कुछ मैं कुछ वे / मंगलमूर्ति

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पिछले पचास के दशक में ‘नई धारा’ में साहित्यिक संस्मरणों की कई मूल्यवान श्रृंखलाएं प्रकाशित हुई थीं। इनमें ‘नई धारा’ आदि-संपादक श्रीरामवृक्ष बेनीपुरी की कई संस्मरण-श्रृंखलाएं भी थी। ‘मुझे याद है’, ‘डायरी के पन्ने’, ‘पत्रा कार जीवन के पैंतीस वर्ष’ और ‘राजनीति के तूफान में’-इन शीर्षकों के अंतर्गत बेनीपुरीजी ने अपने अतीत और वर्त्तमान के अविस्मरणीय संस्मरण हिंदी संसार के सामने प्रस्तुत किए थे। इन संस्मरणों में पिछली सदी के पहले दशक से लेकर पचास के दशक तक के -लगभग सदी-पूर्वाद्ध के - एक अत्यंत घटना-सघन, निरंतर गतिशील युग के चित्रा अंकित हुए थे, जब हिंदी भाषा अपनी शैली संवार रही थी, हिंदी साहित्य अपना सृजन-भंडार मूल्यवान कृतियों से भर रहा था, और जब चारों ओर राजनीति तथा समाज में क्रांति एवं परिवर्त्तन की ज्वाला धधक रही थी। पूरे देश में शहरों से लेकर दूर-दूर गांवों तक इन्कलाब जिंदाबा के नारे गूंज रहे थे, हजारों नौजवान अपनी कुर्बानियां दे रहे थे, लाखों लोग जेलों में अमानवीय कष्ट झेल रहे थे। और फिर ‘अंगरेजों भारत छोड़ों’ की ललकार, सांप्रदायिक दंगों का प्रचंड तांडव, अंगरेजी साम्राज्यवाद काजल्दी-जल्दी अपना बोरिया-बिस्तर समेटना और तब आजादी का वह स्वर्ण विहान। यह देश के इतिहास का एक ऐसा दौर था जिस तरह के एक और ऐसे ही दौर-फ्रांस की क्रांति-के बारे में एक अंगरेज कवि ने ही कहा था कि ऐसे स्वर्ण-विहान में जीवित होना ही स्वर्ग-सुख भोगने जैसा अनुभव था।

आज जब आधी सदी और बीत गई और देश सोलहो सिंगार के बाद भी अपनी कुरूपता नहीं छिपा पा रहा है। जब राजनीति की तुलना वेश्याओं से करना वेश्याओं को भी अपमानित करन जैसा लगने लगा है; जब राष्ट्रीय संस्कृति को धकियाकर पश्चिमी उपभोक्तावादी उर्द्धनग्न अपसंस्कृति ने अपना धिनौना जलवा फैला लिया है, बाजारवाद का नंगा नाच गली-गली, आंगन-आंगन, होने लगा है, भ्रष्टाचार अपनी सारी सीमाएं तोड़ चुका है, और नैतिकता का तो शब्दकोश से ही लोप हो चुका है-ऐसे समय में एक बार फिर एक अंगरेज उपनयासकार की ही पंक्ति याद आती है, जब फ्रांस की क्रांति के संदर्भ में ही वह कहता है- वह समय सबसे अच्छा भी था, और सबसे बुरा समय भी वही था। और अब आज के ऐसे गंदले अटपटे समय में उस स्वर्णिम-काल की याद- जब परा देश इतिहास की अग्निपरीक्षा में खरे सोने की तरह तप रहा था - उस युग की स्मृतियों को एक बार दुहराना, एक सिहरन-भरा अनुभव है।

