कुरुक्षेत्र की कराह / जयप्रकाश चौकसे

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कुरुक्षेत्र की कराह
प्रकाशन तिथि : पाखी जनवरी 2019


एक विशाल जलप्रपात के निकट चट्टान पर एक व्यक्ति खड़ा है। उसकी धधकते हुए अंगारों सी आंखों में अनिंद्रा से रक्त उतर आया है। वह जलप्रपात में कूद पड़ता है और उसका शरीर जल के वेग के कारण आसपास के पत्थरों से टकराता हुआ पानी में गिरता है। उसके शरीर पर लगे अनगिनत घावों से खून रिसता है और जल लाल हो जाता है। हम उस घायल व्यक्ति को तल में एक नुंकीले पत्थर से टकराते हुए देखते हैं। धीरे-धीरे उसका शरीर ऊपर की ओर उठता है और उसके घाव भरने लगते हैं। सतह पर आते ही वह पुनः पूरी तरह स्वस्थ हो चुका है। वह आतर्नाद कर आता है कि आत्महत्या का उसका यह प्रयास भी असफल रहा।

वह तैरकर किनारे पर आता है। उसकी हताशा का वर्णन संभव नहीं। वह लकड़ियां इक्ट्ठी करके, दो पत्थरों को घिसकर आग लगाता है और उसमें कूद पड़ता है। उसके शरीर में आग लग जाती है, वह जलन से छटपटाता हुआ, धरती पर गिर जाता है। कुछ ही देर बाद उसकी काया पूरी तरह स्वस्थ हो जाती है। वह पत्थर उठाकर अपने सिर पर मारता है। उसके सारे प्रयास विपफल होते हैं।

‘‘अश्वत्थामा तुम चाहे जितने भी प्रयास करो लेकिन तुम मर नहीं सकते क्योंकि द्रौपदी ने तुम्हें अनंत काल तक जी कर पश्चाताप करने का श्राप दिया है।’’

वह आवाज की ओर घूमता है। एक अत्यंत वृद्घ ओर दुःखी व्यक्ति उसकी ओर आता है।

अश्वत्थामा, ‘सत्यवती और मुनि पाराशर के पुत्र महाकवि वेदव्यास जी, कृपया मुझे द्रौपदी के श्रांप से मुक्त कराये, मरने की मेरी कामना दिनों-दिन तीव्र हो रही है।’

वेद व्यास, ‘‘इस श्रांप से तुम्हें कोई मुक्त नहीं करा सकता। तुमने महासंग्राम के समाप्त होने के पश्चात, पांडवों की विजय की घोषणा के बाद द्रौपदी के पांचों पुत्रों की हत्या की, वह भी उस समय जब वे प्रगाढ़ निद्रा में लीन थे।’’

इतना सुनकर अश्वत्थामा जोर से चीखा और उसकी आवाज में हजारों घायल प्राणियों का दर्द था। वह चीख देर तक गूंजती रही और मानो उसी से पिंड छुडाने के लिए महाकवि व्यास तीव्र गति से चलने लगे। वह चलते-चलते कुरुक्षेत्र पहुंच गए। उन्होंने देखा कि विराट कुरूक्षेत्र की सारी भूमि लाल हो चुकी है। युद्घ समाप्त हुए समय बीत गया लेकिन रक्तसिंचित भूमि आज भी लाल है। उन्होंने हाथ से मिट्टी उठाई और उसी समय उनके कानों में युद्घ के समय की ध्वनियां गूंजने लगी। उसके मन में विचार आया कि क्या इस मिट्टी को विभाजित करके यह जाना जा सकता है कि कहां पांडव पक्ष के योद्धाओं का खून गिरा था। और कहां कौरव पक्ष के रक्त से सनी है यह मिट्टी। ध्रतराष्ट्र और पांडु के पिता देवव्यास का वंश ही लगभग नष्ट हो गया उस संग्राम में माता सत्यवती की आज्ञा से उन्होंने नियोग संतान को जन्म दिया था।

उन्होंने देखा कि एक किसान हल चला रहा है और धरती से टूटे हुए अस्त्र बाहर निकल रहे हैं, साथ ही साथ मानव हड्डियां भी निकल रही हैं। किसान हताश हो गया और उसने हल चलाना बंद कर दिया। युद्घ समाप्त होने के बाद से ही आकाश में बादल छाये हैं, लेकिन वृष्टि नहीं होती। वेदव्यास चलते रहे। वे कुरूक्षेत्र की परिक्रमा करते रहे। एक जगह उन्होंने गिद्घ देखे जो इतने मुटा गए थे कि उड़ने में असमर्थ थे।

वेदव्यास ने नगर की राह पकड़ी। हर जगह उन्हें कमजोर बच्चे, नैराश्य से घिरे उमग्रदराज लोग और हताश युवा विध्वा स्त्रियां नजर आईं। टूटी-फूटी सड़कें और ध्वस्त व्यवस्था से गुजर कर वे प्रशासन भवन पहुंचे जहां अनेक लगभग खाली कक्षों से होते वे नगर अध्यक्ष के कक्ष में पहुंचे। उन्हें जानकारी प्राप्त हुई कि युद्घ के पश्चात सरकारी कोष लगभग खाली है और विकास के लिए कोई साधन उपलब्ध नहीं है। पुनः निर्माण के लिए युवा मजबूत श्रमिकों का भी अभाव है। यु( के पश्चात वस्तुओं का अभाव है और मंहगाई आकाश छू रही है। अनेक व्यापारियों ने युद्घ में प्रयुक्त सामग्री के निर्माण में पूरी ऊर्जा लगा दी थी। और खूब धन अर्जित किया था। लेकिन उस धन से आज वे अनाज नहीं खरीद पा रहे हैं। अब उस धन का उनके लिए कोई उपयोग नहीं है। उनके अपने परिवार के अनेक सदस्य युद्घ में खेत रहे हैं। आसपास के सभी राज्यों में यही दशा है। वेदव्यास व्यापारी संगठन के भवन गए। दीवारों पर सोने की चादरें लगी थी। लेकिन सारे व्यापारी भूख से बेहाल स्वर्ण दीवारों से सिर टकरा रहे थे। वे पगला से गए थे। शस्त्र बेचकर कमाया हुआ धन आज उन्हें एक समय का भोजन भी नहीं दिला पा रहा था।

