कुत्ता / गोवर्धन यादव

Gadya Kosh से
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सुबह के साढ़े सात-आठ बज रहे होंगे। पीछे आँगन में भरपूर धूप उतर आई थी। सोचा कि धूप में बैठकर शेव करना चाहिए। दाढ़ी बनाने का सामान एवं आईना लेकर जा पहुंचा। आईने को कील पर टांगकर ट्ïयूब से क्रीम निकालकर ठोड़ी पर लगाया और ब्रश को पानी से हलका गीला करते हुए झाग उठाने लगा। धूप बड़ी सुहावनी लग रही थी। ठंड में भला धूप किसे अच्छी नहीं लगती। ब्रश चलाते हुए मैं फिल्मी गीत गुनगुना रहा था। तभी मेरे कानों में कुछ असंसदीय शब्द आकर टकराए। मैंने सोचा-शायद किसी की आपस में झमक हो गई होगी। पर झगड़ा और वह भी सिविल लाइन में— नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। ब्रश चलाते हुए मैंने इंकार की मुद्रा में सिर झटक दिया। मिनट दो मिनट भी नहीं बीते होंगे कि शब्दों में तीखापन उतर आया। मुझे अब भी विश्वास नहीं हो रहा था कि इस पॉश कॉलोनी में कभी झगड़ा भी हो सकता है।

इस कॉलोनी में एक से बढक़र एक एग्जेक्यूटिवïस रहते हैं। जाहिर है उन्होंने इतनी बड़ी पोस्ट पाने के लिए भगीरथ तप किया होगा। अनेक विषयों की मोटी-मोटी पोथियां बाँची होंगी, तब जाकर तो वे यहाँ तक आ पहुंचे हैं। जहाँ तक मुझे मालूम है कि इनके सिलेबस में गालियों को लेकर कोई प्रमाणिक किताब नहीं है। फिर ये नई-नई गालियां उगल कैसे रहे हैं। समझ में नहीं आता कि इन्होंने सीखा कहाँ से होगा। अब तो तीखेपन के साथ एक कर्कशता भी साफ-साफ सुनाई देने लगी थी।

मैं उठा और सामने वाले कमरे की खिडक़ी से झांककर देखा। शर्माजी और वर्माजी अपनी-अपनी बार्डर पर खड़े होकर मुंह की तोपें चला रहे थे और गोले के रूप में गालियां दाग रहे थे। ब्रश अब भी मेरे हाथ में था।

मैंने अंदाज लगाया कि मामला शांत हो चुका है। पर देखता क्या हूं कि दोनों फिर प्रकट हो गए। वर्मा जी के हाथ में हॉकी थी और शर्मा जी को कुछ नहीं मिल पाया होगा, सो उन्होंने सब्जी काटने वाला चाकू ही उठा लिया। वर्मा जी ने आव देखा न ताव, चार-छ: हाकी शर्मा जी को दे मारी वे दर्द के मारे चीख उठे।

पल दो पल भी नहीं बीते होंगे कि तोपें एकदम शांत हो गईं और अब वे आपस में उलझ पड़े। कभी शर्मा जी ऊपर तो कभी वर्मा जी। दो एग्जीक्यूटिवस इस तरह जंगलीपन पर उतर आएँगे, ऐसा मैंने सोचा भी नहीं था। मेरा अनुमान दूसरी बार भी गलत साबित हुआ। थोड़ी देर गुत्थम-गुत्थी चलती रही। फिर वे अपने-अपने घर में तेजी से घुस गये। मैंने अंदाज लगाया कि मामला शांत हो चुका है। पर देखता क्या हूं कि दोनों फिर प्रकट हो गए। तमाशबीन भीड़ अपने-अपने आँगन में खड़े तमाशा देख रही थी। बच्चे एवं महिलाएँ अपने-अपने घरों की खिड़कियों से तांक-झांक कर रहे थे। किसी ने भी आगे बढक़र उन्हें रोकने का प्रयास नहीं किया। चोट खाकर शर्मा जी घायल साँप की तरह अपने बिल में जा घुसे और तुरंत ही वापिस आ गए। अब उनके हाथ में रिवाल्वर थी। उन्होंने वर्मा जी पर गोली दाग दी। सौभाग्य से गोली उन्हें लग नहीं पाई, पर अब वे अपनी जान बचाने सरपट भागे। भागते समय उनका पैर केले के छिलके पर जा पड़ा। जमकर फिसलते हुए दूर जा गिरे। फिर उठे और बेतहाशा भागने लगे। पर दुर्भाग्य ने अब भी उनका पीछा नहीं छोड़ा। वे सामने वाले पिलर से जा टकराए और बेहोश होकर गिर पड़े।

