कुशाग्र / मयंक सक्सेना
चित्रा और मनोहर का प्रेम विवाह हुआ था। चित्रा सुन्दर नयन नक्श वाली एक साँवली युवती थी वहीँ मनोहर गौर वर्ण का छरहरा युवक था। दोनों की पहली मुलाक़ात उनके स्नातक के प्रथम वर्ष की परीक्षा के प्रथम दिन हुई थी। मनोहर चित्रा के मनोहरणीय रूप पर मोहित हो गया था। मृगनयनी चित्रा के वह घुँघराले बाल, सुर्ख गुलाबी अधर और उस पर मन्द मुस्कान मनोहर के ध्यान को रह-रह कर उसकी ओर आकृष्ट कर रहा था। वहीँ दूसरी ओर चित्रा को मनोहर की इन सब गतिविधियों का संज्ञान था। वह समझ रही थी कि वह युवक उसकी ओर रह-रह कर देख रहा है। परीक्षा के अंतिम दिन तक यही क्रम रह-रह कर चल रहा था और अंतिम दिन की परीक्षा के उपरान्त मनोहर ने चित्रा को अपनी भावनाएँ व्यक्त कर दी। मनोहर ने चित्रा के समक्ष शादी का प्रस्ताव भी रख दिया, जिस पर चित्रा ने अपनी स्वीकृति दे दी।
मनोहर उस शहर के एक समर्थ और नामचीन परिवार से सम्बंधित था, वहीँ दूसरी ओर चित्रा एक गरीब परिवार से थी। चित्रा ने मनोहर से कई बार यह पूछा कि क्या उसका परिवार एक गरीब घर की बेटी को स्वीकार करेगा। मनोहर हर बार उसे यही दिलासा देता रहा कि उसका परिवार निश्चय ही उनके इस रिश्ते को अपना आशीर्वाद देगा। समय बीतने लगा और एक रोज़ मनोहर ने चित्रा और उसके रिश्ते के लिए अपने माँ बाप से अनुरोध किया। मनोहर के पिता को इस रिश्ते पर कोई आपत्ति नहीं थी वहीँ दूसरी ओर मनोहर की माँ और मनोहर के भाई बहन दहेज़ न मिल सकने को लेकर उस रिश्ते से नाखुश हो चले थे। पर मनोहर ने भी जैसे एक ज़िद पकड़ ली थी कि उसकी शादी या तो चित्रा से होगी अन्यथा वह किसी और से शादी नहीं करेगा। फलतः मनोहर की ज़िद जीत गई और चित्रा मनोहर की अर्धांगिनी बन गई।
शादी के पहले ही दिन से शादी से पहले देखे गए खूबसूरत सपनों पर किसी की नाख़ुशी का अभिशाप लगना शुरू हो गया था। चित्रा के हर अच्छे बुरे कामों में गलतियाँ निकाली जाने लगी। भाभी के उत्पीड़न का कोई भी मौका न रह जाए इस फ़िराक में मनोहर के भाई बहन लगे रहने लगे। चित्रा की कोई भी प्रतिक्रिया नकारात्मकता में भिगो कर मनोहर के समक्ष प्रस्तुत की जाने लगी। मनोहर के नौकरी से आने के उपरान्त शायद ही कोई दिन ऐसा जाता हो जब मनोहर और चित्रा के बीच झगड़ा न होता हो। शादी के चार पाँच महीनों में दोनों के बीच हाथापाई तक की स्थिति बनना शुरू हो चुकी थी। ज्ञान बाबू को इस स्थिति से बनने वाले भविष्य का भलीभाँति बोध था किन्तु वह अपनी पत्नी और बच्चों के आगे बेबस थे और परिणामतः चित्रा के मन में मनोहर की छवि और मनोहर के मन में चित्रा की छवि इस हद तक मटमैली हो गई कि उनके ज़िन्दगी की गाड़ी उस तरह घिसटनी शुरू हो गई जैसे दो बैलों की बैलगाड़ी में एक बैल के लंगड़ा होने पर। लगभग पाँच और अन्य महीनों के बाद मनोहर और चित्रा की एक संतान हुई। उस संतान के मुखमण्डल पर एक असीम तेज-सा जान पड़ रहा था।
