कूड़ा-कचरा / गिरिराजशरण अग्रवाल
सफ़ाई-कर्मचारियों की दो सप्ताह तक चली हड़ताल आज समाप्त हो गई थी। नगरपालिका-प्रशासन ने एक लिखित समझौते में हड़ताली सफ़ाई-कर्मचारियों की कुछ माँगें मान ली थीं और कुछ को भविष्य में पूरा करने का आश्वासन दे दिया था। दोनों दबाव में थे। पालिका-प्रशासन नगर की सफ़ाई न हो पाने के कारण नागरिकों के भारी दबाव में था और सफ़ाई-कर्मचारी अपने-अपने परिवारों की आर्थिक स्थिति बिगड़ जाने के दबाव में, क्योंकि पालिका-प्रशासन ने हड़ताल के दिनों का वेतन न दिए जाने की घोषणा कर दी थी। कर्मचारी-वर्ग और प्रशासन का समय-समय पर होनेवाला यह संघर्ष प्रायः ऐसी ही स्थिति में आकर समाप्त हो जाता है। मैंने देखा कि सामने की सड़क के किनारे जगह-जगह कूड़े के ढेर लगे हुए थे। कालोनी के अधिकतर परिवारों ने घर के भीतर का कूड़ा निकालकर मुख्य दरवाजों के बाहर एक किनारे पर डाल रखा था। नुक्कड़ की ख़ाली जगहें कूड़े के अंबार से भर गई थीं। सड़क के दोनों तरफ़ की नालियाँ गंदगी से भरी पड़ी थीं और उनका गंदा पानी छलककर सड़कों पर बह रहा था। अजीब दुर्दशा हो गई थी, शहर की।
हड़ताल के दिनों में शहर का गंदगी से पट जाना तो स्वाभाविक ही था। वैसे भी नगरपालिका की सफ़ाई-व्यवस्था संतोषजनक कहाँ थी? सप्ताह में एक बार पालिका की कूड़ा-करकट ढोनेवाली बुग्गियाँ आती थीं और सड़कों-नालियों की सफ़ाई कर जाती थीं। सप्ताह-भर तक सड़कों, रास्तों और गली-कूचों में कूड़ा-कचरा जमा होता रहता। तेज हवाएँ चलतीं तो दूर-दूर से सूखी घास के तिनके और वृक्षों के सूखे पत्ते उड़ा-उड़ाकर लातीं और सड़कों-रास्तों पर बिखेर जातीं। घर की महिलाएँ सुबह मुँह-अँधेरे ही दिन-भर का एकत्र किया गया कचरा प्लास्टिक के थैलों में भरकर कूड़ा डालने के लिए बनाए गए स्थान पर डाल जाती थीं। इनमें फटे-पुराने रद्दी काग़जां के टुकड़े, पॉलिथीन की धज्जियाँ, दवाइयाँ की ख़ाली शीशियाँ, साबुनों, मसालों के पैकेटों तथा अन्य उपभोग की वस्तुओं के बेकार हो गए कवर पैकिग आदि होते थे। बासी सब्जियाँ और सूखी रोटियों के टुकड़े आदि भी इन थैलों में दबे-रहते थे। कुत्ते और सुअर दिन-भर कूडे़ के इन ढेरों में खाने की चीजें खोजते रहते और थैलों में भरी गंदी चीजों को बिखेरकर दूर तक फैला देते।
सफ़ाई-कर्मचारियों की दो सप्ताह की हड़ताल में स्थिति और बदतर हो गई थी। हड़ताल के अगले दिन घर से बाहर निकलकर देखा तो पाया कि नगरपालिका की कूड़ा-करकट ढोनेवाली बुग्गी घर के सामने खड़ी थी। कई और बुग्गियाँ भी इधर-उधर थीं। कर्मचारी सफ़ाई करने में मुस्तैदी से जुड़े थे। वे फुर्ती से टोकरी में फावड़े से कूड़ा भरते और बुग्गी में पलटते जाते। अन्य कई कर्मचारी सड़कों पर झाडू लगाने में व्यस्त थे। वे झाडू से बिखरा हुआ कूड़ा समेटकर छोटी-छोटी ढेरियाँ लगाते जा रहे थे, जिन्हें बुग्गियों वाले कर्मचारी उठा-उठाकर अपनी-अपनी बुग्गी में भर रहे थे।
पड़ोस के दरवाजे पर नजर डाली तो पड़ोसी विमला अपने घर की दहलीज पर खड़ी मुहल्ले की सफ़ाई होते देख रही थी। मैंने उसकी ओर नजर डाली तो उसने अपने मुख्य द्वार से ही मुझे आदरपूर्वक नमस्ते की। मैं चार पग बढ़कर उसकी ओर गया।
