कुँवर नटुआ दयाल, खण्ड-4 / रंजन
पुत्र-प्राप्ति-अनुष्ठान के अद्भुत नवदिवस व्यतीत हुए. रानी के दूसरे ऋतुकाल में वैद्य ने राजा को अपनी बधाई के साथ शुभ संदेश दिया और पाकशाला में निर्देश भिजवाया कि रानी के दूध में केशर डाले जाएँ। उनका कहना था कि नित्य केशर के सेवन से गर्भस्थ कंुवर चंद्रमा की तरह कांतिमान् और गौरवर्ण होंगे। उसी दिवस से रानी ने नित्य केशर ग्रहण करना आरंभ कर दिया।
रानी गजमोती के गर्भधारण का शुभ समाचार प्राप्त होते ही भरोड़ा-राज के समस्त जड़ और चेतन खुशी से झूम उठे। वसंत के पूर्व ही वृक्षों की शाखाओं पर नयी कोंपलें उग आईं, वन में मयूरों ने नृत्य प्रारंभ कर दिया, लताओं में फूल खिल उठे और सारी प्रजा में आनंद छा गया।
फिर ऐसे में राजा और रानी की प्रसन्नता का तो क्या कहना! राजप्रासाद में नित्य उत्सव मनाया जाने लगा। राजरत्न ने विशाल मंच बनवाकर प्रजा के मनोरंजन के लिए विभिन्न लोककलाओं के प्रदर्शन का दैनिक आयोजन संयोजित कर दिया।
वीर भीममल्ल ने भरोड़ा के मध्य विस्तृत स्थल पर अखाड़ा के लिए उपयुक्त भूमि का चयन किया। पक्की ईंट की दीवारों से अखाड़ा का निर्माण कराकर उसमें सरसों तेल-मिश्रित लाल मिट्टी भरवायी। फिर विधिपूर्वक उसमें चंदन और कपिला-प्रजाति की स्वस्थ गाय के दूध से निर्मित घृत डलवाकर मिट्टी की पूजा की।
इस अखाड़ा में नित्य अपराह्न प्रसिद्ध पहलवानों के मल्लयुद्ध होते। एक ओर राजा-रानी के कुटुम्ब संग राजरत्न मंगल के सुसज्जित आसन होते और तीनों तरफ भरोड़ा की प्रजा।
भरोड़ा-राज में समय को पंख लग गए थे। सूर्योदय और सूर्यास्त होते रहे, दिवस पर दिवस और माह पर माह, तीव्रता से गुजरते गए.
अब रानी गजमोती अपनी हवेली से बाहर नहीं निकलती। वैद्य और प्रसव कुशल धायियों-परिचारिकाओं की देखरेख में वे अपने कक्ष में ही विश्राम करतीं।
राजरत्न मंगल ने कुशल चितेरों से रानी के कक्ष की दीवारों पर चित्रकारों के द्वारा बालकों के सुन्दर मनभावन अनेक चित्र बनवाये थे।
रानी गजमोती सारे दिन झूले में बैठी बालगोपाल को निहारती, उन्हें झुलातीं और नृत्य-गीत में प्रवीण दासियां नृत्य करतीं-मंगल-गीत गा-गाकर रानी का मनोरंजन करतीं।
समस्त योजना राजरत्न मंगल की थी। उसी के परामर्श पर राजा ने चंदन का झूला बनवाकर उसमें बालगोपाल को प्रतिष्ठित किया था।
राजा से उसने कहा था-'महाराज! रानी जी के कक्ष को बाल रूपों से सुसज्जित किया जाए और चंदन का झूला बनाकर उसमें एक सलोने बालक के गुड्डे को प्रतिष्ठित किया जाए. रानी गजमोती झूला झुलाएँ और दासियां मंगल-गीत गाएँ।'
राजा उत्सुक नेत्रों से राजरत्न मंगल के परामर्श सुन रहे थे। मंगल ने आगे बताया था-'इस आयोजन का शुभ प्रभाव गर्भस्थ बाल कुँवर पर पड़ेगा महाराज!'
राजा ने प्रेमाश्रु छलकाते गर्व से अपने राजरत्न को निहारा था और उसके परामर्शानुसार शीघ्र्र ही समस्त व्यवस्था कर दी थी।
वैद्य द्वारा घोषित, अनुमानित प्रसव-दिवस के ग्रह-नक्षत्रों की स्थिति और कुँवर के फलादेश पर ज्योतिष की गणना प्रारंभ हो गई.
