कुँवर नटुआ दयाल, खण्ड-18 / रंजन
अपने कक्ष में वीरा की विकट हँसी गूंज रही थी।
'हे महाकाल...हे भैरव!' नतजानु बहुरा कह रही थी, 'वैष्णवी-शक्तियाँ एकत्रित होकर तुम्हारी मर्यादा-हनन करने हेतु उद्धत हो चुकी हैं। इनके प्रतिकार में मैं अकेली पड़ गयी हूँ भैरव। मेरी पराजय तो वस्तुतः तुम्हारी ही पराजय है भैरव...! जान लो इसे और...और टूट पड़ो अपनी पूरी शक्ति से... टूट पड़ो...!'
प्रार्थना नहीं...मानो अपने भैरव को आदेश दिया उसने और फिर उसका भीषण अट्टाहास गूंजने लगा।
इतनी भी भोली नहीं थी माया। लम्बी उम्र देखी थी उसने। प्रारंभ में तो उसने समझा नहीं, परन्तु शीघ्र ही बहुरा के षड्यंत्र से भिज्ञ हो गयी वह।
कितनी बदल गयी थी उसकी पुत्री, उसने सोचा। स्मृति में बहुरा का, समस्त बचपन कौंध गया। कितनी भोली और अबोध थी बहुरा, जब उसकी माँ ने अपने प्राण त्यागे थे।
फिर एक-एक कर माया की स्मृति में बहुरा के वे दिन भी कौंधे, जब उसने उसे भैरव-चक्रीय नृत्य का प्रशिक्षण देना प्रारंभ किया था।
पोपली काकी के सान्निध्य में भैरवी-साधना और फिर बहुरा के सुप्त-चक्रों के जागरण की असफल चेष्टा का परिणाम और अमृता का जन्म।
माया के नयनों से आँसू बह निकले। वस्तुतः, कितनी अभागी थी बहुरा! उसके काले अंधियारे जीवन में सुख का कोई पल कभी आया ही नहीं। पहले पिता और बाद में माँ ने साथ छोड़ा।
बचपन व्यतीत हुआ तो उसने साथ छोड़ा जिसे इस बेचारी ने शक्ति के समक्ष अपना वर स्वीकार किया।
दुख ही दुख देखा हो जिसने, उसे अपना भी पराया लगे तो आश्चर्य क्या? परन्तु बहुरा के भ्रम का दण्ड अमृता को क्यों? माया की उद्विग्नता का कारण यही था।
बहुरा तो भ्रमित थी, परन्तु पोपली काकी? वह क्यों भ्रमित है? पोपली काकी के लिए अगाध श्रद्धा का भाव संचित था उसके हृदय में। पुरूष नेतृत्व से सर्वथा-विहीन उसके अंचल की पतवार थी काकी। काकी का ही सम्बल था जिसकी छाया में बखरी-सलोना सुरक्षित था...परन्तु हाय! मार्गदर्शिका की मति ही भ्रमित हो गयी। जाने किसका शाप लग गया हमारे अंचल को?
विक्षिप्तावस्था में माया ने भैरव के समक्ष भैरव-चक्रीय मुद्रा धारण कर ली। शनैः-शनैः उसके पग, नृत्य के लिए थिरके और प्रारंभ हो गया माया का भैरव-चक्रीय विकट नृत्य।
भरोड़ा में सर्व-सम्मति से संघर्ष का निर्णय किया जा चुका था। फलस्वरूप उत्कल एवं शंखाग्राम की सेना ने बखरी-सलोना की दिशा में कूच कर दिया। भरोड़ा की सेना भी सेनापति भीममल्ल के नेतृत्व में जा चुकी थी।
अंगरक्षकों से घिरे भरोड़ा के राजा, रानी, कुँवर दयाल एवं उत्कल नरेश ने भी प्रस्थान किया। उत्कल के युवराज चन्द्रचूड़ अपनी भार्या भुवनमोहिनी के साथ थे। कामायोगिनी की पालकी उनके पार्श्व में थी और सबसे अंत में धीमी चाल से चला जा रहा था कापालिक टंका।
माता के षड्यंत्र से पूर्णतया अनभिज्ञ, अबोध अमृता अपने शृंगार में मगन थी। पिया-मिलन की आस में उसकी साँसों की गति तीव्र हो गयी थी। न सखियाँ थी न सहेलियाँ, अकेली ही स्वयं का शृंगार करती अमृता की मनोदशा विचित्र हो गयी थी। कभी हँसती-कभी रोती अमृता ने वस्त्रभूषण धारण करने के उपरांत स्वयं ही अपना केश-विन्यास किया। माँग में सिन्दूर भरा। भाल पर चमकती बिंदिया लगाई. नैनों में काजल डाला और जूड़े में जुही के पुष्प लगाए.
प्रकोष्ठ में एकाकी बैठी अमृता ने सज-सँवर कर स्वयं ही स्वयं को निहारा और स्वयं ही लजा गयी। नैनों में मद और होठों पर मुस्कान लिए, अमृता ने अपने पाँवों में जब महावर लगाया तो उसकी दृष्टि अपनी मेंहदीविहीन हाथों पर जा अटकी। एक टीस-सी उठी। सखियों ने इन्हीं हाथों में मेंहदी रची थी। अपनी दोनों हथेलियों को उठा कर उसने निहारा। ये कोमल-सुकुमार हथेलियाँ मेंहदी से भरी थीं और आज...! नैनों की कोर से, आँसू की नन्हीं-सी बूंद, हौले से ढुलक कर उसके गाल पर आकर ठहर गयी।
अंदर कहीं कुछ निःशब्द टूटा। एक हूक-सी उठी। और...और बांध टूट गया।
भरी दुपहरिया में, अकस्मात् आंधी!