कैसे हो मुरारी भाई! विमलादेवी ने कुशल-क्षेम पूछने की औपचारिकता पूरी की और फिर हम दोनों काफ़ी देर तक हड़ताल के दिनों में बाहर की जो दुर्दशा हो गई थी, उस पर वार्ता करते रहे।
अधेड़ उम्र को पार कर रही विमलादेवी अपने घर में अकेली रहती हैं। पति कोई दस वर्ष पहले काम-धंधे की तलाश में दिल्ली गया था, जो आज तक नहीं लौटा। चिट्ठी-पत्री तक नहीं भेजी. कोई नहीं जानता कहाँ है, वह जीवित है भी या नहीं। विमलादेवी ने अपने पति का पता लगाने का प्रयास किया कितु सफल नहीं हो सकी।
महिलाओं की त्रसदियों में से एक भयंकर त्रसदी यह भी है। उनके पति ग़ायब हो जाने पर भी हमेशा उपस्थित रहते हैं। विमलादेवी दस वर्ष से उसकी बाट जोह रही है। पुनर्विवाह वह नहीं कर सकती, उसे खटका लगा रहता है कि यदि हरप्रसाद जीवित हुआ और घर लौट आया तो क्या होगा? घर में एक बेटी थी, जो ब्याही जा चुकी है। उसका पति इतनी क्रूर प्रकृति का व्यक्ति है कि बेटी को दुख-दर्द में भी माँ से मिलाने के लिए नहीं लाता। विमलादेवी पति की ओर से निराश होकर मेहनत-मजदूरी करके अपना पेट पाल रही है। कुछ समय पहले तक वह रद्दी अख़बारों से छोटे-बड़े साइज की थैलियाँ बनाकर दुकानदारों को बेचा करती थी, पर जबसे पॉलिथीन की थैलियों का प्रचलन बढ़ा है, काग़ज के थैलों को कोई नहीं पूछता। अब विमलादेवी शहर के पंसारियों से दालें, जीरा आदि सफ़ाई करने के लिए ले आती है। मकान घर का है, इसलिए किसी-न-किसी तरह काम चल जाता है। किसी के आगे हाथ फैलाने की स्थिति नहीं आती।
'तुम कुछ लिखना-पढ़ना जानती हो विमला' , मैंने झाड़ू लगाते हुए एक कर्मचारी की तरफ़ देखा और झाडू से उड़ रही धूल को अपने नथुनों में न घुसने देने के लिए नाक पर रूमाल जमाते हुए विमलादेवी से पूछा।
'आठवीं तक पढ़ी थी कि पिता ने मेरा हाथ हरप्रसाद के हाथ में थमा दिया। वह दिन और आज का दिन, जीवन की चक्की में पिस रही हूँ। किताब से वास्ता ही कहाँ पड़ा!' विमलादेवी ने उदास स्वर में उत्तर दिया।
'कितु साक्षरता-अभियान में तो तुम थोड़ा सहयोग दे ही सकती हो। जो पूर्ण रूप से अनपढ़ हैं, उन्हें अक्षर-ज्ञान तो दे ही सकती हो।'
विमलादेवी ने हामी भर ली, कितु वह उन दिनों को याद करके रुआँसी हो गई, जब वह स्कूल जाया करती थी। बोली, 'पिता की बुद्धि भ्रष्ट न हो जाती तो मैं ऐसी थोड़ी होती, मुरारी भाई, जैसे अब हूँ। मुझे तो पढ़ाई में इतनी रुचि थी कि बता नहीं सकती।'
मैंने दुखभरी दृष्टि विमलादेवी के चेहरे पर डाली। सिर के बाल आधे से अधिक सप़्ाफ़ेद हो गए थे। खाल मांस को छोड़ती जा रही थी। मेहनत ने उसकी आँखों के नीचे गहरे काले धब्बे डाल दिए थे।
'पिता को नशे की लत हो गई थी।' विमलादेवी ने विषय बदलकर अपने अतीत की राख कुरेदनी आरंभ कर दी, 'वह रात को पीकर नशे में झूमता घर आता, माँ से झगड़ा करता। माँ उससे पहले खाना नहीं खाती थी। बच्चों को भी रूखा-सूखा खिलाकर सुला देती थी। शोर मचाता हुआ बापू नशे में माँ को पीटने लगता तो मेरी आँख खुल जाती। मैं माँ और बापू को झगड़ा करते और एक-दूसरे से गुत्थमगुत्था होते देखती रहती।'
