कुरेई फूल का रहस्य / देवाशीष पाणिग्रही / दिनेश कुमार माली
“पहाड़ी मौसम,पहाड़ी नदियां और सुंदर स्त्रियाँ – सभी का मिज़ाज अचानक बदल जाता हैं। किसी को भी इसका पता नहीं चलता है।” कहते हुए बलजीत जोर-जोर से हंसने लगी। सरोज उसके इस व्यवहार से आश्चर्य चकित हो गया।
बलजीत से कब, क्यों, कैसे पूछना सच में व्यर्थ था। वह ग्रामोफोन के रिकार्ड की तरह लगातार बात करती जाती थी। एक वाक्य पूरा होने के बाद वह जोर जोर से हंसने लगती और हँसते हँसते चुटकुले सुनाती। ऐसे लोगों को हिन्दी में हंसमुख कहते है। मानो उसने तो हमेशा इस तरह हंसने की कसम खा ली हो। मगर सरोज ठीक विपरीत था। अधिकतर समय वह चुपचाप बैठता था। जब लोग बातों में मशगूल होते, वह कहीं दूर दराज कोने में बैठकर उपन्यास पढ़ता नजर आता। अपने कमरे में लौटने के बाद वह गरम रजाई ओढ़कर रेडियो पर भूले बिसरे मधुर गीत सुनता था। वह अपने तकिये के नीचे से प्रियदर्शनी के फोटो बाहर निकालता और पूरे ध्यान से उसके पत्र पढ़ने लगता।
बलजीत उसे गंभीर आदमी कहकर चिढ़ाती थी। वह कहती थी, “मिस्टर दार्शनिक, जीवन हमेशा के लिए खत्म नहीं हो जाता है। हरेक को प्रति क्षण ,प्रति पल और प्रति सेकंड जीना चाहिए वह कार्य करते हुए जिसे वह करना चाहता है। हमें जीते हुए जिंदगी का भरपूर मजा उठाना चाहिए। ...मिस्टर दार्शनिक , मैं जानती हूँ मुझे हँसते हुए इस तरह एक दिन जाना है। मुझे इस बात का गम नहीं रहे कि मैं अपनी इच्छा के अनुरूप अपनी जिंदगी जी नहीं सकी। मोक्ष प्राप्ति की मेरी यह राय है। अगर तुम हमेशा इस तरह उदास और किनारे में बैठकर किताब पढ़ोगे या गजलें सुनोगे तो तुम अपने जीवन की अपूर्ण इच्छाओं का पूरा नहीं कर पाओगे। तुम्हें फिर एक बार जन्म लेना होगा और ज्यादा नंबर वाले चश्मे पहनने होगे। क्या तुम अपने इस जीवन से मुक्त नहीं होना चाहते? मिस्टर दार्शनिक, तुम हंसने में इतने कंजूस क्यों हो?”
सरोज शांतिपूर्वक बलजीत की हंसी-मज़ाक और मोक्ष के बारे में उसके विचार सुनता रहा। मगर उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता था। वह उसकी मज़ाक से खुश होता, थोड़े समय मुस्कराता और फिर से आस-पास के वातावरण को भूलकर अपनी दुनिया में खो जाता। वह अपने चश्मे उतारकर काँच से धूल साफ करता और प्रियदर्शनी के बारे में सोचने लगता।
मगर पहाड़ी मौसम,पहाड़ी नदियों और सुंदर स्त्रियों के अचानक बदल जाने की थ्योरी वाली बलजीत,सरोज और अन्य दस युवक-युवतियाँ मसूरी में नौकरी के दौरान मिलने वाले प्रशिक्षण में थे। प्रशिक्षण का एक भाग पहाड़ी जगहों पर ट्रेकिंग भी था।
अकादमी की ओर से उन्हें गरम कपड़े, सोने के बिस्तर और पहाड़ी जूते मिले थे। यहाँ तक कि , जंगली और पहाड़ी रास्तों का मार्ग-दर्शन करने के लिए एक प्रोफेशनल गाइड भी दिया गया था। कुमायूं पहाड़ियों में हनुमान चट्टी से लेकर हर की धुन तथा ठुंडीगल झील से उत्तरकाशी का रास्ता ट्रेकिंग के लिए तय किया गया था। गाइड ने पहले से ही नक्शे में रास्ते तथा उन पर चलने के नियम बता दिए थे। कहीं ऐसा नहीं हो कि वे अपने रास्ते से भटक कर घने जंगलों में खो न जाए, इसलिए गाइड ने उन्हें चमकीले रंग के कपड़े पहनने की सलाह दी ताकि चट्टानों के दर्रों में वे आसानी से पहचाने जा सके। उन सभी ने गुलाबी जीन्स और लाल टी-शर्ट पहन रखे थे और धूप से बचने के लिए टोपी पहनी हुई थी। प्रति-दिन उन्हें कम से कम तीन किलोमीटर रास्ता तय करना पड़ता था। अपने आपको तरोताजा रखने के लिए खूब सारी चाकलेट उन्होंने खरीद ली थी ताकि कठिन रास्तों को आसानी से तय किया जा सके। चाकलेट की मिठास उन्हें पर्याप्त कार्बोहाइड्रेट देकर डिहाइड्रेशन होने से बचाती।