बहुरा के नेत्रों में चमक भर गयी। मुस्कराती काकी ने देखा बहुरा ने महाकाल के चरणों में रखा तीक्ष्ण कटार, दाहिने हाथ से उठा कर, अपनी बाईं कोहनी के नीचे चीरा लगा दिया। रूधिर की लाल बलबलाती धारा निकली। बहुरा ने झुक कर भूमि पर पड़ा नर-मुण्ड उठाया और बायीं भुजा से प्रवाहित रक्त को उसमें भरने लगी।
महाकाल के चरणों में जल रही चर्बी की दुर्गंध, पूरे प्रकोष्ठ में भरी थी। बाहर से आते पवन का शोर अब और भी बढ़ गया था।
काकी ने बहुरा से कुछ कहा। परन्तु, आँधी के शोर में उसके शब्द खो गए. बहुरा की दृष्टि काकी पर पड़ी। काकी ने पुनः क्या कहा, बहुरा सुन न सकी।
'तनिक उच्च स्वर में बोलो काकी!' दाहिने हाथ के मुण्ड में रक्त भरती बहुरा ने चीख कर कहा, 'इस शोर में कुछ सुनाई नहीं दे रहा।'
'मैंने कहा, शत्रु हमारी सीमा तक आ पहुँचा है।' काकी ने भी चीख कर कहा।
'आने दो' ! अट्टहास करती बहुरा उच्च स्वर में बोली, 'महाकाल की इस काली आँधी से कोई नहीं बचेगा...! कोई नहीं।'
'परन्तु पुत्री!' चिन्तित और तीव्र स्वर में काकी ने कहा, 'तुम्हारे इस प्रकोप से तो हमारा अंचल भी प्रभावित होगा...यह क्या अनर्थ किया तुमने?'
हँस पड़ी बहुरा!
'निश्चिंत रहो काकी!' हँसती बहुरा ने कहा, 'हमारा अंचल सुरक्षित है। शीघ्र ही यह काली-आँधी हमारी सीमा के पार जा पहुँचेगी और तभी इसकी संहारक-शक्तियों का जागरण प्रारंभ होगा।'
बहुरा की आकृति और भी वीभत्स हो गयी।
काकी ने उसके खुल कर बिखरते लम्बे सर्पीले केश को देखा। नरमुण्ड को बहुरा ने अपनी बायीं भुजा के नीचे से हटा कर महाकाल के चरणों में रख दिया और बिखरे केश से बायीं भुजा के चीरे को पोंछ कर, अपने ओठों से अपना ही रक्त चाटने लगी।
रक्त-स्त्रव रुका तो बहुरा ने अपना मुख उठाया। रक्त से सने वीभत्स
अधरों पर उसने जिह्ना फेरी परन्तु होठों के कोरों से ढुलके रक्त कण अभी भी चमक रहे थे।
'अपनी पुत्री की शक्ति तुम आज देखोगी काकी!' चीखते हुए उसने कहा, 'मैंने भैरव को जाग्रत कर दिया है।' शांत कुण्ड की तरफ हाथों से संकेत करते हुए उसने कहा, 'तुम विराजो काकी...! मैं अनुष्ठान प्रारंभ करती हूँ।'
बहुरा का शरीर झूमने लगा।
उसके नेत्र अड़हुल के पुष्प की नाईं लाल-टेस हो गये। उसके सम्पूर्ण शरीर ने क्रमशः विभिन्न मुद्राएँ धारण कीं और उसका लहराता तन कुण्ड के समक्ष आसीन हो झूमने लगा।
भैरवी-मण्डप के हवन-कुण्ड पर विराजी उग्रचण्डा को जब से बखरीवासियों ने देखा था, तभी से उनकी उत्कंठा जाग्रत हो गयी थी। मण्डप के अंदर प्रवेश करने का साहस किसी में न था, परन्तु उनकी उत्कंठा इतनी तीव्र थी कि कोई न कोई, प्रतिक्षण, दूर से ताक-झाँक करता ही रहता।
इस घड़ी सारे अंचल में यह समाचार दावानल की भांति फैला कि वह अमानुषी विक्षिप्त हो कर प्रलाप कर रही है।
अंचल के आबाल-वृद्ध, नर-नारी उत्सुकतावश मण्डप के चारों ओर पहुँचने लगे।
'कोई नहीं बचेगा यहाँ' !
बखरीवासियों ने देखा, उग्रचण्डा उन्मत्त हो चीख रही थी। काले-भुजंग पाषाण-सदृश उसकी अनावृत्त पृथुल छातियों पर पड़ा, उसका मुण्ड-माल, उसके थिरकते तन पर झटके खाता डोल रहा था।
उग्रचण्डा के इस उग्र-रूप ने, उपस्थित जनों का रोम-रोम खड़ा कर दिया। किसी का साहस नहीं था कि वह मण्डप में प्रविष्ट हो कर, इस अमानुषी से जिज्ञासा कर सके. डरे-सहमे बखरीवासी मौन खड़े उग्रचण्डा का प्रलाप सुन रहे थे।
तभी अप्रत्याशित रूप से प्रकृति ने अपना स्वरूप अनायास ही बदला।
भरी दोपहरी की बेला में सूर्य को मानो ग्रहण लगा। क्षितिज से उठते काले बादलों ने आकाश को ढँक लिया। हवाओं ने गति पकड़ी।
'काली आँधी!' कोई चीखा और मण्डप के चारों ओर एकत्रित जनसमूह में कोलाहल मच गया।
'भागो!' उग्रचण्डा चीखी, ' यह आँधी नहीं तुम्हारी बहुरा का प्रकोप है...
