कुमाऊः एक समग्र परिचय / अशोक कुमार शुक्ला
समीक्षा: ‘कुमाऊँ एक समग्र परिचय’
हाल ही में (एक्टीविस्ट्स आफ वालेन्ट्री एक्शन फार डेवलपमेन्ट आफ ह्यूमेनिट) ‘अवध’ द्वारा वरिष्ठ अधिवक्ता शीलेन्द्र कुमार द्वारा लिखी एक पुस्तक 'कुमाऊः एक समग्र परिचय’ प्रकाशित की गयी है।
कानून के क्षेत्र जुडे इसके लेखक ने माननीय न्यायालय में प्रस्तुत की जाने वाली किसी रिट याचिका की तरह कुमाउं के ऐतिहासिक संदभों से लेकर आज के प्रश्नों तक विहंगम दृष्यावलोकन करने में उत्तराखण्ड से प्रकाशित होने वाले विभिन्न सामयिक पत्रों (विशेष रूप से शेखर पाठक द्वारा पहाड के विभिन्न अंकों में प्रकाशित सामग्री) का जो संदर्भ उपयोग किया है वह इस पुस्तक को एक मिनी शोध प्रबंध का स्वरूप प्रदान करता हैै। इसे मिनी शोध प्रबंध इसलिये उच्चारित किया है क्योंकि इसके प्रत्येक अध्याय में संकलित एक एक सामग्री के लिये पृथक से शोध प्रबंध लिखे जा सकते हैं।
इस प्रकार यह पुस्तक कुमाऊँ के विभिन्न सोपानों के विशाल कलेवर का संक्षिप्त रूप में प्रस्तुतीकरण है। कुमाऊँ के ऐतिहासिक एवं राजनैतिक सन्दर्भो की पडताल करता अध्याय इस क्षेत्र के सामजिक परिपेक्ष्य में यहाँ निवास करने वाली विभिन्न जातियों का ब्यौरा तो प्रस्तुत ही करता है साथ ही इन जातियों के स्त्रोत को भी ढूंढने का प्रयास करता हुआ जान पडता है। हाँलांकि कुमाऊँ के प्रसिद्ध जागरों के संबंध में डॉ0 त्रिलोचन पाण्डेय की पुस्तक से उद्धृत ब्यौरा अनेक स्थानीय शासको के निमित्त बने जागर के गान अंकित न होने के कारण अधूरे अवश्य जान पडतें हैं।
कुमाऊँनी भाषा से परिचित कराने वाले अध्याय में लेखक ने 1791 में जन्में कवि गुमानी से लेकर आज दैनिक हिन्दुस्तान के संपादक श्री नवीन जोशी तक को संकलित करते हुये समाहित करने का प्रयास अवश्य किया है परन्तु श्री शैलेश मटियानी के संबंध में लिखते हुये उन्होंने विस्तार के जिस फलक को छुआ है कदाचित अन्य लेखक कवियों के संबंध मे लिखते समय वे न्यूनत शब्दों की कृपणता की सीमा को भी लांधते हुये नजर आते हैं।
कुमाऊँ की आध्यात्मिक विरासत में नानतिन महाराज से लेकर रौखडिया बाबा तक अनेक संतों का विवरण अंकित है जिसमें नानतिन महाराज के द्वारा परीक्षित सामान्य रोगों के आयुर्वेदिक दवाओं के नुस्खे का वर्णन विशेष उल्लेखनीय है जिसमें दाद से लेकर खुनी बवासीर जैसे रोगों में लाभ प्रदान करने वाली सामान्य आयुर्वेदिक औषधियों का वर्णन है । यह वर्णन बाबा नानतिन के परिचय के साथ प्रासंगिक तो हो सकता है परन्तु आध्यात्म शीर्षक के अंतरगत अवांछनीय सा जान पडता है।
इस अध्याय में भी बाबा नीम करौरी महाराज के संबंध में में लिखते हुये लेखक ने विस्तार के जिस फलक को छुआ है कदाचित कुमाऊँ के अन्य आध्यात्मिक विभूतियों के संबंध मे लिखते समय वे न्यूननत शब्दों की कृपणता की सीमा की वही पुनरावृति करते हुये दिखलायी पडे हैं जैसी कुमाऊँ भाषा के विकास से संबंधित अध्याय में शैलेश मटियानी के अतिरिक्त अन्य लेखकों के विषय में लिखते हुये। हांलांकि इस अध्याय में कुमाऊँ में इसाई मिशनरी के अभ्युद्य से लेकर इसके बढते प्रभाव पर भी लेखनी चलायी गयी है परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि उत्तराखंड में इसाई मिशनरी के दुष्प्रभाव के संबंध में विषय विस्तार करने में लेखक ने संकोच किया है।
भू प्रबंधन खेती और व्यवसाय में पर्वतीय राज्य की दोहरी भूमि प्रबंधन व्यवस्था की पडताल की गयी है जिसमें एक ओर वन्य भूमि प्रबंधन है तो दूसरी ओर कृषि और उससे संलग्न भूमि का प्रबंधन। इस अध्याय मे प्रबंधन की आधारशिला ब्रिटिश पटवारी व्यवस्था के साथ कृषि दास प्रथा का भी सटीक वर्णन किया गया है। इस अध्याय में उत्तराखंड में फलोद्यानों की शुरूआत के रूप में अंग्रेज हाकिमों द्वारा 1869 में चौबटिया के जागदेव वन भूमि में पचास एकड. भूमि पर फल पौघ नर्सरी तथा बगीचे से प्रारंभ हुयी कुशल योजना से आरंभ करते हुये आजाद भारत में स्थानीय निवासियों की सहभागिता के आधार पर बनायी गयी योजना वन पंचायतों तक का विकास क्रम अंकित किया है। यही नहीं लठ पंचायत काली कुमाऊँ और वर्तमान ‘कांन्ट्रेक्ट सप्लाई ’ तक के सफर को समाहित करते हुये व्यवस्था का ऐसा सटीक और व्यवहारिक स्वरूप प्रस्तुत किया है जिसमें लोकतांत्रिक सरकारों की भूमिका और गठजोड भी साफ इंगित होता है। हांलांकि इसके लेखन की शैली समीक्षात्मक न होकर सूचनात्मक है। जैसे:-
‘‘................कलौं भी उक मध्यम ऊँचाई पर उगने वाला धान है। यह इसके औषधीय गुणों के कारण जाना जाता है।जब महिलाओं को प्रदर रोग होता है तो इसका भात उन्हे खिलाया जाता है। भलौं, बांकुआ, मकरन्द, बंगोई, ढणसालू, लठमार, चीणाबुरी, रत्वा, खिमलू, सुनकर, जमोलू , कफलिया, बिन्दुली, सौक्याण, कालजडिया आदि धान की महत्वपूर्ण असिंचित प्रजातियाँ है जिनपर पेटेंट वालों की नजर अभी नहीं लगी है।..............’’
