कुमाऊँनी साहित्यिक और सांस्कृतिक धरोहरः फिल्म ‘अङ्वाल’ / स्मृति शुक्ला

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सिनेकार ललित मोहन जोशी, जिन्होंने अपने पहले; किन्तु महत्त्वपूर्ण वृत्तचित्र ‘बियोंड पार्टीशन’ से अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी विशिष्ट पहचान बना ली है। ‘अङ्वाल’ उनकी दूसरी महत्त्वपूर्ण फिल्म है जिसमें उन्होंने अपनी स्मृतियों का सृजनात्मक उपयोग करते हुए कुमाऊँनी की दो सौ वर्षों की काव्य-परंपरा को अत्यंत कलात्मकता और रोचकता से पर्दे पर मूर्त कर दिया है। अङ्वाल फिल्म प्रारंभ होती है चिड़ियों की चहचहाहट और फिर बाँसुरी की धुन की मधुर आवाज़ और हिमालय के साथ खड़े सुन्दर पहाड़ों के नयनाभिराम दृश्यों से। ये वे पहाड़ हैं, जिनकी खुशबू लंदन में बसे सिनेकार ललित मोहन जोशी के व्यक्तित्व में गहराई तक समाई हुई है। ये पहाड़ हमेशा उनके दिल में बसे रहे हैं । इन पहाड़ों को और जन्मभूमि को छोड़ने की एक गहरी टीस उन्हें सदा सालती रही है। फिल्म में पहाड़ों का सौन्दर्य और सिनेकार की गहरी-भावपूर्ण और सम्मोहक आवाज का जादू दर्शकों को प्रारंभ से ही बाँध लेता है। आवाज के भावनात्मक आरोह-अवरोह के साथ ही साथ कैमरे का पहाड़ों के मनोहारी सौन्दर्य को परदे पर दिखाते हुए दर्शकों को मालौंज की हरी- भरी सुन्दर समतल घाटी में ले जाकर खड़ा कर देना दर्शकों के मन में सौन्दर्य बोध के साथ एक जिज्ञासा पैदा करता है; लेकिन अगले ही क्षण दर्शक जान जाते हैं कि यह सिनेकार का ननिहाल है। यहाँ उनकी माँ और मामाओं का जन्म हुआ था। इसी नैसर्गिक सौन्दर्य से परिपूर्ण भूमि ने उनके दोनों मामाओं को कविता रचने की प्रेरणा दी थी। माँ और मामाओं की पुश्तैनी जमीन पर खड़े होकर फिल्मकार अपने मामा श्यामचरणदत्त पंत को याद करते हैं। यहीं से यह फिल्म कुमाऊँनी काव्यधारा की ओर मुड़ जाती है और आत्मकथात्मकता से आगे जाकर व्यापक साहित्यक परिदृश्य में जा पहुँचती है, जहाँ वह अपने वैशिष्ट्य और उद्देश्य को प्रकट करती है।

विदेश में बस गए सिनेकार के हृदय में अपनी जन्मभूमि के प्रति अगाध नेह की नदी सतत प्रवहमान रही है। अपनी जन्मभूमि और पहाड़ों का सौन्दर्य उन्हें पुकारता है और वे दौड़ पड़ते हैं उसे गले लगाने। ‘अङ्वाल’ प्रसिद्ध कवि, बी.बी.सी.लंदन के प्रसारक, सिनेकार और साउथ एशियन सिनेमा फाउंडेशन लंदन के निदेशक ललित मोहन जोशी द्वारा निर्मित आत्मकथात्मक वृत्तचित्र है। इसमें ललित मोहन जोशी के ननिहाल की साहित्यिक परंपरा के साथ ही पूरी कुमाऊँनी कविता की गहन पड़ताल अनेक साक्षात्कारों और कविताओं की सांगीतिक प्रस्तुतियों के माध्यम से हुई है। ललित मोहन जोशी एक ऐसे सर्जक हैं, जिनकी सर्जना के अनेक आयाम हैं। उनमें एक साथ संवेदनाओं की आर्द्रता और मानवीयता की उष्मा है। अपने देश के प्रति असीम स्नेह, पूर्वजों के लिये मन में आदर और उनकी गौरवशाली साहित्यिक और सांस्कृतिक धरोहर को सहेजने की बलवती अभीप्सा ने उनसे ‘अङ्वाल’ जैसी बेहतरीन फिल्म निर्माण करा ही लिया। नितांत आत्मपरक ढंग से प्रारंभ हुई, यह फिल्म व्यापकता में कुमाऊँनी साहित्य के उन उज्ज्वल रत्नों का दिग्दर्शन कराती है, जिन्हें उतना महत्त्व नहीं मिला, जितना मिलना चाहिए और वे साहित्येतिहासकारों की दृष्टि से अलक्षित रह गए ।

