कुँवर नटुआ दयाल, खण्ड-9 / रंजन

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चम्पापुरी का गंगातट।

बखरी सलोना की सजी-सँवरी नौका में पाल बांधा जा चुका था और शांत बैठे नाविक माया दीदी के आगमन की प्रतीक्षा कर रहे थे।

माया दीदी के साथ चम्पा से किसी तेजस्वी सिद्ध को बखरी तक की यात्र करनी थी। चारों नाविक उत्सुकतापूर्वक उस सिद्ध की राह देख रहे थे। कौन हैं वे? अवश्य कोई बड़े योगी या तांत्रिक सिद्ध होंगे अन्यथा माया दीदी स्वयं उन्हें साथ लिवाने नहीं आतीं। नाविकों में यही चर्चा चल रही थी कि उन्होंने दूर से आती माया दीदी के संग एक लम्बे-ऊँचे गौरांग पुरूष को देखा। चारों नाविक नौका से उतरकर तट पर विनीत मुद्रा में खड़े हो गए.

माया दीदी के साथ आ रहे संन्यासी की ऊँचाइ औसत व्यक्ति से ऊँची थी। माथे पर लहराते जटा-जूट और रेशम की तरह चमकीली छोटी दाढ़ी-मूँछें। संन्यासी के उन्नत भाल पर भस्म लगी थी तथा मुखाकृति से तेज निकल रहा था। कमर में लाल वस्त्रा बंधा था तथा उन्नत चौड़ी छाती पर गुलाबी वस्त्रा लिपटा था। जैसे-जैसे वे समीप आते गए, उनकी आकृति स्पष्ट होती गयी।

संन्यासी युवक के विशाल नेत्रों के ऊपर की भवें आपस में संयुक्त थीं। ऊँची लम्बी तथा नुकीली नाक के नीचे लाल-लाल होंठ बड़े कोमल दिख रहे थे। संन्यासी के साथ बातचीत करते हुए माया दीदी जब कुछ और समीप आयीं तो, माया की किसी बात पर संन्यासी खुलकर हँस पड़े। नाविकों ने देखा-हँसते हुए संन्यासी की श्वेत दन्त-पंक्तियाँ मोतियों की तरह झिलमिला उठीं।

युवा संन्यासी की देह गठीली थी। उसकी आकृति से निकलता तेज उसके पुरूषोचित सौंदर्य के साथ संयुक्त होकर ऐसा आकर्षण उत्पन्न कर रहा था कि आँखें बरबस उसकी ओर खिंच जाती थीं।

पास आते ही चारों नाविकों ने कमर तक झुक कर पूरी श्रद्धा से दोनों को प्रणाम किया।

'आप हैं गुरु भैरोनाथ के शिष्य शिवदत्तनाथ।' माया दीदी ने मुस्कराते हुए नाविकों से कहा-'इन्हें ससम्मान अपनी नौका में ले चलो!'

आगे-आगे श्रद्धा में झुके चारों नाविकों के साथ शिवदत्तनाथ और पीछे लकड़ी की चौड़ी पट्टी पर चलती माया दीदी। नाव के विशाल टप्पर के अंदर बिछे आसन पर माया दीदी के साथ शिवदत्तनाथ के विराजते ही नाविकों ने उनकी आज्ञा से लंगर उठाकर नाव खोल दिया।

चम्पापुरी की गंगा से बखरी-सलोना की नौका पश्चिम दिशा की ओर बहने लगी। गंगा के मध्य नौका के पहुँचते ही माया दीदी ने कहा-' आपकी चम्पापुरी! ...

बड़ी भव्य एवं सुसज्जित नगरी है, महाराज! '

शिवदत्त मुस्कराए. विनयी मुद्रा बनाकर उन्होंने कहा-'आप मुझसे वय और ज्ञान-दोनों में बड़ी हैं दीदी। मेरा अनुरोध है आपसे...मुझे अपना अनुज समझकर मात्र शिवदत्त कहें, देवी!'

'बड़े चतुर हैं आप!' माया दीदी मुस्कुराई-'अनुज बनना है तो देवी क्यों, मात्र दीदी ही कहना होगा शिवदत्त!'

'भूल हुई-' शिवदत्त ने कहा-'अब आपको दीदी ही सम्बोधित करूँगा, परन्तु मुझे अनुज की तरह ही तुम कहेंगी तो मुझे प्रसन्नता होगी।'

'उत्तम! अब तुम्हें तुम ही कहूँगी और अगर बिगड़ गई तो तुम नहीं, तू कहूँगी।'

शिवदत्त के साथ-साथ माया दीदी भी खुलकर हँस पड़ी। हँसी रुकी तो शिवदत्त ने कहा-'हाँ तो माया दीदी...आपने हमारे चम्पापुरी की चर्चा प्रारंभ की थी, परन्तु मैंने विषयांतर कर दिया।'

कुछ क्षण उपरांत उसने पुनः कहा-'यह चम्पा आज की बसाई हुई नगरी नहीं है दीदी...यह तो पौराणिक काल की नगरी है, जिसे राजा चम्प ने अपने नाम पर पुनः बसाया था।'

माया दीदी के लिए यह नवीन जानकारी थी।

'यह राजा चम्प कौन थे शिव और यह गाथा किस काल की है?'-दीदी ने पूछा।

' पौराणिक गाथाओं के आधार पर हमारे सम्पूर्ण अंगमहाजनपद की राजधानी का नाम 'मालिनी' था, जिसके राजा थे रोमपाद, जो रामायणकालीन राजा दशरथ के मित्र थे। उनके पश्चात् राजा रोमपाद के पुत्र चतुरंग तथा पौत्र पृथुलाक्ष हुए. पृथुलाक्ष के पुत्र राजा चम्प ने अपने नाम पर राजधानी का नाम रखा चम्पा। शिवदत्त उत्साहपूर्वक बता रहा था।

माया की आँखों में प्रशंसा उभर आयी। उन्होंने कहा-'आश्चर्य हो रहा है मुझे शिवदत्त! इन ऐतिहासिक तथ्यों से तुम इतने विस्तार में अवगत हो। मेरे लिए तो यह सर्वथा नवीन बात है।'

शिवदत्त फिर हँसा-'इसमें आश्चर्य की क्या बात है, दीदी? यह तो मात्र अभिरुचि की बात है। मेरी अभिरुचि थी, अतः मैंने गुरुदेव से जिज्ञासा की थी। उन्होंने ही मुझे यह बात बतायी है अन्यथा सामान्य जन तो इस अंगप्रदेश को राजा कर्ण के नाम से ही जानते हैं।'

'हाँ, महाभारत काल में दुर्योधन ने दानवीर कर्ण को अंगदेश का राजा बनाया था...मुझे ज्ञात है,' माया दीदी ने जिज्ञासा की, 'परन्तु राजा कर्ण की राजधानी भी यही थी क्या शिवदत्त?'-माया दीदी ने जिज्ञासा की।

'हाँ दीदी! कर्ण ने इसी चम्पा को अपनी राजधानी बनाया था, परन्तु कर्ण के पश्चात् अंगमहाजनपद के लोग क्रमशः कट्टर साम्प्रदायिक होकर मुख्य पाँच सम्प्रदायों-गाणपत्य, सौर, वैष्णव, शैव और शाक्त में विभक्त हो आपस में लड़ते रहे।'

'वह तो हम आज भी कर रहे हैं, शिवदत्त!' माया ने मुस्कराकर कहा-'आज भी हम वैष्णवों से लड़ रहे हैं और हम अकेले नहीं, समस्त निम्न वर्गीय जन-समूह, आज शाक्त, शैव, सहजयानी तांत्रिक, नाथपंथी संन्यासी तथा वाममार्गी सिद्ध आदि के साथ उनके विरुद्ध लड़ रहे हैं।'

'लड़ नहीं रहे दीदी,' हँसते हुए शिव ने कहा-'संघर्ष कर रहे हैं। समस्त वाममार्गी साधु, कापालिक और वज्रयानी सिद्ध यद्यपि आज दिशाहीन हो कुमार्गी हो गये हैं तथा समाज को आतंकित कर रहे हैं, परन्तु दीदी, इनके मूल में जाएँ तो आपको सदियों से सताए गए निरीह जन के अतीत में जाना होगा। तब वर्ण तीन ही थे-ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य। इन्हीं वर्णों ने अनेक जातियों को उत्पन्न किया। उच्च वर्ण के पुरुषों का हीन वर्ण की स्त्रिायों से विवाह' अनुलोम'विवाह कहलाया और हीन वर्ण के पुरुषों का उच्च वर्ण की स्त्रिायों से विवाह' प्रतिलोम'विवाह। इन विवाहों से उत्पन्न संततियाँ वर्णसंकर मानी जाने लगीं और वे, सब-की-सब, शूद्र जाति में परिगणित हो गयीं। ऊँच-नीच का भेद अत्यधिक बढ़ गया और मनुष्य केवल शूद्र नहीं, अन्त्यज और अस्पृश्य माना जाने लगा। सदियां बीत गयीं, हम सवर्णों के दास रहे। हमें उनके धर्मग्रन्थों के अध्ययन-मनन तक का अधिकार न रहा। हम तिरस्कृत होते रहे, प्रताड़ित होते रहे। परन्तु, अब भविष्य हमारा होगा दीदी... हमारा होगा, सिर्फ़ हमारा!' ...

माया मंत्रमुग्ध हो शिवदत्त को निहारने लगी। जल की भांति पारदर्शी चेतना है इसकी। विचारों में कोई द्वन्द्व नहीं। साफ-स्वच्छ और निर्मल। बिल्कुल सुलझे विचार। अब तक पूरी तरह प्रभावित हो गई थी वह शिवदत्त से।

अपनी बात कहकर शिवदत्त कहीं खो चुका था। उसकी आँखें ऊपर कहीं शून्य में अटकी थीं तभी माया ने उसे टोका-'कहाँ खो गए शिवदत्त?'

शिवदत्त ने माया को देखा और शीघ्र ही उसने स्वयं को सामान्य कर लिया-'अपनी ही बातों में खो गया था दीदी!' कहकर मुस्कुराने लगा वह।

'तुमसे बातें करना अच्छा लगता है शिवदत्त-' माया दीदी ने भी मुस्करा कर कहा-'इतनी अल्प अवस्था में तुमने वृहत् ज्ञान अर्जित कर लिया है। सोचती हूँ, बखरी-प्रवास में नित्य दो घड़ी तुमसे बातचीत करने में व्यतीत करूँगी। तुमने सवर्णों से उत्पन्न वर्णसंकरों की जो बात कही है, उसमें मैं कुछ संशोधन करूँगी।'

'वह क्या दीदी?'

'मैं तुम्हें बताना चाहूँगी कि वर्णसंकरों की भी प्रारंभ में हमारे समाज में ऊँची प्रतिष्ठा थी। स्वयं कृष्णद्वैपायन व्यास भी वर्णसंकरों में थे। कृष्ण की माता देवकी भी असुर वंश से थी। ऐसे और भी अनेक उदाहरण हैं। वास्तव में, ब्राह्मण या क्षत्रिय पिता तथा शूद्र माता से उत्पन्न सन्तान' नापित'कहलाती थी, द्विज पिता और शूद्र माता की संतान को' उग्र', वैश्य-क्षत्रिय से उत्पन्न पिता और शूद्र-वैश्य से उत्पन्न माता की संतान को' करन'तथा शूद्र पिता और ब्राह्मण माता से उत्पन्न सन्तान को' शुनिक',' निषाद 'या' व्रात्य'कहा जाता था और ये सभी समाज में पूर्णरूपेण प्रतिष्ठित थे।'

'आपका कथन सर्वथा सत्य है, दीदी!' शिवदत्त ने कहा-'कालांतर में समाज की यह व्यवस्था सवर्णों ने ध्वस्त कर दी और भयावह वर्तमान हमारे समक्ष है।'

शिवदत्त के तर्क पर माया दीदी मौन हो गयी। अपराद्द के भोजन का समय हो चुका था। नाविकों ने दोनों के लिए ताजे फलों और मिष्टान्न की व्यवस्था कर रखी थी। भोजन परोसा जा चुका था, जिस कारण वार्तालाप में व्यवधान उत्पन्न हो गया और दोनों गंगा की बहती धारा में हाथों को प्रक्षालित कर भोजन के लिए उद्यत हुए.

