कुँवर नारायण की स्मृति में — कुंवर नारायण और टेलीफ़ोन / विनोद दास

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हम उन यादों से बार-बार गुजरना चाहते हैं, जो हमारे साथ पहली बार घटित होती हैं। पहली बार देखी गई फ़िल्म। पहली बार पढ़ी गई किताब। पहली बार लिखी गई कविता। किसी को देखने पर पहली बार धड़का दिल। पहली बार की गई रेल या हवाई-यात्रा। मुझे आज अपने मन की वह घुमड़न याद आ रही है, जब किसी किताब को पढ़कर उस पर पहली बार कुछ लिखने की इच्छा अंकुरित हुई थी। किताब थी कुँवर नारायण का कहानी-संग्रह — आकारों के आसपास।

छोटे कलेवर की कहानियाँ। कथ्य और शिल्प में विविधता और नवाचार।

बहुस्तरीय अर्थ अनुभव से समृद्ध ताज़ी और मर्मस्पर्शी भाषा। कवि की कहानियाँ होने के बावजूद सम्वेदना के धरातल पर लिजलिजे रोमान से सायास दूरी। कहानी होते हुए कहानी के पारम्परिक विन्यास से मुक्त।

कहानी पढ़ते हुए कभी लगता कि कोई निबन्ध पढ़ रहे हैं, तो कभी लगता कि किसी छोटी नीतिकथा से कोई सबक सीख रहे हैं। इनमें कभी संस्मरण का आस्वाद मिलता, तो कभी किसी मामले या घटना को पढ़ते हुए अख़बार की रपट की याद आती।

यह एक सुखद संयोग भी था कि उन दिनों कुँवर नारायण के साथ ही रघुवीर सहाय, श्रीकान्त वर्मा, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जैसे कुछ कवियों के कहानी-संग्रह भी प्रकाशित हुए थे। यही नहीं, कवियों की कहानियों की अलग कोटि को लेकर साहित्यिक वायुमण्डल में चर्चा भी चल रही थी।

उन दिनों मैं लखनऊ विश्वविद्यालय में एम.ए. प्रथम वर्ष का छात्र था। जैसे-तैसे समीक्षा लिख ली थी। आत्मविश्वास की बहुत कमी थी। समझ में नहीं आ रहा था कि किसे इसे पढ़ाकर राय लूँ।

यह आपातकाल का दौर था। आपातकाल के आतंक के चलते मुद्राराक्षस जी आकाशवाणी की अपनी सरकारी नौकरी छोड़कर लखनऊ के दुर्विजयगंज में अपने पैतृक घर में रहने लगे थे। उनसे इतना परिचय हो गया था कि उन्हें अपना लेख दिखा सकूँ। सरसरी तौर से लेख पढ़ने के बाद उन्होंने सुझाव दिया कि आप क्यों नहीं एक बार कुँवर नारायण जी को दिखा लेते।

मैंने कमज़ोर स्वर में कहा कि मैं उनसे परिचित नहीं। दूसरे, वे बड़े व्यवसायी हैं। उन्होंने खुद अपने परिचय में लिखा है कि वह मोटर बेचते हैं ताकि साहित्य का धन्धा न करना पड़े।

वह मुझसे मिलेंगे?

मुद्राराक्षस जी ने प्रतिवाद करते हुए कहा कि यह सच है कि वे धनी हैं और व्यस्त रहते होंगे, लेकिन वे मिलनसार और बेहद सज्जन हैं। आप उनसे फ़ोन पर समय लेकर मिल सकते हैं। उन्होंने उनका फ़ोन नम्बर एक चिट पर लिख भी दिया।

बहरहाल उनसे मेरा मिलने का साहस नहीं हुआ। दुबारा मुलाक़ात होने पर मुद्रा जी ने सहज ही पूछा कि कुँवर जी से मुलाक़ात हुई। मेरे न कहने पर उन्होंने मेरा हौसला बढ़ाते हुए कहा कि आपका लेख अच्छा है। कुँवर जी को अच्छा ही लगेगा। आप निःसंकोच फ़ोन करके मिल लीजिए।

फ़ोन करना मेरे लिए संकट का सबब था। मेरा कोई मित्र या सम्बन्धी लखनऊ में नहीं था, जिसके घर में फ़ोन हो। अचानक एक दिन सहसा ख़याल आया कि पोस्ट ऑफ़िस से फ़ोन किया जा सकता है।

