कुछ अन्य प्रसंग / सत्य शील अग्रवाल

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लिव इन रिलेशनशिप

‘लिव इन रिलेशनशिप’ का नाम जुबान पर आते ही युवक युवतियों द्वारा एक साथ रहने का ख्याल ही मन में आता है, जब वे बिना विवाह संस्कार की औपचारिकताएं निभाए, या कोई भी कानूनी प्रक्रिया अपनाये साथ रहने लगते हैं। जिसे सामाजिक और कानूनी रूप से अवैध रिश्ते का नाम दिया जाता है। परन्तु हम यहाँ पर लिव इन रिलेशनशिप कि एक नयी विकसित हुयी अवधारणा के बारे में बताने जा रहे हैं। जब कोई अधेड अवस्था के उपरांत कोई महिला और पुरुष एक साथ रहने लगते हैं, उम्र के आखरी पड़ाव पर अपने जीवन साथी से बिछड जाने के कारण अपने अकेले पन को दूर करने के लिए किसी अन्य हम उम्र महिला या पुरुष के साथ शेष जीवन बिताने का निश्चय करते हैं। अपने दुःख दर्द को आपस में बाँट कर अपने शेष जीवन को सहज बनाने का प्रयास करते हैं। ‘लिव इन रिलेशनशिप’ की यह एक नयी अवधारणा जन्म ले चुकी है, जिसमें युवा वर्ग नहीं बल्कि प्रौढ़ व्यक्ति अपने शेष बचे जीवन को आसान बनाने के प्रयास करते हैं।

यह हमेशा संभव नहीं होता कि पति और पत्नी साथ साथ इस संसार से विदा लें पायें। कभी कभी दुर्घटना वश युवावस्था में भी जीवन साथी बिछड जाता है, तो इस अवस्था में देर सवेर दूसरे विवाह कि सम्भावना बनी रहती है जो व्यक्ति विशेष पर निर्भर करता है। और उसके निर्णय को समाज कि स्वीकृति भी मिल जाती है। परिवार भी उसके निर्णय का स्वागत करता है। परन्तु अधेडावस्था या उसके पश्चात जीवन साथी बिछोह कि आपूर्ति विवाह द्वारा संभव नहीं होती और न ही समाज उस गठबंधन को स्वीकार करता है। शारीरिक एवं मानसिक रूप से स्वस्थ्य होते हुए भी उनके लिए दूसरे विवाह कि बात सोचना भी वर्जित माना जाता है। परिजन उसके दूसरे विवाह को हिकारत से देखते है, वे उसे उसकी कामेच्छा का विकृत रूप मान कर व्यंग कसते हैं। इस प्रकार एकल रूप से रह रहे वृद्ध का शेष जीवन अभिशाप बन जाता है। क्योंकि परिवार के सभी सदस्य उससे उम्र में छोटे होते हैं। उनसे विचारों के आदान प्रदान में संकोच बना रहता है। अतः खुलकर अपने विचारों को साझा नहीं कर पाता। वैसे भी आधुनिक परिवेश में पले बढे युवक युवतियों कि सोच उनसे मेल नहीं खाती। उनकी जीवन शैली, आचार विचार बुजुर्गों से भिन्न होते हैं। जिसके कारण घर का बुजुर्ग अपने परिजनों में ही बेगाना सा हो जाता है। कभी कभी तो स्थिति यहाँ तक आ जाती है, अपने घर के ही सदस्य बुजुर्ग व्यक्ति से वार्तालाप से कतराने लगते हैं, उसके दुःख दर्द इत्यादि कि उपेक्षा होने लगती है। इस प्रकार उसे अकेलापन ही उसको खाने लगता है। उसे अपना जीवन उद्देश्य हीन और व्यर्थ लगने लगता है। वह एक तरह से अपने को समाज से वहिष्कृत सा अनुभव करने लगता है। उसे अपने बिछड़े जीवन साथी की यादें सताने लगती हैं। कोई भी कार्य, कोई भी शौक उसको व्यस्त रख पाने में सफल नहीं होता। परिणाम स्वरूप वह मानसिक रूप से टूटने लगता है, अवसाद ग्रस्त रहने लगता है। कभी कभी तो मौत को गले लगाने को बेहतर विकल्प मानने लगता है। परन्तु चाहने से तो मौत भी नहीं आती। आत्महत्या करने की हिम्मत भी ऐसी जर्जर अवस्था में शेष नहीं रह पाती। उसकी परिपक्वता उसे यह सोचकर उद्वेलित कर देती है की यदि उसका आत्महत्या का प्रयास सफल नहीं हो पाया और वह अपने आत्महत्या के प्रयास में अपाहिज हो गया, या बिस्तर से उठ पाने में भी असमर्थ हो गया, तो वर्तमान जीवन से भी बदतर जीवन जीने को विवश होना पड़ेगा। हमारे देश के कानून किसी भी दशा में इच्छा मृत्यु की अनुमति नहीं देते। चाहे कोई व्यक्ति लंबे समय से गंभीर बीमारी से ग्रस्त होने के कारण बिस्तर पर पड़ा हो और उसके सामान्य होने के कोई आसार भी न हों। अब ज्वलंत प्रश्न उठता है, आखिर एकल वृद्ध अपने अंतिम समय को कैसे बिताए? क्या उसे सम्मान पूर्वक और शांति से जीना का कोई अधिकार नहीं है?

अभी तक उपरोक्त स्थिति आने वाले वृद्ध के पास एक ही विकल्प शेष होता था की वह वृद्धाश्रम में जाकर रहे। जिसे वर्तमान समय में सामाजिक निष्कासन के रूप में देखा जाता है। संतान की प्रतिष्ठा को भी आघात पहुँचने की सम्भावना बनी रहती है। इन्ही सब चुनौतियों का सामना करने के लिए लिव इन रिलेशनशिप की नयी अवधारण ने जन्म लिया है। अतः उपरोक्त परिस्थितियों में एकाकी वृद्ध विपरीत लिंगी वृद्ध के साथ रहने लगता है। ताकि दोनों एक दूसरे का दुःख दर्द बांटते हुए जीवन बिताएं, यद्यपि ऐसे जोड़ों को विवाह के रूप में कानूनी मान्यता मिलना संभव नहीं होता, जबकि सामाजिक रूप से कोई ऐतराज भी सामने नहीं आता। परिवार उस विवाह को स्वीकार नहीं करता है। क्योंकि विवाह हो जाने पर संतान को अपनी संपत्ति के अधिक भागीदार बन जाने की सम्भावना बन सकती है। अतः परिजन जोखिम नहीं ले सकते, जबकि साथ साथ रहने में उन्हें कोई आपत्ति नहीं होती बल्कि उसका स्वागत होता है। सभी परिजनों को वृद्ध के प्रति अपनी जिम्मेदारी कम होती प्रतीत होती है। उन्हें उस बुजुर्ग की दवा-दारू, सेवा-सुश्रुषा की जिम्मेदारी से राहत का अनुभव होता है। साथ ही घर के बुजुर्ग को संतुष्ट देख कर सभी परिजनों को संतोष मिलता है। और वृद्ध को अपना समय बिताने, अपनी भावनाओं को व्यक्त करने, अपने दुःख में हाथ बांटने के लिए एक निजी सहायक एवं मित्र मिल जाता है। और अपने जीवन को नया मुकाम मिल जाता है।