रानी गजमोती अपने कक्ष में मग्न रहती और राजा विश्वम्भर मल्ल निरंतर आयोजित होने वाले उत्सवों में। अपराद्द से संध्या-पर्यंत अपनी प्रजा के साथ वे मल्लयुद्ध का आनंद उठाते तथा रात्रि के प्रारंभ से मध्य रात्रि तक नृत्य-संगीत का।
ऐसे ही एक अपराद्द राजा विश्वम्भर मल्ल मल्लयुद्ध का आनंद लेने ज्यों ही पधारे, राजरत्न मंगल के कंधे पर बैठे सर्वज्ञ काक जग्गा के दोनों पंख तेजी से फड़फड़ाये। राजा सहित वीर भीममल्ल ज्योतिषी और समस्त प्रजा की दृष्टि सर्वज्ञ काक जग्गा पर जा टिकी।
जग्गा के इस प्रकार तेजी से पंख फड़फड़ाने का अर्थ था, वह कुछ घोषित करना चाह रहा है। अखाड़े में दर्जनों पहलवान उपस्थित थे। राजा के पदार्पण के पश्चात् आदेश प्राप्त होते ही मल्ल-युद्ध प्रारंभ होने वाला था कि सारी उत्सुक निगाहें राजरत्न मंगल के सर्वज्ञ-काक जग्गा की ओर उठ गईं।
क्या कहने वाला था जग्गा? चारों दिशाओं की हलचल रुक गई, शोरगुल थम गया। सर्वत्र शांति छा गई.
'कांव...कांव...कांव...वीरवर भीम सावधान! ...सावधान! ...कांव...कांव
...कांव। ' इतना कहकर सर्वज्ञ-काक जग्गा कुछ क्षणों के लिए शांत हुआ। जनसमूह के मध्य श्मशान जैसी शांति व्याप्त हो गई. सबकी सांसें उत्सुकता की अधिकता से रुक-सी गईं। जाने क्या अघटित घटने वाला है।
राजरत्न मंगल ने अपने सर्वज्ञ-काक जग्गा को कंधे से उतारा, परन्तु जग्गा तो मंगल के हाथों से पंख फड़फड़ाता उड़ गया और अनिष्ट की आशंका में डूबे भीममल्ल के चारों तरफ उड़ते हुए कांव-कांव कर चीखने लगा।
कांव-कांव के स्वरों के साथ ही उसने भीममल्ल से उड़ते-उड़ते कहा -'तुमसे मल्ल युद्ध की अभिलाषा लिये यवद्वीप का महाबली पिच्छड़ मल्ल अपनी नौका से आ पहुँचा है...वीरवर सावधान! ...सावधान! ...'
अपनी बात कहकर सर्वज्ञ काक जग्गा उड़ते हुए फिर से राजरत्न मंगल के कंधे पर शांत होकर जा बैठा।
भरोड़ा में भला ऐसा कौन था, जिसने महाबली पिच्छड़मल्ल का नाम न सुना हो। यवद्वीप से व्यापार कर लौटे भरोड़ा के व्यापारी हमेशा उसकी वीरता के किस्से सुनाया करते। अपनी बातों में कौतुक उत्पन्न करने हेतु वे ऐसी-ऐसी बातें कह डालते कि समस्त भरोड़ा में पिच्छड़ मल्ल की वीरता की कई किंवदन्तियाँ प्रचलित हो गई थीं।
राजा और उनके गिर्द बैठे सम्मानित भरोड़ावासी तो पिच्छड़मल्ल के आगमन की सूचना पर मौन, किन्तु चिन्तित हो गये, परन्तु प्रजा में कानाफूसी शुरू हो गई. अब क्या होगा? हमारे वीर शिरोमणि पिच्छड़ पहलवान पर विजयी होंगे?
किसी ने कहा-'सुना है, अपने जोड़ का पहलवान न पाकर वर्षों से उसने अखाड़ा छोड़ दिया है।'
'हाँ, ठीक कहते हो भाई, मैंने सुना है अब वह घने वन में जाकर वनराज सिंह से मल्लयुद्ध कर खुद को संतुष्ट करता है।'
तीसरे ने कहा-'जब तक वह वनराज को परास्त नहीं कर लेता, उसकी नसें फड़कती रहती हैं।'
' तो क्या मैंने झूठ कहा है? ...अरे, एक बार तो वह जीवित वनराज को कंधों पर उठाये अपने राजा के दरबार में आ पहुँचा था। '
'ईश्वर रक्षा करे हमारे भीममल्ल जी की।'
'अब क्या होगा भैया? अपने भरोड़ा की प्रतिष्ठा का प्रश्न है।'
