कुँवर नटुआ दयाल, खण्ड-2 / रंजन

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कार्तिक-पूर्णिमा की पूर्व रात्रि से ही भरोड़ा के नर-नारी और बाल-वृद्ध हाथों में प्रज्वलित मशालें थामे, गाते-बजाते और नृत्य करते घाट पर एकत्रित होने लगे।

भरोड़ा के मल्लाह-राजा की ओर से घाट की विस्तृत भूमि को समतल करवाकर तंबू लगवाए गए थे। समतल जमीन पर जन-समूह ने मेले का स्वरूप ग्रहण कर लिया था। कहीं नट-नटी के नृत्य हो रहे थे, कहीं ढोल-मंजीरे की थाप पर कुल-देवी कमला मैया के गीत गाए जा रहे थे।

अवसर था कार्तिक-पूर्णिमा में कमला स्नान का और परम्परानुसार, प्रथम स्नान मल्लाह राजा-रानी करते थे फिर उनके कुटुम्ब। राजा-रानी द्वारा कमला-मैया का पूजन होता, महारती की जाती और सारा वातावरण कमला-मैया के जयघोष से गूँज जाता।

भरोड़ा के मल्लाह राजा विश्वम्भर मल्ल वृद्ध थे। अपनी प्रजा के दुख में दुखी और सुख में सुखी रहने वाले राजा को हमेशा एक ही चिन्ता सताती। उन्हें कोई पुत्र न था। राजा की पतिव्रता तथा सुशील रानी थी-गजमोती।

समस्त भरोड़ा धन-सम्पदा से परिपूर्ण था। समय पर वर्षा होती थी और देवी कमला की कृपा से न कभी अतिवृष्टि होती न कभी सूखा पड़ता। किन्तु पुत्र-विहीन होने के कारण राजा और रानी दुखी थे। राजा-रानी के दुख से सारी प्रजा दुखी थी। भरोड़ा की प्रजा ने निश्चय किया था कि कार्तिक-पूर्णिमा के इस अवसर पर वे अपनी आराध्य देवी कमला-मैया से अपना युवराज माँगेगे।

रात्रि के तृतीय प्रहर तक सारी प्रजा आ चुकी थी और गीत-नृत्य-संगीत के समवेत् स्वर दसों दिशाओं में व्याप्त होने लगे थे।

हवेली में राजा-रानी ने भी रात्रि के तृतीय प्रहर के प्रारंभ में शय्या त्याग दी थी। मल्लाह राजा के प्रधान सहायक और कुटुम्ब के लोग हवेली में राजा-रानी की अगुआनी के लिए उपस्थित हो चुके थे।

हवेली के बाहर राजा-रानी की पालकियां सजाई जा रही थीं और सारे कहार अपनी-अपनी पगड़ियां बांधने लगे थे। राजा के इकत्तीस कहारों की पगड़ियां सुनहरी थीं। रानी के कहार चांदी-सी चमकती रेशमी रजत पगड़ियां बांधते थे।

राजा की पालकी को इकतीस, रानी की पालकी को इक्कीस और बाकी कुटम्बियों की पालकियों को ग्यारह-ग्यारह कहार उठाते थे। कहारों की पगड़ियों की ही भांति सभी पालकियों के वर्ण भी तद्नुसार सुनहरे, रजत, लाल, नीले, हरे और श्वेत वर्ण के रेशमी कपड़ों और झालरों से सजाए गए थे।

हवेली के बाहर कहारों, प्रहरियों का जमघट था और अंदर शांत बैठे लोग व्याकुलता-पूर्वक राजरत्न मंगल की प्रतीक्षा कर रहे थे, क्योंकि उसके शकुन-काक के निर्देश पर ही राजा-रानी का प्रस्थान संभव था। यद्यपि राजा-रानी के प्रस्थान में एक प्रहर शेष था तथापि राजा के सेनापति भीममल्ल उनकी अनुपस्थिति से व्याकुल थे।

विख्यात सार्थवाह मंगल की ख्याति राज-भरोड़ा से फैलकर सुदूर यवद्वीप तक छाई थी। तांत्रिक मंगल कौव्वों को साधता तथा उसे अनोखे प्रशिक्षण देता था। अनोखे इसलिए कि इसके द्वारा प्रशिक्षित-अभिमंत्रित कौवों का एक वर्ग मार्ग-भूले पथिकों-वणिकों को दिशा-ज्ञान कराने में समर्थ था, दूसरा आने वाली ऋतु की सटीक भविष्यवाणी करता, तीसरा आसन्न-संकट की चेतावनी देता और चौथा शकुन-अपशकुन का विश्लेषण करता।