बड़े बड़े शहरों में उपरोक्त अवधारणा को अपनाना शुरू कर दिया है, जो आने वाले समय में व्यापक रूप में अन्य छोटे शहरों और गावों में भी अपनाया जाने लगेगा।

कहीं आप स्वार्थी तो नहीं

इस संसार में प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी स्वार्थ के वशीभूत हो कर ही अपने कार्यों को अंजाम देता है। स्वार्थ ही कुछ करने की प्रेरणा देता है, जो उसे प्रगति की राह पर ले जाने का कारण बनता है। इन्सान के प्रत्येक कार्य के पीछे कोई न कोई स्वार्थ छिपा होता है यहाँ तक की दान देकर या समाज सेवा करके भी हम कहीं न कहीं अपने स्वार्थ की पूर्ती कर रहे होते हैं। क्योंकि दान देने के पीछे धार्मिक लाभ पाने का प्रलोभन निहित होता है, और समाज सेवा के पीछे आत्मिक शांति पाने की आकांक्षा होती है। अर्थात दान आर्थिक रूप में हो या श्रम के रूप में आत्म संतोष (स्वार्थ ) प्राप्त करने का उत्तम माध्यम होता है।

इस लेख में मेरा आशय ऐसे स्वार्थ से है, जिससे हम अपने भौतिक स्वार्थों की पूर्ती तो करते ही हैं, परन्तु अपने परिजनों का अहित भी करते हैं। कभी जानबूझ कर और कभी अनजाने में, कभी किसी प्रियजन के प्यार के वशीभूत होकर, तो कभी अपने भविष्य को सुरक्षित रखने की चाह में अपने प्रिय जन के जीवन के साथ अन्याय कर बैठते हैं।

उदाहरण के तौर पर अपनी संतान को शिक्षा से वंचित कर देना, उसके उच्च शिक्षा के अवसरों पर अंकुश लगा देना, उनके रोजगार ढूढने की सीमायें निश्चित कर देना। अर्थात उनके सान्निध्य की चाहत के कारण उनकी उन्नति में अवरोधक बन जाना, कुछ ऐसे ही कार्य हैं जो हम अपने स्वार्थों की पूर्ती के लिए उनके सुखद भविष्य को प्रभावित करते हैं, जो सर्वथा अनुचित अवं असंगत है अपनी शेष रह गयी सीमित जिंदगी के लिए अपनी संतान या अन्य परिजनों की उन्नति में रोड़े अटकाना, हमारे प्यार का प्रतीक नहीं, हमारा बड़प्पन नहीं, बल्कि हमारा स्वार्थ है। अनेक चतुर, चालक, अभिभावक, माता पिता अपने स्वार्थ पूर्ती के लिए, अपनी आत्म संतुष्टि के लिए अपनी संतान के दाम्पत्य जीवन को कलुषित करने से नहीं हिचकिचाते। अपने बड़प्पन का लाभ उठाते हुए, अपने अधिकारों का दुरुपयोग करते हुए संतान के दाम्पत्य जीवन में कलह उत्पन्न कर, अपना बर्चस्व बनाये रखने का प्रयास करते हैं। यदि संतान अपने जीवन साथी से सम्बद्ध रहेगी तो बुजुर्गों को अपना दबदबा कम होने का खौफ सताने लगता है। ऐसे बुजुर्ग अपनी संतान को भी कभी एक नहीं होने देते। उनके आपसी विवादों को सुलझाने के स्थान पर विवादों को हवा देकर, उनके द्वंद्व को बढाकर, अपनी हुकूमत कायम रखने को प्रयासरत रहते हैं। अनेक बार तो अपने पोतों, पोतियों, नाती नातिनों को भ्रमित कर उनके माता पिता के विरुद्ध खड़ा कर अपनी संतान को नीचा दिखाने का तुच्छ प्रयास करते हैं।

इसी प्रकार स्वार्थी घर के मुखिया अपने बेटे या बेटी के विवाह के समय उसके लिए जीवन साथी की तलाश करते समय अपने आर्थिक हितों पर ध्यान केन्द्रित किये रहते हैं। पुत्र के लिए पुत्रवधू तलाश करते हुए, होने वाली पुत्रवधू की योग्यता, उसके चरित्र, उसके विचार जैसी मूल आवश्यकताओं को दरकिनार कर उसके साथ आने वाले दान दहेज़ पर निगाह बनाये रखते हैं, और अपने पुत्रकी इच्छाओं, अभिलाषाओं आकाँक्षाओं का गला घोंट देते हैं। इसी प्रकार यदि घर में बेटी कमाऊ है, परिवार की आर्थिक आवश्यकतायें उसकी कमाई से हो रही हैं, तो उसके विवाह में अनावश्यक रूप से विलंब किया जाता है। इस प्रकार से घर के बड़े बुजुर्ग अपने स्वार्थ में अपनी संतान के भविष्य को दांव पर लगा देते हैं।

प्राचीन काल में भी जब परिवार में चार, छः पुत्र एवं चार छः पुत्रियाँ होते थे, अपने एक बेटे को सिर्फ घर के पारंपरिक कार्यों जैसे खेती बाड़ी, दुकानदारी, कारखाने आदि के लिए उसकी बिना इच्छा जाने संलिप्त कर देते थे, और उसको परिवार सेवा की समस्त जिम्मेदारी सौंप दी जाती थीं। दूसरे शब्दों में घर के बुजुर्ग भविष्य में अपनी सेवा कराने के लिए एक पुत्र के जीवन को अपने अधीन कर लेते थे। उसके भविष्य को प्रतिबंधित कर देते थे। शेष पुत्रों को उनकी रूचि, उनकी योग्यता के अनुसार भविष्य को चुनने के अवसर उपलब्ध कराये जाते थे। घर के लिए तथाकथित समर्पित पुत्र की शिक्षा पर भी कोई ध्यान नहीं दिया जाता था, यहाँ तक की कभी कभी तो उसे अविवाहित ही रखा जाता था ताकि वह निस्वार्थ भाव से परिवार की सेवा कर सके, सभी परिजनों के भविष्य को संवारने में पर्याप्त सहयोग कर सके। घर के इस चिराग को अपने जीवन की खुशियों, अपनी रुचियों, अपनी इच्छाओं, के अनुसार जीने का हक़ नहीं होता था। शायद घर के बुजुर्ग अपने स्वार्थ में भूल जाते थे की वह बेटा भी इसी घर का लाडला है। उसे भी अपने भाई बहनों के समान अपनी रुचियों के अनुसार जीने का पूरा अधिकार है। क्या इस संतान को अपने जीवन को अपनी इच्छानुसार जीने के लिए अगले जन्म तक इंतजार करना होगा ?

प्रत्येक परिवार के मुखिया को परिवार के सभी सदस्यों के साथ न्याय करना चाहिए, सभी को अपनी योग्यतानुसार इच्छानुसार अपने जीवन को संवारने के बराबर अवसर प्रदान किये जाने चाहियें। अपने हितों को त्याग कर निष्पक्ष व्यव्हार ही बुजुर्गों का बड़प्पन है, उनका कर्तव्य है, उन्हें परिवार में सम्मान्निये बनाता है।

युवावर्ग से आक्रोशित क्यों?