सिविल लाईन के अपने कुछ कायदे-कानून होते हैं। मैं लुंगी बनियान में बाहर आने से तो रहा। लुंगी उतारूं, पैण्ट डालूं, शर्ट पहनूं, तब तक तो सब कुछ घट चुका होता है। मैं जैसे ही घर से बाहर निकला, सपकाले जी अपनी जीप पर घुरघुराते आ धमके। सपकाले जी नगर निरीक्षक हैं। पास ही रहते हैं। शायद गोली चलने की आवाज सुनकर लपके हों। मेरे बढ़ते कदम वहीं रुक गए। सोचा, जब पुलिस खुद चलकर मौके पर पहुंच चुकी है तो बीच में कूदना, किसी मूर्खता भरे काम से कम नहीं होगा। वर्मा जी एक तरफ बेहोश पड़े थे तो दूसरी तरफ शर्मा जी पड़े दर्द में कराह रहे थे। उन्होंने दोनों को उठाकर जीप में डाला और जीप धुआँ उगलती हुई फुर्र से आगे बढ़ गई।

मैंने अनुमान लगाया कि या तो वे सीधे थाना पहुंचेंगे, जुर्म कायम करेंगे अथवा अस्पताल जाकर पहले दोनों को भर्ती करवाएँगे। जो भी हो, शाम तक सब खुलासा हो ही जायेगा। यह सोचकर मैं घर आ गया और फिर नए सिरे से दाढ़ी बनाने लगता हूं। मोहल्ले में एकदम सन्नाटा सा छाया हुआ था। धमाके की आवाज सुनकर भीड़ अपने-अपने दड़बों में जा घुसी थी। खिड़कियां और दरवाजे बंद हो गये थे। किसी ने भी हिम्मत नहीं की कि पलट कर तो देख लें।

शाम पाँच बजे के लगभग मैंने अपना स्कूटर उठाया और अपनेट्ठे पड़ोसियों को देखने अस्पताल की ओर बढ़ चला। वे किस वार्ड में भरती होंगे इसका सहज में ही पता चल गया। शर्मा जी प्राइवेट वार्ड दो में और वर्मा जी सात नंबर में भर्ती थे। शर्मा जी के कमरे में गया तो उन्हें देखकर पहचान ही नहीं पाया। ऐसा लगा जैसे अंतरिक्ष में जाने सेट्ठे पूर्व यात्री ने अपना कॉस्टïयूम पहन रखा हो। सिर से लेकर पाँव तक पट्टियां बंधी थीं। आँख, नाक और मुंह को छोडक़र पट्टियां ही दिखाई दे रही थीं। मैं पहचान नहीं पाया कि शर्मा जी ही हैं अथवा अन्य और कोई। मैंने भारतीय पद्धति से दोनों हाथ जोडक़र अभिवादन किया और पास ही पड़ी कुर्सी पर जा बैठा। मैं अच्छी तरह जान सकता हूं कि शर्मा जी इस समय कुछ भी बोल पाने की स्थिति में नहीं हैं। शिष्टतावश मैंने कुछ फल खरीद लिए थे, सो उन्हें एक टेबल पर रखते हुए, फिर आऊंगा, कहकर कमरे से निकल गया। दरअसल उनकी ये हालत देखकर मेरे मन में डर आ समाया था। मैंने सोचा, लगे हाथ वर्मा जी को भी देख आना चाहिए। वर्मा जी के कमरे में पहुंचा तो देखा उनके भी वही हाल थे। जगह-जगह प्लास्टर चढ़ा हुआ था। परिवार के सदस्य उनके आसपास उदास मुद्रा में बैठे हुए थे। बातों ही बातों में पता चला कि उनके बाएँ पैर की हड्डी टूट गई है। फिलहाल कच्चा प्लास्टर बाँध दिया गया है। सिर में भी चोट लगी है वहाँ भी मल्हम-पट्टी कर दी गई थी। जाहिर है कि वर्मा जी बोलने बताने की स्थिति में नहीं थे। उनके लिए भी अलग से फल खरीद लिए थे सो उनकी पत्नी के हाथ में देते हुए फिर आने का कहकर बाहर आ गया।

