कृपया दायें चलिए / अमृतलाल नागर / पृष्ठ 9

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जी-हुजूर क्रान्ति

गदर से लगभग 15 वर्ष बाद ही अंग्रेजी पढ़े-लिखों की बिरादरी काफी बढ़ गई थी। मिडिल और स्कूल लीविंग सर्टिफिकेट ही नहीं, कुछ लोग तो बी.ए. और एम.ए. तक भी ढैया छूने लगे थे।

अंग्रेजी के सर्टिफिकेट बटोरना और फिर चर्चा कर शेखी बधारना अंग्रेजी पढ़े लिखे वर्ग अर्थात् बाबू वर्ग की चलती-फिरती विशेषता बन गई। अंग्रेज हाकिम को नौकरी के लिए अर्जी देते समय हिन्दुस्तानी अदबो-आदाब के बड़े-बड़े अजीबों-गरीब उल्थे किए जाते थे।

अति आदरणीय हुज़ूर,

बडे़ विश्वस्त सूत्र से यह जानकर कि आपके बडें काइंड कंट्रोल में एक क्लर्क की जगह खाली हुई है, मैं बड़ी आज़िजी के साथ, दस्तवस्ता, हुजूर की खिदमत में यह अर्जी लगाता हूं।

मेरी योग्यता के बारे में मोस्ट हम्बली निवेदन है कि मैं बहुत ही रिस्पेक्टेबिल फेमिली का हूं तथा मेरे पुरखे भी सदा से इंग्लैण्ड की क्वीन मलका विक्टोरिया तथा अंग्रेज के लायल रहे हैं।

मैं भी हुजूर को यह आश्वासन दिलाता हूं कि हुजूर को हर मौके पर अपनी लायल्टी से संतुष्ट रखूंगा।

मैं दर्जा....(4-5 क्लाइमेक्स मिडिल तक) अंग्रेजी पढ़ा हूं तथा देव नागरी और फारसी (दोनों या किसी एक) का अच्छा अभ्यास है।

मेरे आदरणीय हुज़ूर, यदि इस मोस्ट हम्बुल एंड लायल सर्वेन्ट को अपने संरक्षण में लेंगे तो मैं हुज़ूर को पूर्ण संतोष प्रदान करने के हेतु कोई पत्थर बगैर उल्टाए न रहूंगा (शैल लीव नो स्टोन अनटर्न्ड)। हुजूर की दीर्घ आयु और उन्नति के लिए हुज़ूर की मेम साहब और बाबा लोगों की उन्नति के लिए जब तक जिऊंगा, गाड़ आलमाइटी से नित्य दुआ मांगा करूंगा और मेरे बाद मेरे बच्चे भी यही दुआ करते रहेंगे और हुज़ूर का यश जब तक सूरज और चांद रहेंगे- (यावत चन्द्र दिवाकरौ) सारी दुनिया में कायम रहेगा।

मैं हूं हुज़ूर का मोस्ट

हम्बुल सर्वेन्ट

(दासानुदास का अंग्रेजी अनुवाद)

अंग्रेजी भाषाविद्, हुज़ूर के इस दासानुदास ने पगड़ी उतारकर फेल्ट टोपी पहनी और लम्बा कालरदार कोट वास्कट और नेकटाई-पतलून डाटकर उसे अपने-आपको अंग्रेजों से भी अधिक विलायती मानना आरम्भ कर दिया।

एक ऐसी लहर चली कि जिसमें अंग्रेजी पढ़े-लिखे बाबू को हर हिन्दुस्तानी चीज़ से नफरत हो गई थी। अपने अंग्रेज हाकिमों तथा पादरियों के समान ही ये पढ़े-लिखे बाबू भी वेदों को जंगलियों की गीतों की किताब कहने लगे थे। उन्हें हिन्दुस्तानी भोजन से अरुचि होने लगी थी; डबल रोटी और मांस-मदिरा तथा धूम्र-पान उस समय बाबुओं के लिए एक बड़ी क्रान्तिकारी एवं आवश्यक वस्तु हो गई थी। गांधी जी की आत्मकथा में उनके मांसाहार वाले प्रसंग में उनके मित्र का जो तर्क है वह उस समय का प्राय: सार्वभौमिक तर्क माना जा सकता है। मांस खाने वाले जवान अमांसाहारियों से प्राय: यही कहते कि मांसाहार से मनुष्य बलवान होता है, अंग्रेज़ों की बल-बुद्धि का एकमात्र कारण मांस और मदिरा ही है। यह होते हुए भी जहां तक मुझे पुराने बाबू साहबों से पूछताछकर मालूम हुआ है वहां तक मैं निश्चित रूप से यह कह सकता हूं कि हिन्दुओं ने बाबू बनकर भी, विद्रोही बनकर भी अंग्रेजों की समानता पाने के लिए कभी गोमांस ग्रहण नहीं किया। अपवाद रूप में दस-पांच अति विद्रोही बाबू शायद हुए हों तो हुए हों।

