कुहासा / जयश्री रॉय
सकाल-सकाल आज न जाने क्यों शरद् के आकाश का रंग पुँछे स्लेट की तरह हो रहा है- गंदा, कुहरीला ! जैसे किसी बरसाती पोखर का पंकिल, माटी घुला जल. पश्चिम के रक्तशून्य क्षितिज के एक कोने में निस्तेज चाँद पडा है- अब डूबा, तब डूबा भाव लिए. पीलिया ग्रस्त रोगी -सा पीला, विवर्ण चेहरा... कौन कहेगा, कल इसी का रूप बीच आकाश फटा पड रहा था. दो पुरसा ताड के माथे पर चढा काली डीघी के जल सतह पर चाँदी के चमचमाते सिक्के की तरह हाबुडुबु खाता हुआ, हर लहर में अबरक और मोती का चूर बिछाता हुआ... वन-वनांतर मानो रूपा की पन्नी में मडा हुआ हो... ज्योत्स्ना के ज्वार से अग-जग भीजकर धप्-धप् सफेद... ओह ! क्या एक दृश्य ! अपरूप ! दृष्टि फेरा नहीं जाता.
पारूल रोती है और सोचती है. एक ही रात में उसके मुख पर, देह पर कालिख पुत गयी है. सोने का गतर माटी हो गया है. हड्डिंयाँ जहाँ-तहाँ से चमकने लगी हैं, जैसे फुटकर बाहर निकल पडना चाह रही हो. नाक पर सिंदूर पुता है ढेर सारा, आँखें रो-रोकर जानो जपाफूल . ओह ठाकुर ! कितना जो रोई है रात्रिभर ! अपनी साडी के कोंछ में बकूल फूल जुगाडती हुई वह दोनों बाँहों से आँसू पोंछती है. गाछ का तल भोरे-भोर पीले-पीले सोने-से बकूल के झरे फूलों से आलोकित हुआ पडा है. स्तूप के स्तूप... देखकर आँखें चौधिया जाती हैं एकदम. शरद् मास- रूपसी बांगला के ऐश्वर्य के दिन !...पोखर भर कमल, कुमुदिनी के दुधिया, गुलाबी फूल, सुनहरे, गझिन धान के आलो में लहराते पाँत की पाँत कास की उजली हँसी, आकाश में इधर-उधर डोलते महीनों दिवारात्रि झरकर अपने देश लौटते हल्के-फुल्के सफेद बादलों की पालकी- जैसे कपास के रेशमी फूल, रूई के मुलायम फाहे... नील दिगंत में बगूलों की तरह अनायास उडते-फिरते हुए...
पारूल की आँखों में मगर यह सश्य-श्यामला रूप नहीं धरता. दुख के फफुँद पडकर उसकी चावनी जो मटमैली पड गयी है ! ठीक काली डीघी के जल की तरह- कितना कुछ उगा है वहाँ अगाछ-कुगाछ. छानी पडी आँख की तरह कुंद पड गया है. सामने कच्चू वन के माथे पर कुहासा टंगा है- मोटे, खुरदरे कंथे की तरह. खेत-खलिहान भीजकर एकदम जबजबा ! ऋतु ही ऐसी है यह- शरद् ऋतु- शिशिर का समय. खुले आकाश के नीचे दो दंड ठहरो नहीं कि सबकुछ गीला, एकदम जल. ऐसे में दमावालों को कष्ट होता है. बूढी सास खाँस-खाँसकर बेदम. रातभर पानी से निकले माँगुर की तरह छलबलाई. मानो कोई राख में लपेटकर बैठीं पर काट रहा हो. दारूण कष्ट. देखा नहीं जाता. भोर रात को तो दौरा चरम पर ही पहुँचता है. इसी समय पराग उडता है और रोगियों की श्वास-नली को धर दबोचता है, नलेटी चिपकर मारता है. ऐसा ही हुआ. बूढी अब गयी कि तब. आँख से रक्त ही टपक आया... पुतलियाँ चढकर उबले अंडे की तरह दिखने लगीं ! नरक यंत्रणा और क्या. विभत्स, कदर्य... दुग्गा-दुग्गा !
सोचते हुए पारूल तनिक अन्यमनस्क-सी हो गयी है. जितना भी हो, सास लगती है, कोई छोटा-मोटा सम्पर्क तो नहीं! बोलो, किस छोटी-सी उमर से उनकी सेवा-टहल में लगी है. फिर भी राक्षसी का मन नहीं मिलता, यह भिन्न बात है. जाने किस माटी की बनी है ! सिलहट-सा कठिन ह्रदय, तनिक गलता नहीं, नरम नहीं पडता !... चाहे गोड पर माथा टेककर गंगा-जमुना बहा दो. अरे तू भी तो एक स्त्री है. दूसरी स्त्री की व्यथा नहीं समझती. पिशाची की तरह रक्त पीने के लिए आतुर रहती है. - ठाकुर सब देखता है... पारूल सर उठाकर आकाश की तरह देखती है. सबकुछ यही चुकाना पडेगा पाई-पाई... कम तो दुख नहीं दिये तुमने हमको... इतने में आकाश गोरा हो आया है. पूरब का छोर रक्त लाल. क्षितिज पर सूरज का आधी चवन्नी-सा कपाल चमक रहा है. ताड के माथे पर सोने की कलगी. जंगली सुग्गे का एक झुंड कलरव करते हुए पलाश वन की ओड उडा. वहाँ गृष्म ऋतु में हर डाल पर अग्नि की सिंदूरी शिखा होती है, रक्ताभ हँसी में वन-वनांतर के होंठ लाल...... उधर चितकबडे बत्तखों का दल कवेंक-कवेंक करते हुए पोखर की ओर भाग रहा है. एक रात के विरह ने उन्हें जल संसर्ग के लिए कितना आतुर कर दिया है !...उस शीतल परस के बिना जैसे अब दो दंड भी प्राण रक्षा न हो पायेगी.