'प्रभु! अब तुम्ही रक्षा करना।'
कानाफूसी चल ही रही थी कि धरती को अपने पांवों तले रौंदता विशालकाय दानव-सदृश पिच्छड़ पहलवान सहसा अखाड़े में आ पहुँचा।
सबकी सांसें फिर से थम गईं। समस्त शोरगुल और कानाफूसी रुक गई. लोग दम साधे इस दानव को देखने लगे। अखाड़े की दीवार के पास पहुँचकर वह सहसा उछला और मर्द भर ऊँचा अखाड़े की मिट्टी पर धम् से कूदा और उछलकर खड़ा हो दोनों हाथों से ताल ठोंकने लगा। जंघाओं पर उसकी हथेलियों की थाप के तीव्र स्वर गूंजने लगे।
ताल ठोंकते हुए उसने तुच्छ दृष्टि से अखाड़े में उपस्थित दर्जनों पहलवानों पर भृकुटि तानी। पहलवानों में बेचैनी भरी हलचल मची और सारे के सारे पहलवान डरते हुए अखाड़े से खिसकने लगे।
'इससे मल्लयुद्ध करके क्या मृत्यु का ग्रास बनना है? भागो भाई...भागो' कहते हुए सारे के सारे पहलवानों ने शीघ्र्रतापूर्वक अखाड़े को त्याग दिया।
भयंकर अट्टहास किया पिच्छड़ पहलवान ने।
अखाड़े की मिट्टी में खुद को अकेला पाकर उसने राजा से हँसते हुए कहा -'क्यों राजन! आपका राज्य क्या वीरों से शून्य हो गया है? ...अरे मैंने तो सुना था कि आपके भीममल्ल बड़े प्रसिद्ध पहलवान हैं। नदी में उतर कर इसने मगरमच्छ से युद्ध किया और उसका निहत्थे वध किया है। मैंने जब से आपके पहलवान की वीरता की कहानियां सुनी हैं तभी से उसके साथ मल्ल युद्ध हेतु लालायित हूँ और इसी अभिलाषा से आज मैं आया भी, परन्तु यहाँ तो मुझे सब कापुरूष ही नजर आ रहे हैं। राजन, आज यदि आपने अपने पहलवान भीममल्ल को इस अखाड़े में प्रस्तुत न किया तो मैं समझूंगा, मैंने जो इतनी प्रशंसाएँ सुनी थीं वह सब मिथ्या थीं।'
अपनी गर्वीली उक्ति के उपरांत उसने राजा के चतुर्दिक बैठे संभ्रांत लोगों पर अपनी उग्र दृष्टि गड़ा दी।
पिच्छड़ पहलान की गर्वोक्ति से क्रोधित भीममल्ल उठकर राजा विश्वम्भर मल्ल के समीप आए-'मुझे इस गर्वीले मदान्ध पहलवान से मल्ल युद्ध करने की आज्ञा दें महाराज! इसने आपके राज्य में आकर साक्षात् कमला माँ की शक्ति को चुनौती दी है। मुझे विश्वास है कमला माँ की अनुकम्पा से मैं आज इसका गर्व अवश्य चूर करूंगा...आज्ञा दें, महाराज!'
'जाओ वीरवर, विजयी भव!'
राजा विश्वम्भरमल्ल ने अपने अंक में भीममल्ल को समेटते हुए मल्ल-युद्ध की आज्ञा दी।
भीममल्ल सहज चाल से अखाड़े की सीढ़ियों तक आए. प्रथम सीढ़ी को हाथ लगाकर प्रणाम किया और शीघ्रता से सीढ़ियां चढ़ ऊपर अखाड़े में जा पहुँचे। उन्होंने अखाड़े को प्रणाम कर चुटकी में थोड़ी मिट्टी उठा कर मस्तक पर लगाई और पिच्छड़ पहलवान के सम्मुख शांत भाव से खड़े हो गए.
पिच्छड़ पहलवान ने सम्मुख खड़े भीममल्ल को आपादमस्तक निरीक्षकीय दृष्टि से देखा। मन ही मन उसकी शक्ति को तौला, परन्तु सम्मुख खड़ा व्यक्ति तो शांत था! शांत खड़े व्यक्ति की शक्ति का मूल्यांकन सहजतापूर्वक नहीं होता। जबतक प्रतिद्वंद्वी क्रोध के वशीभूत न हो, उसकी यथार्थ शक्ति का आकलन नहीं किया जा सकता।
दोनों ने उचित अवसर प्राप्ति हेतु एक दूसरे के विपरीत मंडलाकार चक्र में घूमना प्रारंभ कर दिया।
राजा शांत थे! प्रजा अशांत!
