कुंभ अौर अवाम के असंतोष का लेखा-जोखा / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :09 मई 2016
बदमिज़ाज मौसम के सनकीपन और व्यवस्था के ढकोसले के ध्वस्त होने के बावजूद सिंहस्थ जारी है। अनुमान से कम जनता के पहुंचने के असली कारण की हम अपनी पारम्परिक शैली के कारण अनदखी कर रहे हैं। भारत में आस्था की कोई कमी नहीं है परंतु पैसों के अभाव के कारण आशा के अनुरूप संख्या में लोग नहीं आ पा रहे हैं। जादूगर अरुण जेटली कोई भी दावे करें परंतु अर्थतंत्र प्रतिक्षण कमजोर होता जा रहा है। अगर कोई वेश्या गिरती हुई ग्राहक संख्या को अपनी सद्चरित्रता का प्रमाण मानने लगे तो ढलती उम्र में सभी स्वर्ग की हकदार मानी जा सकती हैं। नर्क का हौवा और स्वर्ग का आश्वासन इस गोरखधंधे के प्रभावी पैंतरे हैं और सदियों ने इन्हें जतन से मांजा है और मांजना जारी है। यह मांजना कुमार अंबुज की कविता से अलग है। अंबुज की पंक्तियां हैं, 'कोई है जो मांजता है दिन-रात मुझे, चमकाता हुआ रोम रोम, रगड़ता, ईंट के टुकड़े जैसे विचार कई, इतिहास की राख से, मांजता है कोई।'
अंग्रेजों ने अपने शासन काल में गुप्तचरों को निर्देश दिए थे कि वे मंदिरों, मस्जिदों, कुंभ जैसे उत्सवों में आम जनता की बातचीत के आधार पर अवाम के असंतोष का ब्योरा प्राप्त करें। कहा जाता है कि 1857 से पहले 1846 में भी एक क्रांति प्रारंभ के पहली ही विफल कर दी गई, क्योंकि धार्मिक स्थानों पर जनता और संन्यासी वर्ग में इसकी तैयारी की बातें ब्रिटिश गुप्तचरों ने मालूम कर ली थी। अवाम के असंतोष के ब्योरे का केंद्रालय शिमला में स्थित था। 1857 की क्रांति का संदेश भाषा में नहीं दिया गया वरन् कमल और रोटी के प्रतीकों के माध्यम से दिया गया। अंग्रेज इस प्रक्रिया से अनभिज्ञ थे। गौरतलब यह है कि 1857 की क्रांति अंग्रेजों की राजनीतिक दासता की मुक्ति के साथ ही अवाम को पेटभर रोटी मिले- इससे प्रेरित थी। मानव जाति में क्रांतियां हुईं परंतु अवाम को रोटी मयस्सर नहीं कराई गई। अवाम की भूख को बड़े जतन से पाला-पोसा गया है और विजय पताकाएं खूब फहराई गईं परंतु खाली पेट से निकलती भांय-भांय को हमेशा अनसुना किया गया। आज के शासन-तंत्र ने इस भूख इतिहास में नया अध्याय यह जोड़ा है कि शक्तिशाली प्रचार-तंत्र से भूखे को यह विश्वास दिला दो कि उसने भरपेट खाया है और उसे डकार भी आ रही है। यह पैंतरा नोबेल प्राइज़ प्राप्त करने लायक है कि भूख की भांय-भांय को डकार कहकर संबोधित किया जाए और भूख से हुई मौत का कारण अधिक खाने के अपच को ठहराया जाए। अब नोबेल चयनकर्ता के सामने कठिनाई यह है कि यह महान आविष्कार फिजक्स, केमेस्ट्री या बॉटनी विभाग में से किसका माना जाए? उनके एक ज्ञानी ने कहा कि इसे साहित्य श्रेणी का नोबेल दिया जाए। सदियों से ये कलम घसियारे भूख को महिमामंडित कर रहे थे और अधिक खाने के अपच को ही गलत समझ लिया गया।
ज्ञातव्य है कि सामाजिक असंतोष पर शिमला में सात खंड का रिकॉर्ड था, जिनका सर्वप्रथम उल्लेख अंग्रेज ह्यूम के कांग्रेस स्थापना के कागजों में वेडरबर्न को मिला था। अंग्रेजों के राज को उखाड़ने के प्रयास की जानकारी ह्यूम को धार्मिक मठों और संन्यासी वर्ग से मिली थी। शिमला स्थित दफ्तर में अवाम असंतोष के रिकॉर्ड को अंग्रेजों ने भारत छोड़ते समय नष्ट कर दिया, क्योंकि सामूहिक जनमानस में एकत्रित असंतोष के साथ ही सामूहिक अवचेतन की रहस्यमयी विचार प्रक्रिया पर भी यह प्रकाश डालता था अर्थात भारतीय विचार शैली की कुंजी ही अंग्रेज नष्ट कर गए। हर तरह के लेखा-जोखा नष्ट करने से भी असंतोष कम नहीं होता। इस असंतोष को दूर करने के टोटके और जादू इत्यादि भी मात्र आवरण ही हैं।
दुर्भाग्यवश सरकार का विश्वास टोटकों और जादू में है और क्यों न हो। वे भले ही स्वीकार न करें परंतु अपनी अयोग्यता को जानते ही होंगे। उज्जैन में जारी कुंभ में संन्यासी वर्ग, साध्वी वर्ग व अन्य स्थानों से आए लोग इस समय के सामाजिक असंतोष पर क्या सोचते हैं- इसकी जानकारी अत्यंत महत्वपूर्ण है। कुंभ का प्रारंभ ही इसलिए हुआ था कि पूरे देश से आए विद्वान मनुष्य के दु:ख अौर उनके निवारण पर विचार करें। कुंभ में वर्णित अमृत दरअसल अमरता का कोई द्रव्य पदार्थ नहीं है, बस वैचारिक बहस का माध्यम और वैचारिक मंथन से ही वह अमृत मिल सकता है, जो अवाम के रोटी, कपड़ा और मकान की मूलभूत समस्याओं स छुटकारा दिलाएं। इस कुंभ की व्यवस्था के एक स्तंभ मुख्यमंत्री के विश्वासपात्र अफसर मनोज श्रीवास्तव हैं, जिनकी अफसरी के भार से उनका कवि स्वरूप दब-सा गया है। शिमला में अंग्रेजों ने भारतीय असंतोष का रिकॉर्ड रखा था या नहीं रखा व उसे नष्ट कर दिया, इन सब बातों से महत्वपूर्ण यह है कि इस कंुभ में अवाम के असंतोष को समझने का प्रयास किया जाए।