। परिणामस्वरूप, भयभीत अश्वारोही सैनिकों का दल तीव्र गति से तत्काल पलायन कर गया।

भागते सैनिकों के पीछे खड़ा चंद्रा और भी तीव्र स्वर में अट्टहास करने लगा।

सेनापति को पूर्व से ही आशंका थी कि चंद्रा नहीं आएगा, इसी कारण वह

क्रोधित न होकर विचारमग्न हो गया।

अंततः उसने निश्चय किया कि वह स्वयं जाकर चंद्रा को मनाएगा और उसने ऐसा ही किया।

अश्वारोही सेनापति के पीछे-पीछे पाँच भैंसागाड़ियाँ चंद्रा तांत्रिक की कुटिया पर जा पहुँचीं।

अश्व से उतरकर सेनापति ने मुस्कराते हुए कहा-'तुम्हारा क्रोध सर्वथा उचित है चंद्रा! स्वीकार करता हूँ मैं कि मुझसे भूल हुई है, परन्तु यह तो कहो...जब मैं अपनी पूर्व में की गयी भूलों को सुधारने की कामना रखता हूँ तो क्या यह अनुचित है?'

चंद्रा ने उत्तर नहीं दिया। उसे दृढ़ विश्वास था, इस धूर्त्त की यह नवीन चाल है। अवश्य किसी प्रयोजन विशेष ने इसे पुनः विवश किया है, अन्यथा यह दुष्ट पुनः क्यों आता?

'मौन क्यों हो मित्र!' सेनापति ने अत्यंत मृदुल स्वर में कहा-'विश्वास करो। अपनी अंतरात्मा से प्रेरित होकर तुम्हारे सम्मुख उपस्थित हुआ हूँ... इन गाड़ियों में लदे उपहार मेरी मित्रता के प्रतीक हैं चंद्रा! पूर्व में की गयी मूर्खता ने मुझे अत्यंत लज्जित किया है। मेरा विश्वास करो तथा मेरा उपहार स्वीकार कर मेरी आत्मा का बोझ हलका कर दो मित्र!'

इस बार उलझ गया चंद्रा।

उसकी समझ में कुछ नहीं आया। क्या वास्तव में इस धूर्त्त का हृदय परिवर्तित हो गया है अथवा इसमें भी कुछ चाल है? शंकित चंद्रा ने अंततः कहा-'आपकी अभिलाषा को तो ग्रहण लग गया सेनापति! युवराज आ गये और मैंने सुना है उत्कल नरेश अपने पुत्र एवं सुरक्षा-सेना के साथ राज-भरोड़ा प्रस्थान कर रहे हैं...अब इस परिस्थिति में आपको पुनः मेरी मित्रता का स्मरण होना, वास्तव में अनोखी बात है। क्षमा करें सेनापति! मुझे न तो आपसे मित्रता की इच्छा है और न शत्रुता की अभिलाषा...क्षमा कर दें मुझे।'

'नहीं चंद्रा!' पुनः स्वर में रस घोलते सेनापति ने कहा-'मेरा हृदय यूँ न तोड़ो। इन उपहारों को स्वीकार करो और मुझे विदा करो। परन्तु यह जान लो, तुम सदा मेरे हृदय में मित्रवत् ही रहोगे चंद्रा...यह निश्चित है।'

'मुझसे मित्रता का प्रयोजन भी स्पष्ट कर दें सेनापति तो मेरा विस्मय समाप्त हो जाए' , इस बार चंद्रा ने मुस्कुराते हुए कहा-'क्योंकि निष्प्रयोजन आप न किसी को मित्र बनाते हैं...न शत्रु।'

'ठीक ही कहा तुमने चंद्रा!' सेनापति ने शांत स्वर में कहा-'इस संसार में कोई कार्य निष्प्रयोजन नहीं होता। अपने राजा जी तथा राज कुँवर के साथ मैं भी राज-भरोड़ा जा रहा हूँ। क्या पता लौटूँ या न लौटूँ... फिर हृदय पर बोझ लिये क्यों जाऊँ? ...मैंने तुम जैसे सिद्ध-साधक को हार्दिक आघात पहुँचाया है...इसका स्पष्ट भान है मुझे। इसीलिए मैं चाहता हूँ तुमसे क्षमा माँग कर तुम्हें पुनः मित्र बना लूँ। भरोड़ा-यात्र में जीवित रहूँगा तो पुनः तुम्हारी सेवा में उपस्थित होऊँगा, मित्र! इस घड़ी तो इन उपहारों को सम्हालो और मुझे विदा करो!'

'क्यों सेनापति जी!' कृत्रिम आश्चर्य प्रकट करते हुए चंद्रा ने कहा-'भरोड़ा में कौन शत्रु है आपका, जिससे आपको अपने प्राणों का भय है। मैंने तो सुना है महाराज का प्रयोजन कुछ और है...और आप इस प्रकार आशँकित हो रहे हैं जैसे आप युद्ध पर जा रहे हों। वैसे भी युद्ध अभियानों पर तो आपका उत्साह यों भी द्विगुणित हो जाया करता है, फिर इस बार ऐसी क्या बात है?'

प्रसन्न हो गया सेनापति!

अब पंछी आया जाल में और उसने बहुरा गोढ़िन की सम्पूर्ण कथा विस्तार में सुना दी।

तो यह बात है! चंद्रा तांत्रिक समस्त रहस्य समझ गया। मित्रता स्वीकारते ही फँसेगा वह। यह धूर्त्त अवश्य उसे इस यात्र में अपने साथ चलने का

अनुरोध करेगा।

'ठीक है सेनापति जी!' सम्पूर्ण युक्ति पर विचार करने के उपरांत चंद्रा ने कहा-' मैं आपकी भावना समझ गया। मुझे प्रसन्नता है कि आपने अपनी भूल अंततः स्वीकारी। मेरे हृदय में आपके प्रति अब कोई दुर्भाव नहीं रहा, यह निश्चित है परन्तु इन उपहारों को मैं स्वीकार नहीं कर सकता। मैं गृहस्थ नहीं, तांत्रिक हँू

...ज्ञात ही है आपको। इन सांसारिक पदार्थों का क्या करूँगा मैं। ये सब निरर्थक हैं मेरे लिए, अतः इन्हें लौटा लें और प्रसन्नतापूर्वक भरोड़ा-यात्र सम्पन्न करें। मेरी समस्त शुभकामनाएँ आपके साथ हैं...आप जाइये सेनापति, सुखपूर्वक अपनी यात्र प्रारंभ कीजिए. '

आश्चर्य है! सेनापित फुसफुसाया। पक्षी तो जाल में उतरकर पुनः उड़ गया। ऐसी कलाकारी कब से सीख ली इस मूर्ख ने?

'मुझे तुमसे ऐसी आशा नहीं थी चंद्रा!' सेनापति ने नैराश्य के स्वर में कहा।

'क्यों, क्या किया है मैंने!' चंद्रा ने चतुराई से कहा-'मैंने तो अपने अंतस् से आपके प्रति अपना समस्त विद्वेष विसर्जित कर दिया सेनापति! और आप कहते हैं।'

चंद्रा ने आपना वाक्य अधूरा छोड़ दिया।

' क्या करता मैं चंद्रा...तुम्हीं कहो क्या करता मैं? ...वंश-विहीन हो चुके इस उत्कल प्रदेश पर आतताइयों की प्रभुता स्वीकार लेता? क्या करता मैं,

क्षणोपरांत उसने पुनः कहा-'और सबसे बड़ी बात कि मैं भी एक मनुष्य ही हूँ। मेरे भी अंदर अभिलाषाएँ हैं...देवता नहीं मैं। विगत की परिस्थितियों में उलझ गया मैं...तो क्या तुम...तुम चंद्रा तुम...मेरे मित्र, मेरे अपने, इस छोटी-सी बात को भी नहीं समझ सकते! और मान लो उस घड़ी मैंने तुम्हें अपमानित कर ही दिया तो इसका दोष अकेले मुझ पर नहीं, तत्कालीन परिस्थितियों का भी है। आज विश्वास कर सको मित्र तो मुझ पर विश्वास करो। अपने प्रिय युवराज की रक्षा में मैं अपने प्राणों की भी आहुति हँसते...हँसते दे सकता हूँ। परन्तु, मुझे खेद है मित्र, इस स्थिति में भी मुझे तुम्हारा सहयोग, तुम्हारा साहचर्य प्राप्त नहीं हो सका। ऐसी आशा तुमसे नहीं थी चंद्रा!'

औपचारिकता का समस्त आवरण तोड़ते हुए इस बार चंद्रा ने कठोर स्वर में कहा-'आप क्या सोचते हैं सेनापति?' विषैली मुस्कान तैर गयी उसके

अधरों पर-'चतुराई का समस्त भंडार आपके ही पास है, या विधाता ने कुछ मुझे भी दिया है? ... स्पष्ट क्यों नहीं कहते कि उस विकट बहुरा के भय ने पुनः आपको मेरे पास आने को विवश किया है। यह सारा प्रपंच और आपका अभिनय मुझसे छिपा नहीं है। परन्तु आप इस बार मुझे छल नहीं सकते। दो बार आपने मुझे मूर्ख बनाया, अपमानित किया मुझे, जबकि मैंने आपके लिए।'

पुनः उसने अपने वाक्य को अधूरा छोड़ दिया और अवाक् सेनापति विस्फारित नेत्रों से चंद्रा को अपलक देखने लगा।

सारे पासे पलट चुके थे। इस तांत्रिक ने इस बार उसे मात दे दी थी। अब क्या करे वह? क्या मस्तक झुकाये मौन चला जाये वह...अथवा एक प्रयत्न और करके देखे। चंद्रा ने उसके अंतस् की बात जान ली थी। वास्तव में बहुरा की विकट शक्तियों से भयभीत था वह। यह चंद्रा यदि साथ रहता तो उसके स्वयं के प्राणों की रक्षा तो अवश्य हो जाती...रही बात राजा एवं युवराज की, तो उनकी पराजय तो वस्तुतः इसकी विजय ही थी। परन्तु यह धूर्त्त तो सारी चालें भाँप गया

...अब क्या करे वह? उसके अंतस् में एक बार क्रोध भी उबला। इच्छा हुई की अपनी प्यासी तलवार की प्यास इसी से बुझा दे, परन्तु तत्क्षण उसने, स्वयं को नियंत्रित किया। ऐसी भूलें पूर्व में भी हो चुकी हैं उससे अन्यथा परिस्थिति ऐसी विषम नहीं होती। यह मूर्ख तो न्यौछावर था मुझ पर, मैंने ही अपनी मूर्खता से अपना अहित किया है।

'अब किस चिंतन में लीन हैं सेनापति!' चंद्रा ने ही पुनः कहा-'मैं भली भाँति जानता हूँ...क्या पक रहा है आपके मस्तिष्क में, परन्तु अब चंद्रा पुनः मूर्ख नहीं बनेगा सेनापति, यह निश्चित है।'

'मैं तुम्हें दोष नहीं देता चंद्रा! भूल मैंने की है तो उसे भोगूंगा भी मैं ही। परन्तु मुझे इस बात की चिन्ता है कि तुमने मेरे अंतस् को नहीं पहचाना। इस राज्य में और भी तांत्रिक सिद्ध हैं चंद्रा! उग्रचण्डा को ही लो...तुमने स्वयं उसकी शक्ति को पहचाना है। वह प्रसन्न भी है मुझ पर, परन्तु इस विकट संकट में मैं उसके समक्ष न जाकर तुम्हारे समक्ष आया... अपने मित्र के समक्ष आया। इस आशा और विश्वास के साथ आया था चंद्रा कि तुम मेरी भावनाओं को समझोगे...मेरी सहायता करोगे, परन्तु तुमने अपने अंदर इतना विष भर लिया है कि मेरी सीधी-सच्ची भावना में भी तुम मेरी चतुराई ही देख रहे हो...मेरी चाल देख रहे हो! धिक्कार है मुझ पर। मैं इतना पतित, इतना लोभी तथा अहंकारी था कि मेरे साथ यही होना था, जो हो रहा है। तुम्हें दोष क्यों दूँ मैं चंद्रा...क्यों दूँ दोष तुम्हें?'

'आपने स्वयं के स्वरूप को पहचान लिया...यह अच्छी बात है सेनापति! मैंने आपके लिए कभी अशुभ की कामना नहीं की, सदा आपके कल्याण की ही कामना की, परन्तु आपने दूध की मक्खी समझकर सदा मेरा तिरस्कार किया।'

कहते-कहते चंद्रा के मस्तिष्क में सहसा एक नवीन विचार उभरा। इस विचार ने उसकी मुखाकृति पर विषाक्त मुस्कान बिखेर दी। कुछ क्षणों के उपरांत मुस्कुराते हुए उसने कहा-'फिर भी इस यात्र में मैं आपके साथ चलूँगा। जाऊँगा मैं।'

चंद्रा की इस अप्रत्याशित स्वीकृति ने अनायास परिस्थिति परिवर्तित कर दी। झपटकर सेनापति ने चंद्रा को अपने बाहुपाश में जकड़ लिया।

सेनापति के वक्ष से लगा चंद्रा पुनः मुस्कुराया। परन्तु सेनापति को इसका तनिक भी भान न हुआ। चंद्रा की इस मुस्कराहट में विष ही विष भरा था।

शंखाग्राम में कामायोगिनी का स्वागत स्वयं भुवनमोहिनी ने किया।

'शंखाग्राम में भुवनमोहिनी आपका स्वागत करती है देवी!' स्निग्ध मुस्कान बिखेरती भुवनमोहिनी ने कहा-'आपके दर्शनों की चिर अभिलाषा आज पूर्ण हुई देवी!'

'अभिलाषा तो मेरी पूर्ण हुई है।' हँसती हुई कामायोगिनी ने कहा-'यही एकमात्र इच्छा थी मेरी कि आपके दर्शन हों। ...वस्तुतः धन्य तो मैं हूँ देवि। मेरे पुण्यों का आज वास्तव में उदय हुआ है तभी तो आप जैसी विदुषी-साधिका के दर्शन संभव हुए हैं। साथ ही आपने मुझे अनुगृहीत भी किया है देवी! आभार व्यक्त करना अभी शेष है।'

'आभार कैसा!' भुवनमोहिनी के मुख पर मंद हास बिखरा-'और मैंने आपको भला अनुगृहीत कैसे कर दिया?'

'मेरे प्रिय कुँवर को शिष्यवत् स्वीकारा है आपने देवी...! मेरे अपूर्ण शिष्य को आपने पूर्ण किया है। कुँवर पर की गयी आपकी कृपा वस्तुतः मुझ पर आपका अनुग्रह ही है देवी! कुँवर को पूर्ण कर वस्तुतः आपने मुझे ही अनुगृहीत किया है। यह आपका उपकार है मुझ पर।'

भुवनमोहिनी ने पुनः स्मित-भाव से कामायोगिनी को निहारकर कहा-'आपके शिष्य के साथ मेरी माताश्री भोजन-कक्ष में हमारी प्रतीक्षा कर रही हैं तथा हम दोनों एक दूसरे की प्रशंसा में व्यस्त हैं...आज्ञा हो तो हम भोजन-कक्ष के लिए प्रस्थान करें?'

भुवनमोहिनी की बात पर खुलकर हँस पड़ी कामायोगिनी।

हँसती-मुस्कुराती दोनों देवियो ने जब भोजन-कक्ष में प्रवेश किया तो वास्तव में, वहाँ राजमाता एवं कुँवरदयाल इनके लिए प्रतीक्षारत थे।

राजमाता के साथ औपचारिक वार्तालाप के पश्चात् भरोड़ा-यात्र की चर्चा प्रारंभ हो गयी तथा देवी कामायोगिनी को राजमाता ने विस्तार में समस्त सूचना देकर कहा-'उत्कल नरेश, हमारे जामाता के साथ भरोड़ा के लिए प्रस्थान कर चुके हैं। अतः, हमें अपनी यात्र कल सूर्योदय के साथ ही प्रारंभ कर देनी चाहिए.'

