कुछ बुजुर्गों के अपने विचार / सत्य शील अग्रवाल

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श्री, आर। पी। गोयल

पचहत्तर वर्षीय विद्युत् विभाग से सेवा निवृत अधिकारी , शास्त्री नगर मेरठ के निवासी हैं। उनसे जब जीवन संध्या पर अपने विचार रखने का आग्रह किया गया, तो वे बोले यदि परिस्थितियां अनुमति देती हैं, तो पुरानी पीढ़ी एवं नयी पीढ़ी को स्वतन्त्र रूप से प्रथक रहना शेयस्कर है। ताकि दोनों पीढ़ी एक दूसरे के कार्यकलापों में हस्तक्षेप न कर पायें। प्रथक रहने से औपचारिकतायें निभाने की आवश्यकता नहीं रहती। क्योंकि दोनों पीढ़ियों की जीवन चर्या , सोच विचार, खान पान में काफी अंतर आ चुका है। यदि प्रथक प्रथक स्वतन्त्र रूप से रहते हैं तो आपसी टकराव की सम्भावना बहुत कम हो जाती है। आपस में प्रेमभाव, सम्मान बना रहता है। आवश्यकता पड़ने पर एक दूसरे का साथ देने को तत्पर रहते हैं। वृद्धाश्रम में जाकर रहने से भी अधिक उत्तम है प्रथक रहा जाय।

प्रत्येक पीढ़ी अपने ढंग से जीवन जीना चाहती है, उसकी रुचियाँ अलग अलग होती हैं। एक पीढ़ी सादा भोजन चाहती है तो दूसरी को पिज्जा बर्गर, कोल्ड ड्रिंक, फ्रूट जूस चाहिए.पुरानी पीढ़ी की पसंद भजन कीर्तन, पुराना संगीत होता है तो नयी पीढ़ी को पोप म्यूजिक, डिस्को डांस, थियेटर, क्लब आदि पसंद है। प्रत्येक को अपना जीवन अपनी रूचि के अनुसार जीने का हक़ है।

श्री रामचंद्र गुलाटी

85 वर्षीय वृद्ध, शास्त्री नगर, मेरठ निवासी हैं। स्वयं एक संयुक्त परिवार के साथ रहते हैं। उनसे जब आज की नयी पीढ़ी से सामंजस्य के बारे में पूछा गया तो उनका उत्तर इस प्रकार था;

यदि हम युवा पीढ़ी को अपना काम उनकी मर्जी से करने दें, तो संयुक्त परिवार में बुजुर्ग का भी सम्मान बना रहता है। हमें तो यह सोचना चाहिए की हमारे कार्यकारी दिवस तो समाप्त हो चुके हैं, अब संतान का समय है। अतः यदि हमें दोनों वक्त का भोजन मान सम्मान के साथ मिलता रहे उसी में संतुष्ट रहना ही हमारे हित में है। हमारा बुढ़ापा हंसी ख़ुशी कट जाता है। ज्यादा चटोरे पन या तड़क भड़क के जीवन की कल्पना करना संतान से बहुत अधिक उम्मीदें बना कर रखना, अपने शांति पूर्ण जीवन को कलंकित करना है। संतान के लिए आपका अस्तित्व कांटा बन जायेगा.प्रत्येक संतान में गुण दोष दोनों होते हैं, जो की मानवीय स्वभाव है। अतः अपनी संतान के दोष ढूंढ कर सबके सामने बखान करते रहना अपना बड़प्पन खोना है, उनकी नजरों में गिरना है। सिर्फ उनकी अच्छाइयों का ध्यान करते हुए स्वयं को संतुष्ट रखना चाहिए। हाँ, यदि आप संतान के किसी कार्य में मददगार साबित हो सकते हैं तो पूरे परिवार के लिए सुखद होगा। यही है संयुक्त परिवार में मान सम्मान के साथ रहने का उत्तम साधन.

