कुँवर नटुआ दयाल, खण्ड-1 / रंजन

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अमावस्या की अँधेरी रात ने बखरी सलोना अंचल को अपनी काली चादर तले समेट लिया था। समस्त बखरीवासी अपने-अपने झोपड़ों के अंदर गहन-निद्रा में खोये थे, परन्तु ड्योढ़ी में जाग थी।

बखरी की स्वामिनी भैरवी-रूपमती, मृत्यु-शय्या पर लेटी अपनी अंतिम सांसें ले रही थी। पास ही उसकी तेरह वर्षीया रूपसी पुत्री वीरा मौन बैठी अपनी माँ की डूबती साँसों को असहाय नेत्रों से निहार रही थी। पूरी ड्योढ़ी वाममार्गी सिद्धों, कापालिकों, तांत्रिकों और डायनों से भरी थी। वीरा के पास ही बैठी थी पोपली काकी।

पोपली काकी! अति वृद्धा पोपली काकी के निर्निमेष नेत्र रूपमती पर जमे थे। तभी रूपमती के अधर थरथराए-'पुत्री वीरा! मेरे पास आ!'

रूपमती ने अपनी प्यारी पुत्री को स्नेहमयी दृष्टि से देखते हुए कहा -'पुत्री! इस पूरी दुनिया में तुझे अकेली छोड़ कर जा रही हूँ...अपनी जाती हुई माँ को वचन दे पुत्री...साधना से कभी च्युत न होगी...मैंने तुझे' वीरा'बनाया है पुत्री...तुझे आगे बढ़कर' कौल' स्थान प्राप्त करना है...बोल वीरा...बोल

...वचन दे मुझे। '

वीरा की आँखें भर आईं। रूंधे गले से उसने कहा-'तुम चिन्ता न करो माँ, तुम्हारी समस्त अभिलाषा पूरी करूंगी। वाममार्ग में जितनी भी सिद्धियां हैं, उन्हें प्राप्त करूंगी।'

'जीती रह मेरी बच्ची!'

रूपमती की दृष्टि पोपली काकी की ओर मुड़ी तो काकी पास आ गई. काकी ने रूपमती के मस्तक पर हाथ रखकर कहा-'बोल पुत्री...बोल, क्या कहना चाहती है मुझसे?'

'काकी!' मेरी बच्ची का ध्यान रखना। इतने बड़े अंचल का प्रशासन इस फूल-सी बच्ची के हाथों सौंप कर जा रही हूँ। ...मुझे आश्वासन दो काकी, तुम छाया की तरह हमेशा इसकी रक्षा करोगी। '

'चिन्ता न कर पुत्री,' पोपली काकी के नेत्रों ने आश्वस्त किया। फिर प्रत्यक्ष बोली-'मैं तुम्हें वचन देती हूँ... वीरा संग इसकी छाया की तरह रहूँगी। मेरे रहते तुम्हारी वीरा को किसी का भय नहीं रहेगा। तुम निश्चिन्त रहो, रूप!'

ड्योढ़ी के विशाल कक्ष में एक ओर भैरव की विकराल प्रतिमा स्थापित थी। पत्थर के बने खम्भों पर टंगी मशालें जल रही थीं और लोगों का समूह भैरव का मंत्र बुदबुदा रहा था।

भैरवी रूपमती ने अपनी आँखों की पुतलियों को चारों तरफ घुमाते हुए भैरव की प्रतिमा को देखा। रूपमती के अधरों पर मुस्कान थिरकी। चेहरे से कष्ट के भाव विलोपित हो गए और वह सहसा शांत हो गयी।

किसी की समझ में न आया, परन्तु पोपली काकी जान गयी। उसने हाथों से रूपमती की खुली आँखों की पलकें बंद कर दीं।

पति गयानंद गोढ़ी तो पहले ही जा चुके थे, अब वीरा की माँ-बखरी सलोना की मालकिन भी अपनी अनंत-यात्रा पर चली गयी।

कोई रूदन न गूँजा। कोई कोलाहल न हुआ। भैरवी-रूपमती को वहीं समाधि दे दी गई. बखरी-सलोना के क्षेत्र से गंगा, गंडक और कोसी की पांच उप-नदियां बहती थीं। इन नदियों से होकर व्यापारिक और परिवहन नौकाएँ, गंगा की मुख्य धारा में पहुँचती थीं। नदियों के किनारे बने घाटों पर बखरी सलोना के कर्मचारी रात-दिन कर वसूला करते थे।