ऐसा लग रहा था मानो कोई राजा अश्वमेघ युद्ध के लिए ललकार रहा हो अक्षौहिणी सेना के साथ। बहुत ही अरुचिकर और अवसादक लग रहा था इस तरह कुमायूं की पहाड़ियों पर ट्रेकिंग करना। देखते-देखते मसूरी का आकाश काले बादलों से ढकने लगा और देखते-देखते तेज बरसात होने लगी। हॉस्टल की ढलवां छत टपकने लगी। बाहर में हनुमान चट्टी पर बस उनका इंतजार कर रही थी, जहां से उन्हें जंगल में साहसिक कारनामों की शुरूआत करनी थी। रोमांचकारी शुरूआत होने से पूर्व ही अप्रत्याशित बारिश ने उन सभी के मूड खराब कर दिए। कुछ कॉमनरूम में जाकर टेलीविज़न देखने लगे तो कुछ कैरम खेलने लगे, मगर कोई भी खेल में एकाग्रचित्त नहीं हो पा रहा था। स्ट्राइकर अक्सर अपने अंक खोते थे, इससे और ज्यादा खराब लग रहा था । आखिरकार उन्होंने वहाँ रूम-बॉय को गरम चाय लाने के लिए कहा।
ऐसे सुनहरे वातावरण में बलजीत अपने दोस्तों के साथ बात करते हुए हंसी के ठहाके लगा रही थी। वह हर किसी को कह रही थी कि मसूरी में बारिश होना कोई नई बात नहीं है। इस वजह से उन्हें अपना ट्रेकिंग प्रोग्राम निरस्त नहीं करना चाहिए। यह असामयिक बारिश है और कभी भी रुक सकती है और ट्रेकिंग प्रोग्राम चालू रखा जा सकता है। क्योंकि इस चीज की संभावना शत-प्रतिशत थी, इसलिए किसी को भी उदास होने निराश होने या गुस्सा होने की जरूरत नहीं है।
“तुम्हें बारिश में भीगने और बीमार पड़ने का अधिकार है , मगर तुम्हें इस तरह अपने मुंह लटकाने की जरूरत नहीं है मानो तुम लकवाग्रस्त हो। ”
उसकी बेकाबू हंसी सुनकर सरोज ने सोचा कि बलजीत की हंसी में वास्तव में कुछ जादुई दवा है और ऐसे रोमांचक मौसम में उसकी मोक्ष की परिकल्पना और उसके जैसे नीरस आदमी।
उसकी अजेय आशा का सम्मान करते हुए मानो मसूरी के आकाश में बादल छंटने लगे और कुछ ही पल में उसके अनुमान के मुताबिक बारिश बंद हो गई। बेमौसमी बारिश के बाद वहाँ सतरंगी इंद्रधनुष प्रकट हुआ मानो आकाश में किसी ने रंग भर दिया हो। बलजीत कौर , सरोज स्वाईं,नन्दिता तिवारी,राजू मल्होत्रा,अरुण शंकर ,नयन बनर्जी ,अविनाश ठाकुर – अपने अपने ट्रेकिंग सामानों के साथ बस में बैठ गए। उस बस को हिमालय की रानी कहा जाता था और वह हिमालय की रानी की तरह वहाँ की सर्पिल घाटियों में चलने में माहिर थी। हनुमान चट्टी उनका गंतव्य स्थान था , जहां से उन्हें अपनी ट्रेकिंग शुरू करनी थी।
जब वे हनुमान चट्टी पहुंचे ,शाम हो चुकी थी और सूरज कुमायूं पर्वतमाला के पीछे छुप गया था। सितंबर महीने का साफ आकाश था ,किन्तु हवाओं ने उन्हें कंपकंपा दिया था। उन्होंने अपना सामान बस से उतारकर जंगल के रेस्ट हाउस में रख दिया ,जहां उन्हें रात बितानी थी। बस यात्रा बहुत ही थकाऊ थी और शाम का भोजन करने के तुरंत बाद सरोज ने सोने के लिए अपना बैग खोल दिया, ताकि वह उसकी गरम आगोश में सुस्ता सके। बलजीत अभी भी अपने दोनों दोस्तों के साथ गप्पें लगा रही थी। कितनी सिरफिरी लड़की थी वह ! उसे भी थकान लगनी चाहिए थी उस बस यात्रा के कारण। उन्हें अगली सुबह लंबी ट्रेक पर जाना था ताकि रात होने से पूर्व वे अपने निर्धारित स्थान पर पहुँच सके। गार्ड ने उन्हें रुकने और खाने पीने की व्यवस्था के बारे में सूचित कर दिया था। उन्हें प्रतिदिन तीस किलोमीटर की ट्रेकिंग करनी है। अब किसे फुर्सत पड़ी है कि बलजीत को कहे कि इतनी कठिन ट्रेकिंग के लिए शारीरिक और मानसिक विश्राम की आवश्यकता होती है।
क्या वह असाधारण लड़की है? सरोज को ऐसे लगने लगा मानो वह फौलाद की बनी हो। न तो वह खुद विश्राम करती है और न ही औरों को करने देती है। उसका खिलखिलाकर हँसना ,उसकी ऊर्जा और उसकी मोक्ष की थ्योरी हर किसी से अलग थी। इसलिए कुछ समय के बाद अपने दिमाग से ये सारी बातें निकालकर प्रेमिका प्रियदर्शनी ,काठजोड़ी नदी और अपने प्रिय शहर कटक के बारे में सोचने लगा।
वह दूसरी सुबह किसी की आवाज सुन तेजी से हड़बड़ाकर उठा।
“स्वाईं! स्वाइन!”