ललित मोहन जोशी ने अङ्वाल के बहाने निजता से सामाजिकता की यात्रा सफलतापूर्वक पूर्ण की है। कसी हुई सुसंगत और सघन बुनावट में विनयस्त फिल्म की पटकथा, ललित मोहन जोशी की पहाड़ी घाटियों में गूँजती- सी गहरी और भावपूर्ण आवाज, पूना फिल्म संस्थान से शिक्षित रंगोली अग्रवाल के सुन्दर छायांकन, कुमाऊँ के प्रसिद्ध सरोद वादक चन्द्रशेखर तिवारी और बाँसुरीवादक हरीशचन्द्र पंत के सुन्दर संगीत तथा उत्तरा सुकन्या जोशी और कमला पांडे की सुमधुर आवाज़ के साथ कलात्मक ऊँचाई तक पहुँची है। श्यामचरणदत्त पंत कुमाऊँनी काव्य के सशक्त हस्ताक्षर थे। कुमाऊँ काव्य के शीर्ष कवि लोकरत्न पंत गुमानी से लेकर गौरीदत्त पाण्डेय ‘गौर्दा’, श्यामचरणदत्त पंत, रामदत्त पंत, त्रिभुवन गिरि, दिवा भट्ट, चारुचन्द्र पांडे, देव सिंह पोखरियाल जैसे कवियों की एक सुदीर्घ काव्य परंपरा रही है। ललित मोहन जोशी ने इसी काव्य परंपरा के श्रेष्ठ रचनाकारों, जिनमें उनके मामा श्यामाचरणदत्त पंत और रामदत्त पंत के अतिरिक्त अन्य महत्त्वपूर्ण कवियों के व्यक्तित्व और कृतित्व को अत्यंत प्रामाणिक और कलात्मक रूप से सामने लाने का सफल उपक्रम इस वृत्तचित्र में किया है। प्रामाणिकता के लिए उन्होंने रचनाकारों की हस्तलिपियाँ, उनकी कृतियाँ और साहित्य में रुचि रखने वाले व्यक्तियों, साहित्यकारों के परिजनों और वरिष्ठ साहित्यकारों से साक्षात्कारों का प्रयोग अङ्वाल में किया है। उन्होंने फिल्म को साहित्यिक दृष्टि से समृद्ध कर वास्तविकता का कलात्मक दस्तावेजीकरण किया है। देखा जाए, तो उत्तराखंड और अन्य पहाड़ी क्षेत्रों के अनेक हिन्दी के साहित्यकार जिनमें सुमित्रानंदन पंत, गोविंद वल्लभ पंत, शैलेश मटियानी, इलाचन्द्र जोशी, गोविंद चातक, रमेशचंद्र शाह, गौरापंत शिवानी, राजेश जोशी, मंगलेश डबराल, शेखर जोशी, लीलाधर जगूड़ी, वीरेन डंगवाल, रस्किन बॉण्ड आदि का संबंध इस पर्वतीय भूमि से रहा है; लेकिन अङ्वाल फिल्म कुमाऊँ के साहित्यकारों को केन्द्र में रखकर निर्मित की गई है। कुमाऊँ के कवियों की काव्ययात्रा से परिचित कराने और पहाड़ की समस्याओं को सामने लाना इसका उद्देश्य है। दर्शक इस फिल्म में सिनेकार के बड़े मामा श्यामचरणदत्त पंत के रचना संसार से परिचित होते हैं साथ ही, उन्हें यह भी पता चलता है कि श्यामचरणदत्त पंत नए कवियों और लेखकों के लिये प्रेरणा स्तंभ थे। फिल्म में शेखर पाठक बताते हैं कि छायावाद के प्रमुख तीन स्तंभों में से एक गोसाईदत्त पंत यानी सुमित्रानंदन पंत की बाल कविताओं को