अनेक आशंकाओं से ग्रस्त उपस्थित जनसमुदाय सांस रोके अपलक दोनों को निहार रहे थे।
मंडलाकार चक्कर काटते-काटते सहसा पिच्छड़ पहलवान हवा में उछला। बाज की तरह शिकार पर यह अचानक प्रहार था, परन्तु भीममल्ल ने आश्चर्य जनक क्षिप्रता से स्वयं को परे कर लिया। परिणामस्वरूप, पिच्छड़ पहलवान का विशालकाय शरीर अखाड़े की मिट्टी पर धम् से जा गिरा।
अवसर को चूकना भीममल्ल ने कहाँ सीखा था। झट से वे पिच्छड़ पहलवान के औंधे पड़े शरीर पर कूदकर बैठ गए. परन्तु, वह तो पिच्छड़ था। अपने नाम की सार्थकता सिद्ध करते हुए वह भीममल्ल के भार से फिसलकर मुक्त हो गया।
वीर भीममल्ल को तुरंत अपनी भूल का अहसास हुआ। पिच्छड़ पहलवान ने अपने शरीर पर सरसों तेल चुपड़ा हुआ था और उसका सारा शरीर इस कारण जल की मछली की तरह चिकना था।
भीममल्ल के सम्हलने के पूर्व ही पिच्छड़ पहलवान पलटकर लेटे-लेटे ही उछलकर भीममल्ल के शरीर पर छा गया। पिच्छड़ के बलशाली हाथ भीममल्ल की गर्दन को घेरने लगे। चतुर भीममल्ल तुरंत जान गए, यह कण्ठकंटक दांव लगाने का प्रयत्न कर रहा है। इस प्राणघातक दाँव में कण्ठ की हड्डियां चटक कर टूट जाती हैं और योद्धा विवश हो मृत्यु का आलिगंन कर लेता है।
उन्हेें किसी प्रकार इस दाँव को असफल करना ही होगा...अन्यथा मृत्यु निश्चित है।
राजा की आँखों में भी चिन्ता और बेचैनी के भाव उभरे। भीममल्ल प्राणपण से पिच्छड़ पहलवान के शक्तिशाली हाथों को रोकने का प्रयत्न कर रहे थे, परन्तु उसकी बाँहों का घेरा बढ़ता ही जा रहा था। अचानक भीममल्ल ने अपनी चेष्टा रोककर एक क्षण के लिए खुद को शिथिल कर लिया। पिच्छड़ चौंका और तभी भीममल्ल ने अपने शरीर को तेजी से पलट कर केहुनी से जोरदार प्रहार उसकी आँखों पर किया।
पीड़ा की तीव्रता से पिच्छड़ की आकृति विकृत हो गई, फिर भी भीममल्ल के साथ-साथ ही तड़पकर वह भी उठ खड़ा हुआ और पशु की भांति गुर्राने लगा।
फिर से दोनों मंडलाकार चक्कर काटने लगे। भीममल्ल ने सोचा इसके क्रोध को और भी प्रज्वलित किया जाए. उन्हें पता था क्रोधाग्नि में विवेक भस्म हो जाता है और समयानुकूल दाँव-पेंच का तीव्र निर्णय लेने में वह असमर्थ हो जाता है।
इसीलिए उसे और भी क्रोधित करने हेतु सेनापति ने मुस्कुरा कर कहना शुरू किया-'क्यों पिच्छड़ पहलवान, पशुओं के साथ लड़ते-लड़ते तुमने उनकी ही तरह गुर्राना भी सीख लिया?'
भीममल्ल के कटाक्ष पर वह और भी जोर से गुर्राया तो भीममल्ल को हँसी आ गई-'अपना कण्ठकंटक दाँव जंगल के जानवरों पर ही प्रयोग किया कर। यह जंगल नहीं, राज भरोड़ा का अखाड़ा है, जहाँ भूल से तू आज आ पहुँचा है...'
क्रोध के आधिक्य में पिच्छड़ दहाड़ा। उसकी आँखों से अंगारे बरसने लगे और होठों के दोनों कोरों में झाग भर आया। अपने दोनों पंजे उठाकर वह बाज की तरह भीममल्ल पर झपटा और भीममल्ल तो इसी अवसर की प्रतीक्षा कर रहे थे। उन्होंने झुकाई देकर खुद को बचाया और अपनी ही झोंक में आगे बढ़ गए पिच्छड़ पर पूरी शक्ति से पाद-प्रहार किया।
औंधे मुँह गिरा पिच्छड़ पहलवान और फिर चूकना क्या था! पलक झपकते भीममल्ल की गिरफ्त में बंध गया वह। भीममल्ल ने अत्यंत चपलता से उसकी दोनों टांगें उठाकर उसी की गर्दन में फंसा दीं।
हर्षातिरेक में जन-समुदाय का कलरव गूँजा। सबको पता था, भीममल्ल का यह विख्यात दाँव था। प्रतिद्वंद्वी के पैरों को पलक झपकते उसी की गर्दन से वे इस प्रकार बाँध देते कि प्राण भले छूट जाए, बंधन नहीं छूटता था।
पिच्छड़ पहलवान का दानवाकार शरीर उसी के पैरों के द्वारा आकंठ आबद्ध हो चुका था। ... और अब उसकी काया मिट्टी में पड़े मांसपिण्ड की भाँति प्राणों की भिक्षा में छटपटा रही थी।
राजा अपने आसन से उठकर खड़े हो गए. जन-समूह का कोलाहल उनके उठते ही शांत हो गया। वीरवर भीममल्ल की विजयी आकृति राजा की ओर घूमी।
राजा ने अपना हाथ उठाकर आदेशात्मक स्वर में कहा-' बस वीरवर ...बस करो...शांत हो जाओ! राज भरोड़ा के उत्सव में हमें किसी की हत्या नहीं करनी है, चाहे वह गर्वांध पिच्छड़ पहलवान ही क्यों न हो। तुमने उसके गर्व को चूर तो कर ही दिया, अब उसे मुक्त कर दो। '
'जो आज्ञा महाराज!' कहकर भीममल्ल ने अपने विकट दाँव के बंधन से पिच्छड़ पहलवान को मुक्त कर दिया।
लज्जित पिच्छड़ के गर्व का मानमर्दन हो चुका था। लज्जा से सिर झुकाए उठकर वह अखाड़े में खड़ा हुआ। दोनों हाथ उठाकर कमर और मस्तक झुकाकर राजा जी से उसने आज्ञा ली और अखाड़े से नीचे उतर गया।
जनसमूह ने मार्ग दे दिया और लज्जित पहलवान मस्तक झुकाए भरोड़ा घाट की ओर छोटे-छोटे कदमों से लौट पड़ा।
'वीर शिरोमणि भीममल्ल की जय हो!'