दूसरे दिन शाम को फिर अस्पताल गया। देखा शर्मा जी तकियों का सहारा लगाए बैठे हैं। नमस्कार लेकर कुर्सी पर बैठा। कमरे में खामोशी छायी हुई थी। मेरे अलावा वहाँ उस समय कोई भी मौजूद नहीं था। बात कहाँ से शुरू करूं इस बात की मुझे चिन्ता सी होने लगी थी। थूक से गले को गीला करते हुए मैंने पूछा, ‘शर्मा जी, आखिर कारण क्या हो सकता है कि आप दोनों पक्के दोस्त, एकदम गाली गलौच पर उतर आए और आपस में उलझ भी पड़े। स्थिति ऐसी बन गयी कि आप आज अस्पताल में पड़े हैं। क्या मैं झगड़े का कारण जान सकता हूं?’

उनकी आँखों में आए क्रोध को मैं भलीभांति देख रहा था। काफी देर तक तो वे तमतमाते से दिखे फिर उनके ओठों पर हल्की सी हरकत हुई। उनके ओंठ कांपे। फिर दर्द को लगभग दबाते हुए उन्होंने कहा, ‘यादव जी क्या करेंगे आप कारण जानकर, आपसे हमारा क्या लेना देना? हमदर्दी बतलानी ही थी तो उस समय आप थे कहाँ? यदि वक्त पर बीच बचाव करते तो यह नौबत ही नहीं आती।’ उनकी बातें सुनकर मुझे ऐसा लगा जैसे मैंने किसी बिच्छू को छेड़ दिया हो। फिर मैंने संयत होकर कहा, ‘शर्मा जी ऐसी बात नहीं है। आप बिना जाने-बूझे मुझ पर तोहमत लगा रहे हैं। दरअसल बात ये है कि जब आप आपस में गुत्थम-गुत्था हो रहे थे, तब मैं पिछवाड़े में (आँगन में) बैठा, शेव कर रहा था। तभी मेरे कानों से असंसदीय शब्द आकर टकराए। मैंने अनुमान लगाया कि अपनी कॉलोनी में झगड़ा हो ही नहीं सकता। मैं पीछे से चलकर सामने वाले कमरे में आकर खिडक़ी से झांककर देखता हूं तब तक तो बहुत कुछ घट चुका था। लुंगी उतारकर पैंट पहनकर बाहर आऊं , तब तक तो गोली भी चल चुकी थी। और सपकाले जी आप दोनों को जीप में डालकर रवाना भी हो चुके थे। अब आप ही बतलाइए इसमें मेरी तरफ से क्या कसूर हुआ है। कृपया अब तो गुस्सा थूक दीजिए और कारण बतलाने की कृपा कीजिए।’

पड़ोसी होने के कारण कह लीजिए अथवा सहानुभूति के दो बोल सुनकर शर्मा जी कुछ पिघले। उन्होंने अटकते-अटकते कहना शुरू किया-

‘ये साला वर्मा का बच्चा, जब यहाँ पोस्टिंग होकर आया था, तो न जाने कितने ही लफड़े पीछे छोडक़र आया था। वो तो मैं ही था कि साले के सब लफड़ों को निपटवाया। जब तक उसकी पूंछ मेरे पाँवों के नीचे दबी थी, तब तक मेरे पीछे मिमियाते घूमता रहता था और जब काम निकल गया तो मुझे ही आँखें दिखाने लगा। वह तो अच्छा ही हुआ कि साले को गोली नहीं लगी, नहीं तो भगवान को प्यारा हो गया होता।’ इतना कहकर वे चुप हो गए। मुझे उनकी बातों पर अब भी विश्वास नहीं हो रहा था। जरूर वे कुछ मुझसे छिपा रहे थे।

मैंने कहा, ‘सर, कुछ विशेष बात तो रही होगी अन्यथा आप जैसे शांति के पुजारी को, हाथ में हथियार लेने की जरूरत ही क्या थी?’