मंगल ने इनके विभिन्न गुणों के अनुसार इनका नाम रखा था-दिशा-काक, ऋतु-काक, संकट-सूचक-काक और शकुन-काक। मंगल के कौवों की बिक्री सुदूर क्षेत्रों तक होती और राजरत्न मंगल पर्याप्त से ज़्यादा ही धन उपार्जित करता।

नाटे कद, सुगठित मांसल-सांवले-शरीर वाले मंगल की आँखें बड़ी सलोनी थीं। इन सलोनी आँखों में सबके लिए अपनापन-सबके लिए प्यार छलकता था। सुन्दर-सांवले वक्ष पर चमकीले मोतियों की माला, कमर पर रेशमी नारंगी धोती और तन पर श्वेत रेशमी अंगवस्त्र। कंधे तक लटकते काले-धने-घुंघराले केश और भाल पर चंदन का लेप। कुल मिलाकर, मंगल का व्यक्तित्व ऐसा सम्मोहक था कि देखने वालों की आँखें बरबस ही खींच ले।

राज-भरोड़ा के कुछ लोग कहते कि मंगल मंत्रों से कौवों को सम्मोहित करता है और बाद में अपनी तांत्रिक शक्तियों का आवाहन कर उसमें विभिन्न गुण और विद्या समाहित कर देता है।

कुछ लोग उसे तांत्रिक से ज़्यादा निपुण नर्तक समझते और कुछ लोगों की दृष्टि में वह महान वादक तथा संगीतज्ञ था।

लेकिन जबसे उसने अपने समस्त ज्ञान और साधना का प्रयोग कर सर्वज्ञ-काक जग्गा का राजा की हवेली में प्रदर्शन किया, मल्लाह राजा ने उसे राज-भरोड़ा के राजरत्न की उपाधि से विभूषित कर दिया।

अब राजा अपनी छोटी-छोटी गतिविधियों में भी जग्गा का परामर्श लेने लगे थे।

विशेष तौर पर जब कभी राजा अपनी हवेली से निकलते, जग्गा ही शकुन-अपशकुन का विचार करता और इसी कारण भीममल्ल व्याकुलता से राजरत्न की प्रतीक्षा कर रहे थे।

विशालकाय भीममल्ल को राज्य की प्रजा साक्षात् पांडव वीर भीमसेन का अवतार मान बैठी थी। भीममल्ल के ही कारण कमला की धारा मगरमच्छों से विहीन हुई थी, प्रजा निःशंक स्नान-पूजन करती और वणिक निर्भय हो नौकायन से व्यापार करते थे।

कहते हैं, एक बार एक जलग्राह ने भरोड़ा घाट के वणिकों और प्रजा में भय व्याप्त कर दिया था। वणिक सामग्री भरी नौकाएँ छोड़ कर मल्लाह राजा की शरण में त्राहिमाम् करते उपस्थित हुए. राजाज्ञा से भीममल्ल ने भरोड़ा राज्य की आराध्य देवी कमला मैया की आराधना कर जल में ही ग्राह से भीषण युद्ध किया और विजयी हुए.

अद्भुत पराक्रमी भीममल्ल अतिभौतिक शक्ति-सम्पन्न होते हुए भी शांत प्रकृति के धीर-गंभीर पुरुष थे तथा राजा-रानी के प्रति पूर्ण श्रद्धा से समर्पित थे।

उन्हें चिन्ता हो रही थी कि राजा के आगमन के पूर्व अगर मंगल नहीं आए तो क्या होगा? उसके जग्गा-काक की अनुपस्थिति में कमला-घाट हेतु राजा-रानी का प्रस्थान कैसे होगा?

भीममल्ल इसी चिन्ता में निमग्न थे कि तभी हँसता-मुस्कुराता मंगल कंधे पर सर्वज्ञ-काक जग्गा को बैठाए दरबार में प्रविष्ट हुआ।

मंगल को देखते ही भीममल्ल की चिन्ता मिटी और वे हँसते हुए उसके स्वागत में खड़े होकर कहने लगे-'स्वागत राजरत्न! आपकी प्रतीक्षा में चिन्तित था, दर्शन होते ही अब निश्चिन्त हुआ।'

' क्यों वीर शिरोमणि! इसमें चिन्ता की क्या बात थी? अभी तो रात्रि का तीसरा प्रहर ही व्यतीत हो रहा है। राजा-रानी का प्रस्थान तो चतुर्थ प्रहर के प्रारंभ में होगा...