भी श्यामादत्त पंत ने परिष्कृत और परिमार्जित किया था; पर इस बात को शायद बहुत कम लोग जानते हैं। उन्होंने बताया कि वे जब इलाहाबाद स्थित स्टेट आर्काइव में शोध कार्य के दौरान सुमित्रानंदन पंत से मिले थे, तो सुमित्रानंदन पंत ने उन्हें यह बात बताई थी। फिल्म से ही यह पता चलता है कि सुमित्रानंदन पंत ने कुमाऊँ में केवल एक कविता ‘अचल’ पत्रिका के संपादक जीवनचन्द्र जोशी और साहित्यकार गोविंद वल्लभ पंत की प्रेरणा से बुरांश पर लिखी थी। बुरांश पहाड़ी जंगलों का सौन्दर्य है सुमित्रानंदन पंत इस कविता में बुरांश को अद्वितीय बताते हैं। बुरांश जब फूलता है, तो ऐसा लगता है मानो जंगल जल रहा हो। फिल्म में इस कविता का बेहद भावपूर्ण पाठ ललित मोहन जोशी ने किया है। वे कविता की केन्द्रीय संवेदना को दर्शकों तक पहुँचाने में सफल रहे हैं। ‘अङ्वाल’ फिल्म दर्शकों को साहित्यकारों के व्यक्तित्व और कृतित्व पर नई जानकारियों से समृद्ध करती है। मालौज में जन्मे श्यामाचरणदत्त पंत ने अनेक संभावनाशील रचनाकारों और पारिवारिक सदस्यों को लिखने की प्रेरणा दी। फिल्म में श्यामचरणदत्त पंत के पौत्र, दिवाकर पंत ने बड़े विस्तार से श्यामाचरणदत्त पंत के साहित्यिक अवदान को रेखांकित करते हुए बताया है कि 1952 में उन्होंने कैलाश मानसरोवर की यात्रा की थी। दरअसल उनकी यह यात्रा धार्मिक से अधिक सांस्कृतिक यात्रा थी। 1962 में जब चीन ने भारत पर आक्रमण किया था, तब उन्होंने कुमाऊँनी में एक भावपूर्ण कविता लिखी थी, जिसका केन्द्रीय भाव यही था कि कैलाश हमारा है और हमारे शिव का अमर निवास है। श्यामचरणदत्त पंत ने एक बड़ा काम श्रीमदभगवतगीता का कुमाऊँनी में काव्यानुवाद किया था। एक तरह से उन्होंने कुमाऊँनी में भगवत गीता का पुनःसृजन किया था। अङ्वाल में फिल्मकार ललित मोहन जोशी ने श्यामचरणदत्त पंत की काव्य-रचनाओं और सुन्दर हस्तलिपि वाली पांडुलिपि को भी प्रदर्शित किया है, जो दर्शकों का ध्यान आकर्षित करती हैं। श्यामचरणदत्त पंत की कविताओं के भाव जितने उदात्त हैं, उतना ही समृद्ध उनका शिल्प है। अङ्वाल में उनकी ‘घट’ और ‘ताल’ जैसी दो कविताओं की सांगीतिक प्रस्तुति फिल्म को खास बनाती है। उनकी ताल कविता को उत्तरा सुकन्या जोशी ने अत्यंत मधुरता से स्वरबद्ध किया है। ताल के जल को फेनिल बनाते चप्पू और हिलती जल लहरियों और स्वर लहरियों में दर्शक डूब जाते हैं। इस गीत के बोल ‘थक मत चला, चला पतवार’ मनुष्य को श्रीमद्भगवतगीता के कर्मसिद्धांत को आत्मसात् करने और विपरीत परिस्थितियों में धैर्य रखने की प्रेरणा देते हैं। नाव में सवार पाँच व्यक्ति- पाँच इन्द्रियों के प्रतीक हैं। इन इन्द्रियों को सम्हालने की जिम्मेदारी खेवनहार पर है; इसलिए उसे सजग और सचेत रहने की सीख श्यामाचरणदत्त पंत जी देते हैं। इस गीत का फिल्मांकन पर्दे पर अत्यंत कलात्मकता से किया गया है। फिल्म में नाव खेता हुआ नाविक हमें गतिशील रहने की प्रेरणा देता है। ललित मोहन जोशी के छोटे मामा रामदत्त पंत भी प्रतिभाशाली कवि थे। उनके काव्य संग्रह ‘गीतमाला’ को उनकी पुत्री विनता पांडे ने सहेजकर रखा है; यद्यपि उनका बहुत- सा साहित्य संरक्षित न हो पाने के कारण साहित्यजगत् के सामने नहीं आ पाया है।

