कुल्हिया में गुड़ फोड़ने के लिए हो रहे लाखों जतन / जयप्रकाश चौकसे

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कुल्हिया में गुड़ फोड़ने के लिए हो रहे लाखों जतन
प्रकाशन तिथि : 22 दिसम्बर 2020


आनंद बक्शी ने सुभाष घई की फिल्म ‘खलनायक’ के लिए गीत लिखा ‘चोली के पीछे क्या है?’ शांति प्रिय मजरूह सुल्तानपुरी भड़क गए कि क्या यह गीत अश्लील नहीं है? इसके दशकों पूर्व देव आनंद कल्पना कार्तिक अभिनीत फिल्म में गीत था, ‘आंचल में क्या जी गजब सी हलचल’, ऐसी चुहलबाजी गीतों में हमेशा होती आई है। ‘सरकाए लो खटिया’ भी गाया गया है। एक बार लता मंगेशकर ने फिल्म ‘बूट पॉलिश’ के लिए गीत ‘मैं बाजारों की रानी’ गाने से इंकार कर दिया तो गीतकार ने तुरंत लिखा ‘मैं बहारों की नटखट रानी।’ लता ने इसे सहर्ष गाया। जोश मलीहाबादी जैसे शायर भी एक फिल्म के लिए गीत लिख चुके हैं, ‘जुबना का उभार देखो जैसे गद्दर अनार देखो...।’ अत: चुहलबाजी खारिज नहीं की जा सकती। इसका अर्थ यह नहीं है कि फिल्मों में अश्लीलता नहीं होती। दादा कोंडके की फिल्मों के नाम ही अजब होते थे, जैसे ‘अंधेरी रात में, दिया तेरे हाथ में’ लेकिन कोई दादा कोंडके पुरस्कार नहीं है परंतु ‘दादा फाल्के’ पुरस्कार है और इसे पाना ही गौरव की बात है। कॉमेडियन द्वारा द्विअर्थी संवादों से अश्लीलता होती है। जानी वॉकर, देवेन वर्मा ने कभी ऐसा नहीं किया। महमूद जरूर भटक जाते थे। गुलजार की ‘अंगूर’ में भी चुहलबाजी है।

सुधीर कक्कड़ की किताब ‘इंटीमेट रिलेशन्स’ में एक प्राचीन ग्रंथ के एक हिस्से का आशय यह है कि शरीर की पांच इंद्रियां आकर्षण को जन्म देती है, इससे इच्छा का उदय होता है, भड़कती हुई इच्छाएं सोया हुआ पैशन जगाती हैं। यह कभी पागल सांड जैसा हो जाता है परंतु थोड़े से पागलपन के प्रकरण से इच्छा को पाप नहीं कह सकते। फिल्म ‘चित्रलेखा’ का गीत है। ‘संसार से भागे फिरते हो, भगवान को तुम क्या पाओगे इस लोक को भी अपना ना सके, उस लोक में भी पछताओगे, ये भोग भी एक तपस्या है तुम त्याग के मारे क्या जानो।’

एक पुरानी कहावत है की कुलिया में गुड़ फोड़ना, अर्थात अनावश्यक गोपनीयता बनाए रखना। कितने जतन किए जाते हैं इस अनावश्यकता के कारण। सीमाओं की सुरक्षा के लिए गोपनीयता आवश्यकता है पर हर मामले में आवश्यक नहीं है। प्राय: परिवार के सदस्य महत्वपूर्ण मामलों पर बात करते समय बच्चों को बाहर जाने का आदेश देते हैं। चतुर बालक कमरे से बाहर जाता है परंतु अपने कान वहीं छोड़ जाता है। रेणु शर्मा की कविता है, ‘कहते हैं दीवारों के कान होते हैं परंतु उनकी जुबां नहीं होतीं, दीवारें बोलती हैं, दहाड़ती हैं परंतु हमने अपनी सुनने की शक्ति कम कर ली है।

गणतंत्र व्यवस्था में सत्ता को सरहद की सुरक्षा के अतिरिक्त सभी प्रकरणों पर खुली बहस आवश्यक मानी जाती है। संसद कोई व्यक्तिगत कुलिया नहीं जिसमें आप गुड़ फोड़ें। सामाजिक व्यवहार में सरप्राइज गिफ्ट लेने-देने का चलन है। कुछ लोग सरप्राइज के नाम पर शॉक देते हैं, जैसे आधी रात को मुद्रा का बदलना या नया कर लागू करना। किसानों से संबंधित नियमों पर भी खुली चर्चा नहीं की गई। यह अनावश्यक गोपनीयता आज कहर बनकर टूट रही है। कुछ देशों में इस आंदोलन के समर्थन में जुलूस निकल रहे हैं। कितनी मानव ऊर्जा का अपव्यय हो रहा है।