भागो...! ' चीखती उग्रचण्डा ने भैरव की प्रतिमा को एक पल निहारा फिर उसने क्या कहा, कोई सुन न पाया।
आँधी का शोर और भी तीव्र हो चुका था।
सूर्योदय हुए एक घड़ी ही बीती थी।
वज्रबाहु के सैनिक बखरी-सलोना के समीप पहुँच चुके थे। अगले ही कोस पर बखरी की सीमा शुरू होती थी। पार्श्व में कमला की धारा कल-कल करती प्रवाहित हो रही थी। दूर-दूर तक, कोई बस्ती नहीं थीं-कोई जनपद नहीं था।
बज्रवाहु को बखरी की सीमा-रेखा के पूर्व ही अपना अंतिम पड़ाव निर्मित करना था, इस मनोरम स्थल को पड़ाव के लिए पूर्णतः उपयुक्त समझ कर उसने सबको इसी स्थल पर रुकने का आदेश दे दिया।
सेनापति के आदेश से तत्काल शिविरों का निर्माण प्रारंभ हो गया। वज्रबाहु के दसों शतपथियों ने समस्त स्थल के दसों-दिशाओं को अपने सुरक्षा-घेरे में ले लिया। पाकशाला के प्रबंधकों ने अपना कार्य सँभाला और शिविर निर्माण-कर्मियों ने अपना। शीघ्र ही उत्कल के सेनानी भी अपने सेनापति के साथ आ पहुँचे तो हलचल और भी बढ़ गयी।
द्रुतगामी अश्वों पर पहुँचे अग्रदूतों ने समाचार दिया कि सभी लोग पाँच कोस निकट आ पहुँचे हैं। वज्रबाहु ने अनुमान लगाया कि सूर्यास्त के पूर्व ही सभी आ पहुँचेंगे। निर्माण-कार्य की गति तद्नुसार और भी तीव्र कर दी गयी।
पड़ाव निर्माण प्रारंभ हुए अभी एक ही घड़ी बीती थी कि सबने देखा, बखरी-सलोना के आकाश में काले बादलों का समूह भरने लगा।
वर्षा-ऋतु की अनुपस्थिति में काले बादलों की उपस्थिति चौंकाने वाली थी। शिविर निर्माण-स्थल का आकाश यद्यपि स्वच्छ था और भूमि पर चमकीली धूप पसरी थी, परन्तु बखरी के आकाश पर एकत्रित उन बादलों का भला क्या भरोसा? घनघोर वृष्टि की आशंका से सभी आशंकित हो गए.
तभी बखरी की ओर से आती हवा तीव्र होने लगी। धूल-कणों के अम्बार ने देखते ही देखते आँधी का रूप ले लिया और काली घटायें निकट आने लगीं।
निर्माण-कार्य स्थगित हो गया। आँधी की गति शनैः-शनैः और तीव्र होने लगी। हवा के शोर में किसी की बात भी ठीक से सुनाई नहीं दे रही थी।
इसे प्राकृतिक आपदा मान कर सभी प्रकृति के साथ संघर्ष कर रहे थे, परन्तु तांत्रिक चन्द्रा जान गया, यह विपदा प्राकृतिक नहीं, आहूत है।
विपत्ति तो अपेक्षित ही थी, परन्तु इस घड़ी चन्द्रा को इसकी अपेक्षा नहीं थी।
अपने सेनापति के पास दौड़ते हुए वह तत्काल जा पहुँचा। उसकी साँसें फूल रही थीं और आँखों में भय व्याप्त हो चुका था।
'सेनापति भागो!' चीखते हुए उसने उत्कल सेनापति से कहा, -'आक्रमण हो चुका है। यह आँधी नहीं बहुरा का प्रकोप है...तांत्रिक आँधी है यह...भागो ...सेनापति भागो...!'
कह कर एक क्षण भी चंद्रा रुका नहीं...बखरी की विपरीत दिशा में उसने दौड़ लगा दी। हतप्रभ सेनापति कुछ क्षणों तक किंकर्तव्यविमूढ़ खड़ा रहा, परन्तु अगले ही पल वह चीखा-'भागो...!'
घोड़े पर उसका शरीर उछला। हिनहिना कर घोड़े ने अपने दोनों पैर हवा में ऊपर उठा दिये। भयभीत सेनापति का शरीर भूमि पर गिर ही पड़ता कि तभी घोड़े ने अपने पैर पुनः भूमि पर रखे और सरपट दौड़ पड़ा।
इतनी विशाल संख्या में सशस्त्र सेना को जाते हुए देखना मार्ग के निवासियों के लिए अनोखी बात थी और बाद में जब उन्होंने कुँवर दयाल के साथ चल रहे विशिष्ट-जनों की अनुपम दिव्यता और भव्यता को देखा तो उनका कौतुहल और भी बढ़ गया।
सूर्याेदय के पूर्व ही उन्होंने सशस्त्र सेना को जाते हुए देखा था और अब इस अलौकिक समूह ने उन्हें और भी विस्मित कर दिया। देवी कामायोगिनी की पालकी ले जाती सुन्दरियों ने तो इन्हेें मंत्रमुग्ध ही कर दिया।
परन्तु उनके विमुग्ध नेत्रों को आनंदित करती सवारियों के निकल जाने के उपरांत उन्होंने जो दृश्य देखा, उसने सभी के रोंगटे खड़े कर दिए.
मुण्डमाल धारण किए यह कापालिक था ही इतना भयंकर! देखते ही सबके प्राण सूखने लगे और देखते ही देखते सम्पूर्ण मार्ग जन-शून्य हो गया।
धरती को कँपाता कापालिक टंका लम्बे-लम्बे पग बढ़ाता चला जा रहा था कि तभी उसने सुना, 'कैसे हो मित्र?'
टंका ने चौंक कर चारों ओर देखा। ध्वनि तो उसके स्वामी की ही थी! स्वामी ने पुकारा था उसे।
उसने चौकन्ना होकर ध्यान केन्द्रित किया तो वही स्वर पुनः सुनाई पड़ा, 'मैंने पूछा मित्र... कैसे हो तुम?'
