कुत्ते से सावधान / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
सर्वप्रथम मैं अपनी गली के कुत्तों से क्षमा-याचना करूँगा कि वे मेरे इस लेख का बुरा न मानें। मनुष्य जैसे स्वार्थी जीव की तुलना यदि मैं उनसे कर जाऊँ, तो इस पर गिला-शिक़वा न करें और न इसे अपना अपमान ही समझें। मैं जब देर-सबेरे गली से गुजरूँ, तब किसी के मिसगाइड करने पर मुझे अपना कट्टर विरोधी समझकर न भौंकें।
मैं एक दिन लाल बंगले की तरफ़ से गुजरा तो अचानक ध्यान गया-द्वार के एक ओर 'धीरज सिह' की तख़्ती लगी थी, दूसरी ओर 'कुत्ते से सावधान' की तख़्ती। दोनों को मिलाकर पढ़ने से-'धीरज सिह कुत्ते से सावधान।' बंगले के सामने न जाने वालों पर यह अलसेशन ज़रूर भौंकता था। कुत्ता बीमार होकर मर गया; धीरज सिह, बंगले का मालिक जीवित था। मैंने एक दिन चौकीदार से पूछा-"कुत्ता मर गया, तब 'कुत्ते से सावधान' वाली तख़्ती क्यों टाँग रखी है?"
"बाबूजी, एक कुत्ता मर गया; पर दूसरा कुत्ता तो अभी जीवित है।"
मैं चौकीदार की इस बात को कई दिन तक सोचता रहा। इसी बीच मेरे एक मित्र ने कुत्ते पर लिखने के लिए कहा। उनकी नीयत मैं नहीं समझ पाया। कुत्तों से उनकी पुरानी अदावत हो सकती है। इस तरह वे उनसे बदला लेना चाहते हों या वे मेरी इंसान होने की गलतफ़हमी दूर करना चाहते हों।
एक पुरानी कहावत है-'कुत्ते को घी नहीं पचता।' कुत्तों की क्या बात कहें, बहुत से मनुष्यों को भी घी नहीं पचता। घी खाने की लत हो, तो घी पचे भी। एक रात, अँधेरी गली में झगड़ू सिह के कुत्ते ने बहुत दूर तक भौंक-भौंककर मेरा पीछा किया। मैंने कहा-"शेरू भाई! आज तुम्हें क्या हो गया है? मेरे पीछे क्यों लगे हो?"
सुनकर शेरू पुनः गुर्राया-"मास्साब, आइन्दा मुझे शेरू कहा तो हवालात में बन्द करवा दूँगा। डण्डे ऊपर से लगेंगे। मुझे अब शेर सिह कहा करो। थानेदार झगड़ू सिह का कुत्ता शेरसिह।"
"चलो, शेर सिह ही सही। पर एक बात तो बताओ, तुम अब इतना भौंकने क्यों लगे हो?"
"जनाब, कुत्ता कभी नहीं भौंकता। भौंकता है सिर्फ़ उसका मालिक। मालिक जैसा और जितना भौंकेगा, उसका कुत्ता भी उतना ही भौंकेगा। जब मालिक जासूरी करेगा, तब कुत्ता भी इधर-उधर सूँघता फिरेगा। जब मालिक ईमान बगल में दाबकर बात करेगा, तब उसका पालतू कुत्ता भी घर-घर की हंडिया चाटता फिरेगा; अतः आप कुत्ते को दोष न देकर सके मालिक को ही कसूरवार समझें। तरक्क़ी हो जाने पर झगड़़ू सिह थानेदार हो गए हैं; इसीलिए मैं ज़्यादा भौंकता हूँ।"
न चाहते हुए भी मुझे शेरू कीबात से सहमत होना पड़ा। मालिक के स्टेट्स से कुत्ते का मूल्यांकन करना चाहिए। कुत्ते से अधिक महत्त्व उसकी पूँछ का होता है। लँडूरे कुत्ते के सामने सबसे बड़ी दिक्कत पूँछ हिलाने की है। बैल, मक्खियाँ उड़ाने के लिए पूँछ हिलाता है परन्तु कुत्ता पूँछ हिलाकर अपनी वफ़ादारी प्रकट करता है। अपनी जात वालों से घिर जाने पर दुम को टाँगों के बीच में समेट लेता है। बारह वर्ष नली में रखने पर भी पूँछ टेढ़ी ही रहती है। इस रहस्य को जानने की चेष्टा किसी ने भी नहीं की। अगर नली खरीदने में कमीशन खाया गया हो, तो पूँछ के सीधे होने के बजाय नली ही टेढ़ी हो जाएगी। कुत्ता पूँछ का इस्तेमाल लड़ने के लिए करता, तो यह सीधी हो जाती। खुशामद के लिए पूँछ का मुड़े रहना ज़रूरी है।