अपने कोने के बिस्तर से आंखे भींचते हुए उसने देखा , तिवारी ठंड से कांप रहा था। उसने केवल एक शाल ओढ़ रखी थी और अपने होठों से मुगले आजम –“ प्यार किया तो डरना क्या ....” गुनगुना रहा था। सरोज स्वाईं सरोज का पूरा नाम था। हिन्दी भाषी तिवारी इलाहाबाद का रहने वाला था और स्वाईं का उच्चारण स्पष्ट नहीं कर पाता था ,इसलिए उसे ‘स्वाइन’ सुनाई देता था। अपने प्रोबेशन पीरियड की शुरूआत में जब तिवारी,चतुर्वेदी और ठाकुर उसे स्वाइन नाम से पुकारते थे ,वह सोच रहा था कि उन सभी को बुरी तरह पीट दें क्योंकि स्वाइन का अर्थ ओडिया भाषा में सूअर होता था। मगर वह कोई सूअर नहीं था, वह कटक का नवयुवक था। उसके पिताजी ने उसका नाम सरोज स्वाईं रखा था और वे उसके उपनाम का सही उच्चारण नहीं कर सकते है तो कम से कम पहले नाम सरोज से बुलाना चाहिए। शुरू-शुरू में उसने उन्हें कई बार कह दिया था कि उसे उसके पहले नाम से बुलाना दूसरे रूप में उसे अभद्र और अनुचित लगता है। अतः बिना किसी इच्छा के उसने अपना नाम ‘स्वाइन’ स्वीकार कर लिया। बलजीत ही अकेली ऐसी थी जो उसे सरोज कहकर पुकारती थी और कभी-कभी मिस्टर दार्शनिक के नाम से। उसने एक बार उससे पूछा, “ तुम मुझे सरोज के नाम से क्यों पुकारती हो ,जबकि दूसरे लोग स्वाइन के नाम से बुलाते है?”
उसने उत्तर दिया , “जब कोई उन्हें पहले नाम से बुलाता है तो उसमें जान-पहचान की गंध आती है और उपनाम तो दूरियों को बढ़ाता है। यह ज्यादा औपचारिक भी लगता है। और मैं अपने सम्बन्धों की प्रगाढ़ता की नींव तुम्हें औपचारिक रूप से बुलाकर कमजोर नहीं करना चाहती।“
तिवारी अपने गाने के स्वर तेज करते हुए फिर से चिल्लाया , “स्वाइन”। उसके इस तरह गाने के पीछे का रहस्य था, वह अपना टूथपेस्ट लाना भूल गया था और वह सरोज से उधार लेना चाहता था। सोने के बिस्तर से बाहर निकलकर अपना टूथपेस्ट उसे दिया।
सुबह का कोहरा खत्म नहीं हुआ था। काँच के दरवाजों और खिड़कियों पर धुंध छा गई थी और दूर-दूर ओस भीगे खेत के मैदान नजर आ रहे थे। सुबह का सूरज आसमान में चढ़ रहा था। सरोज बाहर जाकर जंगल के रेस्ट हाउस की सीढ़ियों पर कुछ समय चुपचाप बैठा और सोचने लगा कि वह अपने सारे इन अर्जित अनुभवों को वह प्रियदर्शनी को लिखेगा। कितनी सुंदर जगह है यह ! शादी के बाद उसे यहाँ हनीमून पर लाना कितना रोमांटिक लगेगा ! इसी बीच बलजीत सबके लिए चाय तैयार कर ले आई। सरोज उठाने वाला ही था कि गरमागरम चाय देते हुए बलजीत उसके पास बैठ गई। वह स्नान कर चुकी थी और उस सुनहली सुबह में वह एकदम तरोताजा लग रही थी। एक पल के सरोज को लगा कि वह बलजीत नहीं है, बल्कि प्रियदर्शनी है। वह अनमने भाव से बलजीत के मासूम चेहरे की ओर देखने लगा। उसके होठों पर शरारत भरी एक मुस्कान थी। वह कहने लगी , “ क्यों सरोज , क्या तुम सोच रहे हो कि मैं भोली-भाली लड़की हूँ जिसने तुम्हारे दिलो-दिमाग से तुम्हारी प्रेमिका की यादों को मिटा दिया हो? मैं सही कह रही हूँ न? ”
सरोज शर्म से लाल हो गया और मुस्कराने लगा। बलजीत कहने लगी, “एक बार फिर मुस्कराओ। तुम्हारी मुस्कराहट इतनी पवित्र और मासूम है – एक प्यारे बच्चे की तरह। तुम बार-बार क्यों नहीं हँसते? मगर आज तुम्हें सारे दिन मेरे लिए हँसना होगा। जब तुम मुस्कराते हो तो तुम्हारी मुस्कराहट तुम्हारे बड़े बड़े चश्मों के पीछे छिप जाती है। इसलिए आज तुम चश्मा मत पहनना। अगर ट्रेकिंग के समय तुम अपना रास्ता भूल भी जाते तो चिंता मत करना, मैं तुम्हारे लिए गाइड का काम करूंगी। मगर वादा करो, तुम सारा दिन मेरे लिए मुस्कराते रहोगे। केवल मेरे लिए। “ यह कहते हुए बलजीत ने उसकी हथेली अपने हाथों में मजबूती से पकड़ ली। उसे हमेशा सनक सवार रहती थी। उसे शब्दों को तोड़-मोड़कर कहना या कूटनीति करना नहीं आता था। वह जानती थी कि अगले महीने सरोज की शादी प्रियदर्शनी से होने जा रही है और उन दोनों की सगाई भी हो गई है। सरोज दिनभर उसके बारे में दिवास्वप्न देखते रहता है ,उसके बारे में सोचता है, अपनी यादों को उसे लिखता है , इसलिए जब भी वह प्रियदर्शनी को लिखने बैठता तो बलजीत मज़ाक करते हुए उसे कहने लगती, “ आज मैंने कॉफी हाउस में तुम्हारे साथ डेटिंग रखी है और आज कम से कम प्रियदर्शनी की यादों पर ताला लगना चाहिए।“ वह खुले मन की थी। उसके क्रियाकलापों में कोई खराबी नहीं थी। उसके इरादे नुकसानदायक भी नहीं थे। एक बार सरोज ने उससे कहा, “ जब तुम सबके सामने मुझे ‘स्वीट हार्ट फ़िलॉसफ़र’ कहती हो, तुमने कभी सोचा है कि दूसरे क्या सोचेंगे?”