अक्सर परिवार में संतान उत्पन्न होने पर अनेक प्रकार से खुशियों का इजहार किया जाता है। अपने बच्चे को बड़े प्यार से पालते पोसते हैं। उसकी प्रत्येक इच्छा को पूरा करने में अपनी खुशी अनुभव करते हैं। संतान बेटी हो या बेटा माँ बाप के लिए बहुमूल्य होते हैं। वे उनके लिए दिन-रात यथा शक्ति परिश्रम करते हैं। ताकि उन्हें दुनिया की श्रेष्ठतम सुविधाएँ प्रदान की जा सकें। माता पिता पूर्ण सामर्थ्य के साथ अपने बच्चों के लिए समर्पित हो जाते हैं। प्रत्येक माता पिता का स्वप्न होता है की उनकी संतान उनकी हैसियत से ऊंची हैसियत वाली बने। इसी भावना के साथ उन्हें अधिक से अधिक शिक्षित करने और प्रशिक्षित करने का लक्ष्य बनाते हैं, और अपना सौभाग्य मानते हैं की वे उसे उच्च शिक्षा दिला पा रहे हैं।

परन्तु वे जब बड़े हो जाते हैं, आत्मनिर्भर हो जाते हैं, जीवन की ऊंचाइयों को पाने में सफल होते हैं, माता पिता के स्वप्नों को पूरा कर लेते हैं, तो वही संतान अपने माता पिता द्वारा निर्धारित कर्तव्यों को पूर्ण न कर पाने के कारण उनकी आखों में खटकने लगते हैं। जितना उनकी संतान कर पाती है, उससे अधिक की उम्मीदें उन्हें उद्वेलित करने लगती हैं। और घर के बुजुर्ग अपनी संतान से निराश होने लगते हैं। शायद वही माता-पिता अपने अंदर पनप रही हीन भावना से त्रस्त होने लगते हैं। परिणाम स्वरूप वे अपनी संतान में अनेकों कमियां गिना कर अपना बड़प्पन जाहिर करते हैं, कभी कभी उन्हें नीचा दिखाने का प्रयास करते हैं। उनकी छोटी छोटी बातों पर आगबबूला हो जाते हैं। उनकी छोटी से छोटी त्रुटियाँ को भी अपने अपमान, अपनी उपेक्षा से जोड़ने लगते हैं। क्या अब उनकी संतान प्यारी नहीं रही बल्कि अब वे कर्तव्यों का बोझ उठाने वाले पुतले दिखाई देते हैं। माता-पिता आर्थिक रूप से समृद्ध हैं, पूर्णतयः आत्मनिर्भर हैं, तो भी अपनी संतान पर तानाकशी करना, उनके कर्तव्यों को गिनाना अपना बड़प्पन मानते हैं। यदि आप शारीरिक रूप से पूर्णतयः स्वस्थ्य हैं, तो भी बेटे से सेवा की अपेक्षा करना, उनके परम्परागत संस्कारों का हिस्सा माना जाता है। रोज संध्या को बाप के टांग दबाना पुत्र का कर्तव्य है, उसके संस्कार से जुडी है, चाहे बाप के टांग और पैर सही सलामत हों। बाप की मिजाजपुर्सी तो करनी ही होगी।

जिस बच्चे की प्रत्येक उचित अनुचित हरकत को भी खुश होकर सहन करते थे, अब उसी संतान की साधारण सी बातें भी उनके लिए ह्रदय विदारक हो जाती हैं, परन्तु क्यों? क्या बड़ों का क्षमा करने का दायित्व बच्चे के व्यस्क होने तक ही सीमित होता है। जब आप आज भी अपनी संतान को बच्चा मानकर डांटने और समझाने का अपना हक मानते हैं, तो बड़े होने के नाते उन्हें उनकी गलतियों के क्षमा करने का कर्तव्य भी आपका ही है। छोटों को क्षमा करना भी तो बड़प्पन होता है। आज आपका बेटा शादी शुदा एवं बच्चों का पिता है तो भी संतान होने के नाते अपनी गलतियों के लिए आपसे क्षमा पाने का अधिकारी तो है ही। आपकी क्षमा करने या त्रुटियों को नजरअंदाज करने की प्रवृति उनके दिलों में आपके लिए सम्मान बढ़ा देती है। उनके साथ सम्बन्ध मधुर बने रहने की सम्भावना बलवती होती है।

एक बात और ध्यान देने योग्य है की वार्तालाप करते समय आप हमेशा तर्कसंगत बातों का समर्थन करें। यह सोचना की आप बड़े हैं और आप अधिक अनुभवी हैं, तो आपका मत सदैव सही होगा, सर्वथा गलत है, अनुचित है। संतान की योग्यता का अपने अनुभव या अपनी ईगो से मुकाबला नहीं करना चाहिए। यह बात सर्वथा उचित है की संतान को आपका सम्मान करना चाहिए उसे आपके अपमान से बचना चाहिए, परन्तु यह भी उचित है उससे आपका तर्क संगत, न्याय संगत, पारदर्शी व्यव्हार ही आपको सम्मान दिला सकता है। यदि आपकी ईगो संतुष्टि की प्रवृति बनी रहेगी, तो नयी पीढ़ी से सामंजस्य बैठा पाना असंभव नहीं तो मुश्किल अवश्य है। जब वे बच्चे थे और गलतियां करते थे तो कभी आपके आत्मसम्मान को नुकसान नहीं पहुंचा तो फिर अब ऐसा क्यों?

यह कहना उचित नहीं होगा की प्रत्येक विवादित परिवार में संतान की गलतियाँ ही विवादों को जन्म दे रही हैं या परिवारों को तोड़ने का कारण बन रही हैं। अनेक परिवारों में बुजुर्गों का असंगत व्यव्हार भी आक्रोश का कारण बनता है। उनकी तानाशाही उनका बड़प्पन उनकी ईगो भी परिवार में असंतोष उत्पन्न करती है। कभी कभी बुजुर्ग आर्थिक रूप से सक्षम अथवा बड़ी जायदाद का मालिक होने या बड़े कारोबार के कर्ता धर्ता होने के कारण अपनी संतान को अपमानित करते रहते हैं, ऐसे बुजुर्ग परिवार पर संतान के आत्मनिर्भर होने के बाद भी उन पर अपना प्रभुत्व ज़माने का प्रयास करते हैं, जो बिलकुल अनुचित है। परिवार पर आपका बर्चस्व संतान के आत्मनिर्भर होने तक ही संभव है, उसके पश्चात यदि आप तर्कसंगत बातें करेंगे तो ही वह मानेगा अन्यथा नहीं। अतः मधुर सौम्य, संगत पूर्ण, मानवीय व्यव्हार ही बुजुर्गो के भविष्य को सुरक्षित सम्मान्निये और शांति पूर्ण बना सकता है