नौकाओं से वसूला गया कर ही बखरी-सलोना के राजस्व का मुख्य स्रोत था। परन्तु, बखरी की मालकिन को कभी इन प्रशासनिक व्यवस्थाओं को सम्हालने, देखने का अवकाश न था। अपने बाल्यकाल से ही वह वाममार्गी साधना में रत थी और पति की मृत्यु के पश्चात् तो उसे कापालिक सिद्धियों के प्रति ऐसा आकर्षण हुआ कि उसने संसार के क्रियाकलापों से नाता ही तोड़ लिया।

बखरी के कुछ लोग दबे स्वर में यहाँ तक कहते कि सिद्धि के चक्कर में ही उसने अपने पति की बलि दे दी।

पोपली काकी उसके प्रत्येक अनुष्ठान में साथ रहती। बखरी के लोग पोपली काकी को भय-मिश्रित श्रद्धा से देखते थे। उनका विश्वास था, पूरे बखरी-सलोना में उससे भयंकर सिद्ध और कोई दूसरी न थी। पोपली काकी के सम्बन्ध में अनेक अद्भुत किंवदन्तियां फैली थीं। कोई कहता-वह किसी को भी अपने मंत्र से भेड़ बना सकती है। किसी को भी सिर्फ़ आँखों से, क्षण में, भस्म कर सकती है।

पोपली काकी के चमत्कारों को किसी ने प्रत्यक्ष कभी नहीं देखा था। फिर भी, कुछ लोग इतनी विश्वसनीयता से अपनी आँखों-देखी कहानियाँ रस ले-लेकर सुनाते कि लोगों को विश्वास हो जाता कि पोपली काकी जब चाहे आकाश में उड़ सकती हैं, आंधी-पानी-तूफान ला सकती हैं, यानी जितने मुँह उतनी बातें।

बखरी की स्वामिनी रूपमती पोपली काकी को अपना गुरु मानती थी और उसी के सान्निध्य में सिद्धि का अनुष्ठान करती थी।

पोपली काकी की मानें तो स्वयं भैरव ने उसकी शिष्या को मृत्युदंड दिया था। साधना में त्रुटि हुई अथवा सिद्धि का दुरूपयोग? इस बात को स्पष्टता के साथ काकी ने कभी बताया नहीं और काकी से जिज्ञासा करने का साहस किसी का हुआ नहीं। ... और तीन वर्ष देखते-देखते व्यतीत हो गए.

अब वीरा षोडषी हो गई. सोलहवें वसंत ने मानो वन-उपवनों से मुख मोड़ कर अपने समस्त कोंपल और फूल रूपा के ही अंग-प्रत्यंग में खिला दिये। इतनी सौंदर्यवती कि आँख न ठहरे! इंद्रधनुष-सी सुंदर भवें! घटाएँ लजा जाएँ, ऐसी काली-घनी घुटनों तक लहराती केश-राशि, कमल-से सुन्दर नयन, गुलाब की पंखुड़ी-से कोमल रक्ताभ अधर! उन्नतवक्ष, भाल और नासिका! पतली कमर और सुपुष्ट तन!

परन्तु, इस अप्सरा-सी सुंदर बाला का मन उसके स्निग्ध सौंदर्य के सर्वथा विपरीत था। गुलाब की जगह उसे अड़हुल के रक्तवर्णी फूल अधिक भाते थे। चंदन और मेंहदी की जगह चिता की भस्म उसे प्रिय थी। चांदी की कटोरी से ज़्यादा नरमुण्ड को पात्रा बनाना उसे संतुष्ट करता।

साक्षात् सौंदर्य की मूत्र्त देवी के अंतःस्थल में मानो कापालिका की अघोरी आत्मा का निवास था।

पोपली काकी छाया बनकर निरंतर वीरा के साथ रहती, परन्तु अघोर साधना में रत वीरा अपनी माँ जैसी न थी। बखरी सलोना की नदियों के प्रत्येक घाट का प्रतिदिन निरीक्षण करना वीरा की आदत थी। उसकी सफेद घोड़ी का नाम सुन्दरी था, जो वीरा के बैठते ही हवा में उड़ने लगती।

बखरी के लोगों ने मान लिया था-वीरा से निपुण और कोई घुड़सवार पूरे अंचल में नहीं। पलक झपकते वह इस घाट पर होती तो अगले पल उस घाट पर।