'हाँ यह तो मेरे स्वामी ही हैं।' बुदबुदाते हुए उसने उसी स्थल पर नतजानू हो स्वामी को प्रणाम कर कहा, 'आज्ञा दें स्वामी।'
कुँवर के हँसने का स्वर आया।
पुनः टंका ने सुना, वह स्वर कह रहा था, 'वज्रबाहु ने पाँच कोस आगे अपना पड़ाव डाल दिया है मित्र!'
'तो मेरे लिए क्या आज्ञा है स्वामी!' अपने दोनों कर जोड़े बंद नेत्रों से टंका ने पूछा।
'उसे तत्काल तुम्हारी आवश्यकता है मित्र...! सहायता करो उसकी!'
टंका के अधरों पर हँसी आ गयी। हँसते हुए ही उसने कहा, 'आपकी लीला, आप ही जानें स्वामी...जिसके संरक्षक स्वयं आप हों उसे भला मेरी आवश्यकता क्या होगी स्वामी! फिर भी आपने अपने दास का मान बढ़ाने का निश्चय कर ही लिया है तो मैं तत्क्षण प्रस्थान करता हूँ।'
कह कर टंका ने उस भूमि को पुनः प्रणाम किया और तुरंत उठ कर खड़ा हो गया।
देवी भुवनमोहिनी ने भी कुँवर का स्वर सुना।
स्वर कह रहा था, 'माता!'
'मैंने सुन लिया है,' मुस्कराती हुई देवी ने कहा, 'टंका संग तुम्हारे संवाद को मैंने सुन लिया है प्रिय!'
इसी समय पालकी में विराजी देवी कामायोगिनी ने भी अपने शिष्य का स्वर सुना। स्वर कह रहा था, 'अपने चरणों में शिष्य का प्रणाम स्वीकार करें देवि!'
'तुम्हारा कल्याण हो वत्स!' देवी ने कहा, 'परन्तु आकाशवाणी से इस संवाद का प्रयोजन क्या है प्रिय!'
'एक सूचना!'
'कहो वत्स!'
'वज्रबाहु पर संकट के बादल उतर आये हैं, देवि!'
खिलखिला कर हँस पड़ी कामायोगिनी।
'आप हँस रही हैं देवि?'
'हँसंू नहीं तो और क्या करूँ?' देवी ने परिहास भरे स्वर में कहा, 'तुमने टंका को तो भेज ही दिया है न?'
कुँवर के हँसने का स्वर आया।
'आपको भी सब ज्ञात है देवि?' हँसी के बाद पुनः स्वर आया।
'मुझे भी' से क्या आशय है तुम्हारा? 'कामायोगिनी ने कहा,' तुम्हारा संकेत कदाचित् देवी भुवनमोहिनी की ओर है! '
'हाँ देवि!'
'परन्तु यह तो कहो...तुमने टंका को क्यों भेज दिया? यह आवश्यक था?'
'मित्र पर संकट आया तो मैंने मित्र को भेज दिया। क्या अनुचित किया देवि?'
देवी कामायोगिनी पुनः हँस पड़ी।
पड़ाव पर पहुँचते ही दोपहर की विस्मयकारी घटना का सबको समाचार मिला।
वज्रबाहु के अस्त्र और शस्त्र भला क्या प्रतिकार करते? बहुरा की काली-
आँधी में किसी के प्राण नहीं बचते। टंका ने आकर बचा लिया, अन्यथा भीषण जन-संहार हो चुका होता।
उत्कल नरेश पार्थसारथी ने आते ही जब अपने वीर सेनापति की कायरता का वृत्तांत सुना तो लज्जा से उनका मुखमण्डल नत हो गया। सेनापति के साथ-साथ कापालिक चंद्रा की भी कोई सूचना नहीं थी। सेनापति तो मिला नहीं परन्तु कापालिक टंका की खोज की जाने लगी। कुँवर के पिता, उत्कल नरेश तथा शंखाग्राम की राजमाता, टंका का अभिनंदन करना चाहते थे, परन्तु वह था कहाँ? पड़ाव का कोना-कोना छाना गया।
टंका कहीं नहीं मिला।
भयाक्रांत चंद्रा का भागता शरीर जब रुका तब तक साँझ घिर आयी थी। थोड़ी देर रुक कर उसने अपनी उखड़ी सांसों को व्यवस्थित किया। सूर्य अस्ताचल की ओर अग्रसर था। गोधूलि की बेला में उसने अपने चारों ओर दृष्टि घुमाई तो इस विस्तृत भू-भाग को जन-शून्य पाया।
कहाँ आ गया था वह और कहाँ होगा वह दुष्ट सेनापति? परन्तु इन विचारों से तुरंत ही मुक्त होकर उसने अपने इष्ट को धन्यवाद दिया कि अंततः उसकी प्राण-रक्षा हो गयी थी। बहुरा की शक्तियों को बहुत कम करके आंका था उसने। यह तो सर्वशक्तिमान सिद्ध-तांत्रिक निकली।
परन्तु क्या हुआ होगा शिविर में?
कोई जीवित भी बचा होगा? असम्भव! किसी भी प्राणी का बचना संभव नहीं था वहाँ।
परन्तु वह दुष्ट सेनापति भाग कर गया कहाँ?