'ऐसा ही होगा राजमाता!' कामायोगिनी ने कहा-'सूर्योदय के साथ ही, कल हमारी यात्र प्रारंभ हो जाएगी।'

इस समस्त वार्तालाप के मध्य कुँवर दयाल सिंह मौन रहा था। भोजन के समापन के उपरांत भुवनमोहिनी कामायोगिनी के साथ अपने शयन-कक्ष में चली गयीं।

रात्रिपर्यन्त दोनों इसीप्रकार वार्तालाप में निमग्न रहीं, मानो वर्षों की बिछुड़ी दो सहेलियाँ आपस में मिली हों।

राजामाता को भी नींद नहीं आयी। शय्या पर लेटी राजमाता कुँवर के द्विरागमन-संस्कार की कल्पना में डूबी रहीं।

शंखाग्राम के गंगाघाट पर भी रात्रि जागरण था।

राजमाता की नौका को अंतिम रूप से सज्जित किया जाता रहा और इन समस्त गतिविधियों से निर्लिप्त कुँवर दयाल सिंह अपने कक्ष में मुस्कुराता

विधि का विधान देखता रहा।

सूर्योदय के पूर्व ही राजमाता अपनी पुत्री एवं पुत्रवत कुँवर के साथ नौका में उपस्थित हो गयीं।

कामायोगिनी अपनी नौका में जा पहुँची। शंखाग्राम की रक्षक नौकाओं ने दोनों नौकाओं को अपनी सुरक्षा-परिधि में ले लिया।

सूर्योदय होने को ही था कि राजमाता की आज्ञा से सभी नौकाओं के लंगर उठ गये और यात्र प्रारंभ हो गयी।

क्षितिज से उदित होते सूर्यनारायण की स्वर्णिम किरणें गंगा की कल-कल करती धारा पर स्वर्ण छटा बिखेर रही थीं। आकाश में पंख फैलाये उड़ते पंछियों का कलरव व्याप्त था। नौका के ऊपरी तल पर विराजी राजमाता प्रकृति के इस अनुपम सौंदर्य को मुग्ध हो निहार रही थीं।

इसी घड़ी कुँवर के साथ भुवनमोहिनी भी नौका के ऊपरी तल पर आ पहुँची।

राजमाता को अभिवादन निवेदित कर दोनों वहीं बैठ गये।

'तुम्हारी निरंतर उदासीनता का क्या कारण है पुत्र?' राजमाता ने स्मित हास से कहा-'जब से हमने इस यात्र का निश्चय किया है, तभी से मैंने लक्ष्य किया है...बात क्या है पुत्र?'

राजमाता के कथन पर भुवनमोहिनी हँस पड़ी। हँसते हुए ही उन्होंने कहा-'आपने सत्य कहा माताश्री! जीवन से पूर्णरूपेण निर्लिप्त हो चुका है मेरा शिष्य।'

'आपने भी देवी...!' मंद हँसी के साथ कुँवर ने अधूरी पंक्ति कही।

'हाँ मैंने भी' , पुनः हँस पड़ी भुवनमोहिनी। 'मैंने भी माताश्री का अनुमोदन कर दिया तो तुम रुठ गये प्रिय? ...' हँसी रूकी तो उन्होंने कहा।

कुँवर के मौन पर भुवनमोहिनी ने पुनः कहा-'चेतना के इस स्तर पर उपस्थिति का अर्थ है-भावनाओं, संवेदनाओं का अभाव हो जाना। परन्तु तुमने तो प्रिय।'

मुस्करा कर कुँवर ने देवी की बात में हस्तक्षेप करते हुए कहा-' मैंने क्या

देवी? ... क्या किया है मैंने? ...माताश्री की इच्छा को मैंने सादर-स्वीकार कर लिया। इनके निर्देश पर वज्रबाहु ने दिव्य-भव्य व्यवस्था कर दी। उत्कल-नरेश ने भी मेरे अंचल हेतु भव्य यात्र प्रारंभ कर दी तो मैंने विरोध कहाँ किया देवी? 'क्षणोपरांत उसने पुनः कहा-' देवी कामायोगिनी ने मुझसे वचन लिया था, अतएव उन्हें साथ लेना आवश्यक था...परन्तु मेरे लिए आप सब इसप्रकार अतितत्पर हो जाएँगे, ऐसी कोई भावना मेरे अंतस् में नहीं थी। अतः मैं निर्लिप्त था। '

कुँवर के कथन पर राजमाता मुस्करायीं।

स्मित नेत्रों से उन्होंने कुँवर से कहा-'तुमलोगों की बातें तुम्हीं लोग जानो। मैं तो साधारण मनुष्य की स्त्री-योनि में ही संतुष्ट हूँ। भला यह भी कोई बात हुई कि दुःख हमें दुःखी न करे और सुख में हम प्रसन्न न हों। साधना की यही परिणति है तो अच्छा है...मैं साधिका नहीं हूँ। मैं तो प्रसन्नतापूर्वक अपनी पुत्रवधू की विदाई कराऊँगी और तत्पश्चात् आनंद पर्व भी मनाऊँगी।'

राजमाता ने अपनी बात पूरी ही की थी कि तभी उनकी दृष्टि सुदूर जल-

धारा पर पद्मासन में आसीन एक कापालिक पर पड़ी।

विस्मित स्वर में उन्होंने कहा-'अरे! तनिक आगे तो देखो...कोई कापालिक ही है वह...देखो तो, जल पर कितनी सहजतापूर्वक आसन जमाये आसीन है वह!'

कुँवर के साथ ही भुवनमोहिनी की दृष्टि भी उस पर पड़ी। पद्मासन में आसीन वह कापालिक धारा के विपरीत नौका की ओर ही बहता आ रहा था।

'कौन है वह?' राजमाता ने कहा-'वेषभूषा एवं आकृति से तो वह कोई कापालिक ही प्रतीत हो रहा है...परन्तु जल पर इसप्रकार आसीन! ...आश्चर्य है!'

'कौन है वह प्रिय?' भुवनमोहिनी ने कुँवर से प्रश्न किया।

'टंका!' कुँवर ने अति शांत स्वर में कहा।

राजमाता चौंकी तथा भुवनमोहिनी मुस्कुराने लगी।

भुवनमोहिनी के आदेश पर सेवकों ने तत्काल रस्सी की सीढ़ी नीचे लटका दी।

उत्सुक राजमाता के साथ ही मुस्कराती भुवनमोहिनी एवं शांतचित्त कुँवर ने अपने आसन को त्यागा।

ये सभी रस्सी के समीप आकर पास आते कापालिक को देखने लगे।

वास्तव में यह टंका ही था। उसकी आकृति अब स्पष्ट होने लगी थी। शंखाग्राम की रक्षक नौकाओं ने उसे अपने मध्य सादर मार्ग प्रदान कर दिया और अब टंका नौका के अत्यंत समीप आ पहुँचा था।

टंका ने युगलहस्त तीनों का अभिवादन किया। तदुपरांत पद्मासन त्याग कर उसने सीढ़ियाँ थाम ली।

'आओ मित्र! शंखाग्राम की इस नौका पर तुम्हारा स्वागत है!' नौका पर आते ही कुँवर ने कहा।

'अनामंत्रित व्यक्ति का स्वागत!' हँसते हुए कहा टंका ने 'इस टंका को तो आपने विस्मृत ही कर दिया था स्वामी!'

उसे बाँहों में भरते हुए कुँवर ने कहा-'नहीं मित्र...! तुम विस्मृति के योग्य नहीं...परन्तु मित्र को व्यर्थ कष्ट प्रदान करना क्या उचित था?' तत्पश्चात् अपनी बाँहों से टंका को मुक्त करते हुए कुँवर ने पुनः कहा-'आओ हमारे संग विराजो!'

'हाँ टंका!' भुवनमोहिनी ने कहा-'तुम्हें अनायास अपने मध्य पाकर मैं भी प्रसन्न हूँ। कुँवर पर तुम्हारा आरोप उचित ही है...स्वीकार करती हूँ तथा इसकी ओर से मैं तुमसे खेद भी प्रकट करती हूँ।' कहकर वह हँस पड़ी।

राजमाता की मुखाकृति पर भी टंका के इस अप्रत्याशित आगमन पर प्रसन्नता की रेखाएँ उभर आयी थीं।

वार्तालाप के क्रम में समस्त कार्यक्रमों से अवगत हो चुके टंका के मस्तक पर चिन्ता की रेखाएँ उभर आयीं।

'स्वामी के प्रति राजमाता के स्नेह से मैं भलीभाँति परिचित हूँ'-भुवनमोहिनी से टंका ने कहा-'परन्तु राजमाता ने भावनाओं के प्रवाह में वज्रबाहु को यों असुरक्षित भेज दिया यह चिन्ता का विषय है देवी! दूसरी ओर उत्कल-नरेश ने भी अपनी राजकीय यात्र प्रारंभ कर दी है।'

'अपने मनोभावों को तनिक और स्पष्ट करो टंका'-भुवनमोहिनी ने कहा-'और तुमने वज्रबाहु को असुरक्षित क्यों कहा...अभिप्राय क्या है तुम्हारा...?'

'अभिप्राय स्पष्ट है देवी!' टंका ने कहा-'जिस भव्यता के साथ वज्रबाहु ने अपना अभियान सम्पन्न किया, तथा जिसप्रकार उत्कल-नरेश ने अपनी राजकीय यात्र प्रारंभ की है; इसकी सूचना समस्त अंचलों के साथ-साथ बखरी-सलोना तक अवश्य पहुँचेगी देवी...! पहुँचेगी क्या, कदाचित् पहुँच भी चुकी होगी। ऐसी स्थिति में स्वाभाविक ही है कि भ्रमित बहुरा।'

टंका ने जानकर अपना वाक्य अधूरा छोड़ दिया।

मुस्कराती भुवनमोहनी ने कहा-'परन्तु उनसे बहुरा की क्या शत्रुता है? ...भ्रमवश शत्रु तो वह हमारे कुँवर की है टंका...! उसे तंत्र-प्रहार करना ही है तो वह कुँवर पर ही करेगी।'

'नहीं देवी...!' असहमत टंका ने कहा-'मुझे वज्रबाहु के समीप अविलम्ब उपस्थित होना होगा...मुझे आज्ञा दें!'

'तुम्हारी यही इच्छा है तो ऐसा ही हो'-भुवनमोहिनी मुस्करायी।

'आप गंभीर नहीं हैं देवी!'

'तुम्हारी चिन्ता अनावश्यक है टंका!' आश्वस्त भुवनमोहिनी ने कहा-'ऐसी बात नहीं है कि मैंने अपनी सेना की सुरक्षा-व्यवस्था पर विचार नहीं किया था, परन्तु फिर भी तुम्हें मैं रोकूँगी नहीं। तुम्हारी उपस्थिति से वज्रबाहु को प्रसन्नता ही होगी टंका...जाओ...!'

न राजमाता ने कुछ कहा न कुँवर ने, परन्तु कुँवर को प्रणाम कर टंका ने तत्काल गंगा में छलांग लगा दी।

शंखाग्राम की सेना के पश्चात् भरोड़ा में उत्कलराज की राजकीय सेना की उपस्थिति का समाचार दावानल की भाँति सम्पूर्ण अंग-महाजनपद में तत्काल फैल गया। अंग के प्रत्येक अंचल राजा-रजवाड़ों के मध्य जहाँ उत्सुकता का वातावरण उत्पन्न हो गया, वहीं बखरी-सलोना में आशंकायुक्त उत्सुकता फैल गयी।

जेठ की तपती धूप में बखरी-सलोना का कण-कण तप रहा था। मुख्य चौपाल पर विशाल वट वृक्ष की छाया में एकत्र लोग इसी चर्चा में निमग्न थे।

घाट पर, मल्लाहों के समूह में, हाट पर, मछली-सब्जी तथा मशालों के व्यापारियों के मध्य तथा तृणयुक्त मैदानों में मवेशी चराते चरवाहे तक आपस में इसी की चर्चा कर रहे थे।

अंग की भूमि पर इसप्रकार, बाहरी सेनाओं का जमावड़ा आश्चर्यजनक था। जितनी सूचनाएँ आ रही थीं, सब अभूतपूर्व थीं। भरोड़ा जैसे लधु अंचल में बाहरी सेनाओं का ऐसा जमावड़ा पूर्व में कभी हुआ नहीं। यही कारण था कि चारो ओर अंग के समस्त अंचलों में आकुलता फैल गयी।

सैनिकों की यथार्थ संख्या से अनभिज्ञ बखरी के निवासी एक दूसरे से भ्रमित समाचारों एवं सूचनाओं का आदान-प्रदान करने लगे।

बखरी सलोना का सम्पूर्ण अंचल जहाँ इसप्रकार आशंकित था, वहीं तिनकौड़ी आम्र वृक्षों से आच्छादित भूमि पर अपनी खाट पर शांतचित्त लेटा था।

खाट की रस्सी थी ही इतनी ढीली कि उसका मध्य तन भूमि से मात्र एक मुठ्ठी ऊपर झूल-सा रहा था।

उष्ण पवन के तीव्र झोंकों में रगड़ खाती आम्र वृक्षों की डालियों एवं पत्तों के शोर में चिन्तामुक्त लेटा तिनकौड़ी भूमि पर गिर रहे टिकोलों को मौन निहार रहा था।

माँ नित्य सिर पीटती और झुंझलाकर कहती-पुत्र अब लड़कपन छोड़ और कुछ काम-धाम शुरु कर। परन्तु वह भला काम क्या करता? प्रातः से सूर्यास्त तक कभी घाट के किनारे और कभी चौपाल पर व्यर्थ समय व्यतीत करते रहना ही उसकी दिनचर्या थी।

उसके वयस के सभी संगी-साथियों ने काम-धाम करना शुरू कर दिया था, इसीलिए तिनकौड़ी के साथ व्यर्थ खेलकूद करने वाला कोई रहा नहीं। अकेले ही अपना सारा समय वह यों ही व्यर्थ करता रहता।

इधर जबसे जेठ की तपन शुरू हुई, तभी से उसकी दिनचर्या बदल गयी। दोपहर की तपिश में वह आम्र के एक सघन वृक्ष के नीचे भूमि पर खाट बिछा कर अन्यमनस्क-सा यूँ ही पड़ा रहता।

आज भी वह अपनी खाट पर लेटा गिरते हुए टिकोलों को देख रहा था कि तभी उसकी दृष्टि उस विकटा पर पड़ी जो भूमि को रौंदती हुई तीव्र गति से उसी की ओर चली आ रही थी।

चिकने-काले पत्थर को जैसे किसी कुशल शिल्पी ने सम्पूर्ण मनोयोग से तराश कर बनाया हो, ऐसी सुधड़ काया वाली उस भयंकर आकृति को देखते ही तिनकौड़ी के प्राण सूख गए. नग्न चमकते पृथुल वक्ष पर बंदरों की हड्डियों का मुण्डमाल, कटि-प्रदेश पर रक्तवर्णी लघु-आवरण के ऊपर हड्डियों की जंजीर तथा दोनों कलाइयों में उंगलियों की हड्डियों का आभूषण धारण किये इस अमानवी ने तिनकौड़ी को जड़वत् कर दिया। युवती के उन्नत सुडौल और पाषाण सदृश छातियाँ तिनकौड़ी की दृष्टि को बलात् अपनी ओर खींचने लगीं। परन्तु उसकी बड़ी-बड़ी दहकती आँखों ने उसे अत्यंत भयाक्रांत कर दिया। नितम्बों तक लटक रहे खुले केशों को लहराती इस विकटा की तीक्ष्ण दृष्टि तिनकौड़ी पर ही गड़ी थी।

वह पत्ते की भाँति खाट से उठकर अपने दोनों काँपते कर जोड़े थरथराता खड़ा हो गया।

कौन है यह?