बलजीत ने उफनती हुई नदी की तरह बहते हुए कहा, “जिसको जो सोचना है, वह सोचें। मैं अपनी भावनाओं की तिलांजलि नहीं दे सकती दूसरों के खातिर। मैं तुम्हें ये सारी बातें इसलिए कह रही हूँ कि मैं तुम्हारा व्यक्तित्व हूँ। मुझे तुम्हारे जीवन में प्रियदर्शनी के आधिपत्य और स्थान के बारे में कोई लेना-देना नहीं। तुम जानते हो कि मैं एक इंक्रेडिबल फ़्लर्ट हूँ। तुम ही एक मात्र ऐसे हो जिसने अपने जीवन में एकमात्र औरत के साथ रहने की कसम खाई है। ठीक है, मैं अगले जन्म में तुम्हारा इंतजार करूंगी ,राधा की तरह। और तुम कृष्ण के रूप में मेरे लिए जन्म लोगे और हम फिर से वर्जित व्यभिचार में उलझ जाएंगे।“
बलजीत की ये सारी बातें सुनकर सरोज को तनिक भी अचरज नहीं हुआ। हर आदमी अपने कंधों पर सामान लादकर ट्रेकिंग के लिए तैयार था। जब वह अपने जूतों के फीते बांध रहा था , बलजीत उसके कानों में फुसफुसाने लगी।
“स्वीट हार्ट, तुम अपने चश्मे नहीं पहन सकते हो। आज तुम्हें केवल मेरे लिए हँसना है। तुम्हारी और मेरी हंसी के बीच मैं इन चश्मों को बर्दाश्त नहीं कर सकती हूँ। बड़े-बड़े लेंस मुझे मेरी सौतन लग रहे है।“ लेंस पर जमी ओस को साफ करते हुए सरोज ने हामी भरी। उससे बहस करने में कोई फायदा नहीं था। उसे किसी भी चीज से लेना-देना नहीं था। गाइड ने घाट रोड पर ट्रेकिंग शुरू होने के लिए सीटी बजाई।
इस तरह ट्रेकिंग के तीन दिन पूरे हो गए थे। हर सुबह सूर्योदय से ट्रेकिंग शुरू होती थी और दोपहर तक वे अपने निर्धारित जगहों पर पहुँच जाते थे और किसी फॉरेस्ट गेस्ट हाउस या रेस्ट शेल्टर में विश्राम करते थे। वे बाहर में केंप फायर करते और पहाड़ी सर्द हवाओं से बचने के लिए जैकेट पहनकर आपस में राजस्थानी या गुजराती लोकगीत गाते या फिर अंताक्षरी खेलते। हालांकि केंप में शराब पीना मना था,मगर तिवारी और चतुर्वेदी बंगले के पीछे जाकर किसी भी तरह एक दो पेग व्हिस्की या रम पी लेते थे। और फिर वे रोमांटिक मूड में हरिवंश राय बच्चन की मधुशाला की पंक्तियाँ दोहराते। बलजीत राजस्थानी या पंजाबी लोकगीत गाती और बीच-बीच में नाचने लगती थी। वह सरोज को अपने साथ नाचने के लिए आमंत्रित करती थी , मानों वह महफिल को रंगीन करने की कला जानती थी। जंगल में केंप की उन रातों में हर शाम वह अकेली परफॉर्मर थी।
ट्रेकिंग के तीस किलोमीटर प्रतिदिन तय करने के बाद वे लोग आखिर में ‘हर की धुनी’ वाली जगह पहुँच गए। बलजीत झरनों के पास फोटोग्राफी के लिए अपना पोज देती तो कभी पहाड़ी नदियों के पास तो कभी अकेली तो कभी अपने साथ दोस्तों को भी खींच कर ले जाती। वे आगे बढ़ते हुए धारवाड रेंज में पहुंचे। वहाँ कोई फॉरेस्ट रेस्ट हाउस नहीं था। उन्हें समतल धरातल पर अस्थायी केंप बनाना था। वह जगह पर्वतमाला की सबसे ऊंची चोटी थी और वहाँ से उन्हें नीचे की ओर जाना था। कई दिनों के चढ़ाव के बाद वे सभी बुरी तरह थक गए थे और आगे चढ़ने की बिलकुल हिम्मत नहीं बची थी। तिवारी,ठाकुर और चतुर्वेदी अपनी बची हुई शराब की बोतलों को खत्म करने में लगे थे। पर्वतारोहियों में मल्होत्रा और चड्ढा ने अपनी क्षमता का प्रदर्शन करते हुए स्थानीय आदिवासियों से गाँजा और चिलम इकट्ठी कर ली थी और हर की धुनी में उनका कस उड़ाते हुए मजे ले रहे थे। नयना बनर्जी और अर्चना जोगलेकर गाइड से अपनी पाँवों में पड़े फोड़ों को ठीक करने के लिए टिप्स ले रही थीं । दो दिनों के बाद उन्हें उत्तरकाशी जाना था और वहाँ से बस पकड़कर मसूरी ट्रेनिंग एकेडेमी में जाना था । वे अपने लौटने की यात्रा के बारे में सोच रही थीं। इस कारण बलजीत के फुसलाने के बाद भी कोई भी उस रात बोनफायर में उसके साथ नहीं आया।