पूछताछ के बाद महानगर पोस्ट ऑफ़िस मिला। तसल्ली हुई कि फ़ोन वहाँ था। मेज पर रखा काले कछुवे सा फ़ोन का काला डिब्बा मुझे डरा रहा था। फ़ोन करने का यह मेरा पहला अवसर था। गोल चक्के की सुराखों में अँगुली डालकर नम्बर मिलाना और फिर चोगा उठाकर एक प्रतिष्ठित कवि से बात करने की सोचते ही मेरी धुकधुकी बढ़ने लगती। सिक्का डालकर बात करने वाला यह फ़ोन नहीं था। पोस्टमॉस्टर सामने बैठा था और मुझे घूर रहा था। एक बार मैंने सोचा कि फ़ोन करना टाल दूँ। पोस्ट मास्टर की धमकाती नज़र का सामना करने से बचने के लिए चिट पर लिखे नम्बर मिलाए। उधर से आवाज़ आने में देर लगी तो घबड़ाकर चोगा क्रैडल पर रख दिया। लेकिन काल लग चुकी थी। पोस्टमॉस्टर ने हड़काने की मुद्रा में कहा कि आपने बात क्यों नहीं की। आपको इस काल का पैसा देना होगा। मैंने दुबारा चिट पढ़कर नम्बर डायल किया। घण्टी बजते ही रिसीवर से हैलो की कोमल आवाज़ आई। मैंने अपना नाम बताकर मुद्राराक्षस जी का ज़िक्र किया। उनसे मिलने का प्रयोजन बताया। उन्होंने कहा कि कभी भी आइए। अन्ततः रविवार को सुबह मिलने की बात तय हुई।

वह ख़ुशनुमा सुबह थी। उनका घर बादशाह नगर रेलवे स्टेशन के क़रीब था। बाराबंकी से छोटी लाइन की ट्रेन से हम बादशाह नगर स्टेशन उतरे।

हस्तलिखित लेख की प्रति साथ थैले में थी। अब उन्हें लेख दिखाने का उत्साह कम, डर ज़्यादा लग रहा था। शानदार घर की घण्टी बजाने पर कुछ देर बाद उनका एक सहायक आया। उसकी आँखों में कुछ ऐसा भाव था जैसा चन्दा माँगने वाले को देखकर दरबान को होता है। मैंने बताया कि उन्होंने मिलने के लिए बुलाया है। हालाँकि भीतर से लौटने के बाद दरबान की भाव-भंगिमा थोड़ी बदली हुई थी।

वह हमें ससम्मान मकान के पिछले हिस्से में ले गया, जहाँ बेल और लताओं के कुञ्ज में बेंत की एक मेज़ के पास चार बेंत की कुर्सियाँ पड़ी हुई थीं। तरह-तरह के फूल मुस्करा रहे थे। गुलाब ज़्यादा थे। हम वहीं बैठकर फूलों की वाटिका के सौन्दर्य को निरखते हुए इन्तज़ार करने लगे। सर्दियों के दिन थे। लताओं से छनकर आती हुई धूप देह पर आँख मिचोली खेल रही थी।

सफ़ेद कुरते-पायजामे में मोटे फ्रेम के चश्मे के साथ कुँवर जी ने आते ही विलम्ब के लिए क्षमा माँगी। उन्होंने बताया कि वे स्नान कर रहे थे। वे गम्भीर थे। उनके चेहरे पर ज्ञान और सज्जनता की एक दुर्लभ चमक थी। परिचय के दौरान लखनऊ विश्वविद्यालय का ज़िक्र चलते ही वे अपने समय को याद करने लगे। उन्होंने उमंग से बताया कि रघुवीर सहाय एम.ए. अंग्रेज़ी में उनके सहपाठी थे। वैसे एक वर्ष वरिष्ठ थे, लेकिन परीक्षा न देने के कारण साथ हो गए थे। उन्हें यह भी बताते हुए कोई झिझक नहीं थी कि उन दिनों रघुवीर सहाय जी का हिन्दी साहित्य के परिदृश्य से उनकी तुलना में अधिक परिचय था। यही नहीं,उनकी पत्रिका ’युग चेतना’ में जब रघुवीर सहाय की कविता हिन्दी प्रकाशित हुई थी तो हिन्दी जगत के एक असहिष्णु वर्ग ने किस तरह से उसका विरोध किया था।