तभी दीदी ने कहा-'हमने दस कोस की यात्र सम्पन्न कर ली है, शिवदत्त और तुम्हारी बातों में पता ही न चला। अब शेष दस कोस की यात्र सूर्यास्त के पूर्व समाप्त हो जाएगी। मुझे तुमसे कुछ तात्त्विक बातें करनी हैं। मुझे आशा है, तुम मुझे संतुष्ट करोगे। परन्तु, पहले भोजन करो।'

शिवदत्त फिर मुस्कुराया-'मेरा मान रखने हेतु आप मुझे सम्मान दे रही हैं दीदी, वरना मुझमें इतना ज्ञान कहाँ है कि आप जैसी विदुषी को संतुष्ट कर सकूं। परन्तु, उत्सुकता तो उत्पन्न हो ही गई. आप क्या जानना चाहती हैं, दीदी?'

'कहूँगी, परन्तु भोजन के उपरांत-' दीदी ने कहा-'अब मौन धारण कर भोजन ग्रहण करो!'

'जैसी आज्ञा!' कह कर शिवदत्त ने दीदी से कुछ कहना चाहा, परन्तु माया ने उन्हें संकेत से मौन कर दिया। इतना ही नहीं शिव ने जब-जब कहना चाहा, मुस्कराती हुई माया दीदी ने उसे तब-तब संकेत से रोका। इस प्रकार, मंद-मंद मुस्कान सहित दोनों ने भोजन समाप्त कर हाथ-मुँह धोये।

'अब आज्ञा हो तो मौन भंग करूँ, दीदी?'

'वह तो तुमने कर ही दिया, शिव।' कहकर दीदी हँस पड़ी, फिर कहा -'वार्तालाप हेतु तो इच्छुक मैं थी शिव। परन्तु कहो, क्या कहना चाहते हो?'

'मुझे कहना कुछ नहीं है, मात्र अनुरोध करना है।'

'वह क्या शिव?'

'दीदी, आपके सान्निध्य में प्रवास का जो सुयोग गुरु आज्ञा से मुझे प्राप्त हुआ है, मेरी इच्छा है, इसका सदुपयोग करूँ।'

'वह कैसे शिवदत्त? तुम्हारे सान्निध्य का सदुपयोग तो मैं करूंगी। तुम्हें मेरी तात्विक शंकाओं का समाधान करना होगा। मेरे सान्निध्य का तुम क्या सदुपयोग करना चाहते हो?'-एक झटके से दीदी ने कहा।

'दीदी! मैं आपसे भैरव-चक्रीय नृत्य की शिक्षा ग्रहण करना चाहता हूँ। इस विद्या में आपकी कोई सानी नहीं है।'

शिव की बात पर माया दीदी को फिर से हँसी आ गई. हँसती हुई ही माया ने अपनी स्वीकृति देते हुए कहा-'अवश्य शिव! तुम्हें शिष्य बनाकर मैं भी गौरवान्वित हो जाऊँगी। तुम्हें नित्य इसकी शिक्षा दूंगी, परन्तु एक बात बताओ. मैंने विगत में अनेक बार चिन्तन किया है, परन्तु मेरी उलझन बढ़ती ही चली गई.'

'वह क्या दीदी?'

'क्या नृत्य के माध्यम से सुप्त शक्ति-चक्रों का जागरण संभव है? मुझे चिन्तन करके अपनी धारणा बताओ; क्योंकि मैंने सुना है, कामरूप-कामाख्या की कन्याएँ नृत्य के माध्यम से चक्रों को जाग्रत कर लेती हैं।'

माया के प्रश्न ने शिवदत्त को गंभीर कर दिया। उसकी बड़ी-बड़ी आँखें संकुचित होकर बंद हो गईं। ध्यान मुद्रा में खो गया वह।

माया प्रसन्न थी। शिवदत्त ध्यानस्थ हो जिस विषय का चिन्तन कर रहा था, उसकी जिज्ञासा माया के मन में प्रारंभ से ही थी। चिन्तन के पश्चात् शिवदत्त की क्या प्रतिक्रिया होगी, यह जानने की वह व्यग्रतापूर्वक प्रतीक्षा करने लगी।

शिवदत्त की आँखें खुलीं। उसके अधरों पर मंद मुस्कान थिरक रही थी। शांत मन से उसने कहा-'चक्रों की जाग्रति के लिए ध्यान, भाव, जप तथा मन्त्रा शक्ति अनिवार्य हैं। पचास अक्षरों की मूर्त-स्वरूपा माता विभिन्न चक्रों में विभिन्न अक्षरों में विद्यमान हैं। जिस प्रकार वाद्य-यंत्रों को ताल-सुर की समस्वरता के साथ बजाने पर मधुर संगीत की सृष्टि होती है, उसी प्रकार अक्षरों के तारों पर क्रमिक आघात से षट्चक्रों में विद्यमान देवी, जो अक्षरों का सारतत्व है, जाग्रत हो जाती हैं। सुप्त चक्रों के जागरण का यही विदित विधान है, दीदी। जब मैं चिन्तन कर रहा था, बारम्बार मेरी अंतश्चेतना शिव के तांडव की ओर आकृष्ट हो रही थी। संहार और ताण्डव-नृत्य में क्या सम्बंध हो सकता है? कृष्ण भी नर्तक थे! कहीं न कहीं नृत्य से इन चक्रों का सम्बंध तो अवश्य है, यह तो स्वीकार करना ही पड़ेगा। परन्तु, वे सम्बंध क्या हैं? कैसे हैं तथा इसकी प्रक्रिया क्या है?-यह तो गुरुदेव ही बता सकते हैं। वैसे, दीदी मुझे तो यह संभव प्रतीत होता है।'

' तुम्हारे चिन्तन से मेरी जिज्ञासा समाप्त नहीं हुई, परन्तु शंका का समाधान तो हुआ ही। अब मुझे विश्वास हो गया कि नृत्य में भी वह प्रणाली विकसित है, जो षट्चक्रों को जाग्रत करने में समर्थ है और इस विद्या का ज्ञान कामरूप-कामाख्या की साधिकाओं में है। ' माया अब भी आश्वस्त नहीं हो सकी।

'मैं लौटकर गुरुदेव से जिज्ञासा करूँगा, दीदी तथा आपके दर्शनों का पुनः जब संयोग होगा, आपको बता दूंगा। गुरुदेव तो सर्वज्ञ हैं। वे उचित समझेंगे और यदि उनकी इच्छा हुई तो वे अवश्य मार्गदर्शन करेंगे।'

गंगा की यात्र पूर्ण हो चुकी थी। अब नाविक नौका को गंगा की सहायक धारा की ओर मोड़ रहे थे।

'अब बखरी समीप है, शिवदत्त! यहाँ से मात्र तीन कोस की जल-यात्र शेष है।'-उत्साह के साथ माया ने कहा।

सूर्य का गोला रक्तवर्णी होकर थोड़ा झुक गया था। नदी के तट पर उसकी लाल-पीली रश्मियाँ जल में किल्लोल कर रही थीं। पक्षियों का कलख तथा तट के वृक्षों की पत्तियों से होकर बहते पवन की सरसराहट मन को मोह रहे थे। शिवदत्त की बातों में माया दीदी खोयी थी। दोनों शांत थे। प्रकृति के स्वर के साथ नाविकों के चप्पुओं के स्वर सम-ताल पर उभर कर सुनाई पड़ रहे थे।

'तुमने मेरी एक शंका का समाधान तो कर दिया। परन्तु, साथ-साथ यह जानने की जिज्ञासा भी जगा दी कि नृत्य की वह प्रक्रिया क्या है, जिससे चक्रों का जागरण भी संभव है?'-माया ने बात की दिशा बदलनी चाही।

'दीदी, आप तो तत्वों पर मुझसे वार्तालाप चाहती थीं, यह नृत्य का विषय तो इसीलिए प्रारंभ हो गया, क्योंकि मैंने आपसे नृत्य-शिक्षा का अनुरोध कर दिया था।'

माया दीदी मुस्कराने लगी। 'अब तुमने मेरे चिन्तन की धारा बदल दी, शिवदत्त! जो कुछ भी मैंने सोचा था, उन विषयों पर फिर बातें होंगी। मन में कुछ दुविधाएँ हैं जिनपर वार्तालाप की इच्छा है। परन्तु अभी नहीं।'

'आपकी जैसी इच्छा! परन्तु दुविधाएं हैं क्या दीदी, इतना तो बता दें।' शिवदत्त ने उत्सुक होकर कहा।

'बड़े चतुर हो शिवदत्त।' कहकर दीदी हँसी. 'क्यों दीदी? इसमें भला आपने मेरी कौन-सी चतुराई देख ली?'

'वार्तालाप को इच्छानुकूल अपनी ओर मोड़ने में तुम कुशल हो। मैं शेष यात्र में तुम्हारी बातों पर चिन्तन करना चाहती थी, परन्तु तुमने वार्तालाप की नई शृंखला प्रारम्भ कर दी।'

'तो इसमें भला अनुचित क्या है? आप मौन चिन्तन में डूबी रहें और मैं आपको अपलक देखता रहूँ तो शेष यात्र कितनी नीरस हो जाएगी दीदी! बातों में समय का पता नहीं चलता; क्योंकि आपसे बातें करना अब मुझे अत्यंत प्रिय लगने लगा है।'

'मान गई तुम्हें। तुम्हारे समक्ष मौन संभव नहीं।'-कहकर दीदी कुछ क्षण शांत रही। फिर कहा-' मुझे संक्षेप में एक ही बात बताओ, शिवदत्त। हमारा शाक्त दर्शन शेष धर्मों, मान्यताओं तथा सम्प्रदायों में श्रेष्ठ क्यों है? अथवा श्रेष्ठ है भी या नहीं? ऐसा तो नहीं कि हम वैष्णवों का विरोध मात्र इसीलिए करते हैं कि उन्होंने हमें सदा प्रताड़ित किया? यदि यही सत्य है तो हम उनका विरोध न कर उनके मत का

विरोध क्यों करते हैं उनके मत में ऐसा क्या दोष है? '

'आपके प्रश्न ने मुझे प्रसन्न कर दिया; क्योंकि मैं आपके प्रश्न से ही जान गया इसका उत्तर आपके पास है। आप अच्छी तरह जानती हैं-वैष्णव धर्म निष्कलंक है। वैसे ही जैसे शैव तथा शाक्त, जिनके हम अनुयायी हैं।'

अपनी बात कहकर शिवदत्त ने माया के मुख पर उसकी प्रतिक्रिया देखी। वे मंद-मंद मुस्करा रही थीं।

शिवदत्त ने फिर कहना प्रारंभ किया-'जो लोग विष्णु, लक्ष्मी तथा इनके अवतारों की' ऊँ नमो नारायणाय'के अष्टाक्षर-मंत्र से आराधना करते हैं तथा मस्तक पर दो श्वेत रेखीय टीके के मध्य एक लाल रंग की रेखा का तिलक लगाते हें, वे वैष्णव हें। शैव भगवान शिव के आराधक हैं। इनका बीज मंत्र है' ओम नमः शिवाय'तथा ये लोग ललाट पर विभूति या पवित्र भस्म का खड़ा त्रिरेखीय तिलक लगाते हैं। शाक्त जगज्जननी देवी के उपासक हैं, वे कुमकुम का तिलक लगाते हैं। इस प्रकार, शिव, विष्णु तथा देवी के भक्त क्रमशः विभूति, चन्दन तथा कुंकुम के पवित्र तिलक धारण करते हैं। ये तीनों मत तथा इनके अतिरिक्त अन्यान्य उप-सम्प्रदायों के समस्त मतावलम्बियों और सम्प्रदायों में भेद होते हुए भी वास्तव में भेद नहीं है। समस्त मार्गों के उपासकों का अभीष्ट और उद्देश्य एक ही है। सत्य कहूँ दीदी! ...समस्त वैमनस्य के नेपथ्य में ब्राह्मणों का लोभ तथा उनकी महत्त्वाकांक्षा का पर्वत ही इसप्रकार आकर खड़ा हो गया, जिसने सामाजिक व्यवस्था को क्षतिग्रस्त कर दिया और विवश हो अपनी शक्ति के जागरण हेतु संगठित होकर हमें उठकर खड़ा होना पड़ा।'

शिव की बातों के समापन तक बखरी सलोना का तट दिखने लगा था। कई व्यापारिक नौकाएँ लंगर डाले खड़ी थीं, जिनपर श्रमिकों द्वारा विभिन्न सामग्री चढ़ाई या उतारी जा रही थी। परिवहन वाली नौकाओं में यात्री चढ़ रहे थे। कुछ नौकाओं के पाल लगाए जा रहे थे, किसी के लंगर उठाये जा रहे थे और कई नौकाओं के लंगर डाले जा रहे थे।

'लो शिवदत्त, हम आ गये!'

