कुँवर नटुआ दयाल, खण्ड-8 / रंजन

Gadya Kosh से
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रात का दूसरा प्रहर बीतने को आया, परन्तु मधुरिया माय की आँखों से नींद गायब थी। पति गनौरी गोढ़ी की आँखें निद्रा के बोझ तले बोझिल होती जा रही थीं, परन्तु मधुरिया माय की जिद थी कि समाप्त ही नहीं हो रही थी।

'मुझे कुछ भी ज्ञात नहीं! हम कहाँ जाएँगे? क्या करेंगे और क्या खाएँगे? ...मैं कुछ नहीं जानती। मुझे अब इस नरक में और नहीं रहना है... बस। हमें साथ लेकर इस डायन के देश से बाहर चलो।'

गनौरी चिन्तामग्न हो गया। खीझकर उसने कहा-' कुछ समझती तो हो नहीं... हठ पर अड़ी हो। देश-काल का कुछ भी ज्ञान नहीं है? कहाँ क्या हो रहा है। चम्पापुरी जाओ तो पुत्री मधुरिया के साथ अपनी प्रतिष्ठा भी बचानी कठिन हो जाएगा। तुम्हें ज्ञात नहीं है...वहाँ के कापालिक और सिद्ध मुँह बाये स्त्रियों की गंध सूंघते फिरते हैं। कैसे जाएँ वहाँ? '

'तो मधुरिया की ससुराल चलो। वहीं भरोड़ा मेें बस जाएँगे हम।'

'नहीं भरोड़ा तो कदापि न जाएँगे हम।'

'क्यों?'

'भरोड़ा पर बहुरा की आँख पहले से गड़ी है। वहाँ बचना कठिन है। फिर जब दामाद ही नहीं रहा तो मधुरिया की ससुराल कहाँ से आई?'

'तो क्या इस धरती पर हमें कहीं आश्रय नहीं मिलेगा?'-मधुरिया माय ने अंततः हथियार डालते हुए पूछा।

'सोचेंगे...तनिक अवसर तो दे विचार करने का। तू तो सोचने तक नहीं दे रही है। दो प्रहर रात बीत गई, फिर भी बकर-बकर करती जा रही है।'-गनौरी ने उबासी लेते हुए कहा।

'अब एक नींद सोने दे मुझे...बिहाने सोचेंगे और टोला में सबसे विचार भी करेंगे, अरे किस घर में पुत्री नहीं है? सबके साथ वही समस्या है, जो हमारे साथ है। अब सो जा और मुझे भी सोने दे।'

इतना कहकर गनौरी ने आँखँ बंद कर लीं। तुरंत ही उसकी नाक भी बजने लगी, परन्तु उसकी पत्नी की आँखों से नींद तो कोसों दूर थी। लेटी-लेटी वह जलते दीये की लौ टुकुर-टुकुर देखती रही।

दिन चढ़े तक गनौरी सोता रहा और उसकी पत्नी कुढ़ती रही। बाँस भर सूरज चढ़ आया तो गनौरी ने स्नान कर भोजन किया और मस्तक पर गमछा बाँध ऊपरी टोला में अपने बचपन के दोस्त फुल्लो गोढ़ी के पास जा पहुँचा।

'हम क्या सलाह दें, गनौरी?' फुल्लो ने कहा-' यहाँ तो हमरा पूरा टोला ही बखरी छोड़ने को तैयार बैठा है। रोज एक ही विचार होता है कि जाएँ कहाँ?

...ऊपर से भय भी है कि बहुरा की डाकिन तो हवा के साथ उड़कर कहीं भी जा सकती है। उससे बचने का क्या मनसुआ निकाला जाए. हमरे ऊपरी टोला में यही गप्प रोज हो रहा है। अब तुमको भाई हम क्या सलाह दें? '

गनौरी जब निराश होकर लौट रहा था तो निचले टोला के कुछ लोग रास्ते में मिल गए.

'अरे गनौरी बड़े बुझे-बुझे से लग रहे हो भैया! बात क्या है?'

