कृष्णा सोबती / निमिषा सिंघल
भारतीय कथाकारों में जिन कथाकारों को स्त्री मन की गाॅंठ खोल देने वाला कहा जाता है उनमें से एक नाम है कृष्णा सोबती।
इन्हें हिन्दी की पहली नारीवादी लेखिका का भी दर्जा हासिल है।
लोगों के मर्म को छूता उनका लेखन साहित्यिक आकाश में रोशनी बनकर उभरा।
गुलाम भारत में जन्मी कृष्णा सोबती के पास पंजाब, शिमला और दिल्ली की हजारों महिलाओं के सांझा व व्यक्तिगत अनुभव थे। आपने ख़ुद को कभी भी लेखिका नहीं माना बल्कि ख़ुद को एक लेखक नागरिक ही माना। कृष्णा सोबती जी कथाकार व निबंधकार थी आपका जीवन आपका लेखन, विद्रोह, स्वतंत्रता को दर्शाता है।
आपका लेखन बड़ा ही सहज स्वाभाविक, व्यावहारिक,सुथरी रचनात्मकता, संयमित अभिव्यक्ति के लिए जाना जाता है। आपने हिन्दी कथा भाषा को एक विलक्षण ताज़गी दी है।
कृष्णा सोबती का जन्म पंजाब प्रांत के गुजरात शहर में 18 फरवरी 1925 को हुआ था, जो अब पाकिस्तान का हिस्सा है। इनकी शिक्षा दिल्ली और शिमला में हुई। इन्होंने अपने तीन भाई बहनों के साथ स्कूल में अपनी शुरुआती शिक्षा की पढ़ाई शुरू की। इनका परिवार औपनिवेशिक ब्रिटिश सरकार के लिए काम किया करता था। उन्होंने शुरुआत में लाहौर के फतेहचंद कॉलेज से अपनी उच्च शिक्षा की शुरुआत की थी, परंतु जब भारत का विभाजन हुआ तो इनका परिवार भारत लौट आया।
दिल्ली से अन्य विशेष प्रेम था इनका परिवार 6 महीने दिल्ली और 6 महीने शिमला रहता था। विभाजन के तुरंत बाद इन्होंने 2 साल तक महाराजा तेज सिंह के शासन में कार्य किया जो कि सिरोही, राजस्थान के महाराजा थे।
किशोरावस्था में कृष्णा जी दिल्ली के तालकटोरा स्टेडियम में हॉकी खेलने जाया करती थीं।
आपकी रचनाओं में भारत पाकिस्तान विभाजन के बाद का परिदृश्य दिखाई देता है।
आपका रचनात्मक लेखन सोलह-सत्तरह वर्ष की उम्र से ही शुरू हो गया था।
“मार्फत दिल्ली” में उन्होंने विभाजन के बाद की सामाजिक, साहित्यिक और राजनीतिक छवियों को अंकित किया है।
कृष्णा जी ने उसे समय को सघन नागरिक भाव से ज़िया है और इतिहास की कुछ निर्णायक घटनाओं को उनके बीच खड़े होकर देखा है। आज़ादी का उत्सव और विभाजन का दर्द उन्होंने एक साथ महसूस किया है।
बापू की अंतिम यात्रा भी हजारों देशवासियों की नम ऑंखों के साथ देखी थी।
आपका पहला कहानी संग्रह “बादलों के घेरे” सन 1944 में प्रकाशित हुआ।
इस कहानी संग्रह के लिए आपको 1980 में सम्मानित किया गया था।
भारत-पाकिस्तान के विभाजन की विभीषिका, कृष्णा सोबती के लिए सृजन का माध्यम बन गई और आपका पहला उपन्यास ‘डार से बिछुड़ी ‘1958 में प्रकाशित हुआ ।
आप की प्रसिद्ध कृतियाँ हैं जिंदगीनामा, मित्रो मरजानी, सूरजमुखी अंधेरे के, यारों के यार, तिन पहाड़, ऐ लड़की, दिलो- दानिश, हम हशमत,समय सरगम, मुक्तिबोध, जैनी मेहरबान सिंह,गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिंदुस्तान तक इत्यादि। आपके लेखन ने एक बड़े पाठक वर्ग को अपनी ओर आकर्षित किया।