राजा जी ने शय्या-त्याग किया? '

'हाँ, राजरत्न! वे तैयार हैं।'

' उत्तम! कृपया सूचना प्रेषित करा दें, चतुर्थ प्रहर के प्रारंभ में वे पधारने की कृपा करें। '

भीममल्ल राजा को सूचित करने की व्यवस्था करते कि इसके पूर्व ही मंगल के कंधे पर बैठा सर्वज्ञ-काक जग्गा के पंख जोर से फड़फड़ाए.

जग्गा क्या कहना चाहता है? भीममल्ल सहित समस्त उपस्थित व्यक्तियों की उत्सुक आँखें जग्गा की ओर उठ गईं।

'कांव-कांव-कांव राजा जी आ गए-रानी जी आ गईं। राजा जी आ गए रानी जी आ गईं।' जग्गा ने चोंच खोलकर उच्चारण शुरू किया।

राजा-रानी वास्तव में पधार रहे थे। आयुवृद्ध राजा विश्वम्भरमल पूर्ण स्वस्थ तथा नीरोग थे। तेज से उनका चेहरा जगमग कर रहा था। कंधे तक लटके घने-काले केश, रोबीली मूँछें तथा सीमित सुलझी दाढ़ी। स्वर्ण धागों से युक्त जगमगाते रेशमी

परिधान। गले में रत्नजड़ित स्वर्णहार तथा कानों में विशाल कुण्डल।

मंगल तब तक राजा को प्रणाम कर सीधा हो चुका था। उसने जग्गा को

कंधे से उतार दायें हाथ में रखकर पूछा-'राजा जी और रानी जी स्नान के लिए प्रस्थान करेंगे जग्गा...मुहूर्त शुभ है?'

'शुभ है...शुभ है-कहकर जग्गा ने आँखें मटकाईं, कांव-कांव किया, फिर कहा-' रानी जी, आपकी गोद भरने का समय आ गया है...कांव-कांव...कांव-कांव, युवराज जी आएँगे...युवराज जी आएँगे...राजा जी, आप भी सुनो...युवराज आएँगे...युवराज आएँगे। '

कहते-कहते वह मंगल के हाथों से उड़ा और उसके कंधे पर पंजा रखकर शांत हो गया।

'बधाई हो राजा जी!'

'बधाई हो!'

उपस्थित लोगों ने प्रसन्नता से दुहरे होते हुए राजा को बधाई दी।

राजा विश्वम्भरमल्ल और रानी गजमोती के चेहरे खिल गए. प्रसन्नता के अतिरेक से, कुछ क्षण तो राजा के बोल ही न खुले।

फिर उन्होंने कहा, 'राजरत्न! ...जग्गा के मुँह मोतियों से भर दो...स्वर्णाभूषणों से इसका श्रृंगार करो और इसके गले में हीरे का हार डालो।'

हर्ष से झूमते राजा ने भीममल्ल से कहा, 'वीरवर! पूरे भरोड़ा में मिठाइयां बँटवाओ, गरीबों को वस्त्र, बेघरों को घर और श्रमिकों को भूमि दान की व्यवस्था करो।'

'जो आज्ञा राजन! ऐसा ही होगा।' भीममल्ल ने प्रफुल्लित होकर कहा, 'लेकिन एक विनती है, आज्ञा हो तो निवेदन करूं?'

रानी ने राजा के कहने के पूर्व ही आगे बढ़कर झट से कहा-'जो इच्छा हो निःसंकोच कहें भीममल्ल जी।' प्रसन्नता के आवेग से उनकी आँखें छलछला गई थीं। उन्होंने आँखों के कोर को अंगुलियों से पोंछते हुए अपनी बात समाप्त की-'आज आपकी जो इच्छा होगी...उसे हम अवश्य पूरी करेंगे।'

भीममल्ल ने सविनय कहा-'राजरत्न के सर्वज्ञ-काक जग्गा ने आज शुभ समाचार देकर ही मुझे त्रिलोक का आनंद दे दिया...मुझे और क्या चाहिए?'

'तो फिर वीरवर,' राजा ने कहा-'तुम कहना क्या चाहते हो?'

'महाराज! आपने जग्गा पर प्रसन्न होकर उसके साथ-साथ समस्त प्रजा पर कृपा की वर्षा कर दी...परन्तु...परन्तु महाराज...!'

हाँ...हाँ...कहो वीर शिरोमणि, निःसंकोच कहो...क्या इच्छा है तुम्हारी? '

रानी की उत्सुक दृष्टि भीममल्ल पर जम गईं। राजरत्न मंगल भी दृष्टि उठा कर भीममल्ल को देखने लगे।

'राजा जी!' भीममल्ल ने संकोच करते हुए कहा-'जिस जग्गा को राजरत्न मंगल ने सर्वज्ञ बनाया, उसके लिए आपने अपनी कृपा का द्वार नहीं खोला प्रभु!'