वेदव्यास गंगा के तट पर पहुंचे। उन्होंने गंगा से प्रार्थना की कि युद्घ में भाग लेने वाले लगभग सभी लोगों की अस्थियां गंगा में विसर्जित की गई हैं और भारतवर्ष के किसी भी स्थान पर मृत्यु को प्राप्त करने वाले की अस्थियो के एक अंश को गंगा में विसर्जित किया जाता रहा है। जिनकी अस्थियां भी गंगा तट पर नहीं पहुंची, उनकी आत्माएं कम-से-कम एक बार गंगा के दर्शन अवश्य करती हैं। अतः गंगा से निवेदन कि थोड़े समय के लिए उन सभी को गंगा तट पर आने दें। यहां हम सब विचार करेंगे कि क्या उस युद्घ को रोका जा सकता था और क्या उस युद्घ ने सभी प्रश्नों के उत्तर भी खोज निकाले हैं।

वेदव्यास को विश्वास है कि युद्घ की आग से गुरजने के बाद, सारे लोग अब पहले से अधिक विद्वान और अनुभवी हो चुके हैं और पुनरागमन पर वे अपनी पसंद नापसंद और तमाम पूर्वग्रहों से भी मुक्त होंगे। अब उनका दृष्टिकोण भी बदल चुका होगा। और वे जान चुकें होंगे की युद्घ के हवन में विजेता और पराजित दोनों ही पक्षों का बहुत कुछ होम हो जाता है। स्वयं गंगा का पुत्र देवव्रत जिसे भीष्म पितामह माना गया है उसने भी अपनी इच्छा से इसी युद्घ के समय प्राण त्यागे। सच तो यह है कि सारा जीवन ही तारों की शया पर लहुलुहान होते रहे। गंगा ने वेदव्यास की प्रार्थना स्वीकार कर ली।

अपने पुत्र देवव्रत के तन पर लगे हुए तीरों की यंत्रणा माता गंगा ने भी सही और एक तरह से सर्वनाशी युद्घ से वे कई मायनों में आहत हुई थीं। उन्हें धरती की पीड़ा की भी अनुभूति हुई होगी और हर ध्राशायी वृक्ष से उनके हृदय को भी चोट पहुंची है। दरअसल युद्घ कहीं भी लड़ा गया हो सबसे अधिक क्षति तो नदी और नारी को ही पहूँचती है।

गंगा की गोद से उनका अपना पुत्र देवव्रत जागा और सतह की ओर चल पड़ा, यात्रा के पहले उसने अपनी मां गंगा को प्रणाम किया।

पांडव युधिष्टर और कौरव सुयोधन हाथ मिलाए सतह की ओर उठे। धर्तराष्ट्र के ज्येष्ठ पुत्र का नाम द्रौपदी के चीरहरण के बाद दुर्योधन हुआ था। कुंती के ज्येष्ठ पुत्र कर्ण और अर्जुन भी एक दूसरे की बांह पकड़े ऊपर की ओर अग्रसर हुए। कुंती, माद्री और गांधरी एक साथ अंतिम यात्रा के पश्चात की इस यात्रा पर रवाना हुईं। धर्तराष्ट्र संजय, विदुर, गुरू द्रोणाचार्य एवं अन्य योद्धा भी नदी की गोद से उठे। एकलव्य और सुदामा ने प्रत्यक्ष रूप से युद्घ में भाग नहीं लिया था, लेकिन घायलों की सेवा चिकित्सा और मृत योद्धाओं के अंतिम संस्कार की व्यवस्था उन्होंने ही की थी।

अर्जुन और सुभद्रा के पुत्र-अभिमन्यु और कौरवों में सबसे छोटे युयुत्सु जिन्होंने द्रौपदी चीरहरण का प्रतिवाद करके अपने भाई सुयोधन को रुष्ट किया था, साथ-साथ अग्रसर हुए। शिखंडी भी तीव्रगति से जल में ऊपर की ओर उठी क्योंकि तट तक पहुंचने से पहले ही वे देवव्रत तक पहुंचना चाहती थीं।

श्रीकृष्ण अपनी अंतरंग द्रौपदी के साथ सतह की ओर उठे। युद्घ की व्यवस्था करने वाले अनेक आम व्यक्ति भी गंगा के आशीर्वाद से इस महान यात्रा का भाग बने। दोनों पक्षों की विराट सेनाओं के भोजन इत्यादि की व्यवस्था करने वालों ने भी युद्घ की विभीषिका को सहा था, अतः उस पर विचार के लिए कम से कम श्रोत्रा की तरह ही उन्हें भी शामिल होना था। हर युद्घ में अकारण ही अनेक आम लोग उलझ जाते हैं। उन्हें हानि भी सहना पडती है, इसलिए वे भी इस धर्म कर्म के जत्थे का भाग बन गए। कोई भी युद्घ कभी आम आदमी की सहमति या उसके लाभ के लिए नहीं लड़ा जाता लेकिन हानि का वह सहभागी होता है और उसके जीवित परिजनों के द्वार से मंहगाई वर्षों तक दस्तक देती है।

गंगा के तट पर अभूतपूर्व दृश्य है। वेदव्यास की प्रार्थना से गुरु कुल के सारे सदस्यों के साथ द्वापर-युग के सभी महत्वपूर्ण लोग उपस्थित हैं। गंगा की लहरें भी स्थिर हो गई हैं। और इंद्रलोंक के सभी देवी-देवता भी आकाश से यह दृश्य देख रहे हैं। सूर्य भी अपनी गति भूल गए हैं। और अपने पुत्र कर्ण को निहार रहे हैं। वेदव्यास कहते हैं कि ‘युद्घ के पश्चात चहुं ओर अशांति और नेराश्य छाया है।’

शवदाह के लिए अनेक वृक्ष काट दिए हैं। और प्रकृति का संतुलन भंग हो चुका है जिसके कारण ट्टतुओं का चक्र बदल गया है। अनेक नई व्याधियो का जन्म हुआ है। जड़ी-बूटियां उपलब्ध् नहीं है और शोध् कार्य ही नहीं अवरूद्घ हुए हैं वरना जीवन की साधारण व्यवस्था का भी लोप हो चुका है। साध्नों के अभाव से भी अधिक अभाव इच्छा शाक्ति का है।