वृद्धावस्था पहले भी आसान न थी

बुज्रुर्ग लोग अक्सर कहते पाए जाते हैं, ”क्या जमाना आ गया है, वृद्धों का कोई मान सम्मान नहीं रहा गया है। आधुनिकता की चकाचौंध में सब बाबले हो चुके हैं। नयी पीढ़ी स्वार्थी, संवेदनहीन हो गयी है। बुजुर्गों को बीते वर्ष का केलेंडर मान कर उनके तिरस्कार से भी परहेज नहीं करती। ” बुजर्गों पर लिखे जाने वाले साहित्य में भी नयी पीढ़ी को संस्कारों, और परम्पराओं की दुहाई देते हुए अनेक उपदेश दिया जाते रहते हैं। उन्हें बार बार बुजुर्गों के प्रति अपने कर्तव्यों के बारे में जागरूक किया जाता है। उन्हें अपने बुजुर्गों का कर्जदार होने का आभास कराया जाता है। उपरोक्त सभी आलोचनाओं, उपदेशों और संदेशों से यही अर्थ निकलता है की वर्तमान युग की संतान शायद पहले से अधिक लापरवाह, गैर जिम्मेदार तथा स्वार्थी है। क्या वास्तव में प्राचीन काल में बुजुर्गों को अधिक सम्मान मिलता था? क्या पुराने ज़माने में बुजुर्ग अपनी नयी पीढ़ी से अधिक संतुष्ट रहते थे? क्या पहले नयी पीढ़ी बुजुर्गो के प्रति अधिक संवेदन शील थी?क्या प्राचीन काल में बुजुर्ग अपने संध्याकाल में सम्मान्, शांति और संतोष जनक जीवन जीते थे? और उनकी दुनिया से विदाई कष्ट रहित होती थी? निश्चित रूप से कोई भी आज का बुजर्ग जो कभी युवा था, ईमानदारी से उत्तर दे तो उसका उत्तर हाँ नहीं हो सकता। सत्य तो यह है की पिछले पांच दशकों में परिस्थितियां इतनी तीव्रता से बदली हैं जिनको समझे बिना पारंपरिक उपदेशो को देना अर्थहीन है। बदली परिस्थितियों ने युवाओं के लिए समस्याएं इतनी बढ़ा दी हैं, जिन्हें समझे बिना नयी पीढ़ी को कर्तव्य हीन और संवेदन हीन कहना उनके साथ अन्याय होगा।

यदि तीस से पचास वर्ष पूर्व बुजुर्गों की सामाजिक स्थिति पर दृष्टिपात करें, जब कभी आज की बुजुर्ग पीढ़ी के पूर्वज जीवित थे और वे वृद्ध जीवन जी रहे थे, उनकी जीवन संध्या शायद आज से अधिक भयावह थी, कष्टप्रद थी। अपेक्षाकृत आज का बुजुर्ग अधिक साधन संपन्न, स्वास्थ्यप्रद, और शांति पूर्ण जीवन व्यतीत कर रहा है। आज की विषम परिस्थितियों के कारण आज की भारतीय परिवेश में पली बढ़ी युवा पीढ़ी, अपने बुजुर्गों के लिए संवेदनशील होते हुए भी कुछ विशेष नहीं कर पाती है, इसके लिए उसे आत्मग्लानी भी अनुभव होती है। यदि बुजुर्ग उसकी विवशता को न समझते हुए अपनी संतान पर आक्षेप करते हैं, उसे कर्तव्य हीन करार देते हैं, तो उसकी व्यथा और भी गहरी हो जाती है। कारण यह है की आज भी भारतीय परिवारों में पले बढे युवा अपने बुजुर्गों से अपेक्षाकृत अधिक संलग्न होते हैं उनके मन में अपने पूर्वजों के लिए श्रृद्धा भाव होता है।

भौतिकवाद की चकाचौंध, बड़े बड़े शहरों में घरों में स्थान की कमी, विश्वस्तरीय प्रतिद्वंद्विता, पारिवारिक ढांचे में बदलाव, और कभी कभी बुजुर्गों का तानाशाही व्यव्हार, युवा पीढ़ी को निरंतर उद्वेलित करता रहता है। परन्तु जब उन्हें बुजुर्गों में नयी पीढ़ी के प्रति आक्रोश एवं असंतोष झलकता है तो उन्हें अखरता है। अक्सर बुजुर्ग गत कुछ ही वर्षों में जीवन शैली में आये विशेष बदलाव को स्वीकार करने को तैयार नहीं होते वे आंखे मूँद कार परम्पराओं के अनुसार ही अपनी संतान से व्यव्हार की उम्मीद करते हैं। जिस कारण वे आक्रोशित व् दुखी होते हैं, और समस्त परिवार में तनाव बना देते हैं।

वर्तमान पीढ़ी को दोषी ठहराने से पूर्व उन्हें अपने गिरेवान में भी झांकना चाहिए। उन्हें सोचना चाहिए जब उनके बुजुर्ग जीवित थे और वे युवा थे क्या वे उनके प्रति पूर्णतयः समर्पित थे? पुराने ज़माने में एक कहावत थी, ”जिस घर में बुजर्ग रहता है उस घर में चोर नहीं आ सकते” परन्तु क्यों ? यह कहावत ही बुजुर्गों की दयनीय स्थिति को दर्शाती है अर्थात बुजुर्ग कभी रात को चैन की नींद नहीं सो पाते थे। उनकी रातें अक्सर खांसते खांसते ही कटती थीं। यदि आज के बुजुर्ग अपने अतीत पर दृष्टिपात करें तो उन्हें याद आयेगा की जब आप किसी रिश्तेदार के यहाँ जाते थे, तो संयुक्त परिवार होने के कारण परिवार का बुड्ढा घर के किसी कोने में पड़ा होता था, जिससे से परिचय कराना भी कोई आवश्यक नहीं मानता था, न ही उससे कोई बातचीत करने को तैयार होता था। परिवार में अनेक परिजनों के होते हुए भी वह नितांत अकेला होता था। जैसे वह मृत्यु शैय्या पर पड़ा कोई जीव हो। उसे अपनी मूल आवश्यकताओं के लिए परिजनों की मिन्नतें करनी पड़ती थीं। तब कहीं कोई परिजन घर के बूढ़े की आवश्यकताएं पूर्ण करता था। यह घटना सिर्फ एक घर की कहानी नहीं थी अक्सर यही व्यव्हार प्रत्येक बूढ़े के साथ होता था। और कभी कभी तो गंभीर बीमारी से ग्रस्त किसी बुजुर्ग को हवेली के किसी दूर दराज के कमरे में पड़े रहना पड़ता था। ताकि उसकी चीख पुकार से किसी परिजन को परेशानी न हो। यही दृश्य था पुराने समय में बुजुर्ग के अंतिम समय का। क्या आज का बुजुर्ग इतना ही उपेक्षित और लाचार है? (अपवादों को छोड़ कर)

पुराने ज़माने में बुढ़ापा अधिक कष्टकारी, अधिक उपेक्षित, और अधिक लाचार था। उसका मुख्य कारण था चिकित्सा सेवाओं का अभाव। अनेक गंभीर बीमारियों के इलाज ही उपलब्ध नहीं थे यदि कुछ थे भी तो आम आदमी की पहुँच तक नहीं थे। अतः बुजुर्गों को अनेक बीमारियों के साथ ही जीवन संध्या बितानी पड़ती थी। टी। बी।, मधुमेह, ह्रदय रोग, दमा, जैसी अनगिनत बीमारिया जिनका इलाज उन दिनों नहीं होता था। यही कारण था बुढ़ापा अक्सर बिस्तर पर ही कटता था। लंबे समय तक बिस्तर पर निष्क्रिय पड़े रहने की मजबूरी कम कष्टदायक नहीं होती। जो एक अभिशाप ही था और जो करीब करीब हर बुजुर्ग को भुगतना पड़ता था। जब वह सिर्फ परिजनों के सेवा, दया का मोहताज होता था। जबकि संयुक्त परिवार में अनेक परिजनों के रहते बारी बारी से बुजर्ग की सेवा करना कुछ असंभव या कठिन भी नहीं था। परन्तु क्या हकीकत में ऐसा होता था?