उसे स्वयं पर क्रोध उत्पन्न हुआ। उसने व्यर्थ ही क्यों अपना मुख फाड़ा? मरने देता उसे वहीं।
अपने ही कृत्य पर उसे पश्चाताप होने लगा। किन्तु अपने मानस में उठ रहे समस्त विचारों को उसने तुरंत ही बाहर झटक दिया। शीघ्र ही रात्रि का
अंधकार छाने वाला था। इसीलिए आस-पास से चुन-चुन कर लकड़ियों को एकत्रित कर उसने प्रज्वलित कर दिया। पूर्णतः भयमुक्त होते ही पहली बार उसे पेट की ज्वाला का अनुभव हुआ। भूख की तीव्रता बढ़ गयी थी। अब इस समस्या का
समाधान कैसे हो? इसी चिन्ता में पड़ा वह विचार कर ही रहा था कि उसे दूर से आते घोड़े के टापों का क्षीण स्वर सुनाई देने लगा। टापों का स्वर क्रमशः निकट होता जा रहा था। संभवतः प्रज्वलित अग्नि को देख वह इसी ओर आ रहा था।
कहीं यह सेनापति तो नहीं? अंतस् में इस विचार के कौंधते ही क्षुधा की पीड़ा अनायास जाती रही और तत्काल उसके मुख पर कुटिलता का भाव उभर आया। स्वर्णिम अवसर था यह। इस दुष्ट की कथा का अब समापन ही उचित है।
और चंद्रा के अंतस् ने सेनापति को दण्डित करने का दृढ़ निश्चय कर लिया। विगत में कहे गए सेनापति के शब्द शूल बन कर उसे चुभने लग गए. दोनों दंत-पंक्तियां एक-दूसरे पर जम गईं।
मुखाकृति पर क्रूरता और अंतस् में प्रतिशोध लिए, उसने अलाव की एक प्रज्वलित लकड़ी उठा ली। हाथों में पकड़े उस जलती लकड़ी पर, उसकी त्रटक-दृष्टि स्थिर हो गयी। अग्निवाण से अभिमंत्रित करने की दृढ़ इच्छा से, उसने उसे और भी ऊपर उठा लिया।
इसी घड़ी अश्वारोही उसकी दृष्टि-परिधि में आ पहुँचा! सेनापति ही था यह। विक्षिप्तावस्था में वह बारम्बार एक ही शब्द दुहरा रहा था-'भागो...! भागो...! भागो!'
चंद्रा जब तक कुछ समझ पाता, अश्वारोही सेनापति चंद्रा की अनदेखी करता हुआ, तीव्र-गति से उसके आगे से निकल गया।
'यह तो पागल हो गया' , चंद्रा बड़बड़ाया, -'मृत्यु तो इसे मुक्त कर देगी। नहीं...यह तो उपकार हो जाएगा इस दुष्ट पर। इसे तो जीवित ही रहने दो। शव की भांति जीवित।' और अगले ही पल उसका अट्टहास गूंजने लगा।
निरंतर पराजय ने बहुरा का आत्मबल क्षीण कर दिया था। टंका की क्षमता सिद्ध हो चुकी थी। काल भैरव की आँधी को उसने जिस सहजता से छिन्न-भिन्न कर दिया था, उसनेइस कापालिक की अपराजेयता सिद्ध कर दी थी। बहुरा जान गई थी, इसी के कारण उसका विगत अगिनबान भी निष्फल हुआ था। वर्तमान परिस्थिति में इस विकट कापालिक का पराभाव किये बिना शत्रुओं का बाल भी बाँका होना संभव नहीं। परन्तु इस सर्व समर्थ सिद्ध का प्रतिकार भी तो संभव नहीं बहुरा ने स्वयं को इतना निर्बल और असहाय पूर्व में कभी नहीं समझा था। तो क्या करे वह? ... समर्पण कर दे अपना या भैरवाग्नि में स्वयं को दग्ध कर दे...क्या करे वह?
काकी भी स्तंभित थीं। टंका के ऐश्वर्य ने उन्हें भी विस्मित कर दिया था। अब पराजय निश्चित था। उन सब की सम्मिलित शक्ति भी टंका के प्रतिकार में समर्थ नहीं थी।
अवसादित बहुरा ने अंततः निर्णय लिया कि समर्पण ही करना है तो शत्रुओं के समक्ष नहीं, स्वयं भैरव के समक्ष ही समर्पण करेगी वह।
कुँवर के पड़ाव में सहस्त्रों मशालें प्रज्वलित थीं। भोजनादि के पश्चात् सभी निश्ंिचत होकर अपने-अपने शिविरों में विश्राम कर रहे थे।
और बहुरा के प्रकोष्ठ में महाकाल के समक्ष पोपली काकी का विकट भैरव-अनुष्ठान चल रहा था। विक्षिप्त बहुरा, घोर भैरव-चक्रीय नृत्य कर रही थी।
नृत्य करती बहुरा का तन स्वेद-कणों से भींग चुका था। उसके केश खुल कर बिखर गए थे और नेत्रों से अंगारे बरस रहे थे।
महाकाल के सम्मुख प्रज्वलित मशाल में जल रही चर्बी की दुर्गंध सम्पूर्ण प्रकोष्ठ में व्याप्त हो रही थी। भैरव का प्रकोप निष्फल हो चुका था और वह विक्षिप्त-हो बेसुध होकर नाच रही थी।
इसी घड़ी, द्वार पर त्रिशूल लिए कापालिक टंका प्रकट हुआ।
'बहुरा!' टंका का तीखा स्वर सम्पूर्ण प्रकोष्ठ में गूंजा।
अनायास नृत्य थम गया बहुरा का।
क्षण भर के लिए वह सिहर गयी। यह दुर्दांत कापालिक इस प्रकार अचानक क्यों आ गया।
काकी के लिए भी यह स्थिति अप्रत्याशित थी। सर्वनाश कर देगा यह तो। उसे बहुरा की चिन्ता सताने लगी। मन ही मन उसने भैरव को प्रणाम किया और इस अप्रत्याशित स्थिति से जूझने के लिए तैयार हो गयी। आँखों में रोष भर कर उसने कहा, 'टंका!' ...