फिल्मकार ललित मोहन जोशी के पूर्वज और कुमाऊँनी, संस्कृत, नेपाली और हिन्दी भाषा में लिखने वाले लोकरत्न पंत गुमानी संस्कृत भाषा के श्रेष्ठ कवि थे। गुमानी जी ने ऐसे श्लोक भी रचे हैं, जिनकी चार पंक्तियों में से पहली हिन्दी, दूसरी कुमाऊँनी, तीसरी नेपाली और चौथी पंक्ति संस्कृत में है। अंङ्वाल फिल्म में परदे पर इस अनेक भाषा के श्लोक को देखकर अचानक अमीर खुसरों की मशहूर गज़ल ‘जे़ हाले मिसकीं मकुन तगाफुल दुराय नैना बनाय बतियाँ’ कौंध गईं, जिसमें एक पंक्ति फारसी तो दूसरी हिन्दी में है। लोकरत्न पंत गुमानी का समय 1791-1846 तक है। उनकी खड़ी बोली हिन्दी की कविताओं के आधार पर उन्हें आधुनिक हिन्दी कविता के प्रथम कवि के रूप में इतिहास में दर्ज किया जाना चाहिए। गुमानी जी की हिन्दी कविताओं के वर्ण्य-विषयों में तत्कालीन जीवन और आमजन की समस्याएँ, समाज सुधार, लोक जीवन, हास्य व्यंग्य और प्रकृति चित्रण, देशप्रेम और राष्ट्रीय चेतना प्रमुख है। वे राजकवि थे; किन्तु उन्होंने अपनी रचना ‘रंगरेजस्य राज्यवर्णनम्’ में अंग्रेजी राजव्यवस्था की कड़ी आलोचना की; पर संभवतः संस्कृत भाषा में होने के कारण अंग्रेज इसे समझ नही पाए और उन्होंने इस पर प्रतिबंध नहीं लगाया। अङ्वाल फिल्म में लोकरत्न पंत गुमानी की लोकप्रियता और उनकी रचनाधर्मिता को अत्यंत प्रामाणिकता के साथ प्रदर्शित किया गया है। उनकी काफल और हिसालू जैसी कविताएँ विद्यार्थियों और आमजन को उस वक्त कंठस्थ थीं, जब ये कविताएँ प्रकाशित भी नहीं हुई थीं। स्वयं सिनेकार को बचपन से आज तक उनकी कविताएँ याद हैं। यह गुमानी जी की लेखनी की ताकत है। ‘अङ्वाल’ में शेखर पाठक ने गुमानी जी की ‘विधवा’ कविता का जिक्र करते हुए इसे ‘विधवा’ जीवन पर लिखी मार्मिक कविता बताया है। हिन्दी के प्रसिद्ध कवि निराला ने भी विधवा स्त्री की मर्मांतक पीड़ा और दुर्दशा का चित्रण अपनी विधवा कविता में किया है। ‘अङ्वाल’ फिल्म हिन्दी साहित्य के शोधर्थियों और आलोचकों को लोकरत्न पंत गुमानी के साहित्यिक अवदान के पुनर्मूल्यांकन की प्रेरणा देकर उत्प्रेरक का काम करती है।

अङ्वाल में सिनेकार ललित मोहन जोशी के मालौंज पहुँचने की उत्सुकता और व्यग्रता दर्शकों की भी उत्सुकता बढ़ाती है। हाथ में छाता लेकर लम्बे-लम्बे डग भरते हुए ललित मोहन जोशी के पीछे-पीछे दर्शक भी मालौंज पहुँचते हैं, जहाँ वे अपने नाना के घर के खंडहरों को देखकर दुखी होकर भावुक हो जाते हैं। वह घर, जिसमें कभी बहुत रौनक थी, आज कुछ टूटी- फूटी दीवारों के रूप में ही शेष है।