'दीदी! आपका बखरी सलोना तो व्यापार का बड़ा केन्द्र प्रतीत होता है।' शिवदत्त ने नौकाओं की संख्या एवं उनकी हलचलों को देखकर कहा।

'हाँ शिव! नौकाओं के कर से ही बखरी सलोना के समस्त कार्य होते हैं। यही हमारे राजस्व का मुख्य स्रोत है।'

माया की नौका को देखते ही स्वागत में कई गणमान्य लोग उपस्थित हो गए तथा घाट पर पहुँचते ही नाविकों ने नौका को अविलंब लंगर से बांधकर माया दीदी तथा शिवदत्त को ससम्मान नीचे उतारा।

शिवदत्त तथा माया के लिए दो सजी हुई पालकियां घाट पर प्रतीक्षारत थीं। माया ने सर्वप्रथम शिवदत्त को उनकी पालकी में बैठाया, तत्पश्चात् स्वयं दूसरी पालकी में बैठ गयी।

कहारों को विदित था कि पालकियों को सीधे पोपली काकी के निवास पर पहुँचना है। वे छोटे-छोटे पग उठाते चल पड़े, ताकि अंदर विराजे अतिथि को झटके न लगें।

शिवदत्तनाथ का परिचय पोपली काकी से कराया गया। काकी ने शिवदत्त का सर्वप्रथम आपादमस्तक निरीक्षण किया, तत्पश्चात् उसे स्नेहपूर्वक अंक से लगाकर आशीर्वाद दिया।

'यात्र सुखद रही, शिवदत्त?' काकी के प्रश्न पर शिवदत्त के अधर पर स्निग्ध मुस्कान उभर आयी-'हाँ देवी! इतनी सुसज्जित तथा सुविधाजनक नौका में यात्र का यह प्रथम अनुभव था। यात्र अत्यंत सुखद रही...साथ में दीदी से इतनी सारी आनंददायक बातें होती रहीं कि बीस कोस की यात्र कैसे सम्पन्न हो गयी, कुछ पता ही नहीं चला।'

'माया! इनके विश्राम एवम् साधना की उचित व्यवस्था करो! इन्हें' भैरवी मण्डप'भी दिखाओ...! इनकी इच्छा हो तो इनके निवास की व्यवस्था वहीं कर देना, अन्यथा।'

पोपली काकी की बात को शिवदत्त ने मध्य में रोककर कहा-'मेरे सदृश अकिंचन को इतना मान न दें, देवी पोपली। आपको जहाँ सुविधा हो...वही स्थान मेरे लिए उपयुक्त है।' कहकर शिव ने हाथों से शंखमुद्रा बनाकर काकी को प्रणाम किया तथा माया दीदी की तरफ उन्मुख होकर कहा-' चलिए दीदी!

गुरु भैरवनाथ ने सर्वथा उपयुक्त पात्र भेजा है। यही सोचती पोपली काकी वहीं खड़ी मुसकुराती रहीं और शिवदत्त माया दीदी के साथ कक्ष से निकल गए.

सहजोली क्रिया के निरंतर अभ्यास ने बहुरा की अंतर्पीड़ा को सामान्य कर दिया। कामोत्तेजना पर उसने नियंत्रण प्राप्त कर लिया था। साथ ही, जबसे माया दीदी चम्पा से लौटकर आयी थी, वीरा के अंदर काम के प्रति वितृष्णा का उदय हो चुका था। कल्पना में जो पुरूष-पात्र का चित्र बारम्बार उभरा, वह था काले वस्त्रों में जटाजूटधारी गंदा-सा घृणित व्यक्ति, जिसके सान्निध्य में आते ही कामातुर नारियों की अति उग्र कामाग्नि भी क्षण मात्र में कपूर की भांति उड़ जाए. इसीलिए, उसकी काम-विषयक उदासीनता ने उसे पूर्णतया तटस्थ कर दिया था।

अंतस् की प्रेरणा उसे विवश कर रही थी। उसे अपनी सुप्त शक्तियों को जाग्रत कर अनंत सिद्धियों की स्वामिनी बनना ही है। उसका पुरूष-पात्र उसकी कल्पनानुसार ही है तो अच्छा है; क्योंकि इस सिद्धि में यदि काम जाग्रत हो गया तो चक्रों का जागरण असम्भव है। वासना-रहित संभोग की प्रक्रिया में ही उसकी चेतना पुरूष-पात्र के बिन्दु तथा अपने मूलाधार-चक्र पर स्थित हो सकती थी। अतः, वीरा स्वयं को इस स्थिति हेतु तैयार करना चाहती थी।

यह तो उसने अब तक तय कर ही लिया था कि उसे उच्च सिद्धियों पर पूर्ण अधिकार प्राप्त करना ही है, अब मार्ग चाहे जो भी हो।

कक्ष में बैठी बहुरा के अंदर विचारों का मंथन चल ही रहा था कि उसने देखा, द्वार पर दो पालकियां उतरीं।

उत्तेजना की एक क्षीण-सी लहर बहुरा के अंग-प्रत्यंग में दौड़ गई. वह तत्काल जान गई कि पालकियों में कौन है।

शीघ्रता से उठकर वह वातायन पर आकर रुकी। सूर्य अस्ताचल की ओर जा रहा था। डूबते सूर्य का लाल गोला सुदूर क्षितिज में आधा धँस चुका था। पालकियों की छाया भूमि पर लम्बी हो गई थी। माया दीदी पालकी से बाहर निकलकर दूसरी पालकी के समीप पहुँची। उससे बाहर निकले पुरूष ने वीरा को स्तंभित कर दिया। पुरूष के व्यक्तित्व में देवोचित तेज था। काले-सुलझे-चमकीले जटाजूट! सुन्दर-सजीली दाढ़ी-मँूछें! वृहत् ललाट पर चमकता त्रिरेखीय तिलक। विशाल भुजाएँ, मांसल वक्षस्थल तथा सुपुष्ट चरण! गुलाबी अंग-वस्त्रा और लाल धोती। उसकी कमल सदृश बड़ी-बड़ी आँखों में ज्ञान की सौम्यता झलक रही थी और उसके पतले लाल अधर से झांकती सुडौल स्वच्छ दंतपंक्तियाँ! ऊँची नुकीली नाक तथा कोमल-मांसल गाल! पूरी आकृति ही चुम्बकीय!

बहुरा के दोनों नेत्र उस तेजस्वी पुरुष पर चिपक-से गये। विस्फारित नेत्रों से वह अपलक तबतक देखती रही, जबतक ड्योढ़ी में प्रविष्ट होकर वीरा के नेत्रों से वह ओझल न हो गया। फिर भी वहीं खड़ी रह गई-ठगी-सी सम्मोहित। यह कोई गंधर्व है या देवता? मनुष्य में तो उसने इस रूप, इस तेज और ऐसे व्यक्तित्व की कभी कल्पना नहीं की थी।

बहुरा के अंदर कामना-कल्पना के तार झंकृत होने लगे। सहजोली के कठोर अभ्यास से उपार्जित संयम क्षणांश में धराशायी हो बिखर गया। उसके रोम-रोम में आनंद की हिलोरें उठने लगीं। उसे इस पुरूष-सान्निध्य के समक्ष समस्त भावी सिद्धियां तुच्छ प्रतीत होने लगीं।

उच्च सिद्धियों का क्या प्रयोजन?

चेतना ने कहा शक्ति का अतिरिक्त संचय!

अंतस् ने पुनः प्रश्न किया-लाभ क्या होगा?

उत्तर आया पृथ्वी की स्वामिनी बन जाओगी। सारे सुख, समस्त आनंद तुम्हारे दास होंगे।

अंतस् ने जब पुनः प्रश्न किया कि इससे क्या होगा तो उत्तर था-फिर आनंद ही आनंद...बहुरा, आनंद ही आनंद मूर्ख!

बहुरा मुस्कुरायी परमानंद को छोड़ तुच्छ आनंद का क्या करूंगी मैं? इस पुरूष का संग प्राप्त हो गया तो फिर और प्राप्त करना क्या शेष रह जाएगा?

मुस्कराती हुई वहीं खड़ी रह गयी बहुरा। उसके दर्शनों के साथ ही जो सप्तक झंकृत हुआ था, उसकी गूँज अंतस् में शेष थी। कोई द्वंद्व, कोई विचार न रहा उसके अंदर। विचार रूप बदल कर भाव बन गये और कोमल भावनाओं से भरी निश्चल खड़ी रही वह।

कुछ घड़ी व्यतीत हो गयी तो चौंकी बहुरा। क्या हो गया था उसे? उसे तब भान हुआ, वह अवचेतन की अंतर्यात्र में थी। चेत होते ही मुस्कराई और अंतस् के तर्क-कुतर्क में उलझी तो उलझती ही गयी।

इसके सम्मुख जो कामावेग उत्पन्न होने लगा, यह तो चक्र-जागरण में बाधक है। कामावेश में तो सब कुछ नष्ट हो जाएगा। वह 'दिव्य' स्थिति तो क्या प्राप्त करेगी, अपनी 'वीरा' स्थिति से भी भ्रष्ट हो कहीं 'पशु' स्थिति में न जा पहुँचे। क्या करे वह? मना कर दे? परन्तु अस्वीकार की स्थिति में क्या कहेगी काकी से? अपनी तुच्छ दुर्बलता प्रकट कर देगी वह?

उसका मन डोलने लगा। एक तरफ तो वह शिवदत्त के तेज पर न्यौछावर हो, स्वयं को समर्पित कर देना चाहने लगी; दूसरी ओर अपने पतन से भयभीत ही होने लगी। दोनों विपरीत इच्छाएँ एक दूसरी के विरुद्ध समान वेग से उठ खड़ी हो गईं।

ऐसे में क्या करे वह? बह जाए कामावेग में अथवा छोड़ दे कुण्डलिनी-जागरण का लक्ष्य और अपने अक्षत कौमार्य को अक्षत ही रहने दे? उसे कुछ समझ में नहीं आया-क्या करे, क्या नहीं! झुंझलाकर उसने समस्त विचारों को झटक दिया और शांत होकर बैठ गई.