टंका की दृष्टि ज्यों ही घूमी काकी ने अपनी आकृति पर क्रोध उभारा, 'तू अवश्य टंका ही है।' कहते हुए काकी ने विकट अट्टहास किया और झपट कर बहुरा के समीप जाते हुए उसने पुनः कहा, 'यही है पुत्री...टंका यही है! इसी ने हमारे शत्रुओं की हमसे रक्षा की है। इसे जानती हूँ मैं। इस नरभक्षी को अपनी सिद्धियों पर बड़ा अभिमान है। बंग-देश की दुर्बल प्रजा को आतंकित करके, स्वयं को इसने महाकाल घोषित कर रखा है। चलो, अच्छा है अब यह स्वयं यहाँ आ गया।'
कापालिकों के सिरमौर टंका के विषय में तो बहुरा भी जानती थी। सम्पूर्ण बंग इसके नाम से ही थर्राता था। नरबलि देकर इसने अनेक विकट सिद्धियां प्राप्त कर ली थीं, परन्तु इस घड़ी इस महान् कापालिक से भयभीत होने का अर्थ था, युद्ध के पूर्व ही समर्पण और बहुरा ने समर्पण करना नहीं सीखा है। वह संघर्ष करेगी। भले ही इस विकट सिद्ध से वह हार ही क्यों न जाए, परन्तु अपने जीते-जी वह कदापि पराजय स्वीकार नहीं करेगी। अतः उसने निर्णायक-संघर्ष की चुनौती स्वीकारते हुए कहा, 'यह स्वयं नहीं आया है काकी' ! अपने स्वर में फुफुकार भर कर उसने पुनः कहा, 'इसे दण्डित करने स्वयं भैरव ने ही हमारे पास भेजा है। इसकी सिद्धियाँ ही अब तक हमारे मार्ग की बाधा थीं। तुम देखती रहो काकी! तुम्हारी पुत्री इस उद्दंड को कैसे अपना ग्रास बनाती है।'
यह कह कर बहुरा ने पुनः अट्टहास किया।
टंका के प्रज्वलित नेत्रों में व्यंग्य उभरा-'तो तू मुझे अपना ग्रास बनाएगी' , गंभीर स्वर में टंका ने कहा, 'मूढ़! कदाचित् तू जानती नहीं, मैं कौन हूँ? इस अभागी बुढ़िया ने लगता है, टंका का केवल नाम भर ही सुना है।' काकी की ओर हाथ उठाकर उसने पुनः कहा-'इसे पता नहीं, मेरा बैरी स्वयं महाकाल का बैरी बन जाता है और बहुरा तू...' टंका ने बहुरा की ओर त्रिशूल उठाते हुए कहा, 'तुझे भी अपनी काली-शक्तियों पर बड़ा दंभ है न? तो प्रहार कर मुझ पर...प्रथम प्रहार का अवसर मैं तुझे ही देता हूँ बहुरा...! प्रहार कर मुझ पर, प्रहार कर...!'
टंका की वाणी में भरे आत्मविश्वास ने, बहुरा को विचलित-चिंतित कर दिया। परन्तु फिर भी उसने अपनी मुखाकृति पर निराशा का कोई भाव उभरने न दिया, वरन् इसके विपरीत अपने डूब रहे विश्वास को पुनः जाग्रत करने की चेष्टा में, टंका की इस चुनौती पर वह पुनः हँस पड़ी।
हँसते हुए ही उसने काकी से कहा, 'सत्य कहा तुमने काकी...अपनी वक्रोक्तियों के अतिरिक्त कोई अन्य शक्ति नहीं है इसके पास। तनिक दुस्साहस तो देखो इसका...मेरे सम्मुख आकर यह दुष्ट, मुझी को ही चेतावनी दे रहा है।'
स्थिर कदमों से चलता टंका, बहुरा के निकट आकर खड़ा हो गया।
उसके कोप-रहित, भावशून्य और सपाट नेत्रों में श्मशान-सी निस्तब्धता भरी थी। मुखाकृति पर रोष था न क्रोध और बहुरा ऐसे व्यक्तियों की अप्रकट-शक्तियों से पूर्णरूपेण परिचित थी।
त्रिशूल को भूमि पर ठोकते हुए उसने शांत किन्तु गंभीर स्वर में कहा, 'अपनी इच्छा पूरी कर बहुरा...! तेरा शत्रु तेरे समक्ष है...देखूँ तेरी शक्ति तेरे अधीन है भी या नहीं!'
अब क्या करे वीरा। अब तो निर्णायक घड़ी आ पहुँची थी। वह असमंजस में ही पड़ी थी कि इसी पल जल रही चर्बी की दुर्गंध, अनायास ही समाप्त हो गयी और सारा प्रकोष्ठ मदमाते शीतल पद्म-गंध से सुवासित होने लगा।
माया के नयनों में नींद कहाँ थी! यूँ ही पड़ी थी वह शय्या पर। अंततः नहीं मानी वह। प्रहार कर ही दिया उसने। अब इसे क्षमा कौन करेगा? इन्हीं चिन्ताओं से ग्रस्त, शय्या पर लेटी माया के अंदर विचारों का प्रवाह उमड़ रहा था।
उसका प्रिय कुँवर आ चुका था। ज्ञात था उसे। सूर्यास्त के पूर्व ही से
अधीर थी वह। कई बार उसने चाहा कि चल पड़े अपने पुत्र के पास, परन्तु हर बार उसके पग रुक गए और विवश माया व्याकुल होती रही।
आले में जल रहे दीपक के मद्धिम प्रकाश में, शय्या पर लेटी माया इन्हीं उलझनों में डूबी थी कि तभी उसने अपने प्रकोष्ठ में तीव्र पद्म-गंध का अनुभव किया। इस सुवास में मन-मस्तिष्क को आवेशित कर, आनंदमग्न कर देने की अद्भुत क्षमता थी। उसके नेत्र खुल गए. कक्ष में अवश्य कोई था। किसी की उपस्थिति का स्पष्ट आभास हुआ उसे। वह शय्या पर उठ कर बैठ गयी।
सारे कक्ष में उसकी दृष्टि दौड़ी परन्तु दृष्टि-पथ में कोई नहीं था।
इतनी तीखी आनंद-दायक सुगंध!
'कौन है कक्ष में?' माया का चकित स्वर कक्ष में फैला।
'मैं हूँ दीदी...तुम्हारा पुत्र!'