बातचीत का सिलसिला चल निकला.उन्होंने फिर बताया कि उन दिनों अज्ञेय का कविता संग्रह "हरी घास पर क्षण भर" प्रकाशित हुआ था.लखनऊ विश्वविद्यालय के लॉन पर उस संग्रह को पढ़कर रघुवीर सहाय और वे दोनों मित्र उन कविताओं के आधुनिक बोध पर मुग्ध थे.यही नहीं,उस पर उन्होंने गहन चर्चा भी की थी.एक तरह से हिंदी की आधुनिक कविता से उनका पहला साक्षात्कार था.इसी क्रम में पूछने पर उन्होंने यह भी बताया कि किस तरह अज्ञेय जी ने उन्हें तीसरे तारसप्तक में कवि के रूप में शामिल किया था.

उन्हें अपना लेख पढ़ाने के लिए मैं कसमसा रहा था। वह उस सिलसिले में कोई बात ही नहीं कर रहे थे। ज़िक्र छेड़ने पर उन्होंने कहा कि इसे मेरे पास छोड़ दीजिए। पढ़कर इस पर अगली बार बात करेंगे। इसी बीच भारती जी भी आईं। थोड़ी देर बाद सैण्डविच के साथ पॉट में चाय भी आई। चाय पीने के दौरान भारती जी की आत्मीय उपस्थिति से यह लगा जैसे हम किसी परिवार के बीच बैठे हों।

सच में उनका घर उस दिन से अपना लगने लगा। इतना अपना कि जब तक कुँवर जी लखनऊ में रहे, उनके यहाँ जाने के पहले फ़ोन करने की ज़रूरत कभी महसूस नहीं हुई।

भारती नारायण ,लेखक की पत्नी की ज़िन्दगी और आयोवा

कुँवर नारायण को निजी तौर से जानने वालों में शायद ही कोई ऐसा हो जो उनकी जीवन साथी भारती नारायण को न जानता हो। हम कहीं किसी साहित्यिक या सांस्कृतिक कार्यक्रम या समारोह में भारती जी को देखते थे तो सहज ही समझ जाते थे कि आसपास कुँवर जी होंगे। वे कुँवर जी से सिर्फ़ इतनी ही दूर रहती थी कि कुँवर जी उनकी नज़र के घेरे में रहें। यह किसी पत्नी की शक भरी निगरानी नहीं थी, मीठे दाम्पत्य के गहरे लगाव की यह पक्की डोर थी, जिसमें वे दोनों अंतरंग रूप से बंधे थे। एकाध कार्यक्रम में कुँवर जी के साथ भारती जी को नहीं देखा तो न जाने क्यों लगा कि वह उनके बिना कुछ अधूरे-अधूरे से लग रहे हैं। कुँवर जी अपने स्वाभाविक रंग में तभी होते थे जब वे भारती जी के साथ होते थे।

उनकी शादी देर में हुई थी। भारती जी कोलकाता में पली-बढ़ी थीं। उनमें बंगाली स्त्री की आभा, लावण्य और सौन्दर्य भी झलकता था। कुँवर नारायण और भारती नारायण के बीच एक युवा की भीगती मसों के रोमांस का असर ज़रूर कम दिखता था, लेकिन उनके अन्तरलोक के सुरभित वायुमण्डल की सुवास आसपास बिखरी रहती थी। कुँवर नारायण “आत्मजयी” जैसी गम्भीर और दार्शनिक कृति लिख चुके थे। भारती जी ने एक बार आत्मीय बातचीत में मुझे बताया था कि कुँवर नारायण से विवाह के लिए "हाँ " कहने के पीछे एक महत्वपूर्ण बात यह भी थी कि वह आत्मजयी सरीखी बड़ी रचना के कवि थे जिसे पढ़कर वह उनकी प्रशंसक बन चुकी थीं।