कुछ दूरी पर सरोज एक बड़े पत्थर पर बैठा हुआ था बलजीत उसके पास जाकर बैठ गई। सरोज हर दिन कि तरह शांत था ,मगर बलजीत कुछ ज्यादा ही शांत थी। सरोज ने चुप्पी तोड़ते हुए पहले कहा, “ पहाड़ी धाराएँ मैदानों में नदी की तरह धीमी क्यों हो जाती है?” बलजीत उसके चिढ़ाने पर मुस्कराई और कहने लगी-, “ आज कोई भी कैंप फायर में क्यों नहीं आ रहा है? ऐसा लग रहा है मानो सभी जाने के लिए उतावले हो। कोई भी नई चीजें ,नए अनुभव खोजने तलाशने में इच्छुक नहीं दिख रहे है। जैसे ट्रेकिंग का सारा आकर्षण और चुनौतियाँ समाप्त हो गई हो। मिस्टर दार्शनिक, क्या तुम मुझे बता सकते हो , नीचे जाने के लिए हर आदमी ज्यादा खुश दिखाई दे रहा है न कि ऊपर चढ़ने के लिए? इतनी ऊंचाई पर चढ़ने के बाद लगभग आकाश छूती ऊंचाई , बादलों को छूते मैदानों में क्यों लौटना चाहते है? मगर मैं और ज्यादा ऊपर चढ़ना चाहती हूँ , बादलों को पकड़ना चाहती हूँ और आकाश को बहुत नजदीक से अनुभव करना चाहती हूँ। मैं केवल ऊपर चढ़ने के लिए सपने देखती हूँ और मुझे नीचे उतरने की यथार्थता से डर लगता है। “
सरोज को उसके ये शब्द बहुत ही विचित्र लग रहे थे। वह उसका बदला हुआ स्वरूप देख रहा था , कि वह लड़की जो इतनी ज्यादा बातूनी थी और जो उसे खुले मन से मिस्टर दार्शनिक कहकर चिढ़ा रही थी , वह आज जिंदगी के गहरे अनुभवों के साथ दार्शनिक होती जा रही थी। कुछ समय तक वे अकेले व शांत बैठे हुए थे , तभी पास वाले गाँव से बांसुरी की मधुर तान सुनाई देने लगी। यह धुन पारंपरिक धुनों से बिलकुल हटकर थी। यह चरवाहों द्वारा बनाई धुन नहीं थी। कुमायूं के जंगलों की तरह रहस्यमयी पहाड़ी गांवों में झुरमुटों के पीछे सूरज जल्दी डूब जाता है। हरेक आदमी जल्दी खाना खाकर आग के पास ,अपने घरों में जल्दी सो जाता था। कुछ लोग खेतों में फसलों की सुरक्षा के लिए चले जाते थे। तब ऐसा कौन हो सकता है जो देर रात बांसुरी से इतनी मधुर धुन निकाल रहा होगा –दर्द ,आशा ,प्रेम ,चिंता और भविष्य की मिली-जुली प्रतिध्वनि लिए। जंगल में इतनी मधुर बांसुरी की धुन ! मानो वह कुमायूं की आत्मा हो। सरोज ने इस धुन में खोकर अपनी आँखें मूँद ली। बलजीत उसे झिझोड़ते हुए कहने लगी ,” जिम कार्बेट के बारे में बहुत सारी कहानियाँ है जिसने कुमायूं की पहाड़ियों के घने जंगल में नर भक्षियों से अनेक गाँव वालों को बचाया था। मगर मैंने ऐसा कहीं नहीं पढ़ा , नर-भक्षियों से बेखौफ किसी बांसुरी वादक की इस तरह मंत्र-मुग्ध करने वाली बांसुरी बजाने की घटना। मेरे स्वीट हार्ट दार्शनिक, शायद तुम इस संगीत में अपने शहर ,नदी और अपनी प्रियदर्शनी को खोज रहे हो। या फिर हो सकता है प्रियदर्शनी को संदेश भेजने के लिए भगवान ने उसे भेजा हो जैसे कालिदास के संदेश मेघदूत बादलों द्वारा ले जाए जाते थे। अब बहुत समय हो रहा है। प्रियदर्शनी यहाँ से दो हजार किलोमीटर की दूरी पर है। अगर तुम चाहोगे तो भी उसे नहीं मिल सकते। तब तक क्या मैं तुम्हारी प्रियदर्शनी नहीं बन सकती? मुझे देखकर कम से कम अपने मन को तसल्ली दो। क्या मैं ठीक नहीं कह रही हूँ? ”