हालांकि आज की एक बड़ी पहचान यह भी है कि पुरानी जीन्स के अलावा पुरानी हर चीज ख़ारिज की जाए। समय की रफ्तार इतनी तेज़ रहे कि अतीत का वजूद ही मिट जाए। ऐसे समय में एक किताब पहली बार छपकर आई है, एक ऐसे लेखक की, जो अपने समय में मध्यान्ह के सूर्य की तरह भासमान था। ‘हिमालय’ और ‘नई धारा’ की तरह की मासिक पत्रिकाओं के प्रकाशन से बिहार हिंदी के माथ की बिंदी की तरह चमक रहा था। और हिन्दी की साहित्यिक पत्राकारिता को सिंगारने का काम अपने दोनों हाथों-सृजन और संपादन-से कर रहे थे श्रीरामवृक्ष बेनीपुरी। मेरी जानकारी मं वे संभवतः अकेले ऐसे व्यक्ति थे जो अपने हस्ताक्षर में अपने नाम के साथ ‘श्री’ जोड़कर लिखते थे, और सचमुच ऐसा लगता है कि उस नाम के आगे श्री और पीछे बेनीपरी का होना सर्वथा सार्थक था। श्री तो उसके साहित्य-स्वरूप का सौंदर्य-चिन्ह ही था और बेनीपुरी उस के समाजवादी यथार्थ-दर्शन का पर्याय। श्री का यह सौंदय-प्रतीक किसी नाम के साथ उस तरह सटीक और कहीं जुड़ा नहीं दिखा।

इस लेख के लिए यह शीर्षक चुनने का मेरा अभिप्राय इस सद्यः- प्रकाशित प्रस्तक की समीक्षा करने का नहीं है। जो पुस्तक आधी सदी बीतने पर भी समय की कसौटी पर खरा सोना की तरह सामने बनी रहे, अब उसकी फिर समीक्षा क्याद्व वह तो एक क्लासिक का दर्ज़ा हासिल कर चुकी है। बस इतना कहा जा सकता है कि एक श्रृंखला के रूप में लिखित और प्रकाशित इन संस्मरणों को जब पहली बार अलग पुस्तकाकार किया गया है तब इनको पढ़ने पर आज के पाठक को जो तृप्ति मिलती है, वह उस जमाने के पाठकों को भी सुलभ नहीं हुई होगी। उनमें निरंतर एक अतृप्ति का भाव बना रहता होगा। यों एक दूसरे प्रकार की अतृप्ति का भाव आज के पाठक के मन में भी जरूर उभर सकता है, क्योंकि इन संस्मरणों की पूरी पृष्ठभूमि को और विस्तार से जानने-समझने की अपरिहार्य असमर्थता उसकी जिज्ञासा को अतृप्त छोड़ ही देगी। अतृप्ति का यही अनिवार्य भाव रचनाकार और पाठक दोनों के लिए प्यास बुझाने और जगाने का काम एक साथ करता है। बेनीपुरीजी के लेखन की यह एक सबसे बड़ी विशेषता है पाठक में अतृप्ति के इस भाव को एक साथ जागृत और शमित करना।

इस शीर्षक में ‘वे’ कभी बेनीपुरीजी के समकालीनों अथवा समानधर्माओं को अभिहित करता होगा। लेकिन आज वह बहुवचन मेरे लिए एकवचन में बेनीपुरीजी स्वयं हैं। इस अर्थ में ‘कुछ मैं कुछ वे’ से मेरा अभिप्राय स्वंय और उनके बीच के संबंध से है, जो तबसे बना जब मैं सात-आठ साल की उम्र में अपने पिता के साथ पहली बार 1946 में पटना आया, जब मेरे पिता राजेंद्र कॉलेज, छपरा, से एक साल का विशेष अवकाश लेकर हाल में जेल से रिहा होकर आए श्रीबेनीपुरी के साथ ‘हिमालय’ का संपादन करने पटना आए थे। ‘हिमालय’ का प्रकाशन अज्ञेयजी के द्वैमासिक ‘प्रतीक’ से भी लगभग साल-भर पहले शुरू हुआ। और संभवतः साहित्य का वैसा कोई मासिक पत्रा हिंदी ही नहीं किसी अन्य भारतीय भाषा में भी तब नहीं निकला था। एक मासिक पुस्तक के रूप में बेनीपुरीजी द्वारा जेल में ही कल्पित श्रेष्ठ समकालीन साहित्य का वैसा अनूठा कोई संकलन हिंदी में ता बिलकुल पहली बार प्रकाशित हुआ था।

