कुसुम संग्रह की 'भूमिका' / रामचन्द्र शुक्ल
आज से पचास वर्ष पहिले हमारी स्थिति बड़ी बेढब हो रही थी। हमारे चिरपोषित साहित्य से हमारा नाता टूटने वाला था। हमारे राजनैतिक जीवन से तो हमारी भाषा टोडरमल की कृपा से मुसलमानों ही के समय में अलग हो चुकी थी। इधर जब अंगरेजों का प्रकाश हम पर पड़ा और हमें संसार की गति का ज्ञान हुआ तब हम सामयिक प्रवाह की ओर एक विदेशी भाषा के सहारे दौड़ पड़े। हमारा साहित्य जहाँ का तहाँ छूटा था, इसी बीच में भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र ने उसे उठा कर सशक्त किया और हमारे साथ उसे फिर लगा दिया। जिन जिन मार्गों पर हमारे विचार जा रहे थे उनकी ओर हमारे साहित्य को बड़ी सफाई के साथ उन्होंने मोड़ दिया। किसी जाति का साहित्य जब बराबर उसके विचारों और व्यापारों के साथ लगा हुआ चला चलता है तभी जीवित रह सकता है। अत: भारतेन्दु ने हिन्दी को बड़ी बुरी दशा में पड़ने से बचाया। यदि कहीं हमारे साहित्य का हमसे वियोग हो जाता, जिसके सब सामान इकट्टा थे, तो क्या हम सभ्य संसार में अपना मुँह दिखानेलायक रह जाते? सोचिए तो कि हिन्दी भाषी उत्तरीय क्या, राष्ट्रभाषा के नाते सारे भारत पर इनका कितना उपकार है। आज जो हम लोग नए नए विचारों को मँजी हुई भाषा में प्रकट करते और चारों ओर हिन्दी पुस्तकों और पत्रों को उमड़ते देखते हैं वह इन्हीं की बदौलत। हिन्दी को उन्नति के आधुनिक मार्ग पर ला कर खडा करने वाले यही थे। अब हमें चाहिए कि राजनीति, विज्ञान, दर्शन, कला आदिके जो जो भाव हम अपनी संसार यात्रा में प्राप्त करते जायँ उन्हें अपनी मातृभाषा हिन्दी को बराबर सौंपते जायँ क्योंकि यही उन्हें हमारी भावी सन्तति के लिए संचित रखोगी। साथ ही हमारा यह भीर् कर्तव्यह है कि उस महात्मा को जिसका यह उपदेश था-
विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार
सब देशन सों लै करहु, भाषा माँहिं प्रचार
न भूलें और न भरसक किसी को भूलने दें। संसार के समस्त सभ्य देशों में महान पुरुषों की स्मृति को जागृत रखना सच्चे लोकोपकारी कार्यों की उत्तोजना का एक साधन समझा जाता है। महात्माओं के जीवन को तो स्वार्थ स्पर्श कर ही नहीं सकता अत: उनका जो कुछ आदर किया जाता है उससे उनका कोई उपकार नहीं बल्कि समाज का उपकार होता है। उनके जीवनोपरान्त भी यदि उनका स्मरण किया जाता है तो उससे लोक का बहुत कुछ भला हो जाता है। यह बात योरप वालों के मन में अच्छी तरह बैठ गई है। वे अपने प्रतिभासम्पन्न कवियों और ग्रन्थकारों का स्मरण कराते रहने के लिए अनेक युक्तियाँ रचा करते हैं। उनकी जयन्तियाँ मनाई जाती हैं, उनके नाम पर क्लब और पुस्तकालय चलते हैं और पुस्तक मालाएँ निकलती हैं। लज्जा की बात तो है पर कहना ही पड़ता है कि हम भारतवासियों में इस प्रवृत्ति का अभाव है। यदि हम अपने साहित्य संचालकों का उचित आदर नहीं करते हैं तो संसार को यह कहने में संकोच नहीं कि हमने अभी तक विद्या की शक्ति को नहीं समझा है और हम झूठी तड़क भड़क के श्रध्दालु बने हुए हैं।हम भारतवासी बहुत कुछ ऊँच-नीच देख चुके। अब हममें सच्चे पुरुषरत्नों की परख होनी चाहिए। अब हमें उनके आदर करने का फल और माहात्म्य समझना चाहिए।