इस पुनरागमन में आप पूर्वाग्रह से मुक्त हैं और हम सबको विचार करना है कि वह युद्घ टाला जा सकता था। इस युग के सभी विचारक मौजूद थे। यहां तक कि युग पुरुष श्रीकृष्ण भी घटनाक्रम में उपस्थित थे तथा उनके प्रयास भी कारगर नहीं हुए। आज की सभा का उद्देश्य यह है कि हम युद्घ के कारणों की खोज कर भावी पीढ़ियों को इस तरह की विभीषिका से बचने का संदेश दें। युद्घ पूर्व समय को स्मरण करें और देखें कि कहां किससे क्या चूक हो गई है। यह बैठक अनौपचारिक बैठक है और किसी नियम या संस्कार का कोई बंधन नहीं है। अभिव्यक्ति की पूरी स्वतंत्रता है। आज अगर पद, उम्र इत्यादि बातों का ध्यान रखा तो मन की बात उजागर नहीं होगी। सबसे पहली कुंती और गांधारी से बात करें।

कुंती: ‘‘मुझे लगता है कि युद्घ का मुख्य कारण गांधारी का अंधत्व ओढ़ना है। उसे पति की आंखें बननी चाहिए थी। पिता के जन्मांध होने और माता के अंधत्व ओढ़ने के कारण सुयोधन और सुशासन का मार्ग से भटक जाना अनदेखा ही रह गया। बचपन में ही उसने भीम के विरुद्घ षड्यंत्र किया, लेकिन उसकी कमजोरियों के लिए उसे कभी दंडित नहीं किया गया।

गांधारी के आंखों पर पट्टी बांधने के बहाने उसका भाई शकुनि यहां हमेशा के लिए बस गया और पांडवों के खिलाफ उनके हृदय में ईष्र्या की अग्नि को हवा देता रहा।

शकुनी कुछ बोलने का प्रयास करता है तो गांधारी उसे रोक देती है। वह कुंती के अप्रत्शशित आक्रमण से विचलित हो गई है। उसने आरोप का उत्तर नहीं देते हुए प्रत्यारोप कर दिया।

गंधारी, ‘‘कुंती ने हमेशा अपने पहले पुत्र कर्ण के जन्म की बात छुपाई और अगर वह यह बात पहले उजागर कर देती तो युद्घ नहीं होता क्योंकि मेरे पुत्र सुयोधन ने कर्ण की अपराजेय शक्ति के आधार पर पांडवों को ललकारा था। सारा शक्ति संतुलन कर्ण पर निर्भर करता था।

कुंती, ‘‘युद्घ के पहले मैं स्वयं कर्ण को सब बता चुकी थी। मुझे स्मरण है कि प्रातः सूर्योदय के समय मैं नदी तट पर कर्ण से मिलने गई थी।’’

वह दिन मुझे याद है- ‘‘कमर तक पानी में कर्ण खड़ा सूर्य का ध्यान कर रहा था।’’

-हे सूर्य मैं तुम्हें प्रणाम करता हूं। और प्रतिदिन बेहतर इन्सान होने का प्रयास करने का वचन देता हूं। अपना नाम पुकारे जाने पर कर्ण पलटता है क्योंकि घने बादल आ गए हैं। वह पांडवों की मां कुंती को तट पर खड़ा पाता है।

कर्ण कहता है, - अधिर्थ और राध का यह पुत्र पांडवों की मां कुंती को नमन करता है। देख रहा हूं कि आपके आते ही बादल छा गए और सूर्य दर्शन संभव नहीं रहा।

कुंती -तुम स्मरण करो तो सूर्य स्वयं साक्षात प्रगट हो सकते हैं। वे तुम्हारे पिता हैं। और तुम मेरे ज्येष्ठ पुत्र हो। महान दुर्वासा मुनि की सेवा टहल से प्रसन्न होकर उन्होंने मुझे आशीर्वाद दिया था कि किसी भी देवता के स्मरण मात्र से मैं उसका पुत्र प्राप्त कर सकती हूं।

इस वरदान पर विस्मित एक षोडषी कन्या ने सूर्य का स्मरण कर तुम्हें पाया लेकिन झूठी लोकलाज के भय से तुम्हें त्याग देने का अपराध किया।

तुम सोलह वर्षीय अनब्याही मां की दुविध की कल्पना नहीं कर सकते।

कर्ण, -वृद्घ व्याकुल और भयभीत मां समझ सकता हूं कि उसके पांच पुत्रों का वध् संभव है और युद्घ परिणाम बदल सकता है। कुंती, -मुझे अपने सभी छह पुत्रों की समान चिंता है और सबके सामने मैं अपनी भूल स्वीकार करके तुम्हें अपना लूंगी और मेरे पांचों पुत्र तुम्हें अपना ज्येष्ठ भाई स्वीकार करेंगे और तुम ही राज्य के अधिकारी घोषित होगे। धरती पर सारे मनुष्यों के साथ देवता भी प्रसन्न होंगे।

कर्ण, -देवताओं द्वारा पुष्प वृष्टि और मनुष्यों द्वारा की गई करतल ध्वनि की मनोरम कल्पना से यथार्थ नहीं मिटेगा कि बचपन से ही मुझ सूतपुत्र कहकर अपमानित करने का प्रयास किया गया और द्रौपदी के स्वयंवर में भी मुझ सूतपुत्र को भाग लेने से वंचित रखा गया।

मैं अपने अपमान और यंत्रणा को भूल सकता हूं। लेकिन मेरे ज्येष्ठ पांडव होने की घोषणा से राध के मातृत्व का अपमान होगा। उस क्षण की अवमानना होगी जब पराये पुत्र को गोद लेते ही उस निसंतान राध के स्तनों से दूध् निकल आया जो आज भी मेरी रगों में लहूं बनकर दौड रहा है- क्या उस जीवन देने वाले का दूध् का प्रवाह आज विपरीत दिशा में प्रवाहित करके उसे लौटाया जा सकता है?