प्रसंगवश यहाँ यह भी बताना आवश्यक हो गया है आखिर पिछली एक पीढ़ी के मध्य ज़माने ने क्या परिवर्तन दिखाये हैं। ऐसा क्या अंतर आ गया पिछले पचास वर्षों में:

पिछले तीस वर्षों से पचास वर्ष के अंतराल में जो सामाजिक परिवर्तन और जीवन शैली में बदलाव आये हैं उन्हें जाने बिना वर्तमान पीढ़ी को दोष देना उनके साथ अन्याय होगा। अब जानने का प्रयास करते हैं क्या बदलाव वर्तमान दौर में आ चुके हैं।

1) पुराने समय में महिलाएं बहुत कम पढ़ी लिखी या अनपढ़ होती थीं। तर्कशक्ति के अभाव में स्वतः परिवार एवं पति के दबाव को सहना करना उनकी नियति थी जिसके अंतर्गत परिवार के सभी सदस्यों को मान सम्मान देती थीं। चाहे उन्हें किसी का व्यव्हार पसंद भी न हो। परिवार में तनाव पूर्ण व्यव्हार होने के बावजूद पूरा जीवन बिना उफ़ किये निकाल देती थीं। क्योंकि उनके पास अपने जीवन यापन का कोई अन्य विकल्प नहीं होता था। परन्तु आज अधिकतर महिलाएं पढ़ी लिखी हैं, उनमे अनेक महिलाएं आत्मनिर्भर भी हैं। शिक्षित महिला अपने हित अहित अपने स्वाभिमान को भली भांति समझतीं हैं। अतः वे किसी भी परिजन की तर्कहीन बातों को मानने को तैयार नहीं हैं, और मानने को बाध्य भी नहीं हैं। संयुक्त परिवार में घर के मुखिया की संगत पूर्ण या असंगत बातों को मानना महिला की मजबूरी अब नहीं रही।

2) प्राचीन काल में बेटा अपने परिवार के कारोबार को ही आगे बढ़ता था, चाहे वह खेती बड़ी हो या फिर दुकानदारी, हकीम गीरी (चिकित्सा व्यवसाय), घरेलू उद्योग या फिर जायदाद सम्बन्धी अन्य कारोबार। अतः उसकी परिवार पर निर्भरता जीवन भर बनी रहती थी, घर का मुखिया अर्थात घर का बुजुर्ग ही उसका बॉस भी होता था, उसकी रोजी रोटी का दाता होता था। अतः वह मजबूर था की वह अपने बुजुर्ग की उचित या अनुचित बातों का समर्थन करता रहे। बुजुर्गों की सभी इच्छाओं को पूर्ण करना, उसके आदेशों का पालन करना, मतभेद होने पर भी अपनी आवाज न उठा पाना उसके प्रारब्ध में था। यदि उसका बुजुर्ग तानाशाह भी है तो उसे झेलना उसकी मजबूरी थी। क्योंकि वह अधिक पढ़ा लिखा न होने के कारण कोई अन्य कारोबार या नौकरी कर पाने में असमर्थ था। इस प्रकार घर के बुजुर्ग का उसके कार्यकारी होने तक बर्चस्व बना रहता था। परन्तु आज विकास की आंधी ने लगभग सभी परंपरागत कारोबारों को छिन्न भिन्न कर दिया है। परिवार के सभी सदस्य शिक्षित हो चुके हैं, उनकी महत्वकांक्षाएं भी उसी प्रकार बढ़ गयी हैं। परिवार के बढते सदस्यों की संख्या के कारण परम्परागत कारोबार या खेती इत्यादि से होने वालो आमदनी, सबका भरण पोषण कर पाने में समर्थ नहीं रही। और शिक्षित व्यक्ति अपनी जीवन शैली को आधुनिक तरीके से अपनाना चाहता है, उसकी इच्छाएं काफी बढ़ गयी हैं। अब वह रोटी, कपडा, और मकान पा कर संतुष्ट नहीं होता। यही मानसिकता उसे अपने परम्परागत कारोबार को छोड़ कर घर से दूर काम की तलाश में जाना पड़ता है, और संयुक्त परिवार एकल परिवार में परिवर्तित हो रहे हैं। परिणाम स्वरूप घर के मुखिया का परिजनों पर दबाव या अंकुश समाप्त हो रहा है। उसकी तर्कहीन बातें, अनुचित बातों को कोई समर्थन नहीं देता। और यह व्यव्हार अनेक बुजुर्गों को रास नहीं आता। वे उनके इस व्यव्हार को अपने अपमान के रूप में देखते हैं। वे नयी पीढ़ी या नए ज़माने को इसका दोषी मानते हैं।

3) ज्यों ज्यों विकास की गति तीव्र होती जा रही है विश्व पटल पर प्रतिस्पर्द्धा भी बढ़ रही है। नयी नयी सुविधाओं, नयी नयी उपलब्धियों को पाने की होड़ में युवा दिन रात एक कर अधिक से अधिक धन कमाने में लगा देता है। अधिक योग्यता प्राप्त करना, अधिक से अधिक अर्जन के लिए अधिक समय व्यय करना, युवा पीढ़ी की मजबूरी बन गयी है। अधिक कमाई के लिए परिवार में पति और पत्नी दोनों ही कार्य शील हो रहे हैं। वे मजबूर हैं, अधिक कमाई या रोजगार की आसान उपलब्धता के कारण बड़े बड़े शहरों में जाकर रहे जहाँ उन्हें छोटे छोटे आवासों में रहना पड़ता है। अतः बुजुर्गों को भी उनकी मजबूरियों के साथ सामंजस्य बनाने की आवश्यकता है, और नए विकल्प ढूँढने की जरूरत है। ४ शिक्षा के व्यापक प्रसार के कारण आज की पीढ़ी प्रायः स्नातक तक तो शिक्षा प्राप्त है ही बल्कि अब उच्च शिक्षा प्राप्त युवाओं की संख्या भी तेजी से बढ़ रही है। शिक्षा युवकों को तर्क शक्ति भी प्रदान करती है, अतः वह अपने बुजुर्गों की प्रत्येक बात को तर्क शक्ति पर तौलता है, उसके पश्चात् ही अपने बुजर्ग की बात को मानने या न मानने का निर्णय लेता है। उसके लिए यह संभव नहीं है की जो बुजर्ग कह रहे हैं उसे अक्षरशः मान ले। जबकि शिक्षा के अभाव में प्राचीन काल में अनुभव ही ज्ञान का स्रोत होता था, जो प्रायः बुजुर्गों के पास होता था। अतः उनकी बातों को महत्त्व दिया जाता था और उचित माना जाता था। उनकी सलाह सर्वमान्य होती थी। यही कारण था परिवार में बुजुर्ग का बर्चस्व बना रहता था। वास्तव में शिक्षा का अर्थ होता है की विद्यार्थी को किताबों द्वारा अनुभवों के संग्रह को थोड़े से समय में समझा दिया जाय। जो विद्यालयों और अध्यपकों के माध्यम से दिया जाता है। यही कारण है शहर के साठ वर्ष के अनुभवी हकीम से अधिक विद्वान् अथवा योग्य मात्र पच्चीस वर्ष का डॉक्टर होगा जो फ़िलहाल में ही अपना कोर्स पूरा करके आया होता है। यह भी एक कटु सत्य है चालीस वर्ष का अनुभव रखने वाले राज से अधिक बुद्धिमान बाईस वर्षीय सिविल अभियंता युवक होगा।

