कुलच्छन / कविता भट्ट
आचार्य सुरेशानंद लगभग पाँच घंटे की कथा करने के बाद भक्तों को प्रसाद बाँटकर अपने घर लौट आए। मुँह-हाथ धोया और कपड़े बदलकर डायनिंग टेबल पर भोजन की प्रतीक्षा करने लगे। पत्नी भोजन लगाने लगी। आचार्य जी बोले, ‘’आज बहुत थक गया हूँ….कुछ अच्छा खाना हो ,तो मज़ा आ जाए। अरे कमला! ज़रा फ़्रिज से व्हिस्की की बोतल निकाल ला और चिकेन थोड़ी देर से सर्व करना गरम-गरम।”
कमला बोली-“आज तो मैंने खाने में आलू बनवाए हैंबिना प्याज लहसुन के; कथा सुनने गई थी; तो शांता को फोन करके कह दिया था...।’’
इससे पहले की कमला की बात पूरी होती ,आचार्यजी जोर-जोर से चिल्लाने लगे-“दिमाग खराब हो गया है तुम्हारा, किसने कहा था काम-धाम छोड़कर कथा सुनने जाओ और हाँ कान खोलकर सुन लो; कथा सिर्फ दूसरों को सुनाने के लिए होती है, इसीलिए वह उपदेश कहलाता है। सत्यानाश कर दिया सारे मूड का !!! कलमुँही कहीं की...कुलटा... !!” गालियों की बौछार से उद्विग्न होकर कमला के होंठ काँपने लगे। दुःख और अपमान के कारण मानो वह धरती में समा जाना चाहती हो!
नौकरानी शांताबाई, साहब का राक्षसी रूप देखा ,तो घबराकर बाहर चली गई।
कमला के कानों में आचार्य सुरेशानंद के ये बोल पिघले सीसे की तरह पड़ रहे थे- “बोलो सत्यनारायण भगवान की जय!’ यह जयकारा बुलवाकर उन्होंने श्रीमद्भागवत कथा के अंतर्गत शाकाहारी भोजन पर उपदेश प्रारम्भ करते हुए कहा था ,“भक्तो ! हम जैसा खाएँगें अन्न, वैसा ही होगा मन। प्याज, लहसुन एवं मांस-मदिरा आदि बुद्धि को भ्रष्ट कर देते हैं। इनका सेवन व्यक्ति को राक्षस बना देता है। इसलिए इनका सेवन किसी भी परिस्थिति में वर्जित है.....भूमि पर बैठकर शुद्ध सात्त्विक भोजन ही करना चाहिए।’’
“लाज नहीं आती, कुछ देर पहले कथा में क्या -क्या उपदेश झाड़ रहे थे !’’ कमला के नथुने फड़क उठे !
“तुम्हारी इतनी हिम्मत,कुलच्छिनी !!”,आचार्य फट पड़े ।
थोड़ी देर बाद बर्तन फेंकने और मार-पीट की आवाज से घर गूँजने लगा।
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