राजरत्न मंगल भीममल्ल का प्रतिवाद करते कि इसके पूर्व ही राजा ठठा कर हँस पड़े और रानी मुस्कुराई. राजा की हँसी रूके कि इसके पूर्व रानी ने अपने गले का चमकता स्वर्ण-हार निकाल लिया।

राजा विश्वम्भर मल्ल ने प्रशंसा भरी आँखों से रानी को देखते हुए रानी के हाथों से हार लेकर ना...ना...करते राजरत्न मंगल को समर्पित करते हुए कहा-'तुम तो स्वयं हमारे भरोड़ा के राजरत्न हो...तुम्हें हम इन तुच्छ रत्नों की माला से क्या सम्मानित करेंगे? कहो! क्या इच्छा है तुम्हारी...आज तो यह सारा राज और कमला मैया का मेरा घाट तुम पर न्यौछावर कर सकता हूँ मैं। माँगो राजरत्न! निःसंकोच माँगो।'

मंगल को हँसी आ गई. उसने मन में सोचा-कैसा अबोध राजा है यह! कुछ क्षणों पूर्व तक स्वयं याचक बना खड़ा था और अब मुझे ही धन और सम्पदा का दान देने को तत्पर है। लेकिन प्रत्यक्ष में उसने कुछ न कहकर अपने दोनों कर जोड़ कर कहा-'राजा जी! कार्तिक स्नान हेतु प्रस्थान करें...शुभ मुहूर्त बीता जा रहा है।'

'परन्तु...!'

राजा ने कुछ कहना चाहा कि मंगल ने पुनः करबद्ध होकर कहा-'युवराज को आने दें महाराज...और यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं तो पुरस्कार में, राजकुँवर की शिक्षा का दायित्व मुझ पर डालकर मुझे कृतार्थ करें।'

राजा ने राजरत्न मंगल को भावावेश में आलिंगनबद्ध करते हुए कहा -'यह तो मुझपर तुम्हारा दुहरा उपकार हो गया राजरत्न...और तुम इसे पुरस्कार कहते हो?'

'जी राजा जी! यही मेरा सर्वोत्तम पुरस्कार है। मुझे पता है, युवराज के स्वरूप में एक महान-आत्मा का अविर्भाव हो रहा है। यदि मुझे वह शिष्य रूप में प्राप्त हो जाए तो मेरा सम्पूर्ण जीवन धन्य हो जाएगा, प्रभु।'

'तुम्हारी इच्छा अवश्य पूरी होगी राजरत्न, निश्चय ही तुम कुँवर के सद्गुरू होगे।'

'आभारी रहूँगा, प्रभु...अब कृपया स्नान हेतु प्रस्थान करने की कृपा करें।'

जग्गा ने भी कहा-'प्रस्थान करें, राजा-रानी प्रस्थान करें।'

सुनहरी पगड़ी वाले इकतीस कहारों की विशाल पालकी में राजा बैठे। दोनों ओर कहारों ने पालकी उठाई और अपनी सुनहरी पगड़ी में कलगी लगाए, हाथों में चांदी की मूठ वाली लाठी पकड़े कहारों का प्रमुख पालकी के आगे खड़ा हो गया। रजतवर्णी पगड़ी पहने इक्कीस कहारों की पालकी में रानी तथा ग्यारह-ग्यारह कहारों वाले विभिन्न वर्णी कहारों की पालकियों में बाकी लोग कमला घाट पर पूजन-स्नान हेतु निकले। पालकियों के आगे-पीछे दास-दासियां हाथों में मशाल और भाँति-भाँति के वाद्य-यंत्रा बजाते आह्लादित होते उमंग में चले।

राजा की सवारी घाट पर पहुँचती कि इसके पूर्व ही सर्वज्ञ-काक जग्गा की भविष्यवाणी पवन-वेग से विशाल जन-समूह तक पहुँच चुकी थी। लोग आनंद-मग्न हो नृत्य करने लगे। स्त्रिायां मंगल-गीत गाने लगीं और वृद्ध विभोर हो गए.

कमला-पूजन और स्नान का उत्सव देखते ही देखते महोत्सव में बदल गया। सहचरों, नर-नारियों के हर्ष-विलास-नृत्य और वादन के स्वर कमला तट की दसो दिशाओं में व्याप्त हो गए.