अपने बाल्य-काल से ही उसने अनेक सिद्ध और कापालिकों को अपने ही आँगन में देखा था। उसकी माता स्वयं तांत्रिक थी। माँ के साथ उसने महाश्मशान में भी अनेक औघड़ों को भयंकर अनुष्ठानों में निमग्न देखा था। अंचल की चौधराइन बहुरा को भी उसने अनेक बार निकट से देखा था, परन्तु ऐसी विकराल स्त्री-मूर्त्ति की उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी।

मानवी तो नहीं हो सकती यह, उसने सोचा। यह अवश्य महाश्मशान की जाग्रत शाकिनी या कोई अतिविकट डाकिनी अथवा हाकिनी ही है। अब उसके प्राण नहीं बचेंगे। यह विकटा तो उसे पकड़कर कच्चा ही चबा जाएगी और यह सोचते ही अनायास रोने लगा वह।

और वह विकटा तिनकौड़ी पर दृष्टि टिकाये पास आती जा रही थी।

तभी उसका रौद्र रूप परिवर्तित हुआ और उसके अधरों पर विषाक्त मुस्कान उभर आयी।

निकट आकर रुक गयी वह।

'शांत हो जा मूर्ख!' उच्च स्वर में उसने कहा और तत्काल ही तिनकौड़ी का रुदन बलात् रुक गया। उसके दोनों कर अभी भी अभय-याचना में उठे थे और समस्त शरीर पूर्ववत् थर-थर कांप रहा था।

'यूँ काँप क्यों रहा है मूढ़' ! अपेक्षाकृत शांत स्वर में उसने कहा-'मुझसे भयभीत मत हो...शांत हो जा!'

कुछ क्षणों तक वह विकटा मौन रही पुनः मुस्कराकर उसने कहा-'यह अंचल, बखरी है न?'

'हाँ माते' ! घिघियाते स्वर में तिनकौड़ी ने कहा, 'आप बखरी-सलोना में ही हैं।'

'तुम्हारी चौधराइन का निवास-स्थल किस दिशा में है पुत्र?' इस बार उसने और भी मृदुल स्वर में प्रश्न किया।

कक्ष में इस घड़ी बहुरा के साथ माया तथा पोपली काकी भी उपस्थित थीं।

क्रोधाग्नि में बहुरा ने नियंत्रण खो दिया था, परन्तु माया शांत थी।

'स्वयं को नियंत्रित कर पुत्री!' माया ने कहा-'तुम्हारे क्रोधित होने का वास्तव में कोई कारण ही नहीं है...!' पुनः रूककर उसने कहा-'हमारा जामाता हमारे पास लौट रहा है...हमारी प्रिय पुत्री का बिछुड़ा सुहाग पुनः वापस हो रहा है तो तू इस प्रकार रूष्ट क्यों हो रही है?'

'व्यर्थ वाक्य-भ्रम में हमें मत उलझा माया'-बहुरा को रोककर पोपली काकी ने रूष्ट स्वर में कहा।

'मैं स्थिति को उलझा नहीं रही' , पूर्ववत् शांत माया ने कहा-'अपितु सुलझा रही हूँ काकी! क्यों नहीं समझना चाहतीं आप...हमारा प्रिय जमाई राजा और भी समर्थ होकर हमारे पास वापस आ रहा है। ऐसे में हमें उसका स्वागत करना चाहिए अथवा तिरस्कार?'

'वाह री माया!' हाथ चमका कर काकी ने कहा-' कितनी भोली है तू जो इतनी-सी बात भी नहीं समझती कि हमारा भगोड़ा जमाई, जो हमारी फूल-सी बच्ची को ब्याह के तत्काल पश्चात् यूँ ठुकरा कर भाग गया, उसीका पक्ष ले रही है तू?

... अरी माया, वह हमारे अंचल में नहीं, अपने अंचल में पधारेगा, जहाँ उपस्थित होने के पूर्व से ही उसने शक्ति संचित कर रखी है। भला बता तो हमें, भरोड़ा में बाहरी सेनाओं की उपस्थिति का क्या प्रयोजन है? '

'तुम्हारे प्रश्न का उत्तर समय के गर्भ में छिपा है काकी!' माया ने कहा-'इस घड़ी मैं तुम्हारी इस शंका का समाधान नहीं कर सकती, परन्तु मुझ पर विश्वास करो काकी...! मैं जानती हूँ अपने कुँवर को। वह हमारा शत्रु नहीं है।'

'दीदी, तुम मौन ही रहो तो अच्छा है'-बहुरा ने वार्तालाप में हस्तक्षेप करते हुए कहा-'शत्रु की भूमि पर सशस्त्र सेनाओं ने अपनी सशक्त उपस्थिति प्रदर्शित कर दी है और इसके उपरांत हमारे मुख्य शत्रु ने भी अपनी जलयात्र प्रारंभ की है...तो क्या अर्थ है इसका? ...'

कुछ क्षणों तक रुष्ट नेत्रों से माया को देखते रहने के उपरांत उसने पुनः कहा-'तुम चाहती हो हम सब अपने जमाई के लिए, जो वस्तुतः शत्रु है हमारा और हमारे अंचल का... उस के स्वागत-सत्कार की कल्पना में पलकें बिछाकर प्रतीक्षा करती रहें और वह कुटिलता से हमपर प्रतिघात कर दे...क्यों दीदी, यही चाहती हो न...?'

'तुमने अपने अंतर्मन में विष ही विष भर लिया है पुत्री!' माया ने कहा-'विवाहोत्सव की घड़ी भी जो कुछ अप्रिय घटित हुआ, वह सब भ्रम के माया-जाल के कारण ही हुआ पुत्री, अन्यथा सत्य मान, हमारी प्रिय पुत्री का सुहाग वैसा नहीं, जैसा तुमने और दुर्भाग्यवश काकी ने भी समझ लिया है।'

'तो अब तू क्या चाहती है माया!' क्रोधित काकी फूट पड़ी-'हम सब अपनी अबोध अमृता को अपने साथ लेकर भरोड़ा चले चलें? ...और अपने प्रिय कुँवर के समक्ष नतमस्तक होकर प्रार्थना करें कि वे हमें क्षमा प्रदान कर हमारी अमृता को अपनी दासी स्वीकार कर लें...! क्यों माया...यही परामर्श है न तुम्हारा!'

क्रोधयुक्त व्यंग्य-वाण के पश्चात् काकी की आकृति और भी कठोर हो गयी।

'नहीं दीदी...नहीं...' बहुरा ने निर्णयात्मक स्वर में कहा-' तुम्हारी सहृदयता हमारा समूल नाश कर देगी...मुझे उस दुष्ट को दण्डित करना ही होगा। अपने शत्रु को मार्ग में ही दण्डित कर देगी दीदी! ... जिस गंगा में वह उपस्थित है, उसी की

धारा में तुम्हारी बहुरा, अपने शत्रु को जल-समाधि प्रदान कर देगी...जल-

समाधि...हा...हा...हा' ! वीरा का विकट अट्टहास गूंजा।

बहुरा की कटुता के समक्ष माया की ममता हार गयी और उसने संकल्प पूर्वक मंत्रोच्चार करते हुए, अगिनबाण का संधान कर दिया।

पोपली काकी की आकृति पर संतुष्टि के भाव उभरे तथा प्रसन्न बहुरा के

अधरों पर विजयी मुस्कान छा गयी। विवश माया मौन थी और इसी घड़ी कक्ष में पदार्पण हुआ उस विकटा का, जिसने तीनों को चौंका दिया।

'कौन हो तुम?' बहुरा ने तीव्र स्वर में पूछा।

आगंतुका मौन हो मुस्कुरायी।

'मैंने तुम्हारा परिचय पूछा था!' बहुरा ने पुनः कटु स्वर में कहा-'मौन खड़ी यों मुस्कुरा क्यों रही हो...! परिचय दो हमें...कहाँ से आयी हो और कौन हो तुम?'

'आश्चर्य है मुझे' ! मुस्कुराते हुए ही कहा उसने-'तुम्हारे द्वार पर अतिथि की ऐसी ही अभ्यर्थना होती है?' ...क्षणोपरांत उसने पुनः कहा-'कदाचित् तुम्हीं बहुरा हो...क्यों?'

'अपरिचितों की अभ्यर्थना नहीं की जाती कापालिके' , बहुरा ने कहा-'और तुमने मुझे ठीक ही पहचाना, मैं ही बहुरा हूँ। अभ्यर्थी को तुमने जान लिया और अब मुझे अपना परिचय दो...कौन हो तुम?'

'उत्कल में सभी मुझे उग्रचण्डा के नाम से जानते हैं बहुरा! और मैं।'

मध्य में ही तड़प कर हस्तक्षेप किया बहुरा ने-'बस...उग्रचण्डा...बस, मौन हो जा अब तू! उत्कल की है इतना ही ज्ञात होना पर्याप्त है, शेष मैं समझ गयी।'

'क्या समझ गयी बहुरा? ...' पुनः मुस्कराकर कहा उग्रचण्डा ने-'मैंने तो अभी मात्र अपने निवास-स्थल की ही चर्चा की है और तुमने मेरे आगमन का उद्देश्य भी समझ लिया?'

'उत्कल हमारा शत्रु-राष्ट्र है, उग्रचण्डा!'-बहुरा ने तीव्र स्वर में कहा।

'शत्रु-राष्ट्र!' चकित होने का अभिनय किया उग्रचण्डा ने-'वह क्यों वीरा? हमारे राज्य ने भला तुम्हारा क्या अहित किया है?'

'मेरे परम शत्रु का मित्र है तुम्हारा राष्ट्र!'-बहुरा ने रोषपूर्ण स्वर में कहा

'शंखाग्राम के साथ-साथ तुम्हारे उत्कल नरेश भी हमारे जामाता के हितैषी बन गये हैं तथा मेरे पराभव की कामना से सेना सहित राज भरोड़ा में...' , कहते-कहते अनायास मौन हो गयी बहुरा। क्षणिक अंतराल के बाद पुनः कहने लगी-'परन्तु यह सब तुम्हें क्यों बता रही हूँ मैं ...तू कह, हमारे अंचल में आने का प्रयोजन क्या है तुम्हारा?'

'सर्वप्रथम तो यह जान ले बहुरा'-उग्रचण्डा ने कहा-'तूने सत्य कहा, राजभरोड़ा में शंखाग्राम की सेना के साथ ही उत्कल के रणबाँकुरे वीर भी उपस्थित हैं। उत्कल-नरेश भी अपने समस्त परिजनों एवं सेनापति सहित पधार चुके हैं। उत्कल सेनापति के साथ एक तांत्रिक चंद्रा भी भरोड़ा में उपस्थित है बहुरा...परन्तु इनमें से कोई भी तुम्हारा शत्रु नहीं।'

हँस पड़ी बहुरा।

उसका भयंकर अट्टहास कक्ष में गूंजने लगा।

हँसी रुकी तो उसने कहा-'मेरे शत्रु अंचल में सेना का जमावड़ा यों ही हो रहा है, क्यों...? मुझे बहलाने आयी है तू ...अथवा मुण्डमाल के अपने इस शृंगार से मुझे भयभीत करना चाहती है?'

पोपली काकी एवं माया अब तक मौन धारण किये शांत खड़ी थी।

'मेरा प्रयोजन न तुम्हें बहलाना है और न भयभीत करना।'

'तो और क्या प्रयोजन है तुम्हारा?'

'तुमसे मित्रता!' मुस्कराती उग्रचण्डा ने कहा।

'ठहरो पुत्री!' प्रथम बार पोपली काकी ने अपना मौन तोड़ते हुए कहा-

'उग्रचण्डा से मुझे बात करने दो!'

बहुरा को रोककर काकी ने उग्रचण्डा से कहा-'तू भी मेरी पुत्री के समान ही है उग्रचण्डा! बहुरा सहित समस्त अंचल मुझे पोपली काकी सम्बोधित करता है और यह है माया, बहुरा की नृत्य-प्रशिक्षिका तथा भैरव-चक्रीय नृत्य की विशेषज्ञा।'

उग्रचण्डा ने काकी सहित माया का अभिवादन किया तो काकी ने पुनः कहा-'हम सभी अपने अंचल में तुम्हारा स्वागत करती हैं उग्रचण्डा! मैं नहीं जानती तुम्हारे आगमन का प्रयोजन क्या है? मित्र-भाव से आयी हो तो तुम्हारा पुनः स्वागत है परन्तु शत्रुतावश आयी हो तो तत्काल इस स्थल से पलायन ही तुम्हारे लिए उचित है। ... वैसे यह स्पष्ट जान लो कि भरोड़ा का राजकुँवर हमारा शत्रु है और शत्रु का मित्र तथा सहायक भी हमारा शत्रु ही है उग्रचण्डा और अब मैं आशा करती हूँ कि शब्दाडम्बर से मुक्त होकर अपने आगमन का स्पष्ट उद्देश्य हमें बताओ!'

'अच्छा लगा मुझे...अच्छा लगा काकी' ! उग्रचण्डा ने सहज स्वर में कहा-'आपकी स्पष्टवादिता ने मुझे प्रभावित किया। मैंने आपलोगों की भाँति साधना तो नहीं की है...परन्तु मैंने ब्रह्मपिशाचों को सिद्ध किया है काकी। उत्कल राष्ट्र में मैं जग से निर्लिप्त रहती आयी हूँ। मैंने पूर्व में कभी भी उस राष्ट्र के राजपरिवार में रुचि नहीं ली, परन्तु विगत दिनों घटित घटनाक्रमों से निर्लिप्त भी नहीं रह पायी मैं। आप कदाचित् महान् कापालिक टंका को अवश्य ही जानती होंगी काकी।'

'जानती हूँ...तुम कहती जाओ' , शांत स्वर में कहकर काकी मौन हो गयीं।

'आपके कुँवरश्री के साथ कापालिक टंका के दर्शनों का प्रथम अवसर मुझे वहीं, अपने उत्कल राज्य में ही प्राप्त हुआ काकी।'

'तो फिर?' काकी ने पूर्ववत् कहा।

'जहाँ तक मेरे स्वयं का प्रश्न है'-उग्रचण्डा ने कहा-'मैं तो टंका के समक्ष अत्यंत तुच्छ साधिका हूँ, परन्तु आपके कुँवरश्री के प्रति जब मैंने टंका का दासत्व भाव देखा तो सत्य मानिये काकी, मैं विस्मित हो गयी। यह कुँवर हैं कौन और इनका विग्रह क्या है? ...और तभी से मैंने अपने ब्रह्मपिशाचों के माध्यम से कुँवरश्री को कुछ-कुछ जाना है। मैं नहीं जानती ऐसे अद्भुत् कुँवरश्री के प्रति आपकी शत्रुता क्यों है...और मेरे आगमन का वास्तव में प्रयोजन भी यही है काकी।'

काकी के अधरों पर विषाक्त मुस्कान उभर आयी।

रहस्यमयी मुस्कान के साथ काकी ने कहा-'हमारा शत्रु तुम्हारा आराध्य है उग्रचण्डा...! इतनी श्रद्धा भरी है उसके लिए, फिर तो तुम्हारे लिए अत्यंत दुख भरा समाचार है हमारे पास।' क्षण भर मौन रह कर काकी ने पुनः कहा-'तुम्हारे आगमन के क्षण भर पूर्व ही मेरी पुत्री ने कुँवर पर, अमोघ अग्निबान का संधान सम्पन्न किया है उग्रचण्डा! कुँवर की नौकाएँ गंगा की धारा में हैं और इसी शीतल जल-धारा में तप्त होकर निश्चित दग्ध हो जाएँगी वह...' कहते ही हँसकर उसने पुनः कहा-'भस्म हो जाएगा तुम्हारा कुँवर और साथ ही भस्म हो जाएंगे उसके साथ उपस्थित, उसके समस्त संगी-साथी!'

