कुछ भी तो नहीं / योगेश गुप्त
लता चारपाई से उठी और फिर बैठ गई.
वह बहुत देर से उस कमरे में अकेली है। घरवाले सब शहर गये है। चारों तरफ कमरे की पीली-पीली दीवारों को वह देख रही है। दीवारों की पीली पपड़ी काफी ऊंची-नीची है। वह एक चारपाई पर बैठी है। चारपाई के काफी बान टूटकर नीचे धरती को छू रहे हैं। उसी चारपाई में वह धंसी बैठी है।
शाम पिताजी कह रहे थे, "तू आज सुस्त है, लता!"
लता तो अक्सर सुस्त ही रहती है। कुछ सोचती ही रहती है। उसकी आंखें तो अधिकांश चीजों को आश्चर्य से ही देखती है। उसकी एडि़यां तो कभी भी उसकी धोती के पल्ले से नहीं ढकतीं।
उसकी माँ है। छोटे भाई-बहन हैं। जिन्हें वह कभी पहचान लेती हैं, कभी नहीं पहचानती। बाहर दालान में बैठी होती है। पम्मी आता, "जीजी!"
लता पास खड़ी छड़ी उठाती है और दो-तीन पम्मी को जमा देती है, "चल हट, भाग यहाँ से..."
पम्मी रोता हुआ चला जाता है।
लता के कमरे में एक खिड़की है, जिसमें सात सींखचे हैं। उस खिड़की में से धूप अंदर आ रही है। शाम होने लगी है। कमरे से बाहर निकलकर वह बाहर जाकर बैठना चाहती है। भाई-बहन, मां-बाप-सब बाज़ार गये हैं। अकेले वह बाहर क्या बैठे? पड़ोसी अशोक बार-बार नल पर आएगा और हाथ धोता रहेगा। उसकी तरफ घूरेगा। आगे कुछ बात करनी चाहिए. बात खुले। मन खुले। यह क्या कि बस घूर रहे हैं। उंह, पागल!
लता मुसकरा दी। खाट पर से फिर उठी और खिड़की के पास आकर खड़ी हो गई. खिड़की के दोनों किवाड़ दोनो हथेलियांें से धकियाती हुई खड़ी रही। बाहर पहले मैदान है। फिर सड़क है। इधर-उधर क्वार्टर ही क्वार्टर हैं। सड़क पर लोग आ-जा रहे हैं। सब क्वार्टर चहल-पहल से भरे हैं। औरतें-मर्द-बच्चे!
बच्चों से लता को नफरत है। वह अपने छोटे भाई-बहनों को ज़रा भी प्यार नहीं कर पाती। कभी गोद में लेकर खिला लेती है, छाती से चिपटा लेती है, पर प्यार ज़रा भी नहीं करती! माँ कहती, "यह तो शक्ल नहीं देख सकती इन बच्चों की!"
लता हंस देती है।
पिता कहते, "बच्ची है, अभी क्या जाने?"
लता शरमा जाती है, गर्दन झुका लेती है।
फिर माँ साबित करती है कि वह बच्ची नहीं। पिता साबित करते हैं कि हमारे लिए तो बच्ची ही है। माता-पिता लड़ने लगते हैं तो लता बाहर से उठकर इसी खिड़की के सहारे आकर खड़ी हो जाती है। बाहर तब भी आदमी आते-जाते होते हैं। मैदान में बच्चे खेलते होते हैं और खिड़की से या तो लता की धुंधली छाया बाहर या सूरज की टेढ़ी किरणें अंदर गिरती होती हैं। सींखचे निर्द्वन्द्व खड़े होते हैं।
सींखचे अब भी खड़े हैं। उन पर कालिख की एक पर्त जमी है। उन्हें छूने से हाथ मैले होते हैं। वे खासे मजबूत हैं। फिर भी धूप अंदर आती है। लता की छाया बाहर जाती है। दूर सड़क पर, सड़क के पार, दूर, बहुत दूर, बहुत-बहुत दूर!