काफी देर तक तो वे चुप रहे, फिर चुप्पी को तोड़ते हुए उन्होंने बतलाया कि वर्मा ने उन्हें भद्दी-भद्दी गालियां तो दीं, साथ ही उस साले ने मुझे कुत्ता भी कह डाला। उसका कुत्ता कहना ही था कि झगड़ा बढ़ गया और नौबत यहाँ तक आ पहुंची। काफी समय तक कमरे में सन्नाटा छाया रहा। मैंने और ज्यादा देर तक बैठना उचित नहीं समझा और नमस्कार लेकर फिर आऊंगा कहकर बाहर आ गया।

अस्पताल का माहौल ही कुछ ऐसा रहता है कि वहाँ ज्यादा देर बैठा नहीं जा सकता। अत: मैंने स्वत: निर्णय लिया कि वर्मा जी को देखने दूसरे दिन जाऊंगा। खाना खाने बैठा तो ढंग से खाया भी नहीं गया। हाथ धोकर अपने कमरे में आया और सिगरेट जलाकर धुआँ उगलने लगा। मेरे मन के गलियारे में तरह-तरह के प्रश्न रेंगने लगे। सो जाना चाहा पर नींद आँखों से कोसों दूर थी। बिस्तर पर पड़े-पड़े मैं सोचने लगता हूं कि गाली-गाली न होकर शाबर मंत्र हो गयी। मुंह से एक गाली निकली नहीं कि हाथापाई की नौबत आ गयी। यदि सडक़ चलते किसी से जै रामजी की ले लो, तो यह भी संभव है कि वह आपको कोई जवाब भी न दे, पर यदि जै रामजी के बदले कोई शानदार गाली जैसे कुत्ता-हरामी-साले कहकर देख लो। वह चलते-चलते अचानक रुक जायेगा। पलटकर आयेगा और आपसे भिड़ पड़ेगा। संभव है कि वह आपके हाथ-पैर भी तोड़ डाले। ऐसा बतलाते हैं कि किसी पूर्णिमा के दिन शाबर मंत्र को कुछ बार पढ़ लें तो वह जागृत हो उठता है फिर उसके जागृत होते ही आप चाहें तो बिच्छू का विष उतार दें अथवा भूत-प्रेत भी। पर गाली ऐसा शाबर मंत्र है जिसे साधने के लिए कोई दिन निश्चित नहीं, जब चाहो तब आजमा कर देख लो। इधर मुंह से गाली निकली नहीं, कि उधर उसका परिणाम देख लो।

नींद अब भी नहीं आ रही थी, टेबल पर एक किताब पड़ी थी। रंजू की किताब थी। शायद वह पढ़ते-पढ़ते छोड़ गई होगी। किताब उठाकर पन्ने पलटने लगता हूं। उसमें एक कहानी पढऩे को मिली। कहानी धोबी-गधे और कुत्ते को लेकर थी। इस कहानी में कुत्ते को विशेषकर हाईलाईट किया गया था। नींद अब भी कोसों दूर थी। शेल्फ से एक किताब उठाकर लाया और पढऩे बैठ गया। तभी पत्नी ने कमरे में प्रवेश किया। उन्होंने अपनी रजाई खींची और सो गयीं। थोड़ी ही देर में वे खुर्राटे भरने लगीं। पर यहाँ आँखों में नींद नहीं। रह-रहकर कुत्ते का फिगर सामने आकर खड़ा हो जाता। जिस कहानी को मैं अभी-अभी पढ़ रहा था वह महाभारत पर केन्द्रित थी। कथानक कुछ इस प्रकार से था— महाभारत का युद्ध जीतने के बाद महाराज युधिष्ठिर अपना राजपाट अपने पुत्रों को सौंपकर, हिमालय में तप करने को निकल पड़े। जब वे हिमालय की ऊंचाइयों की ओर बढ़ रहे थे तभी द्रौपदी गिर पड़ी। उसके बाद भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव भी जा गिरे। युधिष्ठिर ने पीछे मुडक़र भी नहीं देखा और वे आगे बढ़ते चले गए। जब वे हिमालय की अंतिम ऊंचाई को छू ही रहे थे, तभी देवराज इन्द्र अपना दिव्य रथ लेकर उनके सामने प्रकट हो गए। उन्होंने महाराज से प्रार्थना की कि वे उनके साथ स्वर्ग चलें। युधिष्ठिर जब रथ में बैठने के लिए आगे बढ़े तब उनकी नजर अपने कुत्ते पर पड़ी। वह भी उनके पीछे-पीछे आ रहा था। महाराज ने उसे रथ में बिठाना चाहा तो देवराज इन्द्र ने कड़ी आपत्ति की। उन्होंने रथ में बैठने से इंकार कर दिया। काफी देर तक इस मुद्दे पर बहस होती रही। अन्त में देवराज ने अपनी हार स्वीकार करते हुए कहा कि वे उनकी परीक्षा ले रहे थे और अब वे उस कुत्ते को भी अपने साथ ले जाने के लिए तैयार हैं। दोनों में हुई बहस से यह बात भी स्पष्ट होती है कि वह कोई साधारण कुत्ता नहीं था बल्कि स्वयं धर्म का अवतार था जो महाराज के पीछे-पीछे चला आ रहा था।

