कुँवर नटुआ दयाल, खण्ड-7 / रंजन

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'गुरूदेव!' बखरी सलोना से पोपली काकी का संदेश लेकर माया दीदी आयी हैं, 'शिवदत्त नाथ ने नतजानु होकर गुरु भैरवनाथ से कहा-' उन्हें द्वार पर ही रोककर आया हूँ। आज्ञा हो तो उन्हें श्रीचरणों में उपस्थित करूँ? '

चम्पापुरी स्थित नाथसम्प्रदाय का यह आश्रम गुरु भैरवनाथ के अधीन संचालित था। शिवदत्तनाथ उनके प्रधान शिष्यों में थे। शिवदत्त ने जब बखरी की माया दीदी से गुरू-दर्शन का प्रयोजन जानना चाहा तो दीदी ने स्पष्ट कह दिया, उसके पास गुरुदेव के लिए पोपली काकी का व्यक्तिगत संदेश है और वह उनके अतिरिक्त और किसी को वह संदेश नहीं दे सकती।

चम्पापुरी स्थित नाथसम्प्रदाय के सिद्धों में बखरी की पोपली काकी और माया की ऊँची प्रतिष्ठा थी। पोपली काकी को सभी उच्चस्तरीय वाममार्गी साधिका और माया को भैरव चक्रीय नृत्य की विशेषज्ञा मानते थे।

माया को सादर प्रणामकर शिवदत्त ने उन्हें वहीं प्रतीक्षा करने का अनुरोध किया और शीघ्रता से गुरुदेव को सूचित कर आज्ञा की प्रतीक्षा में मौन खड़ा हो गया।

गुरुदेव ने आँखों से ही संकेत देकर माया को उपस्थित करने की आज्ञा दे दी। माया ने आते ही दोनों हाथों की उंगलियों से शंख मुद्रा बनाकर गुरु भैरवनाथ का अभिवादन किया।

'आसन ग्रहण करो देवी!' गुरु ने अंगुलियों से चिन्मुद्रा बनाकर शांत-गंभीर वाणी में कहा।

माया दीदी गुरुदेव के समक्ष वज्रासन में विराज गयीं तो गुरु भैरवनाथ ने पुनः कहा-'श्रेष्ठ साधिका पोपली का क्या संदेश है देवी?'

'सर्वप्रथम उन्होंने अपना सादर अभिवादन दिया है, गुरुदेव! तत्पश्चात् काकी ने आपका कुशल-क्षेम जानना चाहा है। आपके नाथमण्डप के लिए शुभकामनाएँ प्रेषित की हैं।'

'हम श्रेष्ठ साधिका पोपली का उनकी शुभेच्छाएँ हेतु आभार प्रकट करते हैं! हमारा आभार उन्हें व्यक्त कर देंगी देवी माया?'

'अवश्य गुरुदेव! अब आज्ञा दें तो उनका विशेष अनुरोध प्रस्तुत करूँ।'

गुरुदेव तो शांतचित्त थे, परन्तु शिवदत्त तथा अन्य शिष्यों की उत्सुक दृष्टि माया पर जा टिकी।

माया ने पुनः नतजानु हो शंख-मुद्रा धारण की, 'गुरुदेव! आपको तो विदित ही है कि बखरी-सलोना में वहाँ की स्वामिनी और प्रखर साधिका बहुरा के नेतृत्व में हमारी पोपली काकी ने' भैरव-मण्डप'की स्थापना की है। अंचल की समस्त कुँवारी नवयुवतियों को भैरवी बना दिया गया है।'

'मुझे इसकी सूचना है-' गुरुदेव ने कहा-'और मैं बखरी सलोना के कार्यकलापों से प्रसन्न भी हूँ। श्रेष्ठ साधिका पोपली ने संदेश क्या दिया है, वह कहें देवी!'

माया ने फिर मस्तक नत किया-'अब वही कहना है गुरुदेव! काकी की इच्छा है कि अब शीघ्र ही बहुरा अपने साधना-पथ की अगली श्रेणी' दिव्य'स्थिति को प्राप्त करे।'

'यह तो श्रेष्ठ विचार है-देवी माया!' गुरूदेव ने प्रसन्नता से कहा और देवी पोपली सर्वथा समर्थ साधिका भी हैं। बहुरा को 'दिव्य' स्थिति प्रदान करने में उन्हें क्या कठिनाई है, देवी माया? '

'गुरुवर!' माया ने कहा-'काकी की इच्छा है,' बहुरा'के सुप्त कुण्डलिनी-चक्रों का जागरण प्रणय-समाधि की साधना से सम्पन्न हो। उनकी मान्यता है कि नारी के लिए यही सर्वोत्तम-मार्ग है, क्योंकि अन्य साधना मार्ग की तुलना में यह सबसे सहज है और सुगम भी।'

