कुदरत का इंसाफ / उमेश मोहन धवन
जनरल डिब्बा खचाखच भरा था। किनारे की तरफ चार पाँच लड़के बैठे हुये थे कि तभी चाय चाय की आवाजें लगाता एक चौदह पंद्रह साल का लड़का वहाँ से गुजरा।
“ए चाय वाले, जरा चाय तो देना हम सबको” उनमे से एक लड़के ने आवाज लगायी।
चायवाले ने सभी को चाय दे दी और आगे बढ गया। कुछ देर बाद वो पैसे लेने आया तो एक लड़के ने बीस का नोट उसको देते हुये कहा “ये लो चार चाय के पैसे”
“पर मैने तो पाँच चाय दी हैं” चायवाले ने लड़के गिनकर बताया।
“अरे नहीं नहीं वो किनारे वाला लड़का हमारे साथ नहीं है। उसने चाय नहीं ली। चाहो तो उसी से पूछ लो।”
“हाँ भैया, मैं इन लोगों के साथ नहीं हूँ और मैं चाय भी नहीं पीता।” किनारे वाले लड़के ने भी खुद को उन सबसे अलग किया।
“पर मैने तो पाँच चाय ही दी थी, मुझे अच्छी तरह याद है। हम लोगों से ऐसी गलती कभी नहीं होती है।” चायवाले ने बीस का नोट अपनी जेब में डाला और बड़बड़ाते हुए आगे चला गया।
उसके जाते ही सब लड़के एक साथ खिलखिलाकर हँसे “अरे यार खूब बेवकूफ बनाया साले को। क्यों मनीष आज फ्री में चाय पिलवा दी ना तुझे कि नहीं? “वो लड़के कुछ देर और हँसते रहे। थोड़ी देर बाद सभी लड़के एक साथ शौचालय की तरफ चले गये। एक एक करके चार लड़के तो वापस आ गये पर मनीष वापस नहीं आया। उन लोगों ने जाकर गेट पर खड़े यात्रियों से पूछताछ की तो पता चला कि एक लड़का थेड़ी देर पहले गेट से नीचे गिर गया है। किसी ने ज्यादा ध्यान नहीं दिया। लड़के एक दूसरे से चेन खींचने के लिये चिल्लाने लगे। मैने सोचा अभी खुद ही तो ये लड़के कह रहे थे कि मनीष उनके साथ नहीं है। कहीं ये कुदरत का इंसाफ तो नहीं था।