परन्तु, शांत न रह पायी बहुरा।

कुछ तो निश्चय करना ही होगा। अंततः उसने निश्चय किया कि काम वासना का परित्याग कर अपने कुण्डलिनी-चक्रों को जाग्रत करेगी। अवश्य जाग्रत करेगी और वासनाहीन अवस्था प्राप्त करने हेतु साधना को और उग्र कर देगी वह। इस कठोर निर्णय ने उसे द्वंद्व-मुक्त कर शांत कर दिया।

मानो बखरी में कोई मेला लगा हो।

पूरे अंचल के नर-नारी, बच्चे और वृद्ध के पांव एक ही तरफ बढ़ रहे थे। भैरवी-मंडप! जिसे देखो, नंगे पांव भैरवी-मंडप की ओर ही जा रहा था।

जिसने भी शिवदत्त को देखा, देखता ही रह गया। कल ही तो पधारे हैं। कोई कहता-सूर्य का तेज है उसमें, कोई कहता-सिद्ध हैं, कोई योगी, कोई जोगी। किसी ने कहा महात्मा पधारे हैं, कोई ऋषि और कोई मुनि माने बैठा था। जितने लोग उतनी बातें। वायु की तरह एक ही बात पूरी बखरी में फैली। परिणाम हुआ, सबने दर्शन-लोभ से अपने-अपने कार्य ज्यों के त्यों छोड़ दिए और चल पड़े भैरव-मंडप की ओर।

काल भैरव की प्रतिमा के समक्ष पद्मासन लगाए ध्यान मग्न शिवदत्त बैठे थे। दोनों हाथ चिन्मय मुद्रा में पैरों पर थे, अधरों पर मंद मुस्कान थिरक रही थी।

पास ही आसनों पर बैठी पोपली काकी, माया दीदी और बहुरा शांत बैठी थीं। माया को काकी ने संकेत से बता दिया था-अपने आगमन से अवगत कराने हेतु उसका ध्यान भंग न करे। अतः, वे तीनों शिवदत्त के ध्यान टूटने की प्रतीक्षा में मौन बैठी थी।

मंडप के चारों ओर एकत्र जन-समुदाय का समुद्र निरंतर बढ़ता जा रहा था। लोग आते जा रहे थे तथा शांतिपूर्वक भूमि पर स्थान ग्रहण करते जा रहे थे। प्रणाम की मुद्रा में जनसमूह के हाथ उठे थे। सभी को महात्मा के ध्यान भंग की व्यग्र प्रतीक्षा थी। गोद के बच्चे न रोएँ, शांति भंग न हो, इसपर सचेत माताएँ, शिशुओं के कुनमुनाते ही उसे आँचल के आवरण में दूध पिलाने लगतीं और बच्चों को उसके पिता शांति से गोद में बैठाए थे। सबके नेत्र महात्मा जी पर ठहरे थे कि तभी शिवदत्त की पलकें खुलीं।

शिवदत्त ने काकी, माया दीदी एवं बहुरा के अतिरिक्त चारों दिशाओं में देखा। समस्त अंचल निश्चल-शांत वहाँ उपस्थित था।

आश्चर्य में उसने कहा-' यह आयोजन किसलिए काकी?

'मैं स्वयं नहीं समझ पा रही...कदाचित् तुम्हारे दर्शनों के लिए समस्त अंचल उमड़ पड़ा है।'

शिवदत्त ने हँसते हुए कहा-'मुझ अकिंचन के प्रति कदाचित् इनमें विराट् मतिभ्रम फैला है काकी, चलो अच्छा ही है इनके भ्रम का भी निवारण हो जाएगा-' उसने पुनः बहुरा को इंगित कर पूछा-'ये देवी कौन हैं काकी?'

'यही बहुरा है शिव!'

'प्रणाम देवी! आप तो मेरी गुरु हैं...मुझे क्षमा करें शिष्य ने पहचाना नहीं था।'

बहुरा मुस्करायी-'मैं आपकी गुरु कैसे हो गयी, देव?'

'हमारे वाममार्ग में स्त्राी ही गुरु होती हैं देवी! विशेष कर जिस प्रयोजन हेतु गुरुदेव की आज्ञा से आया हूँ, उसमें गुरु-भार आपको ही वहन करना है। मुझे तो शिष्य भाव से ही आपके द्वारा निर्देशित होना है, देवि!'

बहुरा के पास कोई उत्तर नहीं था। उसने मौन धारण कर लिया। इधर माया दीदी ने मन ही मन अपनी कार्य योजना निर्धारित कर काकी को संकेत किया तो सहमति में काकी मुस्करायी।

उसने वार्तालाप का सूत्र स्वयं पकड़कर शिवदत्त से कहा-'हमारे इस भैरव-मंडप तथा भैरवी प्रशिक्षण से तो कदाचित् तुम भिज्ञ ही हो-शिवदत्त!'

'भिज्ञ हूँ, काकी!'

'कुछ भ्रांतियां हैं हमारे अंचल में' काकी ने कहा-'जबसे अपनी भैरवी के लिए हमने आजन्म-कौमार्य का आदेश पारित किया, तभी से हमारे लोग अशांत हो गए हैं।'

'क्यों काकी? क्या इन्हें भैरवी-शक्ति का ज्ञान नहीं है...क्या ये जानते नहीं कि एक पीढ़ी के त्याग में मानवता का कितना कल्याण निहित है? आपने समझाया नहीं काकी?'

'तुम जब उपस्थित हो तो तुम्हीं समझा देना। अभ्यागत की बातों का विशेष प्रभाव होता है, शिव!'

'जैसी आज्ञा काकी!' शिवदत्त ने हँसकर कहा-'मैं प्रयत्न करूँगा।'

वह आसन त्यागकर उठ गया। उसके साथ-साथ काकी, माया और बहुरा भी उठ गयीं। तीनों देवियों के आगे चलता शिवदत्त भैरव मंडप के प्रवेश स्थल पर पहुँच कर रुक गया। चारों ओर उपस्थित जन-समुदाय अपने स्थान से उठ कर शिवदत्त के समक्ष हाथ जोड़े उपस्थित होने लगा।

शिवदत्त ने सबको विनयावनत मुद्रा में प्रणाम कर बैठ जाने का संकेत किया। समस्त जनसमुदाय के शांतिपूर्वक स्थान ग्रहण कर लेने के पश्चात् शिवदत्त ने पुनः सबको प्रणाम करते हुए कहा-' समस्त माताओं और भाइयों को प्रणाम करने के पश्चात् मैं महान गुरु भैरवनाथ का तुच्छ शिष्य शिवदत्तनाथ, आप सब के अंदर बैठी माता जगज्जननी को प्रणाम करता हूँ।

आप सब के एक साथ दर्शन-लाभ के इस सुयोग को मैं आपका अकिंचन दास, माता की ही कृपा मानकर उनका आभार व्यक्त करता हूँ और इस सुयोग का लाभ उठाते हुए मैं आपसे चन्द बातें कहने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ। '

'जय हो...जय हो...सिद्ध शिरोमणि की जय हो!'

'जय हो! सिद्ध शिवदत्तनाथ महाराज की जय हो!'

शिवदत्त की बातों पर बड़ी देर तक उसके नाम का जयघोष गूंजता रहा। जयघोष के मध्य ही तिनकौड़ी की माँ उठकर खड़ी हो गई. उसने दोनों हाथ उठाकर जनसमुदाय को शांत किया। तत्पश्चात्, आगे बढ़कर शिवदत्त के समीप आ खड़ी हुई. तिनकौड़िया माय ने नतजानु होकर शिवदत्त का अभिवादन किया और हाथ जोड़कर कहा-' आपके पदार्पण से अंचल धन्य हुआ महाराज! इतनी विनम्रता आप जैसे सिद्ध पुरूषों की वाणी में ही संभव हो सकती है; क्योंकि हम तुच्छ से तुच्छ सिद्धि प्राप्त करते ही अभिमान से अकड़ जाते हैं, प्रभो! हम मतिहीन, मूढ़ तथा निर्बल जन हैं। हमें ज्ञान एवं शक्ति की शिक्षा दीजिए गुरूवर, जिससे हम पतितों का उद्धार हो! हम सबल हों! हमारे अज्ञान का अंधकार दूर करें, कृपानिधान!

अपनी बात कहकर श्रद्धापूर्वक उसने फिर से शिवदत्त को प्रणाम किया। शिवदत्त के नेत्र सजल हो गए. उसने तिनकौड़िया की माँ को प्रणाम किया, फिर अपने नेत्रों के आँसू पोंछकर कहा-'आप माता हैं, मुझसे बड़ी हैं। आपकी आँखों की ज्योति, आपके ज्ञान सिद्धि को छिपाने में असमर्थ हैं, माता। फिर भी इतनी विनम्रता से आपने मुझे जो संकेत प्रदान किए, मैं जान गया। अपनी अल्प बुद्धि के अनुसार, वही कहने का प्रयत्न करूँगा। आप विराजें।'

तिनकौड़िया माय के बैठते ही शिवदत्त नाथ ने पुनः कहा-मैं एक महान श्लोक से अपनी बात प्रारंभ करूँगा। श्लोक है-

'शक्तिज्ञानं विना देवि निर्वाणं नैव जायते।'

हे देवी! शिव पार्वती से कहते हैं-शक्ति के ज्ञान से ही मुक्ति प्राप्त होती है। ... क्या तात्पर्य है इस श्लोक का? स्पष्ट है निर्बल को ज्ञान तक प्राप्त नहीं होता और क्षमा करें तो मैं कहूँगा-हम सब शक्तिहीन हैं। हममें न एकता है, न संगठन। समस्त शक्तियां सवर्णों के अधीन हैं और संख्या का बाहुल्य होते हुए भी हम असंख्य उपजातियों एवं अगणित सम्प्रदायों, मत-मतान्तरों में विभक्त हैं। इसीलिए, जनसंख्या में हमारा बाहुल्य भी हमलोगों के लिए सहायक नहीं है। हममें से अधिकांश लोग स्वार्थी हैं, हममें सेवा तथा आत्म-बलिदान की भावना नहीं है। यह स्थिति शोचनीय है। संगठन से ही हमारी या किसी प्रदेश की शक्ति तथा सुरक्षा सम्भव है।

बंधुओ! आप लोग शक्तिविहीनों की भाँति बिखरे हुए हैं। एकजुटता से ही आप लोगों को आत्मरक्षा तथा समुदाय के कल्याण के लिए समुचित शक्ति प्राप्त हो सकेगी। संगठित उद्योग में आप लोगों का उत्थान तथा विभाजन में पतन निहित है। आँखें खोलिए और शैथिल्य, सम्मूढ़ता तथा उदासीनता का परित्याग कीजिए. संगठित होकर कर्म करने के लिए आप लोगों का आह्वान हो रहा है। एक क्षण भी प्रतीक्षा मत कीजिए. उठिए और अपने सम्मान की रक्षा कीजिए. '

जनसमुदाय मंत्रमुग्ध हो शिवदत्त की ओजस्वी वाणी सुन रहा था। उनके रक्त में अभिनव उत्साह का संचार होने लगा। वे विमुग्ध हो अपलक उस देवपुरुष को निहारने लगे।

शिवदत्त ने कहा-'आप सभी अपना सर्वस्व बलिदान करने के लिए उद्यत हो जाइए.'

उसकी वाणी में सम्मोहन था। उपस्थित जनसमुदाय अज्ञात प्रेरणावश तत्काल भूमि पर साष्टांग दण्डवत् करने लगा। उनका समवेत स्वर गूंजा-

'आज्ञा दें स्वामी! ...हमें क्या करना है?'

'आज्ञा दें प्रभो! ...आज्ञा दें!'

बहुरा चमत्कृत हो देखने लगी। किसी भी सिद्धि से ऐसा सम्मोहक चमत्कार सम्भव नहीं था। उसने सोचा और शिवदत्त के चरणों में झुक गई.

'यह क्या देवी!' कहते हुए शिवदत्त ने साश्चर्य वीरा को देखा।

बहुरा तत्काल उठकर खड़ी हो गयी। विचित्र नेत्रों से उसने शिवदत्त को क्षण भर अपलक निहारा और शीघ्रता से भैरवी-मण्डप स्थित महाकाल की प्रतिमा के समीप जा पहुँची। प्रतिमा को उसने प्रणाम किया और मण्डप से निकल तीव्र गति से अपनी घोड़ी 'सुन्दरी' पर आरूढ़ हो गयी।

पवन वेग से ड्योढ़ी पहुँचकर बहुरा महाकाली की प्रतिमा के सम्मुख नतजानु हो गई.

क्षणोपरांत वह उठी। उसके हाथ शंखमुद्रा में जुड़े। शरीर ने भैरव चक्रीय नृत्य मुद्रा धारण की और बहुरा ने प्रथम चक्र समाप्त कर, शक्ति माँ से कहा-'मैंने अपना वर पा लिया है, शक्ति माँ!'

कहकर हाँफती हुई बहुरा ने द्वितीय चक्र प्रारंभ कर भैरव मुद्रा धारण कर कहा-'उन्हें अपना वर मान चुकी हूँ, माँ!' नृत्य करते हुए ही उसने शून्य, तदुपरांत महायोनि मुद्रा धारण करते हुए कहा-'कदाचित् तुम्हारी ही प्रेरणा से मैं वशीभूत हो गई शक्ति माँ...समर्पिता हो चुकी हूँ मैं उनकी...वरण कर लिया है मैंने...वरण कर लिया है!'

