कृष्ण का नामकरण / बलराम अग्रवाल
पात्र—
कंस—मथुरा का राजा
चाणूर—कंस का मंत्री
शिशुपाल—कंस का मित्र
मटकासुर—नन्दगाँव की गतिविधियों पर नजर रखने को नियुक्त कंस का भरोसेमंद गुप्तचर
ब्रह्मर्षि गर्ग—नन्दबाबा के पुरोहित
सैनिक 1 व सैनिक 2 तथा एक द्वारपाल व दो सेवक चँवर अथवा बड़ा पंखा डुलाने वाले।
महाराज कंस का दरबार लगा हुआ है। बीच में कंस का सिंहासन है जो कुछ ऊँचाई पर है। उसके दाएँ-बाएँ दो सेवक चँवर हिला रहे हैं। निचले स्थान पर दो कुर्सियाँ कंस की बायीं ओर तथा दो कुर्सियाँ कंस की दायीं ओर रखी हैं जिनमें से एक में उसका मंत्री चाणूर तथा दूसरी में उसका मित्र शिशुपाल बैठा है। शेष दो पर अन्य दरबारीगण बैठे हैं। द्वारपाल का प्रवेश।
द्वारपाल—महाराज की जय हो।
उसके यह बोलते ही सभी दरबारीगण अपना-अपना दायाँ हाथ ऊँचा उठाकर तीन बार बोलते हैं—
समस्त दरबारीगण (अपने स्थान पर बैठे-बैठे दायाँ हाथ ऊँचा उठाकर)—महाराज की जय हो...महाराज की जय हो... महाराज की जय हो।
कंस (आत्मविमुग्ध स्वर में)—आ...ऽ...हहा-हा, अपने राजा को कितना आदर और कितना सम्मान देने वाला सभ्य दरबार है मथुरा का। क्यों न हो? राजा अगर अपने सेवकों की सुख और सुविधाओं का भरपूर ख्याल रखने वाला हो, उनके अपराधों की ओर से आँखें मूँदे रखने वाला हो तो सेवक भी अपने राजा के मान-सम्मान का उतना ही ख्याल जरूर रखते हैं। महाराज कंस प्रसन्न हुए। कहो द्वारपाल, क्या कहने के लिए आए हो।
द्वारपाल—नन्दगाँव से एक गुप्तचर द्वार पर आया खड़ा है महाराज। वह आपकी सेवा में उपस्थित होना चाहता है।
कंस (आश्चर्य से चौंककर)—नन्दगाँव से गुप्तचर? तुरन्त भेजो, तुरन्त भेजो।
द्वारपाल—जो आज्ञा महाराज। (जाने लगता है)
कंस—और सुनो...तुम दुनियाभर के लोगों को द्वार पर रोकने के लिए नियुक्त हुए हो, लेकिन हमारे किसी भी गुप्तचर को द्वार पर रोकना अपराध है। उसमें भी नन्दगाँव से आए गुप्तचर को रोकना तो महान् अपराध है। भविष्य में ध्यान रहे।
द्वारपाल—इस बार क्षमा करें महाराज। भविष्य में ऐसी चूक फिर कभी नहीं होगी।
कंस (हार्दिक प्रसन्नता के भाव से)—नन्दगाँव से गुप्तचर! समय नष्ट न करो...तुरन्त भेजो, तुरन्त।
द्वारपाल चला जाता है और साथ में गुप्तचर को लेकर आता है।
गुप्तचर—वीर शिरोमणि महाराज कंस की जय हो।
समस्त दरबारीगण (अपने स्थान पर बैठे-बैठे दायाँ हाथ ऊँचा उठाकर)—महाराज की जय हो ...महाराज की जय हो... महाराज की जय हो।
कंस—सुखी रहो...सुखी रहो मटकासुर। क्या शुभ समाचार लाए हो? सुनाओ।
मटकासुर—समाचार यह है महाराज कि नन्दगाँव में श्रीमान नन्दबाबा के घर में आज सुबह एक बालक का नामकरण संस्कार हुआ है।
कंस (अपने स्थान से उठकर क्रोधमिश्रित उपहास के स्वर में)—नन्द ‘बाबा’ के यहाँ! कितनी बार आदेश दिया है रे मूर्ख कि नन्द मथुरा-नरेश महाराज कंस का घोर शत्रु है। तो उसके नाम से पहले श्रीमान लगाने की जरूरत है और न बाद में ‘बाबा’ वगैरह की।
मटकासुर—इस बार क्षमा करें महाराज। भविष्य में ऐसी चूक फिर कभी नहीं होगी।
कंस (उसकी नकल उतारते हुए)—इस बार क्षमा करें महाराज। भविष्य में ऐसी चूक फिर कभी नहीं होगी (फिर क्रोधपूर्वक) यह कंस मथुरा का महाराज है या पाँचवीं कक्षा तक की किसी पाठशाला का अध्यापक? (सभी से पूछता है) बोलो।
मटकासुर, द्वारपाल व सभी दरबारीगण-आप मथुरा क्षेत्र के एकछत्र राजा और हम से पालनहारे अन्नदाता हैं महाराज।
कंस—तो फिर हर आदमी को एक ही बात अलग-अलग क्यों समझानी पड़ रही है?