मेरे पालनहार अधिर्थ अपने पुत्र कर्ण की वीरता से जीवन की डोर बांधे बैठे हैं और सत्य की घोषणा से उन्हें अपना पूरा जीवन ही अर्थहीन लगेगा। क्या आज द्रौपदी का पति घोषित होने से इतने वर्षों की मेरी पत्नी का जीवन आधार ही नष्ट नहीं हो जायेगा? सारी उम्र मुझे सूतपूत्रा मानने वाली द्रौपदी कभी मुझे पति रूप में हृदय से स्वीकार नहीं कर सकती।

सबसे बड़ी बात यह है कि मैं एक सूतपूत्र को राजा का सम्मान देने वाले अपने मित्र सुयोधन के साथ विश्वासघात नहीं कर सकता। कुंती, -मैं तुम्हारी दुविधा और व्यथा समझ सकती हूं।अधिर्थ और राध के साथ तुम्हारी पत्नी की पीड़ा भी समझ सकती हूं। सुयोधन ने तुम्हारी वीरता के प्रगट होने के पूर्व ही उसके ताप का अनुमान लगा लिया था और इसका पुरस्कार उसे ही मिलना चाहिए। पर तुम्हारे पांडव पक्ष में आते ही वह युद्घ की कामना छोड़ देगा, तुम्हारा राज्याभिषेक उसे अपनी विजय की तरह लगेगा और वह युद्घ नहीं करेगा जिससे उसके प्राणों की रक्षा होगी। पूरे जीवन में तुम्हें आदर देने के एक कार्य से उसके उजार अपराध क्षमा हो जाएंगे और उसके प्राणों की रक्षा होगी।

कर्ण, -सत्य यह है आपको गांधारी के नहीं, अपने पांच पुत्रों की चिंता है। आप भलीभांती जानती है कि अजुर्न को छोड़कर आपका कोई भी पुत्रा मेरा सामना नहीं कर पायेगा। और अजुर्न भी श्रीकृष्ण को अपने सबसे मजबूत कवच की तरह लेकर आयेगा, लेकिन मेरे पिता सूर्य द्वारा दिए गए कर्ण कुंडल अभेद्य हैं, श्रीकृष्ण भी मुझे पांडवों के पक्ष में आने का निमंत्राण दे चुके हैं। मेरा निर्णय अडिग है।

कुंती, -मुझे लगता है कि तुम अपने सिद्धांत और व्यक्तिगत निष्ठा को विश्व शांति से ज्यादा महत्व दे रहे हो।

इतने में बादल हटते हैं और कर्ण सूर्य नमन के लिए नदी की ओर प्रस्थान करता है।

कुंती सूर्य नमस्कार करके भारी मन लिए लौटने का उपक्रम करती है कि उसके कानों में ‘माता’ शब्द गूंजता हैं। वे पलटती है तो कर्ण को अपनी ओर आता देखती हैं।

कर्ण, -माता दूध् का कर्ज तो आपका नहीं है, लेकिन आपने नौ माह गर्भ में रखा है, अतः अधिर्थ राधेय पुत्र आपको वचन देता है कि युद्घ के पश्चात भी आप पांच पुत्रों की माता कहलायेगी क्योंकि चार का मैं वध नहीं करूंगा और अर्जुन तथा मुझमें से एक जीवित रहेगा।

कुंती, -पुनः अनुरोध करती हूं कि शांति के लिए तुम हमारे पक्ष में आ जाओ। इस घनघोर युद्घ में बहुत कुछ नष्ट हो जायेगा।

कर्ण, -माता, यह युद्घ मेरे कारण नहीं हो रहा और मैं आपको यह भी बता दूं कि इस युद्घ के परिणाम का मुझे कुछ अनुमान है लेकिन मैं सुयोधन का साथ नहीं छोड़ सकता।

कुंती, -तुम्हें पांडवों की जीत का अनुमान कैसे हो रहा है?

कर्ण, -माता पांडवों ने जिस जगह अपना डेरा डाला है, उस जगह के वृक्षों को देखिए कितने हरे भरे हैं और वहां हिरण, मोर-खरगोश इत्यादि प्राणी तथा परिन्दे आ जा रहे है और उध्र कौरव खेमे की ओर देखिए वृक्ष बेजान लग रहे हैं, कोई पशु पक्षी वहां नहीं आ रहा है। मैं वायु द्वारा अदृश्य भीत पर लिखा निर्णय पढ़ सकता हूं।

अब आप प्रसन्नता से लौट सकती हैं। कुंती की आंखों से अश्रु बह रहे हैं, वह आशीर्वाद देने आगे बढ़ती हैं।

कर्ण झुककर उनके चरण छूता है और कहता है कि आयुष्मान होने का आशीर्वाद न दें, आपको मुझे विजयी होने का आर्शीवाद देने से भी बचाना चाहता हूं। आप केवल यह आर्शीवाद दें कि मैं प्राणप्रण और पूरी निष्ठा से मित्रता का निर्वाह कर सकूं और ध्रती से जाते समय किसी का उपकार शेष नहीं रहे। ... गंगा के तट पर मां कुंती अपने स्मृति कक्ष से बाहर आती हैं और कर्ण के शब्द दोहरा रही हैं कि ‘किसी का उपकार शेष नहीं रहे।’

सुयोधन, -मेरे मित्र कर्ण सा दानवीर शूरवीर कोई नहीं, कहां हो मित्र...

सबकी दृष्टि कर्ण को खोजती है लेकिन कर्ण वहां नहीं है। सभी आश्चर्यचकित हैं।

श्रीकृष्ण चिरपरिचित मंद मुस्कान के साथ कहते हैं, ‘कर्ण पर एक उपकार शेष रहा गया था। इस अवसर का लाभ उठाकर कर्ण उसी कर्ज को चुकाने गए हैं।’

सुयोधन, ‘बताइए कर्ण कहां हैं, मैं जाकर उसकी सहायता करूंगा।’

श्रीकृष्ण उसकी ओर देखकर मुस्कुराते रहते हैं।

सुयोधन - आपकी मुस्कुराहट से मैं हमेशा ही दुखी रहा। जाने इस मुस्कुराहट में कितने अर्थ हैं, कभी व्यंग्य, कभी विद्रूप, कभी मखौल, कभी उपहास। मैं इसका अर्थ ही नहीं समझ पाया।

श्रीकृष्ण मुस्कुराते हुए कहते हैं- ‘वत्स कहीं अर्थ समझ लेते तो युद्घ नहीं करते और जीवन का सार्थकता खोज लेते।’

सुयोधन, -मेरी माता गांधारी के श्रांप से आपकी मृत्यु हुई उस समय भी आप मुस्कुरा रहे थे? कृपया मुस्कुराहट पुराण से ध्यान हटाकर मेरे मित्र कर्ण कहां है- यह बताने का कष्ट करें।