कुँवर जी और भारती जी को एक साथ किसी आयोजन में देखना इतना प्रीतिकर लगता कि अक्सर मैं उन अधिकांश साहित्यकारों के बारे में सोचता रहता जो अपनी जीवनसंगिनी को साहित्यिक कार्यक्रमों में अपने साथ नहीं लाते। एक सहज कारण मुझे यही समझ में आता कि शायद उनकी सहचरी को साहित्य में ज़रा सी भी दिलचस्पी न होगी। ऐसा होने की पूरी आशंका है। हमारे यहाँ परिवार द्वारा तय की गई शादी में कन्या और वर की रुचियों के बीच सामंजस्य को ज़रा सी भी तरजीह नहीं दी जाती है। परिवार की सामाजिक और वित्तीय हैसियत और वर की आय तथा रूप-रंग पर ही बल रहता है। ऐसे में उनकी पत्नी की साहित्यिक अभिरुचि न होने पर वह इन कार्यक्रमों में आने के लिए मना भी करती होंगी। हालाँकि मैं कई बार यह भी सोचता रहता कि क्या कभी हमारे साहित्यकार बन्धुओं ने उन्हें अपने साथ साहित्यिक कार्यक्रमों में ले जाने के लिए उत्साह दिखाया होगा ? मुझे लगता है कि ऐसा कम होता है।

साहित्यकार अक्सर ऐसा करने से बचते हैं। इसके अनेक सामाजिक और निजी कारण होते होंगें। इनका अध्ययन करने की ज़रूरत है।

दूसरे, हमारे साहित्यिक आयोजन क्यों इतने बोझिल, नीरस और उबाऊ होते हैं कि किसी साहित्यकार की पत्नी एक बार जाने के बाद दुबारा जाने के लिए लालायित नहीं होती। इन कार्यक्रमों को कम से कम इतना सरस बनाया जा सकता है कि उनमें आम पाठक पहुँचकर साहित्य को पढ़ने के लिए प्रेरित हो सके। यहाँ कहने का आशय सिर्फ़ इतना है कि अगर लेखक अपने साथ इन कार्यक्रमों में अपनी पत्नी को भी ले जाएँ तो जहाँ उस परिवेश की बौद्धिक समृद्धि से उनका भावबोध परिष्कृत और विकसित होगा, वहीं अपने जीवन सहचर के जीवन और विचार के निकट पहुँचने के लिए उनका रास्ता भी प्रशस्त होगा। हालाँकि कई बार यह भी लगता है जो कवि-लेखक रात-रात भर जाग-जाग कर किसी नवोदित महिला रचनाकारों की कच्ची-कूड़ा रचनाओं को सुधारकर मुदित होते रहते हैं, वे क्या कभी अपनी जीवन संगिनी के साथ कोई अच्छी कविता या कहानी पढ़कर उसके बारे में भी चर्चा करके ऐसा कोई स्फूर्तिदायक परिवेश अपने घर में रचने की कोशिश करते होंगें। फिर ख़याल आता कि अगर ऐसा भी नहीं है तो उनकी अर्धांगिनी की हालत क्या होती होगी, जिनके साथ उनको अपना पूरा जीवन बिताना है।

एक साहित्यकर्मी का अक्सर सोना-जागना,ओढ़ना-बिछाना साहित्य और सिर्फ़ साहित्य होता है। यही नहीं, साहित्यकारों की अपनी एक ख़ास दुनिया भी होती हैं। उनकी अनगिनत किताबें, पत्र-पत्रिकाएँ, समारोहों में भागीदारी, उनके दृश्य-अदृश्य साहित्यिक-सांस्कृतिक मित्र और पाठक। इन सबसे भी अधिक उनका सृजनात्मक अकेलापन। इस अराजक और अमानवीय संसार को अपनी कल्पना और स्वप्न के अनुरूप मानवीय और सुन्दर बनाने की ज़िद तथा सनक। इन सबसे वे अपना एक निजी संसार रचते हैं। ऐसे पारिवारिक पर्यावरण में निरासक्त होकर घरेलू ज़िम्मेदारियों को निभाना सचमुच उनकी सहचरी के लिए बड़ी चुनौती होती है। उन्हें लेखक की दुनिया से तालमेल करके परिवार का ऐसा संरचनात्मक ढाँचा तैयार करना पड़ता है, जिसमें अपने जीवन साथी को इतनी जगह दे सकें ताकि वे निर्विघ्न और अबाध रूप से सृजन कर्म कर सकें। यह प्रक्रिया सफल हो जाती है तो उस युगल का जीवन सँवर जाता है, अन्यथा दोनों ही अपना जीवन इस तरह काट देते हैं जिनमें एक दूसरे के सांसारिक रूप को थोड़ा जानने के बावजूद वे एक दूसरे की मानसिक दुनिया के भीतर प्रवेश नहीं कर पाते। ऐसे पता नहीं कितने साहित्यिक घर होंगे, जिनमें पति-पत्नी के मन के कमरे बन्द पड़े रहते होंगे। अगर खुलते भी होंगे तो उन कमरों में मीठी छेड़छाड़, हास-परिहास, नोक-झोंक,मान- मनौव्वल की तुलना में बेशुमार दबी चीख़ें, दीवारों पर ख़ून की बून्दें, नाख़ूनों के खरोंच और सिर पटकने के निशान ही नहीं, दाम्पत्य जीवन के कंकाल के मिलने की आशंका अधिक होगी। दूसरों की दुनिया को अपनी कृतियों में एक जासूस की तरह उकेरते हुए और स्त्रियों की दशा पर अपनी रचनाओं में भावपूर्ण सुन्दर शब्दों में जार-जार बिलखते हुए वे ख़ुद अपनी पारिवारिक दुनिया से कितना छल करते रहते हैं, यह कई बार कुछ साहित्यकारों के क़रीब जाने पर बहुत जल्दी पता चल जाता है। कान्ता भारती का उपन्यास ’रेत पर मछली’ को अपवाद मानें तो लेखक की पत्नी पर केन्द्रित मैंने कोई उपन्यास नहीं पढ़ा है। यदि कोई कथाकार लिखे तो एक देखी जानी दुनिया के अनन्त जटिल रहस्यों से परिचय मिल सकता है।