गनौरी को देखते ही शीतला ने पूछा।

'अब सुखी रहने और खुशी मनाने के दिन गए शीतला!' गनौरी ने कहा-'अपना दाना-पानी बखरी सलोना से उठ गया, समझो।'

'ठीक ही कहा गनौरी भैया-' शीतला ने फुसफुसा कर कहा-'इस डायन के चंगुल से निकले तो समझो कल्याण, नहीं तो नाचते रहो इसके संकेत पर और बेटियों को अपने अंगना में ही रखकर बूढ़ी कर दो। हमरे निचले टोला का सब लोग घर से भागने को तैयार हैं...बस जुगत ही नहीं बैठ रही।'

सूरज के डूबते-डूबते गनौरी ने सबसे बात कर ली। सबकी एक ही स्थिति थी। एक ही मरद का बच्चा मिला उसे भरदो मंडल, जिसने जलती हुई आँखों से पूरे बखरी को गालियां दीं और कहा-'अरे गनौरी! तुम सब चूड़ियाँ पहन कर बैठ जाओ अपने-अपने घर में। छिः! छिः! ...धिक्कार है तुम सब पर! एक जनानी के डर से सब के सब चुप हो। अरे, मैं पूछता हूँ, क्या कर लेगी वह? सारा बखरी उठकर यहीं खड़ा हो जाए एक साथ तो क्या करेगा उसका जंतर और मंतर? खा जाएगी वह सबको? बोलो...क्या कर लेगी वह? मैं तो कहता हूँ चलो हमरे साथ और आग लगा दो ड्योढी में। चाहे जय की छय। मरना होगा तो मर जाएँगे एक ही बार, इस प्रतिदिन के मरने से तो भला, हम इकट्ठे मर जाएँ एक्के बार और क्या पता, हम ही मार ही दें उस चुड़ैल को। साहस तो करो मेरे साथ गनौरी..., चलो ऐसा करो, सबके आगे मुझे रखना। हमरे मरने के बाद ही बाकी कोई मरेगा। बोलो स्वीकार है?'

कुछ न कह सका गनौरी। परन्तु, विद्रोह का प्रथम स्वर तो उठा...इस स्वर के साथ और भी स्वर शीघ्र उठेंगे। यही सोचता हताशा में भरा गनौरी घर आया तो वहाँ आंगन में स्त्रिायों की बैठकी जमी थी।

उन्हें देखते ही गनौरी भय से आक्रांत हो गया। अंचल की अनेक डायनें, भैरवी तथा स्त्रिायाँ गोल बना कर बैठी थीं।

गनौरी समझ गया-खेल समाप्त! अब बहुरा की क्रोधाग्नि से उसे कोई बचा नहीं सकता। अंगना में प्रविष्ट होते ही सबकी आँखें उस पर उठीं। अब तो वह भाग भी न सकता था। उसके पाँव थरथराने लगे, गला सूखने लगा तथा मुख पर हताशा और घनी हो गयी।

'अरे बेटा क्या हो गया तुझे?' तिनकौड़िया की माँ उसकी दशा देखकर बोली-'इधर आ बेटा! ...सब ठीक हो जाएगा...चिन्ता न कर।'

सन की तरह सफेद बालों वाली तिनकौड़िया माय, गनौरी के पड़ोस की सबसे वृद्धा डायन थी। तिनकौड़िया माय की धाक पूरे अंचल में थी। कारण भी था इसका। वे पोपली काकी की न केवल सहयोगिनी थीं, वरन सखी भी थीं।

भारी मन से चलता गनौरी जब पास आया तो वृद्धा ने कहा-'आ बैठ यहाँ!'

गनौरी के बैठते ही वृद्धा ने उसके मस्तक पर मुस्कराते हुए हाथ फिराए फिर ममता भरे स्वर में कहा-' तू चिन्ता क्यों करता है बेटा? मधुरिया क्या केवल तुम्हारी पुत्री है... और बखरी में क्या एक वही अकेली है, जिसने अपने पति को खोया है? ... अरे पगले, बखरी की सत्तर बेटियों ने अपनी माँग सूनी कर दी है। ' तिनकौड़िया माय ने अपनी बात कहकर गनौरी के मुख पर दृष्टि गड़ाई, फिर कहा- ' यह समस्या एक अकेली मधुरिया की नहीं है। मैं स्वयं आज तक शांत रही। देखती रही सब कुछ अपनी आँखों से और सोचती रही क्या भविष्य है बखरी का? ... हमारी बेटियां यों ही विधवा होती रहीं तो कौन आयेगा हमारी बेटियों की माँग भरने? '