'राजा जी की जय हो!'
'जय हो, जय हो, कमला मैया की जय हो!'
जनसमूह के नारों से पूरा प्रांगण गूंज उठा।
वैद्य की गणना के अनुसार, रानी गजमोती के प्रसव का दिवस आया और उसी दिन रानी गजमोती को विशेष रूप से बनाये गए सोहरी कक्ष में स्थानान्तरित कर दिया गया। प्रसव-निपुण धाइयाँ और नाइनें अब और भी सजग हो गईं, परन्तु सूर्यास्त के पश्चात् भी जब रानी गजमोती को प्रसव-पीड़ा प्रारंभ नहीं हुई तो निश्चिंत होकर राजा विश्वम्भरमल्ल, राजरत्न मंगल द्वारा आयोजित नृत्य-संगीत की सभा में सोल्लास उपस्थित हुए.
'राजा जी का स्वागत...राजा जी का स्वागत!' सर्वज्ञ-काक जग्गा राजा को देखते ही चहका-'राज कुँवर अब आएँगे? कांव-कांव...आएँगे...आएँगे?'
मंगल ने जग्गा से पूछा-'राज कुँवर के आगमन में और कितना विलम्ब है जग्गा?'
'सोहर गीत गाओ...नृत्य करो...वे आएँगे...आएँगे!'
राजा आसन पर आरूढ़ हुए. उनकी आज्ञा से नृत्य प्रारंभ हुआ, वाद्य यंत्र बज उठे। मंगल ने पल-पल की सूचना की व्यवस्था कर दी थी। राजप्रासाद से दास-दासियों का आवागमन निरंतर हो रहा था और मंगल तक सारी सूचनाएँ पहुँच रही थीं।
राजा की दृष्टि नृत्यांगना पर टिकी थीं कि तभी अचानक तीव्रता से राजरत्न मंगल ने उठकर वहीं चक्करदार नृत्य करना शुरू कर दिया। राजा चौंके, प्रजा चौंकी! परन्तु, तुरंत ही सब जान गए कि प्रसव की पीड़ा प्रारंभ हो चुकी है।
तभी सबने देखा-चक्करदार नृत्य करते हुए मंगल का शरीर राजप्रासाद की ओर अग्रसर होने लगा। तुरंत ही नृत्यांगना ने मंच पर नृत्य स्थगित कर दिया। राजा अपनी हवेली के लिए पालकी में विराजे. मुदित राजा और कमला मैय्या के गीत गाती झूमती प्रजा के संग नर्तकियां भी साथ-साथ चल पड़ीं।
परन्तु, नृत्य करते राजरत्न के पूर्व राजप्रसाद तक कोई न पहुँचा। राजा ने पालकी से उतरकर आश्चर्य से देखा-मंगल दरबार में घनघोर नृत्य कर रहा है। वैद्य और ज्योतिषी के साथ-साथ भीममल्ल भी दरबार में उपस्थित हो चुके थे और बाहर का विस्तृत प्रांगण भरोड़ा की जनता से भर गया था। सोहर-गीत गाए जा रहे थे और अंदर दरबार में मंगल माता की स्तुति में निरंतर नृत्य में मग्न था।
तभी रानी गजमोती के प्रसूति-कक्ष से दौड़ती दासियां आईं और राजकुँवर के जन्म का सुखद समाचार राजा को दिया।
मंगल का विकट नृत्य थमा।
पसीने से भींगी मंगल की छाती धौंकनी की तरह चल रही थी। भीममल्ल ने उसे सहारा देकर आसन पर बैठाया।
अंदर का शुभ-समाचार पवन-वेग से उड़कर बाहर जनसमूह में पहुँचा। मंच की नृत्यांगनाओं का नृत्य वहीं प्रारंभ हो गया। वादकों के वाद्य-यंत्र बजने लगे और सारी प्रजा झूम उठी।
रानी गजमोती ने ज्योंही पुत्र-प्रसव किया, उसी समय बहुरा गोढ़िन की तंद्रा समाप्त हो गई. उसके कक्ष में चमगादड़ों ने चीखते हुए उड़ना शुरू कर दिया।
संकट! यही पहला शब्द था, जो बहुरा गोढ़िन ने आधी जाग-आधी नींद की अवस्था में सोचा। शय्या से उछलकर वह पूर्ण जाग्रत हुई.