शरद् ऋतु का यह काल बंगाल की रांगा माटी में रूप, लावण्य की वन्या बहा ले आती है. खेत भरकर सुनहरा धान, धुले, स्वच्छ आकाश में अपने देश लौटते मेघों की नीली-उनियाली कतार, मानों रेशमी पतंगों का मायावी मेला लगा हो. हर तरफ गझिन खेतों के आल में कास की उजली, शुभ्र हँसी, हर ताल, पोखर में कमल, कुमुदिनी की दुधिया, गुलाबी पाँत, जल कुम्भी का हरा संभार... साथ में ढाक पर काठी की मनोरम टंकार... माँ दुर्गा के आने का परम पावन बेला... मातृपक्ष में तो अगजग पवित्र हो जाता है. असुर, पिशाच, दैत्य-दानव- जो जहाँ है, माँ के प्रचंड रूप और प्रताप से त्राहि-त्राहिकर खोह, कंदरा, पाताल- जहाँ होता है जाकर छिप जाते हैं. जो कुछ अशुभ-अशुचि है, धुल-पुँछकर एकदम साफ हो जाता है...
पारूल को अपना बचपन याद आता है. महालया के दिन सूर्योदय से पहले उठकर पूरा घर आकाशवाणी कोलकाता से प्रसारित होनेवाला चंडीपाठ सुनता था. कासर-घंटे के तुमुल ध्वनि के बीच विरेंद्र भद्र की ओजस्वी आवाज में पवित्र श्लोक पाठ के साथ बीच-बीच में गूँजनेवाले मधुर गीतों की स्वर लहरी- ‘मातीलो रे भुवॉन, मातलो रे आमार आलोर भुवॅान...’ सोचकर आज भी पारूल की देह पर काँटें उग आते हैं. माँ का तुलसी चौरे, पूरे आंगन को गोबर से लीपना, चारों तरफ गंगाजल का छिडकाव करना, मुख्य द्वार पर आम्रपत्र, सिंदूर से सजाकर जलभरे घट रखना... सूर्योदय के आभास से रक्तिम पड गये पूरब के आकाश और अजस्र पक्षियों के कलरव के बीच विरेंद्र भद्र का भर्रायी हुई आवाज में बार-बार नमस्तसय, नमस्तसय, नमस्तसय नमः नम : की आवृत्ति...
सबकुछ यादकर पारूल के नयन आज भी अश्रुपुरित हो उठते हैं. कहाँ गये वे हीरे-माणिक-से दिन, स्नेहिल माँ-बाबा, भाई-बहन, प्रेम, आन्तरिकता से आप्लावित जीवन... पारूल आकाश की तरफ देखती है- हे माँ जगत जननी ! पूरे जगत को धन्य-धान्य से पाट दिये हो, फिर मेरी ही एक कोख शून्य क्यों? माँ होकर अपनी सन्तान के दुख समझ नहीं पाते? यह बंध्या होने का कलंक, आक्षेप... इससे चरम कोई यातना नहीं इस चराचर में.
तीस बरस की अवस्था है पारूल की. विवाह को सोलह वर्ष हो गये. अभी तक एक संतान की जननी न हो सकी. इसी के लिए दिवा-निशि कुत्सा, प्रताडना में जी रही है. जो स्त्री माँ न बन सकी, वह स्त्री नहीं, उसके नाम पर एक कलंक मात्र है. ऊसर माटी है- बंजर, व्यर्थ... धिक्, तेरे जीवन पर धिक्! सास उसे उठते-बैठते रातदिन उलाहने देती है, कोसती है. वह सुनती है और सुनती है. और कर भी क्या सकती है. कुछ कहने का मुँह ही कहाँ है उसका?
शादी के बाद घरवालों ने कई साल धैर्य रखा, प्रतीक्षा की, मगर अब जैसे सबके संयम का बाँध टूट गया है. तिरस्कार, अपमान, उपालंभ चरम की कगार पर आ पहुँचा है. कम उम्र में उसने अपने पति को रूप-लावण्य के मोहपास में बाँध रखा था. देह में आकर्षण था, सौष्ठव था. मुख का नमक ऐसा कि साँवले चाँद-सी जगमगाती थी. हरिणी-सी काली, डागर आँखों की चावनी में जगतभर का टोना, साँवली देह के निर्दोष, निटोल साँचे में बंगाल का वही मीठा, मनोहर जादू...
सुहाग की पहली ही रात उसने अपने पति को बोंधु कहकर संबोधित किया था. वैसे उसका नाम बलय था. बदले में उसके पति ने उसे सोखी कहकर पुकारा था. बोंधु और सोखी- कपोत-कपोती का एक श्यामल, युवा जोडा, प्रगाड प्रेम में आदि-अंत तक आकंठ भाव से डूबे हुए. तब दीन-दुनिया का उतना ख्याल नहीं था. बस, बह रहे थे गाढे अनुराग की धार में- अदम्य, आकुल... कूल-किनारा, अग-जग डूबो-डूबोकर. प्लावन का समय था वह, घोर झंझा का, दारूण सांघातिक ! किसी बंधन का कोई माने नहीं. जो आये पथ में कटंक बनकर, समूल उच्छेद कर दो, निःशेष कर दो. ऐसा था यौवन का उन्माद ! प्रेम उन्मत्त वन्य गज-सा. सारा जगत पाँव के नीचे दलकर रख दे.
बलय दिन में दस दफा काम-काज छोडकर घर भाग आता था. कभी यह बहाना, कभी वह बहाना. देखकर सास गुस्से के मारे आग- एकदम गन-गन चूल्हा ! उधर पारूल भी लज्जा से मरी-मरी. लज्जावती की पाँत-सी, अंग में अंग चुराये, अवुंठन में बँधी कली. इससब में उसका क्या दोष, मगर दुनिया को तो जानते हो. हो न हो सारा दोष स्त्री का ! निर्दोष होने से बडा कोई दोष नहीं इस जगत में. औरत का जन्म लेकर खूब समझी है पारूल यह बात. हाड में कम तो सेंक नहीं लगा अबतक. कालिख हो गया जीवन. गंजना और गंजना. निंदा का इतना बडा बोझा. बाब्बा, ठाकुर ! उठा नहीं लेते यहाँ से मुझ हतभागी को. जला कपाल और क्या....