'कुँवर!' प्रफुल्लित स्वर में कहा माया ने।
'हाँ दीदी।'
यह तो मेरा कुँवर ही है। माया ने सोचा, परन्तु तुरंत ही उसके तन में झुरझुरी-सी हुई. विदेही स्वर! इसके शरीर का क्या हुआ? कहीं बहुरा ने।
'नहीं दीदी' , माया के अंदर ज्यों ही कुँवर के प्रति आशंका उत्पन्न हुई, वह हँसता स्वर पुनः उभरा, 'तुम्हारा विदेही-पुत्र अपने शरीर में ही उपस्थित है दीदी।'
'परन्तु कहाँ...कहाँ हो तुम पुत्र?'
'मैं कई स्थलों में हूँ दीदी।'
'कई स्थलों में' , विस्मय से कहा माया ने, ' किन-किन स्थलों पर उपस्थित हो पुत्र?
'तुम्हारे प्रकोष्ठ में तो हूँ ही। तुम्हारी सीमा के बाहर निर्मित अपने शिविर में भी हूँ और माता-बहुरा के प्रकोष्ठ में भी उपस्थित हूँ मैं।'
'बहुरा के प्रकोष्ठ में भी?' चौंकी माया
'हाँ दीदी...मेरा मित्र टंका, माता के दर्शनों की अभिलाषा लिए उनके पास आया है।'
आशंकित माया अब और रुक न सकी। बहुरा के प्रकोष्ठ की दिशा में तत्क्षण, उसके त्वरित-पग स्वयमेव उठ गए.
प्रकोष्ठ में अनायास भर आए पद्म-गंध ने काकी के साथ ही बहुरा को भी चौंकाया, परन्तु त्रिशूलधारी टंका की आकृति पर इस सुवास ने स्मित-भाव उभार दिया।
'यह सुगंध कैसी है?' सम्पूर्ण कक्ष में अपनी चौकन्नी दृष्टि डालती हुई काकी ने बहुरा से कहा, 'सावधान पुत्री...! यह तांत्रिक नहीं छलिया है!'
'क्या है यह?' वक्र दृष्टि से टंका को घूरती बहुरा ने कहा।
किन्तु प्रत्युत्तर में वह क्या कहता? पद्म-गंध तो उसके स्वामी की उपस्थिति का परोक्ष सूचक था। तो क्या स्वामी को उसकी क्षमताओं पर विश्वास नहीं? स्वयं उनकी उपस्थिति का तो यही अर्थ था।
परन्तु द्वंद्व का अवकाश कहाँ? स्वामी की अभ्यर्थना में तत्क्षण उसके दोनों कर, यंत्रचालित-से उठ कर जुड़ गए.
क्षण-भर पूर्व तक बहुरा की आकृति पर विद्यमान विक्षोभ, टंका की इस मुद्रा को देखते ही विस्मय में बदल गया। उसके मुख पर उलझन का भाव उभरा। विभ्रमित काकी भी प्रणम्य-मुद्रा में मुस्कराते टंका को विस्मित-हो देखने लगी।
अनायास उत्पन्न हुए इस पद्म-गंध के कारण मदमाती-शीतलता भरती जा रही थी। बहुरा को अपने अंदर अपूर्व आनंद-वर्षा का अनुभव होने लगा। उसका मस्तिष्क उसके कुपित हृदय का साथ छोड़ना चाह रहा था। परन्तु बहुरा बलपूर्वक होठ भींचते हुए अपने अंतस् के लुप्त हो रहे कोप को प्रज्वलित रखने की असफल चेष्टा कर रही थी।
स्वयं से संघर्ष में लगी थी वह कि इसी क्षण कक्ष में प्रविष्ट होती माया ने भी तीक्ष्ण पदम्-गंध का अनुभव किया। कक्ष की स्थिति सामान्य थी। उसने प्रणम्य मुद्रा में प्रसन्न कापालिक को देखते ही अनुमान कर लिया, यही टंका है, जिसे कुँवर ने अपना मित्र सम्बोधित किया था और पद्म-गंध के कारण उसे कुँवर की उपस्थिति का भी पूर्ण-विश्वास हो गया।
परन्तु कक्ष में संघर्ष का कोई चिह्न नहीं था। बहुरा और काकी भी सामान्य थी। संतोष की साँस लेती माया मुस्कराईं तो दोनों ने आश्चर्यपूर्ण नेत्रों से उसे देखा।
'तुम दोनों इस प्रकार क्यों घूर रही हो मुझे?' मुस्कराती माया ने विनोदी स्वर में कहा-'इस क्षण आकर मैंने कोई व्यवधान तो उत्पन्न नहीं कर दिया?'
'नहीं माया' ! काकी ने उत्तर में कहा-'तुमसे व्यवधान कैसा, परन्तु इस घड़ी अनायास...तुम्हारा आगमन अप्रत्याशित है पुत्री! इसीलिए हमें आश्चर्य हुआ! परन्तु यह तो कह...तू इतनी प्रसन्न क्यों है?' कहती काकी, माया के निकट आयी।
उसके कंधे पर हथेली रखकर काकी ने टंका को इंगित करते हुए व्यंग्य किया-'यह तुम्हारे प्रिय कुँवर का सेनापति है माया...! कापालिक टंका! पता है यह क्यों आया है...हमारे पास?'
'क्यों!' माया ने शांत वाणी में पूछा, 'क्यों आया है यह?'
'हमें पराजित करने!' उत्तर बहुरा ने दिया।
'मिथ्या वचन' , बाहुओं को गिराते हुए टंका ने मध्य में ही कहा-'यह सत्य नहीं है देवी माया!'
माया चौंक गयी।
'मुझे भी तुम जानते हो कापालिक?'