‘हिमालय’ हिंदी मासिक साहित्य में अनोखा प्रयोग था। सौ पृष्ठ, बढ़िया कागज, सुंदर छपाई, पक्की जिल्द, एक-एक अंक एक स्वतंत्रा पुस्तक-सा लगता था। फिर भीतर जो सामग्री हम प्रस्तुत करते थे, वह भी अनूठी होती थी। हिंदी संसार ने उसे दिल खोलकर अपनाया। पहला अंक हमने तीन हजार छपवाया था; तुरत ही उसका दूसरा संस्करण करना पड़ा। हिंदी के मासिक साहित्य के लिए यह एक अभूतपूर्व घटना थी। पृ. 130

‘हिमालय’ में रचनाकार का नाम बड़े टाइप में और उसके नीचे रचना-शीर्षक छोटे टाइप में छपता था। सभी अंक उस युग के सर्वाधिक महत्त्वपर्ण लेखकों की रचनाओं से समृद्ध रहे। पहले ही अंक से डॉ. राजेंद्रप्रसाद की हाल में जेल में लिखी गई ‘आत्मकथा’ अपने मूल रूप में छपने लगी। बाद में शिवपूजन सहाय के संपादन के पश्चात 1947 में वह पुस्तकाकार प्रकाशित हुई। ‘हिमालय’ के कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण लेखकों के नाम थे- जयप्रकाश नारायण, जिनकी दो छोटी कहानियां बस यहीं प्रकाशित रहीं, आचार्य नरेंद्रवेव, हरिवंश राय ‘बच्चन’, डॉ. रामकुमार वर्मा, डॉ. देवराज, ब्रज रत्न दास, और राय कृष्णदास, ‘प्रसाद’ पर जिनके संस्मरणें की श्रृंखला ‘हिमालय’ के पृष्ठों में ही प्रकाशित अपूर्ण रह गई। और जेल में हाल में लिखीं बेनीपुरी की सभी श्रेष्ठ रचनाएं प्रत्येक अंक में -जिनमें दो बाद में ‘माटी की मूरतें’ और ‘अंबपाली’ के रूप में प्रकाशित हुई। साथ ही समकालीन अन्य सभी साहित्यिकों -दिनकर, ‘प्रभात’, जानकी वल्लभ शास्त्राी, नलिनविलोचन शर्मा, हँसकुमार तिवारी, जगदीशचंद्र माथुर, प्रभृति - की नई-नई रचनाएं।

‘हिमालय’ पटना में गोविंद मित्रा रोड-स्थित ‘पुस्तक-भंडार’ से निकलता था। पास ही मछुआटोली में एक बड़ा-सा मकान किये पर लिया गया था जिसमें शिवजी और बेनीपुरीजी साथ रहने लगे थे। शिवजी का परिवार उनके गांव पर रहने लगा था, लेकिन मातृहीन होने के कारण मैं बराबर छाया की तरह पिता के साथ ही रहता था। बेनीपुरीजी का मझला लड़का जित्तिन- जितेंद्र - भी वहां उनके साथ ही रहने लगा था। बेनीपुरीजी ने खुद साथ ले जाकर हमदोनों का नाम पटना के सेंट जोसेफ स्कूल में लिखवा दिया और हमदोनों वहीं पढ़ने लगे। लेकिन जल्दी ही इस व्यवस्था का अंत हो गया। संपादकीय नीतियों और रचनाकारों को दिए जाने वाले पुरस्कारों को लेकर पहले बेनीपुरीजी और उसके कुछ ही बाद शिवजी ‘हिमालय’ से अलग हो गए। पत्रिका भी उसके बाद साल-भर किसी तरह टुकदुम चलकर बंद हो गई। इस दुर्भाग्यपूर्ण प्रसंग से जुड़े कुछ महत्त्वपूर्ण पत्रा ‘शिवपूजन सहाय साहित्य समग्र’ के दसवें खंड में प्रकाशित हुए है।