जी हुज़ूर बाबू अंग्रेज़ी पढ़कर अंग्रेजों की तरह हिन्दुस्तानी बोलना भी सीख गए।

आटा-जाटा, वैडमास, डर्टी निगर, काला आदमी कहने में उन्हें मज़ा आता था। अंग्रेज साहबों के सामने दुम हिलाना और स्वदेशवासियों के सामने गुर्राना एक आम फैशन की बात हो गई थी।

एक सबसे खराबी की बात बाबू दृष्टि से यहां पर यह थी कि उन्हें अंग्रेजों के समान स्वच्छन्दतापूर्वक अपनी मेमों को लेकर बाहर घूमने का मौका नहीं मिलता था। आम तौर पर ये बाबू अपनी पत्नियों और घर की स्त्रियों से घृणा करने लगे थे। स्त्रियां बबुआइनें नहीं हो पाई थीं। जिस प्रकार के खान-पान और आचरण में बाबू का रस उमग चुका था, उसमें भारतीय नारी के लिए अधर्म और अनाचार के सिवा और कुछ भी न था।

बाबू ने अपने मनोरंजन के लिए एक समझौता किया, वह वेश्यागामी हो गया। वेश्यागामिता इसके पहले केवल रईसों और सामन्तों के बीच ही अति प्रचलित थी। औसत आमदनी के लोग इस लम्बे खर्च वाले मनोरंजन को बर्दाश्त ही नहीं कर सकते थे। लेकिन बाबू के लिए यही समझौता श्रेयस्कर था। आदाब अल्काब, शीरी गुफ्तगू और मैनोशी के लिए तवायफ का कोठा उम्दा जगह थी। वहां जाकर बाबू की हिन्दुस्तानी ज़बान सुधर जाती थी। नये बढ़ते हुए बाबू वर्ग में वेश्यागामिता प्राय: एक आन्दोलन के रूप में आई। वे दिन भारतीय पत्नियों के लिए बहुत ही बुरे थे। हमारी स्त्रियों द्वारा गाए जाने वाले ढोलक के गीतों में वेश्याओं के विरुद्ध बहुत कुछ कहा गया है :

रंडी घर जाना छोड़ो सनम..........।। रंडी घर.।।

सोने की थलिया में भोजन परोसा

सौतन संग खाना छोड़ो सनम......रंडी घर.।।

सोने की शीशी मीने का प्याला

रंडी संग पीना छोड़ो सनम.....।। रंडी घर.।।


एक गीत में कहा गया है :


जब से चला है रंडी का रखना

कदर बीबी की- कदर प्यारी की गई मेरी जान


इस प्रकार के कई गीत उस ज़माने में रचे गए थे।


इसी जी-हुजूर क्रान्ति में बाबुओं ने अपने नामों के साथ अपने जाति नाम भी जोड़ने शुरू कर दिए थे। शर्मा, वर्मा, राजवंशी, यदुवंशी, सक्सेना, श्रीवास्तव, कपूर, मित्र, बाजपेई, नागर- इन सबकी की जुड़ाई इसी वक्त में हुई। नाम रखने में भी सतर्कताबरती जाने लगी- मांगीलाल, घूरेलाल, सद्दीलाल, मटरूलाल, झब्बनलाल, दूधनाथ आदि किस्मों के नाम भला अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोगों को क्योंकर पसन्द आ सकते थे। सद्दीमल, एस. माल हो गए, देवीप्रसाद कपूर डी.पी. कैम्फर हो गए, बाबू राजकिशोर अंग्रेजी कोट-पतलून में बहुत अकडे तो शराब के झोंक मे अपने नाम की अंग्रेजी स्पेलिंग को उल्टाकर जे. इरोक्सा हो गए। हां, स्त्रियों के नामों में विशेष परिवर्तन नहीं हुआ। उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम तीन दर्शकों में जन्म देने वाली हमारी दादियां मटका, डिब्बा, चुहिया, कुल्हड़, मीरो, झुन्नो, मुन्नो आदि ही बनी रहीं।

हमारी पितामह पीढ़ी में सब अधर्मी और कुकर्मी ही बने हों सो बात नहीं, बहुतों में अंग्रेजी पढ़ने के बाद राष्ट्रीय भावना और स्वाभिमान भी जागा।

अंग्रेज जाति के प्रति आदर-भाव रखते हुए उन्होंने अपने देश और धर्म को हीन मानने से दृढ़तापूर्वक इंकार किया। गदर के बाद बाबू का व्यापक प्रसार होने के साथ ही साथ हम भी देखते हैं कि इस देश में सामाजिक सुधार आन्दोलनों का जन्म हुआ। वेद, उपनिषद् और गीता ने इस बाबू वर्ग की आध्यात्मिक ही नहीं राष्ट्रीय भावना कों भी बड़ा बल दिया। और इसी बल के साथ उन्होंने मूर्ति-पूजा और रूढ़ियों के खिलाफ जेहाद भी ठाना। बंगाल के ब्रह्म समाज, बम्बई के प्रार्थना समाज और उत्तर भारत के आर्यसमाज के रूप में यह सुधारवादी आन्दोलन बवंडर की तरह उठा और देशव्यापी हुआ।