उस संतान के नामकरण समारोह का आयोजन किया गया जिसमें ज्ञान बाबू के परिवारी पुरोहित जी, जो कि एक ज्योतिषाचार्य भी थे, आमंत्रित थे। पुरोहित जी ने उस नवजात बालक को गोद में लेकर भविष्य की एक सम्भावना व्यक्त की कि यह बालक बौद्धिक होगा, जीवन की किसी भी परिस्तिथि में इसको परास्त करने का दम किसी में न होगा। पुरोहित जी ने ही उस नवजात का नामकरण कुशाग्र नाम के साथ किया। तदोपरांत उन्होंने ज्ञान बाबू को एकांत में चलकर कुछ बात करने को आमंत्रित किया। पुरोहित जी ने ज्ञान बाबू को बताया कि निःसंदेह कुशाग्र को परास्त करने का दम किसी में न होगा किन्तु कुशाग्र को उसकी ही ज़िन्दगी बर्बाद कर देगी। पुरोहित जी ने आगे बताया कि जहाँ तक उनका ज्ञान है, "कुशाग्र का जीवन अधिक समय का न होगा"। इतना बोलकर पुरोहित ज्ञान बाबू के घर से चले गए वहीँ ज्ञान बाबू स्वयं को जैसे एक अत्यंत शोक की समाधि में महसूस करने लगे।
ज्ञान बाबू का देहान्त कुशाग्र के जन्म के कुछ दिन पश्चात् ही पुरोहित जी की भविष्यवाणी से जनित चिन्ता में हो गया। पक्ष दर पक्ष, माह दर माह गुज़रने लगे। कुशाग्र भी दिन प्रतिदिन बड़ा होने लगा किन्तु मनोहर और चित्रा के झगडों में कहीं कोई भी कमी न थी और होती भी कैसे आख़िर ज़हर भी तो अपनों का दिया हुआ था। कुशाग्र पढाई में मेधावी था किन्तु अत्यन्त भावुक प्रवृत्ति का था। छोटी-छोटी चीज़ों में उसका दिमाग अलग ही तरह से काम करने लगता था। माँ बाप के झगड़ों में असहाय कुशाग्र तमाशबीन से ज़्यादा कुछ न रह गया था। माँ बाप को लड़ता देख बिलखता रहता, रोता रहता लेकिन चित्रा और मनोहर को जैसे ज़िन्दगी का कोई अनुभव ही न था और संभवतः वह खुली आँखों से भी किसी निद्रा के वशीभूत थे। क्रोध ने चित्त का हरण कर लिया था और अब तो नौबत ऐसी आ गई थी कि उस जानी दुश्मन प्रेमी युगल के झगड़ों के साक्षी पडोसी भी हो चले थे। चीख चिल्लाहट और अपशब्द भी किसी सीमा के बाहर हो चले थे। मनोहर-चित्रा के घर का माहौल किसी नर्क से भी वीभत्स हो चला था। दो दिन की शान्ति और पाँच दिन तक हंगामा और इसी हंगामों के बीच बड़ा होता हुआ सौम्य दिल वाला भावुक कुशाग्र।
समय बीतता गया और कुशाग्र किशोर से युवक वाली श्रेणी में आ गया। कुशाग्र का कुश के अग्र भाग के समान तेज वाला विवेक और उसकी मति भ्रष्ट हो चली। घर के नारकीय माहौल में क्रोध और अहम् का गुण कुशाग्र में भी विकसित होने लगा। कुशाग्र छोटी-छोटी बातों में असहज-सी प्रतिक्रिया देने लगा। अहम् की संतुष्टि के लिए हर व्यक्ति से उलझने लगा। प्रत्येक आने जाने वाले कुत्तों को पत्थर मारने लगा। चित्रा और मनोहर उसके इस बदलते स्वभाव से हैरान थे पर इतने समझदार नहीं थे कि उसके इस व्यवहार परिवर्तन के मूल कारण को समझ सकते। पुरोहित जी की एक-एक बात सत्य होती दिख रही थी। कुशाग्र मेधावी रहा। कुशाग्र से स्पर्धा करने का दम किसी में न रहा और जिसने यह प्रयास करने की हिम्मत भी की उसे कुशाग्र की बौद्धिकता के आगे नतमस्तक होना पड़ा।