मित्रों मरजानी आपका एक चर्चित उपन्यास था जिसमें हशमत नामक चित्रकार ने अतृप्त नायिका का नायाब चित्र बनाया था।
बाद में पता चला कि हशमत नाम का ये चित्रकार स्वयं कृष्णा सोबती जी ही थी। हशमत नाम से इन्होंने लेखन भी किया हुआ है और हशमत नाम से प्रकाशन भी करवाया था।
आपको ज़िन्दगी नामा के लिए 1980 में साहित्य अकैडमी पुरस्कार,1996 मैं साहित्य अकादमी का फैलो बनाया गया था जिसे अकादमी का सर्वोच्च सम्मान कहा जाता है.1981 में शिरोमणि पुरस्कार,1982में हिन्दी साहित्य पुरस्कार, 1982 में ही हिन्दी साहित्य शलाका पुरस्कार,1999 में पहला कथा चूड़ामणि पुरस्कार, हिन्दी अकादमी पुरस्कार,2008 में आपके उपन्यास ‘समय सरगम’ को व्यास पुरस्कार, 2017 में भारतीय साहित्य के सर्वोच्च सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया।कुछ अन्य सम्मान भी दिए गए।
आपके प्रकाशनों का स्वीडन,रूसी और अंग्रेज़ी में अनुवाद भी किया गया।
आपका लेखन हिन्दी में खासकर स्त्री लेखन में शांत शीतल तालाब में पत्थर बनकर उभरा जिसने पूरे तालाब में हलचल मचा दी।
आप स्त्री के जीवन और विडंबना को रेखांकित करने वाली लेखिका रही है। तरह-तरह की पारिवारिक सत्ताओं पर प्रश्न चिह्न लगाना आपके शानदार लेखन की उपलब्धि रहा है। आपने शुचिता के बहुत सारे सिद्धांतों को अपने लेखन के जरिए चुनौती देने का कार्य किया।
आपकी की प्रमुख कृतियाँ
मित्रो मरजानी (1966) : तीन भाइयों के संयुक्त परिवार में विवाहित एक महिला ‘मित्रों’ अपनी अतृप्त इच्छाओं की पूर्ति की इच्छा रखने वाली स्त्री के रूप में दिखाई गई है वह अपशब्द बोलती है और अक्सर न्याय और नैतिकता से सम्बंधित पारिवारिक मुद्दों पर खड़ी देखी जाती है। जिसकी आदर्शवादी तरीके से घर वापसी होती है। सबसे पहले, प्रकाशकों ने उपन्यास को अस्वीकार कर दिया। एक बार रिलीज़ होने के बाद, इस काम ने हिन्दी जगत को स्तब्ध कर दिया।
जिंदगीनामा (1979) : उनका सबसे महत्त्वाकांक्षी काम, जिसे व्यापक रूप से एक महाकाव्य उपन्यास माना जाता है। इसने साहित्य अकादमी पुरस्कार जीता, जिससे वह यह सम्मान पाने वाली पहली महिला हिन्दी लेखिका बन गईं। यह पंजाब के एक ग्रामीण गाँव की कहानी है। दशकों तक फैली एक मनोरंजक कथा में हिन्दी की कई बोलियाँ शामिल हैं, जो इसे एक अद्वितीय साहित्यिक पाठ बनाती है। सोबती ने 20 साल की उम्र में पहला प्रारूप बनाया था और इसे प्रकाशन के लिए भी भेजा था, लेकिन इसकी प्रतियाँ वापस ले लीं, क्योंकि पाया कि प्रकाशक ने कई शब्द बदल दिए थे। लगभग तीन दशक बाद इसका संशोधित संस्करण प्रकाशित होने से पहले उन्होंने पांडुलिपि को अपने पास रखा।
ऐ लड़की (1991) : एक मरती हुई बूढ़ी औरत और उसकी बेटी के बीच एक मार्मिक बातचीत। इस उपन्यास में, वे जीवन, मृत्यु और एक महिला के जीवन में विवाह और प्रेम के स्थान के बारे में बात करते हैं।