बहुरा का नृत्य तीव्रतर होता गया। उसके खुले लम्बे केश बिखर गये। पसीने से तन-बदन भींग गया। श्वास की गति तेज होती गई और नृत्य करते-करते ही अंततः शक्ति माँ के समक्ष लुढ़ककर उसने अपना सुध-बुध खो दिया।

भैरवी-मण्डप में शिवदत्त का जनमानस पर अद्भुत प्रभाव उत्पन्न हुआ। समस्त समुदाय ने उसके समक्ष प्रतिज्ञापूर्वक शपथ ग्रहण की।

शिवदत्त के संग जब काकी और माया ड्योढी आईं तो बहुरा को ढूँढती, शक्ति माँ की प्रतिमा तक आ पहुँची।

बहुरा को औंधे मुँह भूमि पर लेटी देख सभी चौंक कर जड़वत् हो गए.

'देवी को यथावत् छोड़ दें, माते' ! शिवदत्त ने काकी से कहा-'इस क्षण ये भावलोक में निमग्न हैं।'

शिवदत्त की सलाह पर सभी दूसरे कक्ष में मंत्रणा हेतु आ पहुँचे। स्थान ग्रहण करने के पश्चात् सर्वप्रथम माया ने कहा-'शिव से मिलकर, हमारी पुत्री जितनी उत्साहित हो चुकी है काकी, उससे मैं शंकित हूँ।'

'कैसी शंका माया!' पोपली काकी ने कहा-'यह तो प्रसन्नता की बात है कि शिव के व्यक्तित्व का उस पर अप्रत्याशित प्रभाव पड़ा है।'

'दीदी की शंका कुछ और है, माते!' शिव ने गंभीरतापूर्वक कहा- 'इनका संकेत मैंने ग्रहण कर लिया है।'

'अपनी बातें स्पष्ट करो, शिव' ! काकी ने चिन्तित होकर कहा-'मैं समझ नहीं पा रही हूँ।'

'माते!' शिवदत्त ने काकी से कहना शुरू किया-'हमारा एकमात्र उद्देश्य देवी के चक्रों का जागरण है। सुप्त चक्रों को जाग्रत करने हेतु हमें जिस साधना-पथ का अनुसरण करना है, उसमें मुझे तथा देवी को मानसिक एवं शारीरिक स्तर पर शुद्ध होकर पूर्णतः कामविहीन अवस्था धारण करना परम आवश्यक है।'

पोपली काकी एकाग्र होकर शिवदत्त को देख रही थी। उसके मौन होते ही उन्होंने कहा-'यह तो सर्वविदित ही है। इसमें चिन्ता की क्या बात है...तथा तुम दोनों आज अचानक शंकित क्यों हो गये, यह तो कहो' ?-काकी ने दोनों की आँखों में देखते हुए पुनः कहा-'आज शुभ दिवस है। मैं चाहती हूँ, आज ही तुम इसकी सुप्त शक्तियों को जाग्रत करो। पुत्री को मैं' दिव्या'बनी देखना चाहती हूँ...मेरी चिर-इच्छा की पूर्त्ति में अब विलम्ब न कर, आज ही मेरी अभिलाषा पूर्ण करो!'

'गुरुदेव ने इसी अनुष्ठान हेतु मुझे भेजा है, माते!' शिवदत्त ने कहा- 'परन्तु।'

'पुनः, परन्तु!' पोपली काकी ने कहा-'क्या तुम्हारे गुरुदेव ने अपनी शिक्षा में तुम्हें यह उपदेश नहीं दिया है कि किसी भी साधना के पूर्व सिद्धि के प्रति, पूर्ण विश्वास भाव का जागरण करो...! शंका धारण कर अनुष्ठान का प्रारंभ करना अनुचित है। शंकित चेतना में किए गए जाप निष्फल हो जाते हैं...मंत्रों की सिद्धि नहीं होती।'

'मैं व्यवधान के लिए क्षमा याचना करते हुए कुछ कहना चाहती हूँ'-माया ने कहा-'आज्ञा हो तो कहूँ!'

'अवश्य' , काकी ने कहा-' सूत्रधार तो तुम्ही हो माया। शंका का संधान कर मौन बैठी हो। कहो क्या कहना चाहती हो? ...परन्तु मैं अब अपनी कार्य-सिद्धि में अनावश्यक व्यवधान नहीं चाहती हूँ...इसे भलीभाँति समझ लो। '

माया मुस्कराई. उसके मुख-मण्डल पर उभरी मुस्कराहट ने बोझिल वातावरण को क्षणिक सहज किया।

'काकी!' माया ने कहा-' तुम्हारी चेतना में एक ही संकल्प छाया है, पुत्री को दिव्या बनाना। इसीलिए इसके अतिरिक्त किसी बात पर तुम ध्यान नहीं देती। तुमने आज इसकी असामान्य प्रतिक्रिया को भी विस्मृत कर दिया। उसने शिव के चरण-रज को अपने मस्तक पर लगाया और कदाचित् अपनी मांग में लगाया हो...

मैं देख न सकी। मेरी ओर उसकी पीठ थी। फिर तुमने लक्ष्य न किया, किस असामान्य स्थिति में उसने पवनवेग से अप्रत्याशित पलायन किया। 'अपनी बात कहकर क्षण भर रुकी और पुनः कहा-' अपनी कल्पना में उसके अंतस् को मैंने जब समझने का प्रयत्न किया तो। '

'रुको मत माया' ! काकी ने व्यग्रता से कहा-'पूरी बात कहो।'

'काकी मैं अब क्या कहूँ, माया कदाचित् संकोचयुक्त थी, फिर भी उसने कहा-' पुत्री संग शिव के अनुष्ठान को कुछ दिनों के लिए स्थगित कर दो, काकी! '

'क्यों?'

'मुझे शंका है!' माया ने कहा-'वह असफल हो जाएगी। उसके हृदय में शिव के प्रति अनुराग-भाव उदित हो चुका है। शिव के प्रति कदाचित् आसक्त हो गयी है वह। दूसरी समस्या यह है कि वह अभी अपने ऋतु-काल में है। इस समय यों भी स्त्रियां कामासक्त रहती हें। अभी हमें इस अनुष्ठान को रोकना होगा।'

पोपली काकी कुछ क्षण पूर्व तक गंभीर थी, परन्तु माया की बातों से पहले उसके अधरों पर मुस्कान उभरी और माया की बात समाप्त होते ही वह खुल कर हँस पड़ी।

हँसती हुई ही काकी ने कहा-' तुम दोनों ने प्रारंभ में मुझे चिन्तित कर दिया था। मैं क्या से क्या सोचने लगी थी। इतनी छोटी-सी बात को तुमने तूल देकर कहाँ से कहाँ पहुँचा दिया। अपनी पुत्री की प्रत्येक धड़कन से मैं परिचित हूँ। मुझसे अपनी भावनाएँ उसने कभी छुपाई भी नहीं है...इसीलिए तुम दोनों से कहती हूँ, बहुरा के लिए चिन्ता न करो। अपनी कामवासना को उसने तिलांजलि दे दी है। प्रणय-साधना हेतु उसने समर्पित होकर समस्त साधनाओं को सफलता पूर्वक पूर्ण किया है। '

पोपली काकी के अटल विश्वास के समक्ष, माया और शिवदत्त मौन रहे। दोनों के मौन पर काकी ने पुनः कहा-'शंका का कोई प्रयोजन नहीं है, माया! अष्टगंध की स्याही बनाओ. अगर, तोगर, गोरोचन, कस्तूरी, चंदन, सिन्दूर, लाल चन्दन तथा केशर लाओ. साथ ही तेरह अंगुल लम्बी अनार की कलम बनाओ. मैं सिद्ध-चक्र यंत्र बना देती हूँ। इसकी बाँह में बांध देना। जाओ समस्त चिन्ताओं का त्याग कर व्यवस्था करो!'

माया को निर्देश देकर काकी ने शिवदत्त से कहा-'रात्रि के द्वितीय प्रहर तुम्हें बहुरा के समक्ष प्रस्तुत होना है, शिव! विश्वास रखो, तुम्हारी समस्त शंकाएँ निर्मूल सिद्ध होंगी।'

'जो आज्ञा माते!' शिवदत्त ने कहा। यद्यपि वह आश्वस्त नहीं था, तथापि उसने अनिर्णीत अवस्था में ही अपनी स्वीकृति दे दी।

'आपकी आँखों में अनुराग छाया है, देवि!' शिव ने गंभीर होकर बहुरा से कहा, -'ऐसे में हमारी प्रणय-साधना कदापि संभव नहीं। अपने को राग-रहित कर काम-वासनाओं से मुक्त करें, देवि, तभी हमारी प्रक्रिया प्रारंभ हो सकेगी।'

तुम क्या जानो योगी, मेरे अंतस में क्या है? मन ही मन सोचती बहुरा उस योगी से मुँह फेरकर मुस्कुरायी। तत्पश्चात् वह सावधान हो गयी। अपने अंतस की भावना को इसप्रकार प्रदर्शित करना कार्य सिद्धि में बाधक होगा, यह सोच कर उसने अभिनेत्री बनने का निश्चय किया। अपनी सुकोमल भावनाओं को नेत्रों में उभरने नहीं देगी वह।

बहुरा ने आगे बढ़कर शक्ति माँ को प्रणाम किया और शिव के पास लौट आयी। उसके नेत्र अब भावहीन थे। अधरों पर थिरकती मंद मुस्कान अंतःस्थल में सिमट गयी थी।

'अब मैं सामान्य हूँ, निर्देश दें।'

'तिलक पात्र उठा कर मुझे तिलक करें, देवि!'

वीरा तिलक पात्र ले आयी। अपनी समस्त दक्षता सहित उसने नेत्रों में छलकने को उद्यत भावों को बलात् रोककर शिवदत्त के चमकते भाल पर कुमकुम का तिलक लगा दिया।

दूसरे कक्ष में माया दीदी के संग पोपली काकी विचारपूर्ण मुद्रा में बैठी थी।

'माया!' अचानक पोपली काकी ने मौन भंग कर कहा।

'कहो काकी!'

' शिवदत्त संग पुत्री अपनी साधना में संलग्न है। हम दोनों को उनकी साधना में सहायता देनी होगी। '

'वह कैसे, काकी?'

'शक्ति माँ की प्रसन्नता हेतु तुम्हें भैरव चक्रीय नृत्य-साधना प्रारंभ करनी चाहिए और मैं शक्ति माँ के जागरण-मंत्रों का अनुष्ठान करूँगी।'

'आपको शिवदत्त की योग्यता पर अथवा पुत्री की साधना पर शंका है, काकी?'

'नहीं माया...शंका का लेश भी नहीं है, किसी भी क्षण उसके सुप्त-चक्रों का जागरण अवश्यंभावी है। वह आज होकर ही रहेगा-' पोपली काकी ने विचार मग्न नेत्रों से कहा-'मुझे आशंका मात्र यह है कि बिन्दु-विस्फोट की प्रक्रिया में मेरी पुत्री अपरिमित शक्ति-संचार को सहजतापूर्वक धारण कर पायेगी अथवा नहीं। तुम्हें पता नहीं है, मूलाधार चक्र के प्रथम विस्फोट को ही धारण कर पाना कितना कठिन है।'

माया ने आश्चर्य से पोपली काकी को देखा। काकी तो इसप्रकार कह रही हैं, मानो ऐसा विस्फोट उनकी स्वानुभूत क्रिया हो, जबकि माया को भली-भाँति ज्ञात था कि वरिष्ठतम तंत्र-साधिका होने पर भी काकी के समस्त कुण्डलिनी चक्र अभी तक सुप्त थे।

परन्तु, माया को काकी से प्रश्न करने का अवसर नहीं मिला। वे ध्यानस्थ हो मंत्रोच्चार करने में निमग्न हो चुकी थीं।

भैरव को स्मरण कर माया उठकर खड़ी हो गई. नृत्य की आकृति धारण कर उसने बंद नेत्रों से शंखमुद्रा में भैरव को प्रणाम किया और उनका भैरव चक्रीय नृत्य प्रारंभ हो गया।

हे शक्ति माँ! ...मैं तुम्हारी शरणागत हूँ! मुझे अपने अनुरूप पुत्री प्रदान करो माँ...माँ...माँ! बहुरा प्रणय-समाधि में निमग्न अपनी शक्ति माँ से याचना कर रही थी, तभी शिवदत्त ने कहा-'अमरौली क्रिया में विलम्ब न करो, देवि तथा मुझे कुम्भक प्रवेश की आज्ञा दो...! आज्ञा दो देवि...! आज्ञा दो...!'