श्री आर के शर्मा जी

पैंसठ वर्षीय बैंक से सेवा निवृत अधिकारी हैं। आप सेक्टर सात, शास्त्री नगर, मेरठ के निवासी हैं। मैंने जब आप से नयी पीढ़ी के बारे में उनके विचार जानने की इच्छा व्यक्त की तो उनके विचार चौकाने वाले थे।

आप कहते हैं ”मेरे अनुसार यदि वृद्धावस्था में औलाद का आशीर्वाद (सहयोग) बना रहे तो बुढ़ापा मजे से कट सकता है। अतः यह समय उनकी सुख सुविधाओं का यथा शक्ति ख्याल रखने का है, तभी तुम्हारा भी ध्यान रखा जा सकता है ” आगे अपने जीवन के बारे में बताते हैं, ”अपने परिवार में मैं तो स्टेपनी की भांति प्रयोग किया जाता हूँ। जिस जगह अर्थात जिस बेटे को मेरी आवश्यकता होती है , मैं ख़ुशी ख़ुशी उसकी आवश्यकताओं को पूर्ण करने का प्रयास करता हूँ ”.

उन्होंने आगे बताया ; “वृद्धावस्था में ढीले होते अस्थि पंजर और नित नयी बीमारी से घबराना नहीं चाहिए। बल्कि उन्हें बुढ़ापे के आभूषण मानकर डटकर सामना करना चाहिए। यदि भजन पूजा में ध्यान केन्द्रित किया जाय तो काफी शांती मिलती है। नित्य प्रति व्यायाम, योगाभ्यास, आदि जारी रखा जाय तो बीमारियों से परेशानियाँ कम हो जाती हैं। हाथ पैर ठीक ठाक चलते रहते हैं। समाज सेवा, परिवार सेवा जीवन संध्या की शांती का उत्तम विकल्प हो सकता है।

राजबाला गोस्वामी

सूर्य नगर मेरठ निवासी सत्तर वर्षीय वृद्धा हैं राजबाला गोस्वामी। आपने गृहणी बनकर जीवन बिताया है। आपके दो बेटे हैं परन्तु आपकी बातों से लगता है आप अपनी संतान से संतुष्ट नहीं हैं। आप बड़े कर्कश शब्दों में कहती हैं ;--

“बड़े शर्म की बात है जिन्हें पाल पोस कर बड़ा करते हैं, रोजगार के लायक बनाते हैं, जब बड़े हो जाते हैं तो अपने पालन हार को ही अपनी आँखों का कांटा समझने लगते हैं। अनेक बुजुर्गों को वृद्धाश्रम में जाकर रहने को मजबूर कर देते हैं। अर्थात अपने घर से ही बेघर कर दिया जाता है। कैसा कलियुगी जमाना है और कैसी अहसान फरामोश संतान है जो उन्हें वृद्धाश्रम भेजने से नहीं हिचकिचाती। प्रत्येक शहर में वृद्धाश्रम खोले जा रहे हैं ताकि बूढों को बेघर किया जा सके। क्या यही है हमारा विकास। क्या यही है हमारी आधुनिक सभ्यता ?”

सोहनवीर सिंह सोलंकी

पच्चासी वर्षीय वृद्ध बुलंदशहर जिले के एक गाँव के निवासी हैं। उनके यहाँ खेती बाड़ी का काम होता आया है, जो आज भी जारी है। तीन पुत्रों में एक पुत्र सरकारी अधिकारी बन गया है शेष दो खेती बाड़ी करते हैं। सोहनवीर जी उनके साथ ही रहते हैं। आपका जीवन साथी अब दुनिया में नहीं है। आपसे जब मैंने वृद्धावस्था को लेकर उनके विचार जानने चाहे, तो उन्होंने कुछ इस प्रकार अपने विचार व्यक्त किये :--- “यदि आपको वृद्धावस्था में अपना मान सम्मान प्यार बनाये रखना है तो संतान के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। आपकी टोका टाकी ही आपको उनसे अलग करती है। आपकी ही अनेक संतानों में हो सकता है कोई बिलकुल भी सम्मान देने को तैयार न हो, परन्तु कोई एक आपको पूर्ण सम्मान देता है। किसी के पास आपके साथ बिताने के लिए समय नहीं होता तो किसी के पास साधनों की कमी भी हो सकती है। जैसी भी संतान है हमें उसके साथ निर्वाह करने की आदत बना लेनी चाहिए। सिर्फ अपनी आवश्यकताओं की पूर्ती से ही संतुष्ट रहना चाहिए, अपनी इच्छाओं पर पूर्णतया नियंत्रण कर लेना चाहिए। यही आपको शांती और सम्माननीय जीवन संध्या जीने का विकल्प है। तानाशाही एवं अहम् भाव आपको हानि ही पहुंचा सकते हैं। और शेष जीवन को कलुषित कर सकते हैं।