वृद्धा ने पुनः गनौरी के कंधे पर प्यार से हाथ रखकर कहा-'मैं आज तक चुप रही तो इसका यह अर्थ नहीं था कि मैं बहुरा का समर्थन कर रही थी। ...अरे, ऐसा ही रहा तो हमारा बखरी सलोना एक दिन नरक से भी निकृष्ट हो जाएगा। मैंने निश्चय कर लिया है तुम्हारी पोपली से बात करूंगी और विश्वास रख अपनी चाची पर... सब ठीक हो जाएगा गनौरी! किसी को बखरी छोड़कर कहीं नहीं जाना है। काल भैरव सबका भला करेंगे। ... मैं जाती हूँ बेटा, तुम्हारी ही प्रतीक्षा में बैठी थी।'

वृद्धा उठ कर खड़ी हो गयी-'तुम लोग भी अपने-अपने घर चली जाओ और अपने-अपने पति को समझाओ. शीघ्र ही समस्या का निदान हो जाएगा। भरोसा रखो मुझपर। अच्छा, पुत्र गनौरी...अब मैं चली!'

तिनकौड़ी माय तो चली गयी, परन्तु गनौरी और उसकी पत्नी आश्वस्त नहीं हुए, किन्तु इतना तो हुआ कि गनौरी के अंतस् का भय अब समाप्त हो गया।

'कहो तिनकौड़ी माय! पोपली काकी ने उसे देखते ही कहा-' कैसी हो? '

'भैरव की दया से ठीक ही हूँ, परन्तु आज मैं प्रयोजन-विशेष से आयी हूँ।' तिनकौड़ी माय ने सविनय कहा-'मैं चाहती हूँ कि मेरी बात ध्यानपूर्वक सुन कर बखरीवासियों की समस्या का निदान किया जाए.'

हँसी पोपली काकी-'अच्छा! कहो तो सही क्या समस्या है हमारे सामान्य जनों की? ...वैसे तिनकौड़ी माय, तुम्हारी बातें सुनकर अच्छा लगा और भी अच्छा यह लगा कि भैरव-साधना के अतिरिक्त तुम्हें बखरी के जनसामान्य में भी रुचि है। अब कहो...समस्या क्या है?'

'आपने जबसे भैरव-मण्डप की स्थापना की है, तभी से यह समस्या उत्पन्न हो गयी है।'

'अच्छा! ऐसी बात है!' काकी ने साश्चर्य कहा-'बखरी की समस्त निर्बल लड़कियों को शक्ति प्रदान करने की प्रक्रिया ग़लत है तिनकौड़ी माय?'

'नहीं, नहीं...यह तात्पर्य नहीं है मेरा।'

'तो कहना क्या चाहती हो? बिना भूमिका के क्यों नहीं कहती...समस्या क्या है?'

'समस्या है भैरवियों का कुँवारी रहना। आपके आदेश से बखरी की समस्त कुँवारियाँ भैरव-मण्डप की भैरवी बन चुकी हैं और भैरवी बनने के पश्चात् उन्हें बताया गया कि वे आजन्म कुँवारी रहेंगी।'

'तो इसमें समस्या क्या है?' काकी ने व्यंग्य किया-'तुम क्या चाहती हो भैरवियों की माँग भर दी जाए...उनकी साधना की सिद्धियों को व्यर्थ कर दिया जाए?'

'कदापि नहीं, मेरा यह तात्पर्य नहीं था?'

'फिर? फिर क्या तात्पर्य है तुम्हारा...स्पष्ट करो।'

'मुझे इतनी-सी बात कहनी है कि भैरवियाँ और उनके परिवार स्वयं को छला हुआ समझ रहे हैं। भैरवी मण्डप में सम्मिलित होने के पूर्व किसी को यह ज्ञात नहीं था कि उन्हें आजन्म कुँवारी रहना होगा। मैं नहीं कहती कि भैरवी बनने के पश्चात् उन्हें विवाह कर लेना चाहिए. मेरा अनुरोध इतना ही है कि भैरवी बनने की स्वतंत्रता उनकी अपनी होनी चाहिए. जो लड़कियाँ आजन्म कौमार्य का व्रत धारण करने की इच्छुक हों और उनका परिवार भी इसमें सहमत हो, वे भैरवी बनें, अन्यथा हाथ पीले कर अपनी गृहस्थी बसाएँ और सन्तानोत्पत्ति में लगें।'

तिनकौड़ी माय ने क्षण भर रुककर अपनी बात पूरी करते हुए पुनः कहा -'यहाँ तो किसी को पता ही न था। सारी लड़कियाँ तो उत्सुकतावश चली आयीं। उन्हें पूर्व से पता होता तो कदाचित्।'

'हाँ...हाँ...कहो, कदाचित् क्या?' काकी ने गंभीरता से तिनकौड़ी माय की बात सुनते हुए कहा-'तुम्हारा तात्पर्य है कि हमारे अंचल की कोई कुँवारी कन्या ऐसी स्थिति में भैरवी बनना पसंद नहीं करती? और अज्ञानतावश जब वे भैरवी बन गयी हैं तो अब उन्हें पश्चाताप हो रहा है...क्यों, यही कहना चाहती हो न तुम?'