शिवदत्त विस्मित था। देवी यह क्या कर रही हैं? देवी बहुरा ने तो स्वयं को अनियंत्रित छोड़ दिया है। क्या इच्छा है इनकी। उसने गुरु का स्मरण किया-'गुरुदेव! शक्ति माँ की इच्छा क्या है? यह क्या घटित हो रहा है गुरुदेव? ...क्या हो रहा है यह?'

विस्मित शिवदत्त ने पुनः कहा-'देवि! मैं भ्रूमध्य में वज्रोली प्रारंभ कर रहा हूँ, मूलाधार पर चेतना स्थित कर सहजोली क्रिया अविलम्ब प्रारम्भ करें, देवि!'

तरंगित बहुरा कुनमुनायी तो शिव ने कहा-'शीघ्रता करें देवि! वार्तालाप समाप्त कर कुम्भक में प्रवेश कर रहा हूँ मैं।'

'नहीं नाथ...नहीं, न कुम्भक की आवश्यकता है, न वज्रोली की-' उन्मादित बहुरा ने कहा-'समग्र चेतना अपनी दासी पर केंद्रित करेें स्वामी! मैंने शक्ति माँ के समक्ष आपको अपना वर स्वीकार कर लिया है, देव...! अब अमृतपात कर मुझे तृप्त करें!'

'क्या कह रही हैं, देवि! यह तो छल है।'

'छल ही सही, नाथ! मुझे छलना ही समझ, मुझ पर कृपा करें। मैंने शक्ति माँ से गर्भाधान की कामना की है।'

'यह कदापि संभव नहीं है, देवि। हमने सन्तति-प्राप्ति हेतु यह अनुष्ठान नहीं किया। सहस्त्रार के बिन्दु को मैंने दृढ़ इच्छा-शक्ति से रोके रखा है। आपके सहयोग से अविलम्ब इसे विस्फोटित करने का उद्योग करना आवश्यक है...सहयोग दें, देवि!'

'नहीं नाथ! मैंने अपना कौमार्य बिन्दु-विस्फोट के लिए नहीं संजोया था। अपने अक्षत कौमार्य-समर्पण के प्रतिदान में अमृत अर्पित करें, प्रभु! अमृत अर्पित करें!'

'यह सर्वथा अनुचित है, देवि!'

'विश्वास करें, नाथ! यह शक्ति माँ की ही प्रेरणा है कि मैं अपने स्वामी से गर्भ धारण करूँ। अब व्यर्थ विलम्ब न करें, नाथ! अमृत वर्षा करें। आपको शक्ति माँ की सौगंध!'

शरीर के द्रुत-संवेग से आर्द्र शिवदत्त की सांसें तीव्र हो गयी थीं। कपाल केन्द्र में उत्पन्न बिन्दु इन्हीं क्षणों में परिवर्त्तित होने को उद्यत था। यही वे पल थे, जब उसे दीर्घ-कुम्भक में प्रविष्ट होकर विन्दु के रस-परिवर्तन को तत्काल अवरुद्ध कर देना था और इन्हीं चरम पलों में बहुरा ने उसे शक्ति की सौगंध दे दी...हतप्रभ हो गया शिवदत्त! पूर्व से शंकित उसकी शंका सत्य हो गयी। देवी को तो उसने तंत्र-

साधिका समझा था। इन अप्रत्याशित पलों में अब क्या करे वह? शक्ति-पुंज को तुच्छ वीर्यरस में परिणत हो जाने दे अथवा तक्षण इस साधना का परित्याग कर दे वह?

द्वंद्व में उलझे शिवदत्त ने निरर्थक हो चुके इस प्रयत्न को अंततः सार्थक करने के उद्देश्य से शांत वाणी में कहा 'मूढ़ता में व्यर्थ प्रलाप न कर आनंद के इन चरम पलों को तब तक स्थायी कर दें, देवि, जब तक आनंद का यह चरमोत्कर्ष, सम्पूर्ण चेतना को विस्फोटित कर चक्रों को जाग्रत न कर दे...शक्ति के सौगंध-पाश से मुक्त कर मुझे कुम्भक प्रवेश की आज्ञा दें, देवि!'

'नहीं नाथ!' कुनमुनायी बहुरा।

सीत्कार करती बहुरा ने पुनः कहा-' चक्र-वक्र कुछ नहीं जानती मैं...मैं तो इस पल आनंद-वर्षा में भींग जाना चाहती हूँ, नाथ! ...अब और विलंब न करें...अमृत-वर्षा से निहाल कर दें मुझे...निहाल कर दें अपनी भार्या को...! '

भार्या शब्द ने शिवदत्त के अंतस् को पल भर के लिए झंकृत कर दिया, परन्तु अपने विवेक को बलात् जाग्रत कर उसने कहा-'आप मेरी भार्या नहीं देवि...और न मैं आपका नाथ...इस घड़ी हम अपनी साधना में विधिपूर्वक संलग्न हैं, परन्तु मुझे खेद है आप।'

'व्यर्थ तर्क न कर'-क्रोधाग्नि में प्रज्वलित बहुरा चीखी और शिवदत्त के तन को उसकी भुजाओं ने प्राणपण से जकड़ लिया।

'देवि!' हतप्रभ स्वर गूंजा शिवदत्त का।

बहुरा ने शिवदत्त को अपने बाहु-पाश से मुक्त किया। अपनी दोनों मुठ्ठियों में उसने शिवदत्त के केश जकड़ कर पूरी शक्ति से उसके मुखमण्डल को अपनी ओर खींचते हुए अपने दोनों नेत्र बंद कर हांफने लगी।

द्वैत अद्वैत हो गया।

अवश शिवदत्त के अंतस् ने कहा-'शक्ति माँ! अवश्य तुम्हारी ही प्रेरणा है अन्यथा छलनी माया मुझे न छलती। अब वही हो जो तुम चाहती हो माँ! ... लो देवि, ग्रहण करो।'

शिवदत्त ने सहस्त्रार में उत्पन्न बिन्दु को स्वतंत्र कर दिया... और परिणामस्वरूप अमृत-वर्षा ने बहुरा के तन-मन को भिंगोकर तृप्त कर दिया।

नृत्य करती माया के पग एकाएक रुककर थम गए और पोपली काकी का भी तभी ध्यान भंग हो गया। दोनों के आशंकित नेत्र भैरव प्रतिमा की ओर उठे, परन्तु भैरव की मुद्रा शांत थी। दोनों को कदाचित् मतिभ्रम ही हुआ। भैरव के अधरों पर मंद हास छाया था। तभी शिवदत्त की पगध्वनि ने दोनों का ध्यान आकृष्ट कर लिया। निस्तेज शिव ने कक्ष में प्रवेश करते ही कहा-'देवी ने छल किया, माते!'

काकी चौंकी-'क्या कह रहे हो शिव...क्या किया पुत्री ने?'

'माते! साधना सफल न हुई-' शिव ने कहा-'देवी ने प्रारंभ से ही कुछ और निश्चय कर रखा था, जिसका मुझे पूर्वाभास तक न हो सका और इसीलिए मैं छला गया।'

'स्पष्ट कहो शिव'-अधीर होकर काकी ने कहा-'क्या साधना असफल हो गयी?'

'हाँ माते।'

'क्यों? क्या मेरी पुत्री कामातुर हो गयी?'

'नहीं माते! उनकी कामना ही कुछ और थी। काम के आवेग में नहीं, कामना के वशीभूत हो साधना से च्युत हो गयीं तथा मुझसे देवी ने गर्भधारण कर लिया।'

पोपली काकी और माया दीदी ने विस्फारित नेत्रों से शिव को देखा। दोनों की वाणी अवरुद्ध हो गयी।

'मुझे क्षमा करें, माते' ! शिव ने पुनः कहा-अब क्षण भर भी यहाँ मेरे रुकने का कोई औचित्य नहीं है। गुरुचरणों में निवेदन कर अब मुझे परिव्राजक बनना होगा। मुझे विदा दें, माते...! '

क्या कहे काकी? वह विमूढ़ बनी जड़वत् हो चुकी थी। माया दीदी भी हतप्रभ-सी खड़ी रही।

इसी घड़ी अस्त-व्यस्त वीरा ने तीव्रता से प्रवेश किया। उसके लम्बे-घने केश खुलकर बिखर गए थे। समस्त वस्त्रा अव्यवस्थित थे तथा नेत्रों से क्रोध झलक रहा था। आते ही आवेशित बहुरा ने प्रस्थान हेतु उद्यत ब्रह्मदत्त की बाँह पकड़ ली।

'मैंने शक्ति माँ के समक्ष इन्हें अपना वर स्वीकारा है, काकी-' क्रोध युक्त स्वर में काकी से कहकर, उसने माया को लक्ष्य कर कहा-'इन्हें अब मेरे साथ रहना होगा दीदी...!'

कहते ही उसके भाव अनायास परिवर्तित हो गये। सजल नेत्रों से उसने शिवदत्त को निहारते हुए कहा-'मेरा त्याग न करो स्वामी...! मैंने अपने अन्तर्मन में तुम्हें स्थापित कर लिया है...और शक्ति माँ की भी कदाचित् यही इच्छा है...यूँ मेरा परित्याग न करो!'

स्थिर स्वर में शिवदत्त ने बहुरा पर दृष्टि गड़ा कर कहा-'अब एक घड़ी भी इस स्थल पर और रुकना अनुचित है, देवि। जो घटित हुआ वह शुभ था अथवा अशुभ...इसपर तर्क का कोई औचित्य शेष नहीं...नहीं जानता, गुरुदेव क्या कहेंगे? ...मुझे क्षमा करेंगे या दण्ड देंगे...पातक हो गया मैं।'

'नहीं स्वामी!' कातर स्वर में कहा बहुरा ने...'पातक नहीं आपने तो मेरे सम्पूर्ण मन और तन को आनंद से आप्लावित कर दिया है। विभोर कर दिया है मुझे... और अब मेरा ही परित्याग करना चाहते हैं?'

'कोई विकल्प शेष नहीं, देवि' ! विवश ब्रह्मदत्त ने निर्णायक स्वर में कहा-'परिणय मेरा प्रयोजन नहीं था... यूँ भी ग्रार्हस्थ्य जीवन का त्याग कर चुका हूँ मैं...अतएव, आपकी अभिलाषा पूर्ण करना संभव नहीं है, देवि! जो अनर्थ होना था, आपने कर ही दिया...अब मुझे अविलंब प्रस्थान की आज्ञा दें।'

शिवदत्त की बाँह को और भी शक्ति से पकड़ कर, बहुरा ने काकी को कातर दृष्टि से निहारा।

'काकी! रोक लो अपने जामाता को' , बहुरा ने अश्रु बहाते हुए कहा-'तुम्हारी पुत्री इस दारुण दुख को सह न सकेगी...काकी!' पुनः उसने माया से कहा-'मैं तो तुम्हारी प्रिय शिष्या हूँ दीदी...क्या तुमने भी अपने अंतस को पाषाण कर लिया है? ... बोलो दीदी...बोलो...! यूँ मौन रहोगी तो यह निर्मोही मुझे यूँ ही छोड़ कर चला जाएगा, दीदी...! चला जाएगा यह...!'