मटकासुर—सेवक की इस भूल को क्षमा करें महाराज।
कंस (गुप्तचर के निकट खड़े द्वारपाल की ओर संकेत करके)—मथुरा के संबंध में अभी कुछ देर पहले एक बात इस मूर्ख द्वारपाल को समझाई थी। तब इसने क्षमा माँग ली। अब तूने गलती और तू क्षमा माँग रहा है! (सभी की ओर देखकर घोषणा करता है) कान खोलकर सुन लो-यह महाराज कंस का दरबार है। इसमें हमारे हित का काम करने वाले को भरपूर ईनाम दिया जाता है लेकिन हमारे मन से अलग काम करने का ईनाम या तो आजीवन कारावास है या फाँसी।
समस्त दरबारीगण (अपने-अपने स्थान पर खड़े होकर दायाँ हाथ ऊँचा उठाकर)—न्याय शिरोमणि मथुरा नरेश महाराज कंस की जय हो।
कंस (अपने स्थान पर बैठते हुए)—ठीक है...ठीक है। सुनाओ मटकासुर, नन्द के घर में बालक के नामकरण का पूरा हाल सुनाओ।
मटकासुर—वेद ऋ़षि गर्ग ने वह सारा काम कराया है महाराज।
कंस—नाम क्या रखा गया है बालक का?
मटकासुर—बालक का नाम कृष्ण रखा गया है महाराज।
कंस (क्रोधपूर्वक सिंहासन से उठकर)—कृष्ण !!! उस ब्राह्मण की यह हिम्मत ? उसे बन्दी बनाकर तुरन्त हमारे दरबार में हाजिर किया जाए।
कंस के इस वाक्य के साथ ही मंच पर प्रकाश व्यवस्था व ध्वनियों के द्वारा भगदड़ का आभास दिलाया जाता है जबकि उसका दरबार पहले की तरह ही लगा रहता है। कुछ ही देर में सब-कुछ सामान्य हो जाता है। दो सैनिक ब्रह्मर्षि गर्ग को पकड़कर दरबार में लाते हैं।
दोनों सैनिक—महाराज की जय हो।
कंस—खुश रहो...खुश रहो...किस महात्मा को पकड़कर लाए हो? क्या अपराध किया है इसने?
सैनिक 1—आपके आदेश से नन्द के पुरोहित गर्ग को पकड़कर लाए हैं महाराज।
सैनिक 2—नन्द के बेटे का नामकरण इसी ने कराया था महाराज।
कंस—ओ...ऽ...आपके चरणों में दण्डवत प्रणाम करता हूँ ब्राह्मण देवता।
ब्रह्मर्षि गर्ग—स्वस्थ और सुखी रहो कंस।
कंस (क्रोधपूर्वक)—यह मथुरा के महाराज का दरबार है। यहाँ आदर के साथ आशीर्वाद देकर ही आदर पा सकोगे ब्राह्मण देवता। ध्यान रखो-हम केवल कंस नहीं, महाराज कंस हैं।
गर्ग—हमारी नजर में आप केवल कंस हैं।
कंस—बहस मत करिए। यह बताइए कि क्या आपने नन्द के घर एक बच्चे का नामकरण संस्कार कराया।
गर्ग—कराया।
कंस—हमने घोषणा करा रखी है कि समूचे मथुरा नगर में हर बच्चे के जन्म की सूचना उसके माँ-बाप शासन में दर्ज कराएँगे और उसके नामकरण आदि कर्म करने की लिखित आज्ञा स्वयं आचार्य शासन से प्राप्त करेगा। ऐसा करने के लिए क्या आपने शासन से आज्ञा ली?