यों तो वर्तमान हिन्दी में जो कुछ देखा जाता है वह भारतेन्दु ही की प्रभा का स्मारक है पर किसी वस्तु को निर्दिष्ट किए बिना जी भी नहीं मानता। जिस कार्य के लिए किसी महान पुरुष ने प्रयत्न किया हो उसमें प्रवृत्त होकर उसे आगे बढ़ाना ही उसका सच्चा स्मरण करना है। अत: जिस वृक्ष को भारतेन्दु लगा गए उसके पत्र पुष्प से बढ़कर उनका और क्या स्मारक हो सकता है। यही विचार कर यह ग्रन्थमालिका आप लोगों के आगे रखी जाती है। इससे उस सच्ची आत्मा का एक बार स्मरण कीजिए और अपनी भाषा के प्रति अपने कर्तव्ये को ध्यान में रखिए, बस।
इस कुसुम संग्रह में, जिससे यह मालिका आरम्भ की जाती है, अधिकांशत: बंगभाषा के प्रसिध्द ग्रन्थकारों के रचे हुए गल्पों वा समाज के खंडचित्रों के अनुवाद हैं जिसमें लोगों के रहन सहन अत्यन्त यथातथ्यता के साथ अंकित हुए हैं और उनके मनोभावों तक बड़ी सूक्ष्मता से दृष्टि धँसाई गई है। इनके अतिरिक्त कुछ स्त्रियों के लिए उपयोगी प्रबन्ध भी हैं। अनुवादिका वही श्रीमती बंगमहिलाजी हैं जिनकी छोटी छोटी आख्यापयिकाएँ तथा प्रबन्ध हिन्दी पाठक सरस्वती आदि पत्रिकाओं में पढ़ते आए हैं। यहाँ पर मैं इन लेखिका महाशया के परलोकवासी पिता श्रीयुत बाबू रामप्रसन्न घोष को धन्यवाद दिए बिना नहीं रह सकता, जिन्होंने अनुग्रहपूर्वक इन लेखकों को प्रकाशित करने की अनुमति दी। पर खेद इस बात का है कि उक्त बाबू साहब इस 'कुसुम संग्रह' को अपने हाथ में न ले सके। ये महानुभाव बड़े विलक्षण विद्याव्यसनी थे और इन्हें बहुत से विषयों की जानकारी थी।
मैं बहुत दिनों तक काश्मीर में था, इससे प्रूफ आदि देखने का अवसर मुझे
इनकी पूरी जीवनी 'सरोज' नामक नवजात सचित्र मासिक पत्र में दी जायगी।
अच्छी तरह नहीं मिला। जो त्रुटियाँ रह गई हों उनके लिए क्षमा चाहता हूँ। हमें इंडियन प्रेस के स्वामी श्रीयुत बाबू चिन्तामणि घोष को भी विशेष धन्यवाद देना चाहिए। इसके दो कारण हैं। एक तो यह कि हमारी प्रार्थना करने पर आपने अपनी 'सरस्वती' में प्रकाशित लेखिका-लिखित सभी निबन्धों के उध्दातद़त करने की अनुमति सहर्ष प्रदान की और दूसरा यह कि अनेक कारणों से यह पुस्तक छपने पर भी पड़ी रही और आप ने इस विलम्ब को अपनी स्वाभाविक सज्जनता से सहन किया।
साथ ही हम पं. रामजी लाल शर्मा तथा उन महाशयों को भी हार्दिक धन्यवाद देते हैं जिन्होंने समय समय पर हमें प्रूफ आदि के देखने में सहायता दी है।
इस मालिका की दूसरी पुस्तक भी तैयार है, शीघ्र निकलेगी।
(1 सितम्बर, 1911 ई.)
[ चिन्तामणि, भाग-4 ]
(विविध पुस्तकों के प्रकाशन हेतु 'भारतेन्दु स्मारक ग्रन्थमालिका' नाम से रामचन्द्र शुक्ल ने नागरीप्रचारिणी सभा में एक योजना प्रारम्भ कराई थी जिसके अन्तर्गत पहली पुस्तक 'कुसुम-संग्रह' छपी। इसके बाद ही यह योजना बन्द कर दी गई। सभा का मुद्रण-प्रकाशन कार्य उन दिनों इंडियन प्रेस में होता था। स्त्रीरविरोधी लोगों द्वारा उपस्थित अवरोध के कारण 'कुसुम-संग्रह' पुस्तक छपने के बावजूद प्रेस में पड़ी रही। आचार्य शुक्ल को तीन चार दिन इलाहाबाद में रहकर इसे निकलवाना पड़ा।-संपादक)