शीघ्र्रता से दौड़ती हुई महाकाल की प्रतिमा के समक्ष हाँफती हुई पहुँची और वीरासन में बैठ उसने कर्ण पिशाची का आह्वान किया और तत्काल बहुरा जान गई. रानी गजमोती ने अति सुन्दर पुत्र को जन्म दे दिया था।
क्या-क्या न यत्न न किए बहुरा ने, लेकिन विधाता ने उसकी एक न सुनी। नौ महीनों तक उसने अपनी समस्त कापालिक सिद्धियों से निरंतर प्रहार किया, फिर भी रानी गजमोती ने न केवल गर्भधारण कर लिया, बल्कि सुखद वातावरण में अपने पुत्र को अंततः जन्म भी दे दिया।
बहुरा की यह सबसे बड़ी पराजय थी। ... और इस पराजय की अग्नि में वह विगत नौ माह से अहर्निश जलती आ रही थी। कैसी विवशता थी! अपनी सर्वोच्च तांत्रिक शक्तियों की असफलता के पश्चात् वह दुबारा इनका प्रहार नहीं कर सकती थी। इसीलिए नौ मास तक उसने स्वयं को बलपूर्वक रोके रखा। परन्तु, इन नौ मासों में प्रतिपल वह बेचैन रही।
लगातार तांत्रिक शक्तियों के मारण प्रयोग ने उसकी जिन शक्तियों को क्षीण कर दिया था, इस मध्य घोर-अघोर साधना में रत होकर उसने उन्हें पुनः प्राप्त कर लिया था। परन्तु, उसकी उत्सुकता फिर भी समाप्त न हुई. आखिर भरोड़ा की रानी के रक्षा-कवच का क्या रहस्य है? अंत तक वह जान न सकी। अवश्य भरोड़ा में कोई विकट सिद्ध है, जिसने उसकी शक्तियों को निष्फल किया। कौन है वह सिद्ध?
बहुरा की दर्जनों डाइनों ने उस मध्य गुप्तचर के रूप में राज भरोड़ा के चक्कर लगाए, परन्तु इस रहस्य का भेदन न हुआ।
विवश होकर बहुरा ने रानी के प्रसव तक शांत ही रहने का निश्चय कर लिया। अब जो करना होगा, वह रानी के गर्भ से उत्पन्न शिशु पर ही किया जाएगा।
तभी एक विचार ने उसके अंतस को मुग्ध कर दिया। रानी गजमोती अभी प्रसव-गृह में ही रहेगी। प्रसूतिगृह में न अंदर कोई प्रहरी होगा, न बाहर। सारी व्यवस्था कदाचित धाइयों और नाइनें की देख-रेख में होगी।
यदि बहुरा धाई का रूप धारण कर रानी के प्रसूतिकक्ष में पहुँच जाए... तो...? ...किस्सा समाप्त...न तंत्र चाहिए न मंत्र! वहाँ तो बड़ी सरलता से वह नवजात शिशु को ग्रस लेगी। हा! हा! हा! ... अट्टहास लगाया बहुरा ने।
इस विचार से विमुग्ध बहुरा ने तत्काल निश्चय कर लिया। वह रूप बदल कर रानी के प्रसव-गृह में जाएगी...अवश्य जाएगी।
इसी निश्चय के साथ बहुरा ने उठकर महाकाली को प्रणाम किया और अपनी हवेली से बाहर आ गई.
