कुछ न कहो / एक्वेरियम / ममता व्यास
Gadya Kosh से
कई सालों तक हमने एक-दूसरे को अपनी बातों में खूब उलझाया। बेमतलब की बातों पर हम घंटों बहस कर सकते थे। तुम हमेशा मुझे शब्द विशेषज्ञ कहते थे लेकिन तुम कभी जान नहीं पाए कि मेरे भीतर शब्द तो तुमसे मिलकर ही जन्म लेते थे।
न जाने कहाँ से कितने शब्द मुझ तक आते थे उन दिनों, हंसी और मुस्कान के बादलों पर सवार अनगिनत बूंदें मेरे भीतर बनती थीं और मैं बस बिन रुके बरस पड़ती थी। तुमने मुझे हर बार शब्दवती किया, इसमें मेरा कोई कमाल नहीं था। कमाल होता तो आज भी मेरे पास शब्दों की फसल लहलहा रही होती।
देखो, देखो कैसे बंजर हुए हैं मन के खेत। एक भी अंकुर नहीं फूटे, न कहीं कोई कोंपल, सब सूना-सा है। ऐसा लगता है सारी फसल काट कर कोई किसान चलता बना खेतों में आग लगाकर, अब खेत जलते हैं खुद ही खुद।