उपरोक्त बदलावों को ध्यान में रखते हुए देखें क्यों आज परिवार बिखर कर एकल परिवार में परिवर्तित हो रहे हैं। परिवार में प्रत्येक युवा सदस्य यानि महिला और पुरुष अपने कामकाज में व्यस्त है, तो बच्चे अपने भविष्य को बनाने में संलग्न हैं। सभी का उद्देश्य उच्च से उच्च स्तर पा लेने का है। अतः उनके लिए अपने बुजुर्गो को समय दे पाना आसान नहीं रह गया है। दूसरी तरफ आज के बुजुर्ग तन-मन से पहले के मुकाबले अधिक स्वस्थ्य हैं। अपने कार्य स्वयं कर सकने की क्षमता रखते हैं। साथ ही उनकी प्रत्येक बीमारी का इलाज भी आज संभव है। संतान उनकी सभी आवश्यकताओं को पूर्ण करने को तैयार है, सिर्फ समय के अतिरिक्त। तो फिर आज के बुजुर्ग नए ज़माने को दोष कैसे दे सकते हैं। यदि कुछ संतान अपने बुजुर्गों के लिए लापरवाह है तो अपवाद तो हमेशा ही होते आए हैं। गैर जिम्मेदार, या दुश्चरित्र संतान तो हर युग में मिल जाती है।

यदि अंतर आया है तो वह है की आज की संतान आपकी प्रत्येक बात बिना सोचे समझे मानने को तैयार नहीं है। वह आपकी मिजाजपुर्सी आपके परंपरागत स्वभाव के अनुसार कर पाने में समर्थ नहीं है, वे आपका इलाज तो करा सकते हैं, परन्तु रोज आपके पैर या टांगें दबाने के लिए उपलब्ध नहीं हो सकते। वे आपको महत्त्व तो देते हैं, परन्तु अपने परिवार यानि पत्नी और बच्चों के प्रति भी जिम्मेदारी से मुहं नहीं मोड़ सकते, वे अपनी पत्नी को जीवन साथी, जीवन मित्र ही मानकर पूरा सम्मान देते हैं। उन्हें जानवरों की भांति व्यव्हार करने को समर्थन नहीं देते। वे मानवीय व्यव्हार को प्राथमिकता देते हैं।

उपरोक्त सभी विश्लेषण के निष्कर्ष निकलता है की आज जीवन संध्या प्राचीन समय के मुकाबले बेहतर है, सम्मान्निये है, खुशनुमा है, स्वस्थ्य्वान है। जबकि नयी पीढ़ी के लिए परिस्थितिया अधिक विषम, अधिक चुनौती पूर्ण हैं। अतः पूरे ज़माने को संवेदन हीन, अहसान फरामोश या असामाजिक बताने से भी अधिक आवश्यक है नयी पीढ़ी की विवशताओं, आवश्यकताओं को समझा जाये।

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बुजुर्गों के हितों के लिए स्वीकृत मुख्य सिद्धांत

संयक्त राष्ट्र संघ की रेगुलर सभा जो 16 दिसम्बर 1991 को हुई थी, बुजुर्गों के हितों के सम्बन्ध में कुछ मूलभूत सिद्धांतों को स्वीकार किया गया, जिनमे मुख्य सिद्धांत निम्न प्रकार हैं:

  1. वरिष्ठ नागरिकों को काम करने के अवसर एवं कार्यकारी समय सीमा निर्धारित की जानी चाहिए।
  2. बुजुर्गों को समाज से जोड़े रखना चाहिए, एवं समाज के लिए नियम बनाते समय उनको भी भागीदार बनाया जाना चाहिए।
  3. उन्हें स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं को दूर करने के लिए आवश्यक सहायता मिलनी चाहिए, ताकि उनका मानसिक एवं शारीरिक स्वास्थ्य बना रहे।
  4. बुजुर्गों को उनके विकास के अवसर उपलब्ध होते रहने चाहिए। ताकि वे समाज के शैक्षिक, सांस्कृतिक, अध्यात्मिक एवं मनोरंजन स्रोतों से सम्बद्ध बने रहें।
  5. ऐसे उपाय किये जाएँ जिससे वे सम्मान पूर्वक सुरक्षा सहित रह सकें और किसी प्रकार की मानसिक प्रताड़ना से बचे रहें


वरिष्ठ नागरिकों को प्राप्त सरकारी सुविधाएँ

विकसित देशों की भांति हमारे देश की सरकार इतनी सक्षम नहीं है की वह देश में मौजूद सभी वरिष्ठ नागरिकों की आर्थिक आवश्यकताओं को राजकीय राजस्व से पूरा कर सके। जिस कारण हमारे देश में वृद्धावस्था को अपेक्षाकृत कठिन बना दिया है। निरंतर बढ़ रही वृद्धों की संख्या एक भयंकर समस्या के रूप में आ रही है और देश के लिए भावी चुनौती बन रही है। अपने सीमित साधनों के साथ भी वरिष्ठ नागरिकों को अनेक प्रकार की सुविधाएँ सरकार दे रही है, जिनकी जानकारी का होना प्रत्येक बुजुर्ग के लिए आवश्यक है। ताकि वे उनका लाभ ले सकें। अतः बुजुर्गो की जानकारी के लिए सरकारी सुविधाओं का व्योरा प्रस्तुत है।