भारतीय सेना को तीन तीन सेनाध्यक्ष देने वाली कुमांऊँ बटालियन के विकसित शौर्य को समेटता कुमांऊँ सैन्य इतिहास संबंधी अध्याय अपने स्थापित शोर्य के सम्मुख कुछ छोटा जान पडता है। इस अध्याय में शासक पृथ्वी नारायण शाह 1742-74 के समय से प्रारंभ हुयी सैनिकों की भर्ती से लेकर 1947 के बाद जनरल टी 0एन0 रैना 1975-78 तक के सैन्य इतिहास को सम्मिलित किया गया है ।
पुस्तक का अंतिम अध्याय आज के प्रश्नों पर आधारित है जिसमें लेखक द्वारा गोरखों के आक्रमण से पहले पलायन के नाम से अपरिचित उत्तराखण्डी जनता के लिये गोरखों के शासनकाल में क्रूरतम विभीषिका के कारण आरंभ हुये उस पलायन का आकलन करने का प्रयास किया गया है जिसकी सीमा देश की स्वतंत्रता के बाद नार्थ प्राविन्स को तीन तीन उत्राखण्डी मुख्यमंत्री देने के बावजूद और अंततः पृथक उत्तराखण्ड राज्य बन जाने के बाद भी नहीं रूक सका है। इसके कारणों की पडताल करते हुये लेखक 1974 से प्रत्येक दस वर्ष के अन्तराल पर सम्पन्न हुयी अस्कोट आराकोट अभियान के निर्ष्कषों के आधार पर इसे प्रदेश में आयी नये नेताओं की फौज से लेकर विभिन्न ठेकेदारों और नवधनाड्य वर्ग के उदय को विभिन्न रूपों में उत्तरदायी मानते हुये कुछ सुझावात्मक शीर्षको को समाहित करते हुये वर्तमान में इस क्षेत्र में कार्यरत स्वायतशासी संस्थाओं और उनके उद्देश्यों की भी चर्चा की है। लेखक के अनुसार आज भी गाँव में अस्सी प्रतिशत से अधिक मनीआर्डर फौज से ही आते हैं जिससे स्वतः स्पष्ट होता है कि पृथक राज्य बन जाने के बावजूद आज भी उत्तराखंड के ग्रामों की अर्थव्वस्था पहले की तरह मनीआर्डर के सहारे ही चल रही है।
पुस्तक का अंतिम अध्याय आज के प्रश्नों पर आधारित है जिसमें लेखक द्वारा गोरखों के आक्रमण से पहले पलायन के नाम से अपरिचित उत्तराखण्डी जनता के लिये गोरखों के शासनकाल में क्रूरतम विभीषिका के कारण आरंभ हुये उस पलायन का आकलन करने का प्रयास किया गया है जिसकी सीमा देश की स्वतंत्रता के बाद नार्थ प्राविन्स को तीन तीन उत्राखण्डी मुख्यमंत्री देने के बावजूद और अंततः पृथक उत्तराखण्ड राज्य बन जाने के बाद भी नहीं रूक सका है। इसके कारणों की पडताल करते हुये लेखक 1974 से प्रत्येक दस वर्ष के अन्तराल पर सम्पन्न हुयी अस्कोट आराकोट अभियान के निर्ष्कषों के आधार पर इसे प्रदेश में आयी नये नेताओं की फौज से लेकर विभिन्न ठेकेदारों और नवधनाड्य वर्ग के उदय को विभिन्न रूपों में उत्तरदायी मानते हुये कुछ सुझावात्मक शीर्षको को समाहित करते हुये वर्तमान में इस क्षेत्र में कार्यरत स्वायतशासी संस्थाओं और उनके उद्देश्यों की भी चर्चा की है। लेखक के अनुसार आज भी गाँव में अस्सी प्रतिशत से अधिक मनीआर्डर फौज से ही आते हैं जिससे स्वतः स्पष्ट होता है कि पृथक राज्य बन जाने के बावजूद आज भी उत्तराखंड के ग्रामों की अर्थव्वस्था पहले की तरह मनीआर्डर के सहारे ही चल रही है।
कोई भी पाठक इस पुस्तक को अद्योपान्त पढने के बाद यह बात निर्विवाद रूप से कह सकता है कि अवध की जमीन पर पहाड को खोजने का यह प्रयास सांस्कृतिक एकता को संजोने का उल्लेखनीय प्रयास है।