कितना खटी है वह अबतक इस घर-गृहस्थी के लिए. मगर कहाँ, किसी का मन तो नहीं मिला. मिट्टी-पत्थर के भगवान् ! मत्था टेक-टेककर कपाल फूट गया उसका, मगर उसका चौखट नहीं घिसा. कांड देखकर मन तिक्त-विरक्त हो गया.हाड में दूर्वा उग आया. कितना भी कहो और बोलो, कौन कर्णपात करता है?... अरण्य में रोदन, और क्या. पारूल रातदिन गज-गज करती है. खिट्-खिट् करती है. खटकर, हांडी ठेल-ठेलकर गतर गल गया, जोड ढीले पड गये. सुबह से रसोई में रांधना, कूटना, बाँटना... दस पेट, दस मुँह ! फैला हुआ कुटुंब- रावण का वंश ! किसी को यह चाहिए, किसी को वह. अहरह देही और देही. न मिले मन मुताबिक तो सौ बातें.
उसका भी तो सोचे कोई भला मानस. कोई दस भुजा है वह? दो हाथ से कितना करे वह और क्या-क्या? ऊपर से गोहाल भरकर गोरू, बाछुड, ना-ना प्रकार के दाय, झमेला. पान से चूना खिसकने का भी उपाय नहीं. फिर रोग-शोक, तीज-त्योहार, नाते-रिश्तेदार... नहीं, अगर कुछ झूठ बोल रही है पारूल तो लोग बताये. एक हाथ से सारे काज समेटे, सेते, सहेजे... मगर भूल से भी जो कोई प्रंशसा के दो बोल उच्चारे. तब देखो, आराम से मुँह में मैदा लपेटकर बैठे हैं. कृतघ्न के दल... छीः मन घिना गया उसका. इनके लिए हाड में कालिख डाल लिया ! सब वृथा, सब जल में गया.
पहले-पहल उसे अपनी आड में लिए रहा बलय. एक सख्त खूंटे की तरह उसे सहारा देता रहा. मगर हाय रे पुरूष मानुष का प्रेम ! जानू से उतरा तो ह्यदय से भी उतर गया. मौसमी फूल-सा मौसमी प्रेम, वन्या के पानी की तरह- हडहडाकर चढा और हडहडाकर उतर भी गया. पोषमास की मायावी धूप जानो, गौरैया-सी आंगन में उतरी भी नहीं कि देखो फुर्रऽऽऽ
सात जन्म का बंधन सात साल में ताश के घर की तरह धराशायी. पहले-पहल कितने राग-अनुराग, मान-मनुहार. उपहारों की भी गिनती, मात्रा नहीं. कभी अमृत पाक की दोनाभर जलेबी तो कभी कच्चे गुड का संदेश... श्याम सुंदर के मेले से जूडे का छल्ला लगा काँटा, आलता की शीशी, काजल या सिंदूर की डिब्बी... कितनी बार, कितने दफे. सोचती है तो पारूल के सीने से दीर्घ श्वास निकल आती है. वो दिन सचमुच के थे या उसने कोई सपना देखा था.
उसे याद आता है, उसबार जगधात्री पूजा के अवसर पर वह अपने मायके गयी थी सात दिनों के लिए. शादी के शुरू-शुरू के दिन थे. माँ ने खूब आदर-जतन किया था. उसदिन रात को मुहल्ले से छौ नृत्य देखकर लौटी तो अपने शयन कक्ष में बलय को चोर की तरह घात लगाये बैठे देखकर दिल धक् से रह गया. ओ माँ ! देखो इसका कांड. लज्जा का माथा खाकर बैठे हो क्या? सब देखेंगे तो क्या कहेंगे भला? ऐसा लोभीपना...छीः-छीः, क्या ही शरम की बात गो. पारूल गले में आँचल लपेटकर जमीन पर एकदम दण्डवत् होकर पड गयी थी- दुहाई तुम्हारी बंधु! इससे पहले कि तुम्हें कोई यहाँ पर देख ले, तुम चले जाओ, और जग मत हँसाओ... ओ गो, तुम्हारे दोनों पाँव पडूँ, हाथ जोडूँ, चले जाओ, बोलती हूँ चले जाओ...
मगर उसके उतने अनुनय-विनय का कोई प्रभाव बलय पर नहीं पडा था. निर्लज्ज की तरह बत्तीस दाँत निकालकर हँसता रहा था- और कुछ मांग लो सोखी, किंतु यह न दे सकूंगा. तुमसे दूर रहने का सामर्थ्य मुझमें नहीं. प्रतीज्ञा करके कहता हूँ.
नये दूल्हे का हाल-चाल देखकर ससुरबाडी में हँसी का दौरा पड गया था. भाभियाँ घूँघट के नीचे खिखिया रही थी तो जीजाजी खुलकर लताडने पर उतर आये थे. बीच में माँ-बाबा की दुर्गति- न हँसते बनता था, न रोते. बाब्बा, सो जो एक कांड हुआ था.
सोचते-सोचते पारूल झरते हुए बकूल के नीचे बैठ गयी थी. कोंछ में खूब सारा फूल सहेजे. सामने पोखर का पानी अभी तक धुंधियाया हुआ है. कमल, लिली, सिंघारे के फूल-पत्तों के बीच बत्तखों का दल लगातार पेंक-पेंकाते हुए जोई कीडा, गेंगरवा ढूँढ रहे थे. शरद् ऋतु की नर्म, मायावी धूप में सबकुछ नहाया हुआ था- नीला, स्वच्छ आकाश, हरे-श्यामल खेत, निरावरण पगडंडियों की रांगा माटी...