मैं मूल विषय से भटक गया हूँ। दरअसल मैं कुँवर नारायण और भारती नारायण के बारे में बात कर रहा था। वे सही अर्थों में, उनकी सहचरी रही हैं। यह विचित्र है कि जब हम किसी के बहुत क़रीब होते हैं तो उनका कोई चित्र भी याद के लिए नहीं रखते। कुँवर दम्पति का कोई चित्र मेरे पास नहीं है लेकिन उस युगल का चित्र-बिम्ब आकाश में चन्द्रमा की तरह मन में टँगा रहता है। भारती जी की हमेशा कोशिश रहती थी कि कुँवर जी के रचना स्रोतों को बचाए रखने में सहयोग कर सकें। वह निर्विघ्न लिख-पढ़ और सोच सके, इसका पूरा ख़याल रखतीं थीं। हालाँकि इसमें कुँवर जी की सुदृढ़ आर्थिक स्थिति और अपने व्यापार से अधिक कमाने के प्रति उनके वीतराग मन का भी कम योगदान नहीं था। कुँवर जी स्वयं बहुत अनुशासित थे। अपनी चीज़ों को काफ़ी सहेजकर और सलीके से रखते थे। कोई किताब या सन्दर्भ को खोजने में उनको मशक्कत नहीं करनी पड़ती थी। भारती जी, कुँवर जी से मिलनेवालों का गर्मजोशी, उत्साह और आत्मीयता से जहाँ सत्कार करती थीं, वहीं उनके बीच बैठकर सम्वाद में सक्रिय हिस्सेदारी भी करती थीं। कुँवर जी उनकी राय को काफ़ी महत्व भी देते थे। वह झील पर उठती हुए लहरों की तरह कुँवर जी की हर छोटी से छोटी अनुभूति को ओझल होने से पहले ही समझ लेती थीं। कुँवर जी उनका बेहद आदर भी करते थे।

इस सिलसिले में मुझे एक प्रसंग याद आ रहा है, जो कुँवर जी ने मुझसे साझा किया था, जिसे बताने का लोभ मैं सँवरण नहीं कर पा रहा हूँ।

एक बार आयोवा विश्वविद्यालय के अन्तरराष्ट्रीय राइटिंग प्रोग्राम के प्रतिनिधि कुँवर नारायण जी से मिलने लखनऊ स्थित उनके आवास पर आए थे। आयोवा विश्वविद्यालय अमेरिका के छोटे शहर आयोवा में है। यह अन्तरराष्ट्रीय कार्यक्रम है, जिसे वहाँ के प्रोफ़ेसर पॉल एंगिल ने प्रारम्भ किया था। इसमें चयनित लेखकों को वहाँ तक आने-जाने का हवाई जहाज़ का किराया, रहने खाने पीने की व्यवस्था और ख़र्च आदि के लिए कुछ डॉलर दिए जाते हैं। पहले यह कार्यक्रम एक वर्ष का होता था जो शायद बाद में दो महीने का हो गया है। विश्व के नामचीन साहित्यकार वहाँ एकत्र होते हैं। उनमें आपसी सम्वाद होता है। लेखक अपनी रचनाएँ पढ़ते हैं। अमेरिका की एक शान्त जगह में कवि-कथाकार-नाटककार अनौपचारिक रूप से एक-दूसरे से मिल-जुलकर परिचित होते हैं। जिन लेखकों को कई बार हम सिर्फ़ किताबों के पिछले पृष्ठ पर छपे उनके चित्रों या उनकी पढ़ी हुई रचनाओं से जानते हैं, उनसे कई बार मैत्री भी हो जाती है। इसके बारे में सबसे पहले हिन्दी कवि श्रीकान्त वर्मा ने अपने एक संस्मरण में विस्तार से लिखा था। इस कार्यक्रम में हिन्दी से श्रीका वर्मा, प्रयाग शुक्ल, गगन गिल और मंगलेश डबराल जैसे ख्यातिलब्ध कवि भाग ले चुके हैं। मंगलेश डबराल ने यात्रा-संस्मरण के रूप में एक छोटी पुस्तक “एक बार आयोवा“ भी लिखी है।