'हाँ, मुझे क्षमा करें तो मैं यही कहना चाहती थी।'

'चलो माना भूल हो गई. अब इस भूल सुधार हेतु तुम्हारा क्या सुझाव है? वह भी बता दो।'

' भैरवियों को अपना मार्ग चुनने की स्वतंत्रता देनी होगी। जो अपने कौमार्य को अक्षत रख भैरवी बन सिद्ध होने की आकांक्षी हों, वे साधनारत रहें... शेष अपनी गृहस्थी बसाएँ। '

तिनकौड़ी माय की बात समाप्त भी नहीं हुई थी कि तभी माया दीदी के साथ बहुरा आ पहुँची। बहुरा के मस्तक पर पसीने की बूंदें छलक रही थीं। कदाचित् माया दीदी के निर्देशन में भैरवी-चक्र नृत्य अभी-अभी उसने समाप्त किया था।

'नमस्कार तिनकौड़ी माय!' बहुरा ने कहा 'कैसी हो?'-

'ठीक ही हूँ पुत्री। लगता है माया ने आज तुम्हें पूरी तरह थका दिया है ...क्यों ठीक कह रही हूँ न?'

बहुरा के कुछ कहने के पूर्व माया दीदी ने हँसते हुए कह दिया-'मेरे कहने से यह रुकती भी तो नहीं है तिनकौड़ी की माँ। सम्पूर्ण चक्रों को समाप्त किये बगैर बहुरा इसे संतोष ही नहीं होता है। वैसे लगता है काकी के साथ कोई गंभीर मंत्रणा हो रही है तुम्हारी। बात क्या है? यदि हमारे सुनने लायक हो तो हमें भी बताओ.'

तिनकौड़ी माय के मौन पर काकी ने कहा-'मैं बताती हूँ, बैठो दोनों। तिनकौड़ी माय चाहती है, हम अपने समस्त भैरवियों को घर बसाने की स्वतंत्रता दे दें। इसकी बातों से मुझे ऐसा आभास हो रहा है कि हमारे जनसमुदाय में इस कारण बेचैनी फैली हुई है।'

पोपली काकी की बात पर वातावरण गंभीर हो गया। कुछ क्षण सभी मौन रहीं, फिर बहुरा ने ही मौन भंग करते हुए कहा-'तिनकौड़ी माय हमारी पुरानी साधिका हैं और बखरी की स्थिति से भलीभाँति अवगत हैं। फिर भी मैं इस विषय पर जो कहना चाहती हूँ, उसे ध्यान से सुनें।'

बहुरा ने रुककर काकी से पूछा-'मैं कहूँ काकी?'

'अवश्य, तुम बखरी की अधिशासी हो। तुम्हारी क्या इच्छा है, इससे अवगत होना हम सभी के लिए आवश्यक है-' पोपली काकी ने कहा-'आज तक तुमने मेरी व्यक्तिगत इच्छा-अनिच्छा का आदर करते हुए वही किया, जो मैंने चाहा। अब खुलकर अपनी बात कहो। सुनकर हमें प्रसन्नता ही होगी, क्यों माया?'

'ठीक कह रही हो काकी-' माया ने अपनी सहमति जतायी-'यह अब बच्ची नहीं है। पूर्ण वयस्क हो चुकी है यह। कहो पुत्री! क्या कहना है तुम्हें।'