राज-भरोड़ा का सम्पूर्ण कार्तिक माह आनंद में व्यतीत हुआ। अगहन की शीतल बयार चलने लगी। रानी जी के लिए वैद्य ने भाँति-भाँति के दिव्य रसायन बनाए थे। उन्हें रानी जी के ऋतु-काल में उन दवाओं के प्रयोग करने की व्यग्रता से प्रतीक्षा थी। परन्तु वैद्य की योजना पर तुषारापात हो गया। रानी जी अपने ऋतु-काल के प्रथम दिवस ही भीषण-ज्वर से पीड़ित हो गईं। वैद्य जी निराश हुए. अब रानी जी को गर्भधारण हेतु पूस माह के ऋतु-काल की प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। परन्तु, विधाता की यही इच्छा है, ऐसा सोचकर वे शांत हो गए.

भरोड़ा की प्रजा भी रानी जी की गोद हरी होने की प्रतीक्षा में बेचैन थी। परन्तु पूस और माघ की कड़कड़ाती ठंढ भी व्यतीत हो गई और रानी जी की गोद न भरी तो प्रजा में तरह-तरह की बातें होने लगीं।

राजरत्न, वैद्य, ज्योतिषी और भीममल्ल समेत राजा-रानी भी चिन्तित हुए. फागुन का महीना आया, लेकिन प्रजा ने होली नहीं मनायी। न रंग डाले गये, न अबीर और न फगुआ ही गाया गया। पूरे भरोड़ा राज्य में बेचैनी-सी व्याप्त हो गई.

रानी जी यों तो पूर्ण स्वस्थ रहतीं, परन्तु ऋतु-काल के आते ही उन्हें ज्वर आ जाता। वैद्य ने हर प्रकार से रानी जी के वात, पित्त और कफ की नाड़ियों का विश्लेषण किया। उनकी नाड़ी की गति नापी, परन्तु कहीं कोई कारण समझ न आया और इन्हीं चिन्ताओं में चैत और बैसाख माह भी, व्यतीत हो गए. ज्योतिषी ने भी राजा-रानी की कुण्डलियों को अनेक बार देखा। कहीं कोई ग्रह-दोष नहीं। फिर इस विपत्ति का कारण क्या था? उनकी समझ में भी जब कुछ न आया तो राजा अधीर हो गए. उन्होंने मंत्रणा के लिए राजरत्न और वैद्य जी को अपने कक्ष में बुलवाया।

जेठ माह की गर्म हवा के थपेड़ों ने भरोड़ा राज की प्रजा को संतप्त कर रखा था। राजा के कक्ष के द्वार पर बड़े-बड़े खस के पर्दे लटकाए गए थे, जिन पर दास-दासियाँ शीतल जल की फुहारें निरंतर डाल रहे थे। अंदर राजा के कक्ष का वातावरण खस की सुगंध से परिपूर्ण था, परन्तु राजा सुखी न थे। इस बार भी रानी ज्वर से पीड़ित थीं-और राजा जी चिन्ता से।

राजरत्न और वैद्य की निष्फलता से व्यथित राजा ज्यों ही व्यग्र हो अपने आसन से उठे, उसी क्षण दोनों कक्ष में प्रविष्ट हो, एक साथ राजा के अभिवादन में झुके.

'क्षमा करें राजन्-' राजरत्न ने अभिवादन के उपरान्त कहा-'आदेश प्राप्त होते ही मैं वैद्य जी को लिवाने इनके निवास पर चला गया था। वैद्य जी ने रानी जी के लिए महामृत्युंजय-पाठ प्रारंभ कर दिया है। पाठ समापन तक मुझे प्रतीक्षा में रूकना पड़ा। अतः, हमें विलंब हुआ महाराज।'

'आप लोग आसन ग्रहण करें, फिर प्रयोजन भी बताऊंगा।'-कहकर पहले राजा बैठे फिर राजरत्न और वैद्य रसराज ने आसन ग्रहण किया।

'आज्ञा दें महाराज।'-वैद्य जी ने कहा-'मैंने रानी जी के लिए महामृत्युंजय जाप का विधिपूर्वक अनुष्ठान प्रारंभ कर दिया है और मुझे विश्वास है, इस जप के पूर्ण होने के पश्चात् रानी की व्याधि का पूर्णतः नाश हो जाएगा।'

वैद्य जी के आश्वासन का प्रभाव राजा जी पर कितना हुआ, यह उनकी आकृति के भावों से बिलकुल प्रदर्शित न हुआ। उनकी चिन्तित मुखमुद्रा पूर्ववत बनी रही।

वैद्य जी के कथन पर कुछ क्षण वे मौन रहे फिर चिन्तित आँखों से उन्होंने राजरत्न को देखते हुए कहा-'राजरत्न! मुझे तो रानी जी के अमंगल के नेपथ्य में कुछ और ही शंका हो रही है।'

चौंके राजरत्न! 'वह क्या महाराज?'-उत्सुकता से उन्होंने पूछा।

'मुझे ऐसा प्रतीत होता है...हमारे संकट के पीछे कहीं तांत्रिक बालिका बहुरा गोढ़िन का हाथ तो नहीं।'-राजा की बात पर राजरत्न मंगल सहित वैद्य जी भी चौंके.