शिवजी छपरा लौट गए और मैं भी अब वहीं स्कूल में दाखिल हुआ। जित्तिन सैनिक एकेडमी, देहरादून में पढ़ने चले गए। बेनीपुरीजी भी कुद दिनों के लिए फिर समाजवादी पार्टी की राजनीति में मसरूफ हो गए। पुस्तक के पहले भाग में- ‘राजनीति के तूफान में’ शीर्षक के अंतर्गत उन्होंने अपने 1920 से 1940 तक के राजनीतिक जीवन के संसमरण ही लिखे हैं। लेकिन आजादी के बाद जब कांग्रेस और समाजवादी पार्टी का सीधा टकराव शुरू हुआ तब वे पटना से निकलने वाले अखबार ‘जनता’ का संपादन करने लगे थे। उन दिनों उनका निवास महेंदू्र मुहल्ले में, लोअर रोउ पर- जो बाद में अब्दुल बारी पथ कहलाने लगा - शीतल भवन नामक एक मकान में था। अब उनका परिवार वहीं उनके साथ रहता था। बड़े लड़के देवेंद्र की शादी हो चुकी थी, तब तक शायद दो पोते भी आ चुके थे। लेकिन रानी-उन की पत्नी, जिन्हें हम सबलोग ‘दीदी’ कहते थे-ज्यादातर बेनीपुर में ही रहती थीं। वहां उन दिनों बेनीपुरीजी अपने खेतों के बीच अपना एक बड़ा-सा हवेलीनुमा मकान बनवा रहे थे। खेतीबारी के कारण ही दीदी वहीं ज्यादा रहना पसंद करती थीं, और पटना बेनीपुर के बीच की डोर बंधी रहती थी।

इसी बीच एक और डोर बंध गई। बेनीपुरीजी के साथ ही ‘जनता’ में सहायक संपादक के रूप में तब 22-23 वर्ष के एक युवक श्रीवीरेंद्र नारायण काम कर रहे थे। वे भागलपुर के निवासी थे और समाजवादी पार्टी से भी जुड़े थे। 1942 वाले आंदोलन में वे तीन साल भागलपुर जेल में भी सजा काट चुके थे, जहां रेणुजी और ‘ढोढ़ाई चरित मानस’ के लेखक सतीनाथ भादुड़ी भी उनके साथ बंद थे। वीरेंद्रजी ने जेल में रहते हुए ही अपनी बीएस.सी. की परीक्षा पास की थी। बेनीपुरीजी और जयप्रकाशजी, गंगा बाबू, अवधेश्वर बाबू, श्यामनंदन सिंह ‘बाबा’-समाजवादी पार्टी की पूरी जमात के वे चहेते थे। उन दिनों वे बहुत मुफलिसी में पटना के लंगरटोली मुहल्ले में बिहारी साव लेन के एक सस्ते होटल में रहा करते थे। उन्हीं दिनों शिवजी के बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना के मंत्रिपद पर आने की चर्चा चल रही थी। स्वयं बेनीपुरीजी, दिनकरजी आदि चाहते थे कि शिवजी छपरा से पटना के साहित्यिक केंर्द में आ जाएं। इसकी एक लंबी डोर इस तरह बंधी कि बेनीपुरीजी और महारथीजी के प्रयास से वीरेंद्रजी का विवाह शिवजी की बड़ी बेटी-मेरी बड़ी बहन सरोजिनी से हो गया। बिहारी साव लेन में ही उसके दक्खिनी सिरे पर एक खपरैल मकान में वीरेंद्रजी सपरिवार रहने लगे, जिसमें अब मैं भी शामिल था। इसके कुछ ही दिन बाद मेरे पिता बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् में आ गए। मेरा नाम भी पास के ही पटना कॉलेजिएट स्कूल में लिखवा दिया गया। यह मेरा विशेश सौभाग्य था कि दसवीं के मेरे क्लास-टीचर थे हिंदी के प्रसिद्ध कवि श्रीरामगोपाल शर्मा ‘रुद्र’ जिनका स्नेह मुझे तबसे ही मिलने लगा- मेरे पिता के यश के कारण ही।