कुमाऊँनी कविता की पड़ताल करते हुए ललित मोहन जोशी फिल्म के कथा-सूत्र को लेकर साहित्य और संस्कृति के केन्द्र अल्मोड़ा जा पहुँचते हैं, जहाँ वे वरिष्ठ कवि त्रिभुवन गिरि जी मिलते हैं। त्रिभुवन गिरि कुमाऊँनी काव्य के एक और महत्त्वपूर्ण कवि गौरीदत्त पांडेय ‘गौर्दा’ के रचना संसार पर लम्बी बातचीत करते हैं। गौरीदत्त पांडेय ने ‘चाय’ पर एक लम्बी कविता लिखी थी। मंजुल कुमार पांडेय ने भी गौर्दा के रचना- संसार पर विस्तार से बात की है। फ़िल्म में उनकी चाय पर लिखी कविता का सुंदर सांगीतिक फिल्मांकन हुआ है। वसुधा पांडे ने बताया कि गौर्दा कुमाऊँ की राष्ट्रीय चेतना के कवि थे। उनकी कविता में गहन सामाजिक सरोकार थे ‘बेगार’ आंदोलन पर उन्होंने ‘कुली’ कविता लिखी थी, जो इस आंदोलन की जागरण कविता बन गई थी। गौर्दा की कविताओं की सराहना गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने की थी। उनकी कविता इतनी भावप्रवण थी कि गुरुदेव ने उसे कुमाऊँनी में सुनकर ही समझ लिया था और उसका अंग्रेजी अनुवाद सुनने से मना कर दिया था। जन आंदोलन पर लिखी उनकी कविताओं की प्रशंसा गाँधी जी ने भी की थी। वृक्ष पर लिखी उनकी कविता ‘चिपको आंदोलन’ के समय सांस्कृतिक अस्त्र के रूप में प्रयुक्त हुई थी। फिल्म में वसुधा पांडे ने उनकी ‘आलू’ पर लिखी कविता का सुन्दर पाठ किया है। अङ्वाल फिल्म में ‘गौर्दा’ के रचना- संसार की गहन दृश्यात्मक पड़ताल है। दिवा भट्ट, त्रिभुवन गिरि, वसुधा पांडे, मंजुल कुमार पांडेय और शेखर पाठक से हुई बातचीत के आधार पर फिल्मकार दर्शकों को इस निष्कर्ष तक ले जाने में सफल रहे हैं कि गौरीदत्त पांडेय गौर्दा कुमाऊँनी काव्य के महत्त्वपूर्ण कवि हैं।

फिल्म दर्शाती है कि स्वातंत्र्योत्तर काव्य के एक अन्य महत्त्वपूर्ण कवि चारुचन्द्र पांडे ने कुमाऊँनी कवि गौर्दा पर महत्त्वपूर्ण काम किया है। ‘छोड़ो गुलामी की किताब’ उनकी महत्त्वपूर्ण रचना है। उनकी कविता ‘बुरूंशी का फूल’ में वसंत के बाद के मौसम और उसके परिप्रेक्ष्य में हिमालय की सुन्दरता का अत्यंत चित्रात्मक वर्णन हुआ है। चारुचन्द्र पांडे एक बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी थे। रामलीला और नाटकों का मंचन, संगीत में गहरी रुचि रखने वाले चारुचन्द्र पांडे, नई पीढ़ी के निर्माता थे। वे कहानीकार भी थे और साहित्य के श्रेष्ठ अध्यापक थे। भारत के तत्कालीन उपराष्ट्रपति श्री वी.वी.गिरि ने उन्हें अध्यापन के क्षेत्र में प्रशंसनीय कार्य करने के लिए सन् 1968 में सम्मानित किया था। अङ्वाल में उनकी कविता ‘कैसो अनाड़ी घनश्याम’ को लोक कलाकारों ने बहुत ही सुन्दर ढंग से गाया है।