नौकाओं से वसूली करने वाले उसके समस्त कर्मचारी भी हर क्षण भयभीत रहते। पता नहीं, उसकी मालकिन कब कहाँ आ पहुँचे। रूपमती के समय से नौकाओं की चुंगी कई गुणा बढ़ गई थी, जिस कारण कोष का आकार भी देखते ही देखते बढ़ गया।

कभी-कभी तो अर्द्धरात्रि में भी सुन्दरी की टापों के स्वर घाटों पर गूंजने लगते। घाट के कर्मचारियों के मध्य वीरा के भय ने कई मनगढ़न्त कहानियों को उत्पन्न कर दिया। किसी ने कहा, उसने काली रात में सुन्दरी पर बैठी मालकिन को बादलों से उतरते देखा है। कोई कुछ और कहता। इसी प्रकार की कई कहानियाँ प्रसिद्ध होने लगीं।

पोपली काकी के साथ बैठी वीरा पूरी गंभीरता से उनकी बातें सुन रही थी। काकी ने कहा-'आज तुम्हारी माँ होती तो देखती, मैंने तुम्हें इस उम्र में ही कापालिक साधना के किस स्तर पर पहुँचा दिया है।'

वीरा ने कुछ न कहा। मौन बैठी काकी की आकृति निहारती रही। वीरा को मौन देख काकी मुस्कुरायी।

'क्या सोच रही है मेरी पुत्राी?'-काकी ने हँसते हुए पूछा।

'काकी एक बात बताओ...मुझे आज भी माँ की बातों का रहस्य समझ में नहीं आया। अपनी मृत्यु-शय्या पर अंतिम सांस लेते समय माँ ने मुझे कहा था-' उसने मुझे वीरा बनाया है और उनकी इच्छा है कि मैं कौल बनूं। काकी, उसी दिन से मुझे उत्सुकता है। माँ के कथन का क्या भेद था? मुझे बताओ. '

काकी की आकृति सहसा गंभीर हो गई. उसने स्नेहपूर्ण नेत्रों से वीरा को देखते हुए कहा-'मैं तुम्हें इसका भेद समझाती हूँ। जीव मात्र को शाक्त तंत्र ने तीन कोटियों में विभक्त किया है, पुत्री। सबसे नीचे' पशु'है, जो माया के पाश में आबद्ध है। उसके ऊपर' वीर'और उससे भी ऊपर' दिव्य'। साधना के क्रम में पशुता सेे ऊपर उठकर वीर की कोटि में जाना पड़ता है और जो वीर की कोटि से ऊपर उठ गया, वह दिव्य बन जाता है। किन्तु, पुत्री, शाक्त-धर्म की अंतिम साधना यही नहीं है। इसके आगे' सिद्धान्त 'और' कौल'-ये दो सोपान और हैं।' कौल'की स्थिति में साधक ब्रह्मानुभूति प्राप्त कर लेता है। तुम्हारी माँ की इच्छा थी कि तुम शाक्त धर्म की इस श्रेष्ठतम साधना-स्तर को प्राप्त कर।'

वीरा ने विस्मय से काकी को देखा। उसकी काकी वह नहीं है, जो दिखती है। इसके अंदर ज्ञान का अगाध भंडार है। सहसा वीरा को अपनी तुच्छता का भान होने लगा। अपनी समस्त सिद्धियां उसे तुच्छ प्रतीत होने लगीं। उसने स्वयं को कितना शक्तिसम्पन्न समझ रखा था। अपनी सिद्धियों पर अभिमान था उसे। आज काकी की बातों ने उसके अभिमान को चूर-चूर कर दिया। एक हीन भावना ने उसे आ घेरा।

'क्या हुआ पुत्री.क्या सोचने लगी?'

काकी ने पूछा तो वीरा के अधरों पर उदासी भरी मुस्कान उभरी-'काकी तुमने आज तक मुझे जो ज्ञान दिया, मैंने निष्ठापूर्वक उसकी साधना की, परन्तु आज मुझे पहली बार यथार्थ का ज्ञान हुआ। मैंने तो कुछ किया ही नहीं। अब मैं यथाशीघ्र्र अपनी उन्नत साधनाओं पर पहुँचना चाहती हूँ...निर्देश दो, मुझे क्या करना अभीष्ट है?'