  1. साठ वर्ष से ऊपर प्रत्येक नागरिक को वरिष्ठ नागरिक का दर्जा प्राप्त है, और सभी सरकारी सुविधाओं का हक़दार है।
  2. सभी बैंकों में सावधि जमा राशी पर वरिष्ठ नागरिकों को सामान्य ब्याज दर से आधा प्रतिशत अधिक ब्याज दिया जाता है।
  3. सभी वरिष्ठ नागरिकों को रेलवे के किराये में चालीस प्रतिशत छूट दी जाती है।
  4. गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहे प्रत्येक वरिष्ठ नागरिक जो अस्सी वर्ष की आयु पार कर चुके हैं, प्रति माह पांच सौ रूपए प्रति माह पेंशन दी जाती है।
  5. आयकर विभाग के नियम में बदलाव कर अब वरिष्ठ नागरिकों की आयु सीमा घटा कर साठ वर्ष कर दी गयी है। अतः सभी वरिष्ठ नागरिक आयेकर छूट का लाभ ले सकते हैं। उन्हें आयेकर की धारा 88D, 88B, तथा 88DDB के अंतर्गत छूट का प्रावधान है। वर्तमान में वरिष्ठ नागरिक को अपनी दो लाख पचास हजार तक की आए पर कोई आए कर देय नहीं है।
  6. अक्षम वरिष्ठ नागरिकों की शारीरिक सहायता एवं आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ती की जिम्मेदारी उनकी संतान (बेटा हो या बेटी और पोता पोती) पर डाली गयी है। जिम्मेदारी न निभाने वाली संतान को दंड का प्रावधान रखा गया है। अतः माता पिता भरण पोषण बिल 2007 की धारा 4(1) के अंतर्गत कानूनी सहायता ले सकते हैं।
  7. भारत सरकार द्वारा जनवरी 13-1999 में बनायीं गयी राष्ट्रिय निति के अनुसार सभी एयर लायंस में वरिष्ठ नागरिकों के लिए 50% तक की छूट देने की व्यवस्था रखी गयी है।
  8. बैंकों ने वरिष्ठ नागरिकों की आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ती के लिए, जो वरिष्ठ नागरिक अपने भवन के मालिक हैं और भरण पोषण के लिए मासिक आए का विकल्प ढूंढ रहे हैं, उनके लिए पंद्रह वर्षीय रिवर्स मोर्टगेज योजना चलायी गयी है। इस योजना के अंतर्गत गिरवी रखे गए भवन में बुजुर्गों को रहने का अधिकार भी जीवन पर्यंत होगा और बैंक से निर्धारित राशी कर्ज के रूप में मासिक या वार्षिक किश्तों में प्राप्त होती रहेगी। यदि पंद्रह वर्षीय योजना के दौरान भवन मालिक की मौत हो जाती है तो बैंक भवन को नीलाम कर अपना बकाया यानि कुल कर्ज और उस पर ब्याज सहित वसूल कर लेगा, शेष राशी उसके उत्तराधिकारियों को दे देगा। यदि उत्तराधिकारी बैंक के सभी बकाये को स्वयं चुका देता है तो भवन को नीलाम न कर उत्तराधिकारी को सौंप दिया जायेगा ।
  9. भारत सरकार ने परिवार से विरक्त बुजुर्गों के प्रवास के लिए प्रत्येक शहर में कम से कम एक वृद्धाश्रम बनाने की स्वीकृति दे दी है।
  10. सरकारी बसों में कुछ सीटें वरिष्ठ नागरिकों के बैठने के लिए आरक्षित रखी जाती हैं, ताकि सीटों के अभाव में बुजुर्गों को खड़े होकर यात्रा करने को मजबूर न होना पड़े।
  11. सभी पब्लिक काउंटरों पर महिलाओं की भांति, वरिष्ठ नागरिकों के लिए अलग लाइन द्वारा काउंटर तक पहुँचने की व्यवस्था है।
  12. जीवन बीमा निगम ने जीवन धारा योजना, जीवन अक्षय योजना, सीनियर सिटिजन यूनिट योजना, मेडिकल इंश्योरंस योजना जैसी अनेकों योजनाये बुजुर्गों के हितों को ध्यान रखते हुए चलायी जा रही हैं।
  13. भूतपूर्व प्रधान मंत्री श्री अटल बिहारी बाजपेई ने बुजुर्गों के लिए अन्नपूर्ण योजना बनायीं थी। जिसके अंतर्गत प्रति माह दस किलो अनाज मुफ्त देने का प्रावधान किया गया है।
  14. जो बुजुर्ग समय रहते अपने उत्तराधिकारी अथवा रिश्तेदार को उपहार स्वरूप या फिर उनका हक़ मानते हुए अपनी संपत्ति उन्हें स्थानांतरित कर देते है। परन्तु बाद में अपने भरण पोषण एवं स्वास्थ्य सम्बन्धी आवश्यकताओं के लिए धन पाने में असफल रहते हैं तो वे त्रिबुनल में अपील कर अपनी जायदाद वापस ले सकते हैं, संपत्ति हस्तांतरण रद्द करवा सकते हैं।

वरिष्ठ नागरिक समाज कल्याण हेतु आवश्यक संभावित उपाय

हमारे देश की सरकार देश के सभी बुजुर्गों का भरण पोषण करने में (सरकारी कर्मचारियों को छोड़ कर ) असमर्थ होते हुए भी अन्य अनेक ऐसे उपाय कर सकती है जो बुजुर्गों के लिए लाभदायक सिद्ध हो सकते हैं। और सरकार के राजकोष पर अधिक बोझ भी नहीं पड़ेगा। जो नीचे दिए जा रहे हैं ;

चिकित्सा व्यवस्था

प्रत्येक शहर और देहात में, दस लाख की आबादी को एक क्षेत्र मानते हुए कम से कम एक चिकित्सालय की व्यवस्था हो जो उस क्षेत्र के सभी बुजुर्गों के स्वास्थ्य के लिए जिम्मेदार हो। उस क्षेत्र के बुजुर्गों को विशेष रूप से स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराएँ, वह भी मुफ्त या न्यूनतम शुल्क लेकर। प्रत्येक चिकित्सालय के पास चल चिकित्सालय हो जो बुजुर्गों के आकस्मिक काल पर मुफ्त में उपलब्ध हो सकें। चल चिकित्सालय द्वारा ही क्षेत्र के सभी बुजुर्गों का मासिक स्वास्थ्य परिक्षण हो, तथा आवश्यक पेथोलोजी जाँच करायी जाएँ। इन चिकित्सालयों की व्यवस्था स्वयं सेवी संस्थाओं द्वारा संचालित हो, और आर्थिक आवश्यकताएं सरकारी योगदान तथा जनता से प्राप्त धनराशी से पूरी करायी जाएँ।

शहर के प्रत्येक परामर्श चिकित्सक को सरकार निर्देशित करे की वे देश के वरिष्ठ नागरिकों से आधी फीस वसूल करें, यदि संभव हो तो मुफ्त सेवा दें, साथ ही शल्य चिकत्सा की व्यवस्था भी रियायती दरों पर करें। उनके इस योगदान के लिए सरकार उन्हें आयेकर में छूट प्रदान करे।

वृद्धाश्रम व्यवस्था

प्रत्येक शहर में कम से कम दो वृद्धाश्रमों की व्यवस्था हो जिसमें एक वृद्धाश्रम में बिलकुल मुफ्त में प्रवास की व्यवस्था हो। और एक अन्य में अतिरिक्त सुविधाएँ प्रदान कर न्यूनतम शुल्क लेकर प्रवास करने की व्यवस्था हो। जिनके प्रबंधन की जिम्मेदारी स्वयं सेवी संस्थाओं को दी जाय। और आर्थिक संरक्षण केंद्र सरकार तथा प्रदेश सरकार मिल कर करें। सभी वृद्धाश्रमों में मानवीय सुविधाएँ, और चिकित्सा सुविधाएँ, नियमित रूप से सुनिश्चित करायी जाएँ। ताकि जो बुजुर्ग किसी कारण वश अपने परिवार के साथ रह पाने में असमर्थ हों या जो बुजुर्ग दंपत्ति अशक्त होते हुए भी अकेले रहने को मजबूर हैं, के लिए रहने का सुरक्षित विकल्प उपलब्ध कराया जा सके। जहाँ पर वृद्ध लोग अपने शेष जीवन को मान सम्मान और शांती के साथ व्यतीत कर सकें।

रोजगार व्यवस्था

वृद्ध समाज में अनेक बुजुर्ग ऐसे है जो शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ्य हैं और कुछ न कुछ कार्य करने के इच्छुक रहते हैं, उन्हें कम परिश्रम वाले कार्य करने के अवसर उपलब्ध कराय जाएँ। जिससे उनका समय भी व्यतीत हो सके और कुछ धन की प्राप्ति भी हो सके, और उनको आत्मविश्वास से जीने का सौभाग्य प्राप्त हो। ऐसे समर्पित बुजुर्गों के लिए अलग से कोई मध्यम स्तर का या बड़े स्तर का उद्योग प्रत्येक शहर में स्थापित किया जाय। जिसमे अधिक से अधिक बुजुर्गों को कार्य करने के अवसर दिए जाएँ। इन उद्योगों में शिक्षण संस्थान, प्लांट नर्सरी उद्योग, रिटेल स्टोर, पत्र पत्रिका प्रकाशन, चिकित्सालय, वाचनालय इत्यादि संभावित उद्योग हो सकते हैं। ऐसे संस्थानों में बुजुर्गों को पारिश्रमिक उनके कार्य के घंटो के अनुसार देने का प्रावधान हो ताकि उन्हें समय की कोई बंदिश न हो। वे अपनी क्षमता के अनुसार समय देने को स्वतन्त्र हों।