‘अङ्वाल’ में पलायन की समस्या को भी बड़ी मार्मिकता से चित्रित किया गया है। फिल्म के निर्माता, निर्देशक और पटकथा लेखक ललित मोहन जोशी, जब शिलौटी में अपने पुश्तैनी बंगले में पहुँचते हैं, तो एक गहरी उदासी उन्हें घेर लेती है। इस घर में उनका बचपन बीता है। ताले लगे एक कमरे को देखकर, वे अपने दादा पंडित रामदत्त ज्योतिर्विद् जी को याद करते हैं । इसी कमरे में उनके दादा सुबह-सुबह रघुवंश, अमरकोश और रामरक्षा स्त्रोत याद कराते थे। यहाँ पहुँचकर ललित मोहन जोशी स्मृतियों की मंजूषा खोलते नजर आते हैं, जिसमें विगत काल के भावपूर्ण क्षण परदे पर मूर्त होते जाते हैं, वह बरामदा, जिसमें खड़े होकर कभी बालक ललित मोहन जोशी हल्द्वानी से आने वाली उस बस को देखते थे, जिससे उनके चाचा आया करते थे, वह स्कूल, जिसमें बैठकर वे पहाड़े याद करते थे। अङ्वाल में फिल्मकार ने उसी स्कूल में पढ़ने वाले छोटे बच्चे को ‘हंसवाहिनी माँ सरस्वती’ की प्रार्थना करते हुए फिल्माया है। इस दृश्य में स्कूल में बच्चों के पीछे खड़े ललित मोहन जोशी अपने बचपन की स्मृतियों की पुनर्रचना करते जान पड़ते हैं। यहाँ शायद वे भावनाओं के स्तर पर स्वयं छोटे बच्चे में रूपांतरित होकर काल की सीमाओं का अतिक्रमण करते हैं। यह फिल्म का बेहद भावपूर्ण हिस्सा है। स्मृतियाँ फिल्मकार को गहरी उदास लहरों में डुबोती हैं और दूसरे ही क्षण वे उन्हें यथार्थ के निर्मम तट पर लाकर छोड़ देती हैं। अब दर्शकों के सामने सुन्दर पहाड़ हैं; लेकिन वे अकेलेपन के दर्द से जूझ रहे हैं। दिवा भट्ट और शेखर पाठक ने अपनी बातचीत में यह पीड़ा व्यक्त की है। श्यामचरणदत्त पंत बहुत पहले अपनी कविताओं में इस समस्या का सांकेतिक चित्र प्रस्तुत कर चुके हैं। समकालीन कवि त्रिभुवन गिरि ने ‘बांजि कुड़िक पहरू’ बंजर घर का प्रहरी और दिवा भट्ट ने ‘उ छी म्योर च्योल’ जैसी कविता में पलायन की पीड़ा को गहनता से अभिव्यक्त किया है। पहाड़ों में पिछले चालीस वर्षों में से पलायन इस तेजी से हुआ है कि फिल्म में प्रायः हर घर में लटके ताले इन सूने घरों के अभिशप्त और अंततः खंडहर में तब्दील हो जाने की नियति-कथा को बयान कर रहे हैं । ललित मोहन जोशी शीतलाखेत की ओर प्रस्थान करते हैं और यहाँ का नैसर्गिक सौन्दर्य को देखकर मन्त्रमुग्ध हो जाते हैं।

यहाँ आकर वे दिवा भट्ट और देव सिंह पोखरिया से बातचीत करते हैं। दिवा भट्ट बताती हैं कि सुमित्रानंदन पंत की जन्मस्थली कौसानी में उनकी शिक्षा दीक्षा हुई। यहीं उन्होंने ऋतुराज बसंत पर एक गीत लिखा था। फिल्म में दिवा जी ने यह गीत गाया है। इस गीत में प्रकृति का सौन्दर्य पर्दे पर साकार हुआ है। पिथौरागढ़ के कवि देवसिंह पोखरिया की कविता ‘धोंसियाँ ठोक दे निसान’ देवताओं को जगाने की बजाय पहाड़ों की जनता को जाग्रत करने का संदेश देती है। दिवा भट्ट ने देश की सीमा पर शहीद हो जाने वाले वीर सैनिक की माँ के हृदय विदारक गहन दुख और मर्मांतक पीड़ा को व्यक्त किया है। शहीद की माँ को सब धीरज देते हैं; पर उसका बेटा, जो भारत माँ के लिए शहीद हो गया और जीवन भर के लिए माँ का आँचल भिगो गया, अखबारों में उसकी तस्वीर छपी है। सभी माँ को धैर्य देते हैं कि तुम्हारी तकदीर अच्छी है कि बेटा मातृभूमि के लिए शहीद हुआ; लेकिन माँ किस तरह धीरज रखे। फिल्म में यह गीत एक गहरी करुणा और उदासी को जन्म देता है। एक शहीद की अंतिम यात्रा का दृश्य दर्शकों की आँखें नम कर जाता है।