विलाप करती बहुरा फूट-फूट कर रो पड़ी।

'माया!' स्थिर स्वर में काकी ने कहा-'शांत कर इसे! मुझे तनिक भी आभास होता कि यह इतनी नादान है तो मैं कदापि ऐसा न करती।'

'नहीं काकी' , माया ने प्रतिवाद किया-'इस घड़ी मत कहो यह सब।'

'तो और क्या कहूँ मैं?' झुंझला कर कहा काकी ने-'कितने जतन किए थे मैंने...कितने स्वप्न देखे थे...और परिणति देख, माया...क्या हुआ?'

'मैंने कहा न तुमसे...' रोषपूर्ण वाणी में माया ने कहा-'इस घड़ी पुत्री पर रुष्ट न हो काकी...देख रही हो न, किस प्रकार टूट कर बिखर चुकी है यह। इसे सम्हालो काकी...तुम्हीं सम्हाल सकती हो मेरी इस पगली पुत्री को।'

'दीदी सत्य कह रही हैं काकी,' शिवदत्त ने कहा-'मुझे भी सहानुभूति है आपकी पुत्री से...परन्तु, प्रारब्ध पर भला किसका बस है। आप ही इन्हें उस घड़ी सम्हाल सकती हैं। मैं गुरुदेव के समक्ष उपस्थित होकर सम्पूर्ण वृत्तांत यथावत सुनाऊँगा...निर्णय उनपर है।'

विलाप करती बहुरा शिव के वक्तव्य पर एकाएक मौन हो गयी। अपनी सूनी दृष्टि से उसने शिवदत्त को निहारा। उसके अधरों से मघ्यम-सा स्वर प्रस्फुटित हुआ-'गुरुदेव मुझ अभागी पर निश्चय ही दया करेंगे...उनका निर्णय मेरे पक्ष में हुआ तो तत्काल आ जाओगे, प्रिय?'

काकी ने सत्य कहा था, शिवदत्त ने सोचा। अति नादान है देवी. मेरे दण्ड के निर्णय को इसने कुछ और ही समझ लिया। उसके मानस-पटल पर गुरुदेव की आकृति कौंधी। गुरु के नेत्रों में क्रोध देख काँप गया वह।

'किस चिन्तन में खो गए, प्रियतम' ! उदास बहुरा ने भावुक स्वर में कहा-'गुरुदेव से कहना तुम्हारी विरह-वेदना में गल जाऊँगी मैं... उनसे कहना स्वामी...मैंने शक्ति के समक्ष तुम्हें अपना वर स्वीकारा है... और कहना उनसे...तुम्हारे अंश को धारण किया है मैंने...उनसे कहना प्रियतम।'

'ठीक है, देवी' , बहलाया शिवदत्त ने-'अवश्य कहूँगा गुरुदेव से। तुमने प्रेम किया है मुझसे...यह भी कहूँगा उनसे। परन्तु, कहने के लिए तो जाना होगा मुझे। जाऊँगा नहीं तो कहूँगा कैसे? ...' काकी और माया पर अर्थपूर्ण दृष्टि डालकर वह तनिक मुस्कराया और पुनः मनुहारपूर्ण वाणी में बहुरा से कहा-' मुझे आज्ञा दो,

देवी...! जाने दो मुझे। '

'ठीक है, स्वामी...जाओ' ! दाहिनी बांह उठाकर कहा बहुरा ने-'परन्तु ध्यान रखना...तुम्हारी दासी प्रति-पल तुम्हारी प्रतीक्षा में पलकें बिछाए रखेगी...स्मरण रखना, स्वामी...स्मरण रखना।'

'तुम्हें विस्मृत कर देना असंभव है, देवी' ! सपाट स्वर में शिवदत्त ने कहा, 'वास्तव में अनोखी हो तुम।'

दौड़कर लिपट गयी बहुरा और हतप्रभ शिव जड़वत् खड़ा रहा। काकी सहित माया की आँखें भी नम हो गयीं।

दोषी कौन और किसका दोष? दोनों में कोई समझ न पायी। मौन खड़ी दोनों की दृष्टि, लता की भाँति शिव से लिपटी वीरा पर गड़ी रह गयी।

गर्भवती बहुरा का चित्त विरही हो गया।

उसके अंतरतम में शिवदत्त की आकृति बस चुकी थी। भावात्मक गहराई से उसने उसे अपना वर स्वीकार किया। किन्तु वही शिवदत्त उसे त्याग करने के लिए विवश था।

बखरी सलोना की व्यवस्था तथा अपनी समस्त साधनाओं से विमुख बहुरा प्रायः मौन रहने लगी। शिव के विछोह ने चंचला वीरा को पाषाण सदृश बना दिया। उसकी आँखों की पुतलियाँ पत्थर की हो गयीं। प्रायः अपने कक्ष के एकांत में मौन बैठी, वह शिवदत्त की चिन्ता में खोयी रहती।

पोपली काकी और माया दीदी के लिए बहुरा की स्थिति असह्य होती जा रही थी।

'ऐसी स्थिति में गर्भस्थ शिशु पर क्या प्रभाव पड़ेगा, काकी?' माया ने चिन्तित नेत्रों से पूछा।

'इसी की तो मुझे भी चिन्ता है, माया-' काकी ने कहा-'इसने ने तो अपनी सुध-बुध ही खो दी है। न सोती है न जागती है।'

'इधर पुत्री की ऐसी स्थिति है और उधर भैरवी-मण्डप भी उजड़ रहा है,'-माया ने कहा, 'शिव की प्रेरणा से लोगों मंर जो त्याग की भावना उमड़ी थी, उसे इसने स्वयं गर्भ धारण कर पूर्णतः समाप्त कर दिया।'

'वह तो होना ही था, माया,' काकी ने तीखे स्वर में कहा-'हमारी पुत्री जब स्वयं कामाग्नि में दग्ध हो गर्भवती हो गयी तो सामान्य जन अपनी पुत्रियों को कुँवारी क्यों रहने देंगे।'

काकी कुछ क्षण मौन रही फिर कहा-'समस्त स्वप्न भंग हो गए. योजना ही समाप्त हो गयी मेरी। अब बखरी के भविष्य में अंधकार ही अंधकार छा चुका है, माया।'

माया ने पोपली काकी का यह रूप कभी नहीं देखा था। वह तो काकी को पाषाण की तरह दृढ़ समझती थी और आज वही जब रेत कण की भांति चूर-चूर होकर बिखर रही थी तो माया को आश्चर्य हुआ।

माया ने कहा-'आपको इस प्रकार विलाप करते देख मुझे आश्चर्य हो रहा है, काकी। ऐसी भी क्या बात है जो आप पूर्ण निराशाभरी बातें सोचने लगीं। हमारी पुत्री अभी अबोध है...बच्ची है, नासमझ है। फिर ज़रा सोचो काकी, जिसपर कभी पुरुष की छाया भी न पड़ी, उसे हमने शिव जैसे सुदर्शन पुरुष के संग प्रणय-समाधि में सलग्न कर दिया। ऐसे में अगर उससे भूल हो गयी तो।'

माया ने अपनी बात अधूरी छोड़ दी तो पोपली काकी ने कहा-'हमारी पुत्री से नहीं माया, मुझसे भूल हुई है। तुम्हें और शिव को ऐसी शंका तो पूर्व में ही थी। मेरी ही मति मारी गई थी।'

'अब इतनी भी उद्विग्न न हो, काकी' , माया ने कहा-' क्या हुआ जो हमारी पुत्री गर्भवती हो गयी? मैं तो सोचती हूँ, यह अच्छा ही हुआ। शिव से संयुक्त हो इसके गर्भ में जो भ्रूण पल रहा है, तुम क्या सोचती हो काकी; वह कोई साधारण संतति होगी? मुझे तो अब ऐसा प्रतीत होने लगा है, मानो इसमें स्वयं कालभैरव की ही प्रेरणा निहित थी।

माया ने अपनी बात कह कर काकी को देखा। काकी के मुखमण्डल पर पूर्ववत् उदासी छाई थी।

माया ने पुनः कहा-'हमारी पुत्री के गर्भ से उत्पन्न होने वाली संतान ही हमारे अंचल को सँवारेगी, काकी! मेरा दिल कहता है, हमारा भविष्य उज्ज्वल है। भैरवी-मण्डप की चिन्ता न करो, काकी! हमें सर्वप्रथम इसे सम्हालना है। शिव तो परिव्राजक बन कर हमसे दूर हो चुका है और उसकी आसक्ति में आसक्त हमारी पुत्री पाषाण की प्रतिमा बन गयी है। हमें हमारी पुत्री के साथ-साथ उसके गर्भस्थ शिशु की भी रक्षा करनी है। तुम यदि इस प्रकार हताश हो जाओगी तो अनर्थ हो जाएगा, काकी...अनर्थ हो जाएगा।'

पोपली काकी के मानस पर, माया दीदी के शब्दों ने मंत्र-सदृश प्रभाव उत्पन्न कर दिया। उसकी मलिन आकृति मंद-मंद परिवर्तित होकर सहज होने लगी।

'सत्य कहती हो माया,' काकी ने अंततः कहा-'मैं वास्तव में वृद्धा हो चुकी हूँ। अब वय के साथ-साथ शरीर की उर्जा और मानसिक उत्साह में भी Ðास होने लगा है। विपरीत परिस्थितियों में हताशा घेरने लगी है।'

'बस-बस, काकी! अब मुझे लज्जित करने का और प्रयत्न न करो। अपनी शक्ति को पहचानो और मुझे निर्देश दो। हमारे लिए इस स्थिति में क्या करना उचित है।' पोपली काकी इस बार मंद-मंद मुस्कुराई और कहा-'मुझे सामने पाकर हमारी पुत्री तो और भी अपराध-बोध से ग्रसित हो जाती है। इसीलिए, तुम्हें उसका सम्बल बनना उचित है। जाओ और सर्वप्रथम उसे सहज होने में सहायता प्रदान करो।'

'परन्तु, मुझे देखकर उसकी भावुकता और बढ़ जाती है, काकी।'

'यह और भी अच्छी बात है,' काकी ने कहा-'प्रयत्न करो कि नेत्रों में रुके उसके आँसुओं का बाँध ध्वस्त हो जाए. उसे रुलाओ...जाओ माया, जाओ और पुत्री को रुलाओ. प्रयत्न करो कि वह खुल कर रो पड़े। यदि ऐसा कर सको तो समझना, शीघ्र ही वह सहज और स्वाभाविक हो जायेगी।'

माया साश्चर्य पोपली काकी को निहारने लगी। अवसाद के कोहरे के छँटते ही उसकी प्रज्ञा पुनः जागृत हो चुकी थी। अब दोनों के अधरों पर मंद मुस्कान उभर आयी।

हाथों में खिलौनों से भरी टोकरी उठाये माया दीदी ने बहुरा के कक्ष में प्रवेश किया। बहुरा एक कोने में गुमसुम बैठी थी। माया दीदी को अंदर आते देख बहुरा की दृष्टि उसकी ओर मुड़ी।

बहुरा ने देखा, मुस्कराती माया दीदी भूमि पर बाँस की टोकरी रख कर उसमें सजे मिट्टी के खिलौने एक-एक कर निकाल रही है। खिलौनों में मिट्टी के हाथी, घोड़े, हिरण, शेर और कई तरह के पक्षी भी थे।

माया दीदी ने बड़े जतन से समस्त खिलौनों को भूमि पर सजाया और बहुरा की ओर बिना देखे कक्ष से बाहर चली गयी।

बहुरा के नेत्र भाव-शून्य थे। माया दीदी के खिलौनों ने, उनमें कोई उत्सुकता नहीं जगायी। फिर भी, बहुरा के नेत्र खिलौनों पर ही अटके रहे। तभी माया दीदी फिर से एक गुड्डा और एक गुड़िया लेकर आयी। पूर्व से रखे मिट्टी के खिलौनों के मध्य, उसने गुड्डा-गुड़िया, दोनों को रखा। मुड़कर बहुरा को मुस्कराते हुए देखा और कुछ कहे बिना उठ कर चली गयी।

बहुरा के भावहीन नेत्र अभी तक खिलौनों को ही देख रहे थे। थोड़ी ही देर में वह हौले से उठी और धीरे-धीरे चल कर खिलौनों के पास पहुँच कर वहीं भूमि पर बैठ गयी। विभिन्न जानवरों और पक्षियों के मध्य रखे गुड्डे और गुड़ियों पर उसकी दृष्टि ठहरी और क्षणभर बाद ही उसने हाथ बढ़ा कर गुड्डे को उठा लिया।

अपने दोनों हाथों में गुड्डे को पकड़कर उसने ने ऊपर उठाया। परन्तु, उसकी निर्निमेष दृष्टि में कोई भाव न उभरा। पत्थर बनी उसकी पुतलियाँ गुड्डे पर स्थिर बनी रहीं।

माया दीदी का अब यह नित्य-क्रम हो गया। वह रंग-बिरंगे पोशाकों में सजे गुड्डे-गुड़ियाँ लाती और चुपचाप बहुरा के कक्ष में रख कर उसे मुस्कुरा कर देखती हुई चली जाती।

एक दिन माया ने देखा-वह गुड्डे संग खेल रही है। हर्षित हो उसने काकी से कहा-'पता है काकी...अभी-अभी क्या देख कर आयी हूँ?' पोपली काकी तो माया को देखते ही सब समझ गयी। फिर भी कहा-'पुत्री का समाचार लायी हो?'