बेनीपुरीजी को तो ‘हिमालय’ के दिनों से ही मैं ‘चाचाजी’ कहने लगा था। और अब सरोजिनी उनकी अपनी बेटी और वीरेंद्रजी उनके अपने जामाता बन गयै। मेरे पिता को तो बेनीपुरीजी कलकत्ता-प्रवास के दिनों से ही ‘भैया’ कहा कर ते थे, और अब दोनों के बीच का वह सुदीर्ध साहित्यिक बंधुत्व एक विशेष सौहार्दपूण पारिवारिक भ्रातृत्व में बदल गया। मेरी और जित्तिन की दोस्ती उस पारिवारिक संबंध की डोर में एक नई गांठ बंधी। जित्तिन अब जब भी अपने सैनिक स्कूल से छट्टियों में आते, अक्सर हमलोग बेनीपुर में अपनी छुट्टियां बिताते। लेकिन उन हरियाले दिनों की चर्चा कभी और होगी। अब मैं बेनीपुरीजी को एक साहित्यिकार से अधिक एक वात्सल्यपूर्ण अभिभावक के रूप में देख ने लगा था।

मेरी यह सारी याददेहानी उस विस्तृत जीवंत साहित्यिक परिवेश की एक झलक-भर है जिसकी पूरी पृष्ठभूमि बेनीपुरीजी की इस सद्यः-प्रकाशित पुस्तक में पढ़ने को मिलेगी। अभी मेरा अभिप्राय केवल इतना रेखांकित करना है कि आज फिर से बेनीपुरीजी के लेखन को पढ़ने की जरूरत है। चाहे गांव हो या शहर, समाज हो या राजनीति, संस्कृति हो या साहित्य, धर्म हो या अध्यात्म, किसी भी जीवन-क्षेत्रा में आज जो अटपटे, उटपटांग परिवर्त्तन दिखाई पड़ रहे हैं, उनकों समझने और उनसे निबटने के लिए कल के इतिहास को दुहराना जरूरी है, और इसी अर्थ में आज बेनीपुरी का साहित्य बहुत प्रासंगिक है।

इधर बेनीपुरी-साहित्य फिर से प्रकाशित हो रहा है, ग्रंथावली के अलावा अलग-अलग पुस्तकों के रूप में भी। उनकी किताबों में से दो-तीन इधर हाल में फिर से प्रकाशित हुई हैंः ‘जंजीरें और दीवारें’, ‘मुझे याद है’, ‘डायरी के पन्ने। ‘माटी की मूरतें’, ‘अंबपाली’ आदि के भी नये संस्करण निकले हैं। मेरे द्वारा संपादित-संयोजित उनकी दो और किताबें-‘बेनीपुरी चित्रों में’, जिसमें मेरे खींचे हुए बहुत सारे चित्रा प्रकाशित होंगे, और हजारीबाग जेल में उनके द्वारा किए गए अंगरेजी कविताओं के हिंदी अनुवाद का एक संग्रह, शामिल हैं। इन सभी किताबों को आज नये सिरे से पढ़ने की जरूरत है- खास तौर से पहली तीन संस्मरणात्मक किताबें। ‘कुछ मैं कुछ वे’ में 1922 वाले गया कांग्रेस में परिवर्त्तनवादी और अपरिवर्त्तनवादी दलों की ‘कुश्तमकुश्ती’ की चर्चा है। समझौते के मुताबिक स्वराजपार्टी के कौंसिलों के चुनाव में हिस्सा लेने के निर्णय को मान लिया गया था। बेनीपुरी लिखते हैं-