इस तरह अङ्वाल एक प्रवासी भारतीय के हृदय की भी रेशा-रेशा पड़ताल करती है। फिल्म के आखिरी पन्द्रह मिनिट पूर्व वे कहते हुए नजर आते हैं कि मेरा मन दुबारा मालौंज जाने का हो रहा है। वहाँ अब मामा का घर तो नहीं है; पर वह घट (पनचक्की) है जिस पर उनके मामा ने ‘घट’ शीर्षक से बड़ी दार्शनिक कविता लिखी थी, जो शाश्वत है। यह वही घट है, जिसे कबीर जैसे कवियों ने प्रतीक के रूप में अपनी साखियों में प्रयुक्त किया है। ‘अङ्वाल’ फिल्म के अंत में श्यामचरणदत्त पंत की कविता घट जीवन की सच्चाई को पूरी दार्शनिकता के साथ अभिव्यक्त करती है। वस्तुतः ‘घट’ के माध्यम से श्यामचरणदत्त पंत जी ने जीवन की सच्चाई का बयान किया है। मनुष्य का जीवन भी चक्की के समान अनवरत चलता रहता है, कभी वह भरता और कभी खाली होता रहता है। ‘अङ्वाल’ फिल्म का अंत इसी गीत से होता है। अङ्वाल फिल्म का वैशिष्ट्य यही है कि सिनेकार ललित मोहन जोशी अपने उद्देश्य को दर्शकों तक पहुँचाने में सफल रहे हैं। भले ही फिल्म का प्रारंभ ललित मोहन जोशी की आत्मकथात्मक पंक्तियों से हुआ हो; लेकिन यह फिल्म सभी की है। जो अपनी मातृभमि से दूर हैं। फिल्म देखकर वे हृदय में गहरी वेदना को अनुभव करते हुए आकुल हो जाते हैं, उसकी और लौटने के लिए। स्वयं फिल्मकार भी अपने को अपराधी मानते हुए आत्म आलोचना की डगर पर चल पड़ते हैं। फिल्म में संवेदना की इतनी गहराई और तरलता है कि दर्शकों उसमें आकंठ डूब जाते हैं।

कुमाऊँनी काव्य की जिस दो सौ वर्षों की काव्य- यात्रा को फिल्म में प्रस्तुत किया गया है, वह ललित मोहन जोशी की साहित्यिक अभिरुचि, विरासत में मिले साहित्यिक संस्कारों और गहन शोध के कारण संभव हुआ है। कुमाऊँनी कविता राष्ट्रीय और सांस्कृतिक चेतना, प्रकृति चित्रण, सामाजिक समस्याओं, पलायन की पीड़ा और शहीद की माँ के दर्द के साथ गहन जीवन दर्शन को अभिव्यक्त करती है।

अङ्वाल फिल्म आत्मकथात्मक फिल्म है, जिसे पूरी कलात्मकता से कला में ढाल दिया गया है। विश्व सिनेमा में अनेक आत्मकथात्मक फिल्में बनी हैं जिनमें ब्रिटेन के टेरेंस डेविस, जो पटकथा लेखक निर्माता और निर्देशक थे, प्रमुख हैं। उनकी ‘डिस्टेंट वाइसेस’, ‘स्टिल लाइव्स’ और ‘लौंग डे क्लोज़ेस’ ऐसी आत्मकथात्मक फिल्में हैं, जिनसे उन्हें अन्तरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त हुई है। सिनेकार जोआना हॉग की आत्मकथात्मक फिल्म ‘द सोवेनियर’ बहुत ईमानदारी से आत्मनिरीक्षण करने वाली साहसिक फिल्म है। आत्मकथात्मक फिल्मों में, जौं विगो द्वारा निर्देशित 1933 में रिलीज हुई फिल्म ‘ज़ीरो फॉर कन्डक्ट’ एक ऐसी फिल्म थी, जिसे तत्कालीन समय में बहुत विरोध झेलना पड़ा था। यह बारह वर्षों तक प्रतिबंधित रही। किन्तु बाद