गर्ग—मैं व्यवसायी पंडित नहीं हूँ कंस।
कंस (क्रोधपूर्वक सिंहासन से खड़ा होकर)—लेकिन मैं व्यवसायी राजा हूँ। मेरे आदेश का उल्लंघन यानी मृत्युदण्ड।
गर्ग—मृत्युदण्ड तो तुम अपने आदेश का उल्लंघन किए बिना भी दे देते हो कंस।
कंस—बहस मत करो ब्राह्मण। यह बताओ कि बच्चे का नाम क्या रखा तुमने।
'गर्ग—हम नाम रखते नहीं, नाम सुझाते हैं केवल। बच्चे का रंग मेघ जैसा काला है। इसलिए उसका नाम मैंने कृष्ण सुझा दिया।
कंस—कृष्ण !!! तुम्हारा दिमाग तो ठीक है गर्ग। राजा के प्रति मर्यादा का बिल्कुल भी ध्यान नहीं है तुम्हें? ‘क’ अक्षर से तो मथुरा के महाराज का नाम शुरू होता हैकृकंस। हमारे अलावा इस राज्य में आगे किसी भी बच्चे का नाम ‘क’ से शुरू नहीं होना चाहिए।
गर्ग—ठीक है। वापस जाकर नन्दबाबा को मैं बच्चे का नाम ‘श्याम’ सुझा देता हूँ।
शिशुपाल (एकाएक खड़ा होकर)—नहीं-नहीं, ‘श’ से मेरा नाम शुरू होता है—शिशुपाल। मैं महाराज कंस का विश्वासपात्र और का राजा हूँ। बच्चे का नाम मेरे नाम के पहले अक्षर ‘श’ से रखने की गलती मत करना।
गर्ग—कोई बात नहीं। बच्चा साँवला जरूर है लेकिन है चितचोर। मैं उसका नाम ‘चितचोर’ ही सुझा दूँगा।
चाणूर (अपने सिंहासन से उठकर)—‘च’ अक्षर से भी बच्चे का नाम शुरू करने की गलती मत करना ब्राह्मण। ‘च’ से महाराज कंस के चतुर और बुद्धिमान मंत्री मुझ ‘चाणूर’ का नाम शुरू होता है।
कंस—नाम का पहला अक्षर मैं तुम्हें सुझाता हूँ गर्ग। और अपने राजा की आज्ञा मानकर तुम इसी अक्षर से नन्द के बच्चे का नाम सुझाओगे नहीं बल्कि बलपूर्वक रखवा दोगे।
गर्ग—अक्षर बताओ कंस।
कंस—बचपन में हमने ‘ग’ पढ़ा था...ग से गधा...(हँसता है) बस, इसी अक्षर से तुम नन्द के बच्चे का नाम रखोगे। जाओ।
गर्ग—गोविंद और गोपाल ‘ग’ से ही शुरू होते हैं कंस। मैं ये नाम भी नन्दबाबा को पहले ही सुझा चुका हूँ।
कंस—अपने महाराज के मन की बात को न समझकर उनसे बहस करता है गर्ग ? (सैनिकों से) सैनिको ! इस घमण्डी ब्राह्मण को वसुदेव और देवकी के साथ कारागार में डाल दो।
दोनों सैनिक आजू-बाजू से गर्ग को पकड़कर ले जाने लगते हैं।
गर्ग (जाते-जाते)—झूठी बड़ाई कर-करके इन दरबारियों और दोस्तों ने तुम्हारे घमण्ड को बहुत बढ़ा दिया है कंस। घमण्ड ने तुम्हारी बुद्धि को नष्ट कर दिया है।
कंस (गर्ग की बात पर जोरों से हँसता है)—हा-हा-हा-हा...
गर्ग—किसी भी अक्षर पर राजा का एकाधिकार नहीं होता कंस। (यह कहते हुए गर्ग को मंच से बाहर ले जाया जाता है। शेष संवाद नेपथ्य से आते रहते हैं) अक्षर तो स्वयं ईश्वर है। तुम कोई भी अक्षर सुझाओ, हर अक्षर से नन्द के बालक का नाम बनेगा, याद रखना।