कह कर काकी ने पुनः अट्टहास प्रारंभ कर दिया।

काकी के अट्टहास के मध्य ही बहुरा ने माया से कहा, 'हमारे अतिथि को अपने आतिथ्य में ले जाओ दीदी!' और कह कर मुदित बहुरा हँस पड़ी।

माया ने मुस्करा कर उग्रचण्डा को देखा।

आँखों ही आँखों में भावों का आदान-प्रदान हुआ और बहुरा के कक्ष से दोनों बाहर निकल गयीं।

'तुम चिन्तित न हो उग्रचण्डा!' माया ने सहजतापूर्वक कहा, 'इसने पूर्व में भी हमारे प्रिय कुँवर पर अपने अमोध मारण मंत्र का संधान किया था, परन्तु पूर्णरूपेण असफल रही थी वह।'

'मैं तनिक भी चिन्तित नहीं हूँ!' उग्रचण्डा ने कहा-'सर्वशक्तिमान टंका का आराध्य है आपका कुँवर। उनपर तामसी तंत्रों का कोई संधान, कदापि प्रभावी नहीं हो सकता...यह तो मैं सम्यक् प्रकार जानती हूँ।'

कह कर विचारमग्न उग्रचण्डा कुछ क्षण मौन हो गयी तथा पुनः उसने कहा, 'परन्तु फिर भी मैं विस्मित हूँ। अपने जिस जामाता पर बहुरा को गर्व करना था, उसी को अपना शत्रु मान बैठी है यह।'

'यही तो दुर्भाग्य है मेरी पुत्री का' माया ने कहा-'भ्रमित हो गयी है वह ...परन्तु उग्रचण्डा! यह तो कहो... हमारे प्रिय कुँवर के साथ टंका भी उसकी नौका में उपस्थित है क्या?'

'तो तुम भी परिचित हो उससे?'

'देखा कभी नहीं' , माया ने कहा, 'परन्तु मुझे ज्ञात है। अत्यंत दुर्दान्त है वह। इस युग में भी नरबलि देने वाला वह एकमात्र तांत्रिक है। ऐसे तांत्रिक से मेरे कुँवर का भला क्या नाता हो सकता है? तुमने जिस घड़ी से कहा है, मैं तभी से इसी पर विचार कर रही हूँ।'

'वह तो मैं नहीं कह सकती परन्तु, मैंने स्वयं देखा है। टंका ने कुँवरश्री को अपना स्वामी मान लिया है।'

'आश्चर्य है मुझे!'

'आश्चर्य की आवश्यकता नहीं' ...उग्रचण्डा ने कहा, 'इस घड़ी मैं कुँवरश्री की मंगल सूचना प्राप्त करना चाहती हूँ माया...! मुझे किसी एकांत कक्ष में ले चलो।'

उत्कल-नरेश के आगमन ने छोटे से भरोड़ा के अंचल की गरिमा ही बढ़ा दी। भरोड़ा के राजाजी हतप्रभ थे। उन्हें सारा कार्यकलाप स्वप्नवत् प्रतीत हो रहा था। उत्कल नरेश पार्थसारथी के साथ उनका सुदर्शन पुत्र चंद्रचूड़, उत्कल देश के अमात्य, सेनापति तथा सशस्त्र योद्धाओं के अतिरिक्त अन्य अनेक लोगों की उपस्थिति ने अंचल की शोभा बढ़ा दी थी।

शंखाग्राम का सेनापति वज्रबाहु सबके नयनों का तारा बन चुका था। उत्कल नरेश ने पधारते ही, उसके वास्तु-शिल्प की भूरी-भूरी प्रशंसा की थी। विशेषकर चौमुखी माता की शिल्प-कल्पना ने उन्हें अभिभूत कर दिया था।

भरोड़ा के राजा विश्वम्भरमल्ल, रानी गजमोती, राजरत्न मंगलगुरु, सेनापति भीममल्ल तथा वैद्यराज रसराज भी अपने-अपने निवास-स्थलों को त्याग कर वज्रबाहु द्वारा निर्मित शिविरों में आ गये थे।

राजरत्न मंगलगुरु के प्रशिक्षित कागों के द्वारा कुँवर का समाचार घड़ी-घड़ी प्राप्त किया जा रहा था। शंखाग्राम की राजमाता, राजरानी भुवनमोहिनी तथा विख्यात नृत्यांगना कामायोगिनी की अभ्यर्थना एवं स्वागत हेतु भरोड़ा का कण-कण, पलकें बिछाये आतुरता में प्रतीक्षारत था।

और इन समस्त हलचलों से परे कापालिक टंका ने जलधारा की दूसरी ओर स्थित हिंसक वन्य-जीवों से भरे धनघोर वन के मध्य अपना आसन जमा लिया था। टंका की उपस्थिति से अनभिज्ञ समस्त जन शिविरों में मगन थे।

उत्कल नरेश के शिविर में भरोड़ा के राजाजी के साथ राजरत्न मंगलगुरु विराजे थे। आमोद-प्रमोद के मध्य वार्तालाप का केन्द्र था मंगलगुरु के प्रशिक्षित काग।

उत्कल नरेश के समक्ष ही मंगल के काग निरंतर संदेश पहुँचा रहे थे।

'आश्चर्य है मुझे!' उत्कल नरेश ने मंगलगुरु से कहा, 'आपकी इस कला ने मुझे विस्मित कर दिया है, राजरत्न! यह कैसे संभव है कि काग जैसा पक्षी, मनुष्य की भाषा का इतना स्पष्ट उच्चारण करे?'

उत्कल नरेश की बात पर राजरत्न को हँसी आ गयी। हँसते हुए ही उन्होंने कहा, 'तोतों को तो आपने अवश्य सुना होगा राजन्...कई तोते हमारी भाषा का स्पष्ट एवं शुद्ध उच्चारण करते हैं।'

'हाँ करते हैं' , उत्कल नरेश ने स्वीकार किया, 'हमारे राजमहल में ही वे हमें नित्य' शुभ प्रभात'कहते हैं।'

'तो हमारे कागों पर विस्मय क्यों है महाराज' ! राजरत्न ने कहा, 'थोड़े प्रशिक्षण की आवश्यकता है बस...और प्रमाण तो आपके समक्ष ही है।'

वार्तालाप आगे बढ़ता कि तभी कांव-कांव करता एक काग आकर मंगल के

स्कंध पर बैठ गया। मंगल ने मुस्कराते हुये उसे अपने हाथ पर ले कर कहा, 'क्या समाचार है कहो?'

'कांव-कांव...! समाचार अशुभ है!' काग ने अपनी आँखें मटमटाते हुए कहा, ' कुँवर की नौकायें तांत्रिक अग्नि की ज्वाला के मध्य फँसी हैं... कांव...कांव...कांव...!

उनकी सहायता करें मंगलगुरु, सहायता करें! '

अपनी बात कहकर वह पंख फड़फड़ाता उड़ गया।

शिविर में कुछ घड़ी पूर्व तक उपस्थित हास-परिहास का वातावरण अचानक शोकमय हो उठा।

'अब क्या होगा राजरत्न?' आतुर स्वर में भरोड़ा के राजा ने कहा।

'शांत रहें राजाजी!' सहज स्वर में कहा राजरत्न ने, 'बहुरा की तामसी शक्तियाँ हमारे प्रिय कुँवर पर निष्फल हो जायेंगी। लाख जतन करले वह तामसी, परन्तु हमारे कुँवर का बाल भी बाँका न कर पायेगी वह। आप सब निश्चिंत रहें। मुझे विश्वास है, शीघ्र ही शुभ समाचार आ जाएगा।'

इसी घड़ी अति प्रसन्न वज्रबाहु एवं चंद्रचूड़ के साथ कापालिक टंका ने शिविर में प्रवेश कर सबको विस्मित कर दिया।

शंखाग्राम से कुँवर के प्रस्थान का यह द्वितीय दिवस था। संध्या होने को थी। सूर्य अस्ताचल की ओर अग्रसर था। लहरों पर सूर्य की स्वर्णिम किरणें बिखरी थीं तथा नौकाओं के ऊपर, उड़ते पंछी कलरव कर रहे थे।

राजमाता के आमंत्रण पर कामायोगिनी, शंखाग्राम की राजकीय नौका पर विराजमान थीं, तथा रक्षक नौकाएँ त्रिकोण की व्यूह-रचना में दोनों नौकाओं को घेरे, गंगा की धारा में निर्भय चली जा रही थीं।

तभी सबकी दृष्टि, सुदूर धारा पर प्रज्वलित, अग्नि की लपलपाती ज्वाला पर पड़ी। धारा के मध्य से दोनों किनारों तक फैली ज्वाला के कारण रक्षक नौकाओं ने तत्काल लंगर डालने की प्रक्रिया प्रारंभ कर दी।

'हमारे स्वागत का यह प्रथम चरण है देवी!' भुवनमोहिनी ने स्मित नेत्रों से कामायोगिनी को देखते हुए कहा। '

उत्तर में कामायोगिनी मुस्कुरायीं जबकि, राजमाता राजराजेश्वरी उद्विग्न हो गयीं।

'यह कैसी विपत्ति है?' राजमाता ने स्फुट स्वर में स्वतः कहा।

'यह विपत्ति नहीं' ! भुवनमोहिनी ने हँसते हुए कहा, 'हमारा स्वागत है माताश्री...!' कहकर उन्होंने कुँवर पर दृष्टि डालकर उससे कहा, 'क्यों प्रिय...! माता के इस आत्मीय स्वागत से तुम प्रसन्न तो हो न?'

'तुम लोग परिहास कर रही हो' ! व्यग्र राजमाता ने हस्तक्षेप किया। 'सत्य कहा था टंका ने...! इस घड़ी उसकी उपस्थिति आवश्यक थी। इस संकट से वही हमें मुक्त करा सकता था पुत्री, परन्तु तुमने उसकी बात स्वीकार कर व्यर्थ ही उसे विदा कर दिया।'

'यों व्यथित न हों माते!' शांत स्वर में कुँवर ने कहा, 'इस घड़ी हम पर कोई विपत्ति नहीं है।'

'विपत्ति नहीं तो क्या है यह?' राजमाता ने कहा, 'हमारी समस्त रक्षक नौकायें रुक चुकी हैं। इस भीषण अग्नि-शिखाओं से हम भला कैसे निकलेंगे पुत्र?'

इसी घड़ी नाविक प्रमुख हृदयनारायण ने आकर कहा, 'हमारे लिए क्या आज्ञा है राजमाता? हमारी रक्षक नौकाएँ लंगर डाल कर रुक चुकी हैं...आदेश हो तो हम।'

परन्तु कामायोगिनी ने मध्य में ही हस्तेक्षप करते हुए कहा, 'रक्षक नौकायें रुकी रहेंगी। इस नौका को आगे करके उन्हें निर्देश दो...समस्त नौकाएँ हमारे पीछे-पीछे रहेंगी। चिन्ता की कोई आवश्यकता नहीं...पूर्ववत् चलते रहो।'

उलझनपूर्ण नेत्रों से हृदयनारायण ने राजमाता को देखा। कदाचित् वह उनका अनुमोदन प्राप्त करना चाहता था।

'देवी के निर्देश का पालन करो हृदय!' उसके मनोभाव लक्ष्य कर भुवनमोहिनी ने कहा-'माताश्री का भी यही आदेश है!'

राजमाता राजराजेश्वरी हतप्रभ थीं, कुँवर शांत एवं दोनों देवियों की आकृति पर मुस्कान फैली थी।

'जो आज्ञा!' कह कर हृदयनारायण तत्काल चला गया।

निर्देशानुसार राजमाता की नौका आगे बढ़ गयी। शेष नौकाएँ कतारबद्ध होकर कामायोगिनी की नौका के पीछे चलती रहीं।

'मुझे आदेश दें देवी!' कामायोगिनी ने भुवनमोहिनी से कहा, 'तो मैं इस अग्नि को पुनः उसी के पास प्रेषित कर दूं, जिसने इसका संधान किया है।'

'यह उचित नहीं है देवी!' भुवनमोहिनी ने प्रतिवाद किया, ' वे हमारी

सम्बंधी हैं। उनके प्रति हमारे अंतस् में कोई द्वेष नहीं। '

'परन्तु फिर भी हमें प्रतिकार तो करना ही होगा!' दृढ़ स्वर में कामायोगिनी ने कहा।

'क्या कहते हो प्रिय?' भुवनमोहिनी ने कुँवर से कहा, ' तुम्हारी क्या इच्छा है?

निर्विकार कुँवर ने कहा, 'यह सत्य है कि हम किसी के शत्रु नहीं परन्तु परिस्थितिवश मेरी माता इस घड़ी भ्रमित हैं। हमारी यात्र में उनके द्वारा उत्पन्न यह प्रथम एवं अंतिम प्रतिरोध नहीं। अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगाकर वे प्राण-पण से अनवरत अवरोध उत्पन्न करती रहेंगी।'

'तो इस स्थिति में हमें प्रतिकार तो करते ही रहना होगा न प्रिय!' मंद हासयुक्त स्वर में भुवनमोहिनी ने कहा।

'कोई आवश्यकता नहीं'। पूर्ववत् शांत कुँवर ने कहा।

'तो हम स्वयं को दग्ध हो जाने दें' , कामायोगिनी ने कहा, 'क्या अर्थ है तुम्हारा?'

'अग्नि हमारी शत्रु नहीं है देवी!'

'परन्तु दग्ध करना तो उसकी प्रकृति है वत्स!' कामायोगिनी ने पुनः प्रतिवाद किया।

'प्रकृति की ही तो लीला आज देखनी है...!' अधूरी पंक्ति कह कर मौन हो गया कुँवर!

कामायोगिनी उलझ गयीं, परन्तु भुवनमोहिनी हँस पड़ी। हँसते हुए भुवनमोहनी ने कामायोगिनी से कहा, 'व्यर्थ विवाद में उलझ गयीं हम, अब तो और कुछ न कहूँगी...और प्रकृति की नहीं, अपने कुँवर की लीला देखूंगी मैं।'

कामायोगिनी तो मौन हो गयीं परन्तु राजमाता की व्यग्रता और भी तीव्र हो गयी। अब तक अग्नि की लपटें और भी पास आ गयी थीं।

राजमाता के नेत्रों में आतंक की छाया उभरी। वे कुछ कहना ही चाह रही थी कि कुँवर ने अपनी आँखों से ही उन्हें आश्वस्त कर दिया और शंखाग्राम की नौका ज्वाला में प्रविष्ट हो गयीं।

आश्चर्य!

अग्नि की लपटों में पूर्णतया प्रविष्ट हो चुकी नौका सहजता से आगे बढ़ रही थी। कुछ भी तो न दग्ध हुआ और न तप्त और कुँवर की नौका ने सुरक्षित अग्नि-ज्वाला पार कर ली। कामायोगिनी की नौका भी सुरक्षित रही तथा अन्य रक्षक नौकाएँ भी क्रमशः पार होती चली गयीं।

शंखाग्राम की राजकीय नौका में द्वितीय रात्रि सुखपूर्वक व्यतीत हो गयी। बहुरा ने कदाचित् अपने प्रथम अगिनबाण की सफलता को ही अचूक मानकर पुनः प्रहार नहीं किया था।

नित्यक्रिया सम्पन्न कर राजमाता, नौका के ऊपर खड़ी होकर उदित होते सूर्य को निहार रही थीं तभी क्रमशः कामायोगिनी, भुवनमोहिनी तथा अंत में कुँवर भी आ पहुँचे।

एक साथ सभी ने यहीं प्रातःकालीन जलपान ग्रहण किया।

सूर्योदय हो चुका था।

कुँवर के आदेश से इसी घड़ी प्रधान नाविक हृदयनारायण आ उपस्थित हुआ।

'हृदय!' कुँवर ने उसे सम्बोधित कर कहा, 'गंगा माता की लहरों पर अब हमारी यात्र समाप्त होने वाली है। दो ही घड़ी में पूर्व की ओर जो दूसरा मार्ग मिलेगा, वहीं से हमारा मार्ग परिवर्तित होगा। उस स्थल पर समस्त नौकाओं को रुक जाना है।'

'जो आज्ञा कुँवर जी!' विनीत स्वर में उसने कहा, 'मैं तत्काल सबको सूचित कर देता हूँ।'

सबों का अभिवादन करके हृदयनारायण चला गया तो भुवनमोहिनी ने कुँवर से पूछा, 'तुम्हें तो मार्ग परिवर्तन का आदेश भर देना था...उस स्थल पर रुकने का क्या प्रयोजन है प्रिय?'