में इस फिल्म को सच्चाई दर्ज करने वाली फिल्म के रूप में अपार सफलता मिली थी। स्कॉटिश फिल्म निर्माता बिल डगलस की ‘माय चाइल्डहुड’, ‘माय ऐन फोक’ और ‘माय वे होम’ जैसी फिल्मों की प्रेरणा जीवन के भयावह अनुभव रहे हों, पर ये फिल्में सार्वभौमिकता को प्राप्त करती हैं। जार्ज लुकास की 1973 में आई फिल्म ‘अमेरिकन ग्रैफ़िटी’ तथा रूसी निर्देशक आंद्रेई तारकोवस्की की 1975 में आई ‘मिरर’ जो स्मृतियों को यथार्थ अनुभवों से बुनी एक अद्भुत आत्मकथात्मक फिल्म है। इन्हीं फिल्मों की अगली कड़ी के रूप में निर्माता, निर्देशक, पटकथा लेखक, शोधकर्ता, साहित्यकार और साउथ इंडिया सिनेमा फाउंडेशन के निदेशक ललित मोहन जोशी द्वारा निर्मित फिल्म अङ्वाल है। गहन सामाजिक सरोकारों, साहित्यिक और सांस्कृतिक धरोहरों को सहेजने सफल फिल्म वाली है। आत्मवृत्तांत से प्रांरभ होकर अंत तक आते-आते सामाजिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक वृत्तांत बनने वाली अङ्वाल निश्चित ही एक अन्तरराष्ट्रीय स्तर की श्रेष्ठ फिल्म है। फिल्मकार ने स्थानीय भाषा में निर्मित फिल्म को अपनी संवेदनात्मक गहराई और कैमरे की सूक्ष्म संवेदनशील आँख और गत्यात्मकता से जिस खूबसूरती से पर्दे पर रचा है। वह दर्शकों को सोचने के लिए विवश करती है, अन्तर्दृष्टि देती है, आत्मसाक्षात्कार कराती है और कुमाऊँनी साहित्य की गहन पड़ताल करती है।

फिल्म के निर्माता, निर्देशक, पटकथा लेखक ललित मोहन जोशी की इस महत्वाकांक्षी फिल्म में संगीत चन्द्रशेखर तिवारी और हरीशचन्द्र पंत ने दिया है। ब्रिटेन में जन्मी युव गायिका उत्तरा सुकन्या जोशी की कर्णप्रिय आवाज में निबद्ध तालगीत और कमला पांडे के द्वारा लोक शैली में गाए गीत ‘अङ्वाल’ की केन्द्रीय संवेदना को मुखर करते हैं। स्मित तिवारी का सरोद और नितेश विष्ट की बाँसुरी इस फिल्म के संगीत की आत्मा है। विकल्प पाण्डेय के अनूठे फिल्म संपादन ने अङ्वाल को एक काव्यात्मक और संगीतात्मक गति प्रदान की है, जो दर्शकों को भावनाओं की तरंगों में डुबे देती है। रंगोली अग्रवाल के सुन्दर छायांकन के साथ फिल्म के संवादों का अंग्रेजी रूपांतरण, कुमाऊँनी कविताओं और गीतों का अंग्रेजी में सफल और भावपूर्ण अनुवाद इतिहासकार और चर्चित लेखिका डॉ. कुसुम पंत जोशी ने किया है। प्रसिद्ध पर्यावरणविद् और इतिहासकार शेखर पाठक, त्रिभुवन गिरि, देव सिंह पोखरिया और विनिता पांडे ने फिल्म को पूर्णता तक पहुँचाने में सहयोग दिया है।

सुसंगत और गहन शोधपरक पटकथा की सघन बुनावट, सिनेकार ललित मोहन जोशी की गहरी अन्तर्दृष्टि और उनकी आवाज का इन्द्रजाल फिल्म की बेहतर सिनेमैटोग्राफी, पहाड़ों की प्राकृतिक छबियों को कैद करते कैमरे के शॉट्स की शृंखला, और हृदय को छूने वाले मधुर संगीत और कुमाऊँ के साहित्यकारों के योगदान को दर्शकों के सामने लाने और संरक्षित करने में समर्थ ‘अङ्वाल’ निश्चित ही एक बेजोड़ फिल्म है।