श्रीकृष्ण, -संजय तुम्हें वरदान है कि तुम स्थान पर बैठे-बैठे ही दूर का दर्शन कर लेते हो- तुम्हीं ने धर्तष्टराष्ट्र को युद्घ का आंखों देखा विवरण दिया था। अब उसी शक्ति का प्रयोग करके कर्ण से बात करो।

संजय सबको नमन करके, अपनी आंखें बंद करता है और उसे सब कुछ दिखने लगता है।

कर्ण एक ग्राम में तालाब के किनारे बसे, समय की मार से ढहते हुए मकान पर पहुंचे हैं। वहां एक वृद्घ स्त्री अत्यंत दीन-दशा में बैठी है। कर्ण उन्हें नमन करता है और उनके पति के बारे में पूछता है।

स्त्री के निर्देशानुसार वह तालाब के किनारे जाता है जहां एक वृद्घ व्यक्ति सूनी आंखों से जल को निहार रहा है। कर्ण द्वारा संबोधित किए जाने पर उसका ध्यान भंग होता है और हाथ की बंसी हिल जाती है।

वृद्घ, -आगुंतक तुम्हारी आवाज से बंसी हिल गई और मछली भाग गई। युद्घ के पश्चात कुछ कंदमूल और मछली ही हमारा भोजन है। आज हम तो भूखें सोयेंगे लेकिन जीवन में पहली बार अतिथि को देने के लिए मेरे पास कुछ नहीं।

कर्ण, -महोदय, मैं राधा पुत्र कर्ण हूं और युद्घ के समय जब मेरे रथ का पहिया कीचड़ में धंस गया तब आपका पुत्र मेरी सहायता के लिए दौड़ा और इसी कारण उसके प्राण गए लेकिन मेरे उपकार का विचार उसके मन में आया था। आज उसी उपकार के बदले मैं आपकी सेवा करने आया हूं। मुझ पर विश्वास करें, अब आप कभी भूखे नहीं सोयेंगे।

कर्ण तालाब में कूदते हैं और सतह के नीचे जाकर मछली पकड़ते हैं, किनारे आकर उस वृद्घ की टोकरी में डालते हैं। फिर जल की सतह के भीतर जाकर एक और मछली पकड़ते है। वृद्घ उन्हें और मछली पकड़ने से रोकते हैं। कर्ण तालाब के स्वामी यक्ष से प्रार्थना करतें हैं कि प्रतिदिन इस वृद्घ को उसकी आवश्यकता के अनुसार मछली देने की कृपा करें।

तालाब की सतह पर यक्ष आता है और कर्ण को नमन करता है।

यक्ष- ‘हे दानवीर कर्ण आपने अपने अभेद्य कवच कर्ण कुंडल अपने हाथों अपने शरीर से अलग कर इंद्र को दे दिए जो याचक बनकर आए थे। आपके आदेश पर आपकी ही सम्पत्ति का अंश इस वृद्घ को नियमित मिलेगा। और किनारे पर बिना उसके परिक्षम किए उसे जीवन यापन की सभी वस्तुएं जीवनपर्यन्त मिलेगी।

यक्ष के लुप्त होने के बाद कर्ण मछली का टोकरा सिर पर रखते हैं और वृद्घ को सहारा देकर मकान तक आते हैं। कर्ण जंगल से लकड़ियां काटकर उस मकान की दशा बदलने के प्रयास में जुट जाते है। वृद्घ दम्पति को लगता है कि उनका पुत्र लौट आया है। इतना कहकर संजय अपनी आंखें खोलता है और सभा में उपस्थित सभी लोग कर्ण के लिए तालियां बजाते हैं।

विदुर की दृष्टि एक महिला की ओर जाती है जो अपने को छुपाने का प्रयास कर रही है। द्रौपदी भी यह देखती है और आगे बढ़कर उस महिला से आग्रह करती है कि वह अगर कुछ कहना चाहती है तो संकोच नहीं करें, क्योंकि वेदव्यास पहले ही स्पष्ट कर चुके हैं कि यहां सबको अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है। अनेक बार साधारण व्यक्ति भी असाधारण बात करता है। वह महिला बहुत संकोच के साथ द्रौपदी के आग्रह पर आगे आती है। सभी को नमन करती है।

महिला- ‘मेरा नाम मर्यादा है और मैं रानी अंबालिका की दासी थी। मैं नहीं जानती कि कैसे मैं इस पुनरागमन का भाग बनकर महान लोगों की सभा में आ गई। अनेक कर्मचारी और आपके कुछ सेवक भी मां गंगा की कृपा से यहां आ गए। कदाचित उन्हें लगा होगा कि सेवा की आवश्यकता यहां भी पड़ सकती है।

अंबालिका को वेद व्यास की कुरूपता से भय लगता था और माता सत्यवती के आदेश पर नियोग के लिए दूसरी बार वे स्वंय नहीं गई और उन्होंने मुझे आदेश दिया कि मैं उनकी जगह चली जाऊं।

मैंने ही अपनी कोख में विदुर को धारण किया और यथासमय जन्म भी दिया। जन्म देने के बाद पांडु, धर्तराष्ट्र के साथ ही विदुर का लालन-पालन हुआ और दासियों में मेरा सम्मान बढ़ा लेकिन राजपुत्रा को जन्म देने के बाद भी मैं दासी ही रही। वेदव्यास का बीज मेरी कोख में था, अतः मुझे दंडित नहीं किया गया। मैंने तो मात्र आदेश का पालन किया था। मैं माता बनी लेकिन पुत्र को न गोद खिला पाई और न दूध् पिला पाई। द्रौपदी- ‘माता होकर मातृत्व नहीं मिल पाने का इस युद्घ से कोई संबंध् नहीं मर्यादा।

मर्यादा- ‘बहुत गहरा संबंध् है। जब पांडु महाराज प्रायश्चित के लिए वन चले गए थे तब परंपरा के विपरीत अंधे व्यक्ति को राजा बनाया गया। अगर उस समय मेरे सक्षम पुत्र विदुर को राजा बनाया गया होता तो युद्घ नहीं होता।’

यह सुनकर सभी सन्न रह गए। पूरी सभा निरुत्तर हो गई। विदुर आगे आये अपनी माता मर्यादा के चरण स्पर्श किये। मर्यादा ने उन्हें अपने सीने से लगाया, दशकों से हिमवत स्थिर मातृत्व नयन से नीर बनकर बहने लगा।