हम हशमत: एक पुरुष छद्म नाम के तहत लिखते हुए, उन्होंने 15 वर्षों में लिखी गई तीन खंडों में अपने समकालीन लेखकों की ज्वलंत प्रोफ़ाइल तैयार कीं। इस कार्य की बनावट – पहला खंड 1977 में था – उनके अन्य कार्यों से उल्लेखनीय रूप से भिन्न है।
मित्रो मरजानी के बाद
पाठक सोबती पर फिदा हो गए यह इसलिए नहीं हुआ कि वह साहित्य और देह के वर्जित प्रदेश की यात्रा पर निकल पड़ी थी बल्कि इसलिए की ऐसी महिलाएँ समाज में तो थी लेकिन लोग उनका ज़िक्र करने से डरते थे। ज़िन्दगी नामा, दिलो दानिश में आपने विभिन्न प्रकार के स्त्री चरित्रों की रचना की। आपने संयुक्त परिवारों में मानवीय सम्बंध, त्योहार, चिंताएँ, पाखंड इन सभी को बखूबी उभारा है। अपने उपन्यासों और कहानियों में आपने स्त्री को दुनियादारी समझने वाली लचीली सोच रखने वाली, स्त्री के रूप में दर्शाया है।
उनके एक साक्षात्कार के कुछ अंश
भारतीय ग्रंथों में अर्धनारीश्वर की एक अद्भुत अवधारणा है, एक ऐसा अस्तित्व जिसमें पुरुष और महिला दोनों शामिल हैं। यह मेरी कला में प्रकट होता है। इस उभयलिंगी रूप के साथ प्रयोग करने का प्रयास करते हुए, मैंने एक उपनाम हशमत, एक पुरुष नाम, के तहत लिखा। मुझे आश्चर्य हुआ कि मेरे लेखन की बनावट के अलावा, जब मैंने हशमत के रूप में लिखा तो मेरी लिखावट भी बदल गई। कोरे काग़ज़ पर छपे शब्दों की रूपरेखा वैसी नहीं थी जैसी कृष्णा सोबती ने लिखी थी। यही कला की जटिलता है, एक लेखक होने का आनंद है। आप अपने स्वयं के साक्षी बन जाते हैं क्योंकि यह आपके सामने प्रकट होता है।
मैं ‘महिला साहित्य’ में विश्वास नहीं करती। सिद्धांतकार इस संकीर्ण तरीके से ग्रंथों का विश्लेषण कर सकते हैं, लेकिन, मेरे लिए, महान ग्रंथ मर्दाना और स्त्री दोनों तत्वों को जोड़ते हैं। महिलाओं के बारे में कोई उपन्यास केवल इसलिए कम प्रामाणिक नहीं हो जाता कि वह किसी पुरुष द्वारा लिखा गया था। हाल ही में, एक पुस्तक मेले में, किसी ने मुझसे पूछा कि एक महिला होने का क्या मतलब है। मैंने जवाब दिया कि मुझे संविधान से वही अधिकार मिलते हैं जो एक आदमी को मिलते हैं।
कृष्णा सोबती जी के उपन्यास और कहानियों से कुछ अंश
जिंदगीनामा से
“मुकदमे का मुॅंह माथा-पीछे,
उसकी पीठ की छानबीन पहले”
“फौजी बंदे दुनिया जहान घूमने निकल जाऍं
लेकिन अपना दिल पोटली मैं बाॅंधकर अपने पिंड के पुराने रुख पर लटका जाते हैं।“
“मनुक्ख के मन को किसने बाॅंधा है!जिधर बह गया,बहने लगा।“
“रुख वहीं रहता है उसके रखवाले बदलते रहते हैं।“
मित्रो मरजानी से कुछ अंश
“महाराज जी न थाली बाॅटते हो... न नींद बाॅटते हो,
दिल के दुखड़े ही बाॅंट लो।“
“सस्सी के पुन्नु याद रख, खांड का बताशा और नून का डला घुल कर ही रहेगा।“
अपनी पुस्तक ‘शब्दों के आलोक में ’ कृष्णा सोबती लिखती हैं
‘लेखक से बड़ा लेखन है और लेखन से भी बड़े वे मूल्य हैं, जिन्हें जिन्दा रखने के लिए इंसान बराबर संघर्ष करता आया है, बड़ी से बड़ी क़ीमत चुकाता आया है, लेखन मात्र लिखना ही नहीं, लिखना जीना है, भिड़ना है, सामना करना है, उगना है, उगते चले जाना है।’।
