कुतरे हुए नोट / शोभना 'श्याम'

Gadya Kosh से
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जैसे-जैसे आर्डर होती डिशेस की संख्या बढ़ती जा रही थी, प्रशांत की बेचैनी भी उसी अनुपात से बढ़ रही थी, उसे ऐसा लग रहा था, जैसे किसी ने उसके दिल को मुठ्ठी में जकड़ लिया है और दबाता ही जा रहा है।

वह कॉर्पोरेट में नया-नया आया था और एक अघोषित नियम के चलते उसे स्टाफ को 'न्यू जॉइनिंग ट्रीट' देनी पड़ी। काफी कोशिश की उसने टालने की। अपनी आर्थिक स्थिति की तरफ इशारा भी किया, लेकिन किसी को उस सब से कोई मतलब नहीं था।

उनकी जिद और फ़िकरों का लब्बो-लुआब यह था कि कॉर्पोरेट में इतना कम कोई नहीं कमाता कि एक ट्रीट न दे सके। ज़्यादा न सही, एक-एक ड्रिंक और हलके फुल्के स्नैक्स तो कोई भी अफोर्ड कर सकता है। अब वह कैसे बताता कि उसकी ठीक-ठाक तनख्वाह उन सब की तरह घर में एडीशनल नहीं बल्कि एकमात्र है। उसके पास न एक अदद पिता है, न पिता का घर। हिन्दी फ़िल्मों की तर्ज़ पर एक माँ, एक कुँवारी बहन और एक खड़ूस मकानमालिक है। लेकिन न तो वह कह पाया और कहता भी तो वे सुनते नहीं। "कॉर्पोरेट की ईट ड्रिंक एंड बी प्रिपेयर फॉर हार्ड वर्क" वाली नीति में इस प्रकार का कहना सुनना होता ही नहीं।

सो अब वे सब इस हाई-फाई बिल्डिंग में ही बने एक रेस्ट्रॉं में बैठे हैं। उसके कुछ खा न पाने पर उन्होंने कंजूसी का लेबल लगा दिया है। ट्रीट खत्म हो चुकी है। वह बड़ी लाचारी और बेकसी से देख रहा है-हर प्लेट में कुछ कुतरे हुए नोट पड़े हैं।