विदुर- माता मैं राजा पद स्वीकार नहीं करता। पांडू और धर्तराष्ट्र ही सच्चे उत्तराधिकारी थे।

मर्यादा- राजा नहीं बनने का भाव तुम्हें उस पद के लिए अधिक सही सिद्घ करता है।

द्रौपदी- हमारी यह व्यवस्था ही दोषपूर्ण है जिसमें दास-दासियों को समकक्ष मनुष्य नहीं माना जाता।

सुयोधन- मैं जानना चाहता हूं कि कौरव के साथ हुए महामंत्री विदुर सूचनाएं पांडवों को देते रहे और भाई युयुत्सु ने भी पांडवों का साथ दिया। दोनों पर ही विश्वासघात का आरोप है।

विदुर- महामंत्री होते हुए मैंने राज्य का प्रबंध ऐसा किया कि राज्य की आय बढ़ती गई लेकिन अवाम पर कोई अतिरिक्त कर नहीं लगाया गया। अपराध् न्यूनतम संख्या पर पहुंच गए।

इसके साथ ही मेरी व्यक्तिगत निष्ठा न्याय के प्रति थी और मुझे लगा कि पांडवों से उनका अधिकार छीना गया है। उन्हें लाख के बने घर में रखकर उन्हें भस्म कर देने का षडयंत्र रचा गया। अतः मुझे उन्हें सावधान करना आवश्यक लगा। इसे भी मैं अपने सुशासन का भाग मानता हूं।

युयुत्सु- मैं बचपन से ही सुयोधन को पांडवों के विरुद्घ षडयंत्र करता हुआ देखता रहा हूं और युद्घ के समय तक मेरे लिए असत्य का साथ देते रहना संभव नहीं हुआ। इसलिए मैं पांडवों की ओर से संघर्षरत हुआ। मैं सारा जीवन भाई की तरह ही क्यों सोचता। विवेक और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का प्रश्न था।

इसी समय अत्यंत अप्रत्याशित ढंग से लाख का भवन बनाने वाला पुरोचन खड़ा हुआ और उसने पूछा कि उसके पाप का दंड उसकी निरपराध् पत्नी और संतानों को क्यों दिया। क्या पांडव स्पष्टीकरण देंगे।

सहदेव- हम चाहते थे कि सुयोधन को लगे कि वह अपने षडयंत्रा में सफल हो गया है। इस तरह हमें समय मिल जाता। हमारी रक्षा के लिए यह आवश्यक था कि पुरोचन सपरिवार मृत्यु का भागी बने और साथ ही भील परिवार भी। गंधारी ने कहा कि वह कुंती से पहली गर्भवती हुई थी। और अगर उन्हें यथा समय बच्चा उत्पन्न होता तो वह युधिष्टर से बड़ा होता लेकिन समय बीतता गया और वे सबसे अधिक समय तक गर्भवती ही रही। अतः एक दिन उन्होंने स्वय अपने पेट पर घूंसे मारे और एक मांस पिंड का जन्म हुआ जिसे सौ हिस्सों में बांटकर घी से भरे मटकों में रखा गया। यथासमय शिशु का जन्म नहीं होना देवयोग नहीं है। वरन मुझे यह कोई षड्यंत्र लगता है। सुयोधन को ज्येष्ठ पुत्र होने से कोई वंचित रखना चाहता था।

सुयोधन ने सूत्र पकड़ा और बात आगे बढ़ाई कि बचपन से ही उसे ज्येष्ठ पुत्र और युवराज की तरह पाला गया और एक दिन एक-ब-एक वर्षों बाद वन लौटे युधिष्टर को वंश का ज्येष्ठ पुत्र बताया गया जिसे वह कैसे स्वीकार करता।

उसी समय गंगा से एक उतंग लहर उठी और सुयोधन के गाल पर यूं लगी मानो उसे थप्पड़ मारा गया हो। सुयोधन ने अपनी बात जारी रखी कि उसके सारे भाइयों की सहायता से उसने सुशासन किया, कुछ नये कर लगाए जिस कारण व्यापारी वर्ग में असंतोष फैला। उसने एक राष्ट्र एक कर के सिद्धांत का निर्वाह किया, राष्ट्र को अनुशासित किया।

युयुत्सु ने कहा कि अनुशासन के नाम पर आपने चाहा कि सभी लोग एक जैसा विचार भी करें। आपकी नीतियों के कारण आम आदमी अपने दिल की बात नहीं कर पाते। आपकी नीतियों से बाजार ठप्प हो रहे थे। आपने सुशासन एवं अनुशासन के नाम पर आम व्यक्ति के विचार करने की क्षमता ही नष्ट करने का प्रयास किया क्योंकि यह विचारहीनता आपको सुविधाजनक लगती थी। इसलिए मैं पांडव पक्ष में चला गया। आप हर प्रकार के लचीलेपन के विरुद्घ थे। गदाधारी भ्राता आपकी विचार प्रक्रिया में गदा ने प्रवेश कर लिया। शांति के समय भी आप गदा साथ रखते थे। यहां तक कि आप शयन-कक्ष में भी गदा को साथ रखते थे, युद्घ सामग्री बनाने वाले व्यापारियों ने आपको बिना मांगे ही धन दिया। आपके अहंकार को हवा दी। आपको यह भ्रम था कि आप सबको शासित कर रहे हैं जबकि आप बाजार में मोहरे बनते गए और आपको ज्ञान भी नहीं हुआ कि आपके द्वारा व्यापारियों पर लगाए अतिरिक्त कर का असली भार आम आदमी ही उठा रहा था। आपने भ्रष्टाचार को जन्म दिया जो समय के साथ विकराल होता जायेगा और आने वाली पीढ़ियां इसका फल भुगतेंगी।

सुयोधन इस आक्रमण के लिए तैयार नहीं था। वह विचलित हो गया। उसने गदा उठाई और युयुत्सु की तरफ बढ़ा तो श्रीकृष्ण ने उसे रोक लिया।

श्रीकृष्ण ने कहा ‘यह सभा विचार करने के लिए बुलाई गई है, युद्घ के कारण जानने का प्रयास कर रहे हैं और तुम हो कि हिंसा पर उतर आयें। याद रखों कि हिंसा कोई समाधन नहीं है, वरना वह स्वयं एक शाश्वत प्रश्न है।