भुवनमोहिनी के प्रश्न का उत्तर न देकर स्मित-भाव से कुँवर ने आसन त्यागा और मंद गति से चलता हुआ नौका के किनारे जा कर खड़ा हो गया।

कुँवर के मौन से उत्सुक भुवनमोहिनी ने कुँवर के समीप जाकर कहा, 'मौन क्यों हो गए प्रिय! इच्छा क्या है तुम्हारी?'

'आपसे तो कुछ भी छिपा नहीं है देवि' , कुँवर ने कहा, 'जिस दिशा में आगे यात्र करनी है, पूर्व में माता कमला की निर्मल धारा वहीं प्रवाहित हुआ करती थी।'

'क्या अर्थ है तुम्हारा!' उत्सुक भुवनमोहनी ने कहा, 'अब क्या कमला मैया की धारा वहाँ प्रवाहित नहीं होती?'

' हाँ देवि! कमला मैया ने अपना मार्ग परिवर्तित कर लिया है।

'आश्चर्य है, फिर हमारी सेना किस मार्ग से पहुँची?'

कुँवर ने वज्रबाहु के पहुँचने का मार्ग तथा भरोड़ा में उसके द्वारा सम्पन्न कार्यकलापों से देवी को विस्तार में अवगत कराया तो मुग्ध देवी से उनके अंतस् ने कहा-योग की जिस अवस्था पर उसका शिष्य अवस्थित हो चुका है, वहाँ स्थित योगी तो स्वतः ही सर्वज्ञ हो जाता है। परन्तु उसका प्रिय शिष्य, सूखी नदी के समीप रुकना क्यों चाहता है? इसका कोई उत्तर उनके पास नहीं था।

दोनों मौन खड़े गंगा की कलकल करती धारा को निहारते रहे।

कापालिक टंका की आशंका सत्य सिद्ध हो चुकी थी। परन्तु उसका तंत्र-प्रहार उसके स्वामी पर होगा, ऐसा तो उसने सोचा ही नहीं था। यद्यपि अपने स्वामी की सुरक्षा के प्रति उसे तनिक भी शंका नहीं थी, तथापि बहुरा के दुःसाहस ने उसे चकित कर दिया था।

कदाचित् उसकी शक्ति को उसने कम करके आँका था। इसके पूर्व की क्रुद्ध बहुरा का द्वितीय प्रहार भरोड़ा पर हो, उसे तत्काल ही अंचल को सुरक्षित कर देना होगा।

परन्तु तांत्रिक अनुष्ठान प्रारंभ करते ही, वह चौंका। आश्चर्यचकित होकर उसने अपने मानस-पटल पर देखा, भरोड़ा अंचल की प्रत्येक दिशा, उप-दिशा, आकाश एवं भूमि की रक्षा में, एक अज्ञात किन्तु अपूर्व शक्ति उपस्थित है। मुग्ध टंका अपने स्वामी के सौरभ पर नतमस्तक हो गया। बंद पलकों को खोलकर उसने उद्घोषणा की, सम्पूर्ण अंचल अभेद्य कवच में सुरक्षित है। उसे अब कोई चिन्ता नहीं।

उसके स्वामी आज ही पधारेंगे।

स्वामी के स्वागत में मुदित टंका के पग तीव्र गति से जलधारा की ओर बढ़ गए. राज भरोड़ा के वातावरण में उत्साह का अतिरेक छाया था।

कुँवरश्री के स्वागत में वज्रबाहु ने पांच कोस लम्बे वन के मध्य निर्मित नवीन मार्ग पर शीतल जल का छिड़काव कराया था। सम्पूर्ण मार्ग में अनेक तोरण द्वार बनवाए गए थे। भरोड़ा के नर-नारी और आबाल-वृद्ध, दो घड़ी पूर्व से ही वन-मार्ग के दोनों किनारों पर स्वागत में पंक्तिबद्ध होने लगे थे।

स्वयं भरोड़ा के राजा, पुत्र के स्वागत में अपनी रानी एवं अन्य परिजनों सहित जल धारा की ओर प्रस्थान कर चुके थे।

उत्कल-नरेश ने भी अपने पुत्र चंद्रचूड़, सेनापति, अमात्य एवं सशस्त्र योद्धाओं सहित अपनी भव्य शोभा-यात्र प्रारंभ कर दी थी।

जल-धारा के किनारे की विस्तृत भूमि को समतल कर, वज्रबाहु ने भव्य स्वागत-द्वार का निर्माण कराया था तथा स्वागत-द्वार के ऊपर शंखाग्राम, उत्कल एवं कामरूप की भव्य ध्वजायें लहरा रही थीं।

भरोड़ा के राजा विश्वम्भरमल्ल जहाँ प्रफुल्लता में छलक रहे थे वहीं रानी गजमोती पूर्वरूपेण शांत और मौन थीं।

'पुत्र के आगमन पर आपने यूँ मौन क्यों धारण कर लिया है?' राजा ने विनोदी स्वर में कहा, 'मार्ग में प्रतीक्षारत अपने अंचल-वासियों को देखिए...! कैसे आनंद-मग्न होकर, सभी आपके पुत्र के स्वागत में खड़े हैं और आप हैं कि इस उत्सव की घड़ी में भी।'

वाक्य सम्पूर्ण न कर पाये राजा जी, क्योंकि रानी की आँखें छलकने लग गयी थीं।

'अरे! ... यह क्या!' विस्मय से कहा राजा ने, 'आपने तो रुदन भी प्रारंभ कर दिया...बात क्या है...मुझे नहीं बतायेंगी?'

'इस बार अपने आँचल में बांध लूंगी उसे!' रूंधे गले से रानी ने कहा, 'कहीं नहीं जाने दूंगी अब। आप पिता हैं...आप क्या जानें पुत्र जब आँखों से दूर होता है तो माँ पर क्या बीतती है।'

कुछ न कह सके राजा जी.

अपने पीताम्बर से उन्होंने रानी के अश्रु पोंछने चाहे तो उनका हाथ रोक कर रानी ने कहा, 'चलिए, छोड़िए...अब आप अश्रु पोछना चाहते हैं मेरा...! उस घड़ी क्या किया था आपने? जब मेरा पुत्र हमें छोड़ कर जा रहा था और रो-रो कर मैं निढाल हो गयी थी!'

क्या कहते राजा जी?

मौन आँखों से रानी को निहारते रह गए.

'बधाई स्वीकार करें राजरत्न!' वैद्यराज रसराज ने कहा, 'आपका प्रिय शिष्य विभूति-सम्पन्न होकर आज वापस आ रहा है।'

हँस पड़े मंगलगुरु।

'आपको भी बधाई है वैद्यराज' , हँसते हुए ही मंगलगुरु ने कहा, 'वह क्या आपका शिष्य नहीं?'

'मुझे क्यों छोड़ दिया राजरत्न!' सेनापति भीममल्ल ने प्रतिवाद किया, 'शस्त्र-संचालन की विद्या में वह मेरा भी शिष्य है।'

'आपको भी बधाई!' वैद्यराज ने मुदित स्वर में कहा फिर तीनों हँस पड़े।

'पिताश्री!' चंद्रचूड़ ने अनुरोध किया, ' इस घड़ी कुँवरश्री गंगा की मुख्य

धारा में ही होंगे। मेरी इच्छा है कि मैं अपनी नौका से आगे जाकर, वहीं उनकी अगवानी करूँ।

'अति उत्तम!' उत्कल नरेश ने उत्साह में कहा, 'हम सभी तुम्हारे साथ चलेंगे पुत्र। हमारे पहुँचते ही इसकी व्यवस्था करो।'

तत्काल ही अश्वारोही सेनापति को, तद्नुसार निर्देश प्राप्त हो गये। उसके रण-बाँकुरों के साथ-साथ कापालिक चंद्रा भी मंथर-गति से चला जा रहा था। भरोड़ा आगमन के पश्चात् घटनायें इतनी तीव्र गति से घटित हो रही थीं कि सेनापति भ्रमित हो कर रह गया था। टंका के कारण, बहुरा के कोप से सभी सुरक्षित हो चुके थे और जहाँ तक स्वयं कुँवर का प्रश्न था, उन्हें सुरक्षा की आवश्यकता ही नहीं थी।

कैसा अभागा है वह, उसने सोचा, सौभाग्य का अवसर पाकर भी उसका भाग्य चूक गया। यह तो अच्छा हुआ कि उसके विचार, उसके अंदर ही दबे रह गए, अन्यथा उसके प्राण ही संकट में पड़ जाते। अब यह चंद्रा उसे बोझ लगने लगा था। व्यर्थ ही उसने इस दो कौड़ी के तांत्रिक के लिए इतने पापड़ बेले और इतना अनुनय-विनय किया।

अश्व पर आसीन सेनापति के मानस में, चंद्रा का एक-एक शब्द हथौड़े की तरह चोट करने लगा। उसे स्वयं पर घृणा होने लगी। उसने चंद्रा जैसे मदारी का तिरस्कार सहन कर लिया था। उसे तो उसी पल इस दुष्ट का वध कर देना था। धिक्कार है मुझे...! धिक्कार है!

दूसरे अश्व पर बैठा चंद्रा और ही विचारों में मग्न था। उसने तो निश्चय कर लिया था कि बहुरा की क्रोधाग्नि में वह घृत का कार्य करेगा और इस दुष्ट सेनापति को सहज ही अपने कुकृत्यों का दण्ड प्राप्त हो जायेगा। परन्तु टंका ने समस्त परिस्थिति ही बदल कर रख दी अन्यथा कुँवर से पराजय की स्थिति में बहुरा का

क्रोध अवश्य ही इस अंचल को जला देता।

ऐसे ही विचारों में उलझा, चंद्रा चला जा रहा था कि वन्य-प्रदेश का मार्ग समाप्त हो गया। जलधारा के किनारे पहुँचते ही उसके विचारों का प्रवाह भी थम गया।

उत्कल नरेश की आज्ञा सुनते ही वज्रबाहु प्रसन्न हो गया। उसकी भी यही इच्छा थी कि वह स्वयं कुँवरश्री का स्वागत गंगा की मुख्य धारा में उपस्थित होकर करे। तत्काल ही तद्नुसार व्यवस्था होने लगी।

भरोड़ा के राजा जी को भी उत्कल नरेश का विचार भा गया और उन्होंने भी साथ चलने की इच्छा व्यक्त कर दी।

और नदी किनारे की इन हलचलों के मध्य, टंका का शरीर कब जलधारा में प्रविष्ट हो गया, किसी ने न जाना।

निर्देशानुसार हृदयनारायण ने जिस स्थल पर लंगर डाला वहाँ दूसरी दिशा से आती एक अन्य जलाधारा, गंगा एवं कौशिकी का स्पर्श कर पूर्व की ओर प्रवाहित हो रही थी। इसके जल का वर्ण गंगा की धारा से अलग था। पास ही इसी दिशा की ओर, एक अन्य जल-विहीन सूखी नदी दिखाई दे रही थी।

कुँवर ने अपने दोनों कर जोड़ कर इस सूखी नदी को प्रणाम किया। उसकी दोनों पलकें झुक कर बंद हो गयीं।

'हे माता!' उसने निःस्वर प्रार्थना की, 'हमारे अंचल की तुम्हीं प्राणधारा हो! तुम्हारा ही आश्रय लेकर हमारे कृषक अपने खेतों में अन्न उगाते हैं और तुम्हारे ही जल से हमारा जीवन-यापन होता है। हमारे व्यापार और वाणिज्य का आधार भी तुम्हीं हो माता! तुम्हारी ही गोद में असंख्य जलचरों का जन्म एवं पोषण भी होता है। जब से तुम विमुख हुई हो, तब से अंचल की कोख ही उजड़ गयी है। यद्यपि अपने पुरूषार्थ से हमारे कटिबद्ध परिजनों ने, तुम्हारे परिवर्तित मार्ग तक, अपनी पहुँच बना ली है तथापि तुम्हारी अनुपस्थिति ने हमारे अंचल की आकृति मलिन कर दी है माते! हे माता! मैं अंग का पुत्र नटुआ दयाल, अपने दोनों कर जोड़ कर प्रार्थना करता हूँ कि यदि तुम मुझ पर प्रसन्न हो तथा, यदि मैंने अपने जीवन में कुछ भी पुण्य किया हो, तो हे माता! मेरे इस अंचल तथा अंग जनपद में ही नहीं, वरन इस धरा पर कहीं भी तुम, हम से विमुख मत होना माता...विमुख मत होना।'

कुँवर के मानस पटल पर इसी क्षण नीलवर्णी प्रभा उदित हुई और कमला माता की स्पष्ट आकृति उभर आयी। उनके नेत्रों में स्नेहयुक्त वात्सल्य भरा था और

अधरों पर स्मित मुस्कान। उनके नेत्रों ने हौले से अनुमोदन का भाव प्रकट किया तथा मुस्कुराती हुयी माता अदृश्य हो गयीं।

विभोर कुँवर के नेत्र खुले।

कामायोगिनी एवं भुवनमोहिनी के साथ-साथ कापालिक टंका उसके समक्ष उपस्थित था।

'मित्र तुम!' स्मित कुँवर ने कहा, 'कहो क्या समाचार लाए हो?' टंका से कह कर कुँवर ने पुनः भुवनमोहिनी से कहा, 'माता ने पुत्र की विनती स्वीकार कर ली है देवी! हृदय नारायण से कहें वह इसी सूखे मार्ग की ओर नौका बढ़ाए.'

भुवनमोहिनी मुस्करायी परन्तु कापालिक टंका ने आश्चर्य से कहा, 'इस मार्ग में स्वामी?'

'हाँ मित्र!' कुँवर ने कहा, 'हमारी यात्र इसी मार्ग से होगी!'

कुछ न कह सका टंका परन्तु उसके नेत्रों में उलझन का भाव और भी सघन हो गया। भुवनमोहिनी जा चुकी थीं। आश्चर्य से भरा टंका और उत्सुक कामायोगिनी वहीं खड़ी रहीं।

कुँवर का आदेश सर्वोपरि था। लंगर उठाये जाने लगे। नौका की दिशा पूर्व की ओर मोड़ दी गयी और शंखाग्राम की राजकीय नौका सूखी नदी की दिशा में बढ़ चली।

समस्त चौंसठ विद्याओं का सिद्ध, दुर्दांत कापालिक टंका, युगों-युगों की

साधिका कामायोगिनी तथा शतदल-सहस्त्र कमल नृत्य की ज्ञाता भुवनमोहिनी ने

मुग्ध होकर देखा, नौका के आगे-आगे सूख चुकी नदी की भूमि पर, कमला का जल-प्रवाह उत्पन्न होता गया और नौका बढ़ती गयी।

कुँवर के चरणों में नतजानु होकर कहा टंका ने, 'स्वामी! आप तो स्वयं सर्वज्ञ हैं। आपको तो भली-भाँति ज्ञात ही है कि आपके परिजन नौकाओं के द्वारा किस मार्ग से आने वाले हैं। गंगा की धारा में आपको न पाकर वे कितने उद्विग्न हो जायेंगे...मुझे आज्ञा दें स्वामी तो, मैं तत्काल उनकी नौका यात्र स्थगित करूँ!'