धारवाड़ शृंखलाओं से धीरे-धीरे नीचे की यात्रा शुरू हुई। उन्होंने एक रात धुण्डीगल झील पर गुजारी। जंगल कम होता जा रहा था और उनमें रहने वाले जीव-जन्तु विलुप्त होते जा रहे थे। भीड़ भाड़ से कुछ दिन दूर रहने के बाद वे अपनी जानी-पहचानी दुनिया की ओर लौट रहे थे। पहाड़ियों पर बच्चे उनकी ओर हाथ हिलाते हुए चिल्ला रहे थे , “ प्रसाद,प्रसाद ,मिठाई ...” उन्हें पता था कि साधारणतया इस तरह के साहसी दलों के पास खूब सारी चाकलेट होती हैं। और पहाड़ी बच्चों के लिए हर मीठी चीज मिठाई या प्रसाद होती है। औरतों के दल सिर पर जलावन लकड़ी लिए तथा पीठ पर फसलों की गठरी बांधे मुस्कराती हुई जा रही थी। अब उनमें रजनीगंधा या चमेली के फूलों की खुशबू नहीं थी। पर्वतारोही दल दर्रों से नीचे उतरते हुए मैदानी इलाकों की ओर बढ़ रहे थे। नीचे उतरने की वजह से उनके कदम तेजी से बढ़ रहे थे। ऊपर चढ़ते समय जितनी दूरी तय होती थी, उससे ज्यादा दूरी नीचे उतरने में तय हो रही थी। अंत में ट्रेकिंग समाप्त हुई और वे वापस बस में बैठकर उत्तरकाशी की रवाना हुए। उन्हें वहाँ इंस्पेक्शन बंगले में एक रात रुकना था और फिर मसूरी जाना था। उत्तरकाशी पहुंचने के बाद उन्होंने गरम पानी से स्नान किया और फिर कुछ खरीददारी करने स्थानीय बाजार की ओर चल दिए।
पहाड़ी इलाकों में बहुत सर्दी पद रही थी। उन्होंने बड़ी मुश्किल से अपने दैनिक कार्यों से मुक्ति पाई। बाजार में टहल कर आने के बाद पेट भर भोजन करने के बाद वे सो गए। वे इतनी गहरी नींद के आगोश में सो गए मानो पहाड़ो में सात दिनों के ट्रकिंग के बाद एक ही नींद में वे अपनी थकान मिटाना चाह रहे हो। सरोज बेड लैम्प के पास बैठकर प्रियदर्शनी को एक पत्र लिख रहा था। वह जंगले में घूमने के अपने उत्तेजक और अद्भुत अनुभवों को लिख रहा था और उसके प्रति अपने संवेदनाओं को भी अभिव्यक्त कर रहा था। जब उसने अपना लंबा प्रेम पत्र समाप्त किया। बारह बज चुके थे। बंगले के नजदीक डाकघर में पत्र डालने के बाद ,वह आकर अपने सोने के बिस्तर के अंदर घुस गया।उसे उत्तरकाशी से लौटकर ओदिशा जाने के लिए एक हफ्ते के छुट्टी लेनी पड़ेगी। उसे अपने घरवालों तथा सगे संबंधियों के खूब याद आ रही थी।
तब तक कितना बजा होगा?रात के दो या तीन बज रहे होगे। स्लीपिग बेड के भीतर उसने अनुभव किया मानो वह हिल रहा हो। उसके बाद उसने बाहर चिल्लाने के कुछ आवाज सुनी। मानो वह कोई बुरा सपना देख रहा हो। अचानक बलजीत की आवाज सुनाई पड़ी –‘’सरोज जल्दी उठो, बाहर आओ। भूकंप आ रहा है /’’ तब तक सरोज के नींद नहीं खुली। बलजीत ने उसे स्लीपिग बेड समेत बाहर के और खींचा और बाहर ले आया। जब सरोज ने अपने को बाहर लॉन में पाया उसने देखा कि उसके साथी और गेस्ट हाउस के अन्य लोग पहले से बाहर जुटे है। बंगले की पहली मंजिल टूट चुकी थी। वह फर्श जहां कुछ समय पहले वह सो रहा था ,तेजी से हिलने लगी और लगभग गिरने वाली थी।