वैद्य ने तत्काल कहा-'क्यों महाराज? ऐसी शंका का कारण?'

'मैं समझ गया वैद्य जी-' राजा के पूर्व ही राजरत्न ने शीघ्र्रता से कहा -'बहुरा नहीं चाहती कि भरोड़ा राज को अपना उत्तराधिकारी प्राप्त हो। वह अपने अघोर पंथ के प्रभाव क्षेत्र का विस्तार करने हेतु सदा तत्पर रहती है, जबकि हम अपने राज में कमला मैया'को पूजते आए हैं।'

अपनी बात कहकर अचानक वे मौन हो गए. वैद्य और राजा उत्सुकता से राजरत्न को देखने लगे। तभी राजरत्न ने आगे कहा-' मुझे इस संकट का आज तक भान क्यों नहीं हुआ? मैंने इस ओर कभी सोचा क्यों नहीं? ... अब सारी बातें स्पष्ट हो गईं राजा जी, ... यह अवश्य ही उसी पापिन का कृत्य है। ऋतुकाल में वह रानी जी के ऊपर अवश्य ही त्राटक-साधना करती है, जिस कारण उन्हें भीषण ज्वर आ जाता है।

'यह तो बड़ी चिन्ता की बात है, राजरत्न।'-वैद्य ने कहा, 'आप तो स्वयं तंत्र के ज्ञाता हैं...अगर वास्तव में बहुरा गोढ़िन ही इस समस्या के पीछे है तो फिर इसकी काट तो आपको ही ढूंढ़नी होगी, राजरत्न।'

'ठीक कहते हैं वैद्य जी, मुझे पहले जग्गा से अपनी शंका की पुष्टि करनी होगी और अगर हमारी शंका सत्य हुई तो...तो।'

राजरत्न ने अपनी बात अधूरी छोड़ दी तो राजा की व्यग्रता बढ़ गयी। उन्होंने अधीर होकर राजरत्न से कहा-'तो क्या राजरत्न? आप कहना क्या चाहते हैं? ...बहुरा गोढ़िन की तांत्रिक शक्तियों का क्या आप प्रतिकार नहीं कर सकते?'

राजा के प्रश्न का कोई प्रत्युत्तर राजरत्न के पास नहीं था। वह तांत्रिक अवश्य था, परन्तु त्राटक जैसे तुच्छ और निषिद्ध पद्धतियों को उसने सिद्ध करना कभी उचित नहीं समझा था, जबकि बहुरा गोढ़िन इतनी छोटी-सी अवस्था में ही त्राटक के तीनों अंग-मारण, मोहन और उच्चाटन के अतिरिक्त अन्य कापालिक साधना में भी निपुण हो चुकी थी।

भरोड़ा राज से पश्चिम दस कोस की दूरी पर बखरी का क्षेत्र था और उसी क्षेत्र के बखरी घाट की मालकिन थी-बहुरा गोढ़िन।

वणिकों की व्यापारिक नौकाओं से उसे प्रचुर कर मिलता था, जिस कारण बहुरा गोढ़िन को लोग बहुरा चौधराइन कहने लगे थे।

शव पर बैठकर भैरव-साधना में नृत्य करने वाली नवयुवती बहुरा चौधराइन का आतंक दूर-दूर तक फैला था। अपनी सुगठित गौरवर्णी देह और घुटनों तक लहराते घने-लम्बे केशों वाली तांत्रिक बाला बहुरा जितनी सौन्दर्यवती थी-उसका अंतस उतना ही भयंकर और डरावना था। दबे स्वर में बहुधा सारे लोग इस बाला को 'बखरी की डायन' कहा करते थे।

बहुरा चौधराइन ने बखरी में कमला मैया की पूजा बंद करा दी थी, परन्तु राज भरोड़ा पर उसका बस न चला। भरोड़ा की प्रजा कमला मैया की भक्त थी और इसी कारण भरोड़ा की व्यापारिक नौकाएँ कभी भूल कर भी बखरी घाट पर नहीं रूकती थीं।

राजरत्न मंगल इन्हीं विचारों-चिन्ताओं में डूबे रहे। राजा की अधीरता समाप्त हो गई. देर से मौन बैठे राजरत्न को आखिर उन्होंने फिर से टोका-'कहाँ खो गए राजरत्न? ...तुमने मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं दिया।'

राजरत्न की विचार-तंद्रा टूटी, उसने राजा की ओर आँखें उठाईं तो राजा ने अपना प्रश्न पूरा करते हुए पूछा-'उस बाला की तांत्रिक शक्तियों का तुम्हारे पास काट है अथवा नहीं? क्या हम यों ही उस तांत्रिक बाला के त्राटक से त्रस्त रहेंगे? ...बोलो राजरत्न...बोलो...मौन क्यों हो?'

