कूप-मण्डूक / सुकेश साहनी
"विजय कहाँ है?" उन्होंने पत्नी से पूछा।
"दोस्तों के साथ फ़िल्म देखने गया है।"
"मुझसे पूछकर क्यों नहीं गया?" वे चिल्लाए, "मैं अभी मरा तो नहीं हूँ।"
"आखिर बात क्या है?" वह हैरान थी।
"बात पूछती हो।" उन्होंने आँखें निकालीं, "ये आजकल की फ़िल्में! तुम बच्चों को बर्बाद करके छोड़ोगी।"
"पड़ोसी बता रहे थे-अच्छी पारिवारिक फ़िल्म है, तभी मैंने जाने दिया। आपको हुआ क्या है?" फिर थोड़ा रुककर बोली, "सुबह से घर में बैठे-बैठे बोर हो गए होंगे। न हो तो थोड़ा घूम आइए, मन ठीक हो जाएगा।"
"साफ-साफ क्यों नहीं कह देतीं कि घर से चला जाऊँ! अब तुम्हें मेरा घर पर रहना भी नहीं भाता!" उन्होंने चटपट चप्पल पहनी और घर से बाहर सड़क पर आ गए।
पत्नी से हुई तकरार से उनका दिमाग़ अभी तक भन्ना रहा था। "कलयुग! घोर कलयुग! !" वे बुदबुदाए।
उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि किधर जाएँ! हर महीने उन्हें अपने पुश्तैनी मकानों के किरायेदारों से किराया लेना होता था और यह काम वह कर चुके थे। अब उनके पास करने को कोई काम नहीं था। तभी सामने से जोशी आता दिखाई दिया। उन्हें लगा, जोशी उनसे कन्नी काटकर निकलना चाहता है। वे उसके बिल्कुल सामने खड़े हो गए।
"कहो क्या हाल है?" जोशी ने पूछ लिया।
"जोशी, तुम्हें नहीं लगता, हालात दिन-प्रतिदिन बहुत खराब होते जा रहे हैं?"
"कैसे हालात?"
"यही कि दुनिया हम जैसे लोगों के रहने के काबिल नहीं रही। आज की पीढ़ी किस क़दर पथ-भ्रष्ट हो गई है।" उन्होंने निराशा से सिर हिलाया, "ये लोग देश को रसातल में पहुँचाकर छोड़ेंगे हम लोग अपने ज़माने में ऐसे तो नहीं थे!"
"आखिर बात क्या है?" जोशी के चेहरे पर ऊब के लक्षण दिखाई देने लगे थे।
"तुमने कभी सोचा, इस स्थिति के लिए कौन जिम्मेवार है?"
"मैंने इस पर कभी नहीं सोचा," जोशी ने घड़ी देखते हुए जल्दी से कहा, "मुझे बच्चों को योगा सिखाने जाना है, देर हो रही है। फिर कभी फुर्सत में बातें होंगी।"
उन्हें जोशी की बुद्धि पर तरस आया। उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि आख़िर लोगों को क्या होता जा रहा है!
वे काफ़ी देर तक सड़कों पर फालतू घूमते रहे। फिर थककर बैठ गए। सत्तर वर्षीय गुरबख्श बढ़ई पूरी तन्मयता से दरवाज़े के पल्लों पर रंदा चला रहा था।
"गुरबख्श, बहुत खराब वक़्त आ गया है!" वे थकी आवाज़ में बोले।
"की होया?" उसने बिना सिर उठाए पूछा।
"दो-दो जवान बेटों के होते हुए भी अपनी हड्डियाँ गला रहे हो। मैं तुम्हारी जगह होता तो दोनों को लात मारकर घर से निकाल देता।"
"नहीं बाबूजी, इस उम्र में पैसों के लिए थोड़े न काम करता हूँ। वाहे गुरु ने इन हाथों को हुनर दिया है, वह किसी काम आ सकें, यही इच्छा है। रही बात बच्चों की उन्हें यह काम पसंद नहीं था, इसलिए अपनी मर्जी के कामों में लग गए हैं।"
"फिर भी ये आजकल के लड़के अपनी जिम्मेवारी तो समझते नहीं हैं। एक हमारा ज़माना था।" उन्होंने ठंडी सांस ली। वे बोलते रहे और गुरबख्श जवाब में हूँ-हाँ करते हुए अपने काम में लगा रहा।
"बाबूजी चाय पियोगे?" थोड़ी देर बाद गुरबख्श से पूछा। "नहीं जी, बहुत-बहुत मेहरबानी!" वे चिढ़कर बोले-"आप अपना काम करो!" वे उदास कदमों से घर की ओर लौट पड़े।
रास्ते में पान की दुकान पर टी.वी. में कार्टून शो चल रहा था और कुछ बच्चे टी.वी. देखकर तालियाँ पीट रहे थे। उन्होंने जलती निगाहों से पान वाले को देखा।
"भाई साहब," वे दुकान पर सिगरेट सुलगा रहे एक व्यक्ति से बोले, "आपको नहीं लगता टी.वी. हमारे समाज में बढ़ती हुई हिंसा के लिए ज़िम्मेदार है?"
उस व्यक्ति ने उन पर कोई ध्यान नहीं दिया और सिगरेट सुलगाकर दुकान से आगे बढ़ गया।
"सब के सब जाहिल! बेवकूफ!" वे चिल्ला पड़े। -0-