घर में शान्त माहौल का रास्ता देखते-देखते कब कुशाग्र कुंठित होने लगा इसका एहसास उसे स्वयं तक न हुआ। असामान्यता के तमाम लक्षण उसमें स्पष्ट दिखने लगे थे लेकिन मनोहर और चित्रा को उनके प्रेम के प्रतीक से ज़्यादा दिलचस्पी लड़ाई झगड़ों में हो चुकी थी।
इसी बीच भावुक कुशाग्र के जीवन में एक युवती 'नेहा' आई। कुशाग्र और नेहा की दोस्ती दिन प्रतिदिन बढ़ने लगी। नेहा जिसे प्रेम की संज्ञा दे रही थी कुशाग्र के लिए वह बस एक उम्र का आकर्षण था, क्योंकि कुशाग्र ने कभी प्रेम का अनुभव किया ही नहीं था। चित्रा और मनोहर का वात्सल्य कुशाग्र को भरपूर मिला था क्योंकि वह उनकी इकलौती संतान था किन्तु उस वात्सल्य का आनंद अधिक समय तक टिक नहीं पाता था क्योंकि जब चित्रा और मनोहर साथ घर होते तो दोनों में विवाद होना निश्चित होता था। कुशाग्र के असामान्य व्यवहार से नेहा और उसका रिश्ता किसी परिणाम तक नहीं पहुँच सका।
कुशाग्र अपनी ही कल्पना की दुनिया में जीने लगा। उसके लिए यथार्थ कल्पना की तुलना में अत्यंत सूक्ष्म-सा रह गया। कुशाग्र ने लोगों से घुलना मिलना बंद कर दिया। लोगों से कम बोलना शुरू कर दिया। कुशाग्र स्वयं को अत्यंत हीन समझने लगा। उसका आत्मविश्वास धीरे-धीरे मरने लगा। बुज़ुर्ग चित्रा और मनोहर ने प्रत्येक यत्न करके देख लिए किन्तु सिर्फ निराशा ही हाथ लगने लगी। मनोहर के भाई बहन के परिवार चरम तक फलते फूलते देखे जा सकते थे किन्तु चित्रा और मनोहर के रिश्ते में मिलाया गया असामान्यता के एक मंद विष ने उसके पूरे परिवार को लीलने की तैयारी कर ली थी। एक रोज़ बाज़ार से एक समान लाते वक़्त कुशाग्र अपने उसी कल्पना के विचारों में मग्न चला जा रहा था कि पीछे से लगातार हॉर्न बजाते हुए आ रही एक तेज गति की कार उसको बुरी तरह से कुचल गई और मौके पर ही कुशाग्र की मृत्यु हो गई।
जिसकी मेधा के सामने उसका पूरा समाज, पूरा शहर नतमस्तक था, जो पूरा जीवन अपराजित रहा, जिसके सामने बड़े से बड़े सूरमा अपनी हार स्वीकार कर लेते थे आज ज़िन्दगी उससे जीत गई थी। मृत्यु का ग्रास बना वह युवक समाज की बदनीयति और कुंठा का जीवंत उदाहरण था। गौर वर्ण और सुन्दर नयन नक्श वाला वह दयालु और शान्ति प्रिय युवक घोर शान्ति में जा चुका था। खून से लथपथ सड़क पर पड़ा वह युवक ज़िन्दगी से हार चुका था। क्या पता उस हँसते खेलते परिवार में आग लगाने वालों को उनकी गलती का एहसास कभी हुआ भी होगा या नहीं...!