'बहुरा ने कहा-' मैं तो समझती थी पृथ्वी पर समस्त जन एक हैं। कोई स्वस्थ है कोई अस्वस्थ, किसी के पास सम्पत्ति है कोई गरीब। कोई ज्ञानी है तो कोई मूढ़। परन्तु फिर भी सभी एक ही हैं। जब थोड़ी बड़ी हुई तो मैंने जाना कि मैं सही नहीं थी। सारे जन विभिन्न वर्णों में विभक्त थे, जातियों और कुलों में बंटे थे। जन्म से ही एक जाति श्रेष्ठ थी और दूसरी निकृष्ट। ब्राह्मण और क्षत्रिय राजा थे और हम शूद्र उनके दास। वे हमें स्पर्श कर लेते तो अपवित्र हो जाते। हमारी छाया तक से वे बचते थे। मुझे विस्मय होता। मैं आश्चर्य और क्षोभ से भर जाती। तब माँ ने मुझे इसका रहस्य बताया और मुझे बताया गया यह उच्चवर्गीय जाति का सदियों पुराना षड्यंत्र है, जिसे महात्मा बुद्ध ने कभी चुनौती दी थी। '

पोपली काकी, माया और तिनकौड़ी की माँ विस्फरित नेत्रों से बहुरा को निहारती हुई उसकी बातें सुन रही थीं। उसके इस नवीन रूप से यह इनका प्रथम परिचय था।

बहुरा कहती जा रही थी 'मैं कुछ और बड़ी हुई तो जाना, मेरी माँ शक्ति की पुजारिन थी। उन्होंने मुझे भी शाक्त तंत्रों की शिक्षा देनी शुरू कर दी। उन्होंने बताया था-शक्तिशाली वैष्णवों से रक्षा के लिए और कोई विकल्प नहीं है। परन्तु इस पथ पर भोग के पूर्व त्याग ही त्याग है। स्वयं को समर्पित किये बिना शक्ति अर्जित नहीं हो सकती। फिर मैंने पोपली काकी को देखा। इन्होंने कभी अपना घर नहीं बसाया। माया दीदी ने भी विवाह नहीं किया। इन लोगों ने भैरव के समक्ष अपने जीवन और यौवन को समर्पित कर दिया। किसके लिए? मैं पूछती हूँ तिनकौड़ी माय, किसके लिए इन्होंने अपना सुख छोड़ा, अपनी वासना त्यागी। पृथ्वी के उस बहुसंख्यक समुदाय के लिए जिसका शोषण हजारों वर्षों से होता आया है।'

बहुरा ने कुछ क्षण विराम के पश्चात्... पुनः कहा-'और इसीलिए, इसीलिए मैंने भी आजन्म अविवाहित रहने का संकल्प धारण कर लिया। इस उन्माद ने मुझे भी विकल किया, वासनाओं ने मुझे भी छटपटाहट से भर दिया। यहाँ तक कि जब कामोत्तेजना ने मुझे साधनाच्युत करना प्रारंभ कर दिया, अनुष्ठानों में मुझसे त्रुटियां होने लगीं तो विवश होकर मैंने काकी से अपनी समस्या खुलकर बता दी। काकी चाहती थीं मैं पुरूष संग रति-क्रिया की तांत्रिक प्रक्रिया के द्वारा अपने शरीर के अंदर सुप्त पड़े शक्ति-चक्रों को जाग्रत करूँ और ऐसे में-में कामावेश के ज्वर में पड़ी छटपटा रही थी। काकी के निर्देश पर मैंने सहजोली आदि यौगिक क्रियाओं का कठोर अभ्यास किया, जिस कारण अपनी काम-वासना से अंततः अब मैं कदाचित मुक्त हुई. अब आगे इस विषय पर मुझे कुछ नहीं कहना है कि रति-क्रिया द्वारा चक्रों के जागरण हेतु मैं क्या करूंगी, क्योंकि यह विषय अभी सर्वथा अप्रासंगिक है। मुझे इतना ही कहना है तिनकौड़ी माय, मैं जान चुकी हूँ आजन्म कौमार्य धारण करना कितना कठिन है और यह आशा करना व्यर्थ है कि हमारी समस्त भैरवी ऐसे कठोर कर्म को सफलतापूर्वक सम्पन्न कर लेंगी।'

'तुम्हारा तात्पर्य क्या है पुत्री?' काकी ने साश्चर्य कहा-'तुम क्या हमारे भैरवी-समुदाय को भंग कर देना चाहती हो?'

