कुछ बिखरी सिमटी यादें(गद्यगीत) डॉ-शैल रस्तोगी / सुधा गुप्ता
(दिनांक 20-4-08 की सन्ध्या। मेरठ)
आज से ठीक एक वर्ष पूर्व। आज के ही दिन। 20 अप्रैल 2007. सायं 7-30 बजे. सुविख्यात साहित्यकार डॉ.शैल रस्तोगी परिवार को। इष्ट मित्रों को। साहित्य-संसार को रोता-विलखता छोड़। सबसे नाता तोड़। निर्मोही होकर चली गई थीं-सर्वप्रथम उन्हें नमन और श्रद्धा-सुमन अर्पित करती हूँ।
जितना अनिवार्य जीवन। उतना ही अनिवार्य मरण-जीवन कथा के दो सिरे-आरम्भ और अन्त, यह शाश्वत सत्य उन्होंने बड़े जीवट के साथ स्वीकारा और अपने सम्पूर्ण सर्जन में विविध रूपों में रेखांकित भी किया। डॉ.शैल जी ने बहुत-सी विधाओं में लेखनी चलाई यद्यपि उनकी ख्याति एक सरस गीतकार के रूप में थी। शुरुआती दिनों में नाट्यविधा कि ओर आकृष्ट हुईं-नाटक और एकांकी लिखे। चर्चित एवं पुरष्कृत भी हुए. लघु कथा। दोहे। समीक्षा। शोध सभी कुछ लिख डाला किन्तु विशेष रुचि गीत और नव गीत के प्रति थी। बाद में डॉ.शैल जी कुछ विलम्ब से हाइकु की ओर आकृष्ट हुईं-उनका प्रथम हाइकु संग्रह 'प्रतिबिम्बित तुम' 1998 में प्रकाशित हुआ। सन् 2004 में उनका गद्य-गीत संग्रह 'सुनो। ओ नन्हे दिये'। प्रकाशित हुआ जिसकी एक प्रति बड़े स्नेह से उन्होंने मुझे भेंट की। आज उनका दूसरा गद्य-गीत संग्रह 'कुछ बिखरी सिमटी यादें' लोकार्पण हेतु प्रस्तुत है।
इस अवसर पर मेरे हृदय में भी सुख-दुःख के मिले जुले भावों का आलोड़न-विलोड़न होना स्वाभाविक है-सुख इस बात का उनके सुयोग्य पुत्र डॉ.वकुल रस्तोगी एवं पुत्रवधू डॉ.बबीता रस्तोगी ने उनके लोकान्तरण के एक वर्ष के भीतर डॉ.शैलजी की पाँच (अप्रकाशित) कृतियाँ प्रकाशित करा दीं। दुःख इस बात का कि यह सब यदि वे अपनी आँखों से देख पातीं तो उन्हें कितनी प्रसन्नता और परितृप्ति मिलती।
अब आज के मुख्य विषय गद्य गीत विधा के विषय में कुछ शब्द। मैं बहुत छोटी आयु में इस मन-मोहक विधा कि ओर आकृष्ट हुई थी। विश्व कवि टैगोर के पूजा-गीत संग्रह 'गीतांजलि' ने एक युग में सम्पूर्ण विश्व को सम्मोहित कर लिया था। मैं भी 'गीतांजलि' की भक्त थी। उन गीतों का पारायण और कभी मुस्कुराना कभी अश्रु-विमोचन मुझे बहुत भाता था। बाद में हिन्दी में गद्य-गीत विधा से मेरा परिचय सर्वश्री राय कृष्ण दास। वियोगी हरि और आचार्य चतुरसेन शास्त्री की कृतियों के माध्यम से हुआ। सुश्री दिनेश नंदिनी डालमिया (जो उन दिनों 'चोरड्या' थीं) । के गद्य गीतों ने भी मुझे पर्याप्त प्रभावित किया। इन सब के पढ़ने का प्रभाव यह हुआ कि मैंने स्वयं भी इस विधा में लेखनी चलाई और खूब सारे गद्य-गीत लिख डाले। इस शृंखला में श्री माखन लाल चतुर्वेदी। डॉ.राम कुमार वर्मा और डॉ.प्रभाकर माचवे भी जुड़े और उनके गद्य-गीत भी पढ़े और सराहे। कुल मिलाकर गद्य-गीत (पूजा-गीत) के विषय में उस समय के बौद्धिक स्तर के अनुसार मेरी जो धारणाएँ बनीं वे संक्षेप में यूँ थीं-
(1) आकार गद्य का। प्रकार पद्य का-मुख्य विषय अध्यात्म। यदि इन्हें गीतों में बाँध दिया जाये तो 'रहस्यवादी काव्य' कहलायेगा। परिणामतः 'गद्य-गीत' संज्ञा मिली।
(2) भावुकता एवं कल्पना कि बहुलता। पद्य की कोमलता एवं स्निग्धता होने से गद्य में होकर भी कविता कि अनुभूति कराते हैं।