कुँवर ने कुछ न कह कर अपने नेत्रों से मूक स्वीकृति दे दी।

कापालिक टंका के आगमन के पूर्व ही चतुर्दिक् शोर मच गया। कमला मैया की धारा पुनः कलकल करती प्रवाहित होने लगी है। दावानल की भाँति प्रसारित इस समाचार ने सबके हर्ष को द्विगुणित कर दिया। सूखी नदी पर

बंधी नौकाएँ, कमला की धारा पर, ऊपर उठ आयीं।

पंचकोसी वनमार्ग के किनारे खड़े लोग, हर्षोन्माद में दौड़ पड़े! उत्कल नरेश एवं राजा विश्वम्भर मल्ल अपने लोगों के साथ अपनी-अपनी नौकाओं में जाने ही वाले थे कि इस समाचार ने सबको हतप्रभ कर दिया।

और इसी घड़ी कापालिक टंका ने उपस्थित होकर उन्हें कुँवर की सूचना दे दी।

कुँवरश्री की नौकाएँ, अंचल की मूल धारा में ही आ रही हैं यह ज्ञात होते ही हर्षित होकर तत्काल सभी लौट पड़े।

काला पहाड़ तथा झिलमा खबास!

दोनों ने मिलकर अपनी विशाल नौका को सम्हाल लिया। पारिश्रमिक लिए बिना, उन्होंने अंचल के लोगों को पार पहुँचाना शुरु कर दिया।

यह देखते ही अन्य नाविकों ने भी कमला की धारा को पार कर अपनी-अपनी नौकाएँ सम्हाल ली। गड़े हुए लंगर के खूंटों से नौकाओं को मुक्त किया और लोगों को उस पार पहुँचाना प्रारंभ कर दिया।

कमला की धारा ने अंचल में पुनः उपस्थित होकर अभूतपूर्व उमंग और उत्साह उत्पन्न कर दिया था। तत्काल उस पार पहुँच जाने की इच्छा सबकी थी, परन्तु किसी ने अनुशासन भंग न किया। नौकाओं की संख्या प्रतिपल बढ़ती जा रही थी तथा किनारे खड़ी भीड़ धैर्यपूर्वक अपनी बारी की प्रतीक्षा में खड़ी थी।

भरोड़ा का राजपरिवार तथा उत्कल नरेश के प्रस्थान के पश्चात् वज्रबाहु के आदेश पर, जलधारा में उपस्थित शंखाग्राम एवं उत्कल की नौकाओं ने अपने लंगर उठाने शुरू कर दिए. समस्त नौकाओं को गंगा की मुख्य धारा में पहुँच कर वापस कमला की नवीन धारा से पुनः भरोड़ा पहुँचना था।

समस्त जनों के लौटने के उपरांत जो हलचल थमी थी, नौकाओं के कारण वह पुनः प्रारंभ हो गयी।

बखरी सलोना के परिवेश से उग्रचण्डा अब अपरिचित नहीं रही। माया तो प्रथम परिचय में ही उससे घनिष्ठ हो गयी थी, काकी के अनुमोदन के उपरांत बहुरा के हृदय में भी उसके प्रति कटुता की भावना समाप्त हो गयी।

भरोड़ा में भुवनमोहिनी एवं कामायोगिनी के साथ, कुँवर के आगमन की विस्तृत जानकारी से, बहुरा अवगत थी।

अमृता आहलादित थी तथा माया प्रसन्न, परन्तु काकी के साथ-साथ बहुरा अति-विस्मित थी।

'प्रत्येक कार्य का कारण होता है काकी!' बहुरा ने आश्चर्य से कहा, ' परन्तु हमारे समक्ष जो कुछ घटित हो रहा है, इसके नेपथ्य में क्या है...और सबसे

अधिक विस्मयकारी है, कमला की धारा का यूँ अनायास पुनरागमन। विस्मित हूँ मैं।वह कौन-सी अदृश्य शक्ति है जो निरंतर हमारे विपक्षी की सहायक बनी हुयी है? '

परन्तु काकी के पास बहुरा केे प्रश्न का कोई उत्तर नहीं था। तत्काल कुछ न कह सकी वह।

काकी के मौन पर माया ने बहुरा से कहा, ' अपने कुँवर के प्रति तुम्हारे अंदर जो विद्वेष भरा है, उसके ही कारण तुम्हारी चेतना भ्रमित हो गयी है पुत्री!

...अन्यथा मेरी दृष्टि में अब असंगत कुछ नहीं। शंखाग्राम की सेना ने भरोड़ा में उपस्थित होकर हम सब को भ्रमित कर दिया था। मैं भी उलझ गयी थी पुत्री! मुझे भी इसका औचित्य समझ में नहीं आया था, परन्तु अब कोई भ्रांति शेष नहीं। '

'तुम हमेशा उल्टी बात कहती हो माया!' काकी ने तत्क्षण कहा, 'दो भिन्न देशों की शक्तियों का क्या औचित्य था भरोड़ा में...? अपने कुतर्कों से हम सब को तुम पुनः भ्रमित कर रही हो माया, अन्यथा शत्रु के इस प्रकार शक्ति-प्रदर्शन का क्या कारण है, बताओ तो हमें?'

'घृष्टता न समझें तो मैं कुछ कहूँ काकी?' उग्रचण्डा ने तत्काल कहा।

'कहो, तुम भी कहो उग्रचण्डा' ! काकी ने कहा।

'जिसे आप शक्ति-प्रदर्शन कह रही हैं, वास्तव में वह शक्ति का प्रदर्शन नहीं है, क्योंकि तब स्वयं शंखाग्राम की राजमाता का पदार्पण नहीं होता। जब वे स्वयं आयी हैं तो इसका स्पष्ट अर्थ है कि यह सैनिक अभियान है ही नहीं।'

'ठीक कह रही है उग्रचण्डा!' माया ने कहा, ' हमने व्यर्थ उन्हें अपना शत्रु मान लिया है। हमें शांत-चित्त होकर समस्त स्थिति पर पुर्नविचार करना होगा तथा धैर्य-

धारण कर किंचित प्रतीक्षा करनी होगी। फिर यदि, दुर्भाग्यवश परिस्थिति विपरीत हुई, तो तद्नुसार ही हम स्थिति के अनुकूल कार्य करेंगे। '

उग्रचण्डा तथा माया के तर्क से पूर्णतया सहमत नहीं होते हुए भी बहुरा ने माया से कहा, 'कदाचित् तुम ठीक कह रही हो दीदी। यूँ भी जिसे हमने अपना शत्रु स्वीकार किया है वह अब स्वयं उपस्थित हो ही गया है। परन्तु फिर भी मैं नहीं चाहती कि हम निष्क्रिय होकर शांत बैठ जायें तथा अनहोनी की प्रतीक्षा करती रहें। हमें पूर्ण सतर्क रह कर प्रतिरोध हेतु हर-पल सावधान रहना होगा।'

अपनी बात कह कर बहुरा ने पुनः उग्रचण्डा से कहा, 'और तुम यह मत समझना उग्रचण्डा कि मेरे अगिनबाण का प्रतिकार कर उसने मेरा पराभव कर दिया है अथवा तुम्हारे तथाकथित कापालिक टंका से मैं भयभीत हो गयी हूँ।'

हँस पड़ी उग्रचण्डा। हँसते हुए ही उसने विनोद किया, ' स्वीकार करती हूँ बहुरा

...तुम्हारी शक्ति को स्वीकार करती हूँ। 'कहते ही उसकी आकृति गंभीर हो गयी और उसने पुनः कहा,' परन्तु मेरा अनुरोध इतना ही है तुमसे कि क्रोधावेश में अपनी शक्ति का अपव्यय न करना! '

'उग्रचण्डा से सहमत हूँ मैं!' काकी ने कहा, 'यद्यपि नीति यही है कि विजयी वही होता है जो सर्वप्रथम प्रहार करता है, परन्तु फिर भी मैं चाहती हूँ कि आक्रमण का पहल शत्रु-पक्ष की ओर से ही हो।'

'क्या कहती है पुत्री!' माया ने बहुरा से कहा, 'काकी ने भी हमारी बात मान ली है। अब क्या निर्णय है तुम्हारा?'

'तत्काल कुछ नहीं कहूँगी मैं' अति-गंभीर स्वर में बहुरा ने कहा और बहुरा के इस वाक्य ने सबको मौन कर दिया।

मौन को भंग किया माया ने, 'जब तक दोनों पक्षों में संवाद-हीनता की स्थिति है, तब तक हमारी समस्या यथावत् ही बनी रहेगी पुत्री! अतएव मैं चाहती हूँ इस स्थिति को भंग किया जाये।'

'वह कैसे?' बहुरा ने कहा।

'मैं स्वयं जाऊँगी भरोड़ा।'

माया की बात ने सबको चौंका दिया। सब मौन हो गए.

'नहीं दीदी' ! बहुरा ने कुछ क्षण रुक कर कहा, 'यह उचित नहीं।'

'क्यों पुत्री?'

'तुम्हारे इस सकारात्मक पहल का अर्थ उनकी दृष्टि में नकारात्मक ही होगा। यह तो झुक जाने वाली बात होगी।'

'तो क्या हुआ!' माया ने कहा, 'हम कन्या पक्ष वाले हैं। हमारा झुकना तो यूँ भी स्वभाविक ही है पुत्री!'

और माया की इस बात पर बहुरा पुनः मौन हो गयी।

आनंद और उत्साह में सारा अंचल छलक रहा था। कुँवर के आगमन ने भरोड़ा का वातावरण पूर्णतः बदल दिया। ऐसे में तांत्रिक चंद्रा अंचल के बच्चों के

मध्य सबसे ज़्यादा लोकप्रिय हो गया था। बच्चों का समूह उसे घेरे रहता और तांत्रिक चंद्रा, अपने जादू के खेल दिखाकर उन सबों का मनोरंजन करता।

पलक झपकते ही उसके हाथों में विभिन्न मिष्टान्न एवं खिलौने उत्पन्न हो जाते, जिसे पाकर बच्चों की खुशी का ठिकाना न रहता। सारे अंचल के बच्चे, खिलौने तथा मिठाई पाने के लोभ में उससे चिपके रहते।

कापालिक टंका, बहुरा के बलाबल से ज्ञात होने हेतु तांत्रिक अनुष्ठान में संलग्न था। राजा विश्वम्भरमल्ल के साथ-साथ रानी गजमोती अपने पुत्र को निहारने-निरखने में व्यस्त हो गए. मंगलगुरु आगामी कार्यक्रम पर विचार कर रहे थे तथा भरोड़ा के सेनापति भीममल्ल, बहुरा को दण्डित करने की योजना बना रहे थे। पूर्णतः परिवर्तित स्थिति ने उनका उत्साह बढ़ा दिया था। शंखाग्राम की राजमाता एवं उत्कल नरेश, भरोड़ा प्रवास का आनंद उठा रहे थे तथा उनका पुत्र अपनी भार्या भुवनमोहिनी एवं कामायोगिनी के साथ कुँवरश्री के द्विरागमन पर विचार-विमर्श कर रहा था।

चंद्रचूड़ की इच्छा थी कि वह स्वयं बखरी में उपस्थित होकर बहुरा से मिले, परन्तु उसकी भार्या भुवनमोहिनी की इच्छा थी कि कुल की नीति-रीति के अनुसार ही कार्य करना उचित है, अतः कुँवर के पिताश्री जो निर्णय करेंगे, उसी का अनुपालन करना श्रेयस्कर होगा।

दूसरी और भरोड़ा के सेनापति भीममल्ल का कहना था कि बहुरा ने जब कुल की परम्परा का उल्लंघन कर हमारे आत्मसम्मान को धूल-धूसरित कर दिया तो फिर किसी लोकाचार, रीति-रिवाज तथा पारम्परिक औपचारिकता की कोई आवश्यकता नहीं। हमें तो बहुरा का मान-मर्दन कर अपनी पुत्रवधु को बल-पूर्वक भरोड़ा लाना चाहिए.

ऐसे विरोधाभासी विचारों के मध्य राजरत्न मंगलगुरु तथा वैद्यराज रसराज के परामर्श को स्वीकार कर राजा विश्वंभर मल्ल ने अतंतः कुँवर के गौना का डाला भेजने का निश्चय कर लिया।

और इस मध्य सबसे अधिक व्यस्त था वज्रबाहु। समस्त अतिथियों के आतिथ्य का भार उसी पर था। किसी पल वह पाकशाला में उपस्थित होता तो अगले पल सेवकों के पास।

सभी व्यस्त थे। कोई आमोद-प्रमोद में, कोई चिन्तन मेें, कोई मनन में तो कोई चर्चा में। परन्तु एक व्यक्ति ऐसा भी था जो पूर्णरूपेण निष्क्रिय था। क्या करे, क्या न करे वाली स्थिति थी उसकी। वह था उत्कल का अति महत्त्वाकांक्षी सेनापति। दीर्घ विचार-मंथन के उपरांत वह इसी निश्चय पर पहुँचा कि नियति के समक्ष स्वयं को समर्पित कर दे वह। अन्यथा ऐसा न हो कि सेनानायक के पद से भी वह च्युत हो जाये।

भँवर के मध्य से निकली अमृता की जीवन-नौका किनारे पहुँचती कि तभी पतवार उसके हाथ से छूट गया।

काकी और बहुरा की हठ में, विरहिणी अमृता टूट कर बिखर गयी। उसकी हँसी खो गयी, मुस्कराना भूल गयी। खोयी-खोयी-सी हो गयी वह।

निंदिया तो बैरन हो ही चुकी थी, जागी रहती तो भी संज्ञाहीन ही रहती। उसकी पीड़ा माया से सही नहीं जाती। परन्तु इस घड़ी जब उसकी दृष्टि कक्ष में बैठी अमृता पर पड़ी तो, बरबस ही उसके अधरों पर मुस्कान उभर आयी।

उसकी अमृता बैठी-बैठी कहीं खो-सी गयी थी। लाज से भरी उसकी आँखों से अपूर्व-सी प्रसन्नता छलक रही थी।

हुआ क्या है इसे? यह निगोड़ी आज इतनी प्रसन्न क्यों है? कदाचित् अपनी जागी आँखों से ही स्वप्न देख रही है यह अभागी।

निकट पहुँच कर अमृता को घड़ी भर निहारती रही वह, परन्तु माया की उपस्थिति से पूर्णतया अनभिज्ञ अमृता की प्रफुल्लित दृष्टि शून्य में ही अटकी रही।

क्या करे वह? अमृता की तंद्रा भंग कर दे अथवा कुछ पल और जी लेने दे इसे, क्योंकि चैतन्य होते ही पुनः रो पड़ेगी यह।

ममतामयी उसके हृदय ने कहा-पीर विरह की विरहिनी ही जाने और न जाने कोय नीर बहे अँखियन से, फिर भी मन न शीतल होय।

और वह सचमुच ही स्वप्न में खोई थी।

हँसती-खिलखिलाती सखियाँ उसे घेरे चुहल कर रही हैं। कोई पाँवों में मेंहदी रच रही है तो कोई उसकी वेणी को पुष्पों से श्रृंगारित कर रही है। दूर खड़ी पोपली काकी स्निग्ध नेत्रों से उसे तक रही है और पास बैठी माता बहुरा बारंबार उसकी बलाइयाँ ले रही है।

हाथों में महावर लिए उसकी प्यारी दीदी माया आयी और तभी जैसे बादलों की ओट से चंदा झांके-उसके प्राण, उसके कुँवर ने द्वार की ओट से उसे झांका। नैना चार होते ही लाज से दुहरी होकर सकुचायी अमृता और भी सिमट गयी।

पगली हो जायेगी यह। माया ने सोचा।

उसकी चेतना ने उससे कहा-कुँवर के स्वप्न-भंवर में पड़ी है यह अभागी। हृदय फट गया माया का, आँखें भर आयीं। रोक न सकी स्वयं को और बढ़ कर अपने अंक में समेट लिया उसने अमृता को।

तत्क्षण तंद्रा टूटी तो अमृता ने स्वयं को दीदी के अंक में जकड़े पाया।

तो स्वप्न था यह!