राजवीर सिंह चौधरी

आप एच ब्लोक शास्त्री नगर मेरठ निवासी, स्टेट बैंक से सेवा निवृत अधिकारी हैं। आप अपने सेवा निवृत जीवन को लेकर खासे उत्साहित हैं। आपके कथनानुसार “मैं उन भाग्यशाली व्यक्तियों में से हूँ जिन्हें सरकार बिना कुछ काम किये घर बैठे भरण पोषण के लिए पेंशन देती है। अब मैं पूर्ण रूप से स्वतन्त्र हूँ , कही भी जाऊं, कुछ भी करूँ या न करूँ, अपनी मर्जी से अपने शौक पूरे करने को आजाद हूँ। सही मायने में सेवा निवृति मेरी जीवन संध्या नहीं है ; बल्कि मेरे जीवन की दूसरी पारी है जो जिम्मेदारियों और तनाव से पूरी तरह से मुक्त है। मैं अपने दोनों बेटों के परिवार के साथ मजे से रहता हूँ। परिवार का कोई काम जो मुझे पसंद होता है, कर देता हूँ, ताकि मेरा समय भी पास होता है और बेटों को भी सहायता मिल जाती है। पोते पोतियों से प्यार करने का, उनके साथ समय बिताने का सुनहरी अवसर प्राप्त होता है। मेरे दुःख दर्द में मेरा परिवार मेरे साथ खड़ा होता है। और क्या चाहिए मुझे। अब मैं पूरे परिवार पर रौब गांठता रहूँ, सबके कार्य में दखलंदाजी करूँ तो फिर क्लेश की सम्भावना तो बन ही जाएगी। मेरे दोनों पुत्र एवं पुत्र वधुएँ मेरा मान करते हैं, यही मेरे जीवन की उपलब्धि है। कौन कहता है सेवा निवृति का मतलब वृद्ध हो जाना है और मौत की प्रतीक्षा करते हुए शेष जीवन बिताना है। यह समय तो जीवन का सर्वश्रेष्ठ समय है। दिल जवान होना चाहिए, फिर बुढ़ापा कभी परेशान नहीं करता ”

पैसंठ वर्षीय एक व्यक्ति

एक बुजुर्ग अपना नाम न छापने की शर्त पर अपने विचार बाँटने को तैयार हुए,और कुछ जीवन की सच्चाइयों से रु-ब-रु कराया, निम्न प्रकार हैं. वृद्धावस्था के कुछ कटु सत्य:

  1. बुढ़ापे में अक्सर कमाई के स्रोत ख़त्म हो जाते हैं या बहुत कम हो जाते है।
  2. बुढ़ापे की तैयारी अधेड़ावस्था से प्रारंभ कर देनी चाहिए।
  3. वृद्धावस्था में शारीरिक बल समाप्त प्रायः होने लगता है । और छोटे छोटे कार्यों के लिए आश्रय ढूंढना पड़ता है।
  4. महिलाओं की सुन्दरता क्षीण होने लगती है अतः उन्हें अपने को असुंदर देख पाने की हिम्मत जुटानी होगी।
  5. बुढ़ापे में हमें अपनी कार्यशैली को भूल कर अन्य परिजनों की कार्यशैली पर निर्भर होना पड़ता है अतः बदली हुई कार्यशैली के अनुसार अपनी सहन शक्ति विकसित कर लेनी चाहिए।