यदि वर्मा जी ने, शर्मा जी को कुत्ता भी कह डाला होगा तो उन्हें तो गर्व ही होना चाहिए था क्योंकि कुत्ता तो धर्म का अवतार था। इस तरह शर्मा जी भी धर्म से संबद्ध हुए, पर उन्होंने इसे गहराई से न लेते हुए अन्यथा ले लिया। शायद यही कारण प्रमुख रहा होगा तभी तो दो पक्के दोस्त आपस में उलझ गए।

भारतीय दर्शन के अनुसार कुत्तों को भी पूजने की बात पढऩे को मिली।

उसे श्वान देवता कहकर संबोधित किया गया है। यह बात अलग है कि अंग्रेज भी कुत्तों से नफरत करते रहे हैं। तभी तो उन्होंने अपना रोष प्रकट करते हुए अपने होटलों में लिखा था कि ‘इंडियन्स एण्ड डॉग आर नॉट अलाउड’ अर्थात्ï भारतीयों का एवं कुत्तों का प्रवेश वर्जित है। उन्हें ये नहीं मालूम कि भारतीय भूखा रह सकता है, यहाँ का कुत्ता भी भूखा रह सकता है। पर अपने देश के प्रति, अपने मालिक के प्रति वह गद्दारी नहीं करता। कुत्तों को लेकर न जाने मैं कितनी देर रात तक सोचता ही रहा।

तीसरी शाम, जब मैं वर्मा जी के कमरे में पहुंचा तो देखा उनके पास कोई बैठा दिखाई नहीं दे रहा है। शायद परिवार के लोग घर पर चले गए होंगे। पास बैठते हुए मैंने पूछ ही डाला, ‘वर्मा जी, आप जैसे अभिन्न मित्रों के बीच हुई हाथापाई देखकर कुछ अच्छा नहीं लगा। आखिर कारण क्या था कि आप दोनों आपस में उलझ पड़े।’ बड़ी देर तक तो वे खामोश रहे पर उन्होंने इस शर्त पर रहस्य खोलने की बात की कि मैं किसी अन्य पर इसे प्रकट न करूं। एक पड़ोसी होने के नाते लड़ाई झगड़े का कारण पूछना मेरा कर्तव्य तो था ही। उनका भी यह कर्तव्य बनता है कि वे अपने नजदीक के मित्रों अथवा विश्वसनीय लोगों को कारण बतलाएँ ताकि और आगे टेंशन न बढ़ पाए। मैं जानता था कि वर्मा जी मुझ पर भरोसा रखते हैं।