प्रथम बार...अपने जीवन में संभवतया प्रथम बार रो पड़ी माया।

अमृता भी रो पड़ी।

फिर तो बांध ही टूट गया दोनों का।

राज भरोड़ा से आये मनुआ ठाकुर को बहुरा ने आपादमस्तक निहारा। राजा ने अपने ठाकुर के हाथों, उसकी पुत्री के गौना का डाला भिजवाया था। साँवले वर्ण के इस वृद्ध ठाकुर ने अपने मस्तक पर पीला मुरैठा बाँध रखा था। इसके कंधों पर लालवर्णी गमछा और कमर में पीली धोती बँधी थी।

बाँस की किरचियों से बने जिस डाले को यह अपने साथ लेकर आया था, वह वहीं भूमि पर उसके पास उपेक्षित-सा पड़ा था। लाल रंग से चित्रित इस डाले पर अक्षत, चंदन एवं रोली के छींटे अंकित थे। लाल रेशमी पाड़ से बँधा यह डाला यंू तो ठाकुर के आगमन का अभिप्राय स्वयं कह रहा था, फिर भी बहुरा ने तीक्ष्ण स्वर में प्रश्न किया-'यह क्या लेकर आये हो यहाँ? ...और तुम हो कौन?'

'मैं, मनुआ ठाकुर, राज भरोड़ा से आया हूँ चौधराइन!' सादर कहा उसने, 'हमारे राजा जी ने भेजा है मुझे।'

'अच्छा तो राज भरोड़ा से पधारे हैं आप!' व्यंगपूर्ण स्वर में बहुरा ने कहा, 'सौगात लेकर आये हैं हमारे लिए.'

'नहीं चौधराइन' , कमर तक झुक कर कहा उसने, 'बिटिया के गौना का डाला है यह।'

बहुरा की मुखाकृति पर क्रोध उभर आया। भूमि पर पड़ा डाला उसे चिढ़ा रहा था। इच्छा हुई कि पग-प्रहार से दूर कर दे इस डाला को। निर्लज्जता की परिणति है यह तो। मुझे पराभूत करने के लिए पहले तो उन्होंने सैन्य बलों का संचय किया और अब डाला भेजकर मेरा उपहास!

उसकी उग्रता और भी बढ़ गयी। मेरी अबोध कन्या का परित्याग करने के उपरान्त अब दुष्टों ने लोकाचार की धृष्टता की है। लोकाचार के निर्लज्ज प्रदर्शन के साथ ही उन्होंने मेरी अस्मिता को भी चुनौती दी है। उनका यह दुःसाहस!

क्रोध से उफनते बहुरा ने अपने समधी को दण्डित करने का दृढ़ निश्चय कर लिया और ऐसा निश्चय करते ही उसके अंतस् का ज्वालामुखी फट कर, उसके भयंकर अट्टहास में प्रकट हो गया।

बहुरा के इस अति-विकट अट्टहास से थर्राया मनुआ ठाकुर की टाँगे काँपने लगीं। प्राणों के भय से काँपते ठाकुर ने अपने दोनों कर जोड़ दिए. उसके नेत्रों में भय उभर आया और कंठ अवरुद्ध हो गया।

अपनी मृत्यु को निश्चित जानकर उसने उस पल को धिक्कारा, जब भरोड़ा से गौना का डाला लेकर उसने बखरी के लिए प्रस्थान किया था। कितना समझाया था पत्नी ने और परिजनों ने भी तो रोका था; परन्तु काल ने उसकी बुद्धि ही हर ली थी, तभी तो मैं मूर्ख स्वयं चल कर आ गया, काल का ग्रास बनने।

अब क्या करे वह?

पता नहीं यह विकटा अब क्या करेगी? मनुआ ठाकुर अपनी मृत्यु को आसन्न जान थरथरा ही रहा था कि इसी मध्य पोपली काकी और माया दीदी ने कक्ष में प्रवेश किया।

बहुरा पूर्ववत् अट्टहास कर रही थी। भयाक्रांत ठाकुर कर जोड़े, थरथराता खड़ा था। गौना का उपेक्षित डाला, पास ही भूमि पर पड़ा था। समस्त परिस्थितियाँ स्पष्ट थीं।

तो भरोड़ा से डाला लेकर नाई आया है। माया दीदी के अधरों पर सुखद मुस्कान बिखरी। परन्तु पोपली काकी को इस दृश्य ने विक्षिप्त कर दिया। भरोड़ा का ऐसा दुःसाहस! उसने सोचा, सैन्य-बल ने विश्वंभरमल्ल को अति-विश्वासी बना दिया है। भुवनमोहिनी, कामायोगिनी तथा कापालिक टंका की मित्रता के गर्व में चूर होकर उसने इस लोकाचार का दुस्साहस किया है। बहुरा का अट्टहास थमा तो उसने पोपली से व्यंग्य में कहा, 'देखा काकी। तुम्हारे समधी जी ने क्या भेजा है?'

'देख रही हूँ' , क्रोधित काकी ने कहा, 'इस डाले में शत्रु ने शगुन नहीं, अपना गर्व और अभियान भर कर भेजा है।'

'क्या कहती हो काकी!' तड़प कर कहा माया ने, 'बिगड़ी को और न बिगाड़ो। समधी जी ने तो सौहार्द का प्रदर्शन किया है। शगुन के इस डाले में जो संदेश छिपा है, उसे पहचानो काकी और अभागी अमृता के बिखरे भाग्य को सँवरने से मत रोको!'

काकी ने तत्काल कुछ नहीं कहा, परन्तु बहुरा ने तीक्ष्ण दृष्टि से देखा माया को। कैसी मूर्ख है यह, सोचा उसने। शत्रु की धृष्टता का इसे तनिक भी भान नहीं। यूँ भी हमारी मान-मर्यादा के विरुद्ध ही विचार व्यक्त करना, इसे प्रिय लगने लगा है। उसकी इच्छा हुई कि वह तत्क्षण माया को कक्ष त्यागने का परामर्श दे-दे परन्तु उसने ऐसा कुछ कहा नहीं।

बहुरा ने काकी तथा माया को बैठा कर स्वयं भी बैठते हुए माया से कहा, 'वही करूँगी जिसपर सब सहमति होगी, परन्तु अपने स्वाभिमान से समझौता कदापि नहीं करूँगी।'

'स्वाभिमान और अभिमान में अंतर होता है पुत्री!' माया ने शांत स्वर में कहा।

'अच्छा, तो अब हमें तुमसे सीखनी होगी' ! क्रोधयुक्त स्वर में काकी ने हस्तक्षेप करते हुए कहा, 'मैं देख रही हूँ माया, आज-कल प्रायः तुम्हारा स्वर, हमारे विरोध में ही व्यक्त होता है।'

'ऐसा मत कहो काकी!' पूर्ववत् शांत स्वर में माया ने कहा, 'विचारों में मतभेद को इस प्रकार व्यक्तिगत मतभेद में परिणत मत करो! हमें अच्छी तरह सोच-विचार कर ही निर्णय लेना चाहिए. हमारे सौभाग्य से ही यह शुभ अवसर उपस्थित हुआ है। तनिक सोचो काकी...भरोड़ा में बाहरी सेना की उपस्थिति से कितने भ्रमित थे हम। क्या-क्या नहीं सोच लिया था हमने। स्थिति से पूर्णतया अनभिज्ञता ने ही हमारी पुत्री को भी इतना उद्वेलित कर दिया था जिस कारण इसने कुँवर पर तंत्र-प्रहार तक किया। परन्तु इतनी कटुतापूर्ण स्थिति में भी हमारे समधी ने जब इस सौजन्य का प्रदर्शन किया है तो हमें भी सब विस्मृत कर अमृता के जीवन को सुखों से भर देना चाहिए काकी।'

मूक काकी के अंदर विभिन्न विचारों के प्रवाह चल रहे थे। माया से पूर्णतया असहमत काकी कुछ और ही सोच रही थी। सहसा उसके अधरों पर मुस्कान उभर आयी। समझ गयी माया। काकी अवश्य ही किसी दुश्चक्र में लिप्त है इस घड़ी। बहुरा के मनोभावों को तो वह शत-प्रतिशत जान लेती थी क्योंकि उसके अंतस का भाव, तत्काल उसकी मुखाकृति पर प्रतिबिम्बित होने लगता था। परन्तु काकी के साथ ऐसी बात नहीं थी। वह क्या सोच रही है... उसका मुख देख कर यह जान पाना संभव नहीं था।

दूसरी तरफ बहुरा भी वही सोच रही थी जो कदाचित् पोपली काकी सोच रही थी। बहुरा के अंदर एक अंतर्द्वंद्व चल रहा था। क्या इस अवसर को शत्रु-मर्दन के शुभ-अवसर पर परिवर्तित कर दिया जाए? और इस विचार के आते ही उस के

अधरों पर पोपली काकी की भांति विषाक्त मुस्कान थिरकने लगी।

बहुरा के नेत्र काकी से मिले। मूक नेत्रों का परस्पर सम्भाषण हुआ।

'धबड़ाओ मत ठाकुर!' काकी से दृष्टि हटाकर बहुरा ने मनुआ से कहा, 'तुम तो अतिथि हो! शांत हो जाओ और मेरी बात ध्यान से सुनो!'

बहुरा के स्वर परिवर्तन ने माया को आशान्वित कर दिया। कदाचित् इसने मेरा तर्क स्वीकार लिया है। उसकी उत्सुक दृष्टि बहुरा पर केन्द्रित हो गयी।

बहुरा कह रही थी, 'यद्यपि तुम्हारे राजा ने हमें हार्दिक क्लेश एवं आघात पहुँचाया है। विवाहोपरांत उन्होंने मेरी निर्दोष पुत्री को कलपते छोड़कर, उसका परित्याग कर दिया। तथापि हम अपने समस्त आत्मसम्मान का विचार छोड़ कर इस शगुन के डाले को स्वीकार करते हैं ठाकुर! हम कन्या-पक्ष वाले हैं। परम्परा ने भी हमें वर-पक्ष के अधीन रखा है। यूँ भी समर्थ को कोई दोष नहीं देता। अपनी पुत्री के मलिन मुख को देख कर, उसके सुख के समक्ष आज वीरा झुक गयी है ठाकुर! इस शगुन को तो मैं स्वीकार कर ही चुकी हूँ साथ ही अपनी पुत्री का गौना भी स्वीकारती हूँ ठाकुर! परन्तु अपनी आहत अंतरात्मा की रक्षा हेतु मेरी एक अरदास है। गौना के लिए मेरे जमाई को अकेले ही आना होगा। अपने समधी-समधिन, उनके परिजन तथा इष्ट-मित्रों का मैं स्वागत नहीं कर सकूंगी। अपने राजा को कहना, वीरा की यह बात यदि उन्हें स्वीकार्य हो, तो वे अपने प्रिय पुत्र को अकेले भेज दें।'

बहुरा की वाक्पटुता ने पोपली काकी को पूर्णरूपेण संतुष्ट कर दिया। माया को यद्यपि बहुरा की बात अच्छी नहीं लगी तथापि उसने इस बार कोई विरोध नहीं किया। पति संग अमृता की विदाई हो जाये, इसके अतिरिक्त उसकी कोई अभिलाषा थी भी नहीं। उसे पता था, शेष कटुता शनैः-शनैः स्वयं मिट जायेगी।

परन्तु सर्वाधिक प्रसन्न हुआ मनुआ ठाकुर। प्राणभय से मुक्ति मिली थी उसे। त्रण पाते ही उसने मुक्ति की सांस ली।

राजा विश्वम्भरमल्ल के शिविर में सभी को मनुआ ठाकुर की प्रतीक्षा थी। सभी उत्सुक थे। राजरत्न मंगलगुरु तथा वैद्यराज रसराज के परामर्श पर ही शंकित राजा ने अंततः मनुआ को भेजा था। परन्तु राजा के इस निर्णय से सेनापति भीममल्ल अत्यंत व्यथित थे। विरोध करते हुए उन्होंने कहा भी था 'जिस अंचल से हम सभी को इस प्रकार अपमानित कर भगा दिया गया, उसी के पास हम अपने नाई के द्वारा गौना का डाला भेजें... धिक्कार है हम पर...और हमारे पुरूषार्थ पर!'

क्रोध से उफनते सेनापति को बड़ी कठिनाई से सम्हाला था राजरत्न ने, परन्तु सेनापति ने तभी से आहत हो, मौन धारण कर लिया था। इसी कारण राजा जी के शिविर में इस घड़ी राजरत्न और वैद्यराज के साथ उपस्थित होकर भी वह पूर्ण मौन था।

और यह स्वभाविक ही था। नृशंस बहुरा ने जिस क्रूरता से उसकी दाहिनी आँख नोच ली थी, उसे भूल जाना किसी के लिए भी संभव नहीं था। फिर भीममल्ल जैसा अति बलशाली सेनापति, इस अपमान को भूल जाये, यह भला कैसे संभव था।

उसके अंदर धधकते प्रतिशोध की ज्वाला से राजा, राजरत्न और वैद्यराज अच्छी तरह परिचित थे, परन्तु फिर भी वार्तालाप के मध्य उनका निंरतर मौन रहना किसी को स्वीकार्य नहीं था।

इसी कारण वैद्यराज ने सेनापति से कहा, 'आपका क्रोध सकारण ही है सेनापति! आपकी मनःस्थिति से भी हम अपरिचित नहीं, परन्तु इस प्रकार आपका निरंतर मौन रहना हम सभी को अखर रहा है सेनापति।'

'वैद्यराज का मैं भी समर्थन करता हूँ सेनापति!' राजरत्न ने भी कहा, 'तथा आपकी पीड़ा भी हम सभी समझ रहे हैं...फिर भी मेरा अनुरोध है कि आप अपना मौन भंग करें।'

वैद्यराज तथा राजरत्न के अनुरोध पर भी जब सेनापति मौन ही रहा तो राजा ने ही अंततः कहा, 'सेनापति के दुःख में हम सभी दुखी हैं तथा हमारे भी अंतस में बहुरा को दण्डित करने की तीव्र अभिलाषा है, परन्तु इस घड़ी हमने विवशता में वही किया, जिस पर सर्वसम्मति थी।'

अपनी बात कह कर राजा ने पुनः सेनापति से कहा, 'आप यह मत समझें सेनापति कि बहुरा को हमने क्षमा कर दिया अथवा उसके कुकृत्य को हमने भुला दिया। उसके इस जधन्य अपराध को, मैं आजन्म नहीं भूलूंगा...परन्तु इस घड़ी मैंने जो निर्णय लिया इसी में सबों की सहमति थी।'

सेनापति ने दृष्टि उठा कर राजा को देखा।

उसके अंतर की समस्त पीड़ा उसकी बांयी आँख में उभर आयी। कुछ पल वह यूँ ही राजा को देखता रहा और अंततः उसके बोल खुल गए.