सनातन धर्मावलम्बियों के लिए यह ब्रह्मचारी आर्य बाबू भी उतने ही बुरे थे जितने कि अंग्रेजी चाल ढाल वाले साहब बाबू।


ये ब्रह्मवादी आर्य बाबू सभा-सोसाइटियां बनाते, पुरानी जातीय पंचायतों के विरुद्ध नये जातीय क्लब बनाते, जातीय ‘समाज’ स्थापित करते, जातीय समस्याओं के सुधारवादी हल लेकर अखबार प्रकाशित करते, बाल-विवाह के विरुद्ध और विधवा-विवाह के पक्ष में लेक्चर देते और लेख लिखते पंडों-पुरोहितों की भी भरपेट खिल्ली उड़ाते तथा विलायत गमन के सिद्धान्त का जोरदार समर्थन करते थे।


बात यदि कहीं तक सीमित रहती तो रूढ़ियों के प्रति निष्ठावान सनातनधर्मी वर्ग इन लोगों को भी धर्मभ्रष्ट म्लेच्छ क्रिस्तान मानकर उपेक्षापूर्वक मुंह फेर लेता, परन्तु ये आर्य बाबूगण साहब बाबुओं के समान चरित्रहीन और पतित नहीं थे- वरन ये लोग वेद मंत्रोच्चार और यज्ञ-होमादि भी करते थे। ब्रह्मसमाजियों, आर्यसमाजियों से उन दिनों सनातनधर्मी लोग सौतों की तरह झोटमझोट जूझे हैं। सनातनधर्मी पण्डितों के लिए सबसे बुरी बात तो यह हुई थी कि जिन वेद-शास्त्रों की धमकी देकर वे अपने समाज पर स्वेच्छानुसार अंकुश रखते थे वे वेद आर्यसमाजियों ने जन-साधारण के लिए सुलभ कर दिए। जाति-भेद का धयान आया जिसे सनातनधर्मी रोक न पाते थे। आर्यसमाजी अपने धर्म की बुराइयों के अलावा चूंकि मुसलमान मुल्लाओं और ईसाई पादरियों से भी लोहा लेते थे, इसलिए वे हिन्दू समाज को बहुत भाते थे। सनातनधर्मी पण्डितों को अपने इन शत्रुओं से करारा झटका लग रहा था।


कानपुर की घटना है, एक बार सनातनी ब्राह्मणों के उकसाने से कुछ सनातनी सेठ भी धर्ममूर्ति धर्मावतार का पद पाने के हेतु चन्दा देकर आर्यसमाजियों के खिलाफ सनातन धर्म की सभा करने के लिए कटिबद्ध हुए। तय हुआ कि जिस तरह आर्यसमाजी बात-बात में वेद का हवाला देकर वेद-मंत्रों का अनर्थ करते हैं, उसी प्रकार सनातनी पण्डित भी बात बात में मंत्रों का हवाला दें और उसके सही अर्थ बतलाएं। कानपुर-भर के पण्डितों के यहां ढुंढैया मची, किसी के घर वेद ही न मिला।


आर्यसमाजी विद्वानों में ऐसे अनेक विचित्र लोग भी थे जो हर पश्चिमी वैज्ञानिक आविष्कार को वेद से खोज निकालते थे। गैस, बिजली, रेल, तार, भाप सब कुछ वेदों से निकल आता था। पश्चिमी भौतिक विज्ञान के नित्य नये-नये आविष्कारों को आर्यसमाजियों के वेदों ने हीन भावना में फंसने प्रभावित से काफी हद तक बचाया। मैंने अपने देश के बुड्ढों से बड़ी-बड़ी आश्चर्यजनक बातें सुनी है। सुना है कि हमारे ऋषि-मुनी तांबे की पटरियों पर रेल चलाते थे, सोने और जवाहरात का प्रयोग कर ऐसी तरकीब से दीपक बनाते थे जो गैस (बाद में बिजली भी) की रोशनी से सौ गुना ज्यादा प्रकाशवान होते थे। मेरी अपनी धारणा तो यह है कि यदि आर्यसमाज का आन्दोलन न चला होता और उनके वकील अनेक विचित्र विद्वानों ने यदि वेदों का विज्ञान की खान न सिद्ध किया होता तो बाबू देवकीनन्दन खत्री अपने अमर तिलस्मी उपन्यास ‘चन्द्रकान्ता / देवकीनन्दन खत्री’ की कल्पना न कर पाते।