'पुत्री, तुम्हारे मन में अभी द्वन्द्व का प्रवाह है। सर्वप्रथम तुम्हें अपने शरीर और मन के द्वन्द्व को तटस्थ करना होगा, तभी उच्चस्तरीय साधना सिद्ध होगी।'

'तो मुझे बताओ काकी, इस द्वन्द्व से मेरी मुक्ति कैसे होगी?'

वीरा की बातों पर काकी को हँसी आ गई. हँसते हुए ही उसने कहा-'ठीक है वीरा, आज मैं तुम्हें वह मार्ग बताती हूँ। ध्यान से सुनो। योग-दर्शन के अनुसार, दक्षिण श्वास का नाम पिंगला है, जिसमें शिव का निवास है और वाम श्वास का नाम इड़ा, जिसमें शक्ति निवास करती है। साधक का कर्तव्य है कि वह पिंगला और इड़ा को एक स्थान पर लाकर उन्हें एकाकार कर दे। इस एकीकरण का नाम सुषुम्ना है। जब वे एक-दूसरे से बढ़कर या घटकर नहीं चलते तब वे तटस्थ स्थिति में पहुँच कर समरसता को प्राप्त होते हैं और तब शरीर और मन के समस्त द्वन्द्व स्वतः तटस्थ हो जाते हैं। इसकी साधना के लिए मैं तुम्हें प्राणायाम की शिक्षा दूंगी।'

काकी की रहस्य भरी बातों ने वीरा को एक नये रोमांच से भर दिया। उसकी आँखें स्वप्निल हो गयीं। कितना विज्ञान छिपा है उसके शाक्त धर्म में! बचपन से उसकी माँ ने उसकी चेतना में जो ज्ञान भरा था, उसका भेद अब प्रत्यक्ष हो रहा था। उसके पड़ोस में मात्र दस कोस की दूरी पर पूर्व दिशा में बसा भरोड़ा अंचल शाक्त धर्म का विरोधी था। वे लोग कमला मैया को पूजते थे और उसकी माँ उन्हें घृणित वैष्णव धर्मी कहती थी। उसकी माँ की इच्छा थी कि सारा जगत शाक्त धर्म का अनुयायी हो जाए, परन्तु भरोड़ा का केवट राजा और उसकी समस्त प्रजा वैष्णव थे।

वीरा को अब विश्वास होने लगा, शाक्त साधना के उच्चतम स्तर पर पहुँचने के पश्चात राज भरोड़ा समेत समस्त अंगमहाजनपद को वह शाक्त मार्गी बनाने में सफल हो जाएगी।

'तुम बार-बार विचारों में खो जाती हो पुत्री' काकी ने कहा तो वीरा अपनी विचार श्रृंखला से बाहर आकर मुस्कुरायी।

'क्या सोचने लगी थी?' काकी ने भी मुस्कराकर पूछा तो वीरा ने कहा-'कुछ नहीं काकी, माँ की स्मृति आ गयी थी। हमारे सारे पड़ोसी अंचल शाक्त हो जाएँ, यही उसकी इच्छा थी। उनकी दृष्टि में सबसे बड़ा कांटा था केवट राजा विश्वम्भर मल्ल का भरोड़ा अंचल, जो पूरी तरह वैष्णव मार्गी है।'

वीरा की बात पर काकी जोर से हँस पड़ी तो वीरा ने आश्चर्य से पूछा-'इसमें हँसने वाली क्या बात है, काकी?'

'राज भरोड़ा की चिन्ता व्यर्थ है-' काकी ने कहा-'विश्वम्भर मल्ल वृद्ध होकर भी आजतक निःसंतान हैं। यों भी हम जब चाहें मारण-तंत्र का प्रयोग कर, सहज ही उसे मुक्ति दे सकती हैं। परन्तु, जिसे दैव ही ग्रसने वाला हो उसपर अपनी साधना क्यों व्यर्थ करूँ? इसीलिए, पुत्री उसकी चिन्ता न कर। राजा के निधन के बाद यों भी वह समस्त अंचल हमारे अधीन हो जाएगा।'

