कुरीतियों के हाथी पर अंकुश है जरूरी / जयप्रकाश चौकसे

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कुरीतियों के हाथी पर अंकुश है जरूरी
प्रकाशन तिथि : 04 फरवरी 2022


महामारी ने जीवन में बड़े परिवर्तन पेश किए हैं। मसलन, पश्चिम में नेक टाई बांधना लगभग समाप्त हो गया है। कॉर्पोरेट संसार में नेक टाई पहनना परंपरा बन गया है। नेक टाई की कीमतें पांच सौ रुपए से लेकर तो पांच हजार तक पहुंच गईं। सिल्क की नेक टाई बहुत महंगी होती है। आश्चर्य है कि सबसे कम कपड़ा नेक टाई और अंतर्वस्त्र में लगता है परंतु इनके दाम बहुत अधिक रहते हैं।

टाई की गठान सरल तरीके से भी बांधी जाती है और उसे दोहरी गांठ देकर बांधने को डबल नॉट भी कहा जाता है। हमारी गुलामी के दौर में कुछ सिनेमाघरों में बालकनी में बैठने वाले दर्शकों के लिए टाई बांधना अनिवार्य कर दिया गया था। मजबूर होकर सिनेमा मालिकों को टिकट के साथ दर्शकों को टाई भी देनी पड़ती थी। शो खत्म होने पर दर्शक, टाई लौटा भी देते थे। चिंदी चोर तो सभी जगह हमेशा होते हैं। एक दौर में इंदौर के रीगल टॉकीज में बालकनी के दर्शकों के लिए टाई पहनना अनिवार्य होता था। आज पारंपरिक नेक टाई की लंबाई घटा दी गई है। आजकल कुछ सितारे बिबनुमा टाई बांधते हैं। टाई का निचला हिस्सा चौड़ा होता है। आजकल सभी साइज समान कर दिए गए हैं। महामारी के दौर में छोटी-बड़ी सभी बातों में परिवर्तन ला दिया गया है। कॉर्पोरेट ने भी समयानुसार सभी चीजों और फैशन में परिवर्तन कर दिए हैं। खेल-कूद क्षेत्र में भी कपड़ों में परिवर्तन आया है। इस क्षेत्र में इतना शोध किया गया है कि प्रतियोगिता के पहले तैराक के शरीर के सारे बाल हटा दिए जाते हैं। क्योंकि बाल अवरोध पैदा करते हैं। तैरते समय सिर पर कैप पहनी जाती है इसलिए सिर के बाल यथावत रहते हैं।

एक दौर में महिला के सौंदर्य मानदंड में उसकी कमर पतली होना अनिवार्य था। अत: सेविका बहुत ही कस कर कोर्सेट मालकिन को पहनाती थी। फिल्म ‘टाइटैनिक’ में इस तरह का सीन है। दर्द सह कर सुंदर दिखना कितना अर्थहीन हो सकता है। पोशाक का सीधा संबंध शरीर को सुविधाजनक दशा में ले जाना है। फैशन की मारी नारियों ने बड़े कष्ट झेले हैं। साड़ी कमर की उस निचली सतह तक ले जाई गई, जहां उसके खुल जाने का भय होता है। इसी तरह ब्लाउज की बांह ऊपर नीचे होती गई और स्लीवलेस ब्लाउज भी बने। फिल्मी सितारों ने फैशन को बहुत अधिक प्रभावित किया है। शादी के लहंगे इतने महंगे बनने लगे कि बजट का अधिकांश हिस्सा उसे खरीदने में लग गया। इसी तरह शादी के समय दूल्हे द्वारा पहनी जाने वाली शेरवानी भी महंगी है। शादी के बाद वह लहंगा और शेरवानी किसी काम की नहीं रह जाती इसलिए आजकल लहंगा और शेरवानी किराए पर मिलते हैं।

महंगी शेरवानी और लहंगे का रिवाज महानगर से छोटे कस्बों तक जा पहुंचा है। हर क्षेत्र में साधन को साध्य बना दिया गया है। यह भी अजीब बात है कि कुरीतियां तेजी से फैलती हैं। अच्छाई, चींटी की चाल से चलती है। वैक्सीनेशन द्वारा महामारी पर काबू पाने के प्रयास किए जा रहे हैं। परंतु महामारी के बॉय प्रोडक्ट कुरीतियों के हाथी पर अंकुश नहीं लग रहा है। यह प्रकरण नागरिकता बोध से जुड़ा है। अच्छे नागरिक फैक्टरी में नहीं बनते। नागरिक आचार संहिता कानूनी रूप से नहीं लगाई जा सकती है। कोई भी घटना अकारण नहीं होती। तर्क सम्मत वैज्ञानिक सोच ही यह परिवर्तन ला सकती है। यह सोच स्वाभाविक नहीं होती और न ही यह ऊपर वाले की देन होती है।

मनुष्य को इसे बनाना पड़ता है। सामूहिक अवचेतन में इसकी जड़ें होती हैं। वहां तक पहुंचना आज भी आसान है, बशर्ते संतुलन बनाया जा सके। यह महंगी शेरवानी और लहंगा मात्र लक्षण हैं। बीमारी कहीं दूर बैठी है। वह अंतड़ियों में अमीबा की तरह दुगुनी-चौगुनी होती जाती है। आज भी हम आशा करते हैं कि अच्छे दिन अवश्य आएंगे।