शाम हो गई है। छाया और लम्बी हो गई है। खिड़की से कूदकर वह और दूर जा रही है। सड़क पार हो गई... मैदान पार हो गया। पीछे क्वार्टर हैं-कुछ अच्छे, कुछ बुरे! सब खाली पड़े हैं। कहीं कोई नहीं रहता। रात का समय है। सुनसान क्वार्टरों के बीच से होकर लता नंगे पांव किसी तरफ चली जा रही हैं। कोई उसे दीखता नहीं। नजरें भटकती चली जाती हैं। लता चली जाती है। अँधेरा बढ़ता चला जाता है। अब सड़क भी नहीं दिखती। पानी भी नहीं दीखता। यह कैसी दुनिया हैं, अँधेरा है और लता है। लता का गोरा-चिट्टा रंग काला पड़ गया है। उसके अंदर भी अँधेरा है...
लता को पसीना आ रहा है। वह अब भी खिड़की पर खड़ी है। उसने अपनी दोनों हथेलियों से खिड़की के दोनों किवाड़ों और दोनों कुहनियों से उभरे स्तनों को दबा रखा है। उसका दिल जोरों से धड़क रहा है। वह उस कमरे में मेहमान के रूप में आते अंधेरे से घबरा रही है।
वह सोचती है कि चलो बाहर पड़ोसिन के पास चलकर बैठें। खिड़की वह छोड़ देती है और मुड़कर दरवाजे की तरफ जाने लगती है। दरवाजा बंद है। अंदर से चटखनी लगी है। उसने खुद लगाई हैं। लता सहम जाती है। दरवाजा बंद है। अंदर अँधेरा बढ़ता चला जा रहा है और दरवाजा बंद है। दीवारों पर चिपटी पीली पपड़ी फुद्-फुद् कर रही है। गर्मी बहुत है। लता पसीने में सराबोर है। अँधेरा बढ़ रहा और दरवाजा बंद है। वह जल्दी से चलकर चारचाई पर बैठ जाती है। सोचती है-कोई भी बाहर से आ सकता है। मैं अकेली हंू। पर दरवाजा तो अंदर से बंद है? नहीं, बाहर से बंद है। ओह! मुझे कैद कर लिया गया है। खिड़की के सींखचे देखो ना, कितने मजबूत हैं। ये पपड़ीदार बूढ़ी दीवारें कोई भेदी थोड़ी ही जा सकती हैं। दरवाजा बाहर से बंद है और कमरे में अँधेरा बढ़ता चला जा रहा है। बत्ती भी ज़रूर किसी न फ्यूज कर दी होगी। अब मुझे कौन कैद से छुड़ायेगा। कोई भी तो नहीं, जो छुड़ाये! मैं... मैं...
लता अकेली कैद में है और कोई नहीं है जो उसे छुडाये। कोई भी तो नहीं है। कोई था भी तो नहीं। कभी कोई नहीं हुआ। वह हमेशा से अकेली रही है। लता को अकेलापन प्रिय लगता रहा है। पर आज...आज उसे लग रहा है कि अकेले नहीं रहना चाहिए. उसमें कोई सुख नहीं है। उससे बड़ा भय लगता है। वह काफी देर माथे को हथेलियों में थामे बैठी रहती है। खुद को वापस बुलाती है। चारपाई पर से उठती है। दरवाजे तक जाती हैं। चटखनी खोलती है और धीमे-धीमे सारा किवाड़ खोल देेेेेेेेेेती है। पड़ोसी अशोक नल पर हाथ धो रहा है। लम्बा-चौड़ा, खूबसूरत अशोक। लता दरवाजे से बाहर निकल आती है और टक लगाकर अशोक की तरफ देखने लगती है। अशोक हाथ धोकर, मुड़कर लता की तरफ देखता है। लता की दृष्टि बहुत कातर हैं। अशोक देखता है। फिर तेजी से चलकर अपने घर में घुस जाता है। लता दरवाजे के बाहर खड़ी है। दायीं तरफ सड़क है। लोग आ-जा रहे हैं। नहीं, आ कोई नहीं रहा, सिर्फ़ जा रहे हैं। सड़क के किनारे खड़े खम्भों पर बत्तियाँ जल रही है जिनकी रोशनियां पीली हैं, बहुत पीली।
लता अंदर चली आती है। चटखनी बंद कर लेती है और चारपाई पर लेट जाती है।
वह खुद से कहती है, " कोई था ज़रूर जो मुझे इस कैद से बचा सकता था। '
सब आते हैं। दरवाजा खटखटाते हैं। लता उठकर दरवाजा खोलती है। माँ पूछती है, "क्या है लता, अँधेरा क्यों कर रखा है?"
लता भटकी-सी कहती है, "कुछ भी नहीं मां, कुछ भी तो नहीं।"