मैं विवश हूँ राजा जी. '-राजरत्न ने संकोचपूर्ण मुद्रा में स्वीकार किया' बहुरा गोढ़िन की तांत्रिक शक्तियों का मैं प्रतिकार नहीं कर सकता। उसने इतनी छोटी-सी उम्र में ही शव-साधना-नृत्य करते हुए घनघोर कापालिक शक्तियां अर्जित कर ली हैं। ये शक्तियां अत्यंत विनाशक हैं, राजा जी. अगर यह सत्य है कि रानी जी की कोख पर वह तांत्रिक कन्या अपनी शक्तियों के अदृश्य वाणों का संधान कर रही है तो मैं अपनी कल्याणकारी तांत्रिक शक्तियों से इसका प्रतिकार कदाचित नहीं कर सकता, महाराज! '

जिस राजरत्न मंगल पर राजा को गर्व था, उसकी सहज स्वीकारोक्ति ने राजा का मस्तक झुका दिया। वे चिन्ता की अंधेरी गुुफा में खोकर विश्रांत हो गए.

राजा के कक्ष का सम्पूर्ण वातावरण भारी हो गया। वैैद्य जी सोच में पड़ गए. क्या कल्याणकारी शक्तियां इतनी अशक्त हो गई हैं कि वह विनाशकारी शक्तियों के समक्ष घुटने टेक दे। नहीं, ऐसा नहीं हो सकता, यह संभव नहीं है। दृढ़ निश्चय कर उन्होंने पहले राजरत्न, फिर राजा को देखा और कहा-'राजा जी, इस प्रकार मुख मलिन न करें। हमें कमला मैया की शरण में जाकर उन्हीं से प्रार्थना करनी होगी।'

राजा ने क्लांत मुख उठाया तो वैद्य ने पुनः कहना शुरू किया-

'महाराज! राधा, दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती और सावित्री-माता के ये पाँच स्वरूप हैं। अपने तीनों गुणों-सत्व, रजस् और तमस् से सम्पन्न दिव्य माता सर्वत्र त्रिगुणमयी हैं। वे स्वयं को इच्छा-शक्ति, क्रिया-शक्ति तथा ज्ञान-शक्ति के रूप में अभिव्यक्त करती हैं। महाराज! हमारी माता ब्रह्मा के संयोग से ब्रह्मा-शक्ति सरस्वती, विष्णु के संयोग से विष्णु-शक्ति लक्ष्मी तथा शिव के संयोग से शिव-शक्ति गौरी हैं। इसीलिए माता को त्रिपुरसुन्दरी कहा जाता है। ये माँ भगवती के विविध रूप हैं। इन्हींको हम कमला मैया के नाम से पूजते हैं। महाराज! जिसप्रकार माता-पिता अपने बच्चों और परिवार के कुशल-क्षेम के लिए प्रयत्नशील रहते हैं, उसी प्रकार भगवान शिव तथा शक्ति जगत् के परिरक्षण में सदा संलग्न रहते हैं।'

राजा और राजरत्न मुग्ध होकर वैद्य की तेजस्वी वाणी सुन रहे थे। इन्हें मौन देखकर वैद्य ने अपनी वाणी के समापन में कहा-'महाराज! हमें अभिमान त्याग कर कमला मैया की शरण में नतमस्तक हो जाना चाहिए. उनकी कल्याणकारी मंगल शक्तियों के समक्ष बहुरा गोढ़िन की कापालिक शक्तियां भला कहाँ ठहरेंगी?'

वैद्य जी की बातों ने राजा के लिए संजीवनी सदृश कार्य किया और उनके मलिन मुख पर तत्काल कांति छा गई. उन्हें दृढ़ विश्वास हो गया कि माता की शरण में उपस्थित होने के पश्चात् सर्वत्र मंगल ही मंगल होगा।

रात्रि के चतुर्थ प्रहर में ही राजा-रानी शय्या त्याग कर नित्य कर्म से निवृत्त हुए. स्नान कर, पवित्र होकर उन्होंने स्वच्छ वस्त्र धारण किए. धूप-दीप-मधु और पुष्प अर्पित कर दोनों ने कमला मैया का आवाहन और पूजन किया। उनकी स्तुति की, तत्पश्चात् अपनी मनोकामना की प्रार्थना करते हुए तन-मन से माता के शरणागत हुए.