जिनमें धैर्य हो, सहनशीलता हो, ऐसे लोग कुत्ता बनने के लिए मुक़द्दर आज़मा सकता है। ऐसे बहुत से लोग मिल जाएँगे, जो ऊपरी दबाव कम होते ही जमकर खाना-पीना शुरू कर देते हैं। कठोर अधिकारी के आने पर भी वे निराश नहीं होते; जो भी अल्पाहार मिलता है, उसी पर ग़ुजारा कर लेते हैं। कुत्ते में भी ऐसी ही विशेषता होती है-कुत्ता पाए तो सवा मन खाए, नहीं तो दीया ही चाटकर रह जाए। ईमानदार अधिकारी उनकी दिखावटी ईमानदारी पर कुर्बान होता है; परन्तु वे 'दादा के माल पर फ़ातिहा' पढ़ने से नहीं चूकते। 'साहब को मत बताना' का जाप करते हुए ईमानदारी की बछिया कि पूँछ पकड़कर, वे भ्रष्टाचार की वैतरणी पार कर लेते हैं।
कुत्तों से साधारण मनुष्य ही नहीं वरन् देवता भी प्रेम करते हैं। देवताओं की कुतिया 'सरमा' का नाम बहुत प्रसिद्ध है। हम देवशुनी को यम के चार आँख वाले कुत्ते की माता बनने का सौभाग्य मिला था। यह भी संभव है कि उस कुत्ते की चार आँखें न होकर दो ही हों। दृष्टिदोष के कारण चश्मा लगाता रहा हो, इसीलिए पुराने ज़माने में उसे चार आँखों वाला कह दिया गया हो। यमराज भी ऐसा कुत्ता पाकर धन्य हो गए होंगे।
'मार्निंग वाक' के समय उसे ज़रूर साथ ले जाते रहे होंगे। कुत्तों के बिना अधिकारी अधूरा लगता है। यमराज तो ठहरे मृत्यु निदेशक। पांडवों के साथ कुत्ता न होता, तो एकलव्य को अँगूठा कटवाने का अवसर न मिलता। मेरे विचार से यह कुत्ते को ठेंगा दिखाने का दुष्परिणाम भी हो सकता है।
धर्मराज युधिष्ठिर को यदि कुत्ता पालने का शौक न होता, तो हिमालय की बर्फ़ीली चोटियों पर आरोहण करते समय ज़रूर बोर होना पड़ता। यदि बहुत-सी फ़िल्मों में कुत्ता न होता, तो हीरो नायिका को विलेन के चंगुल से न निकाल पाता। न जाने कितने मनुष्य सरमात्मज बनने के लिए आज भी लालायित होते हैं। कुत्ते की नस्ल से भी मालिक का स्तर ज्ञात होता है।
कुत्तों की कई श्रेणियाँ होती हैं। इनमें से कुछ भी झलक मनुष्यों में भी मिल सकती है। घरेलू कुत्ते, गली के कुत्ते, नगर निगम के आवारा कुत्ते, भौंकने वाले कुत्ते, सूँघकर पहचानने वाले जासूसी कुत्ते। पालतू आदमी, पालतू कुत्ते से ज़्यादा ख़तरनाक होता है। घरेलू कुत्ते का संसार सीमित होता है। यह पूँछ ज़्यादा हिलाता है। इसकी हैसियत अपने मालिक की हैसियत के अनुसार बदलती रहती है। जब मालिक के बच्चे नौकरों के साथ ताश खेलते हैं, यह उस समय मालकिन की गोद में चढ़कर कार से हवाखोरी के लिए जाता है। वैसे यह बहुत सहनशील होता है। इसे घर के जिस कोने में बिठा दो, चुपचाप बैठ जाएगा और मनोयोग से पूँछ हिलाता रहेगा।