(3) लाक्षणिकता और ध्वन्यात्मकता प्रधान होने के कारण कहीं-कहीं अस्पष्टता एवं दुरूहता भी आ जाती है।
(4) अज्ञात प्रियतम की आकुल-आतुर प्रतीक्षा। मिलन-दर्शन की उत्कट लालसा। विरह की असह्य वेदना।
(5) गीतकार। प्रकृति के संकेतों एवं स्पन्दनों का अभिप्राय समझ लेना चाहता है।
सो इस संकेत-सारिणी के अनुसार 'तरंगिणी' । 'साधना' । 'अन्तस्तल' । 'प्रेम योग'। 'भावना' । 'मौक्तिक माल'। 'दो फूल'। 'दोपहरिया के फूल'। 'साहित्य देवता' जैसे संग्रहों को पढ़-गुनकर मैंने भी एक गद्य-गीत संग्रह तैयार कर लिया और उसका शीर्षक रखा- 'नीराजना' । सोचती थी। थोड़ा-सा अर्थ-संग्रह कर लूँ। तो इसे प्रकाशित करवाऊँगी ; किन्तु वक्त के अन्धड़ ने मेरे साथ क्रूर मज़ाक किया। सन् 1971 में गाजियाबाद की सेवाओं को छोड़कर मेरठ आने की आपा-धापी में बहुत कुछ टूटा-बिखरा-खोया। उसी बीच वह 'नीरांजना' की पाण्डुलिपि गुम गई. सो नहीं मिली। दुर्घटना को भूलने के सिवाय उपाय ही क्या है? तीन दशक बाद सन् 2002 में मेरा दूसरा गद्यगीत संग्रह 'सारथी तुम' नाम से प्रकाशित हो पाया! डॉ.शैल जी का प्रथम गद्य-गीत संग्रह 'सुनो ओ नन्हे दिये' सन् 2004 में प्रकाशित हुआ। प्रति मिलते ही उन्हें बधाई दी। इस संग्रह में 68 गद्य-गीत हैं। शीर्षक मुझे अत्यंत सुन्दर और अर्थवान् लगा। जो पुस्तक के भीतर के कथ्य को बहुत कुछ झलका देता है। शैलजी के साथ हुई एक लम्बी बैठक में उक्त कृति पर विस्तृत वार्ता हुई. इस संग्रह के शीर्षक-गीत 'सुनो ओ. नन्हे दिये' के अतिरिक्त। 'वह तुम्हारे द्वार पर खड़ा है'। 'भोर की नदी में'। 'सोये देवताओं को जगाओ'। 'प्रार्थना बनी बैठी हूँ' जैसे गीत इस संग्रह के बेहद खूबसूरत गीत हैं जो गद्य गीत की कसौटी पर कथ्य और शिल्प दोनों कसौटी पर खरे उतरते हैं। इस संग्रह का सार स्वयं शैल जी के शब्दों में-'दर्शन खण्डित है। चिन्तन विकलांग है। धर्म अपंग है'—-आज जिस गद्य-गीत संग्रह का विमोचन हुआ है। निःसन्देह वह सुन्दर बन पड़ा है। 'कुछ बिखरी सिमटी यादें' एक वृहत्तर संसार के द्वार खोलता है। चेतना का उदात्त से क्रमशः उदात्ततर होता तल ऐसे वातावरण का निर्माण करता है जहाँ बाहरी दुनिया के क्रिया-कलाप का कोलाहल नहीं-मन की भीतरी दुनिया का मौन है। तटस्थ द्रष्टा की। जीवन दृश्यों को देखने-समझने और व्यक्त करने की शक्ति है पर साथ ही एक गहरी थकान। निराशा। वेदना-जीवन की भूमिका में आए विभिन्न पात्रें को उपेक्षाजन्य तिलमिला देने वाली 'लाचार' कसक पाठक को रुला डालती हैः सन्दर्भः संग्रह का अंतिम गीत-'पता नहीं क्यों?' (पृष्ठ 62) समापन स्वरूप 'मंजिल की तलाश'। मुझे 'पढ़ना नहीं आता'। 'हाँ। तुम्हीं तो थे'। 'नाटक को तो चलना ही है'। 'नदी मेरी सखि'। 'दिवले अपने-अपने'। 'वक्त की कंदील' गद्य-गीत सराहनीय हैं। 'जिजीविषा' और 'पराजय' की मिली-जुली यह कृति शैल जी के साहित्य में आलोक-स्तम्भ है। उन्हें हज़ार बार प्रणाम।
प्रकाशक डॉ.सतीशराज पुष्करणा जो उनके अनुज जैसे प्रिय साहित्यकार बंधु थे; उन्हें भी बधाई देती हूँ कि उन्होंने बड़ी लग्न व परिश्रम से शैल जी की अप्रकाशित कृतियों को प्रकाशित किया है।