इसके चलते बिहार में हमने बड़े बुरे दृश्य देखे। कौंसिल और बोडों में किन्हें भेजा जाए, इसको लेकर कांग्रेस में फूट फैली। जातीयता ने सिर उठाया। बिहार में कायस्थ-भूमिहार विवाद का सर्वनाशी तांडव होने लगा। भूमिहारां के नेता सर गणेशदत्त सिंह थे और उनके प्रमुख प्रचारक स्वामी सहजानंद सरस्वती। स्वामीजी ने असहयोग के पहले भूमिहारों को संगठित करने में बड़ा काम किया था। असहयोग में वह शामिल होकर जेल भी गए थे। वह राष्ट्रीयता को छोड़कर फिर जातीयता पर जाएंगे- ऐसा किसने सोचा था। फिर सर गणेशदत्त ऐसे प्रतिक्रियावादी के नेतृत्व में का करेंगे, इसकी तो कल्पना भी नहीं हो सकती थी। लेकिन बाबू गणेशदत्त सिंह या स्वामीजी के किए कुछ नहीं होता, अगर कांग्रेस के अंदर के नेताओं में इस विवाद ने घर नहीं कर लिया होता। कांग्रेस का नेतृत्व कायस्थों और भूमिहारों की होड़ा-होड़ी में उलझा था। बाकी जाति के लोग दोनों दलों में विभक्त थे। गांव-गांव, थाने-थाने, जिले-जिले में जातीयता के आधार पर पार्टियां बन रही थी और आपस में जूतम-पैजार चल रही थी।

यह एक धरातल की तस्वीर है, यथार्थ के निकट नहीं, बिलकुल सोलह आने यथार्थ ही। अब इसी फ्रेम में आप आज की तस्वीर को फिट कीजिए तब आप समझ जाएंगे, आज जो हो रहा है वह नया नहीं है, बल्कि जो पहले होता रहा है वह अब बद से बदतर हा चुका है। गांधी ने अंगरेजों से कहा था- तुमलोगा चले जाओ, हम अपना झगड़ा खुद सलटा लेंगे। लेकिन ये झगड़े कांग्रेस में ही कितने पुराने हैं, यह बेनीपुरी से सुनिए। वे यह भी कहते हैं-प्रांतीय राजनीति की जातिगत दलबंदी के लिए सदाकत आश्रम बदनाम था। बात 1922 के आसपास की है और यह वही सदाकत आश्रम है- सचाई का आश्रम -जिसे कभी मजहरुल हम साहब ने कायम किया था, आजादी की फौज तैयार करने के लिए, और जो शुरू से कांग्रेस का एक अहम मरकज रहा। लेकिन यह किस्सा भी तभी का है जब आजादी की लड़ाई का आगाज था और कांग्रेस को देश के दिल की धड़कन माना जा रहा था। लेकिन अंगरेज तो जनता की पेट में समाकर यह सब देख रहे थे।

बेनीपुरी ने हजारीबाग जेल में सबसे ज्याद सजा काटी। वे वहां ‘बी’ और कभी-कभी ‘सी’ क्लास के भी कैदी रहे। जेल-जीवन के उनके कुछ संस्मरण इस किताब में भी मिलते हैं, लेकिन ‘जंजीरें और दीवारें’ में तो आप उस जमाने के कांग्रेसी-गैर-कांग्रेसी ‘स्वतंत्राता-सेनानियों’ की पूरी नौटंकी ही देख सकते हैं। उस किताब में कुछ तस्वीरें तो ऐसी हैं जिन्हें देखकर आप अपनी आंखें मोड़ लेंगे। लेकिन वैसी तस्वीरें दिखाने की नहीं, खुद देखने की हैं। बेनीपुरी ने उस किताब में लिखा है कि उस दौरान वे बिहार के दर्जन-भर जेलों में रहे-कहीं कुछ दिन, कहीं कुछ महीने, और कहीं कुद साल।