द्रौपदी ने देखा कि एक स्त्री गंगा की रेत पर घरौंदा बना रही है। उसने अपने पैर पर गीली रेत रखी और पैर निकालकर घरौंदा बनाया, पिफर उसे तोड़ दिया। इसी कार्य के दोहराव में वह पूरी तरह डूबी हुई थी।

वेदव्यास ने उससे अपना पक्ष रखने को कहा। वह खामोश ही रही। द्रौपदी जाकर उसके सामने खड़ी हो गई। उसने हाथ जोड़कर निवेदन किया कि वह अपना पूरा परिचय दे दे। उसने कहा कि श्रीराम रावण की योजना को जानते थे। उन्होंने छाया सीता का निर्माण किया जिसका अपहरण किया गया और सीता सारे समय राम की परछाई की तरह रही। रावण की कैद में छाया सीता ही रही और राम ने रावण को पराजित कर छाया सीता को ही मुक्त कराया और उनके आदेश पर उनकी रचना छाया सीता अग्नि में जलकर भस्म हुई और अग्निकुड़ के दूसरे सिरे से सीता बाहर आई। उस समय श्रीराम ने अपनी प्रतिकृति छाया सीता को वरदान दिया था कि द्वापर काल खंड में वह द्रौपदी बनकर धरती पर प्रगट होंगी तथा श्रीकृष्ण सदैव उसकी रक्षा करेंगे। इस तरह सतयुग की छाया को द्वापर में काया मिली। इसी कारण द्रौपदी में ऐसा कुछ दिव्य था कि उस काल खंड के अधिकांश लोग उससे प्रेम करते थे। वह राम की माया थी जैसे द्वापर में श्रीकृष्ण की माया से सब मंत्रमुग्ध थे। इतना कहकर वह अदृश्य हो गई।

श्रीकृष्ण के चेहरे पर फिर मुस्कान उभर आई और सुयोध्न को उनकी मुस्कान हमेशा की तरह ही असहनीय लगी, लेकिन वह दांत पीसता हुआ बोला कि युद्घ का कारण श्रीकृष्ण स्वयं ही हैं। सुयोधन कहता है कि कौरव की विशाल सेना देखकर अर्जुन स्वजनों से युद्घ नहीं करना चाहता था। वह अपनो के विरुद्घ युद्घ नहीं चाहता था लेकिन श्रीकृष्ण ने कर्तब्य एवं कर्म के नाम पर उसे युद्घ करने के लिए मजबूर किया। जब उन्होंने सबके जीवन व मृत्यु की गाथा पहले ही लिख दी थी तब कर्म के नाम पर हिंसा कि लिए अर्जुन को प्रेरित किया। अतः सबसे अधिक दोष श्रीकृष्ण का ही है।

सुयोधन की बात सुनकर श्रीकृष्ण ने ठहाका लगाया। सुयोधन ने कहा कि उसने किसी तरह श्रीकृष्ण की मुस्कुराहट को सहन किया है, लेकिन उनका ठहाका सहन करना संभव नहीं है। युद्घ में भीम के प्रहार से अधिक् कष्टकारी श्रीकृष्ण का ठहाका है। श्रीकृष्ण ने सुयोधन से कहा कि भरी सभा में द्रौपदी के अपमान के समय तुमने ठहाका लगाया था। ठहाके लगाने का भी हिसाब किताब होता है। उस समय तुम्हारे ठहाके को मैंने सहा, आज तुम सहन कर लो।

शकुनि अपने पूरे जीवन में कभी इतने लंबे समय तक मात्रा श्रोत्रा नहीं रहे थे। अतः उनके मुंह से बरबस यह निकला कि सारे युद्घ जमीन या स्त्राी पर आध्पित्य के लिए लड़े जाते हैं। शकुनी को यह कहते हुए अनुमान भी नहीं था कि उनके इस झूठ को सूत्र वाक्य की तरह आने वाली पीढ़ियां दोहराएंगी और दसों दिशाओं में प्रतिध्वनित होगा। ठीक उसी समय गंगा की एक लहर शकुनि के गाल पर पड़ी और एक टांग जन्मना छोटी होने के कारण वे नीचे रेत में किसी बच्चे द्वारा बनाए गए घरौंदे पर गिर पड़ा जिस कारण वह घरौंदा टूट गया और आभास हुआ जैसे कोई बच्चा रूदन कर रहा है।

शकुनि- -भीष्म पितामह मेरी बहन गांधरी के लिए जन्मना अंधे धर्ततराष्ट्र के विवाह का प्रस्ताव लेकर गंधर आए थे। वे अपने साथ विशाल सेना लेकर आए थे। स्पष्ट था कि विवाह प्रस्ताव अस्वीकार करने पर वे युद्घ की तैयारी के साथ आए थे। मेरी बहन गंधर से प्रेम करती थी। वह अपने अवाम को मृत्यु से बचाना चाहती थी। इसलिए उसने प्रस्ताव स्वीकार किया। उनके सौंदर्य और विद्वता से गंधर आलोकित था।

द्रौपदी ने कहा- अन्याय तो मेरे साथ भी हुआ है। स्वयंवर में मुझे प्राप्त करके अर्जुन ने अपनी मां से कुछ ऐसे आशय की बात की मानो कोई वस्तु लाए हैं और मां ने कुंती भी बिना देखे ही बांट लेने की बात कर दी।

इसी बीच दूर बैठी एक स्त्राी द्रौपदी की ओर बढ़ी और उसने कहा कि द्रोपदी की रक्षा के लिए श्रीकृष्ण सदैव उपलब्ध् थे लेकिन उसे तो उसके पिता ने गुरु विश्वमित्र द्वारा गुरु दक्षिणा में मांगे गए हजार श्यामकर्ण घोड़ों के लिए बार-बार गिरवी रखा। उसने पुत्रा रत्न दिए लेकिन मां बने रहने के गौरव से उसे वंचित किया गया। इतना ही नहीं जब छह सौ अश्वों के साथ मेरे पिता गुरु के पास गए तो उन्होंने कहा कि अगर यह सुंदर कन्या उसे पहले ही दे दी जाती तो हजार अश्व नहीं मांगते। नारी के महान एवं पूज्यनीय होने की बात दोहराते हुए उसका शोषण जारी रखा गया है। उसे अपने पिता और उनके गुरु विश्वमित्र से घृणा हैं।