'उत्तम!' तो हमारी वरिष्ठ साधिका मुझसे क्या चाहती हैं, देवी? '

'गुरुवर! आपके अनुमोदन की आकांक्षा है उन्हें।'

'अनुमोदन है!' देवी पोपली इस अनुष्ठान में यदि हमारा सहयोग भी चाहेंगी तो हम सहर्ष प्रस्तुत हैं। परन्तु, देवी माया! मैं वरिष्ठ साधिका पोपली देवी के इस विचार से सहमत नहीं हूँ कि नारियों के लिए यही मार्ग सबसे सहज है। प्रणय- साधना के माध्यम से चक्रों का भेदन सहज नहीं है। सर्वप्रथम तो शक्ति-विस्फोट को आत्मसात् करने का सामर्थ्य आम नारी के लिए सम्भव नहीं। इस सामर्थ्य हेतु लम्बी साधना करनी होती है। इसके अतिरिक्त, 'सहजोली' क्रिया में भी सिद्ध होना आवश्यक है। मुझे विश्वास है हमारी वरिष्ठ साधिका इन विषयों से भली भांति अवगत होंगी। '

माया ने मधुर मुस्कान के साथ कहा-'सत्य है गुरूदेव! पोपली काकी के निर्देशन में' बहुरा'की साधना चल रही है। साधना के समापन पर ही काकी को आपकी सहायता चाहिए.'

गुरु भैरवनाथ की मुखमुद्रा पर संतोष का भाव उभरा। उन्होंने कहा-'ठीक है, देवी माया! उचित अवसर पर मैं अपने योग्य शिष्य को प्रस्तुत कर दूंगा।' पुनः गुरुदेव ने शिवदत्त से कहा-' शिव! देवी माया के लिए जलपान एवं विश्राम की व्यवस्था करो, तत्पश्चात् इन्हें सादर विदा करो।

'जैसी आज्ञा, गुरुदेव!'

देवी माया ने गुरुदेव का सादर अभिवादन किया और शिवदत्त के साथ कक्ष से बाहर चली गयी।

देवी माया को विदा कर गुरूदेव ने अपनी आँखें बंद कर लीं। पद्मासन में बैठे गुरु भैरवनाथ की उंगलियों ने चिन्मय मुद्रा ग्रहण की और वे तत्काल ध्यानस्थ हो गए.

कक्ष में बैठे शिष्यों की चेतना में बहुरा का सौंदर्य छाया था। उनके अंतस् में बार-बार एक ही प्रश्न उठ रहा था-गुरुदेव बहुरा के समक्ष किसे भेजेंगे? उसके अनुपम सौंदर्य, दिव्य रूप और लावण्य की चर्चा से चम्पापुरी का समस्त नाथसम्प्रदाय पूर्व से ही पूर्ण परिचित था। अतः, आज की चर्चा ने इनकी काम-वासना की दावाग्नि को पूर्णरूपेण दहका दिया था। उपस्थित सारे शिष्यों की एक ही कामना थी कि गुरुदेव बहुरा की सेवा में उसी का चयन करें तो अच्छा।

गुरु ध्यान मेें और समस्त शिष्य काम-वासना में मग्न थे। आपस में कोई वार्तालाप न हो रहा था। परन्तु, उनके मौन अतःकरण में भीषण कोलाहल उठ खड़ा हुआ। उद्वेलित तो सभी थे, परन्तु ब्रह्मदत्त की कामाग्नि अनियंत्रित हो रही थी। वह बखरी सलोना से ही आया था और बहुरा की सुन्दरता तथा उसके अक्षत यौवन का उन्माद उसके रोम-रोम में भरा था।

चम्पापुरी में वह जिस भी नवयुवती को देखता, उसकी तुलना बहुरा से करने लगता और सुन्दर से सुन्दर कन्याएँ भी उसे तुच्छ प्रतीत होने लगतीं।

यही स्वर्णिम अवसर है। गुरुदेव को जैसे भी हो प्रसन्न करना होगा। इस अवसर को कदापि गँवाना नहीं है। इस कल्पना ने उसे इसप्रकार रोमांचित किया कि उसने अपनी पलकें बंद कर लीं और डूब गया बहुरा की कल्पना में। अपनी जागी-जागी आँखों से उसने देखा-' कक्ष में उसके और बहुरा के अतिरिक्त और कोई नहीं है। अभिसारिका बनी बहुरा ने सोलहों शृंगार किया है। उसके हाथों में मेंहदी लगी है। सम्पूर्ण तन फूलों के गहनों से लदा है। अपनी कल्पना में उसने और भी रंग भरने शुरू कर दिए. उसके अधरों पर मुस्कान थिरकी। उसने कल्पना की, फूलों के आभूषण के अंदर बहुरा ने कोई वस्त्रा-धारण नहीं किया है। उसकी धड़कनें बढ़ गईं। श्वास की गति तीव्र होने लगी। उसके ललाट पर पसीने की बूंदें उभरने लगीं। उसका समस्त शरीर तपकर थरथराने लगा।