तीन मिनट बाद वह भी थक कर चकनाचूर हो गई थी। ब्रिटिश जमाने की विशाल इमारत भी कुछ ही मिनटों में ध्वस्त हो गई। भयंकर हलचल और चिल्लाहट के बाद सब शांत हो गया। कुछ समय बाद भूकंप का प्रभाव भी समाप्त हो गया, उनकी आँखों के सामने था मौत से बाल-बाल बचने का विचित्र अनुभव। इस अनुभूति को महसूस कर सब सन्न रह गए थे। उस रात वे सभी रहे कंपकंपाती सर्दी में ठिठुरते हुए बाहर घास के मैदान में। विनाश की काली रात के बाद उत्तरकाशी में आकाश में सुबह का सूरज चमकने लगा। भूकंप के कारण घाट रोड पर जहां तहां पत्थर गिरे हुए थे। भूस्खलन की वजह से सड़कें बंद थी , जब तक कि वहाँ का मलबा साफ नहीं किया जाता मसूरी के लिए बस में जाना नामुमकिन था। उनके पास ठहरने के लिए कोई जगह नहीं थी और अभी भूकंप का खौफनाक मंजर आँखों में समाया हुआ था। बाहर खुले में बहुत ज्यादा ठंड लग रही थी। वे किसी भी परिस्थिति में उत्तर देने के लिए तैयार नहीं थे। उन्हें नया जीवन प्राप्त करने के लिए गरम चाय की भयंकर जरूरत थी। वे चाय की तलाश में बाजार की ओर रवाना हुए।
उत्तरकाशी में हर जगह, हर कोने में भूकंप के विनाश के निशान मौजूद थे। बड़े-बड़े भवन ,सिनेमाघर ,सरकारी और निजी कार्यालय ,निवास-स्थान सभी पर गत रात हुई विनाशलीला के हस्ताक्षर विद्यमान थे। तब तक मरे हुए लोगों की संख्या सौ पार कर चुकी थी और चार सौ घायल। मलबे में दबे लोगों को बचाने के लिए बचाव दल जुटा हुआ था। स्थिति को नियंत्रण में लाने के लिए स्थानीय प्रशासन ,पुलिस ,अग्नि-शमन और पैरा मिलिटरी दल सभी घटना स्थल पर मौजूद थे। अग्निशमन की घंटियां , जिनके परिवार- पति, पिता और बच्चे मर गए थे ,उन लोगों का रुदन चारों तरफ फेल गया था और उनके क्रंदन से उत्तरकाशी का आकाश कांप उठा था और सारा शहर रो रहा था।
शहर में कुछ जगह पर चाय की दुकानें खुली हुई थी, वहाँ बहुत भीड़ लगी हुई थी। कुछ समय इंतजार करने के बाद बलजीत और सरोज को चाय नसीब हुई। बलजीत आज अपने स्वभाव के विपरीत शांत लग रही थी। उसका चेहरा भरे हुए आकाश की तरह मलीन दिख रहा था। उसकी आँखें सूजी हुई और लाल दिख रही थी। वह सलवार कुर्ता पहनी हुई थी और एक शाल ओढ़े रखी थी ,सिर पर स्कार्फ बंधा हुआ था। सरोज सोच रहा था कि कुछ ही समय में उसकी असामान्य चुप्पी टूट जाएगी। मगर नहीं। ऐसा लग रहा था जैसे दुखों के बादल उसके प्रफुल्लित चेहरे पर घुमड़ रहे हो। इसलिए सरोज ने बातचीत करना शुरू किया, “ बलजीत, सभी बंगले में लौट गए होंगे। स्थानीय प्रशासन जरूर हमारे लिए कुछ करेगा। हमारे लिए यह जरूरी है कि हम अपनी ट्रेनिंग अकादमी तथा परिवार वालों को सूचित करें कि हम लोग सही सलामत है।अब हमें चलना चाहिए। “
मगर बलजीत के चेहरे पर किसी भी प्रकार कि कोई शिकन नहीं आई। कठपुतली की तरह उसने अपने हाथ सरोज की तरफ बढ़ाए मानो वह कह रही हो कि उसे एक साथी कि सख्त जरूरत है। वह युवती जो जंगल में ट्रेकिंग के दौरान उसे खुश रखने के लिए बहला फुसला रही थी और मोटे चश्मे को उतार फेंकने के लिए कह रही थी ,क्योंकि उसके पीछे उसकी मुस्कराहट छिप जा रही थी। और उसे बिना चश्मा पहने जंगल में ले जाने का दायित्व अपने सिर पर लिया था ,आज वह लड़की इतनी कमजोर हो गई कि उसे किसी के सहारे की जरूरत पड़ने लगी। उसके लगातार हंसने और कबूतरी की तरह चहकने वाले व्यवहार से वह बहुत दुखी थी। वह सोचता रहता था कि व्यर्थ में अकारण किसी को भी इतना ज्यादा नहीं हँसना चाहिए। क्या जिंदगी की संवेदना केवल हंसी ही है?