पारूल का मन वैराग्य से भर गया है. अब घर-गृहस्थी में मन नहीं लगता. यह मोह की मरीचिका... कबतक छलती रहेगी? जहाँ प्रेम नहीं, आत्मीयता नहीं, बस, रिश्तों के नामपर धोखाधडी, ठगी.. मुखौटा लगाकर निबाहे जाओ, बोलो, गाओ... जहाँ भीतर का टान नहीं, बस, ऊपर का चाक्-चिक्य... देह का लोभ, देह का भोग. मन तो जानो होता ही नहीं. विषय-वासना में लिप्त संसार.
स्त्री का जीवन भी क्या है ! विधाता ने उसे मनुष्य बनाया, ह्यदय दिया, करूणा दी, मगर लोगों ने उसे मात्र भोग की वस्तु समझा. भोगा और दुत्कार दिया. खोखलाकर फेंक दिया. किसी शंख की तरह. एकबार ठहरकर देखा नहीं, उस मिट्टी में भी जान है. वह धडकती है, साँस लेती है, रोती है... उसकी उपयोगिता देह की क्षुधा मिटाने में है, बच्चे जनने में है, चूल्हा-चौकी करने में है, बस, और कुछ नहीं? इतना ही है वह? पारूल सोचती है और सोचती है. जिस घर के लिए रात को रात, दिन को दिन नहीं समझा? देह को गलाया, मन को सिझाया, हाड-पंजरा तोडा... आज ऐसे दिखाते हैं जैसे मैं कोई नहीं. घर में पुसे पशु-पक्षियों के लिए भी लोगों के मन में ममता होती है, मगर उसके लिए किसी का हिया नहीं गलता. वाह री दुनिया ! देख लिए तेरे सारे रंग...
कल रात के झगडे के बाद पारूल दो दंड अपनी पलकें जोड नहीं पायी. इतने दुख, अंतरदाह... नींद आती है भला ! सास ने तो दो टुक कह दिया, अब वह अपने पूत का दूसरा ब्याह रचाकर रहेगी. खूब सब्र कर लिया, अब और नहीं. मेघ-मेघ में कम बेला तो नहीं हुआ... अब इस बूढी धोंडी से बच्चा बियाया नहीं जायेगा. तीस बरस की उमर में अब वह माँ नहीं, दादी बनने के ही योग्य रह गयी है. ओ ठाकुर ! कितना अपमान... मुँह में कोई हुडका, बेल्लारी नहीं. गल-गलकर अपशब्द बकती रही. एकदम चुरांत. मगर धन्य है बेटे का. मुँह से जो टु शब्द भी निकला हो. राम पाँठा की तरह दाडी-मूँछ लटकाये निरीह भाव से खडा रहा. देख लिये तेरे दम-खम... इसी मुँह से कभी इतनी बडी-बडी हाँकता था ! पारूल का मन डूब गया. अंतिम आशा-भरोसा भी गया. पाट की दडी की तरह गले की मोटी शिरा फुलाकर सास ऐलान कर गयी- कल बुजुंग ग्राम की हालदार कन्या के लिए पक्की बात कर आनी है. पारूल आर्शीवाद के लिए अपने कंगन के जोडे निकाल दे. बस, यही शेष बात है. और कोई फेर-बदल नहीं होगा इसमें. माँ का वाक्य वेद वाक्य ! पारूल अब इसमें कोई नाक न गलाये.
इसके बाद उसके सात जन्म का साथी, उसका बोंधु निर्विकार भाव से थाल भरकर माछ-भात गोग्रास में गिलकर ऊपर के कोठे में जाकर नाक बजाकर सो रहा. बीच रात में उसने उसे टहोके लगाये तो भी पटरे की तरह चुपचाप पडा रहा. जैसे इह जगत में ही न हो, मर गया हो. उसने आँसू बहाये, निहोरे किये, माथे की कसम भी दी, मरा मुँह देखने की चेतावनी दी, मगर सब व्यर्थ. एक अंगुल भी अपनी जगह से नहीं हिला. जैसे कुंभकरन की नींद.जो जागकर सोया हो उसे कौन जगा सकता है भला. पारूल का हिया ढिब-ढिब कर उठा- हा ईश्वर ! तब क्या बोंधु भी...
अधैर्य होकर जो आखिर उसने जांघ पर राम चिकोटी काटी, बोंधु बिलबिलाकर उठ बैठा- गिन्नी, जरा धीर धरो. माथा ठंडाकर सोचो थोडी देर के लिए. माँ क्या कुछ गलत कह रही है? इतनी जमीन-जायदाद- धान के गोले, पोखर-डोबा, गोहाल भरकर गोरू, बाछुड... आखिर किसके लिए? कोई तो चाहिए न पुरखों की देहरी में दीया बालनेवाला? यहाँ तो पूरा कूल ही निष्प्रदीप पडा है. हमारे बाद गाय-बकरी हमारे बाडी में घास चढते नजर आयेंगे. जमीन पर दुर्वा भी न उगेगा...
- मगर इसमें मेरा क्या दोष...? वह हिलक-हिलककर रोती रही थी.
- अरे बाबा, दोष की बात नहीं, व्यवहारिकता की बात है, जदि न तुम वंध्या होती..
वंध्या शब्द पिघले शीशे की तरह पारूल के कानों में पडा था. वह मर्मांतक पीडा से छटपटा उठी थी. फिर कितना रोई थी वह- हिया गला के, मरू भिजा के, अग-जग डूबो-डूबोकर... सारी रात ही. दुनिया ने प्रताडित किया, लोगों ने अबाल-तबाल बका, किस्सा, कलंक जोडा... वह सब सह गयी. ह्रुदय में पत्थर बाँधकर, मगर आज उसके बोंधु ने भी... अब तो उसका सर्वस्व गया- यह कूल, वह कूल, दोनों... न सर पर आकाश रहा, न पाँव के नीचे माटी... हा ईश्वर ! अब कहाँ जायेगी वह ! एकदम वन्या के जल में बह जायेगी अब तो. वह सर कुट-कुटकर रोती रही थी और उसी के बगल में उसका बोंधु निश्चिंत होकर भस-भस सोता रहा था. कितने कुविचार आये थे मन में. गले में दडी डालकर बकूल गाछ से लटक जाय कि काली डीघी में गले में पत्थर बाँधकर कूद जाय. मगर मरना भी क्या इतना सहज होता है. मरूँ कहने से ही मरा नहीं जाता. जीवन का मोह बडा मोह. बांझ शब्द अंतर में कील की तरह धँस गया है. नहीं वह बांझ नहीं, हो नहीं सकती...