हवेली के बाहर गूलर के विशाल वृक्ष के नीचे मौन बहुरा क्षण भर को खड़ी रही। खड़े-खड़े उसने कुछ सोचा और तदुपरांत उसी वृक्ष के नीचे बैठ उसने अपनी आँखें बंद कर लीं।
रात्रि का घना अंधकार! मेघाच्छन्न आकाश! कड़कती बिजली! हवा में ठंढ की तीव्रता बढ़ गयी थी। ऐसे में गूलर के वृक्ष के चारों ओर का वातावरण बड़ा भयावह लग रहा था।
आधी घड़ी तक बहुरा वहीं आँखें बंद किए बैठी रही। तभी दर्जनों स्त्रिायाँ आकर बहुरा के समीप एकत्रित हो गयीं।
बहुरा ने आँखें खोलीं-'मैंने तुमलोगों को विशेष मंत्रणा हेतु इस समय बुलाया है...चलो मेरे साथ।'
कहकर बहुरा उठकर अपनी हवेली की ओर चली। सभी स्त्रिायां बहुरा के पीछे चलती हुई हवेली के कक्ष में आ पहुँची।
मौन, परन्तु गंभीर बहुरा के बैठ जाने के पश्चात् सभी स्त्रिायां वहीं भूमि पर पसर कर बैठ गयीं।
'एक घड़ी पूर्व भरोड़ा की रानी ने पुत्र को जन्म दिया है-' बहुरा ने मौन तोड़कर कहा-'कल तक मेरी तांत्रिक शक्तियां विवश थीं; क्योंकि उनके पुनः आह्वान का अर्थ था मेरा सर्वनाश। अब रानी के प्रसव के उपरान्त मेरी विवशता समाप्त हो गई है और मैंने जो निश्चय किया है, उसपर विचार करने हेतु तुमलोगों को अर्द्धरात्रि में बुलाना पड़ा है।'
सारी स्त्रिायां सजग होकर सुनने लगीं। बहुरा ने आगे कहा-'तुम सभी ने तंत्र विद्या सिद्ध की है और बखरी सलोना की तुम्हीं प्रमुख शक्ति हो। मुझे तुम्हारी सहायता चाहिए...तुम सभी का समर्थन चाहिए.'
अपनी बात कहकर बहुरा मौन हो गई. उसकी चंचल आँखें बैठी हुईं स्त्रिायों की प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा में बांएँ से दाहिने घूमने लगीं।
तभी वीरा ने देखा-पोपली काकी कक्ष के द्वार पर खड़ी बड़े ध्यान से उसे देख रही थी।
काकी को देखते ही वीरा के नेत्रों में श्रद्धा-भाव झलकने लगा। उसने कहा -'अच्छा हुआ कि तुम आ गयीं काकी...आदेश दो मुझे अब क्या करना उचित है?'
'तुम्हारी इच्छा क्या है, पुत्री?'
'काकी तुम तो जानती हो-' बहुरा ने कहना शुरू किया-'मैंने किस प्रकार रानी गजमोती के गर्भ पर बाण चलाए थे। मंगल पर और बाद में रानी पर भी मारण-तंत्र का प्रयोग किया था, परन्तु दोनों पर मेरे सभी प्रयोग व्यर्थ हो गए और अंततः आज रानी ने अपने पुत्र को जन्म भी दे दिया।'
'तो अब क्या करोगी तुम? उस नवजात शिशु पर अपनी सिद्धियों को व्यर्थ करोगी?'-वृद्धा ने पूछा।
'व्यर्थ करूंगी?' बहुरा चौंकी-'तुम्हारा तात्पर्य क्या है काकी? क्या मेरी शक्तियां इस नवजातक के लिए भी।'
आगे और कुछ कह न सकी बहुरा; क्योंकि तभी काकी ने विकट अट्टहास किया। हँसते हुए ही उसने पुनः कहा-'कितनी मूर्ख है री वीरा...? तुमने अपनी तीनों डाकिनियों को खो दिया, जो तुम्हारी सिद्धि की चरम उपलब्धि थी। फिर भी, तुम्हें ज्ञान न हुआ कि कोई महान् शक्ति है, जो भरोड़ा की रक्षा में तत्पर है, अन्यथा क्या यह संभव था कि तुम्हारी सिद्धियों का ऐसा उपहास होता? पूरे नौ माह व्यतीत हो गए और हमें आज तक इस रहस्य का कोई पता न चला। मैं स्वयं समूचे भरोड़ा का चक्कर लगा आयी थी। मुझे वहाँ न कोई तांत्रिक मिला न मांत्रिक। न कोई सिद्ध मिला, न कापालिक।'
थोड़ी देर रूककर उसने फिर पूछा- 'वैसे यह तो बता पुत्री...तुमने आखिर सोचा क्या है?'
'यही तो बता रही थी काकी, लेकिन तुमने तो मुझे कहने ही न दिया।'
'बता...बता दे अब, क्या चाहती है तू?'