सारे दिन के उपवास के उपरांत राजा-रानी ने माता को प्रणाम कर जल और फल ग्रहण किये और उनकी स्तुति करते हुए निद्रालोक में जा पहुँचे।

राजा के अवचेतन में अचानक दिव्य प्रकाश फैल गया। चारो ओर प्रकाश ही प्रकाश! कोई आकृति तो नहीं दिखी, परन्तु राजा ने स्पष्ट सुना-' चिन्ता न कर पुत्र! मैं तुम पर प्रसन्न हूँ।

आने वाले श्रावण मास में ऋतु-काल आने पर अपनी रानी संग संयुक्त होना। '

दिव्य प्रकाशपुंज शनैः-शनैः लुप्त हुआ परन्तु सुनी हुई वाणी की प्रतिध्वनि गूंजती रही। ऐसी शांत-गंभीर, मधुर दिव्य-वाणी राजा ने कभी न सुनी थी। स्वप्न भंग होते ही राजा की नींद भी भंग हो गई. चौकते हुए वह शय्या पर उठकर बैठ गए. प्रसन्नता के आवेग से उनका सम्पूर्ण शरीर आवेशित हो गया।

माता...माता...का निरंतर उच्चारण करते हुए उन्होंने शय्या का त्याग किया। नींद में खोई रानी को शय्या पर छोड़ दौड़ते हुए वे राजप्रासाद में स्थापित माता के मंदिर पहुँचे और कृतज्ञता के अश्रु बहाते उनके समक्ष नतजानु हो गए.

आषाढ़ मास के समापन पर रानी पुनः रजस्वला हुईं और उन्होंने अपनी शय्या त्याग कर भूमि पर शयन प्रारंभ किया। रजोनिवृत्ति के दिवस रानी ने स्नान कर अपने लम्बे-घने केश घोए.

सावन की प्रथम फुहारों के संग रानी ने ऋतु-काल में प्रवेश किया। रानी के शयन-कक्ष को सुगंधित फूलों से सजाकर चतुर दासियों ने प्रवेश-स्थल को रंगोलियों से सजाया। राजरत्न मंगल ने सर्वप्रथम माता कमला के पूजन का विधिपूर्वक आयोजन राजा-रानी से कराया। तत्पश्चात् राजा के पुत्रा-रत्न प्राप्ति हेतु उसने विचित्र अनुष्ठान स्वयं सम्पन्न किया।

अपनी तांत्रिक पद्धति से नृत्य कर उसने कमला मैया की स्तुति की और राजा-रानी के शयन कक्ष में देवी-पाठ का नौ-दिवसीय आयोजन कराया।

रानी के चमकते, घने-लम्बे केश में सुगंधित तेल लगाकर निपुण दासियों ने केश का विन्यास कर उसमें फूल लगाए. पैरों को गुलाबी रंग से रंगकर उसमें महावर लगाया। हाथों में मेंहदी, भाल पर कुमकुम और मृगनयनी आँखों के कोरों में अंजन लगाए. तदुपरांत उन्होंने सुन्दर रेशमी वस्त्रों से रानी को सज्जित कर झिलमिलाते आभूषणों से अलंकृत कर दिया।

सोलहों श्रृंगार से श्रृंगारित रानी गजमोती की शोभा ऐसी न्यारी हुई, मानो साक्षात् लक्ष्मी ही राज भरोड़ा की हवेली में अवतरित हो गयी हों।

नौ दिनों तक नित्य शयन के पूर्व राजा और रानी देवी की कथा सुनते और कथा समापन के उपरांत देवी की आराधना करते हुए प्रार्थना करते-'हे माता! हमें अपने अनुरूप वीर पुत्र प्रदान करो।'

राजरत्न मंगल द्वारा नियुक्त निपुण दासियां शयन-कक्ष में सुगंधित धूप जलातीं, मंगल-गान करतीं और राजा-रानी को शयन के लिए छोड़ कमला माता की आराधना के गीत गाती दासियां राजरत्न के शिविर में जा पहुँचतीं।

दासियों से सूचना प्राप्त होते ही कि राजा-रानी शयन कक्ष के एकांत में पहुँच चुके हैं, राजरत्न दसियों को पुरस्कृत कर विदा करते और माता की आराधना में अपने घोर तांत्रिक नृत्य-अनुष्ठान का प्रारंभ करते।

राजा अपने शयन कक्ष में रानी के साथ संयुक्त होते और इधर राजरत्न का तांत्रिक नृत्य क्रमशः घनघोर होता जाता।