अगर इन महान लोगों को श्राप एवं वरदान देने का आशीर्वाद प्राप्त नहीं होता तो सारी शौर्य गाथाएं मात्र पल दो पल में सिमट जातीं।

कुंती- श्राप और वरदान से वंश का निर्माण हुआ है।

गाथाओं का उद्देश्य संस्कार और संस्कृति का महिमा मंडन रहा है। उनका रोचक होना जरूरी है और अब आने वाली पीढ़ियो रोचकता में खो जाएं और संस्कृति को भूल जाएं तो यह उनका दोष है, आख्यान का नहीं।

द्रोपद्री- हम सबका सदियों का झूठा पश्चाताप बोध् एक ऐसा समाज रचेगा जिसमें न्याय का लोप हो जायेगा।

वेदव्यास- इस युद्घ के सभी लोगों के पास अपनी असहायता सिद्घ करने के कारण हैं।

भीम और दुर्योधन ने लड़ना आरंभ कर दिया और पलक झपकते ही युद्घ प्रारंभ हो गया। यह देखकर वेदव्यास कांप गए और उन्होंने मां गंगा से प्रार्थना की वह इस सबको पिफर वापस बुला ले। यह पृथ्वी एक और युद्घ सहन नहीं कर पायेगी। धीरे-धीरे सभी गंगा की गोद में समाने लगे। आम आदमी जिसने सबसे अधिक् कष्ट सहा था, वह अंत में मां गंगा की गोद में गया।

वेदव्यास हताश हो गए। पूर्व दिशा से उन्होंने पदचाप सुने और देखा कि श्रीगणेश पधार रहे हैं। उन्होंने श्री गणेश से पूछा कि युद्घ के कारण जानने के उनके प्रयास विफल हो गए। उनसे प्रार्थना है कि वे प्रकाश डालें।

श्रीगणेश ने कहा कि युद्घ सदा अनावश्यक ही होते हैं। जब मुनष्य तर्क और भावना में सही सामंजस्य नहीं कर पाता और अपना विवेक खो देता हैं तो युद्घ होते हैं। युद्घ एक प्रश्न है, वह उत्तर कैसे हो सकता है? विवेकहीन अवस्था में लालच और अंहकार का जन्म होता है। बुद्धि और आत्मा का छद्म युद्घ मनुष्य ने स्वयं खड़ा किया है। विचार शैली को मायावी आत्मा कहकर संबोधित किया गया।

अपने अज्ञान को महिमा मंडित करने पर युद्घ होते हैं। मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु मनुष्य है। और वह सुविधाओं को इतना पसंद करता है कि उनके लिए विवाद खड़े करता है। हर युद्घ मनुष्य के मष्तिष्क में पहले लड़ा जाता है और युद्घ क्षेत्र में बाद लड़ा जाता है। मनुष्य मष्तिष्क के अंध्कार क्षेत्रा का यथार्थ स्वरूप युद्घभूमि बन जाता है।

श्रीगणेश ने कहा कि उन्होंने वेदव्यास के प्रश्न का उत्तर दे दिया है और अब वे वेदव्ययास से एक प्रश्न पूछना चाहते हैं।

वेदव्यास ने कहा कि- आप तो साक्षात समाधान हैं। मुझसे क्या जानना चाहेंगे। ऐसा कुछ नहीं जिसे आप नहीं जानते हों।

श्रीगणेश- मेरे प्रश्न को सुनने से पहले ही आपने उसे टालने का प्रयास किया है।

वेदव्यास सर झुकाए खड़े रहे।

श्रीगणेश- कृपया यह बताएं कि उन्होंने इस गाथा की कल्पना पहले की, या इसके घटने के पश्चात इसे मुझे सुनाया और लिपिबद्घ करने का आग्रह किया। यह संभव है कि एक गाथा के गढ़ने के बाद, उसके घटित हो जाने पर आपने मुझसे लिपिबद्घ कराया है। कल्पना में इतनी शक्ति होती है कि वह यथार्थ में बदल जाए।

इसी समय अश्वत्थामा उन दोनों के सामने और उसने प्रार्थना की कि वह उसे द्रौपदी के श्रांप से मुक्त कराएं और इन अनंत जीवन की यातना से मुक्ति दिलाये।

वेदव्यास ने कहा कि उसे श्राप से मुक्त करना उनके अधिकार से बाहर है।

श्रीगणेश ने कहा कि, श्राप और वरदान हटा दें तो कथा महज ढाई अक्षर रह जाती है। उस ढाई अक्षर से वंचित व्यक्ति युद्घ ही करता है।

उसी समय एक व्यक्ति सामने आया।

उसने कहा कि, मैं उन चैबीस हजार एक सौ बयालीस लोगों का प्रतिनिधि हूं। हम लापता माने जाने वाले लोग युद्घ की अग्नि से नहीं गुजरे, इसलिए प्रेम भी नहीं कर पाए। मृत्यु से बचना कोई समाधान नहीं है। हमने भारत के बाहर छोटे भारत रचे, बहुत धन कमाया, संपत्ति अर्जित की लेकिन हृदय में संतोष नहीं है।

वेदव्यास ने लापता लोगों के प्रतिनिधि से कहा कि उन लोगों ने उनको रोजी रोटी वाले देश के लोगों से मेलजोल नहीं रखा और अपने अपनों से बीच सिमटे रहे। अजनबियों की तरह जीवन व्यतीत किया। अपनी जमीन से उखड़े हुए इन लोगों की दशा पंखहीन पक्षी की तरह है। विदेश की सुख सुविधा छोड़ नहीं सकते थे लेकिन देश की राजनीति में दखलादांजी करते रहे।

वेदव्यास ने श्रीगणेश से कहा कि इस विनाश के बाद संभवतः कोई युद्घ नहीं हो। श्रीगणेश ने पुनः रेखांकित किया कि मनुष्य अपनी भूल दोहराता है और हिंसा के लिए उनके हृदय में हमेशा ललक बनी रहती है। अहिंसा के सारे मसीहा हिंसा के शिकार बनेंगे। कुरुक्षेत्रा में घायलों की चीत्कार और शस्त्रों की आवाज हमेशा गूंजती रहेगी। कुरुक्षेत्र में किया गया अनावश्यक युद्घ ध्वनि में हमेशा कायम रहेगा।

वेदव्यास और श्रीगणेश अपनी राह पर चले गए। अश्वत्थामा विलाप करता रहा। आज भी उसका विलाप जारी है।