'जानता हूँ देवी!' टंका ने सादर कहा, 'मेरे स्वामी की श्रद्धेया हैं आप।' पुनः उसने बहुरा को इंगित करते हुए कहा, 'और इस विपथगामिनी गर्विता ने अर्द्ध-सत्य कहा है देवि! वस्तुतः मैं इसका गर्व-हरण करने आया था। इसके ही कारण मेरे स्वामी ने इतने कष्ट सहे हैं। कोई मेरे स्वामी को दुख दे...और उनका यह दास टंका, मौन रह जाए...यह असम्भव है देवी!'
माया की दृष्टि में जहाँ टंका के लिए सम्मान का भाव उभरा वहीं बहुरा हँस पड़ी।
हँसते हुए ही उसने माया से कहा, 'इस दंभी कापालिक ने अब-तक, मात्र अपने शब्द-बाणों का ही संधान किया है दीदी! ... और तुमने आते ही स्वयं देखा, किस प्रकार यह दुष्ट शून्य को प्रणाम कर रहा था।'
माया पुनः मुस्कराईं।
'मुझे ज्ञात है पुत्री!' हँसती माया ने कहा, 'मैं जानती हूँ टंका का प्रणाम किसे निवेदित था।'
'जानती है तू!' आश्चर्य से कहा काकी ने, 'तुमने भी ...स्वयं को रहस्योें के अनेक आवरणों में छिपा रखा है पुत्री!'
'छोड़ो काकी' ! व्यग्रतापूर्ण स्वर में बहुरा ने माया से कहा, 'तनिक कहो तो मुझसे दीदी और कौन उपस्थित है यहाँ...जिसे टंका का प्रणाम निवेदित था?'
हँस पड़ी माया, 'तुम्हारा जमाई...!' हँसती माया ने कहा, 'हमारा प्रिय कुँवर आया है पुत्री...अरी बड़भागी...स्वागत कर उसका, स्वागत कर!'
'मेरा जमाई!' विक्षोभ में कहा बहुरा ने, 'परन्तु है कहाँ वह?'
'मैं यहाँ हूँ माता!'
इस मृदुल स्वर पर चौंकी बहुरा! तत्काल उसकी दृष्टि स्वर की दिशा में घूमी तो उसने और सबने देखा, विहसित कुँवर द्वार पर खड़ा था। उसका समस्त तन अलौकिक तेज से आलोकित था। उसके चारों ओर दिव्य प्रभामण्डल उपस्थित था। काँधों पर पीताम्बर तथा वक्ष पर पुष्पों की माला शोभित थी और उसके अधरों एवं नेत्रों में स्निग्ध-सी स्मिता छलक रही थी।
देखती रह गयी बहुरा! उसकी अपलक विमुग्ध-दृष्टि कुँवर पर निर्निमेष पड़ी रही और मंत्रमुग्धा-सी जड़वत खड़ी रही वह।
इसी क्षण मुस्कान बिखेरती कुँवर की दृष्टि टंका पर जा टिकी और दृष्टि मिलते ही टंका ने नतजानु हो अपने स्वामी को प्रणाम किया।
'मेरी पूज्य माता-श्री को तुमने व्यर्थ ही रुष्ट कर दिया मित्र।' कुँवर ने प्रेममयी-वाणी में उलाहना दिया।
टंका ने विस्मय से अपने स्वामी को देखते हुए कहा, 'दास हूँ आपका! परन्तु स्वामी...!'
'किन्तु-परन्तु का कोई प्रयोजन नहीं मित्र' ! हँसते हुए कुँवर ने कहा, 'ये मेरी पूज्य माता हैं। भ्रांतियों के भँवर ने इन्हें भ्रमित कर रखा था, ऐसे में विवाद नहीं, संवाद की आवश्यकता थी मित्र!'
'भूल हुई स्वामी!' विनयावत् टंका ने पुनः कुँवर को प्रणाम करते हुए कहा, 'आपका दास अज्ञानी है। अज्ञानतावश की गयी मेरी इस भूल को क्षमा करें स्वामी और अपने सेवक को प्रायश्चित हेतु आज्ञा दें...! कहिए स्वामी, आपकी प्रसन्नता के लिए क्या करूं मैं?'
'खिलखिला कर हँस पड़ा कुँवर! हँसते हुए ही उसने कहा,' यही बड़प्पन है तुम्हारा। अंग-बंग और उत्कल में तुमसे बढ़ कर और कोई सिद्ध नहीं है मित्र! समस्त चौंसठ-योगिनियों को सिद्ध किया है तुमने। इसके अतिरिक्त, अपनी निरंतर विकट-साधना के फलस्वरूप, अनेक दुर्लभ विभूतियों को भी तुमने प्राप्त कर लिया है। परन्तु फिर भी मुझे...मान देने हेतु, अपनी अतिशय विनम्रता का प्रदर्शन करते हो मित्र...! यही तुम्हारी महानता है...! '
'स्वामी आप...' ! अत्यंत संकोच से टंका ने कहना चाहा, परन्तु कँुवर ने हाथ के संकेत से उसे रोकते हुए कहा, 'कुछ न कहो मित्र...! मुझे ज्ञात है, तुम क्या कहोगे। किन्तु इस घड़ी हमें एक दूसरे की विरुदावली करते रहने की आवश्यकता नहीं है। मुझे अपनी रुठी माता को मनाना है मित्र! मुझ पर...अपने पुत्र पर रूष्ठ हुयी माता का मनुहार करना है मुझे...अतः हे मित्र...! इस घड़ी विदा देता हूँ तुम्हें! मुझे मेरी माता के पास अकेला छोड़ दो!'
'जैसी आज्ञा स्वामी!' कहकर टंका ने विमुग्ध खड़ी बहुरा को ससम्मान निहारते हुए कहा, ' मेरे अपराध को क्षमा करें देवि...! मैंने एक पल भी यह नहीं सोचा कि आप मेरे आराध्य...मेरे स्वामी की माताश्री हैं! मेरे इस अक्षम्य अपराध
को क्षमा करने की कृपा करें देवि... तो मैं भारमुक्त-हृदय से प्रस्थान करूं! '