कमरे में काफी देर तक सन्नाटा रहा। शायद वे सोच रहे होंगे कि बात कहाँ से शुरू करें अथवा मुंह खोलें भी या नहीं। खैर जो भी हो, थोड़ी देर बाद उन्होंने दबी जुबान में कहा, ‘यादव जी, आप तो घर के ही आदमी हैं, अब आपसे क्या छुपाना। पर मुझसे वादा करो ये बात किसी अन्य को मालूम न पड़े। मेरी प्रतिष्ठा के साथ-साथ जीवन मरण पर भी इसका व्यापक असर पड़ेगा।’ मैंने सहज ही अंदाज लगा लिया कि बात काफी गंभीर किस्म की है तभी तो स्थिति यहाँ तक आन पहुंची।

‘मैं शर्मा जी की अब भी इज्जत करता हूं क्योंकि आड़े वक्त उन्होंने मेरे बड़े-बड़े काम कर दिए थे। कोई और होता तो शायद ही कर पाता। इसके बाद हमारी अंतरंगता बढ़ती गयी। परिवार में आना-जाना उठना-बैठना यहाँ तक कि पारिवारिक, गोपनीय बातें भी हम एक दूसरे की जानने लगे। देर रात तक एक दूसरे के घर बैठे रहना अथवा रात-बिरात आना-जाना बना रहा। कभी किसी ने एक दूसरे को संदेह की नजर से नहीं देखा। घनिष्ठता का फायदा उठाते हुए शर्मा जी ने गुल खिलाना शुरू कर दिया। उन्होंने मेरी साली सुनन्दा के ऊपर डोरे चलाना शुरू कर दिए। तुम तो जानते हो कि वह हमारे साथ ही रहकर कालेज में पढ़ रही है। मैं जातना हूं कि सुनन्दा इतनी खूबसूरत है कि उस पर कोई भी बिना सोचे समझे अपनी जान तक न्यौछावर कर देगा। अमानत में खयानत वाली बात बन गई। शर्मा जी को मैंने एक मर्तबा टोका भी, पर वे लोलुप दृष्टि वाले बाज नहीं आए। बस यही कारण था कि हमारी झमक हो गई। आप तो जानते ही हैं कि कुत्ता एक ऐसा प्राणी है जो अपने नजदीकी अथवा खून के रिश्तों को न देखते हुए भी संसर्ग करने लगता है। यही कारण था कि मैंने उन्हें गालियां देने के अलावा कुत्ता भी कह डाला।’

माहौल को नॉर्मल बनाते हुए मैं घर आ गया।

वर्मा जी के मुंह से कुत्ते की व्याख्या सुनकर मेरे मन में कुत्ते के प्रति और भी जानकारी इकट्ठी करने की प्रबल इच्छा बन गयी। कुत्ता मेरी नजरों में अब हीरो बन चुका था।

खाना वगैरह खा-पीकर जब मैं अपने शयन कक्ष में पहुंचा तो रोजमर्रा की तरह अखबार उठाकर पढऩे लगा। सोने से पहले कुछ न कुछ पढ़ते रहने की मेरी पुरानी आदत है। साँध्य में एक दिलचस्प खबर पढऩे को मिली। मुख्यमंत्री जी ने अपने भाषण के दौरान मजाकिया लहजे में कुत्ते को लेकर अपनी व्यथा-कथा व्यक्त की थी। उन्होंने कहा कि जब एक कुत्ता देशाटन पर निकला तो बाहर के कुत्तों ने उसका जोरदार स्वागत सत्कार किया और जब वह वापिस अपने घर आया तो मोहल्ले के कुत्तों ने उसकी फजीहत कर डाली। व्यंग्य में चुभन थी। इसकी अच्छी खासी प्रतिक्रियाएँ भी हुईं। मेरा ऐसा मत है कि जब भी कोई गंभीर बात कहना चाहता है तो वह किसी प्रसंग को लेकर अथवा कहानी को माध्यम बनाकर अपनी व्यथा कथा कह देता है। समझदार व्यक्ति उसे समझते बूझते हुए भी अपनी ओर से कोई प्रतिरोध अथवा प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं कर पाता।