कहना न होगा कि यह प्रोग्राम किसी भी लेखक के लिए लुभावना हो सकता है। इस कार्यक्रम के लिए कुँवर नारायण जी का चयन लगभग कर लिया गया था।

कार्यक्रम के प्रतिनिधि इसकी सूचना देने और उनसे कुछ औपचारिकताएँ पूरी कराने के लिए उनसे मिलने आए थे। बातचीत में हमेशा की तरह भारती जी भी मौजूद थीं। अचानक उस प्रतिनिधि ने कुँवर नारायण जी से कहा कि मैं आपसे एकान्त में कुछ बात करना चाहता हूँ। कुँवर जी का सहज उत्तर था कि आपको जो भी बात करनी है, कर सकते हैं। यहाँ से कोई बात बाहर नहीं जाएगी। प्रतिनिधि ने भारती जी की उपस्थिति की ओर संकेत किया। कुँवर जी ने कहा कि वह मेरी पत्नी हैं। प्रतिनिधि उसी तरह चुप बैठे रहे। भारती जी समय की नज़ाकत को समझकर बैठक से सटे कमरे में चली गईं।

यह बात कुँवर जी को बेहद नागवार लगी। प्रतिनिधि ने फिर कुँवर जी के बायोडाटा को पढ़ते हुए कहा कि आपने अपने परिचय में लिखा है कि आपने जिन देशों की यात्रा की है, उनमें कुछ कम्युनिस्ट शासित रहे हैं। अपने बायोडाटा से इसे हटा दें और वहाँ इसका ज़िक्र न करें।

भारती जी के प्रति किए गए उस प्रतिनिधि के व्यवहार से पहले ही भीतर से कुँवर नारायण जी अत्यन्त क्षुब्ध थे। प्रतिनिधि की इस शर्त से वह और भी रुष्ट हो गए। उन्होंने अपने बायोडाटा में किसी प्रकार का परिवर्तन करने से दृढ़ता से इनकार कर दिया। यही नहीं, उन्होंने उस कार्यक्रम में जाने से भी यह कहकर मना कर दिया कि बायोडाटा में परिवर्तन करना एक सच को छिपाना है। ऐसा करना एक नैतिक बेईमानी होगी।

किसी भी अमेरिकी संस्थान का कम्युनिज्म के प्रति पूर्वाग्रह होना कोई छिपी बात नहीं है।

कुँवर जी राजनीतिक रूप से वामपन्थी भी नहीं रहे हैं। वे चाहते तो आसानी से उस प्रस्ताव को स्वीकार कर सकते थे। लेकिन उन्होंने इसे स्वीकार नहीं किया।

मैं नहीं जानता कि हिन्दी में ऐसे कितने रचनाकार होंगे, जो अपनी नैतिकता और अपने जीवनसाथी के सम्मान के लिए इतने लाभप्रद प्रस्ताव को ठोकर मार सकते हैं?

कुँवर नारायण जी को अन्तिम दिनों में काफ़ी शारीरिक कष्ट भी रहा। नेत्र की ज्योति मन्द पड़ गई थी। अस्पताल में काफ़ी दिन अचेतन अवस्था में रहे। वे इस पार्थिव संसार में अब नहीं हैंं, लेकिन मुझे यक़ीन है कि भारती जी उनके इतनी निकट रही हैं कि वह हमेशा समझती होंंगी कि वह कहीं नहीं गए हैं, अपनी स्टडी में बैठकर कुछ लिख-पढ़ रहे होंगे।