काकी की बात सत्य हो सकती है। इस दृष्टिकोण से वीरा ने विचार न किया था। वीरा के मौन पर काकी ने पुनः कहा-'राज भरोड़ा पर मेरी भी आँखें लगी हैं; क्योंकि एक तो वहाँ के राजा हमारी अपनी ही जाति के हैं। हम गोढ़ी वह मल्लाह। हम अपने पड़ोस के अंचलों में, विशेषकर जहाँ हमारी अपनी जाति का प्रभुत्व है, वैष्णवी-धर्म को पनपने दें, यह भयंकर भूल होगी। इसका प्रतिकार तो सबसे आवश्यक है। ऊपर से मेरी आँखें भरोड़ा के तीन विशेष लोगों पर केन्द्रित हैं। मैं उस दिन का स्वप्न देख रही हूँ, पुत्री, जब वे तीनों हमारे प्रभुत्व में होंगे।'

'कौन काकी?' , वीरा ने प्रश्न किया।

'सर्वप्रथम तो भरोड़ा का राजरत्न मंगल-' काकी ने कहा-'वह अद्भुत प्राणी है। वैष्णव चक्रीय नृत्य में निपुण, मंत्रों का महारथी, गायक और संगीतज्ञ। इसने अपने मंत्रों द्वारा आश्चर्यजनक उपलब्धियां प्राप्त कर ली हैं। भरोड़ा राज के कौवों को अभिमंत्रित कर वह उसे विस्मयजनक ज्ञान से भर देता है। दूसरे वहाँ के वैद्य रसराज। ये न केवल वैद्यक के भण्डार हैं, अपितु शास्त्रों के भी प्रकाण्ड ज्ञाता हैं और तीसरे हैं महाबली भीममल्ल। इस भीममल्ल के शरीर में अमानुषिक बल है। यों तो सुदूर यवद्वीप में भी एक अत्यंत बलशाली पुरूष है पिच्छड़मल्ल, परन्तु बल और बुद्धि में मैं पिच्छड़ से बढ़ा हुआ भीममल्ल को ही मानती हूँ।'

वीरा ने राज भरोड़ा के मंगल और महाबली भीममल्ल के विषय में तो सुना था, परन्तु वैद्यराज रसराज का नाम न सुना था। मंगल के विषय में उसे जो नवीन जानकारी प्राप्त हुई, वह था उसका वैष्णव-चक्रीय नृत्य। स्वयं उसने भैरवी-चक्रीय नृत्य में निपुणता प्राप्त की थी। काकी ने माया दीदी को विशेष तौर पर वीरा के लिए आज्ञा दी थी। माया दीदी बखरी-सलोना की सिद्ध नर्तकी थी। नित्य सायंकाल माया के सान्निध्य में वीरा का नृत्य-प्रशिक्षण होता था।

वीरा से नहीं रहा गया तो उसने पूछा-'काकी, यह वैष्णवी चक्र नृत्य क्या हमारे भैरवी चक्र-नृत्य से भी श्रेष्ठ है?'

'नहीं पुत्री, ऐसी बात नहीं है। तुम्हें भैरवी-चक्र की ही साधना करनी है।'

'उसमें तो मैं निपुण हो चुकी हूँ, काकी।'

'निपुणता से सिद्धि नहीं प्राप्त होगी, पुत्री। इस नृत्य में प्रवीणता तभी होगी, जब तुम्हें विशिष्ट मुद्राओं का ज्ञान होगा। ... और मैं तुम्हें समस्त भैरवी मुद्राओं की शिक्षा दूंगी...तू चिन्ता न कर। अच्छा वीरा, अब मैं विश्राम करूंगी। कल सूर्योदय के पूर्व प्राणायाम का प्रथम ज्ञान दूंगी। अब मैं जाऊँगी।' कहकर काकी उठकर खड़ी हो गई.

'थोड़ी देर और रूको, काकी। तुमने तो मेरे अंतस् में आज अनेक जिज्ञासाएँ जगा दी हैं।'

'नहीं मेरी बच्ची अब आज नहीं-' कहकर काकी जाने के लिए उद्यत हुई कि उन्हें अचानक कुछ स्मरण हो आया। वे रूककर मुड़ीं और खड़ी हो चुकी वीरा से बोली, 'मैंने तुम्हें अपने अंचल की कुँवारी कन्याओं के प्रशिक्षण हेतु जो कुछ कहा था, तुमने कदाचित् उसकी गंभीरता को नहीं समझा, पुत्री।'

