कुछ साहित्यिक बम-गोले / पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र'

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(एक साहित्यिक अनारकिस्ट )

गत कातिक के तिरहुतिया ‘बालक’ में दक्षिण-अफ्रीका-प्रवासी स्वा मी भवानीदयाल संन्याकसी का एक सचित्र लेख अफ्रीका-यात्रा पर निकला है। उसमें संन्या-सी महाशय लिखते हैं - ‘सन् 1925 के दिसम्बकर में ताजमहल होटल, बम्बरई में भारत कोकिला श्रीमती सरोजिनी नायडू कानपुर-कांग्रेस के लिए अपना भाषण लिख रही थीं। मैं भी वहाँ जा पहुँचा। उनकी पुत्री कुमारी पद्मजा भी वहीं बैठी हुई थीं, वह विनोद की मूर्त्ति हैं। मैंने उनसे हँसी में कहा था कि आप जरा अपने शरीर की ओर अधिक ध्यांन दीजिए; आपको दुबली-पतली देखकर मुझे दु:ख होता है; आप ऐसी चीजें खाया कीजिए, जिससे शरीर पुष्ट हो जाए; इस समय तो आपका शरीर इतना निर्बल है कि यदि जोरों से आँधी आवे, तो आप उसके झोंके से पतंग की भाँति उड़ जाएँ। कुमारी ने तुरन्ति मुझे जवाब दिया कि भाईजी, जरा आप अपने बदन की ओर तो निहारिये - आप तो मुझसे भी अधिक कमजोर हैं और यदि मैं आँधी के झोंके से उड़ जाऊँगी, तो आप भी साधारण हवा में नहीं ठहर सकते। इस पर वहाँ बैठे हुए सभी लोग खिलखिला पड़े। "बम्बँई क्रानिकल" पत्र के डायरेक्ट र श्रीयुत देसाई ने कहा, शाबाश बीबी, तुमने खूब जवाब दिया!’

अब इस पर टीका-टिप्पमणी की जरूरत नहीं है। समझदार की मौत है बस! जरा सवाल-जवाब के फिकरों पर ध्याान दीजिए। ऊपर-ही-ऊपर तैरनेवाले को तिनका मिलेगा, गोताखोर मोती पाएगा!

आखिर ‘कोउ न रहा बिनु दाँत निपोरे’। बेचारे सीधे-सादे मारवाड़ी ‘बाबू गंगाप्रसाद भोतिका एम.ए. काव्यंतीर्थ’ भी घासलेटी साहित्यह के आन्दोालन में धम-से आ कूदे। वे ‘विशाल-भारत’ के अगहन-अंक में लिखते हैं - ‘इधर मतवाला-आफिस से भी "उग्र" महोदय ने बहुत-सी उग्र-पुस्त कें निकाल दीं जिनमें व्यतभिचार के वीभत्सइ दृश्योंह का वर्णन किया गया। मजा तो यह है कि ऐसी पुस्त-कें लिखने और प्रकाशित करनेवाले समाज में क्रान्ति (!) मचाने का दावा करते हैं।’ अच्छाि ठहरिये यहीं पर; हमको भोतिकाजी से पूछ लेने दीजिए कि आप किस बात का दावा करते हैं। हमने तो भोतिकाजी का चेहरा बहुत पास से निहार-निहार कर गौर से देखा है। चेहरे-मुँहड़े से तो वे ‘बछिया के ताऊ’ ही जान पड़ते हैं। फिर उग्रता के सामने कैसे आ डटे? हाँ, उनमें पम्प करके जोश पहुँचाया गया हो तो हम नहीं कह सकते। राम जाने।

भोतिकाजी को ‘विशाल-भारत’ द्वारा एक नया आन्दोपलन उठाना चाहिए - कलकत्ते ही के माहेश्व री विद्यालय के हेडमास्टवर पं. जनार्दन भट्ट एम.ए. के विरुद्ध! पूछिये क्यों ? तो वह इसलिए कि भट्ट जी ने इसी दिसम्बेर के ‘चाँद’ में अंग्रेजी के ‘चाकलेट’ को निर्दोष प्रमाणित किया हे। भट्ट जी अपने लेख में लिखते हैं - ‘मैंने चाकलेट को पढ़ा नहीं है; पर जहाँ तक चतुर्वेदी जी (पं. बनारसीदास जी) की आलोचना से पता चला है, यह पुस्तकक सदभिप्रायपूर्ण उद्देश्य से लिखी गयी है, न कि, जनता को अश्लीालता की ओर ले जाने के उद्देश्यट से। जहाँ तक मुझे ज्ञात हुआ है, लेखक ने इसके जरिए से युवाओं को चाकलेटपन्थियों की हरकतों से आगाह किया है।’