उसे बरर्षों पहले की बात याद आती है...
उस बरस गर्मी की छुट्टी में अपने मामा बाडी गयी थी वह. जमीपुर. सुंदर ग्राम, दूसरे ग्राम बांगलाओं की तरह. छोटे-छोटे कुटी की छतवाले घर, हर घर के बगल में छोटा-सा पोखर, उसमें खिले कमल, कुमुदिनी के अजस्र फूल, बत्तखों के जोडे, घर के पीछे केले, आम, जामुन और कट्हर, ताड के पेड... जिधर देखो, जितनी दूर तक दृष्टि जाय चारों तरफ खेतों की गझिन हरियाली, मचानों पर लौकी, कद्दू की लताएँ, उनपर थियराते पीले, चमकीले फूल... रूपसी बांगला- साँवली, स्निग्ध, लावण्यमयी... देख-देखकर उसकी आँखें नहीं अघाती थीं.
अपनी सखी-सहेलियों के साथ वह भर दुपहरी आम तोडती, ईमली चुनती इस बागान, उस बागान घूमती रहती थी. कभी-कभी कलशी लेकर तालाबो में तैरती रहती, इस कोने से उस कोने तक. ईश ! क्या जो मजे के दिन थे. पोखर की सतह पर रूपहली मछलियाँ अनायास तलवार की तरह चमककर छपाक् से लहरे काटती चली जातीं, बाँस के वन में घुग्गू, तीतर रह-रहकर बोलते रहते, पीपल की नयी, मसृन पत्तियाँ आलता रंगी हथेलियों-सी चमकती, जैसे आईना दिखा रही हों...
उन्हीं निश्चिंत, अल्हड दिनों में कालीदा मिले थे. बडे जमींदार घर के छोटे बेटे. एकदिन उनके आम बागान में आम चुराने गयी थी वह सबके साथ मिलकर. मालदह आम- जैसी मीठी गंध, वैसा रसाल स्वाद. खूब तोडा था उन्होंने. उसका कोंछ भर गया था. फिर न जाने क्या हुआ था, न जाने कहाँ से बागान का चौकीदार रे-रेकर दौड आया था. सब तो भाग खडे हुए थे. बस वह ही पकडी गयी थी. इतने सारे आम लेकर वह दौड नहीं पायी थी. वह हिंदुस्तानी चौकीदार उसे पकडकर छोटे जमींदार के पास ले गया था. वह तो उस चौकीदार के भय के मारे एकदम केंचुआ बन गयी थी. कितनी बडी-बडी मूँछे थीं उसकी. उसकी अवस्था देखकर छोटे जमींदार आँखों ही आँखों में हँसता रहा था. मगर कुछ कहा नहीं था उससे. छोड दिया था उसे. वह रोऊँ-रोऊँ सूरत लेकर लौटने लगी तो खुद उसकी साडी के आँचल में सारे आम बाँध दिये. कहा, जब भी आम खाने का मन हो, मेरे पास आ जाना, मैं दूंगा, मगर चोरी मत करना. बुरी बात है. समझी? वह पुतली की तरह सर हिलाकर चली आयी थी.
दूसरे दिन काली बाबू ने खुद बुलाकर उसे आम दिये थे. फिर दूर्गा मण्डप के ईशान कोनवाले तालाब के किनारे बुला ले गये थे. बाबा रे ! वहाँ बेर के कितने सारे पेड, पके हुए लाल-लाल बेडों से लदे हुए, जैसा खट्टा, वैसा मीठा... काली बाबू खुद पेड पर चढकर डालियाँ हिलाते रहे थे. थोडी ही देर में झरे हुए बेरों से जमीन अँट गया था. उसने दोनों हाथों से चुना था.
इसके बाद वह प्रायः रोज ही जमींदार के बागान बाडी में जाने लगी थी. पहले-पहल सहेलियों के साथ, बाद में अकेली ही. काली बाबू ने ही उससे कहा था. अकेली आना तो आम, ईमली, बेर ज्यादा मिलेंगे, वर्ना सबमे बाँटना पडेगा. उसे बात जँच गयी थी. फिर अकेली जाने पर काली बाबू कितना प्यार-दुलार भी करते थे, अच्छी-अच्छी बातें करते थे. उसे भला लगता था. एकदम नया अनुभव... अंदर कुछ मीठा-मीठा पकने लगा था- गुडआम की तरह ! देहमन पकते आम की तरह गमकने लगा था. पोर-पोर में रस भर गया था जैसे. वह उसे दुलार से कालीदा कहकर पुकारने लगी थी. कालीदा कोलकाता के किसी कॉलेज के हॉस्टल में रहकर पढते थे. गर्मियों की छुट्टी में अपने गाँव आये हुए थे. परीक्षा की तैयारी के लिए रोज दोपहरों को बागान बाडी में एकांत के लिए आ जाते थे. यहाँ कोई परेशान करनेवाला नहीं था. पूर्णतया शांति थी.
एकदिन उसे अचानक बहुत उल्टी हुई. तबीयत भी घबराने लगा. देख-सुनकर दीदीमाँ ने घर का कपाट बंदकर पहले उससे पूछताछ की, फिर बाँस की पतली बेंत से कसकर पिटाई की, उसके बाद उसे मुक्तो बामुनी दायी के पास ले गयी, उस डायन जैसी प्राचीन बूढिया ने उसे चटाई पर लिटाकर कस-कसकर उसके पेट की मालिश की, कडवा, तीता काढा पिलाया, पपीता खिलाया. थोडी ही देर में उसकी साडी खून से लिथड गयी. उसके बाद दिनोंतक नानी ने घर में उसे बंद रखा, जबतक कि उसके बाबा आकर उसे अपने घर न ले गये.