'नहीं काकी! मेरा यह आशय नहीं था। हमें हमारी सम्मिलित तथा संगठित शक्ति की अत्यंत आवश्यकता है। दलित, शोषित और संघर्षशील समुदाय की रक्षा हेतु हमें अपना सर्वस्व लुटाना होगा। अपने जीवन का होम कर देना होगा। इसके अतिरिक्त इसका कोई दूसरा विकल्प नहीं है। परन्तु काकी मैं यह कहना चाहती हूँ कि बलिदान और त्याग की भावना के लिए हम किसी को बाध्य नहीं कर सकते। यह तो वह भाव है जो स्वतः उत्पन्न होता है।'

'तो पुत्री, अपना अभिप्राय स्पष्ट करो। चाहती क्या हो तुम?'-काकी ने रोष से कहा।

'मैं चाहती हूँ बखरी-सलोना के सामान्यजन स्थिति से अवगत हों। समय की पुकार और इसकी आवश्यकता को भलीभाँति जानें, तत्पश्चात् जिनकी भावना जैसी हो, वे वैसा करें। मैं कदापि नहीं चाहूँगी कि जनाक्रोश को शांत किए बिना भैरवी-मण्डप को अपनी शक्ति के माध्यम से बलात् चलाती रहूँ तथा यह भी नहीं चाहती कि अपने जनमानस की अज्ञानता के आगे झुककर बखरी की समस्त भैरवी को स्वतंत्र कर दूँ। मेरी इच्छा है काकी कि कुछ दिनों के लिए भैरवी मण्डप में भैरवी-साधना स्थगित कर हम अपने लोगों से खुली बातें करें। उन्हें शिक्षित करें, समझाएँ। जो लोग फिर चाहेंगे हमारे साथ आएँगे तथा जिनकी इच्छा न होगी, उन्हें हम विवश न करेंगे। अब आगे आपकी जैसी इच्छा।'

माया दीदी ने बहुरा को बहुरा अपने अंक में समेट लिया। कहा कुछ नहीं, परन्तु उसकी आँखें प्रेमाश्रु से भींग गयीं। तिनकौड़ी माय की आकृति पर संतोष का भाव छाया था और पोपली काकी सोचने लगी-'बहुरा इतनी बड़ी कब हो गयी, पता ही नहीं चला।'

'तो मुझे आज्ञा दो काकी-' तिनकौड़ी माय ने उठते हुए कहा। इतना तो मैंने सोचा भी नहीं था। मुझे और बखरी सलोना को अपनी पुत्री पर गर्व है। वैसा ही करो काकी जैसा हमारी पुत्री चाहती है। एक सभा बुला लो और इसने जो कहा है, उन्हें बताओ. मुझे विश्वास है, इसके विचारों को जनसमुदाय का समर्थन अवश्य प्राप्त होगा। '

'शीघ्र्र ही ऐसी सभा का आयोजन होगा तिनकौड़ी माय! तुम निश्ंिचत होकर जाओ और जनाक्रोश को शांत करने का प्रयत्न करो। एक और महत्त्वपूर्ण कार्य करना। बखरी में भ्रांति है कि बहुरा ने मारणतंत्रों से भैरवियों के वरों की हत्या की है। लोगों को विश्वास में लेकर उन्हें समझाओ कि यह कार्य स्वयं काल-भैरव का है। उन्होंने स्वयं अपनी भैरवी की रक्षा में...,' कहकर काकी हँस पड़ी-'समझ गई न...जाओ अब!'

'जैसी आज्ञा काकी!' कहकर उसने अनुरागपूर्ण नेत्रों से बहुरा को देखा और प्रसन्न होकर चली गयी।

'पुत्री! आज तुम पर हम दोनों अति प्रसन्न हैं-' काकी ने कहा-' तुम इतनी बड़ी तथा विवेकशील हो चुकी हो, हमें पता नहीं था। मैं तो अभी तक तुम्हें बच्ची समझ रही थी। मेरे लिए अतिरिक्त प्रसन्नता की दूसरी बात यह है कि तुम्हारी काम-पिपासा का शमन हो चुका है और अब तुम दिव्य श्रेणी की साधना की अधिकारी हो चुकी हो। '

पुनः काकी ने माया से कहा-'माया तुम अविलंब चम्पा के लिए प्रस्थान करो!'

माया के अधर पर मंद मुस्कान थिरकी और उसने सहमति में अपना मस्तक झुका दिया।

'जाती हूँ काकी! ... आज का दिवस शुभ है। मंगल ही मंगल घटित होगा अब!'-माया ने उत्साहित होकर कहा।

'जाओ माया...तुम्हारी यात्र सुखद हो! गुरु भैरवनाथ को मेरा अभिवादन देना तथा जिन्हें तुम्हारे साथ भेजें, उन्हें सादर अपने संग लेती आना। जाओ...!'