पुस्तकालय-वाचनालय की व्यवस्था

शहर के प्रत्येक मोहल्ले में एक वाचनालय की व्यवस्था हो जो प्रत्येक बुजुर्ग के लिए पैदल चल कर पहुँच में हो। जिसका सञ्चालन स्थानीय जनता करे, और सरकार अपना सहयोग एवं आर्थिक अंशदान दे। ताकि बुजुर्ग अपना खाली समय ज्ञानार्जन करते हुए या मनोरंजन करते हुए बिता सकें। अन्य साथियों से मेल मुलाकात कर सकें।

आयकर में छूट

अनेक बुजुर्ग ऐसे भी हैं जिनकी संतान महत्वपूर्ण पदों पर आसीन है, उद्योगपति हैं, व्यापारी हैं और आयेकर विभाग को टैक्स के रूप में भारी भरकम रकम भी चुकाते हैं, तथा अपने बुजुर्गों को जीवन यापन के लिए अपने आए के स्रोतों से धन उपलब्ध कराते हैं, या उनके साथ उनके बुजुर्ग उन पर निर्भर रहते हुए उनके साथ रहते हैं, उन्हें आयेकर में इतनी छूट दी जाये जो बुजुर्ग के भरण पोषण के लिए उसके जीवन स्तर के अनुसार आवश्यक हो । ताकि बुजुर्ग अपने को आश्रित अनुभव कर अपमान का अहसास न करे। या संतान पर बोझ न बने।

सुरक्षा की व्यवस्था

वरिष्ठ नागरिकों की सुरक्षा के लिए शासन एवं प्रशासन द्वारा स्पेशल व्यवस्था की जानी चाहिए। थानाध्यक्षों को अपने क्षेत्र के बुजुर्गों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के स्पष्ट आदेश दिए जाने चाहिए। उनकी शिकायतों को प्राथमिकता के आधार पर सुना जाय और उनकी शिकायतों का समाधान भी प्राथमिकता के आधार पर होना चाहिए। उनके सम्मान का पूरा पूरा ध्यान रखा जाय, उन्हें हर प्रकार के संभावित शोषण या प्रताड़ना से बचाने के उपाए किये जाने चाहियें।

मियादी जमा पर अधिक ब्याज

वर्तमान समय में सभी बैंकों द्वारा वरिष्ठ नागरिकों को मियादी जमा (fix deposit) पर आधा प्रतिशत अतिरिक्त ब्याज दिया जाता है। जो बुजुर्ग के लिए कोई विशेष लाभ कारी सिद्ध नहीं होता। यदि इस अतिरिक्त ब्याज दर को दो प्रतिशत कर दिया जाय तो बुजुर्गों को निरंतर बढती महंगाई में अपने भरण पोषण में मदद मिल सकती है। अतिरिक्त ब्याज का बोझ बैंकों पर न डाल कर प्रदेश और केंद्र सरकारें मिल कर अपने राजकोष से पूरा करें।

संगठन की आवश्यकता

सभी बुजुर्गों को अपने मोहल्ले में छोटे छोटे ग्रुप बनाकर एकत्र होना चाहिए और शहरी स्तर पर एक बड़े संगठन के रूप में एक जुट होना चाहिए। इन समूहों के माध्यम से और संगठन के माध्यम से सभी बुजुर्गो के हितों को ध्यान में रखते हुए अपनी कार्य शैली निर्धारित करनी चाहिए। बुजुर्गों की समस्याओं पर विचार विमर्श होते रहने चाहिए। उनके कल्याण के लिए शासन और प्रशासन के समक्ष अपनी मांगे रखनी चाहिए । यदि आवश्यक हो तो संघर्ष के लिए सबको तैयार किया जाय। ये सभी कार्य किसी एक व्यक्ति द्वारा संभव नहीं हो सकते अतः संगठन का होना आवश्यक है। संगठित होकर बुजुर्ग चिंतामुक्त, तनाव मुक्त, एवं सुरक्षित जीवन व्यतीत कर सकते हैं।

बुजुर्गों की सुरक्षा हेतु कुछ सावधानियां

आज अनेक बुजुर्ग दंपत्ति मेट्रो शहरों, या बड़े शहरों में अपार्टमेंट्स या कोलोनी के बंगले में अकेले निवास करते हैं और अनेकों बार अवन्छानिये व्यक्तियों की गतिविधियों के शिकार होते हैं। इसी सन्दर्भ में यहाँ पर उनकी सुरक्षा हेतु कुछ सावधानियां सुझाई गयी हैं ताकि शरारती तत्व उनकी कमजोरी का लाभ उठाते हुए उन्हें जान मॉल का नुकसान न पहुंचा सकें और उनकी जीवन संध्या सुरक्षित बनी रहे।

  1. अपने घरेलु नौकर अथवा चौकीदार की पुलिसिया जाँच अवश्य कराएँ।
  2. मेन गेट के दरवाजे पर मेजिक आई लगवाएं ताकि गेट खोलने से पूर्व आगंतुक का चेहरा देख सकें।
  3. यथा संभव अपने पडोसी घर वालों से अलार्म द्वारा सम्बद्ध रहें। ताकि किसी मुसीबत में उन्हें अवगत करा सकें उनसे सहायता के लिए पुकार सकें।
  4. घर के सभी खिडकियों एवं रोशनदानों पर लोहे की मजबूत ग्रिल लगी होनी चाहिए, ताकि किसी व्यक्ति का अवैध प्रवेश संभव न हो सके।
  5. मुख्यद्वार पर डोर चेन लगी होनी चाहिए और मुख्य द्वार पर रौशनी का प्रबंध होना चाहिए।
  6. घर छोड़ कर जाते समय घर में कम से कम एक बल्ब अवश्य खुला छोड़ कर जाएँ।
  7. घर पर टी। वी। देखते समय सुनिश्चित करें की मुख्य दरवाजा बंद है,
  8. कोलोनी की स्ट्रीट लाइट जलना सुनिश्चित करें।
  9. घरेलू समान और मकान का बीमा अवश्य कराएँ।
  10. भिखारियों, कबाडियों, सेल्समेन, अथवा अजनबी व्यक्ति को घर के अन्दर न आने दें।
  11. मोहल्ले के अराजक तत्वों, गुंडों की शिकायत पुलिस में करें।
  12. अधिक दिनों के लिए घर छोड़ने से पूर्व अख़बार एवं दूध वाले को मना करके जाएँ। क्योंकि अख़बारों या पत्रिकाओं का ढेर घर के खाली होने का प्रमाण बनता है, जो चोरों को आमंत्रित करता है।
  13. यदि पडोसी पुकारे, चिल्लाये, तो तुरंत उसकी मदद के लिए जाएँ।
  14. टेलीफ़ोन, बिजली, गैस, दुकान के बिल का वाहक की पहचान करने के पश्चात् ही घर के अन्दर आने की अनुमति दें।
  15. किसी दुर्घटना की जानकारी फ़ोन संख्या 100 पर दें।
  16. अपने क्षेत्र के जनप्रतिनिधि यानि पार्षद, थाना या पुलिस चौकी, का नाम पता टेलीफ़ोन नंबर नोट कर रखें, ताकि वक्त जरूरत पर मिल सकें और काम आ सकें।