गुरु भैरवनाथ ध्यान-मुद्रा से मुक्त हुए. उनकी पलकें खुलीं तो देखा कि ब्रह्मदत्त का शरीर पत्ते की भांति कांप रहा है। उन्होंने क्षण भर के लिए फिर से आँखें बंद कर लीं और पुनः जब आँखें खोलीं तो उनके अधरों पर मंद मुस्कुराहट थी।

ब्रह्मदत्त जब बखरी से चम्पानगरी आया था, तब उसकी उम्र तीस वर्ष थी। उसका पारिवारिक व्यापार था-मछली मारना। बखरी में उसकी पत्नी और चार बेटियां थीं। साँवला और स्वस्थ ब्रह्मदत्त की एक आँख उसके बचपन में ही माता की भेंट चढ़ गयी थी। उसके मुखमण्डल पर माता ने अपनी स्पष्ट निशानी इतनी गहरी छोड़ी थी कि उसकी पत्नी ने भी कभी उसे दृष्टि भरकर देखने का साहस न किया था।

प्रथम मधुमास की रात्रि में उसकी नवविवाहिता पत्नी की दबी-सी चीख उसे देखते ही निकल गयी थी और बेबस ब्रह्मदत्त उसके बाद कभी पत्नी-सुख न भोग पाया। फिर भी विधाता ने चार पुत्रियाँ देकर उसके दुःख को कम करने का प्रयत्न किया।

उसकी साँवली पत्नी की काया इतनी सुन्दर और सुगठित थी कि अनेक कापालिक और सिद्ध उसकी सेवा ग्रहण करते और आशीर्वाद में उसका गर्भाधान कर देते।

ब्रह्मदत्त की कुंठा बढ़ती गई और ज्यों-ज्यों पुत्रियाँ बड़ी होती गईं, त्यों-त्यों गृहस्थी से उसकी रुचि घटती गई. उसने मछली पकड़ना बंद कर दिया। बेटियों के साथ उसकी पत्नी मछली मारती और बेचकर परिवार चलाती। यह क्रम चलता रहा कि एक दिन बहुरा के आदेश से उसकी पुत्रियां भैरवी बन गईं। मछली मारना और बेचना अकेले उसकी पत्नी के वश का काम न रहा। यों भी ब्रह्मदत्त से पत्नी की बनती भी नहीं थी। नित्य की किचकिच से परेशान होकर उसने एक दिन बखरी ही छोड़ दिया।

अब उसकी उम्र बत्तीस वर्ष की हो गई थी और नाथसम्प्रदाय में शरण पाकर उसे पूर्ण संतोष प्राप्त हुआ था। नारी-तन का भोग वहाँ सहज-सुलभ था। समस्त गृहस्थ स्त्रिायाँ वाममार्गी सिद्धों की पत्नी-सदृश थीं। ब्रह्मदत्त को अब न पेट की चिन्ता थी, न पेट के नीचे वाले की। बेहद खुश और सन्तुष्ट था वह। अगर कोई कमी थी तो उस कमी का निर्माण भी स्वयं उसी ने किया था। नारी के सौन्दर्य का पैमाना उसने बखरी की बहुरा को बना रखा था और दुर्भाग्य से संसार की समस्त नारियाँ उसे बहुरा के समक्ष तुच्छ लगती थीं।

गुरु भैरवनाथ ने भृकुटि के संकेत से एक शिष्य को आदेश दिया तो उसने ब्रह्मदत्त के कंपकपाते शरीर को स्पर्श कर उसे पुकारा-'ब्रह्मदत्त! ...ब्रह्मदत्त...!'