शांत-गंभीर स्वर में उसने कहा, 'जिन परिस्थितियों में हमें विवश होकर बखरी से पलायन करना पड़ा, वह स्थिति अब नहीं रही राजा जी. अब हम हर प्रकार से शक्ति-सम्पन्न हैं। हमारे सहायकों में कापालिकों में श्रेष्ठ टंका तक हमारे साथ है जिसके समक्ष बहुरा जैसी सिद्ध भी तृण के समान है। इसके अतिरिक्त, बंग तथा उत्कल की श्रेष्ठ शक्तियों से सम्पन्न होते हुए भी हमने कापुरुषों जैसा निर्णय लिया...इसकी ग्लानि मुझे सदा व्यथित करती रहेगी।'

'यह निर्णय किसी कापुरुष का नहीं, हमारा समवेत् निर्णय है,' राजा ने कहा, 'अपनी वर्तमान शक्ति का भली प्रकार भान होते हुए भी हमने कायरों का नहीं वीर पुरुषों का निर्णय लिया है सेनापति...! और आप यूँ अधीर क्यों होते हैं...संभव है बहुरा हमारे अनुरोध को स्वीकार न कर, हमारा पुनः तिरस्कार ही कर दे और संभावना भी इसी की है सेनापति। जिस प्रकार उसने कुँवर के मार्ग में अवरोध उत्पन्न किया था, उससे तो यही प्रतीत होता है कि वह हमारे अनुरोध को अवश्य ठुकरा देगी और यदि ऐसा हुआ तो आप विश्वास करें, हम वही करेंगे जो आपकी इच्छा है।'

राजा की बात से संतुष्ट सेनापति उठ कर खड़ा हो गया और राजा को प्रणाम करते हुए कहा, 'अपने समस्त क्लेशों से मैं मुक्त हो गया महाराज! इतनी छोटी-सी बात भी मेरी समझ में नहीं आयी थी, आश्चर्य है मुझे। हमने अपने संस्कारों के अनुरूप, सब कुछ भूल कर बहुरा के पास अपना नाई भेज दिया है। यह जानते हुए भी कि वह दुष्टा पुनः हमारा अपमान ही करेगी, क्योंकि यही स्वभाव है उसका।'

कह कर सेनापति मुस्कराया और मुस्कराते हुए ही उसने पुनः कहा, 'अब मैं पूर्ण संतुष्ट हूँ। मनुआ ठाकुर के आते ही हम टूट पड़ेंगे उस दुष्टा पर...टूट पड़ेंगे' !

भरोड़ा का नाई डाला लेकर आया है, यह समाचार देखते-ही-देखते सारे अंचल में फैल गया। हाट-बाजार, खलिहान और चौपाल में बस एक ही चर्चा...क्या होगा अब? बखरी का प्रत्येक आंगन और प्रांगण इसी उत्सुकता में प्रतीक्षा कर रहा था कि बहुरा की अब प्रतिक्रिया क्या होगी और ऐसे में अमृता की स्थिति और भी विचित्र थी। उसकी तो श्वास ही अटक गयी। उसकी माता तो मानेगी नहीं...और क्रोधावेग में जाने क्या कर बैठेगी वह।

अपने मानस-पटल में अमृता ने देखा, उसकी माता ने पग-प्रहार से उसके गौना के डाला को ठोकर मार दिया है और भय से थरथराता नाई मूक खड़ा है।

उसने चाहा, दौड़ कर जा पहुँचे अपनी माँ के पास और उसके चरणों से लिपट कर अपने सुहाग की भीख माँग ले अपनी माँ से। परन्तु उसके पग ठिठक कर रुक गए. आँखों में सावन-भादो उतर आया। जड़ हो गयी वह। अंतस् में झंझावात उठा और मस्तक में चक्कर-सा आने लगा।

इसी घड़ी कक्ष में प्रविष्ट हो रही माया ने सम्हाला न होता तो मूर्च्छित होकर गिर पड़ी होती वह, 'यह क्या पुत्री!' माया ने उसे सम्हाल कर कहा, ' क्या कर रही है तू...!

कदाचित् तुझे पता नहीं... तेरी माँ ने तेरा गौना स्वीकार कर लिया है पुत्री! '

अप्रत्याशित था यह!

कुछ पल तो विश्वास ही न हुआ अमृता को। परन्तु उसके कक्ष में जब उसके गौना का डाला आ गया तो उसे विश्वास करना ही पड़ा।

डाले की एक-एक वस्तु को उसने स्वयं स्पर्श करके निहारा। सिंदूर, चूड़ी, लहटी, बिंदिया, कुँकुम और महावर के अतिरिक्त जब उसने चमचमाते कठमंगिया (घूंघट) को हाथों में उठाया तो उसकी आँखों में कई सपने तैरने लगे।

बहुरा ने षडयंत्र तो रच दिया परन्तु उसे पता था, राजा विश्वम्भरमल्ल अपने पुत्र को अकेला कदापि नहीं भेजेंगे। यह स्वभाविक भी था। शंखाग्राम एवं उत्कल के वीर-सेनानी उसके पास थे। साथ ही भुवनमोहिनी, कामायोगिनी एवं कुख्यात कापालिक टंका भी भरोड़ा में उसके साथ उपस्थित था। ऐसी स्थिति में उसका दामाद अकेला-निःसहाय उसके पास चला आए, ऐसी कल्पना भी उसके लिए हास्यास्पद थी।

वास्तव में यह प्रस्ताव नहीं, बहुरा की खुली चुनौती थी और महाकाल की सहायता से उसे विश्वास भी था कि वह अपने समधी का, उसके समस्त सहायकों सहित मान-मर्दन कर देगी।

वस्तुतः भरोड़ा के ठाकुर को ससम्मान विदा करने के उपरांत से ही वह मुदित थी क्योंकि अपने प्रतिशोध का अवसर, अनायास ही उसे प्राप्त हो गया था।

बखरी में जहाँ बहुरा ने अपना विकट अनुष्ठान प्रारंभ कर दिया था, वहीं भरोड़ा में बहुरा के निर्णय पर मिश्रित प्रतिक्रियायें होने लगीं।

रानी गजमोती ने निःस्वास लेते हुए राजा से कहा, 'बहुरा की पीड़ा मैं समझ सकती हूँ। जिसकी नव-विवाहिता पुत्री, विवाह होते ही परित्यक्ता हो गयी हो, उसकी व्यथा आप नहीं समझ सकते।'

'कदाचित् आप ठीक कह रही हैं' ! राजा ने कहा, 'परन्तु इसमें हमारा क्या दोष? ...हमें तो बलात् पलायन करना पड़ा था... और तनिक हमारे सेनापति की तो सोचिये। बहुरा ने कितनी नृशंसता से उसकी दायीं आँख नोच ली थी, फिर भी आप उसकी व्यथा की बात कर रही हैं...आश्चर्य है मुझे!'

रानी गजमोती की ममता और राजा विशम्भरमल्ल की मर्यादा परस्पर टकराती रही और अंततः अपने प्रिय पुत्र को अकेले भेजना उन्होंने अस्वीकार कर दिया।

सेनापति भीममल्ल को मनोवांछित फल प्राप्त हो चुका था।

हर्षित सेनापति, तड़ित-वेग से जा पहुँचा टंका के पास, 'कापालिक श्रेष्ठ!' अभिवादन के उपरांत सेनापति ने कहा, 'हमारा ठाकुर, बहुरा का दुष्टतापूर्ण प्रस्ताव लेकर वापस लौट आया है, ज्ञात है आपको?'

'जानता हूँ सेनापति...! ज्ञात है मुझे बहुरा ने क्या कहा और यही अपेक्षित भी था उससे... मेरे स्वामी को बंदी बनाना चाहती है वह।'

और कहते ही टंका हँस पड़ा।

'आपको विनोद सूझ रहा है कापालिक-श्रेष्ठ और मेरी भुजायें फड़फड़ा रही हैं,' व्यग्र स्वर में सेनापति ने कहा, 'जिस प्रकार वनराज के पंजों में आकर उसका निरीह शिकार तड़फड़ाता है, ठीक उसी प्रकार, मैं इस दुष्टा को अपनी बलशाली भुजाओं में तड़पता हुआ देखने को अति-व्याकुल हूँ।'

' दुर्बल से दुर्बल और वीर्यहीन-कापुरूष तक ऐसी स्थिति में उद्विग्न हो जायेगा सेनापति, जबकि आप तो अतुलित-बलशाली सिंह पुरूष हैं। आपके अंदर

प्रतिशोध की कैसी लपटें उठ रही होंगी, मैं समझ सकता हूँ। विश्वास करें, मैं चाहूँ तो इसी क्षण बहुरा समेत उसके सम्पूर्ण अंचल को भस्म कर सकता हूँ, अथवा स्वामी का आदेश हो तो उस दुष्टा को बांध कर आज ही यहाँ ला सकता हूँ। '

'नहीं कापालिक-श्रेष्ठ!' तड़प कर कहा सेनापति ने, 'मेरे प्रतिशोध की अग्नि तभी शांत होगी, जब मैं स्वयं अपनी भुजाओं से उस दुष्टा को दण्डित करूँ।'

कापालिक टंका के ओठों पर मुस्कान बिखरी देख सेनापति ने संकोचपूर्ण वाणी में पुनः कहा, 'इन नंगी भुजाओं से मैं हिंसक वनराज को भी परास्त कर सकता हूँ कापालिक-श्रेष्ठ! परन्तु बहुरा के तांत्रिक-छल का प्रतिकार मैं कैसे करूँ? ...इसी कारण आपके समक्ष।'

और सेनापति का वाक्य पूर्ण न हो पाया क्योंकि सेनापति की इस बात पर टंका पुनः हँस पड़ा।

राजरत्न ने कुछ नहीं कहा, परन्तु वैद्यराज ने राजा का पूर्ण समर्थन किया। उन्होंने कहा कि यह बहुरा का स्पष्ट षड्यंत्र है। शेष सभी लोग जहाँ राजा विश्वम्भरमल्ल से सहमत थे, वहीं शंखाग्राम का सेनापति वज्रबाहु तथा उत्कल के युवराज चन्द्रचूड़ ने अपना उग्र-आवेश प्रकट किया। सेना के वीरों को सन्नद्ध होने का उन दोनों ने आदेश दे दिया था। फलतः विवश होकर उत्कल सेनापति को आपातकालीन व्यवस्था में व्यस्त होना पड़ गया।

परन्तु, इसके विपरीत भुवनमोहिनी एवं कामायोगिनी मौन रह गयीं।

उत्कल नरेश पार्थसारथी और शंखाग्राम की राजमाता राजराजेश्वरी भी इसी विमर्श में निमग्न थे।

अंत में राजमाता ने कहा, 'कुँवर के पिताश्री का निर्णय ही मुझे उचित प्रतीत होता है महाराज...! यूँ तो मैंने अपने कुँवर की दिव्यता स्वयं जान ली है। इसीलिए मुझे विश्वास है, उस जैसी तामसी-साधिका की शक्तियाँ हमारे कुँवर का कदापि अहित नहीं कर सकतीं, परन्तु फिर भी लोकाचार की दृष्टि से कुँवर का अकेले प्रस्थान करना, मर्यादा का उल्लंघन है महाराज!'

'आपके कथन पर सहमत हूँ मैं राजमाता!' उत्कल नरेश ने मुद्रा बदलते हुए कहा, 'परन्तु यह तो कहिए, ऐसी स्थिति में अब हमें करना क्या है?'

'यही तो समस्या है महाराज! कुँवर के नहीं जाने का स्पष्ट अर्थ है, द्विरागमन का स्थगित हो जाना...और किसी भी स्थिति में हम ऐसा होने नहीं देंगे।'

'फिर तो संघर्ष!' उत्कल नरेश बुदबुदाये।

इसी प्रकार अलग-अलग टुकड़ों में विमर्श होता रहा और संध्या घिर आयी। रात्रि-भोज में जब समस्त अतिथि एवं आतिथेय एक साथ सम्मिलित हुए तो, इसी समस्या पर सामूहिक विमर्श प्रारंभ हो गया।

राजा विशम्भरमल्ल ने अपने निर्णय से सबको अवगत कराते हुए कहा, 'द्विरागमन हेतु हमने अपने जिस नाऊ को गौना के डाला के साथ बखरी-सलोना भेजा था, वह आज लौट आया है। समधिन ने मेरे पुत्र का द्विरागमन तो स्वीकारा है, परन्तु उसने कहा है कि वह अपने अंचल में हमारे बंधु-बांधवों एवं परिजनों का स्वागत-सत्कार करने में असमर्थ है अतः हमें अपने प्रिय पुत्र को एकाकी ही उसके अंचल में भेजना होगा।'

कहकर राजा ने सभी पर अपनी विहंगम दृष्टि डाली और पुनः कहा, ' आप सभी को विदित ही है, पूर्व में उसने मेरे प्रिय पुत्र पर प्राण-घातक मारण-पात्र का उग्र-

संधान किया था तथा मेरे निर्दोष सेनापति की एक आँख छलपूर्वक नोच ली थी। उसकी इन घृष्टताओं पर हमारे मौन ने उसे और भी नृशंस कर दिया, तभी तो उसने गंगा की मध्य-धारा में पुनः मेरे पुत्र पर तंत्र-प्रहार का दुःसाहस किया। बहुरा की निंरतर दुष्टता के कारण ही मेरी इच्छा नहीं थी कि मैं लोकाचार की परम्परा का निर्वहन करते हुए, उसके समक्ष द्विरागमन का औपचारिक प्रस्ताव भेजूँ, परन्तु आपके सामूहिक परामर्श ने मुझे विवश कर दिया। मुझे भली-भांति ज्ञात था कि इस निर्णय से मेरे वीर सेनापति अत्यंत आहत होंगे, फिर भी मैंने आप सबों का सर्वसम्मत प्रस्ताव स्वीकार कर लिया था। '

कहते-कहते राजा की वाणी अवरुद्ध हो गयी। क्रोध एवं प्रायश्चित का सम्मिलित भाव उनके चेहरे पर उभरा और क्षण भर के लिए वे मौन हो गए.

सबों की ध्यानमग्न दृष्टि उनपर ही थी।

क्षणोपरांत उन्होंने पुनः कहा, 'बहुरा के प्रस्ताव के नेपथ्य में क्या है, यह कहने की आवश्यकता नहीं। मुझे दृढ़ विश्वास है यदि मेरा पुत्र अकेला गया तो निश्चित ही वह उसका ग्रास बन जायेगा और यदि आप सब साथ गए तो भी संघर्ष निश्चित ही है। इसीलिए मैंने विचार किया है, मैं द्विरागमन को ही स्थगित कर दूँ।'

उपस्थित जन में से किसी ने भी जब कुछ न कहा तो राजा ने ही पुनः कहा, ' इस समस्या के समाधान पर आप सबों की क्या प्रतिक्रिया है...? कृपा करके मुझे बताऐं, क्योंकि मेरे सम्मुख मात्र दो ही विकल्प शेष हैं। या तो मैं अपनी

पुत्रवधु का द्विरागमन भूल जाऊँ या फिर बखरी से संघर्ष स्वीकारूँ, जबकि इन दोनों में कोई भी विकल्प मेरी आत्मा को स्वीकार नहीं है। ऐसी स्थिति में मुझे परामर्श दें...मुझे क्या करना उचित है। '

'अपने विवाहित पुत्र को पत्नीविहीन रखना किसी को स्वीकार नहीं हो सकता राजा जी' ! शंखाग्राम की राजमाता ने धीर-गम्भीर वाणी में कहा, 'परन्तु दुष्टता का प्रतिकार तो मानव-मात्र का धर्म है...आपकी आत्मा इसे क्यों नहीं स्वीकारती?'

'हाँ राजा जी,' तुरंत ही उत्कल नरेश बोल पड़े, 'राजमाता के कथन का मैं भी समर्थन करता हूँ...और हमारे आगमन का एकमात्र प्रयोजन भी यही है। हमें तो पूर्व ही से विदित था कि हमारे प्रिय कुँवरश्री के द्विरागमन का प्रारंभ ही संघर्ष से होगा। हम सभी इसके लिए पूर्व से तैयार भी हैं। साथ ही हमें विश्वास भी है कि हमें दीर्घ-संघर्ष की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। हमारी संयुक्त-शक्ति के समक्ष वह भला कब-तक ठहर सकेगी!'

राजा विश्वम्भरमल्ल के अंतस् का द्वंद्व और भी गहरा गया।

राजमाता एवं उत्कल नरेश ने जो कहा उसका आभास तो उन्हें पूर्व से ही था। संघर्ष को अवश्यंभावी मान कर वे चिंतित हो गए.