'नहीं काकी-' वीरा ने प्रतिवाद के स्वर में कहा-'मैंने समस्त व्यवस्था के निर्देश दे दिए हैं। कल ही महाभैरव के प्रांगण में सैकड़ों श्रमिक लग जाएँगे। पच्चीस बीघे में बाँस-बल्लों की घेराबंदी होगी, जहाँ बखरी की सारी कुँमारियाँ हमारे मार्ग में दीक्षित हो साधना प्रारंभ करेंगी।'

'जीती रह पुत्री' कहकर पोपली काकी ने प्रसन्नता के आवेग में वीरा को अपने अंक में भर लिया।


बखरी-सलोना अंचल के मध्य में जहाँ महाभैरव की मूर्ती स्थापित थी, वहाँ पच्चीस बीघे का क्षेत्रा कुँवारी कन्याओं का प्रशिक्षण-स्थल बन गया था।

पोपली काकी, माया दीदी और वीरा की देख-रेख में बखरी की सैकड़ों कुँवारी कन्याओं ने बड़े उत्साह से प्रशिक्षण में भाग लिया। समस्त कन्याओं की दीक्षा हुई और वे सब की सब भैरवी बन गयीं।

यहाँ तक तो ठीक था, परन्तु ज्यों ही यह रहस्य खुला कि भैरवी बनने के पश्चात् इन्हें आजन्म कुँवारी रहना होगा तो लड़कियों के साथ-साथ पूरा अंचल ही चौंक गया। अब क्या होगा? उनकी बेटियां क्या आजन्म कुँवारी रहेंगी?

पूरे अंचल में भयमिश्रित हलचल मची और कानाफूसी प्रारंभ हो गयी। जिनकी बेटियाँ अभी छोटी थीं, उन्होंने निश्चय कर लिया कि अपनी बच्चियों को भैरवी नहीं बनने देंगी, परन्तु जो शताधिक कुमारियाँ भैरवी बन चुकी थीं, उनके माता-पिता चिन्तित हो गए और उनके अंदर विद्रोह के अंकुर फूटने लगे।

वीरा की प्राणायाम-साधना स्थगित हो गई थी, क्योंकि बखरी की समस्त भैरवी का एक साथ प्रशिक्षण ज़्यादा महत्त्वपूर्ण था।

परन्तु, पोपली काकी संतुष्ट और प्रसन्न थी। उनका सपना साकार हो रहा था। रूपमती जो न कर सकी, उसे वीरा ने सहज ही कर दिखाया था। काकी को विश्वास हो गया, शीघ्र ही वामाचार-पद्धति का केन्द्र-बिन्दु यही अंचल होगा। यहीं से इस पंथ का प्रकाश, समस्त महाजनपद में आलोकित होगा। वैष्णवों ने सम्पूर्ण आर्यावर्त में हमें युगों-युगों से प्रताड़ित किया है और उनके चरणों में याचक-समान निकृष्ट जीवन जीते रहने को हम अभिशप्त रहे हैं। अब यह स्थिति नहीं रहेगी। हमें अपनी शक्ति जाग्रत कर संगठित होना ही होगा।

वीरा सत्रह की हो गयी। सामूहिक भैरवी साधना की प्रथम वर्षगांठ पर बखरी में अप्रत्याशित घटनाएँ घटने लगीं।

गनौरी गोढ़ी ने छिप-छिपाकर अपनी भैरवी कन्या माधुरी का विवाह भरोड़ा में तय कर दिया था। शर्त तय हुई कि बखरी में कोई बारात नहीं आएगी।

वर के पिता और वर, मात्र दो लोग आएँगे और गुप्त रूप से मध्य रात्रि में चुपचाप कन्यादान होगा। सभी कार्य योजनानुसार ही हुए, परन्तु पूर्ण स्वस्थ दूल्हे ने अचानक रक्त-वमन करते हुए प्राण त्याग दिये तो परिवार में कोहराम मच गया।

सम्पूर्ण बखरी सलोना में गनौरी गोढ़ी इकलौता व्यक्ति नहीं था, जिसने विवशता में अपनी भैरवी कन्या का इस प्रकार गुप्त विवाह आयोजित किया था।

श्रेष्ठ वैवाहिक लग्न होने के कारण उस रात और भी लोगों ने छिपकर, अपनी भैरवी कन्याओं का कन्यादान किया था। सारे के सारे दूल्हे काल-कवलित हो गए. फिर तो ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति ही शुरू हो गई.