बीच में एकबार वह सबकी नजर बचाकर बागान बाडी गयी थी, मगर उस हिंदुस्तानी चौकीदार ने उसे गेट से अंदर जाने नहीं दिया था. उसी से पता चला था, काली बाबू कोलकाता चले गये हैं. घर लौटते हुए कितना रोई थी वह. दुख क्या होता है, पहली बार जाना था जीवन में. और एक सत्य भी कि वह एक सम्पूर्ण स्त्री है- माँ बनने के योग्य ! आज वही सत्य उसके आत्म विश्वास का एकमात्र संबल है और दारूण दुख का कारण भी. जब लोग वंध्या कहकर उसे अपमानित करते हैं, उसके अंदर आग जल उठती है. वह जानती है, दोष उसका नहीं, कमी उसके पति में है. मगर किसी से कह नहीं पाती. कैसे कहे, इसका साक्ष्य किस तरह दे.
भोर रात को नीम पर काग के बोलते ही उठकर वह आँख, मुख में पानी छीडककर चूल्हा सुलगाने बैठ गयी थी. रातभर सोई भी कहाँ थी. आँखें ऐसे लहर रही थी जैसे उनपर मिर्ची पीसकर लेप दिया गया हो. चूल्हें में गोयठा डालकर वह फूँकती रही थी. धुआँ का कसैला बादल उसकी आँखों में घुसकर बरस गया था- टापुर-टुपुर, टापुर-टुपुर... माँ गो, नदीं में जैसे असमय वन्या. क्या जो जलन, आँखों से लेकर हिया तक. मिर्ची की धूनी लगी है छाती के पिंजरे में. पसलियाँ दुख रही हैं पके फोडे की तरह. हांडी में भात सीझ रहा है कि प्राण, कौन बताये.
भात रांधकर, दाल की हांडी चढाकर वह ठाकुर के लिए फूल चुनने निकली थी. विधवा सास इस उमर में भी अपने राधा-रमण को जल चढाये बिना स्वयं जलतक ग्रहण नहीं करती. उसके लाये फूलों की गूंथी मालाओं से अपने राधा-रमण की पूजा करते हुए बूढिया उनके पास पारूल की नालिश करती रहती है. राधा-रमण भी खीर के लड्डुओं का भोग करते हुए अम्लान मुख से उसकी निन्दा सुनते हैं. उनकी पूजा का सारा साज-सरंजाम भी उसे ही करना पडता है. वह करती भी है. भगवान् के काम में कभी हिल-हुज्जत नहीं करती. मुँह बंदकर सारा काम निपुण भाव से निपटाती है. इस भव में तो न जाने किस जन्म के दोष से जीवन बिगड ही गया. अब उस जगत में अपने कर्मों से बिगाड नहीं करनी है.
बाहर आकर उसे थोडी शांति मिली थी. प्रकृति के निर्मल संसर्ग में चित्त सुस्थिर हुआ था. पक्षियों के कलरव और शरद् की उजली भोर की नरम हवा में मन-प्राण दो घडी के लिए जुडा आया था. बकूल के झरते फूलों के बीच पेड के तने से पीठ टिकाते ही क्लांत, बोझिल आँखों में नींद उतर आयी थी. तंद्रालस दृष्टि से वह धीरे-धीरे जागती हुई दुनिया को देखती रही थी. दूर गडेरिये, किसान अपने पशुओं, हल के साथ कतार बद्ध चल रहे थे. उनके पीछे का आकाश एकदम सुनहरा हो उठा था. मबेशियों के गले में बजती हुई घंटियों की टनटनाहट और पक्षियों का अनवरत कलरव, काकली पूरे वातावरण को संगीतमय बना रहे थे. शीशम की सफेद, मुलायम डालियों से पानी की टपकती बूँदे सूरज की किरणों में हीरे की कणी की तरह दमक रही थीं.
प्रकृति के मनोहारी दृश्य में डूबी रातभर जगी क्लांत पारूल की आँख जाने कब लग गयी थी, मगर कुछ देर बाद किसी के अट्टहास से पारूल की तंद्रा टूट गयी थी. भय से विस्फारित नेत्रों से उसने देखा था, पगला राधे उसके सामने उकडूँ बैठा उसे असभ्य ढंग से घूरते हुए हँस रहा है. हडबडाकर अपने अस्त-व्यस्त कपडों को सँभालते हुए वह उठने का उपक्रम करने लगी थी. ओ माँ ! यह पगला यहाँ कहाँ से धूमकेतु की तरह प्रकट हो गया !
राधे इसी गाँव में रहनेवाला एक अनाथ युवक है. उसके माथे में गोलमाल है. कहते हैं, बचपन में कभी सर में भीषण चोट खाकर उसकी यह दशा हुई है. इस घर, उस घर से मांगकर खाता है और सारा दिन बाउल गाते हुए भटकता रहता है. कभी किसी और गाँव चला गया तो हफ्तों दिखता नहीं. पारूल के घर भी आता है. कुछ खाना मिला तो उकडूँ बैठकर हापुस-हापुस करके गोग्रास में गिलता है और फिर वही आंगन में या गोहाल में जाकर मबेशियों के बीच पडा सो रहता है. कभी-कभी तंग करने पर बलय उसे दो हाथ लगा भी देता है. तब किसी बच्चे की तरह आंगन में हाथ-पैर पसारकर हाऊ-माऊ करके घंटों रोता है. पारूल को यह सब अच्छा नहीं लगता. ऐसा जवान, बलिष्ठ देह यष्टि का पुरूष और उसकी ऐसी दुर्दशा... वह बलय को उसपर हाथ उठाने से मना करती है. पागल पर हाथ नहीं उठाना चाहिए. कभी सास की शकुन दृष्टि से छिपाकर थोडा ज्यादा चिउडा, मूडी, खजूर का गिला गुड या पानता भात उसकी अल्मुनियम की थाली में डाल देती है. पगला कृतज्ञ भाव से उसे देखता है और खाता है. जैसे उसकी करूणा को समझ रहा हो. उसे बौठान कहकर संबोधित करता है. दरवाजे पर आकर जब-तब हाँक लगाने लगता है- कोई गो बौठान, दुटी अॅन्न दाओ गो, खूब जे खिदे पेयेछे. सुनकर सास चिढती हैं- आया भुक्खड, बौठान, बौठान करके प्राणपात करनेवाला...