वैसे कुत्ता आदमी का सबसे पुराना दोस्त रहा है। सच्चा आज्ञाकारी रहा है। शायद यही कारण है कि हजारों साल के बाद भी उसकी नजदीकियां बनी हुई हैं। हाँ कुत्ते की नस्लों को लेकर उनका वर्गीकरण किया जा सकता है। अच्छी नस्ल का कुत्ता आज भी पिअर्स में नहाता है, डनलप के गद्दों पर सोता है, महंगी कारों में शान से घूमता है। जब आदमी सडक़ पर कुत्ते के साथ घूम रहा होता है तब उन दोनों के बीच रिश्ते को जोडऩे वाली एक चेन जरूर होती है। कुत्ता आगे-आगे भाग रहा होता है और मालिक लगभग घसीटता हुआ उसके पीछे-पीछे खिंचा चला जाता है। यहाँ ये समझ में नहीं आ पाता कि कुत्ता आदमी को घुमा रहा है अथवा आदमी कुत्ते को। जब कुत्ता अपनी पर उतर आता है तो काट भी खाता है। अगर उसने काट लिया तो तय मानिए चौदह इन्जेक्शन लगने पक्के हो गए और यदि आदमी किसी को काट खाए तो शायद एक भी इन्जेक्शन लग पाने की नौबत आए।

कुत्तों को लेकर एक दिलचस्प लेख पढऩे को मिला। कुत्ता भेडि़ए का वंशज है या फिर सियार का। इस बात को लेकर काफी हो-हल्ला मचा रहा है। कोई कहता कुत्ता सियार का वंशज है, कोई कहता भेडि़ए का। जब इस मुद्दे पर बहस का कोई अंत दिखाई नहीं दिया तो जीव वैज्ञानिकों ने इस पर खोज करनी शुरू कर दी और इस बात की पुष्टि के लिए मादा के डी.एन.ए. के इस माइंट्रोइट्रोक्वाड्रियल डी.एन.ए. जिसका वंशक्रमानुसार कोई परिवर्तन नहीं होता, का अध्ययन शुरू किया। इसके लिए वैज्ञानिकों ने 162 भेडि़ए तथा 67 प्रजातियों वाले 140 कुत्ते जिसमें शिकारी कुत्ते, झबरे कुत्ते, छोटे मगर प्यारे दिखने वाले कुत्ते शामिल थे, के माइंट्रोक्वाड्रियल डी.एन.ए. का अध्ययन किया और दावा किया कि कुत्ते में सियार की बजाय भेडि़ए से ज्यादा समानताएँ हैं।

कुत्ते पाले जाने के मामले में भी वैज्ञानिक एकमत नहीं थे क्योंकि आज जो भेडिय़ा है उसका डी.एन.ए. कुत्ते के डी.एन.ए. से बिल्कुल भी नहीं मिलता। किन्तु बहुत सारी मादाओं में आपस में समानताएँ थीं। अत: यह हो सकता है कि ये कुत्ते ऐसे किसी मादा भेडि़ए की सन्तानें हों जिनकी प्रजाति अब लोप हो गई हो। पहले कुत्ता भेडि़ए की तरह ही दिखता था और आदमी जंगलियों की तरह रहता था। आदमी का न तो कोई समाज था और न ही घर-बार। जब उसने अपना घर बसाना शुरू किया तो उसने भेडिय़ों को पाला और इस तरह भेडि़ए में भी और आदमियों में भी स्वरूप में भी परिवर्तन आता चला गया।

डार्विन ने अपनी थ्योरी से सिद्ध किया हुआ है कि आदमी भी बंदर की औलाद है। वैसे हिन्दू माइथोलॉजी के अनुसार हम मनु एवं शतरूपा के वंशज हैं पर हम अपनी आदत के अनुसार पाश्चात्य बातों पर ज्यादा भरोसा रखते आए हैं। यही कारण है कि डार्विन आज ज्यादा महत्वपूर्ण हो गए हैं।

कुल मिलाकर दोनों ही जानवर रहे हैं और बदले परिवेश में आज भी इनमें समानताएँ हैं। समानताएँ भले ही कम मिलें, पर निकटताएँ आज भी जरूरत से ज्यादा हैं। कुत्तों को लेकर न जाने कितनी ही बातें दिमाग में रेंगती रहीं। अब ऐसा लगने लगा था कि सिर फट जाएगा तभी नींद का एक झोंका हवा में तैरता हुआ आता है और उसी समय मोहल्ले का एक कुत्ता भों-भों भौंकता हुआ चीखने लगता है।