लोगों के हृदय में अंगारे लोटते रहे, परन्तु सर्वत्र श्मशान-सी शांति छाई रही। क्या होगा अब? यही एक प्रश्न था, जिसका कोई उत्तर बखरी-सलोना के निवासियों के पास नहीं था।

विवाह-मण्डप पर ही उसके दामाद को दम तोड़े महीनों बीत गए, परन्तु अभी भी इस आंगन में उसकी चर्चा समाप्त नहीं हुई थी। गनौरी की भैरवी पुत्री माधुरी अवसादी हो चुकी थी। साधना में निरन्तर त्रुटियां होने लगीं तो वीरा ने उसे कुछ दिनों तक साधना छोड़ देने का निर्देश दे दिया था। उस दिन उसकी सखी रूपौली आयी थी। आंगन में रूपौली के पास माधुरी, उसकी माँ और पास-पड़ोस की स्त्रियां बैठ कर बतियाने लगीं।

'अरी रूपौलिया-' माधुरी की माँ ने कहा-'तुमने तो पुत्री, सुनती हूँ कई सिद्धियाँ प्राप्त कर ली हैं। यह तो बता हमें, बखरी के जमाइयों को कौन खा जाता है, पुत्री?'

रूपौली सहसा गंभीर हो गई. उसके मुख से अनायास निकला 'वीरा!'

'अरी, क्या कहती है पगली?' एक दूसरी औरत ने बीच में टोका-' वीरा

चौधराइन को तो किसी ने मंडप में न देखा न सुना, वह कैसे मारेगी हमारे जमाइयों को? '

'गुप्त बात है चाची-' रूपौली ने धीरे से कहा-'सुनो, वीरा दीदी ने डाकिनी सिद्ध किया है। तीन-तीन डाकिनियाँ हैं वीरा दीदी के पास। विवाह-मण्डपों में वही आकर बैठ जाती हैं और ठीक कन्यादान के समय दूल्हा को रक्त-वमन होने लगता है।'

गनौरी गोढ़ी के आंगन में स्त्रियों ने आश्चर्य के साथ सहमति में सिर हिलाए.

एक स्त्री ने कहा-'ठीक कहती है रूपौलिया। मैं तो चैंक गई थी। गितिया माय के अंगना में उसकी बेटी का मण्डप सजा था। दूल्हा-दुल्हन के आते ही एक सुन्दर-सी कन्या जाने कहाँ से आकर बैठ गई. मैंने तो गितिया माय से तभी पूछा भी था लेकिन वह तो औल-बौल थी, कहती क्या? अब समझ में आया। तो डाकिनी थी वह।'

रूपौली डर गई. उसे इस रहस्य का उद्घाटन नहीं करना था। भयभीत होते हुए वह उठी-'अभी मैं जाती हूँ चाची, फिर आऊंगी।'

माधुरी मौन बैठी रही और रूपौली तीव्रता से चली गयी।

माधुरी माय के अब बोल फूटे। उसने पास बैठी औरतों से कहा-'इ रूपौलिया क्या कहेगी? मुझे तो लगता है वीरा चौधराइन ही रूप बदलकर आती है। बड़ी बहरूपिया है वह। मंत्र से कभी कुछ कभी कुछ बन जाती है। मधुरिया-बाप को सब पता है। वही कहता है कि वीरा बहुरा है।'

'बहुरा क्या बहिन?' एक स्त्री ने पूछा तो दूसरी ने झट कह दिया-'नहीं समझी? बहुरा माने बहुरूपिया। मंतर से कुछ भी रूप बदल सकती है यह बहुरा। अरे, मधुरिया माय ठीके कहती है। वीरा असल में बहुरा है।'

'वह तो ठीक है-' मधुरिया माय ने कहा-' अब यह तो कहो, बहुरा चौधराइन के रहते हमारी बेटियों के हाथ कैसे पीले होंगे? '

मधुरिया माय के प्रश्न का उत्तर किसी के पास नहीं था, परन्तु एक बात हुई. मधुरिया माय के आंगन में वीरा का जो नया नामकरण हुआ, वह दावानल की तरह पहले बखरी सलोना में फैला और शीघ्र ही पास-पड़ोस के अंचलों में वीरा, बहुरा डाइन के नाम से कुख्यात हो गई.