- तू यहाँ क्या कर रहा है रे राधे? उसे यहाँ अचानक देखकर विरक्त होकर कहते हुए पारूल ने जैसे ही उठने का प्रयत्न किया था, अचानक बाघ की तरह छलांग लगाकर राधे ने उसे दबोच लिया था. घटना की आक्समिकता से पारूल एकदम अवाक् रह गयी थी. इससे पहले कि वह कुछ समझ पाती या प्रतिरोध कर पाती, राधे ने उसका मुँह दबा दिया था और फिर उठाकर कास के वन में ले गया था. ऊँचे-ऊँचे कास के बीच दोनों पूरी तरह छिप गये थे. पारूल छटपटाती रह गयी थी, मगर उसके चंगुल से किसी भी तरह छुट नहीं पायी थी. पगला राधे की देह में जैसे असुर की शक्ति आ समायी थी. उसके हाथों के दो झन्नाटेदार थप्पड खाकर उसे गश-सा आ गया था. देरतक अपनी मनमानी करके, उसे रौंद के, धाँस के वह गाता, गुनगुनाता हुआ चला गया था. पारूल अस्त-व्यस्त खेत के आल में किसी टूटी हुई गुडिया की तरह पडी रह गयी थी.
घटना की आक्सिमिकता में उसके सोचने-समझने की शक्ति ही जैसे कुंद पड गयी थी. ऊपर शामियाने-से लगे नील, निरभ्र आकाश को तकते हुए वह निश्चल भाव से पडी थी. पूरी देह में वेदना की लहरें जल तरंग की तरह उठ-गिर रही थी. आँखों से अश्रु की अविरल धारा बह रही थी. हे ईश्वर ! अब यह क्या अघटन घट गया ! उसका तो चरम अनिष्ट हो गया. अब वह कौन-सा मुख लेकर अपने पति के पास जायेगी ! क्या लज्जा, क्या अपमान की बात गो...
वह पडी-पडी देरतक रोती रही थी. उसे सुझ ही नहीं रहा था, वह अब क्या करे. घर जाये तो किस तरह. पूरे ग्राम में ढिंढोरा पिट जायेगा. थू-थू हो जायेगी. सास उसे जीवित नहीं छोडेगी. और बलय? उसकी याद आते ही वह सर से लेकर पाँव तक काँप उठी थी. वह तो उसे जरूर त्याग देगा. लोग नर्दमा में पडे सिक्के को भी एकबार उठा लेते हैं, मगर एक लूटी हुई स्त्री को कभी नहीं स्वीकारते. अगर ऐसा हो गया तो वह कहाँ जायेगी? अब तो माँ-बाबा के बाद उसका कोई मायका भी नहीं रहा. बहने अपने-अपने ससुराल में हैं. उसी की तरह पर निर्भर और असहाय. भाभियाँ ककर्श, रूक्ष स्वभाव की. भाई उनके इशारों पर उठने-बैठनेवाले. एकदम पुसा कुकुर. तो फिर...?
अबतक जो सर पर एक छत थी, क्या अब वह भी छीन जायेगी... पति तो दूसरी शादी करने जा ही रहा है. दूसरी बधू के घर आने पर, बच्चा होने पर तो वैसे भी उसका कोई मान नहीं रह जायेगा. ऊपर से यदि उसका सतीत्व लूट जाने की बात सबके सामने खुल गयी, उसका तो सर्वनाश ही हो जायेगा. अब वह क्या करे... देरतक सोचने के बाद वह उठ बैठी थी. नहीं, मृत्यु के सिवा उसके पास और कोई दूसरा विकल्प नहीं. उसे मरना ही पडेगा.
बकूल गाछ के नीचे आकर उसने चारों तरफ देखा था. नहीं, यहाँ गले में साडी देकर झूलने से लोगों की नजर पड जाने का खतरा है. अब आसपास चहल-पहल बहुत बढ गयी है. लोग थोडी ही दूर खेत की पतली पगडंडियों से होकर गुजर रहे हैं. उनकी बातचीत की आवाज आ रही है. तो फिर... काली डीघी जाय? वह ताल अपेक्षाकृत निर्जन रहता है. उस ताल का पानी पीने योग्य नहीं माना जाता, इसलिए औरतें वहाँ पानी भरने नहीं जातीं. फिर पास के रूमड पेड, सहजन पेड में चुडैलों के बसेरा होने की अफवाह से भी लोग उधर जाने से कतराते हैं.
पिछले साल घोषाल घर की बहू हजार मना करने के बाद भी वहाँ भर दुपहरी कपडे धोने चली गयी थी. पढी-लिखी कोलकाता शहर की लडकी है. भूत-प्रेत नहीं मानती. ओ माँ ! कपडा धोके गीले बदन घर आयी तो एकदम कपाल कुंडला की तरह भयावह रूप उसका- माथे पर चढी हुई आँखें, एकदम जबा फूल की तरह लाल-लाल, अंगार झरते हुए ! ऊपर से नकियाकर पूरे वंश का माँ-बाप उठाकर सबको क्या जो अकथ्य गाली-गलौज ! सास का झोंटा पकडकर पूरे दालान में घसीटा, ससूर की धोती खींचकर उसे उलंग प्रायः कर दिया. पति बाधा देने आया तो उसके सर पर कांसे का भारी लोटा पटककर कपाल पर एक विराट आलू उगा दिया. देख-सुनकर सब अवाक्. एकदम हिम... कोई बोलेगा यह लडकी कॉलेज तक पढकर आयी है ! कितने दिन लगे थे उसके ठीक होने में. झाड-फूँक, ओझा, गुनी... क्या नहीं किया घोषाल परिवार ने अपनी बहू के लिए. तब कहीं जाकर वह सुस्थिर हुई.