गली के कुत्ते कभी लग्गू के घर, कभी भग्गू के घर पहुँच जाएँगे। इनकी विश्वसनीयता 'डाउट फुल' होती है। ये कभी एक के होकर नहीं रहते। नगर-निगम के ठलुए कुत्ते पूरे नगर निगम का भ्रमण करते रहते हैं। निगम-कर्मचारी पिंजरा लिए पीछे-पीछे घूमते रहेंगे; पर ये हाथ आने वाले नहीं। आप चाहें तो किसी भी कोने का समाचार इनसे जान सकते हैं। जासूसी कुत्ते आपके आसपास कहीं भी दिख जाएँगे। ये हवा को सूँघकर आपके मन की बात जानने की चेष्टा करते हैं। यह बात दूसरी है कि ये अक्ल से बिलकुल पैदल होते हैं; परन्तु अपने को किसी सुकरात से कम नहीं समझते। इनकी हालत केशवदास के 'चरन धरत संका करत, चितवत है चहुँ ओर' वाली होती है। कदम-कदम पर इनको शंका घेरे रहती है। आपस में बात करते कोई भी दो आदमी इनको भयंकर षड्यंत्रकारी प्रतीत होते हैं। कटहा कुत्ता आपके पैर चाटकर आपको गलतफहमी में डाल सकता है। जैसे ही आप असावधान हुए कि अपने पैने दाँत आपके हाथ-पाँव पर गड़ाकर आपके विश्वास को कच्ची दीवार की तरह ढहा देंगे।
मायाराम जी एक उच्च अधिकारी एवं लोकप्रिय व्यक्ति थे। दूर-दराज से विद्वान् लोग उनसे मिलने के लिए आते थे। विजिटिंग रूम में सोफ़े पर बैठकर ज्ञान-विज्ञान, देश-विदेश की न जाने कितनी चर्चाएँ हुईं। उनका जब तबादला हुआ, तो कार्यभार संभाला श्री गुल्लक जी ने। इनका वास्तविक नाम गोलोक चन्द्र है; लेकिन इनकी अद्भुत संग्रहवृत्ति से प्रभावित होकर लोगों ने इनको नाम दे दिया गुल्लक जी। जिस सोफ़े पर आगन्तुक विद्वान् बैठा करते थे, उस पर अब गुल्लक जी का खाज-खाया कुत्ता 'टाइगर' बैठता है, थूथन ऊपर उठाए हुए, गुल्लक जी को सगा समझते हुए। उसी की बगल में, ठीक उसी की मुद्रा में बाबू बाँकेलाल बैठते हैं। वे गुल्लक जी की बातें सुनकर खीसें निपोर देते हैं। अपने इस समकक्ष की लुभावनी मुद्राओं को कुक्कुर जी एकटक भक्तिभाव से देखते रहते हैं।
एक दिन मैं श्री गुल्लक जी से उनके कुक्कुर-प्रेम के बारे में पूछ बैठा। वे रुआब भरे स्वर में बोले-"कुत्ता पालना बड़े लोगों का शौक है। यह सबके बस की बात नहीं। कुत्ता घास खाए, तो सभी पाल लें। माल खिलाना पड़ता है जनाब, माल। माल वही खिला सकता है, जिसने कभी माल खाया हो, अपना नहीं, दूसरों का। देख रहे हो-मेरे कुत्ते को खाज हो गई है। दफ़्तर का हर कर्मचारी इसके लिए चिन्तित है। एक बाबू को मैंने इसकी मालिश के लिए लगा रखा है। दवाई की मालिश करने से यह स्वस्थ हो जाएगा।"
तभी मैंने देखा-बाँकेलाल 'टाइगर' के शरीर पर दवाई का लेप कर रहे थे। जब टाइगर नाराज हो जाता, तो प्यार से उसका मुँह भी चूम लेते थे। मुझे टाइगर से ईर्ष्या हो रही थी। अपने शरीर पर माँ के सिवाय इतने प्रेम से मालिश कभी किसी ने नहीं की।
टाइगर से गुल्लक जी को कई फायदे हैं। किसी कबूतर या गिलहरी को पकड़ने के लिए वह इधर-उधर छलांग लगाता रहता है। कार्यालय में फ़ाइलों की एकरसता को भंग करने के लिए बीच-बीच में 'हूँ—हूँ—हूँ' का मधुर आलाप गुँजा देता है। जेबें सूँघकर काइयाँ से काइयाँ असामी के छिपे हुए नोटों को पहचान लेता है। यह कितनी बड़ी उपलब्धि है कि छिपकली जैसे कर्मचारियों की प्राणशक्ति भी अब उत्तरोत्तर वृद्धि की ओर है। अब शायद यूनियन बनाकर आने वाले लोगों को चेताया जाए-अपने काम के लिए हमसे सम्पर्क करें। अपनी जेब बचाने के लिए गुल्लक जी के कुत्ते से सावधान।