हिंदी के सुधी समालोचक, कवि डॉ ओम निश्चल जी के अनुसार।-
“कृष्णा सोबती जिन्होंने एक अच्छी व्यवस्था में परवरिश पाई, हवेली जैसे घरों में रहीं, हमेशा नौकर-चाकर वाले घरों में पलीं, उन्होंने अपने अनुभवों से समाज की स्त्रियों में जैसी सुगबुगाहट देखी-सुनी उसे ही अपने उपन्यासों कहानियों में व्यक्त किया।”
“कृष्णा सोबती अपने कथा साहित्य में जिस साहसिकता का प्रतीक मानी जाती हैं वह उनके व्यक्तित्व को एक शाश्वत ऊँचाई देता है।“
प्रमुख साहित्यकार कवि श्री अशोक वाजपेयी जी बताते हैं कि कृष्णा सोबती के निकट रहे गिरधर राठी ने कृष्णा सोबती की जीवनी लिखने के लिए प्रयत्न कृष्णा जी के जीवन-काल में कर दिया था और यह जीवनी इस अर्थ में असाधारण है कि इसमें स्वयं कृष्णा जी द्वारा दी गयी जानकारी का समावेश है।
कृष्णा सोबती ने गिरधर राठी से अपनी बातचीत में कहा भी है
‘मेरे लिए कुछ भी सहज-सरल नहीं रहा। हर काम में विघ्न बाधा, विरोध, उलझाव का सामना करना पड़ा।’
अपनी पुस्तक ‘शब्दों के आलोक में ’ कृष्णा सोबती लिखती हैं
‘लेखक से बड़ा लेखन है और लेखन से भी बड़े वे मूल्य हैं, जिन्हें जिन्दा रखने के लिए इंसान बराबर संघर्ष करता आया है, बड़ी से बड़ी क़ीमत चुकाता आया है, लेखन मात्र लिखना ही नहीं, लिखना जीना है, भिड़ना है, सामना करना है, उगना है, उगते चले जाना है।‘
गिरधर राठी, कृष्णा सोबती के लिए लिखते हैं-
‘‘दूसरों की निगाह से अपने को देखती हूॅं तो एक मगरूर घमंडी औरत, चमक-दमक वाला लिबास और अपने को दूसरों से अलग समझने वाला अंदाज अपनी नज़र से अपने को जांचती हूँ तो एक सीधी-सादी खुद्दार शख्सियत। वक़्त और ख़ुदा दोनों ही जिस पर ज़्यादा मेहरबान नहीं- फिर भी अपने जिगरे के ज़ोर से जिन्दादिल।’’
गिरधर राठी के अनुसार कुछ आलोचकों का आक्षेप है कि कृष्णा सोबती की रचनाओं में संयोगों की भरमार है। वे आगे बताते हैं कि ख़ुद उनके जीवन में संयोगों का घटाटोप-सा छाया रहा जिसकी एक मिसाल कृष्णा सोबती और शिवनाथ का सहजीवन है। गिरधर राठी ने कृष्णा – शिवनाथ अध्याय का शीर्षक दिया ‘नदी नाव संयोग’ अपने में बहुत कुछ कहता है।
इन दोनों की जन्मतिथि और जन्म वर्ष एक है, दोनों की माताओं का नाम एक, लाहौर में दोनों पढ़े।इन संयोगों के कई-कई आदि हैं।देश की आज़ादी और बंटवारे के बाद शरणार्थियों की आवक और नयी दिल्ली के बढ़ने-बनने के सूक्ष्म ब्यौरे शिवनाथ और कृष्णा जी दोनों की किताबों में मिलते हैं।
92 वर्ष की उम्र में उन्होंने मुक्तिबोध की जन्मशती पर उन्हें एक पुस्तक के रूप में श्रद्धांजलि दी- ‘मुक्तिबोध: एक व्यक्तित्व सही की तलाश में। मुक्तिबोध के प्रति उनकी आस्था 1964 से ही रही जब वे एम्स अस्पताल में थी।अशोक वाजपेयी जी, उनकी पत्नी रश्मि जी और श्रीकान्त वर्मा जी वहाॅं उपस्थित रहे।
25 जनवरी 2019 को आप पंचतत्व में लीन हो गई।
आपका पूरा जीवन साहित्य, जीवट, उल्लास, जिजीविषा की अदम्य मशाल रहा।