कुछ और भत्ते / राजकिशोर
औरत जब खुश होती है तो कहती है, धत्त। नेता जब अपने को चुनाव की देहरी पर पाता है तो वह कहता है, भत्त। कहते हैं, भत्त से ही भत्ता शब्द बना है। चुनाव में हार से बचने के लिए नेता भत्ता बाँटने लगता है। कुछ दलों ने भत्ते का अर्थ भात लगाया है। वे चुनाव के पहले दो रुपया या एक रुपया किलो चावल देने का आश्वासन देने लगते हैं। चावल भात का ही असिद्ध रूप है। सिद्ध हो जाने पर यानी पक जाने पर वह भात बन जाता है। कई बार चावल पूरी तरह पक नहीं पाता। तब वह अपच पैदा करता है और नेता चुनाव हार जाता है। इसके ताजा और मार्मिक संस्मरण सुनने हों तो जयललिता से मिलना चाहिए। वे आजकल काफी फुरसत में हैं।
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव को इस तरह की फुरसत बिलकुल पसंद नहीं है। उनके मुख्य सभासद अमर सिंह फुरसत के राजा हैं। जो-जो काम फुरसत में किए जाते हैं, उन्हें ही करने में अमर सिंह अपने को व्यस्त रखते हैं। लेकिन मुलायम सिंह को यह विकल्प उपलब्ध नहीं है। वे जानते हैं कि उनके इर्द-गिर्द सिंहों और सिंहनियों की भीड़ तभी तक कायम रहेगी जब तक वे उत्तर प्रदेश विधानसभा के नेता बने रहेंगे। सो उन्होंने अगले चुनाव की तैयारी अभी से शुरू कर दी है।
इस दिशा में उनकी पहली कोशिश यह है कि उनके राज्य में दो-चार सभासदों को नहीं, उन सभी को भत्ता मिलना चाहिए जो बीए, एमए होने के बाद भी फुरसत के शिकार हैं। यह फुरसत अमर सिंह वाली फुरसत नहीं है, जिसमें सत फुर्र से उड़ जाता है। यह वह फुरसत है, जिसमें सत के अभाव में आदमी की आत्मा फुर्र-फुर्र करती रहती है, पर उड़ नहीं पाती। इनमें से सात लाख तीन सौ बावन आत्माओं के परों पर एक-एक हजार रुपए का चेक रख कर मानवीय नेताजी ने देश में बेकारी भत्ता आंदोलन की शुरुआत कर दी। लोहिया का नारा था, काम दो, नहीं तो बेकारी भत्ता दो। मुलायम सिंह का नारा है, काम मत दो, सिर्फ बेकारी भत्ता दो। बेरोजगारी की समस्या का कितना सुंदर समाधान है! मुलायम सिंह के रास्ते पर अन्य सरकारें भी चलने लगें, तो देश में बेरोजगारी रह कर भी नहीं रह जाएगी।
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री से निवेदन है कि उन्हें बेरोजगारों की तरह समाज के दूसरे वर्गों का भी ध्यान रखना चाहिए। आखिर वोट देने वे भी जाते हैं। या भविष्य में उनसे भी काम पड़ेगा। इसलिए मुलायम सिंह को कुछ और वर्गों के लिए भी भत्ते की घोषणा करनी चाहिए। तभी बेकारी भत्ता कोई आकस्मिक या अवसरवादी फैसला नहीं, बल्कि एक समग्र भत्ता नीति का आवश्यक अंग जान पड़ेगा। ये भत्ते और क्या हो सकते हैं? कुछ की कल्पना यहाँ की जाती है।
गाँव में रहने का भत्ता : यह भत्ता उत्तर प्रदेश के लिए बहुत ही माकूल है। राज्य के उद्योगीकरण की दिशा में मुलायम-अमर के भगीरथ प्रयत्नों के बावजूद उत्तर प्रदेश अब भी कृषिप्रधान राज्य है। ज्यादातर लोग गाँवों में ही रहते हैं, जहाँ एकमात्र अभाव बिजली का ही नहीं है। होशियार लोग शहरों की ओर पलायन कर जाते हैं। जो गाँव में बचे रह जाते हैं, उन्हें जिंदा रहने के लिए तरह-तरह की होशियारी करनी पड़ती है। इनके जीवन को सुकर बनाने के लिए उन्हें गाँव में रहने का भत्ता जरूर मिलना चाहिए।
अशिक्षित होने का भत्ता : शिक्षित होना सभी का जन्मसिद्ध अधिकार है। इसके बावजूद अन्य जरूरी कामों में व्यस्त रहने के कारण राज्य सरकार सभी के लिए शिक्षा का प्रबन्ध नहीं कर पाई। इसका उचित दंड यही है कि वह उन सभी को भत्ता दे, जो नहीं चाहते हुए भी अशिक्षित हैं। जिन्होंने अपनी मर्जी से अशिक्षित होने का विकल्प चुना है, उनकी बात अलग है। सरकार चाहे तो उन पर अशिक्षा-कर लगा सकती है।
चुनाव में हारने का भत्ता : लोकतंत्र का सुख सभी को उपलब्ध होना चाहिए। उन्हें तो यह सुख मिलता ही है जो चुनाव जीत जाते हैं, उन्हें भी मिलना चाहिए जो चुनाव हार जाते हैं। यह भत्ता इसलिए भी जरूरी है कि जो आज चुनाव जीत रहा है, वह कल चुनाव हार भी सकता है। ऐसे हारे हुए व्यक्तित्व भी चुनाव मैदान में बने रहें, तभी हम यह दावा कर सकते हैं कि हमारा लोकतंत्र जीवंत है।
खास बात यह है कि यह भत्ता अभी से शुरू हो गया, तो हो सकता है अगले चुनाव के बाद इसका सबसे ज्यादा लाभ समाजवादी पार्टी के उम्मीदवारों को ही मिले।
दल-बदल भत्ता : पिछले कई चुनावों से उत्तर प्रदेश में सरकार बनाने में दल-बदलुओं की निर्णायक भूमिका रही है। इनके बगैर कोई भी मुख्यमंत्री सरकार नहीं बना पाया है या बना पाया है, तो चला नहीं पाया है। लेकिन कई बार दल-बदल करने वालों को विधानसभा की सदस्यता से हाथ धोना पड़ता है। इसलिए लोकतंत्र के हित में यह आवश्यक है कि हर दल-बदलू को तब तक एक सम्माननीय भत्ता मिले, जब तक वह मंत्री नहीं बन जाता। इसमें यह शर्त भी रखी जा सकती है कि पाँच वर्ष के एक टर्म में किसी भी विधायक को यह भत्ता एक बार के दल-बदल के लिए ही मिलेगा।
अपुरस्कृत भत्ता : उत्तर प्रदेश की सरकार हर साल लेखकों को इतने अधिक पुरस्कार देती है कि किसी के छूट जाने की आशंका नहीं रह जाती। फिर भी लेखकों की तादाद इतनी ज्यादा है कि कुछ न कुछ रह ही जाते हैं। ऐसे सभी लेखकों को तब तक अपुरस्कृत भत्ता दिया जाना चाहिए जब तक उन्हें उत्तर प्रदेश सरकार से कोई पुरस्कार न मिल जाए। एक और भत्ते की सिफारिश करने का मन करता है...न लिखने का भत्ता, पर डर इस बात का है कि इस भत्ते के लोभ में कहीं ऐसा न हो कि हिन्दी का सारा लेखन ही ठप हो जाए।