इस घटना के बाद विशेषकर सधवा स्त्रियाँ वहाँ संध्या या भर दुपहरी को नहीं जातीं. मगर जब प्राण ही त्यागना है तो फिर इन बातों का क्या. सोचते हुए वह काली डीघी के पास आ खडी हुई थी.
डीघी का काला जल इस समय एकदम स्थिर था. काँच की तरह स्वच्छ और चमकीला. उसकी सतह पर सारा आकाश और ताड के ऊँचे पेडों का प्रतिबिम्ब किसी तस्वीर की तरह उतरकर ठहरा हुआ था. जैसे फ्रेम में जडा हो. कितना अद्भुत, अपरूप... देखते हुए उसे जोर से रोना आया था- हा विधाता ! यह क्या किया?...सब इस तरह से शेष कर दिया ! जल के स्वच्छ सतह पर अपना चेहरा देखते हुए अचानक उसे जीवन का मोह घेर लेता है. बोंधु, भाई-बहन, सखी-सहेलियाँ... उसके गहने- सीता हार, बाउटी बाला, बाजू बंध... पिछले ही दुर्गा पूजा में तो जूडे के लिए सोने के चार छल्ले लगे काँटें बनवायें थे. अगले महीने छोटी भांजी की शादी है. उसी में पहनने के लिए तो खासकर ढाकेश्वरी वस्त्रालय से रक्त लाल बनारसी मंगवायी थी. आज बडियाँ भी डालनी थी. रात को दाल भिगोकर रखी है. मसाला भी तैयार है. और वह जो हालदार गिन्नी को सबसे छिपाकर दो सौ रपये उधार दिये थे... वह नहीं रही तो वह तो चुपचाप हजम कर जायेगी. फिर बंधु... उसके न रहने पर निश्चय ही वह और भी जल्दी शादी कर लेगा. अनायास उसकी आँखों के सामने एक गोरी, स्वस्थ, भारी नितंब की गर्भवती स्त्री तैर गयी थी- जय ढाक की तरह विशाल पेट, कमर में एक शिशु लदा हुआ, बत्तख के बच्चों की तरह पीछे-पीछे तीन... उसके गले में पारूल का चँद्रहार, हाथ में बाउटीबाला, बाजूबंध, जूडे में सोने के छन्-छन् घुंघरू बजते काँटें... एकदम जैसे राजरानी ! ऊपर से दुलकी चाल देखो, बत्तख की तरह नितंब हिलाते हुए दशमी के दिन सधवाओं के साथ सिंदूर खेलने जा रही है... आ मोलो जा ! कल्पना कर उसका हाड-मज्जा जल उठता है.
ना-ना-ना... वह जोर-जोर से रोने लगी थी. आह ! इतना सबकुछ छोडकर वह कैसे जायगी... ओ ठाकुर ! मुझ हतभागी को कोई रास्ता दिखाओ... किस जन्म के कुकर्मों का यह परिणाम है... कैसा शाप... शाप शब्द पर आते ही जैसे पारूल के अंदर बिजली की तरह अचानक कुछ कौंधा था- शाप में वर... माने वरदान ! उसकी सास बात-बात में मुहावरे, कहावतें उद्धत करती रहती हैं और प्रायः यह कहावत दुहराती रहती है- जानो शाप में वर... ओह ! कहीं इसी शाप में तो उसके लिए कोई वर ईश्वर ने छिपाकर नहीं भेजा है?... इस शाप का फल तो उसके लिए वर के रूप में फलित हो सकता है. पगला राधे शरीर से एक स्वस्थ पुरूष है. बरसों पहले जब वह ठीक था, उसकी शादी भी हुई थी और उनकी एक बेटी भी थी. उसका दिमाग खराब होने के बाद उसकी पत्नी उसे छोडकर चली गयी थी.
तो... तो वह एक स्त्री को मातृत्व प्रदान करने में सक्षम है... ! हो सकता है कि... कि आज की इस घटना के बाद वह भी... वह भी... ओह हाँ ! क्यों नहीं, अवश्य हो सकता है, ऐसा हो सकता है... सोचते हुए अनायास वह फूल-सी हल्की हो आयी थी. नहीं ! अब वह और असहाय बनकर नहीं रोती-धोती रहेगी. यदि नियति ने उसके जीवन में दुख ही दुख लिखे हैं तो वह अपनी चेष्टा, अपने कर्म से उसे सुख में बदलकर रख देगी. दुर्भाग्य को सौभाग्य में बदल देगी. अपना भाग्य अब खुद लिखेगी... जहाँ प्रेम, सर्मपण, त्याग का मोल नहीं, वहाँ झूठ ही सही, विश्वासघात ही सही. यह दुनिया इसी के योग्य है. जैसे को तैसा ही मिलना चाहिए. उसे भी जीने का, आत्मरक्षा करने का अधिकार है. श्री भगवान् स्वयं कह गये हैं- आत्म रखकर ही धर्म ! अचानक अपने आँसू पोंछकर पारूल दृढ कदमों से अपने घर की ओर लौटने लगी थी. देखूँ तो सास कैसे मेरे बोंधु की दूसरी शादी करवाती है ! पोता चाहिए न उसे?... देती हूँ मैं उसे पोता...
अब उसके मुख पर दुखों की मलिन छाया नहीं, बल्कि सुबह का उगता हुआ उज्जवल सूरज था. वह एक आन्तरिक उछाह से आपाद-मस्तक दमक रही थी. जीवन ने उसे एक अवसर दिया है, वह इसे किसी तरह गँवाएगी नहीं.
अबतक सूरज आकाश में काफी ऊपर तक चढ आया था. पूरी दुनिया उजली धूप में नहा उठी थी. भोर का मलिन चाँद न जाने कब का डूब चुका था. कुहासा भी पूरी तरह छँट चुका था. अब चारों तरफ उजाला ही उजाला था. पारूल की चावनी के मटमैले फफुंद एकदम से पिघल गये थे. अब वह सबकुछ साफ-साफ देख सकती है. अपने जीवन में, खुशियों में लौटने का रास्ता भी...