'मैं आज ही रानी गजमोती के प्रसव-गृह में प्रविष्ट होना चाहती हूँ।'
'नहीं पुत्री, नहीं...ऐसी भयंकर भूल कदापि न करना। इस दुःसाहस का क्या परिणाम होगा, यह कह नहीं सकती। नीति है कि दुश्मन के बलाबल का ज्ञान प्राप्त किये बिना उसपर प्रहार नहीं करना चाहिए. इस घड़ी हम कुछ नहीं जानते हैं...भरोड़ा की रक्षा आखिर कौन-सी शक्ति कर रही है। अभी अपनी इस आत्मघाती इच्छा को दबा दे और हमें विचार करने दे...रहस्य का अनुसंधान होने दे तब ...हम रानी गजमोती के पुत्र को सहज ही विनष्ट कर देंगे।'
काकी ने समयानुकूल सलाह दी थी, परन्तु बहुरा के धीरज का बांध तो टूट चुका था। विगत नौ मास से वह एक-एक कर अत्यन्त व्यग्रता से रानी के प्रसव के दिन गिन रही थी। अब और शांत रहना उसे सहन न था, परन्तु काकी की आज्ञा का निरादर भी वह नहीं कर सकती थी।
'क्या सोचने लगी पुत्री-' काकी ने उसे टोका-'मेरी सलाह तुम्हें अच्छी नहीं लगी...यह मैं जानती हूँ, परन्तु मैं विवश हूँँ...तुम्हें खोना नहीं चाहती। मेरी बात मान...अभी शांत हो जा और प्रतीक्षा कर। यों भी एक नवजात की हत्या का दुष्परिणाम जानती है? हमारे तंत्र में सर्वथा निषिद्ध है यह और अगर तू अपने प्रण पर उद्धत है, उस नवजात की हत्या में सफल भी हो जाती है तो सोच ले...इसका विपरीत दुष्परिणाम तेरी सिद्धियों पर क्या होगा?'
'परन्तु काकी,' बहुरा ने अत्यंत पीड़ा से कहा-'तुम ही कहो क्या करूं मैं? ...मेरा रोेम-रोम जल रहा है। नौ महीनों में एक रात भी मुझे पूरी नींद नहीं आयी है। आधी-आधी रात में चौंककर उठ बैठती हूँ मैं। मैंने बड़ी विवशता में ये नौ महीने काटे हैं और अब तुम मुझे रूकने कहती हो तो इच्छा होती है स्वयं को माँ के कुण्ड में अर्पित कर दूँ। इस विफलता की अग्नि को और सहन करना मेरे वश में नहीं है, काकी...तुम्हीं कहो मैं क्या करूँ?'
कहते-कहते आवेश से भर गयी बहुरा।
'शांत! पुत्री शांत...! चित्त को शांत कर वीरा और मेरी बात सुन। फिर वही कर, जो तेरी इच्छा हो!' काकी इतना कहकर रुकी। उसने बहुरा के तमतमाए मुख को शांत भाव से देखा और पुनः कहने लगी-'मेरी माने तो तू अवधूतिनी बन जा। अपने शरीर के सुप्त चक्रों को जागृत कर। तू नहीं जानती, सुप्त चक्रों के जाग्रत होने पर कैसी-कैसी विकराल शक्तियों की स्वामिनी बन जाएगी तू।'
बहुरा पुनः चौंकी। उसे पता नहीं था यह 'अवधूतिनी' क्या होती है और शरीर के सुप्त शक्ति-चक्र का रहस्य क्या है। उसने शांत होकर काकी से पूछा, 'क्या कह रही हो काकी? तुमने तो इस अवधूतिनी शक्ति के विषय में पहले कुछ नहीं बताया। यह कौन-सी शक्ति है?'
काकी हँसी. हँसते हुऐ ही उसने उपस्थित डायनों को देखा। उसकी इच्छा नहीं थी कि सभी के समक्ष बहुरा को 'अवधूतिनी सिद्धि' का रहस्य बताए. बहुरा समझ गई. उसने सभी डायनों को विदा कर काकी को अपने समीप बैठाया-'हाँ काकी अब इस अवधूतिनी सिद्धि का रहस्य खोलो।'
' ध्यान से मेरी बात सुन बहुरा! तुझे पुरूष-संग संभोगरत होना होगा...विस्मय मत कर! यह योग और काम को एकाकार करने की साधना है। इस साधना में काम की उद्दाम शक्ति को रोक कर नीचे से ऊपर चक्रों की ओर अग्रसर कर दिया जाता है और उससे एक के बाद एक चक्र का भेदन करते हुए षट्चक्र तक पहुँचना होता है। इसे सिद्ध करने वाले पुरूष को अवधूत कहते हैं और साधना की सहयोगिनी को अवधूतिका। अवधूतिका-सिद्धि के उपरांत तू अनंत शक्तियों की स्वामिनी हो जाएगी। '
बहुरा ने कौतूहलपूर्ण आँखों से काकी को निहारा। उसे यह अबूझ पहेली लगी। काम और योग के इस समन्वय से वह चकित हो गयी।
' तू चिन्ता मत कर, पुत्री! मैं सब सम्हाल लूंगी और अब, तब तक क्रोध की इस अग्नि को प्रज्वलित रख। इसे कभी बुझने न देना, 'काकी ने रहस्यपूर्ण मुस्कुराहट से बहुरा को देखते हुए कहा-' एक अंतिम कथन और सुन ले। अबोध नवजात शिशु की मृत्यु तो लोग फिर भी सहन कर लेते हैं, परन्तु जब किसी के कंधे का सम्बल युवा होकर अकाल मृत्यु को प्राप्त करता है तो उसे सहन करना असंभव होता है। ' कहकर काकी ने भयंकर अट्टाहास शुरू कर दिया।