मगर बलजीत के चेहरे पर उस चीर परिचित मुस्कराहट न देख उसका हृदय गहरे दुख से भर गया था और वह खालीपन अनुभव करने लगा था। बलजीत जैसी लड़कियों को हमेशा हँसना चाहिए डर,दुख,तनाव और अवसाद से कोसों दूर रहते हुए। वह सरोज का हाथ पकड़ कर धीरे-धीरे चल रही थी मानो अपने अस्थिर कदमों को वह गिन रही हो। जब वे बंगले में पहुंचे , बाकी लोग खाना बनाने में व्यस्त थे। चाय की दुकान से लेकर बंगले तक जाने में बलजीत ने एक भी शब्द अपने मुंह से नहीं निकाला। यहाँ तक कि उसने खाना खाने से भी इंकार कर दिया। अभी लोग बंगले के लॉन में आराम कर रहे थे। दोपहर का सूरज उत्तरकाशी के आकाश में उतरने लगा था। मसूरी जाने वाली सड़क से अभी तक बड़े-बड़े पत्थर नहीं हटाए गए थे ,इसलिए उनके लौटने की यात्रा अनिश्चित लग रही थी। भागीरथी नदी डाक बंगले के पास धीरे से बह रही थी मानो कुछ भी नहीं घटित हुआ हो और आज और कल के दिन में कोई फर्क नहीं हो। खबर मिली कि फॉरेस्ट रेस्ट हाउस जहां वे रात रुके थे, उस जगह और आस-पास के गाँव की दीवारों के नामोनिशान नजर नहीं आ रहे थे। भूकंप के बाद पहाड़ी नदी में उठे उफान ने हर चीज बहा ली थी। यह खबर सुनकर बलजीत ने अपने दस घंटों की चुप्पी को तोड़ते हुए कहा, “गढ़वाली वॉचमेन ,उसके बच्चे और उसकी जंगली फूलों जैसी तरोताजा और आकर्षक पत्नी , क्या वे सब जिंदा होंगे? ”
सरोज ने कुछ भी उत्तर नहीं दिया। फिर से बलजीत ने प्रश्न दोहराया , जिससे उसके शरीर में सिहरन उठ गई ,” बताओ, मिस्टर दार्शनिक, वे सब अभी तक जिंदा है? हो सकता है ,यह सही नहीं हो कि तुम मुझसे ऐसा झूठ बोल सकते हो ...... मैं मौत बर्दाश्त नहीं कर सकती। मैं जीना चाहती हूँ। मैं किसी को भी अपने आस-पास के लोग,दोस्त ,संबंधियों को मरते हुए देखना नहीं चाहती। मैं उनकी लाशें नहीं देख सकती। मुझसे मौत नहीं देखी जाती। “
बलजीत कौर रोने लगी आषाढ़ महीने की पहली बारिश की तरह। सरोज ने उसमें किसी भी प्रकार का व्यवधान नहीं डाला। क्या कोई पहाड़ी धाराओं को रोक सकता है?
उत्तरकाशी की हर जगह तब तक कराहने लगी थी। कुमायूं और टिहरी के पर्वतों से उनके विलाप की आवाजें बलजीत कौर के आंसुओं में मिलती जा रही थी। बलजीत ने रोते हुए कहा, “इस क्रूर समय ने मुझसे सब कुछ छीन लिया। मेरे पिता , भाई-बहिन,और मेरे सगे संबंधी। 1984 की दिल्ली की मारकाट में उन्हें तिलक नगर में मुझसे छीन लिया और उन्हें जिंदा जला दिया। मैं घर में छिप गई थी इसलिए मेरी जान बच गई। मेरे सगे हरजिंदर ने दौड़कर मेरी जान बचाई। उन्होंने उसको भी नहीं छोड़ा। उन्होंने हमारे फ्लैट के सामने स्कूटर समेत उसे जला दिया मैंने अपने चाचा के घर में शरण ली। मैं जिंदा रही और ट्यूशन करके पढ़ती रही ,तब जाकर आज मैं इस जॉब के योग्य बनी। जिंदगी भर इतने आँसू बहाने से एक दिन मेरी आँखों में आँसू सुख गए और मैंने कसम खाई कि मैं और कभी नहीं रोउंगी। मैं केवल हसूँगी। मैं मौत की छाया के अंदर जिंदा नहीं रहूँगी। मैं अपने जीवन के प्रत्येक क्षण का आनंद लूँगी और मेरी कोई भी इच्छा बाकी नहीं रहेगी। मौत आने तक समूचे जीवन भर मुस्कराने का ढंग – वास्तव में मेरे लिए मोक्ष था न कि जिंदगी का अंत। जिस क्रूर मौत ने एक दिन मेरे सारे परिजनों को मुझसे छिन लिया था ,उसे मेरे अदम्य साहस के आगे झुकना होगा। मगर नहीं, अगर तुम्हारा जन्म हुआ है ,तुम्हें मरना है,यही जिंदगी का क्रूर सत्य है। कोई भी इस कठोर सत्य से नहीं बच सकता। परंतु, तुम देखोगे ,मिस्टर दार्शनिक,मैं मेरी मोक्ष की थ्योरी के साथ जिंदा रहूँगी। जब तक कोई मेरी समाधि पर दीया नहीं जला देगा तब तक मेरे होठों पर हमेशा हंसी बनी रहेगी।“
बलजीत कह रही थी, रो रही थी, और दुपट्टे से अपने आँसू पोंछ रही थी।
उत्तरकाशी में सूरज ढल रहा था। कुमायूं के झुरमुटों से उसकी चमक घटती जा रही थी और साथ ही साथ लॉन पर भी। बंगले के खंडहरों पर भी सूरज का प्रकाश मद्धिम होने से पहले भागीरथी नदी पहले की तरह आसपास के चट्टानी पहाड़ों पर साँप की तरह बढ़ते हुए बहती जा रही थी।