'हाँ काकी!' हँसती हुई माया ने कहा-' गुड्डे संग खेल रही है वह। हम दोनों ने समझने में भूल की थी। हम सोचती थीं कि शिव की अनुपस्थिति ने उसे स्तम्भित कर पाषाण बना दिया है...और हमें प्रतिमा बनी अपनी पुत्री को रुला कर सहज करना है। परन्तु, वास्तविकता यह नहीं थी। प्रथम समागम में विभोर हमारी पुत्री शिव के वियोग को सहन न कर पायी और असह्य विरह-वेदना में उसने अपने सुध-बुध खो दिये थे। '

'ठीक कहती हो, माया' ! काकी ने कहा-'वियोग को हमने आघात मान लिया था। चलो, अच्छा है तुम्हारी योजना सफल हुई.'

'हां, काकी...देखना अब यह शीघ्र सामान्य हो जाएगी।'

पोपली काकी और माया दीदी ने ठीक ही सोचा था। बहुरा की चेतना उसके अंदर विकसित हो रही संतान पर केन्द्रित हो चुकी थी। -'काकी! ...मैंने निश्चय कर लिया है। पुत्री होगी तो नाम रखूँगी' अमृता'।' बहुरा ने कहा तो काकी ने भी चुहल की 'और पुत्र हुआ तो क्या करोगी बहुरा?'

'पुत्री ही होगी काकी...परन्तु, पुत्र हुआ तो उसका नाम रखूँगी' अमृत'।' उसके उदर का उभार नित्य बढ़ता जा रहा था। अब तो शिशु की मंद हलचलों का भी उसे भली भांति आभास होने लगा था।

'ज़रा देखो तो दीदी' ! पास बैठी माया से बहुरा ने कहा-'क्या कहना चाहता है यह नन्हा-सा जीव...सुनो तो जरा।'

माया दीदी ने बहुरा के उभरे उदर पर हौले से कान लगाकर परिहास किया-'पुत्री...यह तो बेहद नटखट है...कह रहा है-मुझे इस अंधेरी गुफा से बाहर करो!'

कहते ही माया खिलखिला कर हँस पड़ी।

मुस्कराती बहुरा ने कहा-'दीदी, ज़रा अपने नटखट से पूछ कर तो बताओ...ये है कौन...मेरी अमृता है अथवा अमृत?'

माया दी ने फिर से कान लगा कर अभिनय कि 'ले पुत्री...अब क्या-पूछूँ मैं...नटखट तो सो गया।'

इस बार माया संग बहुरा भी हँस पड़ी।

मूसलाधार वृष्टि का भयंकर शोर। रात्रि के अंधकार में उमड़-घुमड़ कर घिर आये बादलों से झूम-झूम कर बरसात हो रही थी।

देवदारू, पीपल और नीम के लम्बे वृक्षों की सधन कतार में ढँकी बहुरा की ड्योढी में दौड़ती-हाँफती पोपली काकी और माया दीदी हड़बड़ायी हुई पहुँची। दोनों के शरीर पूरी तरह पानी में भींग गये थे। उनके बालों से पानी की बूँदें भूमि पर टपक रही थीं।

प्रसव पीड़ा से बेहाल बहुरा की दशा देख पोपली काकी को लिवाने माया दीदी दौड़ पड़ी थी। बहुरा के कक्ष के बाहर ही दोनों ने नवजात के क्रन्दन सुने।

न काकी थी न दीदी और प्रसव हो चुका था। प्रथम प्रसव से अकेली जूझती बहुरा क्लान्त हो कर एक ओर पड़ी थी और दूसरी ओर क्रंदन करती मांस के लोथड़े-सी नवजात शिशु की देह।

रात भर की झमाझम वर्षा के उपरांत, पवन के झंझावात ने घटाओं को रूई की भांति धुनकर आसमान के पटल पर छितरा दिया। बखरी के आकाश में अभी भी धुंधले में तारे टिमटिमा रहे थे। भोर होने को थी। रात कब बीत गयी-न काकी को पता चला, न माया को।

'मेरी अमृता' , बहुरा ने उसे गोद में उठाकर चूम लिया। चप-चप कर अमृत की घूँटें चुसकती काया को छाती से चिपका कर बहुरा ने आँखें मूँद लीं। पूरे अंचल में तो बरसात थम चुकी थी, परन्तु पलकों में बंद बहुरा की आँखें नीर भरी बदरियों-सी भर कर छलकने लगीं।

बहुरा का सारा संसार सिमट कर इतना लघु हो चुका था कि वह अमृता के रूप में उसके आँचल में समा गया। प्रथम मास में ही अमृता की आकृति उभरने लगी थी। उसकी बड़ी-बड़ी आँखें देख कर लगता था, गर्भ से ही अंजन आँजकर आयी है।

पूर्णिमा के चाँद की भाँति वह रोज निखरती गई. पोपली काकी और माया दीदी अब प्रायः अमृता के समीप ही रहतीं। अगली बरसात होते न होते अपनी तुतली जबान में उसने वीरा को 'मा' , माया को 'दद्दी' और पोपली काकी को 'कक्की' कहना शुरू कर दिया।

परन्तु, अमृता ज्यों-ज्यों बड़ी होती गयी, बहुरा के अंतस का वात्सल्य घटता गया और प्रियतम-विछोह की हूक उसके हृदय में उठती गयी।

अस्ताचल के सूर्य की रक्तिम रश्मियाँ, खिड़कियों की राह से, बहुरा के कक्ष में प्रविष्ट हो रही थीं। बाहर वृक्षों के झुरमुट में उसकी पुत्री माया संग खेल रही थी और अपनी सूनी-सूनी आँखों में पिया मिलन की आस संजोये बहुरा चुपचाप बैठी विचारों में मग्न थी।

माया दीदी ने ही तो उसे विश्वास दिलाया था कि शिवदत्त ने गुरूआज्ञा से तेरह वर्षों का परिव्राजक व्रत धारण कर लिया है।

'देख लेना पुत्री' , माया ने कहा था-'अपनी परिव्रज्या के तेरह वर्ष बिताकर वह अवश्य तुम्हारे पास लौट आएगा।'

माया दीदी जानती थीं-कालक्रम के साथ-साथ हृदय के समस्त स्वतः घाव भर जाते हैं। परित्यक्ता बहुरा के अंतस में लपलपाती विछोह की ज्वाला का उसने ज्यों ही फिर से आभास पाया, बहुरा को समझाया।

'सच कहती हो दीदी?' ...उल्लसित बहुरा ने पूछा-' तुम्हें मेरी सौगंध-दीदी

...उन्होंने जाने के पूर्व ऐसी बात कही थी क्या? '

विवश माया ने अत्यंत कठिनाई से कहा-'हाँ बहुरा...तुम्हारा शिव अपने तेरह वर्षीय परिव्रज्या के पश्चात् अवश्य लौट आएगा।'

तेरह वर्ष के समापन के पश्चात् अपने प्रियतम की राह में सूर्योदय से सूर्यास्त तक बहुरा नित्य अपनी पलकें बिछाए रही। बखरी के घाट पर चौकीदारों को

सावधान कर, नित्य अपने पिया के लिए सुसज्जित पालकी भिजवाती और स्वयं शृंगार कर, राह पर दृष्टि टिकाये बैठी रहती। सूर्योदय और सूर्यास्त होते रहे, दिवस पर दिवस बीतते गये किन्तु, अभीप्सा उसकी कभी पूरी नहीं हुई.

किसी की हिम्मत नहीं थी कि बहुरा के भ्रम को भंग करे। पोपली काकी और माया विवश-सी बहुरा को देखती रहतीं।

पूरे मास की समाप्ति पर पहले तो बहुरा को अवसाद ने आ घेरा। फिर क्रमशः वह उग्र होती गयी। अगले मास के आगमन तक उसके व्यक्तित्व में आमूल परिवर्तन होने लगे। अब बहुरा उग्र चण्डिका हो गयी थी। उसने घोर कापालिक साधनाएँ करने की ठानी।

बहुरा में आये इस परिवर्त्तन से जहाँ माया सशंक थी वहीं पोपली काकी ने इसे अनुकूल अवसर के रूप में देखा।

स्नेहसिक्त स्वर में पोपली काकी ने कहा-'पुत्री तुमने उचित निश्चय किया है। हमारे वाममार्ग में आशक्तियों का कोई स्थान नहीं है पुत्री! मन में आसक्तियों के जागरण के साथ-साथ शक्तियों का नाश हो जाता है और तुमने शिव की आसक्ति में पूरे तेरह वर्ष व्यर्थ कर दिए. 'जलती हुई आँखों से बहुरा ने पोपली काकी को देखते हुए कहा-'तुमने ही मेरे तन-मन में आग लगायी थी, काकी...स्मरण करो मैंने स्पष्ट इंकार कर दिया था। परन्तु तुमने अंततः मुझे इस अग्नि में समर्पित कर ही दिया...अब मुझी को दोष देती हो?'

'मानती हूँ मैं' , पोपली काकी ने कहा-' मुझसे भूल हुई. मैंने तुम्हारी अवस्था का विचार नहीं किया था। तुम पर यौवन का आगमन प्रारंभ ही हुआ था कि मैंने तुम्हें प्रणय-समाधि में झोंक दिया। मैं स्वयं अतिशीघ्रता में थी बहुरा!

...तुम्हें 'दिव्या' की अवस्था में देखने हेतु व्याकुल थी मैं और प्रतीक्षा नहीं कर पायी। क्योंकि 'दिव्या' ही तुम्हारा लक्ष्य नहीं था। तुम्हें तो मैं 'कौल' स्थिति में अवस्थित देखना चाहती थी। करती क्या मैं? '

'इसीलिए अग्नि में झोंक दिया मुझे-' विहँसी बहुरा। एक विषैली हँसी उसके अधरों पर थिरकी-'तुमने अपनी महत्त्वकांक्षा की भेंट चढ़ा दी मुझे। परिणाम क्या हुआ?' क्षण भर पश्चात् उसने पुनः कहा-'मेरी सुप्त शक्तियाँ तो जाग्रत नहीं हो सकीं...उल्टे मेरा सारा जीवन ही नष्ट हो गया।'

'इतनी असहाय न बन पुत्री!' पोपली काकी ने कहा-'तू साधारण गृहस्थ कन्या नहीं है। इस प्रकार भावनाओं के संग तू बह जायेगी...मैंने कभी सोचा न था।'

'अब इस वार्तालाप में क्या रखा है, काकी' , बहुरा ने कहा-'इन तर्कों कुतर्कों में शेष जीवन भी नष्ट हो जाएगा। मुझे क्या करना अभीष्ट है...मैंने सोच-विचार कर निश्चय कर लिया है...और अब मुझे मत रोकना, वही करूँगी जो सोचा है।'

'तेरी इच्छा क्या है'-पोपली काकी ने पूछा तो काकी की बात पर बहुरा ने कुछ नहीं कहा। मौन रह गयी वह।

जाने क्या चल रहा है इसके अंदर, सोचती हुई पोपली काकी दृष्टि भर कर वीरा को निहारने लगी।