हजारीबाग जेल में वे जयप्रकाशजी के साथ भी रहे, और जयप्रकाश के जेल-पलायन में उन्होंने हाथ भी बंटाया था इसका पूरा विवरण ‘जंजीरें और दीवारें’ में भी है और ‘जयप्रकाश’- उनकी लिखी अन्यतम जीवनी में भी। मैंने 1974 के आंदोलन के समय ‘जयप्रकाश’ का एक विशेष संक्षिप्त संस्करण भी प्रकाशित कराया था जिस में उस जेल-साहचर्य की विस्तार से चर्चा हुई है। ‘जयप्रकाश’ की यह मूल जीवनी भी इधर दुबारा प्रकाशित हो चुकी है। ‘जंजीरें और दीवारें’ में 1931 में वायसराय विलिंग्डन के आने के बाद जेलो में दी जाने वाली यंत्राणाओं के रोंगटे सिहराने वाले चित्रा हैं। हालांकि तिकटी पर बांधकर कोड़े लगाने की सजा तो पहले से ही चालू थी। नेहरूजी ने भी अपनी आत्मकथा में चंद्रशेखर आजाद की-जो तब केवल 16-17 साल के थे- कोडों से पिटने का चर्चा की है।

विलिंग्डन ने आते ही जैसे मुश्कें कस दी थीं। बेनीपुरी फिर हजारीबाग जेल में आ गये थे। जेल सुपरिंटेंडेंट बकर नाम का एक अंगरेज था-कहीं आदमी इतना कुरूप होता है? -बेनीपुरी को आश्चर्य हुआ।

लंगड़ा; झुककर, गुरिल्ले की तरह उचक-उचक कर चलता। चेहरे पर मानो किसी दूसरे बदमाश बच्चे ने लाल रोशनाई की दवात फेंककर फोड़ डाली हो। छोटी-छोटी गोलमाल आंखें, जिनकी नीली पुतलियों से शैतान झांकता। बाएं हाथ पर गोदने से सांप की तसवीर अनवा रखी थी उसने, यह तसवीर क्या उसकी मानसिक वृत्ति को सूचित नहीं करती? और शायद गोदने की यही तस्वीर नये वायसराय के पथरीले रुख की भी तस्वीर पेश कर रही थी।

वही एक दूसरे अंगरेज जेल आइ.जी. मैकरे का भी एक खून खौलाने वाला चित्रा अंकित है। यह ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के समय का वाकया है। जेल भी भागलपुर का, जहां वीरेंद्र नारायण भी उन दिनों सजायाफूता थे। मैकरे अपने जांच-दौरे पर वहां आया था। वहां उसकी मुठभेड़ रामजी प्रसाद वर्मा से हो गई। वर्मा हिंदू विश्व विद्यालय में इंजीनियरिंग के अत्यंत मेधावी छात्रा थे। बाद में वे पटना इंजीनियरिंग कालेज के प्रिंस्पल भी हुए थे। आंदोलन में उन दिनों ज्यादा-तर ऐसे ही तीक्ष्ण प्रतिभा वाले युवक कूद पड़ते थे। किसी बात पर कहासुनी के बाद मैकरे ने वर्मा को दस बेंत मारने की सजा दे दी।