बहुरा ने जब अकेले राज भरोड़ा के कई नवयुवकों की आहुति ले ली तो सारे भरोड़ा में हलचल हो गयी। राजा ने घोषणा करा दी-भरोड़ा का कोई निवासी अपने लड़के का सम्बन्ध बखरी में न करे।

इस घोषणा के साथ-साथ भरोड़ा के अतिरिक्त, समस्त अंगजनपद में यह बात तेजी से फैली कि बखरी की डाइन बहुरा अपने गाँव के दामादों को खा जाती है। कई किंवदन्तियां भी जुड़ने लगीं। कोई कहता उसने दो सौ दामाद खाये, कोई दावा करता आठ सौ।

इस अंतराल में बहुरा एक वर्ष और बड़ी हो गई. मात्र अठारह वर्ष के वय में उसने पोपली काकी से कई और भयंकर सिद्धियां प्राप्त कर लीं। अब बहुरा के पास शक्तिशाली डाकिनियां भी थीं। जिन्हें उसने डाकिनी-विद्या सिद्ध कर प्राप्त किया था।

तीनों डाकिनियाँ बहुरा की दासी बनकर उसकी प्रत्येक इच्छा पूर्ण करती थीं। इसके अतिरिक्त बखरी सलोना की सैकड़ों कन्याएँ भैरवी बनकर वाममार्गी सिद्धियों में अग्रसर थीं। समस्त भैरवी की प्रधान पोपली काकी थी। परन्तु, भैरव चक्रीय नृत्य की शिक्षा का दायित्व बहुरा ने अपने ऊपर ले रखा था।

भैरव के समक्ष बहुरा नृत्य करती और समस्त भैरवियाँ बहुरा को देखकर उसका अनुकरण करतीं।

बखरी सलोना में सब कुछ योजनानुसार चल रहा था कि तभी बहुरा की डाकिनी ने एक दिन बताया कि भरोड़ा के राजा कमला मैया की अनुकम्पा से पुत्र प्राप्त करना चाहते हैं।

यह सूचना विस्फोटक थी। बहुरा की दिनचर्या को इस एक सूचना ने अनायास बदल दिया। अब प्रायः अपनी ड्योढ़ी में ही केन्द्रित हो राज-भरोड़ा की प्रत्येक गतिविधि पर उसने दृष्टि जमा दीं।

माया दीदी और पोपली काकी भी गंभीर हो गयीं।

'यह अवश्य उस मंगल की ही योजना है-' माया ने कहा-'वह अत्यंत कुशाग्रबुद्धि सिद्ध तांत्रिक है।'

बहुरा के पास ही दोनों बैठी थीं, जब माया ने अपनी आशंका व्यक्त की।

'ठीक कहती हो माया-' पोपली काकी ने कहा-'परन्तु पुत्र-प्राप्ति अनुष्ठान में वह वैद्य रसराज भी अवश्य सम्मिलित होगा। वह कई चमत्कारिक औषधियों और रसायनों का ज्ञाता है। उसकी औषधि और मंगल के तंत्र... यही वह सामंजस्य हो सकता है, जिसने वृद्ध राजा को पुत्र-प्राप्ति-अनुष्ठान के लिए प्रेरित किया होगा।'

'तो अब हमें क्या करना है काकी-' बहुरा ने उतावली होकर अंत में पूछा।

'रानी गजमोती के ऋतुकाल का पता करना होगा-' पोपली काकी ने मानो मन ही मन निर्णय लेकर कहा-'गजमोती विगत माह रजःस्वला कब हुई और उसकी रजोनिवृत्ति कब हुई, इसका ठीक-ठीक पता करना होगा।'

पोपली काकी ने कुछ क्षण मौन रहकर पुनः बहुरा से कहा-'यह तुम्हारी परीक्षा है वीरा। अब तुम्हें अपनी विद्या से पता करना है, गजमोती की रजोनिवृत्ति कब हुई. इसका पता चलते ही उसके आने वाले ऋतुकाल की गणना सहजता से हो जाएगी...,' काकी के अधरों पर विषैली मुस्कान थिरकी, फिर उसने कहा'पता कर वीरा...शीघ्र पता कर। जब राजा-रानी का संयोग ही न होगा तो भला गर्भ-धारण कैसे होगा और गर्भ-धारण के अतिरिक्त, पुत्र-प्राप्ति अनुष्ठान संभव कैसे होगा, वीरा...संभव कैसे होगा?'

कहते-कहते पोपली काकी ने अट्टहास लगाया। माया हँसी और वीरा मुस्कुराने लगी।