कूपमंडूक समाज को सच का आईना दिखाने वाली महिलाएं / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 26 नवम्बर 2018
शायरा फहमीदा रियाज का निधन हो गया। तानाशाह जिया उल हक के दौर में फहमीदा रियाज का पाकिस्तान में जीना कठिन हो गया था। उन पर फतवे जारी किए गए, उनके मकान पर पत्थर बरसाए गए। उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से भारत में बसने की इजाजत मांगी। एक राजनीतिक आश्रय की गुजारिश की। भारत में उनका स्वागत किया गया। वे लगभग 7 वर्ष भारत में रहीं। जब बेनजीर भुट्टो पाकिस्तान की मुखिया बनीं तब फहमीदा रियाज पाकिस्तान लौट गईं। इस तरह उन्हें दोनों देशों में रहने का अवसर मिला। उनके स्मृति में बंटवारे के पहले का देश भी दर्ज रहा। उन्होंने महसूस किया कि दोनों ही देश एक ही मांस के दो हिस्से हैं। एक तरफ कीड़े पड़ने पर दूसरी तरफ भी कीड़े बिलबिलानेे लगते हैं। यह कुछ इस तरह है कि एक जुड़वा की पीठ पर कोड़े बरसाओ तो दूर बसे दूसरे भाई की पीठ लहूलुहान हो जाती है। एक को मलेरिया होता है तो दूसरा ठंड से कांपने लगता है। एक आवश्यकता से अधिक भोजन कर लेता है तो दूसरे को जुलाब लग जाता है। एक की भूख दूसरे को सारी रात जगाए रखती है। दोनों को एक से सपने दिखते हैं। कोई सरहद सपनों को दो फांक नहीं कर पाती।
फहमीदा रियाज का गुनाह क्या था? उनकी कविताओं में साधनहीन का दर्द अभिव्यक्त होता था। वे कुप्रथाओं के खिलाफ लिखती थीं। मजहब की गलत व्याख्याओं की आलोचना करती थीं। इत्तेफाक यह है कि आज ही पाकिस्तान में बनी फिल्म 'बोल' दूसरी बार देखी। एक हकीम साहब अपनी कमाई तो बढ़ाते नहीं परंतु बच्चे पैदा करते रहते हैं। वे सात पुत्रियों के पिता हो जाते हैं। उनका एकमात्र मासूम-सा पुत्र इंसानों के वेश में भेड़ियों की हवस का शिकार हो जाता है। हकीम साहब झूठी लोक-लाज के भय से स्वयं अपने पुत्र की हत्या कर देते हैं। भ्रष्ट पुलिस मोटी रिश्वत मांगते हैं तो एक कंजर से धन लेकर सजा से बचते हैं परंतु एक तवायफ से निकाह करना पड़ता है। चकला चलाने वाला यह शर्त इसलिए रखता है कि हकीम साहब की सात पुत्रियां हैं। गोया कि उनका बीज स्त्रीलिंग है। चकलों में कन्या के जन्म का जश्न मनाया जाता है, क्योंकि हर कन्या युवा होकर टकसाल बन जाती है। सांस्कृतिक रूप से गिरे हुए समाज में चमड़े के सिक्के चलते हैं। गुरुदत्त की 'प्यासा' में साहिर साहब ने चकलों में कैद लम्हा- लम्हा रौंदी जाती स्त्रियों के दर्द को बयां किया था और संगीतकार सचिन देव बर्मन ने उसे इस तरह रचा कि कीमे की तरह कूटी जाने वाली नारी को साज की तरह माना और न्यूनतम वाद्य यंत्रों का प्रयोग किया। सारे विश्व की तवायफों के समान दर्द इस महान फिल्म गीत में अभिव्यक्त हुआ। पाकिस्तान की शायरा सारा शगुफ्ता को एक दौर में पागलखाने भेज दिया गया था। उनकी नज्मों से कूप मंडूक समाज आहत हो जाता था। पागलखाने के डॉक्टरों ने उन्हें पागल नहीं माना। सारा शगुफ्ता की नज्में कुछ इस तरह थी मानो निर्मम समाज ने उन्हें तेजाब पिला दिया और उन्होंने अंगारे उगल दिए। इस शायरा द्वारा अभिव्यक्त यथार्थ से घबराकर जाहिल लोगों ने उन्हें रेल की पटरियों पर बांध दिया और इस हत्या को आत्महत्या कहकर प्रचारित किया गया। हम भी तो अमृता शेरगिल और अमृता प्रीतम से आतंकित रहे हैं।
मूर्ख और जड़ पुरुष शासित समाज में स्त्रियां दोयम दर्जे के नागरिक मानी जाती हैं और इस पर वह अगर शायरी करती हैं तो पुरुष केंद्रित समाज के लिए वह नीम चढ़ा करेला हो जाती हैं। शायरा उसके लिए नाकाबिले-बर्दाश्त हो जाती हैं। तवायफ गोश्त की एक चलती-फिरती दुकान है जिसके पीछे लम्पट कुत्ते दौड़ते हैं। जिसके लार टपकाते जबड़े में जो कुछ फंस जाए, वह उसकी ताउम्र जुगाली करता रहता है।
महान दार्शनिक सिगमंड फ्रायड का कथन है कि जहां से भी वे गुजरे उन रास्तों पर उनसे पहले कोई कवि जा चुका था, जिसके पैरों के चिह्न पर पैर रखते हुए वे सही मार्ग पर चले। हमारे सोचने समझने वाले स्वर्ण काल में कवि को वैद्य कहा जाता था, क्योंकि कवि रुग्ण समाज का डॉक्टर होता है। कवि नाड़ी विशेषज्ञ होता है। वह समाज की नब्ज देखता भी है और दुखती रग पर हाथ भी धर देता है। कविताएं मानवी इच्छाओं, सपनों और डरो का मेनिफेस्टो होता है। हुक्मरान को अवाम का दर्द समझने में कवि ही सहायता कर सकते हैं परंतु वह तो कपियों से घिरा रहना पसंद करता है। वहीं उसके हम खयाल, हमसफर, हमसाया हैं। वे उसके हमजाद भी हैं। फहमीदा रियाज और सारा शगुफ्ता की तरह ही कश्मीर के दर्द का बयां करती थीं- हब्बा खातून।