विमलादेवी अपने बचपन की कहानी कहते-कहते रुक गई. बोली, 'क्यों मुरारी भाई, क्या दुनिया में ऐसा कोई सफ़ाई-कर्मचारी नहीं है, जो मनुष्य के भीतर भरे कूड़े-कचरे की सफ़ाई कर सकता हो!' उसने सामने की ओर साफ़ हो गई सड़क की ओर दृष्टि उठाते हुए मुझसे पूछा, 'ठीक ऐसे जैसे यह सामने की सड़क साफ़ हो गई है। अब इस पर सूखे पत्ते और घास के ढेर नहीं बिखरे हैं।'
मैं आश्चर्य में पड़ गया। आठवीं कक्षा तक पढ़ी लड़की कैसी कवियों-कलाकारों जैसी बातें कर रही थी! उसने अपने भीतर भरे कूड़े-कचरे को साफ़ करने की जो बात कही थी, मैं अभी उसका सम्बंध सड़क पर फैली गंदगी से नहीं जोड़ सका था। कुछ क्षण मौन रहकर विमलादेवी फिर बोली, 'भगवान् की कसम मुरारी भाई, बहुत कूड़ा-कचरा भरा है मेरे भीतर। कोई ऐसा नहीं है, जो इसे ऐसे ही चमका दे जैसे सफ़ाई के बाद सामने की सड़क चमकने लगी है।'
मैं कुछ नहीं बोला। मौन खड़ा उसकी बात सुनता रहा।
' पिता पहले माँ के साथ धक्का-मुक्की करते। फिर खाना खाने बैठ जाते। माँ साँझ का बना खाना गर्म करके तथा रोटियाँ सेंक-सेंककर उन्हें देती रहती। वे गालियाँ बकते जाते, खाना खाते जाते। नशे में वे कितना खाते थे, मैं अब यह बता भी नहीं सकती। बिस्तर में दुबकी मैं माँ और पिता को कनखियों से देखती रहती। लैंप की पीली रोशनी में मुझे माँ एक निरीह प्राणी की तरह और पिता एक प्रेत की तरह दिखाई देते।
' आधी रात बीत जाती तो पिता माँ को अपने बिस्तर पर खींच लेता। मैं भय से काँप जाती। मुझे लगता, पिता के हाथों फिर माँ को प्रताड़ित होना पड़ेगा। वह नशे में होता था और मुझे लगता कि नशे में पिता माँ को फिर मारे-पीटेगा। पर कुछ देर बाद माँ लड़खड़ाती हुई पिता के पलंग से उठती। पिता एक मोटी-सी गाली देकर उससे पानी माँगता और नशे की झोंक में बाथरूम की ओर चला जाता।
'अक्सर यही होता था मुरारी भाई, अक्सर यही होता था।' विमलादेवी ने अपने अतीत में झाँकते हुए कहा, ' कई बार पैसे नहीं होते तो पिता जेवर या घर के बर्तन बेच आता था। पिता ट्रक ड्राइवर था। आधे महीने काम करता था, आधे महीने नहीं। इसीलिए बार-बार उसे काम ढूँढ़ने के लिए मारे-मारे फिरना पड़ता था। कभी किसी के ट्रक पर है तो कभी किसी के.
'छोटी उम्र में ही उसने मेरे हाथ पीले कर दिए थे।' विमलादेवी ने अपने अतीत की कहानी दोहराते हुए कहा, 'यह सब कूड़ा-कचरा ही तो है मुरारी भाई, जो मेरे भीतर भरा पड़ा है। पिता का आचरण, पति का व्यवहार, ये सारी घटनाएँ जो मैंने देखी हैं, जिन्हें मैंने भुगता है, मेरे भीतर कूड़े-कचरे की तरह भरी पड़ी हैं, इनकी सफ़ाई कैसे हो? क्या कोई इनकी सफ़ाई करनेवाला नहीं है?' विमलादेवी ख़ाली-ख़ाली दृष्टि से मेरी ओर देखकर बोली।
मैं चुप रहा, ऐसे में सहानुभूति व्यक्त करना भी पीड़ित की वेदना बढ़ा देता है। विमलादेवी कुछ देर चुप रही, फिर बोली, 'कहते हैं, कहने से मन का बोझ हलका हो जाता है, भड़ास निकल जाती है। पर मुझे नहीं लगता है मुरारी भाई, यह सच है। मैंने आज तुम ही से नहीं, पहले भी कई और परिचितों से अपने अतीत की पीड़ाएँ कहकर अपने मन का बोझ हलका करना और उस कूड़े-कचरे को निकालकर बाहर फेंक देना चाहा है, जो बचपन से मेरे भीतर जमा होता रहा है। पर क्या इसकी सफ़ाई हो सकी! सड़ांध-भरे ये ढेर तो वैसे ही हैं, जैसे पहले थे।'
मैंने देखा, सड़कों पर फैला हुआ कूड़ा भरकर बुग्गी काफ़ी दूर निकल चुकी थी। -0-