झट रामजी को तिकटी पर चढ़ा दिया गया। तिकटी लकड़ी का वह ढांचा होता है, जिस पर कैदी को औंधे मुंह बांध कर उसकी चूतड़ पर बेंत लगाए जाते हैं। सभी राजबंदियों को कतार में बिठला दिया गया यह दृश्य देखने को। मैकरे भी सदलबल वहां खड़ा हुआ। नंगे चूतड़ पर बेंत बरसने लगे। बरसों तेल में पोसे हुए वे बेंत। तड़ाक-तड़ाक जहां पड़ते, खाल उधड़ आती। किंतु वाह रे रामजी! हर बेंत पर महात्मा गांधी की जय, भारतमाता की जय आदि नारे लगाता ही रहा। जब दस बेंत पूरे हुए, मैकरे उसके निकट गया। रामजी ने कहा-बस इतना ही! वह गुस्से में लाल हो उठा। हुक्म दिया- दस बेंत और! अब तो चूतड़ से मांस कटने लगा, किंतु वे ही नारे और अंत में फिर वही- बस इतना ही! मैकरे अब होश में नहीं था, दस बेंत और। फिर बेंत तड़ाक्-तड़ाक्। तिकटी के नीचे मांस के टुकड़े कट कर गिर रहे हैं, रक्त की बूंदें टपक रही हैं। रामजी का समूचा शरीर थ्रथर कांप रहा है, किंतु मुंह से क्षीण सवर में नारे जारी हैं। कहते हैं, इस दृश्य से मैकरे इतना पभावित हुआ कि दो बेंत और रह गए थे, तभी बेंत लगवाना बंद करा दिया और उसके निकट जाकर करुण स्वर में बोला- मैंने ईसा की कहानी सुनी थी, आज प्रत्यक्ष देख लिया। यही नहीं, वहां से लौटकर वह अपने पद से इस्तीफा देकर इंग्लैंड वापस चला गया।

रामजी वर्मा दूर से मेरे संबंधी लगते थे। रिश्ते में वे दिवाकर प्रसाद विद्यार्थी के साले थे। मुझे याद है एक बार में उनके साथ, जब राजेंद्र बाबू राष्ट्रपति पद से मुक्त होकर सदाकत आश्राम आ गये थे, हमलोग उनसे मिलने गये थे। राजेंद्र बाबू उनको बाबू उनको बहुत मानते थे, और पिताजी के कारण बाबू ने मेरे प्रति भी बहुत स्नेह प्रदर्शित किया था। बनीपुरी जी की किताबों में त्याग और तपस्या की ऐसी मिसालोें की बार-बार चर्चा है।

अभी चर्चित युवा कवि और पत्राकार विमल कुमार का एक लेख छपा है जिसमें उन्होंने लिखा है कि हमारे सभी बड़ें-बड़ें राजनेता, अभिनेता, बुद्धिजीवी, साहित्यकार, और समाज के अग्रनायक केवल अंगरेजी की ही किताबें पढ़ते हैं, जैसे एक सर्वेक्षण से ज्ञात हुआ है-हिंदी की नई से नई, अच्छी से अच्छी किताबों की ओर उनकी नजर ही नहीं जाती। मैं उसी बात की ताइद करते हुए यह नम्र निवेदन करना चाहता हूं कि जिस आजादी को हमने इतनी कुर्बानियों के बाद हासिल किया, आज उसमें अपने जीवन और प्राणों की आहुति चढ़ाने वालों को क्या हम इतनी कृतध्नता से भूल जाना चाहिएद्व और जिस हिंदी की लड़ाई गांधी, राजेंद्र प्रसाद, पुरुषोत्तमदास टंडन, सेठ गोविंददास और न जाने कितनों से आजादी की लड़ाई के समानांत लड़ी उस हिंदी को, और उसके लेखकों को, वे ही नहीं पढ़ने को तैयार हैं जो हिंदी और हिंदी प्रदेश की ही सेंकी हुई रोटी खा रहे हैं। बेनीपुरी ने हिंदी की रोटी खुद पकाकर खाई, और आज भी उस रोटी का सोंधापन भूला नहीं जा सकता। ‘कुछ मैं कुछ वे’ की चर्चा के बहाने बेनीपुरी और उनके जमाने की याद ताजा करने की यह एक छोटी-सी कोशिश है, मगर यादें अभी बहुत सारी बाकी हैं, और वे फिर कभी जरूर उभरेंगी।