कल्पना-संसार से बलात् लौटकर ब्रह्मदत्त यथार्थ के धरातल पर वापस आया। उसने देखा-सारे गुरुभाई उसे घेरकर बैठे हैं तथा गुरुदेव उसे देखते हुए मुस्करा रहे हैं।

गुरु भैरवनाथ ने अपने समस्त शिष्यों को आज अपने पास बुलाया था। गुरु का अभिवादन कर जब सारे शिष्य उनके चरणों में बैठ गए, तब उन्होंने कहना प्रारंभ किया-

' आज तुम सभी को मैंने विशेष प्रयोजन से अपने पास बुलाया है। तुम सभी साधकों को आज मैं उस महत् तांत्रिक प्रक्रिया की बाहरी रूपरेखा की संक्षिप्त जानकारी देना चाहता हूँ, जिससे तुम्हारे शरीर की सुप्त शक्तियों का जागरण संभव है। तुम उन सुप्त शक्ति-चक्रों को भलीभांति जानते हो, जो कुण्डलिनी शक्ति कही जाती हैं।

वैष्णवमार्गी इसे भक्ति-भजन-संकीर्त्तन से जाग्रत कर महाशक्ति का सायुज्य प्राप्त करते हैं। योगी ध्यान-प्रत्याहार एवं समाधि से तथा तपस्वी तपस्या से। परन्तु उनका यह मार्ग इतना लम्बा है कि बहुधा वे एक जन्म में अपनी यह साधना पूरी करने में असफल रह जाते हैं।

हमारे तंत्र में यही साधना स्त्राी-संभोग के माध्यम से की जा सकती है। परन्तु यह भोगियों के लिए नहीं है और आज मैंने इसी विशेष प्रयोजन से तुम्हें बुलाया है। मेरे कुछ शिष्यों में कई प्रकार की भ्रान्तियां फैली हैं। वे इस तांत्रिक यौन-क्रिया को साधारण संभोग समझने की भूल कर बैठे हैं। तांत्रिक साधना में जो सबसे कठिन साधना है, वह है वासनाहीन प्रणय-समाधि।

जिस प्रकार सृष्टि के सर्जन में शक्ति, सृजनकर्ता एवं शिव द्रष्टा हैं, उसी प्रकार तंत्र में स्त्राी का स्थान गुरु का और पुरूष का स्थान शिष्य का है। वास्तव में तांत्रिक परम्परा स्त्राी से पुरूष को हस्तांतरित होती है।

नारी की शक्ति के कारण ही संभोग संभव है। इसकी सभी आवश्यकताओं की पूर्त्ति वही करती है। प्रणय-समाधि मंथ नारी कर्ता एवं संचालक की भूमिका निभाती है तथा पुरूष उसका माध्यम बनता है। उच्च अवस्था प्राप्त साधिका में पुरुष पात्र में जागरण लाने की क्षमता होती है। उचित क्षण में उसे विन्दु का सर्जन करना होता है, ताकि पुरूष-पात्र वज्रोली का अभ्यास प्रारंभ कर सके अन्यथा बिन्दु वीर्य में परिवर्तित हो स्खलित हो जाता है।

इसीलिए, प्रणय-समाधि के माध्यम से सुप्त शक्तियों के जागरण हेतु जो लोग इच्छुक हैं, उन्हें कामवासना का त्याग कर इसकी तैयारी करनी चाहिए.

अपनी बात समाप्त कर गुरुदेव ने कुछ क्षण मौन हो शिष्यों को देखा, मुस्कुराए और पुनः कहा-'किसी को कुछ शंका है...कुछ जानना है...तो निःसंकोच कहो!'

ब्रह्मदत्त ने पूरे उत्साह से गुरूदेव की बातें सुनी थीं। गुरूदेव के कहते ही वह उठकर खड़ा हो गया-'गुरूदेव! इस मार्ग के लिए कैसी साधना की जाती है? मेरी भी अभिलाषा है कि मैं अपनी सुप्त शक्तियों को जाग्रत करूँ।'

'मुझे यही आशा थी कि प्रथम जिज्ञासा तुम्हारी ही होगी।'-कहकर गुरु भैरवनाथ मंद-मंद मुस्कराए. फिर कहा-'शिष्य ब्रह्मदत्त! इस साधना की पहली सिद्धि है-स्खलन पर नियंत्रण। सर्वप्रथम तुम्हें वज्रोली मुद्रा, मूलबंध तथा उड्डीयन बंध में दक्ष होना होगा, तभी तुम अनुभव के किसी भी स्तर पर उसे रोक सकते हो। परन्तु, इन साधनाओं के पूर्व तुम्हें छह विभिन्न आसनों-पश्चिमोत्तानासन, शलभासन, वज्रासन, सुप्त वज्रासन एवं सिद्धासन के साथ-साथ शाम्भवी मुद्रा का निरंतर अभ्यास करना होगा। इन समस्त आसनों, मुद्राओं तथा साधनाओं को पूरी तरह सिद्ध करने के पश्चात् तुम्हें कुम्भक साधना करनी होगी।'

ब्रह्मदत्त गुरूदेव की बातों से पूरी तरह निराश हो गया। उसकी मुखाकृति पर घोर निराशा का भाव इतनी तीव्रता से प्रकट हुआ कि समस्त शिष्यों के अधरों पर मुस्कान उभर आयी।